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तृतीय खण्ड · द्वितीय अध्याय इस प्रकार पुरुप व्याधि, औषध एवं क्रियाकाल की सक्षिप्त व्याख्या समाप्त हुई । आचार्य सुश्रुत ने इस पाठ की चिकित्सा वीज नाम से व्याख्या की है।
वीजं चिकित्सितस्यैतत् समासेन प्रकीर्तितम् । सविशमध्यायशतमस्य व्याख्या भविष्यति ॥ (सु सू १)
द्वितीय अध्याय चिकित्सा के भेद-चिकित्सा तोन प्रकार की होती है १ आसुरी २ मानुषी ३. देवी । शल्यकर्म के द्वारा यत्र-शस्त्र-क्षार-अग्नि के द्वारा जो चिकित्सा की जाती है उसे आसुरी चिकित्सा कहते है। काढा-चूर्ण-गुटिका प्रभृति काष्ठौपधियो के द्वारा जो चिकित्सा की जाती है उमे मानुपी चिकित्सा कहते हैं तथा धातूपधातु की भस्म, खनिज द्रव्य, रसोपरसो से जो चिकित्सा की जाती है वह दैवी चिकित्सा कहलाती है । उनको क्रमश एक दूसरे से श्रेष्ठ माना गया है । तात्पर्य यह है कि आसुरी से मानुपी और मानुषी से देवो चिकित्सा श्रेष्ठ मानी जाती है ।
आसुरी मानुपी देवी चिकित्सा त्रिविधा मता। शस्त्रः कपायैर्लोहाद्यैः क्रमेणान्त्या सुपूजिता॥ अधम शस्त्रदाहाभ्या मध्यमो मूलकादिभिः ।
उत्तमो रसवैद्यस्तु सिद्धवेद्यस्तु मान्त्रिकः ।। महपि आग्रेय ने चिकित्सा के तीन भेद बतलाये हैं। १ दैवव्यापाश्रय, २ युक्तिव्यपाश्रय, ३ सत्त्वावजय । इनमे देवव्यपाश्रय उपक्रमो मे मंत्र, औषधि, मणिधारण, मगलकर्म, बलि कर्म, उपहार, होम, नियम, प्रायश्चित्त, उपवास, स्वस्त्ययन, प्रणिपात तथा गमनादिक कर्मों का ग्रहण हो जाता है। यक्ति व्यपाश्रय चिकित्सा मे आहार-विहार-औषधि द्रव्यो की विविध योजनायें जैसे क्वाथ-चूर्ण-गुटिका-अवलेह, रस-भस्म, संशोधन तथा सशमन प्रभृति विविध आधिभौतिक उपायो का समावेश हो जाता है।
सत्त्वावजय-इस चिकित्सा मे विशुद्ध आध्यात्मिक तत्त्वो का उपयोग आ जाता है जिस मे अहित विषयो से मन का रोकना प्रधान उपक्रम होता है । इन तीनी उपक्रमो मे अधिक व्यावहारिक प्रथम तथा द्वितीय उपक्रम नाम से देव तथा यक्ति व्यमाश्रय ही होते हैं । जिसमे प्रथम आधिदैविक ( Metaphysical & Psycological ) तथा द्वितीय आधिभौतिक ( Materialistic ) कहे जा सकते है । इसी अर्थ से लिखा मिलता है -