Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन-आगम-ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क १९ (३)
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितवृत्तिविभूषितम्
तृतीयो विभागः
सम्पादकः संशोधकश्च पूज्यपादमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी
मुनि जम्बूविजयः
-: प्रकाशक :श्री महावीर जैन विद्यालय
मुंबई ४०००३६
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शचुंजयतीर्थ-पालीताणा गीरिवर दरिशन विरला पावे
Jain Entration International
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Ecation International/
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन-आगम-ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क १९ (३)
नवाङ्गीटीकाकारश्रीमदभयदेवसूरिविरचितविवरणविभूषितं
पञ्चमगणधरदेवश्री सुधर्मस्वामिपरम्पराऽऽयातं
श्री स्थानाङ्गसूत्रम्
तृतीयो विभागः
सम्पादकः संशोधकश्च पूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टालङ्कारपूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्यरत्नपूज्यपादगुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी
मुनि जम्बूविजयः
सहायकाः मुनिराजश्री धर्मचन्द्रविजय-पुण्डरीकरत्नविजय-धर्मघोषविजय-महाविदेहविजयाः
-: प्रकाशक:श्री महावीर जैन विद्यालय
मुंबई ४०००३६
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं संस्करणम् :
वीर संवत् २५३० / विक्रमसं. २०६० / ई. स. २००३
प्रतय: ५००
मूल्यम् रू. ५५०=००
प्रकाशकः
श्रीमहावीर जैन विद्यालयः
ओगस्ट क्रान्तिमार्ग, मुंबई ४०००३६.
मुद्रक :
मुद्रेश पुरोहित सूर्या ऑफसेट
आंबली गाँव, बोपल रोड, अहमदाबाद
फोन : ०७९-३७३२११२
टाईप सेटींग
श्री पार्श्व कोम्प्युटर्स
५८ पटेल सोसायटी, जवाहर चोक, मणिनगर, अमदावाद फोन : ३०९१२१४९
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jaina-Agama-Series No. 19 (3)
STHANANGASŪTRA
PART III
with the commentary by Acārya Sri Abhayadev-Sūri Mahārāja
नम्र सूचन
इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की करें. कृपा जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें.
1
critically edited by MUNI JAMBŪVIJAYA
disciple of
His Holiness Muniraja
SRI BHUVANAVIJAYAJI MAHĀRĀJA
SRI MAHĀVĪRA JAINA VIDYALAYA MUMBAI 400 036
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
First Edition : Vir Samvat 2530 / Vikram Samvat 2060 / A.D. 2003
Copies : 500
Price : Rs. 550=00
Published by : The Secretary, Sri Mahāvira Jaina Vidyālaya August Kranti Marg, Mumbai-400 036. Printed by : Mudresh Purohit Surya Offset Ambli Gam, Bopal Road, Ahmedabad Phone : 079-3732112 Composed By Shree Parshva Computers 58, Patel Society, Jawahar Chowk, Maninagar, Ahmedabad. Tel : 30912149
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सिद्धगिरिमंडन श्री ऋषभदेव भगवान
श्री शगुंजयतीर्थाधिपति श्री आदीश्वरपरमात्माने नमः
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शंखेश्वरजी तीर्थमा बिराजमान देवाधिदेव
श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐ ह्रीँ श्री नाकोड़ा-पार्श्वनाथाय नम :
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
ॐ ह्री श्रीं क्लीं ब्ल्यूँ श्री नाकोडा-भैरववीराय नम :
श्री नाकोडा-पार्श्वनाथ जिनप्रासाद
2012
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
લોલાડા મંડના શ્રી શાંતિનાથ ભગવાન
લોલાડા (તા. સમી, જી. પાટણ) (શ્રી શંખેશ્વરજી તીર્થ પાસે, ૧૨ કિ.મી.દૂર) પિન-૩૮૪૨૪૨.
anelibrary.org
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
तपगच्छ श्री श्रमण संघना घणा मोटा भागना श्रमण भगवंतोना गुरुदेव
परमपूज्य पूज्यपाद तपरिवप्रवर पं. श्री मणिविजयजी गणी (दादा)
जन्म-विक्रमसं. १८५२, भादरवा सुदि, अघार (विरमगाम पासे) दीक्षा-विक्रमसं. १८७७, पाली (मारवाड) पंन्यासपद-विक्रमसं. १९२२, जेठ सुदि १३ अमदावाद स्वर्गवास विक्रमसं. १९३५, आसो सुदि ८ अमदावाद
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूज्यपाद महातपस्वी गणिवर्य पं. श्री मणिविजयजी महाराज (दादा) ना शिष्यत्न पूज्यपाद संघस्थविर आचार्यदेव श्री १००८
विजय सिद्धिसूरीश्वरजी (बापजी) महाराज
जन्म : वि. सं. दीक्षा : वि. सं. पंन्यासपद : वि. सं. आचार्यपद : वि. सं. स्वर्गवास : वि. सं.
१९११ श्रावण सुदि १५, वळाद (अमदावाद पासे) १९३४ जेठ वदि २, अमदावाद १९५७, सुरत
१९७५ महा सुदि ५, महेसाणा २०१५ भाद्रपद वदि १४, अमदावाद
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूज्यपाद संघस्थविर आचार्यदेव श्री १००८ विजयसिद्धिसूरीश्वरजी (बापजी)
महाराजना पट्टालंकार पूज्यपाद आचार्यदेवश्री विजयमेघसूरीश्वरजी महाराज
जन्म : वि. सं. १९३२ मागशर सुदि 6, देर दीक्षा : वि. सं. १९५८ कारतिक वदि ९, मींयागाम-करजण पंन्यासपद : वि. सं. १९६९ कारतिक वदि ४, छाणी आचार्यपद : वि. सं. १९८१ मागशर सुदि ५, अमदावाद स्वर्गवास : वि. सं. १९९९ आसो सुदि १, अमदावाद
ucation International
For P
ale & Personal use only
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ.પૂ.આચાર્યશ્રી વિજયવલ્લભસૂરીશ્વરજી મ.સા.
જન્મ તિથિ દિક્ષા તિથિ સ્વર્ગવાસ તિથિ :
વિ.સં. ૧૯૨૦ કારતક સુદ બીજ (ભાઈબીજ), વડોદરા. વિ.સં.૧૯૪૩ વૈશાખ સુદ ૧૩, રાધનપુર. વિ.સં.૨૦૧૦ ભાદરવા સુદ ૧૦ મંગળવાર, તા.૨૨/૯/૧૯૫૪, મુંબઈ
O
For
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
पू. आगमप्रभाकर मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराज
जन्म : वि. सं. १९५२ कारतिक सुदि ५, (कपडवंज) दीक्षा : वि. सं. १९६५ महा वदि ५ (छाणी) स्वर्गवास : वि. सं. २०२७ जेठ वदि ६, (मुंबई) ता. १४-६-१९७१ सोमवार
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय संघस्थविर श्री १००८ आचार्यदेवश्री
विजयसिद्धिसूरीश्वरजी (बापजी) महायजना पट्टालंकार - पूज्यपाद आचार्यदेवश्री विजयमेघसूरीश्वरजी महाराजना शिष्यरत्न पूज्यपाद गुरुदेव मुनिराजश्री भुवनविजयजी महाराज
जन्म : वि. सं. १९५१ श्रावण वदि ५, शनिवार, ता. १०-७-१८९५, मांडल दीक्षा : वि. सं. १९८८ जेठ वदि ६, शुक्रवार, ता. २४-६-१९३२, अमदावाद स्वर्गवास : वि. सं. २०१५ महा सुदि ८, ता. १६-२-१९५९, शंखेश्वरजी तीर्थ
Main Eve
n
tal
For Private&Personal use only
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूज्यपाद साध्वीजी श्री लाभश्रीजी महाराज (सरकारी उपाश्रयवाला)ना शिष्या
पूज्यपाद साध्वीजी श्री मनोहरश्रीजी महाराज
pasummummm
minामा
जन्म : वि. सं. १९५१ मागशर वदि २, शुक्रवार, ता.१४-१२-१८९४ झींझुवाडा दीक्षा : वि. सं. १९९५ महा वदि १२, बुधवार, ता. १५-२-१९३९ अमदावाद स्वर्गवास : वि.सं. २०५१ पोष सुदि १०, बुधवार, ता. ११-१-१९९५ यत्रे ८-५४
वीशानीमाभवन जैन उपाश्रय, सिद्धक्षेत्र पालिताणा.
Jan Education international
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थानुक्रमः
पृष्ठाङ्काः
१-८
૧-૫
१-४
१-१५
१६-१७
પ્રકાશકીય નિવેદન પૂજ્યગુરુદેવ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર श्रद्धांजली (पू. जी महारानी संक्षित वन३५) જિન આગમ જયકારા (ગુજરાતી પ્રસ્તાવના) किश्चित् प्रास्ताविकम् (हिन्दी) आमुखम् (संस्कृतम्) FOREWORD स्थानाङ्गसूत्रः एक समीक्षात्मक अध्ययन (ले० देवेन्द्रमुनिजी शास्त्री) स्थानाङ्गसूत्रस्य विषयानुक्रमः स्थानाङ्गसूत्रम् नव परिशिष्टानि
१८-२०
1-2
१-१८
६५१-९०७
१-२४३
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
PO
O
C
000
0
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રકાશકીય નિવેદનન
આજથી ૩૪ વર્ષ અગાઉ શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયે આપણા આચાર્ય ભગવંતો ધર્મગુરુઓ તથા વિદ્વાન શ્રાવકોની ધર્મપિપાસા સંતોષાય તેમજ ધર્મજ્ઞાનના ઊંડાણનો અભ્યાસ શકય બને તે માટે જૈન ધર્મના આગમસૂત્રોનું પ્રકાશન શરૂ કર્યું હતું. જૈન ધર્મના ૨૪મા તીર્થંકર ભગવાન શ્રી મહાવીરસ્વામીના ઉપદેશોનો સંગ્રહ એટલે આગમસૂત્રો. આપણા આગમસૂત્રોનો તલસ્પર્શી અભ્યાસ જૈન ધર્મનું શુદ્ધ સ્વરૂપ બતાવે છે અને તેનું આચરણ મોક્ષમાર્ગનું પ્રેરક બને છે.
આગમ ગ્રંથમાળાના મુખ્ય પ્રેરક આગમ પ્રભાકર શ્રુતશીલ-વારિધિ દિવંગત મુનિરાજ પૂજ્યશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજ સાહેબે જ્યોતિષકદંડક ગ્રંથની પ્રાકૃત ભાષામાં રચાયેલી સંક્ષિપ્ત વૃત્તિ (ટિપ્પનક)ને સંશોધિત કરેલી છે. આ કાર્ય પૂર્ણ કર્યા પછી એકાદ વર્ષના અંતરે તેઓશ્રી કાળધર્મ પામ્યા. આગમ ગ્રંથમાળાના માર્ગદર્શક કાળધર્મ પામતાં આગમ-પ્રકાશનની પ્રવૃત્તિમાં ઓટ આવશે, શૂન્યાવકાશ સર્જાશે એવી અમોને દહેશત હતી, પરંતુ સમગ્ર ભારતીય દર્શનોના તથા જૈન આગમ ગ્રંથમાળાના મર્મરૂપ વિદ્વર્ય પૂજ્યપાદ મુનિરાજ શ્રી જંબૂવિજયજી મહારાજ સાહેબે બાકી રહેલાં કાર્યોને આગળ ધપાવવાની અમારી વિનંતી સ્વીકારી એ અમારાં અહોભાગ્ય છે.
૧
જૈન આગમ-સૂત્રોના ૧૯(૩) મણકારૂપે “સ્થાનાંગસૂત્ર” – તૃતીય ભાગ પ્રકાશિત કરતાં અમે આનંદ અને હર્ષની લાગણી અનુભવીએ છીએ. આશા છે કે આ ગ્રંથો શ્રી ગુરુદેવો અને આપણા સમાજના સુશ્રાવક/શ્રાવિકાને જૈન ધર્મના તલસ્પર્શી અભ્યાસમાં ખૂબજ મદદરૂપ થશે. શ્રુતભક્તિના ક્ષેત્રે આંતરરાષ્ટ્રીય ખ્યાતિ અપાવે એવાં આ સંગીન અને અનુમોદનીય આગમસૂત્રોના સંશોધન અને પ્રકાશન માટે “શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય જિનાગમ પ્રકાશન ટ્રસ્ટ”ની ખાસ રચના કરવામાં આવી છે જેના હાલના ટ્રસ્ટીઓ નીચે મુજબ છે.
૧. શ્રી શ્રીકાંતભાઈ એસ. વસા
૨. શ્રી અશોકભાઈ કાંતિલાલ કોરા ૩. શ્રી નવનીતભાઈ ખીમચંદ ડગલી
૪. શ્રી રમણીકલાલ પ્રેમચંદ શાહ
૫. શ્રી સેવંતિલાલ કેશવલાલ શાહ ૬. શ્રી જીતેન્દ્રભાઈ બી. શાહ
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રકાશકીય નિવેદન
શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયે અત્યાર સુધીમાં નીચે મુજબનાં આગમ ગ્રંથોનું પ્રકાશન કરેલ છે.
४०.००
४०.००
संपादक : पुण्यविजयो मुनिः संपादक : जम्बूविजयो मुनिः संपादक : जम्बूविजयो मुनिः संपादक : जम्बूविजयो मुनिः संपादक : पं. बेचरदास जीवराज दोशी
४०.००
१२०.००
४०.००
संपादक : पं. बेचरदास जीवराज दोशी
४०.००
४०.००
३०.००
३०.००
૨
प्रथांक १
ग्रथांक २
ग्रथांक २
ग्रथांक ३
ग्रंथांक ४
ग्रंथांक ४
ग्रंथांक ४
ग्रंथांक ९
ग्रथांक ९
ग्रंथांक १५
नंदसुत्तं अणुओगद्दाराई च
(१) आयरंगतं
(२) सूयगडंगसुत्
ठाणंगसुतं समवायंगसुत्तं च (१) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाग-१
(२) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाग-२
(३) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाग-३
(१) पण्णवण्णासुत्तं भाग-१
(२) पण्णवण्णासुत्तं भाग-२
दसवेयालियसुत्तं, उत्तरज्झयणाई, आवस्सयसुत्तं च
(१) पइण्णयसुत्ताइं भाग-१ (२) पइण्णयसुत्ताइं भाग-२ (३) पइण्णयसुत्ताई भाग-३
५०.००
ग्रंथांक १७
८०.००
ग्रथांक १७
८०.००
ग्रंथांक १७
६०.००
ग्रंथांक ५
याधम्मकाओ
१२५.००
४५०.००
ग्रंथांक १८ (१) अनुयोगद्वारसूत्रम् भाग - १ ग्रंथांक १८
(२) अनुयोगद्वारसूत्रम् भाग-२
संपादक : जम्बूविजयो मुनिः
४५०.००
(१) स्थानाड्गसूत्रम् भाग - १
५५०.००
ग्रंथांक १९ ग्रंथांक १९ (२) स्थानाङ्गसूत्रम् भाग-२
संपादक : जम्बूविजयो मुनिः संपादक : जम्बूविजयो मुनिः
५५०.००
શ્રુતજ્ઞાન પ્રેરિત જિનાગમ સંશોધન કાર્ય અને ભારતના જુદા જુદા સ્થળોના જ્ઞાનભંડારોની સામગ્રીનો ઉપયોગ કરવા દેવા માટે સહાયરૂપ થયા છે તેવા કાર્યકરોનો તથા આ કાર્યમાં પ્રત્યક્ષ અને પરોક્ષરૂપે સહાયરૂપ થનાર મહાનુભાવોનો અંતઃકરણ પૂર્વક આભાર માનીએ છીએ. આગમ ગ્રંથ “સ્થાનાંગસૂત્ર ભાગ-૩”નું પ્રકાશન પૂ. આચાર્ય ભગવંતોને તથા તેમના શિષ્યવૃંદને જૈન ધર્મના શ્રદ્ધાવાન શ્રાવકોને તેમજ જૈન ધર્મના સંશોધનમાં રસ ધરાવનાર અભ્યાસુઓને જૈન ધર્મના ઉંડા અભ્યાસ માટે ઉપયોગી થઈ પડશે એવી આશા સાથે વિરમીએ છીએ. આ પુસ્તકના પ્રકાશન માટે અનહદ જહેમત ઉઠાવવા બદલ અમો આગમ વિશારદ પ્રાતઃ સ્મરણીય પૂજ્ય મુનિરાજ શ્રી જંબૂવિજયજી મ.સા.ના ઋણી છીએ.
શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય ઓગષ્ટ ક્રાંતિ માર્ગ, મુંબઈ-૩૬
dl. 9-4-2003
संपादक : पं. बेचरदास जीवराज दोशी संपादक : पुण्यविजयो मुनिः संपादक : पुण्यविजयो मुनिः
संपादक : पुण्यविजयो मुनिः संपादक : पुण्यविजयो मुनिः
संपादक : पुण्यविजयो मुनिः
संपादक : पुण्यविजयो मुनिः
संपादक : जम्बूविजयो मुनिः
संपादक : जम्बूविजयो मुनिः
ખાંતિલાલ ગોકળદાસ શાહ સુબોધરત્ન ચીમનલાલ ગારડી
પ્રકાશચંદ્ર પ્રવીણચંદ્ર ઝવેરી માનદ્ મંત્રીઓ
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રકાશકીય નિવેદન
ઋણ સ્વીકાર
જૈન આગમ ગ્રંથોના સંશોધન સંપાદન અને પ્રકાશનના કાર્યમાં વેગ આપવાના ઉદ્દેશથી, આગમ વિશારદ પૂજ્યપાદ મુનિરાજશ્રી જંબૂવિજયજી મ.સા. સંપાદિત “સટીક સ્થાનાંગ ભાગ-૧-૨-૩” પુસ્તકના પ્રકાશન માટે શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય (મુંબઈ)ની જૈન આગમો પ્રકાશિત કરવાની યોજના માટે રૂ. ૫,૦૦,૦૦૦/- અંકે રૂપિયા પાંચ લાખ પૂરા શ્રી ગોવાલિયા ટેન્ક જૈન સંઘ તરફથી ત્રણેય ભાગના પ્રકાશન માટે મળ્યા છે.
આ ઉદાર સહકાર માટે અમો શ્રી ગોવાલીયા ટેન્ક જૈન સંઘ, મુંબઈ-૩૬નો અંતઃકરણપૂર્વક આભાર માનીએ છીએ.
મુંબઈ-૪૦૦૦૩૬ તા.૭-૫-૨૦૦૩
ખાંતિલાલ ગોકળદાસ શાહ સુબોધરત્ન ચીમનલાલ ગારડી પ્રકાશચંદ્ર પ્રવીણચંદ્ર ઝવેરી
માનદ્ મંત્રીઓ શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રકાશકીય નિવેદન
વિદ્યાતીર્થ વિદ્યાલય - શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય
પંજાબકેસરી આચાર્યશ્રી પ.પૂ.વિજય વલ્લભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના ઉપદેશથી આજથી સત્યાસી વર્ષ પૂર્વે વિ.સં.૧૯૭૦, ફાગણ સુદી પાંચમને સોમવાર, તા. ૨-૩-૧૯૧૪ના શુભ દિવસે “શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય”ની મંગલ સ્થાપના કરવામાં આવી. તે સમયે જૈન સમાજ માટે શિક્ષણની જરૂરિયાત બહુ જ હતી. અને ખાસ કરીને ગ્રામ્ય વિસ્તારના વિદ્યાર્થીઓ શિક્ષણથી વંચીત ન રહે તે બાબત પણ મહાનુભાવોના મનમાં હતી. અનેક શહેર અને સ્થળનું અવલોકન કર્યા બાદ મુંબઈ શહેરની પસંદગી કરવામાં આવી. આ સંસ્થા ફકત વિદ્યાર્થીગૃહ ન રહેતાં ચારિત્ર નિર્માણ અને સાંસ્કૃતિક મૂલ્ય અને ધાર્મિક જ્ઞાન પ્રદાનનું કેન્દ્ર બને અને સમાજ સમૃદ્ધ થાય તેવી દૃષ્ટિ પણ સ્વીકારવામાં આવી હતી. અને સંસ્થાના સ્થાપના સમયે ત્રણ મૂળભૂત મુદ્દાઓ પણ વિચારવામાં આવ્યા હતા. રાત્રિભોજન નિષેધ, અભક્ષ્યનો ત્યાગ અને જિનપૂજા સાથે ધાર્મિક અભ્યાસ વિગેરે ધ્યાનમાં રાખીને પંદર વિદ્યાર્થીઓ સાથે “શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય” ૧૯૧૫માં ભાડાના મકાનમાં શરૂ કરવામાં આવ્યું. જે આજે વટવૃક્ષ બની ગુજરાત-મહારાષ્ટ્ર તેમજ રાજસ્થાનનાં મુખ્ય શહેરોમાં નવ શાખાઓ, ૧,૦૦૦ વિદ્યાર્થીઓ અભ્યાસ કરી શકે તેવું અદ્યતન સુવિધાઓ સાથે શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય ટુંક સમયમાં “શતાબ્દી” તરફ આગળ વધી રહ્યું છે. વિદ્યાર્થીઓના ઉત્તેજન માટે કાર્યશીલ સંસ્થાએ કન્યા કેળવણી માટે ૧૯૪૩માં બંધારણમાં ખાસ સુધારો કરીને કન્યા છાત્રાલય સ્થાપવાનો નિર્ણય કર્યો. પણ એનો અમલ ૧૯૯૨ના અમૃત મહોત્સવની ઉજવણી પ્રસંગે સંસ્થાના કાર્યશીલ હોદ્દેદારોએ જૈન સમાજ પાસે સંકલ્પ મુક્યો અને અમદાવાદ શહેરમાં ૧૯૯૪માં ૮૮ વિદ્યાર્થિનીઓને નિઃશુલ્ક (રહેવા-જમવાની સગવડતા) સગવડ આપવા સાથે શુભ શરૂઆત કરવામાં આવી. ગુજરાત મહારાષ્ટ્ર પછી હિન્દી ભાષી રાજ્ય તરફ આગળ વધવાનો સંકલ્પ અમૃત મહોત્સવ સમાપન સમારોહ સમયે લેવાઈ ચૂક્યો હતો. જે ૨૦૦૧માં ઉદયપુર શાખાનું ઉદ્ઘાટન કરીને પૂર્ણ થયો શ્રી વાડીલાલ સારાભાઈ વિદ્યાર્થીગૃહ, મુંબઈ-૩૬ના મકાનનું નવનિર્માણ કરવાનું હોવાથી હંગામી ધોરણે સને ૨૦૦૧ માં સી.પી. ટેક, મુંબઈ-૪ ખાતે ૨૬ વિદ્યાર્થીઓને પ્રવેશ આપવામાં આવ્યો પણ હજી કન્યા છાત્રાલય માટે કાર્યશીલ હોદ્દેદારો તથા કાર્યવાહકો ગુજરાતના જુદા જુદા શહેરોમાં કન્યા છાત્રાલય ઉભા કરવા માટે દ્રઢ વિશ્વાસ સાથે આગળ વધી રહ્યા છે. સંસ્થાની વિવિધ પ્રવૃત્તિઓ :
આ સંસ્થા વિદ્યાશાખા કે કન્યાઓ માટે છાત્રાવાસો ઉભા કરીને સંતોષ ન માનતાં સમાજના યુવા વર્ગને શૈક્ષણિક સહાયની પ્રવૃત્તિઓમાં પણ આગળ રહે છે. તેની વિગત નીચે મુજબ છે. (૧) સંસ્થા દ્વારા પરદેશ જતા વિદ્યાર્થીઓને લોન આપવામાં આવે છે.
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રકાશકીય નિવેદન
(૨)
કોલેજમાં અભ્યાસ કરતી વિદ્યાર્થીનીઓને સંસ્થાના અમદાવાદ ખાતે કન્યા છાત્રાલયમાં ગુણવત્તાના ધોરણે નિઃશુલ્ક પ્રવેશ આપવામાં આવે છે. પ્રવેશથી વંચિત રહી ગયેલ અને અમદાવાદ શહેર સિવાયની કોલેજમાં અભ્યાસ કરતી વિદ્યાર્થિનીઓને અભ્યાસમાં સહાયરૂપ થવા આ સંસ્થા તરફથી ધો.૧૦ થી સ્નાતક સુધીનો અભ્યાસ માટે પૂરક રકમની સહાય શિષ્યવૃત્તિ આપવામાં આવે છે. જેમાં છેલ્લાં પાંચ વર્ષમાં આપેલ રકમ અને વિદ્યાર્થીઓની સંખ્યા નીચે દર્શાવેલ છે. ૧૯૯૮-૧૯૯૯ ૮૩ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂા. ૧૦૫૬૦૦/૧૯૯૯-૨૦૦૦ ૯૦ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂ. ૧૦૯૭00/૨૦૦૦-૨૦૦૧ ૧૩૪ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂા. ૧૬૮૦૦૦/૨૦૦૧-૨૦૦૨ ૧૩૪ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂા. ૧૬૭૧૦૦/
૨૦૦૨-૨૦૦૩ ૧૭૯ વિદ્યાર્થિનીઓને રૂા. ૨૨૨૦૦૦/જૈન સાહિત્ય અને પ્રકાશનને ઉત્તેજન :(૧) સંસ્થા દ્વારા જૈન ધર્મના પુસ્તકોના પ્રકાશનને ઉત્તેજન મળે તે માટે શ્રી મહાવીર જૈન
વિદ્યાલય જિનાગમ ટ્રસ્ટની રચના કરવામાં આવી છે અને આ ટ્રસ્ટ દ્વારા આગમના ગ્રંથો તૈયાર કરવામાં આવે છે. તેમજ અન્ય પુસ્તકોનું પ્રકાશન પણ સંસ્થા દ્વારા પ્રગટ કરવામાં આવે છે. સાદી અને સરળ ભાષામાં વિવેચનાત્મક અને સંશોધનાત્મક સાહિત્યની વિપુલ સામગ્રી પ્રકટ કરવાની સમયદર્શી આચાર્ય શ્રી વિજયવલ્લભસૂરીશ્વરજી મહારાજ અને સંસ્થાના અનેકમુખ ઉત્કર્ષના પુરસ્કર્તા શ્રી મોતીચંદભાઈ કાપડીઆની ભાવના હતી અને આ માટે મોતીચંદભાઈ કાપડીઆએ ગ્રંથમાળાના સંપાદન કાર્યની શરૂઆત કરી અને આજદિન સુધીમાં ૯ પુસ્તકો તથા શ્રી મોહનલાલ દલીચંદ દેસાઈ (સંગ્રાહક અને સંપાદક) ગ્રંથમાળાના જૈન ગુર્જર કવિઓ ભાગ ૧ થી ૧૦ અને અન્ય સાત પુસ્તકો
તથા મુનિશ્રી નંદિઘોષ વિજયજી પ્રકાશિત બે પુસ્તકો પ્રકાશિત થયેલ છે. (૨) જૈનસાહિત્યને ઉત્તેજન મળે તે માટે આજદિન સુધીમાં ૧૬ જૈન સાહિત્ય સમારોહનું
જુદા જુદા સ્થળે આયોજન કરવામાં આવેલ છે. વિદ્યાલયની વિદ્યાશાખાઓનો વિસ્તાર :
૧૫ વિદ્યાર્થીઓ સાથે સને ૧૯૧૫માં શરૂ થયેલ શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય, ગોવાલીયા ટેન્ક પર સંસ્થાના મકાનમાં ભાવનગર રાજ્યના દીવાન સર પ્રભાશંકર પટનીના શુભ હસ્તે તા.૩૧-૧૦-૧૯૨૫માં ખુલ્લુ મુકવામાં આવ્યું અને ત્યારબાદ સંસ્થાની પ્રગતિ, વિદ્યાશાખાઓની સ્થાપનાનો ઈતિહાસ નીચે મુજબ છે.
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રકાશકીય નિવેદન ૧૯૪૬ અમદાવાદમાં શ્રી જેસીંગભાઈ ભોળાભાઈ વિદ્યાર્થી ગૃહ શરૂ કરવામાં
આવ્યું. (૩) ૧૯૪૭ મહારાષ્ટ્રમાં પૂના શહેરમાં શ્રી ભારત જૈન વિદ્યાલયના નામે શેઠશ્રી
ગગલભાઈ હાથીભાઈ જેવા આગેવાનના સહકાર દ્વારા ખુલ્લું મુકવામાં
આવ્યું. (૪) ૧૯૫૪ વડોદરા શહેરમાં ચાલતી સંસ્થા શ્રી જૈન વિદ્યાર્થી આશ્રમના સંચાલકોએ
શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયને સંચાલન સોંપી દીધું. એટલે પ.પૂ. આચાર્યશ્રી વિજયવલ્લભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ની જન્મભૂમિમાં સંસ્થાએ કાર્યભાર સંભાળીને
નામ આપ્યું શ્રી લહેરચંદ ઉત્તમચંદ વિદ્યાર્થીગૃહ. (૫) ૧૯૬૪ ગુજરાત રાજ્ય સરકારે ખાસ શિક્ષણ સુવિધાઓને ધ્યાનમાં રાખીને
વલ્લભવિદ્યાનગર શહેરનો વિકાસ કર્યો. સને ૧૯૫૪માં વડોદરા શાખાની શરૂઆત થયા બાદ દશ વર્ષ પછી આપણી આ પાંચમી સંસ્થા શરૂ કરવામાં આવી. અને આ સંસ્થાને શ્રી લહેરચંદ ઉત્તમચંદ વિદ્યાર્થીગૃહ નામ આપવામાં
આવ્યું. (૯) ૧૯૭૦ ભાવનગર શહેરમાં સૌરાષ્ટ્ર તરફથી આવતા વિદ્યાર્થીઓની જરૂરીયાતને
લક્ષ્યમાં રાખીને શાખા ખુલ્લી મુકવામાં આવી. આ સંસ્થાને શ્રી મણીલાલ
દુર્લભજી વિદ્યાર્થીગૃહ નામ આપવામાં આવ્યું. (૭) ૧૯૭૨ પ.પૂ.આચાર્યશ્રી વલ્લભસૂરીશ્વરજીના જન્મ શતાબ્દીની વર્ષ ૧૯૭૦ માં
જૈન સમાજમાં ધામધુમથી ઉજવણી થઈ હતી. ગુરૂદેવની જન્મ શતાબ્દી નિમિત્તે ઓલ્ડ બોયઝ યુનિયનના પ્રયાસોથી ગુરૂદેવનું નામ જોડીને “શ્રી
મહાવીર જૈન વિદ્યાલય” અંધેરીમાં શાખા શરૂ કરી. (૮) ૧૯૯૪ સને ૧૯૪૬ના વર્ષથી કરેલો સંકલ્પ અને ૧૯૯૨માં સંસ્થાના અમૃત
મહોત્સવ પ્રસંગે કન્યા છાત્રાલય શરૂ કરવાના દઢ નિર્ધારના ફળ સ્વરૂપ સને ૧૯૯૪માં અમદાવાદમાં કન્યા છાત્રાલય શરૂ કરવામાં આવ્યું અને આ શાખાને શ્રીમતી શારદાબેન ઉત્તમલાલ મહેતા કન્યા છાત્રાલય નામ
આપવામાં આવ્યું. (૯) ૨૦૦૧ ગુજરાત-મહારાષ્ટ્ર ઉપરાંત અન્ય રાજ્યમાં શાખા શરૂ કરવાનો સંકલ્પ પુરો
થયો. ઉદયપુર મુકામે શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય એલ્મની. એસોસીએશન, યુ.એસ.એ.ના સહકારથી ૮૦ વિદ્યાર્થીઓની કેપેસીટી સાથે પૂર્ણ થયો. અને શાખાને ડો. યાવન્તરાજ પુનમચંદજી અને શ્રીમતી સંપૂર્ણ જૈન વિદ્યાર્થીગૃહ નામ આપવામાં આવ્યું.
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રકાશકીય નિવેદન
(૧૦) ૨૦૦૧ સંસ્થાની શ્રી વાડીલાલ સારાભાઈ વિદ્યાર્થીગૃહ, મુંબઈ-૩૬ના મકાનનું
નવનિર્માણ કરવાનું હોવાથી વિદ્યાર્થીઓને અગવડતા ન પડે તે માટે શ્રી જૈન ઉદ્યોગગૃહના (સી.પી.ટંક) સ્થિતના મકાનના ચોથા-પાંચમા માળે સને ૨૦૦૧માં ૨૬ વિદ્યાર્થીઓને પ્રવેશ આપી, શ્રી સી.પી.ટેંક ખાતે હંગામી
ધોરણે વિદ્યાર્થીગૃહ શરૂ કરવામાં આવ્યું. ઉદ્દેશો અને અમલીકરણ તેમજ એકવીસમી સદી તરફ પ્રયાણ :
શરૂઆતમાં જે મૂળભૂત નિયમો ઘડવામાં આવ્યા હતા તે અનુસાર આજ રીતે આજે આઠ દાયકાથી સંસ્થા મક્કમપણે એકવીસમી સદી તરફ આગળ વધી રહી છે. જેમાં નીચેના મૂળભૂત નિયમો અમલમાં છે. (૧) દરેક શાખામાં વિદ્યાર્થીઓને નિયમિત જિનપૂજા કરી શકે તે માટે મુંબઈ, અંધેરી,
વડોદરા, વલ્લભવિદ્યાનગર તેમજ ભાવનગરમાં શિખરબંધી દેરાસરજી બનાવેલ છે.
જ્યારે પૂના, અમદાવાદ, ઉદયપુરમાં ઘર દેરાસર છે. પૂનામાં ટુંક સમયમાં શિખરબંધી
દેરાસર બાંધવા માટે નિર્ણય લેવાયેલ છે. (૨) ધાર્મિક અભ્યાસક્રમ માટે દરેક શાખામાં ધાર્મિક શિક્ષકો દ્વારા ક્લાસ ચલાવવામાં આવે
છે. નિયમિત ધાર્મિક પરિક્ષાઓ લેવામાં આવે છે. અને પ્રોત્સાહનરૂપે વિદ્યાર્થીઓને ઈનામો આપવામાં આવે છે. વિદ્યાર્થીઓને ધાર્મિક પ્રવાસ, ડેવલપમેન્ટ શિબીરો, ઉગ્ર તપશ્ચર્યાઓને પ્રોત્સાહન માટે
સુવિધાઓ આપવામાં આવે છે. (૪) વિદ્યાર્થીઓના સાંસ્કૃતિ વિકાસ માટે સ્પર્ધાઓ, રમત-ગમત તેમજ વ્યાયામના સાધનો
ઉપલબ્ધ હોય છે. (૫) શાખાના વિદ્યાર્થીઓ દ્વારા “આંતર શાખા હરિફાઈ યોજવામાં આવે છે. અને
પ્રોત્સાહન રૂપે ઈનામો આપવામાં આવે છે. વિદ્યાર્થીઓને “જનરલ નોલેજ” માટે શાખાઓમાં છાપાં, મેગેજીન-સારાં પુસ્તકો તેમજ
વિશાળ લાઈબ્રેરીઓ સ્થાપવામાં આવી છે. (૭) એકવીસમી સદી તરફ જઈ રહેલ વિશ્વમાં આપણે પાછળ ન રહીએ તે માટે વિદ્યાર્થીઓને
અદ્યતન ફર્નીચર તેમજ સાત્વીક ભોજન અને કોમ્યુટર શિક્ષણ માટે શાખામાં જ કોમ્યુટર સુવિધા આપવામાં આવી રહી છે.
શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયે, ૮૭ વર્ષ દરમ્યાન, સમાજના હજારો નવયુવાનોને વિદ્યાના અમૃતનું પાન કરાવી કાર્યદક્ષ અને સ્વાશ્રયી બનાવ્યા છે અને તેમના જીવનને સેવાભાવના, ધાર્મિકતા તેમજ સંસ્કારિતાથી સુવાસિત બનાવ્યા છે.
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રકાશકીય નિવેદન
ઉછરતી પેઢીને વિદ્યાનું દાન અને પ્રેરણાનું પાન કરાવીને સમાજને સમૃદ્ધ, શક્તિશાળી અને સંસ્કારી બનાવનારી વિદ્યાલયની આ મહાપરબ અત્યારે પણ અવિરતપણે ચાલી રહી છે. સમાજના કલ્યાણબંધુ મહાનુભાવો અને પુણ્યમાર્ગના પ્રવાસીઓ ! ઉદાર આર્થિક સહકારરૂપી આપની ભાવનાનાં નીર, આ મહાપરબમાં નિરંતર ઉમેરતા રહેશો ! આપની ઉદારતા આપને ધન્ય બનાવશે અને સમાજને સમૃદ્ધ બનાવશે ! આવો બેવડો લાભ લેવાનું રખે કોઈ ચુકતા !
८
જ્ઞાન પ્રસાર દ્વારા સમજણને વિસ્તારવાનો જે પુરૂષાર્થ કરે તે જગતનો મોટો ઉપકારી છે. શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયે આવા પુરૂષાર્થ દ્વારા સમાજને સમૃદ્ધ, શક્તિશાળી અને સુખી બનાવવાનું વિનમ્ર જીવન વ્રત સ્વીકાર્યું છે. જે એ વ્રત પાલનમાં સહાયક થશે તે કૃતકૃત્ય થવાની સાથે સમાજકલ્યાણના સહભાગી બનશે.
સૌને સથવારે આપણે તન, મન અને ધનથી વિદ્યાલયની સેવામાં અહર્નિશ ઉભા રહીએ અને યુગપુરૂષના આશીષસહ, ભવ્ય ભૂતકાળના સહારે સુંદર વર્તમાનની કેડી પર કદમ મિલાવી ઉત્કૃષ્ટ ભવિષ્યનું સ્વપ્ર સિદ્ધ કરીએ એજ અભ્યર્થના.
મુંબઈ-૩૬
તા.૨૮-૪-૨૦૦૩
લિ.સેવકો ખાંતિલાલ ગોકળદાસ શાહ સુબોધરત્ન ચીમનલાલ ગાડી
પ્રકાશચંદ્ર પ્રવીણચંદ્ર ઝવેરી માનદ્ મંત્રીઓ
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ શ્રી શંખેશ્વરપાર્શ્વનાથાય નમઃ ॥
સ્વ.પૂજ્ય ગુરૂદેવ મુનિરાજ શ્રી ૧૦૦૮ ભુવનવિજયજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર
(પ.પૂ.શ્રીજંબૂવિજયજી મહારાજે સંશોધિત-સંપાદિત કરેલા તથા ભાવનગરની જૈન આત્માનંદસભાએ વિક્રમ સંવત ૨૦૨૨માં પ્રકાશિત કરેલા આચાર્યશ્રી મલ્લવાદિક્ષમાશ્રમણ વિરચિત દ્વાદશારનયચક્રના પ્રથમ ભાગમાં જંબૂવિજયજી મહારાજના ગુરુદેવ પૂજ્યપાદ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજનું જે સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર શ્રી જૈન આત્માનંદ સભાએ આપ્યું છે તે અહીં અક્ષરશઃ આપવામાં આવે છે.)
પરમપૂજ્ય ગુરુદેવ ભુવનવિજયજી મહારાજનું મૂળ સંસારી નામ ભોગીલાલભાઈ હતું. બહુચરાજી (ગુજરાત) પાસેનું દેથળી ગામ એ તેમનું મૂળવતન, પણ કુટુંબ ઘણું વિશાળ હોવાના કારણે તેમના પિતાશ્રી મોહનલાલ જોઈતારામ શંખેશ્વરતીર્થ પાસે આવેલા માંડલ ગામમાં કુટુંબની બીજી દુકાન હોવાથી ત્યાં રહેતા હતા. શ્રી મોહનલાલભાઈનો લગ્નસંબંધ માંડલ ખાતે જ ડામરશીભાઈના સુપુત્રી ડાહીબેન સાથે થયેલો હતો. ભોગીલાલભાઈનો જન્મ પણ વિ.સં.૧૯૫૧માં શ્રાવણવદિ પંચમીને દિવસે માંડલમાં જ થયેલો. ડાહીબેનમાં ધાર્મિક સંસ્કારો સુંદર હતા અને ઘર પણ ઉપાશ્રય નજીક જ હતું એટલે અવાર નવાર સાધુ-સાધ્વીજીના સમાગમનો લાભ મળતો હતો.
એક વખતે શ્રી ભોગીલાલભાઈ પારણામાં સૂતા હતા, તેવામાં તે સમયમાં અત્યંત પ્રભાવશાલી પાયચંદગચ્છીય શ્રી ભાયચંદજી (ભાતૃચંદ્રજી) મહારાજ અચાનક ઘેર આવી ચડ્યા. શ્રી ભોગીલાલભાઈની મુખમુદ્રા જોતાં જ તેમણે ડાહીબેનને ભવિષ્યકથન કર્યું કે આ તમારો પુત્ર અતિમહાન્ થશે- ખૂબ ધર્મોઘોત ક૨શે અને આપણે જાણીએ છીએ કે ૭૦ વર્ષ પૂર્વે ઉચ્ચારાયેલી આ ભવિષ્યવાણી અક્ષરશઃ સાચી નીવડી છે.
શ્રી ભોગીલાલભાઈની બુદ્ધિપ્રતિભા અને સ્મરણશક્તિ બાલ્યાવસ્થાથી જ અત્યંત તેજસ્વી હતાં. સામાન્ય વાંચનથી પણ નિશાળના પુસ્તકોના પાઠો એમને લગભગ અક્ષરશઃ કંઠસ્થ થઈ જતા. નિશાળ છોડ્યા પછી ચાલીસ-ચાલીસ વર્ષ વીતી ગયા બાદ પણ એ પાઠ અને કવિતાઓમાંથી અક્ષરશઃ તેઓ કહી સંભળાવતા હતા. બાલ્યાવસ્થાથી જ જ્ઞાનપ્રેમ એમના જીવનમાં અત્યંત વણાઈ ગયેલો હતો. વ્યવહારમાં પણ એમની કુશળતા અતિપ્રશંસનીય હતી. પરીક્ષાશક્તિ તો એમની અજોડ હતી.
[માંડલમાં જીભાઈ માસ્તર ગામઠી નિશાળમાં છોકરાઓને ભણાવતા હતા. જીભાઈ માસ્તર ભણાવવામાં બહુ જ કડક તથા ચોક્કસ હતા. તેમની ખાસ માન્યતા હતી કે મારો વિદ્યાર્થી જીવનના ક્ષેત્રમાં કયાંયે પાછો પડવો જોઈએ જ નહિ. ભોગીલાલભાઈ સરકારી નિશાળમાં તેમજ જીભાઈ માસ્તરની ખાનગી નિશાળમાં એમ બંને સ્થાને ભણતા હતા. બંને સ્થળે એ અત્યંત તેજસ્વી હતા.]
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
પૂજ્યપાદ ગુરૂદેવ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર
પંદર-સોળ વર્ષની ઉંમરે ઝીંઝુવાડાના વતની શા.પોપટલાલ ભાયચંદનાં સુપુત્રી મણિબેન સાથે એમનો લગ્નસંબંધ થયો હતો. મણિબેનનાં માતુશ્રી બેનીબેન ખૂબ જ ધર્મપરાયણ આત્મા હતા. તેમનું કુટુંબ આજે પણ ઝીંઝુવાડામાં ધર્મઆરાધનામાં શ્રેષ્ઠ ગણાય છે. તેમનાં કુટુંબનાં સંતાનોમાંથી ઘણા જ પુણ્યાત્માઓએ દીક્ષા લઈને જિનશાસનની ખૂબ પ્રભાવના કરી છે અને આજે પણ પ્રભાવના કરી રહ્યા છે. આ રીતે ધર્મસંસ્કારોથી સુવાસિત ધર્મપત્નીના સુયોગથી તેમ જ માતા તરફથી મળેલા ધર્મસંસ્કારોના સુયોગથી તેમના જીવનમાં સોનામાં સુગંધનો યોગ થયો હતો. માંડલથી શંખેશ્વરજીતીર્થ ઘણું નજીક હોવાથી શ્રી શંખેશ્વરતીર્થ ઉપર પ્રારંભથી જ એમના હૃદયમાં અપાર ભક્તિભાવ હતો. શ્રી શંખેશ્વર પાર્શ્વનાથ ભગવાનના ભોગીલાલભાઈ જીવનના પ્રારંભથી જ પરમ
ઉપાસક હતા
ભોગીલાલભાઈ સત્તર વર્ષની વયે માંડલ છોડી મૂળ વતન દેથળી ગયા. ત્યાં લગભગ બે વર્ષ રહી અમદાવાદ ગયા અને ધંધામાં જોડાયા. તેમને બીજા પણ બે નાના ભાઈઓ અને એક બહેન છે કે જેઓ અમદાવાદમાં રહે છે. વિ.સં.૧૯૭૯માં મહા સુદિ ૧ ને દિવસે અઢાવીસમાં વર્ષે તેમણે મણિબાઈની કુક્ષિથી પુત્રરત્નની પ્રાપ્તિ થઈ જે હાલ મુનિરાજશ્રી જંબૂવિજયજીના નામથી પ્રસિદ્ધ છે. પુત્ર ચાર વર્ષની વયનો થતાં બત્રીસમે વર્ષે તેમણે સંપૂર્ણ બ્રહ્મચર્ય પાલનની પ્રતિજ્ઞા લીધી. યુવાવસ્થા, સર્વ પ્રકારની સાધનસંપન્નતા, અનૂકળ વાતાવરણ આ બધાં સંયોગો વચ્ચે પણ આજીવન બ્રહ્મચર્યવ્રતની પ્રતિજ્ઞા સ્વીકારવી એ શ્રી ભોગીલાલભાઈમાં રહેલા દઢ આત્મબળની સાક્ષી પુરે છે.
આંતરિક અભિરૂચિ, ઘરનું ધાર્મિક વાતાવરણ તેમજ સદ્ગુરુ આદિના સતત સંસર્ગ અને પ્રેરણાને પરિણામે ભોગીલાલભાઈનો પ્રભુભક્તિ, ધાર્મિક આચરણ તથા તપ-જપાદિ આરાધના તરફનો ઝોક વધતો ગયો. તેમણે શ્રી સિદ્ધાચળની નવાણું યાત્રા કરી. બીજાં ઘણાં તીર્થસ્થળોની યાત્રા કરી. તેમજ હૃદયમાં ઉડે ઉડે પણ દીક્ષાની ભાવના પ્રગટવાથી ધાર્મિક તેમજ સંસ્કૃત અભ્યાસ પણ શરૂ કર્યો. દીક્ષા લીધા પહેલાં જ સંસ્કૃત ભાષાનું તથા કાવ્યાદિનું સારું એવું જ્ઞાન એમણે સંપાદન કરી લીધું હતું.
પૂ.આ.શ્રી વિજય સિદ્ધિસૂરીશ્વરજી દાદાના પટ્ટાલંકાર પૂ.આ.શ્રી વિજય મેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજ ઉત્તમ ચારિત્રપાત્ર ગંભીર અને જ્ઞાની સત્પરૂષ હતા. તેમની ધર્મદેશના ઉચ્ચ કોટિની ગણાતી હતી. ભોગીલાલભાઈના હૃદય તથા જીવન ઉપર તેમની ઘણી અસર થઈ હતી અને તેથી એ તેમના પરમ ભક્ત બન્યા હતા. વિ.સં.૧૯૮૮માં શ્રી ભોગીલાલભાઈની દીક્ષાની ભાવના બળવત્તર બની. પણ પુત્ર દશ વર્ષનો હતો તેમજ તેમના પોતાના માતા-પિતા વગેરે પણ હૈયાત હતા. તેઓ બધાં આ બાબતમાં સંમતિ આપે કે કેમ તે શંકાસ્પદ હકીકત હતી. એટલે તેમણે ગુપ્ત રીતે જ અમદાવાદમાં પૂ.આ.શ્રી વિજય સિદ્ધિસૂરીશ્વરજી દાદાના વરદ હસ્તે વિ.સં. ૧૯૮૮ના જેઠ વદિ છઠને દિવસે દીક્ષા લીધી અને પૂ.આ.શ્રી વિજય મેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજના શિષ્ય તરીકે તેમને સ્થાપવામાં આવ્યા અને મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી તરીકે પ્રસિદ્ધ થયા.
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
પૂજ્યપાદ ગુરૂદેવ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર
૩
સંયમી જીવનમાં પણ નિરતિચારપણે ચારિત્રપાલન કરતાં તેમણે સારી સુવાસ ફેલાવી હતી. અપ્રમત્તભાવે સતત જ્ઞાનઉપાસના એ એમની એક મોટી વિશિષ્ટતા હતી. દ્રવ્યાનુયોગ, કર્મસાહિત્ય આદિનો અભ્યાસ કરવા ઉપરાંત આગમસાહિત્યનું અવગાહન એમણે શરૂ કર્યું અને અલ્પસમયમાં જ તેમણે શાસ્ત્રોનું ઉંડું જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી લીધું હતું. આગમસાહિત્ય પ્રભુની મંગળવાણીરૂપ હોવાને લીધે તેના ઉપર તેમને ઘણો જ અનુરાગ હતો. જીવન દરમ્યાન ૪૫ આગમોમાંથી મોટા ભાગના આગમોનું ટીકા સાથે તેમણે વાંચન-મનન કર્યું હતું. કેટલાંક આગમોનું તેમણે અનેકવાર વાંચનમનન કર્યું હતું.
દઢ મનોબળ, અપ્રમત્તતા, નિઃસ્પૃહતા, નિરભિમાનિતા, ઉચ્ચ સંકલ્પ, અખૂટ સત્ત્વ, જીવદયા માટેની પ્રબળ લાગણી, નિર્ભયતા, શૂરવીરતા, અત્યંત નિર્મળ ચારિત્ર, સતત જ્ઞાન ઉપાસના તથા ઉત્કટ પ્રભુભક્તિ આ એમના જીવનની ખાસ વિશિષ્ટતાઓ હતી.
જિનેશ્વરદેવોના પરમકલ્યાણકર સંદેશનો જગતમાં ખૂબ જ પ્રચાર અને પ્રસાર થાય, એ માટે એમના હૃદયમાં ઘણી જ પ્રબળ ધગશ હતી.
વિ.સં. ૧૯૯૩માં તેમના સંસારી પુત્રે પણ રતલામ (મધ્યપ્રદેશ)માં પંદર વર્ષની વયે પૂ. શ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજ પાસે પરમ ભાગવતી દીક્ષા વૈશાખ શુદિ ૧૩ના દિવસે સ્વીકારી અને મુનિરાજ શ્રી જંબૂવિજયજી તરીકે પ્રસિદ્ધ થયા. વિ.સં.૧૯૯પમાં સંસારી પત્ની મણિબહેને પણ તેઓશ્રીના જ સુહસ્તે દીક્ષા સ્વીકારી અને તેમનું નામ સાધ્વીશ્રી મનોહરશ્રીજી રાખવામાં આવ્યું.
મુનિરાજશ્રી જંબૂવિજયજી તીવ્ર બુદ્ધિવાળા હોવાથી તેમને ઘડવા માટે પૂજ્ય મહારાજશ્રીએ પૂરતો પ્રયાસ કર્યો. કમાઉ પુત્રને કયો પિતા સ્નેહથી ન cવરાવે ? તેમજ તેજસ્વી શિષ્યથી કયા ગુરુ હર્ષોદ્રક ન પામે ? તેમાંય મુનિશ્રી જંબૂવિજયજી તો સંસારીપણાના પુત્ર, લોહીનો સંબંધ. કૂવાના મધુર જળને જુદી જુદી નીક દ્વારા કુશળ ખેડૂત પોતાના ક્ષેત્રને હળિયાળું બનાવે તેમ મુનિરાજશ્રી જંબૂવિજયજીને જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રરૂપી ત્રિવેણીના મંગળધામ સમાન બનાવ્યા. કુશળ શિલ્પી મનોહર મૂર્તિ બનાવવા માટે વર્ષોનો પરિશ્રમ સેવે અને પોતાની સર્વ શક્તિનો વ્યય કરે, તેમ ભવિષ્યના મહાન ચિંતક અને દર્શનકાર તેમજ નૈયાયિક મુનિરાજશ્રી જંબૂવિજયજીના ઘડતર માટે સ્વર્ગસ્થ ગુરુદેવે અહર્નિશ પ્રેમભાવે અવિરત પ્રયત્ન કર્યો હતો. અને આજે મુનિરાજશ્રી જંબૂવિજયજીનું નામ વિદ્વાન-ગણમાં મોખરે છે. તેઓ તિબેટી, ઈંગ્લીશ વિગેરે અનેક દેશી વિદેશી ભાષા જાણે છે અને નયચક્ર જેવા દુર્ઘટ ગ્રંથનું સંપાદન કરી રહ્યા છે.
નયચક્ર જેવા સ્યાદ્વાદન્યાયરૂપી ઉચ્ચકોટિના ગ્રંથનું સંપાદનકાર્ય કેટલી જહેમત અને સર્વદિશાની વિદ્વત્તા માગી લે છે તે, તે વિષયના જ્ઞાતા જ સંપૂર્ણ રીતે સમજી શકે. નયચક્રના સાંગોપાંગ સંપાદન માટે તેઓશ્રીએ તિબેટની ભાષાનો અભ્યાસ કર્યો અને ઓગણીસ વર્ષના સતત પરિશ્રમ પછી નયચક્રનો પ્રથમ વિભાગ જે અત્યારે પ્રકાશિત થઈ રહ્યો છે તેનો યશ આત્માનંદ સભાને
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
પૂજ્યપાદ ગુરૂદેવ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર
જ સાંપડ્યો છે, જે ખરેખર સભાને માટે અત્યંત ગૌરવનો વિષય છે.
મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજીને સર્વ પ્રકારે સમર્થ જાણી પૂ.ગુરુદેવે તેમને અલગ વિચરવા આજ્ઞા આપી. જેને પરિણામે તેઓએ મારવાડ, માળવા, મહારાષ્ટ્ર, ખાનદેશ, વરાડ, ગુજરાત તથા સૌરાષ્ટ્રની ભૂમિને વિહારથી પાવન કરી અને સ્થળે સ્થળે આવતાં તીર્થસ્થાનોની સ્પર્શના કરીને સ્વજીવનને સાર્થક બનાવ્યું.
- પૂ.મુ.શ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજમાં જ્ઞાનપ્રાપ્તિનો તેમજ જ્ઞાનદાનનો ઘણો અનુરાગ હતો. ખાસ કરીને આગમ સાહિત્યનો તેમને ઘણો જ પ્રેમ હતો. તેઓ ઈચ્છતા હતા કે, દરેક આગમો મૂળમાત્ર સંપૂર્ણ શુદ્ધ દશામાં પ્રગટ થાય. જેથી અભ્યાસીઓને આગમજ્ઞાન સંબંધી અધ્યયન સરળ રીતે થઈ શકે. આ દિશામાં તેઓશ્રીએ કાર્ય કરવાની ઈચ્છા સેવેલી, પણ તે ઇચ્છા પાર પડે તે પહેલાં તો તેઓ સ્વર્ગસ્થ થયા. આશા રાખીએ કે તેઓશ્રીના વિદ્વાન શિષ્ય પૂ. મુનિરાજશ્રી જંબૂવિજયજી આ કાર્ય હાથ ધરીને સ્વર્ગસ્થની મનઃકામના પૂર્ણ કરે.
મહારાષ્ટ્રના વિહાર દરમ્યાન નાશિક જીલ્લાના ચંદનપુરી તથા સપ્તશૃંગી બંને ગામોમાં દેવીના મેળા પ્રસંગે બલિવધ કરાતો અને હજારો પશુઓ અકાળે મૃત્યુના મુખમાં હોમાતા હતા. વિક્રમ સંવત્ ૨૦૦૮માં પૂ.ગુરુદેવે આ ભીષમ હત્યાકાંડ અટકાવવા કમર કસી ઉપદેશ કર્યો અને તેઓશ્રીના પુરુષાર્થને પરિણામે તે તે સ્થળોમાં અનેક પશુઓની હત્યા અટકી છે અને અહિંસા પરમો ધર્મ ” નો નાદ આજે ગુંજતો થયો છે.
પાલિતાણા ખાતે જ્યારે બારોટના હક્ક સંબંધી પ્રશ્ન ઉદ્ભવેલો ત્યારે પણ તેઓશ્રીએ મક્કમપણે વિરોધ દર્શાવેલો અને તેમની સુંદર કાર્યવાહીથી તેનું ઘણું સારું પરિણામ આવેલું. તેઓશ્રીનું મનોબળ ઘણું જ મજબૂત હતું અને જે પ્રશ્ન હાથમાં લેતા તેનો સુંદર નિકાલ લાવવામાં તેઓ હંમેશા તત્પર રહેતા.
વય વધતી જતી હતી અને તેની અસર ક્ષણભંગુર દેહ પર થતી જણાતી હતી, પરંતુ આત્મબળ પાસે દેહને પરાભવ પામવો પડતો હતો. શ્રી સિદ્ધાચલજીની યાત્રા કર્યા બાદ છેલ્લા ત્રણ-ચાર વર્ષથી શ્રી શંખેશ્વરજીના સાનિધ્યમાં રહેવાનું તેમનું રટન હતું. જામનગરમાં દમનો ઉપદ્રવ શરૂ થયો, શરીર કથળતું ચાલ્યું, થોડું ચાલે ત્યાં શ્વાસ ચડે, વળી થોડો વિસામો ખાય અને ચાલે, પણ ડોળીનો આશ્રય લેવાની છેલ્લી ઘડી સુધી તેમણે ના જ પાડી. વિહાર કરતાં કરતાં ઝીંઝુવાડા પહોંચ્યા. ઝીંઝુવાડાથી વિહાર કરીને સં. ૨૦૧૫ની પોષ વદિ ત્રીજે શ્રી શંખેશ્વરજી આવ્યા. મનનો ઉલ્લાસ વધી ગયો અને હંમેશાં બપોરના જિનાલયમાં જઈ પરમાત્માની શાંતરસ ઝરતી પ્રતિમા સન્મુખ બેસી પેટ ભરીને ભક્તિ કરતા. જાણે ભક્તિ કરતાં ધરાતા જ ન હોય તેમ તેનો નિત્યક્રમ થઈ ગયો અને ભક્તિ-ધારા અવિરત વહેવા લાગી.
સાધ્વીશ્રી મનોહરશ્રીજી પણ શંખેશ્વરજી આવી પહોંચ્યા હતા. વંસતપંચમીના રોજ પૂ. ગુરુદેવે એક બહેનને દીક્ષા આપી સાધ્વીશ્રી મનોહરશ્રીજીની શિષ્યા બનાવી. વચ્ચે-વચ્ચે શ્વાસનો ઉપદ્રવ
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
પૂજ્યપાદ ગુરૂદેવ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજનું સંક્ષિપ્ત જીવનચરિત્ર
૫
રહ્યા કરતો હતો, પણ મહા સુદિ ૬ થી અશક્તિ વધી. આ સમયમાં આ.શ્રી ચંદ્રસાગરસૂરિજી મ. વગેરે ૧૦૦-૧૨૫ સાધુ-સાધ્વીનાં ઠાણાં શંખેશ્વરજીમાં બિરાજમાન હતાં. તેઓ પૂ. ગુરુદેવ પાસે તબિયતના સમાચાર પૂછવા અનેકશઃ આવતા હતા. રોજ અશક્તિ વધતી ચાલી, છતાં સાધુ જીવનની સર્વ ક્રિયા તેમણે સ્વહસ્તે જ કરી. અષ્ટમીના દિવસે પણ શરીર વિશેષ અશક્ત થઈ ગયું, છતાં હંમેશના નિયમ મુજબની ગણવાની વીશ નવકારવાળી તેમણે ગણી લીધી. પછી તેઓ સંથારામાં સૂઈ ગયા. પાસે બેઠેલા શ્રાવકને હાથ-પગ ઠંડા પડતા લાગ્યા, એટલે પૂ.મુનિ શ્રી જંબૂવિજયજીએ સ્તવનાદિ સંભળાવવા શરૂ કર્યા. પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ચંદ્રસાગરસૂરિજી મ. વગેરે સાધુ-સાધ્વીજીઓ પણ આવી પહોંચ્યા અને સુંદર રીતે નિઝામણા કરાવી.
તેઓશ્રીની મનોભાવના પ્રમાણે શ્રી શંખેશ્વરજી પાર્શ્વનાથની પ્રતિમા સન્મુખ મુખારવિંદ રાખીને અરિહંતના અને શ્રી શંખેશ્વર પાર્શ્વનાથ ભગવાનના સ્મરણમાં લીનતા પૂર્વક સમાધિભાવે સં.૨૦૧૫ના મહાશુદિ અષ્ટમીએ સોમવારે રાત્રિના ૧-૧૫ કલાકે સ્વર્ગસ્થ થયા. જેવી સાધુતા તેવું જ ઉત્તમ તીર્થસ્થળ. ખરેખર અનંત પુણ્યનો ઉદય હોય ત્યારે જ આવું પુનિત મૃત્યુ પ્રાપ્ત થાય. શાન્તમૂર્તિ મુનિરાજશ્રીને અનેકશઃ વંદના.
- શ્રી જૈન આત્માનંદસભા,
ભાવનગર.
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
___श्री गुरुस्तुतिः
॥ श्रीसद्गुरुदेवाय नमः । श्रीसद्गुरुः शरणम् ।। पूज्यपाद अनन्तउपकारी पिताश्री तथा गुरुदेव मुनिराजश्री १००८
भुवनविजयजी महाराज ! बहुपुण्याश्रितं दत्त्वा दुर्लभं नरजन्म मे । लालनां पालनां पुष्टिं कृत्वा वात्सल्यतस्तथा ।।१।। वितीर्य धर्मसंस्कारानुत्तमांश्च गृहस्थितौ । भवद्भिः सुपितृत्वेन सुबहूपकृतोऽस्म्यहम् ॥२॥ ततो भवद्भिर्दीक्षित्वा भगवत्त्यागवर्त्मनि । अहमप्युद्धृतो मार्ग तमेवारोह्य पावनम् ।।३।। ततः शास्त्रोक्तपद्धत्या नानादेशविहारतः । अचीकरन् भवन्तो मां तीर्थयात्राः शुभावहाः ॥४॥ अनेकशास्त्राध्ययनं भवद्भिः कारितोऽस्म्यहम् । ज्ञान-चारित्रसंस्कारैरुत्तमैर्वासितोऽस्मि च ॥५।। ममात्मश्रेयसे नित्यं भवद्भिश्चिन्तनं कृतम् । व्यापृताश्च ममोन्नत्यै सदा स्वाखिलशक्तयः ।।६।। ममाविनयदोषाश्च सदा क्षान्ता दयालुभिः । इत्थं भवदनन्तोपकारैरुपकृतोऽस्म्यहम् ।।७।। मोक्षाध्वसत्पान्थ ! मुनीन्द्र ! हे गुरो !
वचोऽतिगाः वः खलु मय्युपक्रियाः । असम्भवप्रत्युपकारसाधनाः
स्मृत्वाहमद्यापि भवामि गद्गदः ।।८।।
--- तत्रभवदन्तेवासी शिशुर्जम्बूविजयः
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
| | શ્રી સિદ્ધાચલમંડન શ્રી ઋષભદેવસ્વામિને નમઃ || || શ્રી શંખેશ્વર પાર્શ્વનાથાય નમઃ || શ્રી મહાવીરસ્વામિને નમઃ || || શ્રી પુંડરીકસ્વામિને નમઃ || | શ્રી ગૌતમસ્વામિને નમઃ |
શ્રી સદ્ગુરૂદેવાય નમઃ || સંઘમાતા શતવર્ષાલિકાયુ પૂ. સાધ્વીશ્રી મનોહરશ્રીજી મહારાજ
(બા મહારાજ)નો સમાધિપૂર્ણ સ્વર્ગવાસ
શ્રદ્ધાંજલિ
લે. મુનિ જંબૂવિજય અત્યંત આનંદ તથા અત્યંત દુઃખ સાથે જણાવવાનું કે મારા પરમ ઉપકારી તીર્થસ્વરૂપ પરમપૂજ્ય સંસારી આદર્શ માતા શતવર્ષાધિકાયુ સાધ્વીજીશ્રી મનોહરશ્રીજી મહારાજ પોષ સુદિ ૧૦ બુધવારે (તા. ૧૧-૧-૯૫) રાત્રે ૮-૫૪ કલાકે સકલશ્રી સંઘના મુખેથી નવકાર મહામંત્રનું શ્રવણ કરતાં કરતાં આ નશ્વરદેહનો ત્યાગ કરીને પરમ પવિત્ર તીર્થાધિરાજ શ્રી શત્રુંજયતીર્થાધિપતિ આદીશ્વરદાદાની સન્મુખ મુખ રાખીને આદીશ્વરદાદાના ચરણમાં સમાધિ પામ્યા છે. અંત સમયે આવા તીર્થની પ્રાપ્તિ થવી એ અત્યંત પુણ્ય હોય તો જ બની શકે તેથી એ વાતનો અમને અત્યંત આનંદ થાય છે.
વળી મારા પરમ પરમ ઉપકારી અને તેથી જ મારા માટે પરમાત્મસ્વરૂપ મારા સંસારી પિતાશ્રી તથા સદ્દગુરૂદેવ પૂજ્યપાદ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજ આજથી લગભગ ૩૬ વર્ષ પૂર્વે સં. ૨૦૧પના મહાસુદિ આઠમે શ્રી શંખેશ્વરજી તીર્થમાં સ્વર્ગમાં સીધાવ્યાં, લગભગ ૩૬ વર્ષ પછી મારાં માતુશ્રી શ્રી સિદ્ધક્ષેત્ર શત્રુંજય તીર્થમાં સ્વર્ગમાં સીધાવ્યાં એમ બંને મહાતીર્થમાં મારા માતા-પિતા સ્વર્ગે પધાર્યા એ મારા માટે મોટો આનંદનો વિષય છે.
બીજી બાજુ, મારા અનંત અનંત ઉપકારી અને માટે જ મારા પરમાત્મસ્વરૂપ માતુશ્રી ચાલ્યા જવાથી મારી માનસિક વેદનાનો પાર નથી.
ગયા વર્ષે મારા માતુશ્રીની જન્મભૂમિ ઝીંઝુવાડામાં અમે હતા ત્યારે માગશરવદિ બીજે મારાં માતુશ્રીએ ૧૦૦માં વર્ષમાં પ્રવેશ કર્યો હતો, તે સમયે તેમની શત્રુંજયતીર્થાધિપતિ શ્રી આદીશ્વરદાદાજીની યાત્રા કરવાની ભાવના હતી અને અમારી પણ તેમને છેલ્લી છેલ્લી યાત્રા કરાવવાની તીવ્ર ઝંખના હતી. એટલે હું, મુનિશ્રી ધર્મચંદ્રવિજયજી, મુનિશ્રી પુંડરીકરત્નવિજયજી તથા મુનિશ્રી ધર્મઘોષવિજયજી અમે ચાર સાધુઓ તથા મારા પૂ. માતુશ્રી તથા તેમના શિષ્યા-પ્રશિષ્યા સાધ્વીજીશ્રી સૂર્યપ્રભાશ્રીજી તથા સાધ્વીજીશ્રી જિનેન્દ્રપ્રભાશ્રીજી આદિ આઠ સાધ્વીજીઓ શ્રી શંખેશ્વરજી તીર્થથી સં. ૨૦૫૦ના
૧. શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય જૈનજ્ઞાનમંદિર, પાટણથી પ્રકાશિત થયેલી શ્રીસિદ્ધહેમચંદ્ર-શબ્દાનુશાસનરહસ્યવૃત્તિમાં જે શ્રદ્ધાંજલિ મુદ્રિત થયેલી છે તે જ શ્રદ્ધાંજલિ ઉદ્ધત કરીને અહીં લગભગ અક્ષરશઃ આપવામાં આવી છે.
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
શ્રદ્ધાંજલિ (પૂ. બા મહારાજની સંક્ષિપ્ત જીવનરેખા)
મહા સુદિ દશમે વિહાર કરી ફાગણ સુદિ સાતમે અહીં આવ્યા હતા. અહીં આવ્યા પછી તેમને થોડા થોડા સમયના અંતરે ત્રણ યાત્રાઓ કરાવી હતી, યાત્રા કરી તેઓનો આત્મા અત્યંત ધન્ય બન્યો હતો અને અમે પણ ધન્ય બન્યા હતા. શ્રી શંખેશ્વરજી તીર્થથી અમે નીકળ્યા ત્યારથી આજ સુધીમાં (મૂલ પાલનપુરના વતની, હાલ મુંબઈ નિવાસી) ઝવેરી કીર્તિલાલ મણીલાલ મહેતા (જંબલવાળા)ના પરિવારે ઘણો જ ઘણો સેવા આદિનો લાભ લીધો છે.
ઉંમરના કારણે અવારનવાર તબિયતમાં ફેરફાર થઈ આવતો હતો. છતાં ભગવાનની કૃપાથી પાછો સુધારો થઈ જતો હતો. એટલે આ વર્ષે તેમનો ૧૦૧માં વર્ષમાં પ્રવેશ દાદાજીની પવિત્ર છાયામાં જ થાય તો સારું એ ભાવનાથી અહીં માગશર વદિ બીજ મંગળવાર તા. ૨૦-૧૨-૯૪ સુધી રોકાયા. માગશરવદિ બીજને દિવસે તેમણે ઉપર યાત્રા કરી દાદાજીનાં દર્શન કર્યા, તેમના ચરણમાં શિર મુક્યું તેમજ આ પ્રસંગે દાદાના દરબારમાં જ ખાસ રાખેલ શ્રી ભક્તામરપૂજનમાં પણ તેઓ લગભગ ૧ કલાક સુધી બેઠા. દાદાજીનાં ખૂબ ખૂબ દર્શન કરી નીચે આવ્યા, તે પછી બપોરે આચાર્ય મહારાજ આદિ અનેક સાધુ ભગવંતોએ તેમને ખૂબ ખૂબ આશીર્વાદ આપ્યા. આ રીતે ૧૦૧મા વર્ષમાં પ્રવેશનો દિવસ ખૂબ આનંદથી પસાર થયો. - ત્યાર પછી તેમની તબિયત ધીમે ધીમે ઘસાતી ચાલી, છેલ્લા ચાર દિવસ શ્વાસ લેવામાં તકલીફ પડતી હતી, અમારી મતિ પ્રમાણે ઉપચારો કરવામાં કશી કમી રાખી નહોતી, પરંતુ નશ્વર સંસારના નિયમ અનુસારે છેવટે ૧૦૦ વર્ષ ઉપર ૨૩ દિવસનું આયુષ્ય પૂર્ણ કરીને, પ૬ વર્ષનું સુંદર ચારિત્ર પાળીને વિશાળ ચતુર્વિધ સંઘની હાજરીમાં નમસ્કાર મહામંત્રની ધૂન વચ્ચે અમને બધાને શોકમાં નિમગ્ન કરીને મારા માતુશ્રી સ્વર્ગમાં સીધાવ્યા. ભગવાન મહાવીર પરમાત્માના શાસનમાં સો વર્ષનું આયુષ્ય પૂર્ણ કરનારાં સાધ્વીજી ભાગ્યેજ થયાં છે, એટલે પ્રભુ મહાવીરના શાસનમાં ઐતિહાસિક સ્થાન પ્રાપ્ત કરીને સંઘમાતા બનીને તેમણે અનેક આત્માઓનું પરમ કલ્યાણ કર્યું છે.
અપાર વાત્સલ્યના મહાસાગર એવા તેમના હૃદયમાંથી નીકળતા આશીર્વાદોના શબ્દોનો પ્રવાહ મેળવવો એ જીવનનો અણમોલ લહાવો હતો.
સંઘમાતા પૂજ્યપાદ શતવર્ષાધિકાયુ સાધ્વીજી
શ્રી મનોહરશ્રીજી મહારાજની સંક્ષિપ્ત જીવન રેખા વિક્રમ સંવત ૧૯૫૧ માગશર વદિ ૨ શુક્રવાર તા. ૧૪-૧૨-૧૮૯૪ના દિવસે પિતાશ્રી શાહ
૧. શાહ પોપટલાલ ભાયચંદ તથા તેમના ધર્મપત્ની બેની બહેનના પરિવારનું જૈનસંઘમાં મહત્ત્વનું યોગદાન છે. પોપટભાઈને ઈશ્વરલાલ તથા ખેતસીભાઈ એમ બે પુત્રો તથા લક્ષ્મી બહેન, શિવકોર બહેન, મણિ બહેન તથા કેવળી બહેન એમ ચાર પુત્રીઓ હતાં. તેમાંથી એક પુત્ર ઈશ્વરલાલ ભાઈ તથા લક્ષ્મી બહેન, મણિ બહેન તથા કેવળી બહેન એમ ત્રણ પુત્રીઓએ તેમના પરિવાર સાથે દીક્ષા લીધી. તેમનાં નામો દીક્ષાક્રમ અનુસારે નીચે પ્રમાણે છે. મારા મામા તપસ્વિપ્રવર મુનિરાજશ્રી વિલાસવિજયજી, મ. તેમના સુપુત્ર આ.મ.શ્રી. વિજય કારસૂરીશ્વરજી મ., મુનિ જંબૂવિજયજી મ. યશોવિજયસૂરિજી મ., જિનચંદ્રવિજયજી મ., મુનિચંદ્રવિજયજી મ., તથા રાજેશવિજયજી મ. છે.
- સાધ્વીજીમાં મારાં સૌથી મોટાં માસી પૂ. સાધ્વીજીશ્રી લાભશ્રીજી મ., મારાં નાનાં માસી સાધ્વીજીશ્રી કંચનશ્રીજી મ., તેમનાં સુપુત્રીઓ સા.શ્રી લાવણ્યશ્રીજી મ. તથા સા.શ્રી વસંતશ્રીજી મ., મારાં પૂ. માતુશ્રી સાધ્વીજીશ્રી મનોહરશ્રીજી મ., જ્યોતિપ્રભાશ્રીજી મ., કલ્પલતાશ્રીજી મ., મોક્ષરસાશ્રીજી મ. તથા તત્ત્વરસાશ્રીજી મ. છે.
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
શ્રદ્ધાંજલિ (પૂ. બા મહારાજની સંક્ષિપ્ત જીવનરેખા).
પોપટલાલ ભાયચંદના ધર્માત્મા ધર્મપત્ની બેની બહેનની કુક્ષિથી ઝીંઝુવાડામાં જન્મ થયો અને તેમનું મણિબહેન નામ રાખવામાં આવ્યું. તેમના પિતાશ્રીએ તેમનુ છબલ એવું હુલામણું નામ પાડયું હતું. લગભગ ૧૬ વર્ષની ઉંમરે તેમનું બહુચરાજી તથા રાંતેજ તીર્થ પાસે દેથળી ગામના મૂળ વતની પરંતુ માંડલમાં રહેતા પિતાશ્રી મોહનલાલ જોઈતારામ તથા માતા શ્રી ડાહીબહેન ડામરસીભાઈના સુપુત્ર ભોગીલાલભાઈ સાથે લગ્ન થયું.
તે પછી વિક્રમ સંવત્ ૧૯૭૯ મહા સુદિ ૧ શુક્રવાર તા. ૧૮-૧-૧૯૨૩ના દિવસે એક પુત્રની પ્રાપ્તિ થઈ કે જેનો જન્મ તેના મોસાળ ઝીંઝુવાડામાં થયો હતો. તે પછી લગભગ બે વર્ષમાં જ બ્રહ્મચર્ય વ્રતનો બંને પતિ-પત્નીએ સ્વીકાર કર્યો.
ત્યાર પછી વિક્રમ સંવત્ ૧૯૮૮ જેઠ વદિ ૬ શુક્રવાર, તા. ૨૪-૬-૧૯૩૨ના દિવસે ભોગીલાલભાઈએ પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવ શ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરજી (બાપજી) મહારાજ પાસે ભાગવતી દીક્ષા અંગીકાર કરી અને તેઓશ્રીના પટ્ટાલંકાર પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવ શ્રી વિજય મેઘસૂરીશ્વરજી મહારાજના શિષ્ય થયા. તેમનું નામ મુનિરાજ શ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજ રાખવામાં આવ્યું. તે પછી વિક્રમ સંવત્ ૧૯૯૩ વૈશાખ સુદિ ૧૩, શનિવાર તા. ૨૫-૫-૧૯૩૭ના દિવસે રતલામમાં પુત્રે પણ ભાગવતી દીક્ષા લીધી અને તેમનું નામ મુનિશ્રી જંબૂવિજયજી રાખવામાં આવ્યું. તે પછી વિક્રમ સંવત્ ૧૯૯૫ મહાવદિ બારસે, તા. ૧૫-૨-૧૯૩૯ બુધવારે મણિબહેનની પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવ શ્રી વિજયનીતિસૂરીશ્વરજી મહારાજના હાથે અમદાવાદમાં દીક્ષા થઈ અને તેમનાં જ સંસારી મોટાં બહેન પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી લાભશ્રીજી મહારાજ (સરકારી ઉપાશ્રયવાળા) નાં શિષ્યા થયાં અને તેમનું નામ શ્રી મનોહરશ્રીજી રાખવામાં આવ્યું. દીક્ષા લીધા પછી જ્ઞાનાભ્યાસ તથા તપ-તપની આરાધના કરતાં તેઓ અનેક દેશોમાં વિચર્યા છે. તેમણે સમેતશિખરજી આદિ અનેક તીર્થોની યાત્રા કરી છે તથા શ્રી સિદ્ધગિરિરાજની નવ વાર નવાણું યાત્રા કરી છે.
માસક્ષપણ, સોળભતું, સિદ્ધિતપ, અનેક અઠ્ઠાઈઓ, ચત્તારિ-અઢ-દસ-દોય, સમવસરણ તપ, સિંહાસન તપ, વીશસ્થાનક તપ, પાંચવાર વર્ષીતપ, વર્ધમાન તપની ૬૦ ઓળી આદિ વિવિધ તપશ્ચર્યાઓ તેમણે કરી છે. તેમનો શિષ્યા પરિવાર સાધ્વીજી શ્રી સૂર્યપ્રભાશ્રીજી મહારાજ, આત્મપ્રભાશ્રીજી મ. તથા સુલભાશ્રીજી મ. વગેરે લગભગ ૪૫ જેટલો છે.
તેમની પાછલી ઉંમરમાં તેમના વિનીત શિષ્યા પરિવારે તથા તે તે ગામોના સંઘોએ તેમની અપ્રતિમ અદ્દભુત સેવા કરી છે. તે પણ ઘણાં જ ઘણા ધન્યવાદના અધિકારી છે.
તેમની તબિયત અસ્વસ્થ છે, એમ સાંભળતાની સાથે જ અનેક ગામોના સંઘો હાજર થઈ ગયા હતા. સ્વર્ગવાસ થયા પછી એમની અંતિમયાત્રાની ભવ્ય ઉજવણી માટે સાગરગચ્છાધિપતિ પૂ. આ. મ. શ્રી સૂર્યોદયસાગરસૂરીશ્વરજી મહારાજ આદિ અનેક આચાર્ય ભગવંતો તથા પ.પૂ.શ્રી અશોકસાગરજી મ., પં.શ્રી સોમચંદ્રવિજયજી મ. તથા મુનિરાજશ્રી ભાગ્યેશવિજયજી મહારાજ આદિ અનેક મુનિ ભગવંતોના પૂર્ણ સહકાર તથા સલાહ-સૂચન આદિ પ્રમાણે ભવ્ય તૈયારી કરવામાં આવી. પોષ સુદિ
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
શ્રદ્ધાંજલિ (પૂ. બા મહારાજની સંક્ષિપ્ત જીવનરેખા)
૧૧ ગુરૂવારે તે અંગેની અનેક ઉછામણીઓ વીસા-નીમા ભવનના ઉપાશ્રયમાં બોલવામાં આવી, પાલિતાણા જૈન સંઘ તરફથી પાલિતાણા શહેરમાં ખાસ પાખી રાખવામાં આવી. ગુજરાત તથા કચ્છના ઘણા ભાઈ-બહેનો આવી પહોંચ્યા. ત્રણ વાગે ‘જય જય નંદા, જય જય ભટ્ટા' ના દિવ્ય ધ્વનિ સાથે તેમની અંતિમ યાત્રા નીકળી હતી.
*
હાથી ઉપર તેમનો ભવ્ય ફોટો તથા પાલખીમાં તેમનો દેહ પધરાવીને અંતિમ યાત્રા ફરતી ફરતી પાલિતાણા શહેરમાં ફરીને છેવટે આદિનાથ મનોહરશ્રી જૈન સોસાયટીમાં આવી અને ત્યાં વિમલગચ્છાધિપતિ પં. પ્રદ્યુમ્નવિમલજી મહારાજના સંપૂર્ણ સહકારથી ત્રિસ્તુતિક તપસ્વિપ્રવરશ્રી રવીન્દ્રવિજયજી મહારાજ (અવધૂત) તરફથી આ કાર્ય નિમિત્તે ભેટ મળેલા વિશાળ પ્લોટમાં મૂળ ઝીંઝુવાડાના વતની ગોકુળ આઈસ્ક્રીમવાળા નવીનભાઈ બાબુલાલ કુબેરદાસ ગાંધીએ મોટી બોલી બોલીને અગ્નિ સંસ્કારની પવિત્ર વિધિ કરી હતી. આ પ્રસંગે જીવદયાની ટીપ આદિ અનેક અનેક ધર્માનુષ્ઠાનો થયાં હતાં. દેવવંદનમાં ૧૦૦ જેટલાં સાધ્વીજી ભગવંત પધારેલાં હતાં. રાજકોટથી આવેલા શ્રી શશિકાંતભાઈ કીરચંદભાઈ મહેતાએ મારાં માતુશ્રીને સંઘમાતા વિશેષણથી વિભૂષિત કર્યાં હતાં.
આ નિમિત્તે સંઘમાતા સાધ્વીજી શ્રી મનોહરશ્રીજી મહારાજના ગુણાનુવાદની સભા પાલિતાણામાં બિરાજમાન સાધુ ભગવંતોએ જંબૂદીપ આરાધના ભવનમાં પોષ સુદિ ૧૪ રવિવારે (તા. ૧૫-૧-૯૫) બપોરે ત્રણ વાગે રાખેલી હતી. તથા પોષ વિદ ૧ મંગળવારથી પોષ વિદ ૫ શનિવાર સુધી પંચાહ્નિક શ્રી જિનેન્દ્રભક્તિમહોત્સવ, તેમના શિષ્યાપરિવાર તથા ભક્તપરિવાર તરફથી રાખવામાં આવ્યો હતો.
પોષ વદિ ૫ શનિવારે શ્રી સિદ્ધચક્ર મહાપૂજન દાદાના દરબારમાં રાખવામાં આવ્યું હતું તથા દાદાની સુવર્ણવ૨ખથી ભવ્ય અંગ રચના કરવામાં આવી હતી. શ્રી સિદ્ધચક્ર પૂજન ભણાવવા રાજકોટવાળા શશિકાંતભાઈ મહેતા આદિ પધાર્યા હતા.
હું તો માતા-પિતારૂપી પરમાત્મામાં સમાઈ ગયો છું અને એ દ્વારા જ તીર્થંકર અરિહંત પરમાત્મામાં સમાઈ જવું એ મારા જીવનનું સંપૂર્ણ ધ્યેય છે. આ ધ્યેયને પૂર્ણ કરવામાં પરમાત્મા મને સંપૂર્ણ સહાય કરે એવી અંતઃકરણપૂર્વક શ્રી આદીશ્વરદાદા તથા શ્રી શંખેશ્વરપાર્શ્વનાથ ભગવાનને પ્રાર્થના કરૂં છું.
આ શ્રીસિદ્ધહેમચંદ્રશબ્દાનુશાસનરહસ્યવૃત્તિનું મુદ્રણ થઈ ગયા પછી મારાં પરમાત્મસ્વરૂપ પૂ. માતુશ્રીનો સ્વર્ગવાસ થયો હોવાથી આ શ્રદ્ધાંજલિ અહિં આપી છે.
સં. ૨૦૫૧, મહા સુદિ ૧ મંગળવાર તા. ૩૧-૧-૯૫
વીસાનીમા ભવન જૈન ઉપાશ્રય, તળેટીરોડ, પાલિતાણા -૩૬૪ ૨૭૦ (ગુજરાત રાજ્ય).
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सिद्धाचलमण्डन-श्री ऋषभदेवस्वामिने नमः । श्री शान्तिनाथस्वामिने नमः । श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ।
श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरजीपादपद्मभ्यो नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरजीपादपद्येभ्यो नमः । पूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयजीपादपद्येभ्यो नमः ।
જિનઆગમ જયકા (પ્રસ્તાવના)
અનંત ઉપકારી અરિહંત પરમાત્માની પરમકૃપાથી તથા પરમ પૂજ્ય પરમોપકારી પિતાશ્રી તથા સદ્ગુરુદેવ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજની પરમકૃપાથી, પંચમ ગણધર ભગવાનું સુધર્માસ્વામીથી પરંપરાએ પ્રાપ્ત થયેલા શ્રી સ્થાનાંગસૂત્રના તૃતીય વિભાગને અનેક પ્રાચીન – પ્રાચીનતમ હસ્તલિખિત આદર્શોને આધારે સંશોધિત કરેલી નવાંગી ટીકાકાર આચાર્ય ભગવાનું શ્રી અભયદેવસૂરિ વિરચિત ટીકા સાથે પ્રકાશિત કરતાં અમને અપાર આનંદનો અનુભવ થાય છે.
વિક્રમ સંવત ૨૦૫૬માં અમારૂં. બદ્રીનાથ (ઉત્તરાંચલ) માં ચોમાસું હતું ત્યારથી આ સંશોધન કાર્ય ચાલતું હતું, પરંતુ દૂર દૂરના લાંબા લાંબા પ્રવાસ આદિ કારણે આના પ્રકાશનમાં ઘણો જ વિલંબ થતો ગયો. શ્રી જૈન શ્વે. નાકોડા પાર્શ્વનાથ તીર્થમાં આવ્યા પછી બે વિભાગ પ્રકાશિત થયા હતા. નાકોડાતીર્થથી વિહાર કર્યા પછી અમે અહીં લોલાડા (શંખેશ્વરજી તીર્થથી ૧૨ કિ.મી. દૂર) ગામમાં ચાતુર્માસ રહ્યા છીએ. હવે આ ત્રીજો વિભાગ પ્રકાશિત થાય છે. સ્થાનાંગસૂત્રનાં દશ અધ્યયનો છે, તેમાં પ્રથમ વિભાગમાં ૧-૨-૩ અધ્યયન, દ્વિતીય વિભાગમાં ૪-પ-૬ અધ્યયન પ્રકાશિત થયાં હતાં. આ તૃતીય વિભાગમાં ૭-૮-૯-૧૦ અધ્યયન પ્રકાશિત થાય છે. આ રીતે હવે આ ગ્રંથ પરિપૂર્ણ થાય છે.
વિક્રમ સં. ૨૦૪૧ (ઈ.સ. ૧૯૮૫) માં શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય-મુંબઈ તરફથી જૈન આગમ ગ્રંથમાલા ગ્રંથાંક ૧૯(૧), ૧૯(૨) માં પ્રકાશિત થયેલા મૂલમાત્ર શ્રી સ્થાનાંગસૂત્રની ગુજરાતી પ્રસ્તાવનામાં તથા સટીક પ્રકાશિત થયેલા સ્થાનાંગસૂત્ર ભાગ-૧,૨ ની ગુજરાતી પ્રસ્તાવનામાં અમે ઘણી હકીકતો જણાવી છે. એટલે એનું પુનરાવર્તન ન કરતાં, મુખ્ય વાત જણાવીએ છીએ.
આ.શ્રી જિનેશ્વરસૂરિ તથા બુદ્ધિસાગરસૂરિના શિષ્ય અભયદેવસૂરિએ અજિતસિંહસૂરિના શિષ્ય યશોદેવગણની સહાયથી વિક્રમસંવત્ ૧૧૨૦માં આની રચના કરી છે અને દ્રોણાચાર્ય વગેરે
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રસ્તાવના
પ્રાજ્ઞપંડિત પુરૂષોએ આનું સંશોધન કર્યું છે. અચ્છત ધનપતિની વસતિમાં જિનદેવગણીએ અણહિલપાટકનગરમાં આની પ્રથમ પ્રતિ લખી છે.' આ વાત ટીકાકારે પોતે ટીકા ગ્રંથના અંતમાં લખી છે.
આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિ મહારાજના સમયમાં સ્થાનાંગસૂત્રથી વિપાકસૂત્ર સુધીનાં નવ અંગો ઉપર ખાસ મહત્ત્વનું કોઈ વિવેચન હતું જ નહિ, એટલે તે બધા ઉપર ટીકા રચવાનું અત્યંત મહત્ત્વનું અતિકષ્ટસાધ્ય અતિ અદ્ભુત કાર્ય તેમણે કર્યું હોવાથી શ્વેતાંબર મૂર્તિપૂજક જૈન પરંપરામાં તેઓ નવાંગીટીકાકાર તરીકે અત્યંત સુપ્રસિદ્ધ અને માન્ય મહાપુરૂષ છે.વિવિધ વિષયોનું અગાધ જ્ઞાન ધરાવનાર આ મહાપુરૂષે અનેક વિષયો ઉપર બહુ જ તટસ્થ ભાવે વિવેચન કર્યું છે. સ્થાનાંગ સૂત્રની ટીકા તેમણે વિક્રમ સં. ૧૧૨૦માં પૂર્ણ કરેલી છે.
જીવનચરિત્ર- ટીકાકાર આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજનું ઘણું જ રોચક અને અદ્દભુત જીવનચરિત્ર જુદા જુદા પ્રબંધ આદિ ગ્રંથોમાં મળે છે. બધામાં કેટલીક વાતો સમાન છે, તો કેટલીક વાતોમાં વિશેષતા પણ છે. આ તૃતીય વિભાગનું પુસ્તક ઘણું મોટું થઈ ગયું હોવાથી, હવે પછી જે સટીક સમવાયાંગનું સંશોધન-સંપાદન ચાલે છે, તેના પ્રકાશન સમયે આ.શ્રી અભયદેવસૂરિ મહારાજનું જીવનચરિત્ર વિસ્તારથી આપવા ઈચ્છા છે.
| વિક્રમ સં.૧૩૩૪માં આ.શ્રી પ્રભાચન્દ્રસૂરિએ રચેલા પ્રભાવકચરિત્રમાં ૨૨ પ્રબંધોમાં ભગવાન્ વજસ્વામી આદિ ૨૨ મહાપુરૂષોના જીવનચરિત્રો વર્ણવેલાં છે. પ્રભાવકચરિત્ર પ્રાચીન તથા ઘણા અંશે પ્રમાણભૂત ગ્રંથ ગણાય છે તેમાં કેટલુંક પૂર્વના ગ્રંથોના આધારે તથા કેટલુંક દંતકથાઓને આધારે તેમણે વર્ણન કરેલું છે. તેમાં ૧૯મા પ્રબંધમાં તેમણે અભયદેવસૂરિ મહારાજનું જીવનચરિત્ર વર્ણવેલું છે. તેમાં જણાવ્યા પ્રમાણે અભયદેવસૂરિ મ. વિચરતા વિચરતા "પલ્યપદ્રપુરે ગયા હતા. ત્યાં ધર્મધ્યાનમાં મગ્ન અભયદેવસૂરિ મ.ને દેવીએ આગ્રહપૂર્વક વિનંતિ કરી કે “તમે નવ અંગ ઉપર ટીકાની રચના કરો...' અભયદેવસૂરિ મહારાજે દેવીની વિનંતિથી ૧. હસ્તલિખિતમાં ૪ થા ન લગભગ સરખા લખાય છે. એટલે આનો સાચો પાઠ પત્યપદ્ર છે. આ પત્યપદ્ર તે પચપદરા ગામ છે, એમ પં.શ્રી કલ્યાણવિજયજી મહારાજ પ્રભાવકચરિત્રના પ્રબંધાર્યાલોચનમાં જણાવે છે. આ પચપદરા ગામ નાકોડા તીર્થથી જોધપુર જતાં રસ્તામાં આવે છે. નાકોડા તીર્થથી ૧૨ કી.મી. બાલોતરા શહેર છે. ત્યાંથી ૧૩ કી.મી. પચપદરા ગામ છે. પચપદરામાં આપણાં જૈનોનાં ૪૦૦ જેટલાં ઘરો છે, ચાર દહેરાસર છે. ૪૦૦ ઘરોમાં પંદર-વીસ જ મંદિરમાર્ગી રહ્યાં છે. બાકી બધાં તેરાપંથી થઈ ગયાં છે. અમે દોઢ વર્ષ પૂર્વે ત્યાં ગયા હતા. આપણા ઉપાશ્રયની સામે જ ભગવતી માનો આશ્રમ છે. આ ભગવતી માએ ૧૮ વર્ષથી અન્ન-પાણી સંપૂર્ણ છોડી દીધાં છે. મૌનમાં જ રહે છે. લગભગ ૭૦ વર્ષની ઉંમર છે. તેમણે ઓરડાની બહાર પગ પણ ૧૮ વર્ષથી મૂક્યો નથી. અમે બે વાર મળવા ગયા હતા. ઈશારાથી જ વાત કરે છે. “ગળામાં અમૃતકૂપ ખુલી જવાથી અમૃત ઝર્યા જ કરે છે, એટલે આહાર-પાણીની જરૂર જ પડતી નથી' એમ તેમણે અમને જણાવ્યું હતું. ખૂબ પ્રસન્ન હોય છે. ભગવતી મા ભગવાન્ શ્રીકૃષ્ણના ઉપાસિકા છે. આશ્રમમાં ભગવાન શ્રીકૃષ્ણનું મંદિર છે. તેની બાજુમાં જ ભગવતી મા એક ઓરડામાં રહે છે. પચપદરા જનારે આ આશ્રમની મુલાકાત લેવા જેવી છે.
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રસ્તાવના
આ દુષ્કર કાર્યનો પણ સ્વીકાર કર્યો અને આ કાર્ય સંપૂર્ણ ન થાય ત્યાં સુધી આયંબિલ કરવાની ઉગ્ર પ્રતિજ્ઞા લીધી. વિસ્તારથી આ બધી વાતો સટીક સમવાયાંગના પ્રકાશન સમયે જણાવવા અમારી ભાવના છે.
આ ગ્રંથોને પ્રમાણભૂત બનાવવા માટે તે યુગના પ્રકાંડ વિદ્વાનું અનેક અનેક જૈનાચાર્યોએ આમાં સહયોગ આપ્યો છે. અભયદેવસૂરિમની તટસ્થતા પણ અત્યંત આશ્ચર્યજનક છે. જ્યાં જ્યાં પોતાને સ્પષ્ટ ન જણાયું ત્યાં તેમણે અત્યંત સરળ રીતે આ વાતનો નિર્દેશ કર્યો છે.
તેમને જે સૂત્રપાઠ મળ્યો તેમાં અક્ષર પણ અધિક ઉમેર્યા સિવાય સ્પષ્ટ જણાવી દીધું છે. સૂ૦ દરર માં તેમને સંવે જાલીને એટલો જ પાઠ હસ્તલિખિત આદર્શોમાં મળ્યો. પરંતુ છંદનો ભંગ થતો હતો. માત્ર તદ ઉમેરવાની જ જરૂર હતી. તે પણ એમણે સ્પષ્ટ જણાવી દીધું કે તદ ઉમેરવાથી ગાથા પુરી થાય છે. પણ આદર્શોમાં ત૮ નથી.
ભગવાન્ મહાવીર પરમાત્મા ગણધર ભગવાનોને દીક્ષા આપ્યા પછી ૩qન્ને રૂ વા વિજાપુ રૂ વા યુવે ડું વા આ ત્રિપદી સંભળાવે છે. અને અતિશય લબ્ધિસંપન્ન ગણધર ભગવાનો આ ત્રણ માતૃકાપદને આધારે દ્વાદશાંગીની રચના કરે છે. આ વાત જૈન સંઘમાં અત્યંત સુપ્રસિધ્ધ છે. એટલે આ દ્વાદશાંગીના રચયિતા બધા ગણધર ભગવાન છે. તેમાં પાંચમા ગણધર સુધર્માસ્વામી છેલ્લા નિર્વાણ પામ્યા એટલે બધા ગણધરો પોતાનો ગણ સુધર્માસ્વામીને સોંપીને નિર્વાણ પામ્યા તેથી આપણી પરંપરામાં સુધર્માસ્વામીથી દ્વાદશાંગી આવી છે. કેટલાક દિગંબર આચાર્યોના કથન પ્રમાણે દ્વાદશાંગીની રચના ઈદ્રભૂતિ ગૌતમસ્વામીએ કરી હતી અને તેમણે જ સુધર્માસ્વામીને એ દ્વાદશાંગી કહેલી હતી. એટલે પણ આપણી પરંપરામાં આવેલી દ્વાદશાંગી શ્રી સુધર્માસ્વામીથી ચાલી આવે છે આ જ વાત ફલિત થાય છે, એટલે આ તૃતીય અંગ સ્થાનાંગસૂત્રના રચયિતા પંચમ ગણધર ભગવાન્ સુધર્માસ્વામી છે.
પ્રારંભમાં મૌખિક રીતે જ આગમોના અધ્યયન-અધ્યાપનની પરંપરા હતી. તેથી અનેક અનેક અનેક કારણોથી વિસ્મૃતિ થવા આદિ કારણે જ્યારે આ. ભ. દેવદ્ધિગણિક્ષમાશ્રમણની અધ્યક્ષતામાં વલ્લભીપુરમાં સૂત્રોને પુસ્તકારૂઢ કરવામાં આવ્યાં ત્યારે જે શ્રુતજ્ઞાન શ્રમણોમાં કંઠસ્થ રહેલું હતું તેમાં જે જે કેટલાક સંસ્કારો કરવામાં આવ્યા તે પણ અત્યારે આપણા આગમ ગ્રંથોમાં છે. મૂળ અર્ધમાગધી ભાષામાં લખાયેલા આગમ ગ્રંથોમાં દેવર્કિંગણી ક્ષમાશ્રમણ પછી પણ કેટલાક ભાષા સંબંધી સંસ્કારો થતા રહ્યા હશે, એમ લાગે છે. અગિયાર અંગોનાં પદોની સંખ્યાનું જે પ્રમાણ જુદા જુદા ગ્રંથોમાં વર્ણવ્યું છે તેની સાથે સરખાવતાં એમ ચોક્કસ જણાય કે વર્તમાનમાં વિદ્યમાન આગમોના પાઠોમાં ઘણી જ મોટી પદસંખ્યા ઘટી ગઈ છે. સ્થાનાંગના દશમા અધ્યયનમાં સૂ. ૭૫૫ માં દશ અધ્યયનની બનેલી જે દશ દશાઓનું વર્ણન આવે છે. તે આજે મળતા આગમ ગ્રંથોમાં કંઈક અંશે મળે છે, કંઈક અંશે નથી મળતું. તે જોતાં પણ એમ લાગે છે કે વર્તમાનમાં પ્રચલિત આ.ભ. દેવદ્ધિગણી ક્ષમાશ્રમણે પુસ્તકારૂઢ કરેલી વાચનામાં કેટલુંક પરિવર્તન તથા પ્રક્ષેપ
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રસ્તાવના
આદિ થયેલું છે. સૂ. ૭૫૫ માં દીર્ધદશાના શુક્ર અધ્યયનમાં ટીકાકારે સોમિલ બ્રાહ્મણની વિસ્તારથી જે કથા નિરયાવલિકાના આધારે આપી છે, તેને મળતી વાત ભગવતીમાં બીજા કોઈ સોમિલ બ્રાહ્મણના પ્રસંગમાં પણ આવે છે, આવી વાત જ્ઞાતાધર્મકથામાં થાવસ્ત્રાપુત્રના અધ્યયનમાં શુક પરિવ્રાજકના સંબંધમાં પણ આવે છે. પાત્રો જુદાં છે, પણ કેટલીક વાત એક જ પ્રકારની આવે છે. તૃતીય પરિશિષ્ટના ટિપ્પણમાં આ પાઠો અમે આપ્યા છે. ઐતિહાસિક દષ્ટિએ ધ્યાન ખેંચનારી આવી ઘણી ઘણી વાતો આમાં જોવા મળે છે.
નિયુક્તિ ગ્રંથોનું આવશ્યક આદિ દશ ગ્રંથો ઉપર ચતુર્દશપૂર્વધર ભગવાન્ ભદ્રબાહુસ્વામીએ નિર્યુક્તિની રચના કરી છે, આ વાત અત્યંત પ્રસિદ્ધ છે. પરંતુ અત્યારે મળતા આવશ્યકનિર્યુક્તિ આદિ ગ્રંથોમાં નિર્યુક્તિની ખરેખર કેટલી અને કઈ ગાથાઓ છે આ વાત નક્કી કરવાનું કામ બહુ જ કઠિન છે. ભાષ્યગાથાઓ- સંગ્રહણીગાથાઓ-પ્રક્ષિપ્ત ગાથાઓ તેમાં કેટલી મિશ્રિત થઈ ગઈ છે, એ મોટો વિચારણીય પ્રશ્ન છે. ઉદાહરણ તરીકે, દિગંબર સંપ્રદાયમાં અત્યંત માન્ય તથા પ્રાચીન ગણાતા વટ્ટકેરઆચાર્ય વિરચિત 'મૂનાવાર માં ૧૨ અધિકાર છે. આમાં સાતમા પડાવશ્ય અધિકારમાં પ્રારંભમાં બે ગાથાઓ છે- ITI પનોwારે મરદંતાdi तहेव सिद्धाणं । आइरिय उवज्झाए लोगम्मि य सव्वसाहूणं ।।१।। आवासयणिज्जुत्ती वोच्छामि जहक्कमं समासेण । आयरियपरंपराए जहाऽऽगदा आणुपुव्वीए ।।२।।
મૂનાવાર ની આ ગાળામાં ૩ાવરફ્યુનિર્યુક્ટિ નો ઉલ્લેખ કર્યો છે અને આમાં ૧૮૯ ગાથાઓ જ છે. પરંતુ આપણે ત્યાં જે સાવનિર્યુક્ટ્રિ ગ્રંથ પ્રચારમાં છે તેમાં, લગભગ ૧૬૩૭ ગાથાઓ હર્ષપુષ્યામૃત જૈન ગ્રંથમાલા (ગ્રંથાંક ૧૮૯)માં લાખાબાવલ-શાંતિપુરીથી પ્રકાશિત થયેલા નિર્યુક્તિસંગ્રહમાં છે. તથા આગમોદયસમિતિથી પ્રકાશિત થયેલા હારિભદ્રીવૃત્તિસહિત આવશ્યકનિર્યુક્તિગ્રંથમાં ૧૬૨૩ ગાથાઓ છે. સટીક સ્થાનાંગસૂત્રના પ્રથમ ભાગની પ્રસ્તાવનામાં (પૃ૦ ૩૫) પણ આ વાત અમે સંકેત રૂપે સંક્ષેપમાં જણાવી જ છે. એટલે જ્યાં
જ્યાં અમે આવશ્યકનિયુક્તિ આદિનો ઉલ્લેખ કર્યો છે તથા ગાથાક્રમાંક આપ્યો છે તે માત્ર પ્રચલિત વ્યવહાર-પરંપરાને અનુસરીને જ આપ્યો છે.
વળી, આવશ્યકનિયુક્તિની આપણા પ્રાચીન ગ્રંથભંડારોમાં તાડપત્ર અથવા કાગળ ઉપર લખેલી જેટલી પ્રતિઓ મળે છે તે બધામાં નંદિસૂત્રમાં આવતી પ્રારંભની વિરાવલીની લગભગ બધી ગાથાઓ આવશ્યકનિર્યુક્તિના પ્રારંભમાં જ મળે છે. પરંતુ આવશ્યકનિર્યુક્તિની ચૂર્ણિહારિભદ્રીવૃત્તિ-મલયગિરીયવૃત્તિ આદિ વૃત્તિઓ મળે છે તે બધામાં એ ગાથાઓની કોઈ જ વ્યાખ્યા નથી. તેમાં સામાનવોદિયના સુયના વેવ ગોદિના | તદ માપmવિના
વત્તિના વ પંવમયે 9 Tી આ ગાથાથી જ સામાયિકનિર્યુક્તિ (આવશ્યકનિર્યુક્તિ) શરૂ ૧. ઈતિહાસના જાણકારો આ ગ્રંથ યાપનીય સંપ્રદાયનો છે એમ માને છે. યાપનીયસંઘના અનુયાયીઓ સ્ત્રીમુક્તિ તથા કેવલિભક્તિને સ્વીકારતા હતા, તેમજ શ્વેતાંબરોને માન્ય ઘણા આગમગ્રંથોને પણ સ્વીકારતા હતા. વઢ-પાત્રને પણ અમુક રીતે તેઓ સ્વીકારતા હતા. સામાન્ય રીતે પાપનીય સાધુઓ નગ્ન રહેતા હતા. આ યાપનીયોનું ઘણું સાહિત્ય પાછળથી દિગંબર પરંપરામાં સમાઈ ગયું છે. શ્વેતાંબર તથા દિગંબર પરંપરા અલગ અલગ થઈ તેના પ્રારંભિક સમયની આ વાતો છે, એટલે અનેક અનેક પ્રાચીન ગાથાઓ થોડા કે વધારે પાઠભેદ સાથે બંને પરંપરાઓમાં વ્યાપક રીતે સમાઈ ગઈ છે.
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રસ્તાવના
થાય છે. એટલે બધા નિર્યુક્તિગ્રંથોમાં ખરેખર ચતુર્દશપૂર્વધર ભગવાન્ ભદ્રબાહુ સ્વામિવિરચિત નિર્યુક્તિ ગાથાઓ કઈ છે, એ અત્યંત અત્યંત જટિલ પ્રશ્ન છે.
દ્વિતીય વિમા ના પૃ૦ ૫૯૭ ૫૦ ૧૧ નું એક તુલનાત્મક ટિપ્પણ આ તૃતીય વિમા ના ટિપ્પણોના પ્રારંભમાં લીધું છે.
આ સ્થાનાંગસૂત્રમાં આવતી દશવિધ ધર્મ, પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ સંબંધી કેટલીયે વાતો દિગંબર ગ્રંથોમાં પણ મળે છે. શ્વેતાંબર-દિગંબર પરંપરાઓ ઘણાં જ વર્ષો પૂર્વે છૂટી પડી ગઈ હોવાથી કેટલીક વાતોમાં નામભેદ-ક્રમભેદ-અર્થભેદ પણ કંઈક અંશે જોવા મળે છે. દિગંબર પરંપરામાં પણ કેટલીકવાર ગ્રંથોમાં વર્ણનમાં પરસ્પરભેદ જોવા મળે છે. આ ગ્રંથનું પ્રમાણ ઘણું મોટું થઈ ગયું હોવાથી આ ગ્રંથના ટિપ્પણોમાં અમે આવી થોડી જ વાતો લીધી છે. વિશેષ જિજ્ઞાસુઓએ આવી વાતો સ્વયં જ દિગંબર આદિ ગ્રંથોમાં જોઈ લેવી.
સ્થાનાંગસૂત્રમાં સૂ૭૪૭માં ગણિત સંબંધી વાતો આવે છે. ગણિત અમારો વિષય નથી. એ અંગે શું શું પ્રાચીન સાહિત્ય મળે છે, તેની તપાસ કરતાં કરતાં પ્રાચીન ગ્રંથોમાં આર્યભટવિરચિત ગણિતપાદ, મહાવીરાચાર્ય(દિગંબર)વિરચિત ગણિતસારસંગ્રહ, શ્રીપતિવિરચિત ગણિતતિલક (સિંહતિલકસૂરિવિરચિત ટીકાસહિત) તથા શ્રીધરવિરચિત ત્રિશતી (પાટીગણિત) આટલા ગ્રંથો અમારા જાણવામાં આવ્યા. તેમાં ગણિતતિલક G... ગાયકવાડ ઓરિએન્ટલ સીરીઝમાં વડોદરા ઈ.સ.૧૯૩૭માં છપાયેલું મળ્યું. મોતીલાલ બનારસીદાસ દિલ્હીના શ્રી નરેન્દ્ર પ્રાશની મૈને ઘણી જ મહેનત કરીને વારાણસીમાંથી મુદ્રિત પુસ્તક શોધી કાઢીને ગણિતપાદ તથા ગણિતસારસંગ્રહની ફોટોસ્ટેટ કોપી અમારા ઉપર મોકલી આપી. તથા ઘણી ઘણી ઘણી તપાસ કરતાં ત્રિશતીની હસ્તલિખિત પ્રતિ શ્રી કૈલાસસાગરસૂરિજ્ઞાનમંદિર- શ્રી મહાવીર આરાધના કેન્દ્ર- કોબામાં છે એમ અમારા જાણવામાં આવ્યું. આ. શ્રી પદ્મસાગરસૂરિજી મહારાજ તથા શ્રી અજયસાગરજી મહારાજના ઘણા ઘણા સૌજન્યથી તેની ફોટોસ્ટેટ (ઝેરોક્ષ) કોપી પણ અમને મળી. અમને જણાવતાં અત્યંત અત્યંત આનંદ થાય છે કે સ્થાનાંગસૂત્ર ૭૪૭ની ટીકામાં પૃ.૮૫૬માં આ.શ્રી અભયદેવસૂરિજી મહારાજે ઉદ્ધત કરેલા બંને પાઠો અમને ત્રિશતીમાં મળી ગયા. ભાસ્કરાચાર્યવિરચિત સિદ્ધાંતશિરોમણિ (લીલાવતી) ગ્રંથ મળે છે, પણ તે અભયદેવસૂરિમહારાજ પછીનો ગ્રંથ છે. આ સંબંધમાં જૈન વિશ્વભારતી-લાડનૂ-રાજસ્થાનથી પ્રકાશિત કાપ માં તેરાપંથી આ૦ શ્રી નથમલજીએ હિંદી ભાષામાં લખેલું વિસ્તૃત ટિપ્પણ પણ ઉપયોગી સમજીને અમે તૃતીય પરિશિષ્ટમાં લીધું છે.
સૂટ ૭૧૬ની ટીકામાં પૃ૦ ૮૨૨ માં પતિ સંવનનાહિ, તવેવ સૂ સૂક્ષ્મવૃદ્ધિગમ્, શ્રિયતે વઝીન્ને જગતતિ આ પ્રમાણે પાઠ છે, પરંતુ ગણિતના સંસ્કૃતગ્રંથોમાં પરાંનાં જાતિમ્ મળે છે; ઘણી તપાસ કરવા છતાં વન્દ્ર નામનો ગણિતનો પ્રકાર અમારા જોવામાં ક્યાંયે આવ્યો નથી. અભયદેવસૂરિમહારાજને વઝ શબ્દથી શું અભિપ્રેત છે તે અમને સમજાતું નથી. આર્યભટ્ટવિરચિત ગણિતપાદમાં સૂક્ષ્મગણિતની વાત આવે છે પણ એ સૂક્ષ્મગણિત તદન જુદી વસ્તુ છે.
શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય (મુંબઈ) તરફથી વિ. સં. ૨૦૨૪ (ઈ.સ. ૧૯૬૮) માં જૈન આગમ ગ્રંથમાલા ગ્રંથાંક ૧ માં પ્રકાશિત થયેલા નંવિસુતં-મyયો દારાડું ની ગુજરાતી
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રસ્તાવના
પ્રસ્તાવનામાં (તથા તેના અંગ્રેજી અનુવાદમાં) જૈન આગમો તથા તેના ભેદો આદિ વિષે પૃ. ૪ થી ૨૨માં તેના સંપાદકો આ.પ્ર. મુનિરાજશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજ આદિએ ઘણા ઘણા વિસ્તારથી ચર્ચા-વિચારણા કરી છે. છતાં, આ અંગે જે વિશેષ વિચારણા કરવાની છે તે સટીક સમવાયાંગમાં જણાવવા ભાવના છે.
રાજસ્થાન, હરિયાણા, દિલ્હી, ઉત્તરાંચલ, ઉત્તરપ્રદેશ, બિહાર, ઝારખંડ આદિમાં વિહાર કરવાથી અમને જાણવા મળ્યું કે ગુજરાત બહાર હિન્દીભાષાભાષી પ્રદેશોમાં આગમના અભ્યાસીઓ ખૂબ-ખૂબ મોટી સંખ્યામાં છે. તેમના સુધી આ ગુજરાતી લખાણ પહોંચ્યું પણ નથી. તેઓ ગુજરાતી ભાષાને સમજી શકતા પણ નથી. શ્વેતાંબર મૂર્તિપૂજક, સ્થાનકવાસી, તેરાપંથી, તથા દિગંબર જૈનો લાખોની સંખ્યામાં ત્યાં વસે છે. જૈનેતર વિદ્વાનો પણ આના અભ્યાસીઓ હોય છે. તે બધા સુધી આ લખાણ પહોંચાડવા માટે રાષ્ટ્રભાષા હિન્દીમાં લખવું પણ ઘણું જરૂરી છે.
ગ્રંથોના ગ્રંથો ભરાય એટલું બધું સાહિત્ય હિંદી ભાષામાં આગમો અંગે જુદા જુદા લેખકો વડે લખાયું છે. તેમાં કેટલુંક લખાણ વિવાદાસ્પદ પણ છે, કેટલુંક કાલ્પનિક પણ છે. છતાં બીજાઓનું દૃષ્ટિબિંદુ જાણવું પણ ગંભીર અભ્યાસીઓને માટે જરૂરી ગણાય. એ બધા વિવિધ વિચારો સ્થાનાંગસૂત્રની આ પ્રસ્તાવનામાં પ્રદર્શિત કરવાનું શક્ય નથી. એટલે એ માટે જોવાના સાહિત્યની જ ભલામણ કરીએ છીએ.
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. १,२,३,४ प्रकाशक - पार्श्वनाथ विद्याश्रम શોધસંસ્થાન, C/o મા.ટી.મા. રોડ, વારાણસી-૧ (૩ત્તરપ્રવેશ).
નન વિઘા માથા ના.૭-૭, Aspects of Saiolgy નાં ૭ વોલ્યુમ (પ્રકાશવરપાર્શ્વનાથ વિદ્યાશ્રમ શોધસંસ્થાન, વારાણસી-) માં પ્રકાશિત થયેલા અનેક નિબંધો
जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषांक (ई.स. २००२, प्रकाशक- सम्यग्ज्ञानप्रचारक मण्डल, बापू बजार, जयपुर, राजस्थान) पृ. १-५१८
जैनधर्म का मौलिक इतिहास भाग-२ (लेखक- आ.श्री हस्तिमलजी महाराज). તે ઉપરાંત, આગમ પ્રકાશન સમિતિ (વ્યાવર, રાજસ્થાન) થી પ્રકાશિત થયેલા અનેક આગમ ગ્રંથોની પ્રસ્તાવનાઓ.
શ્રીચંદજી સુરાણા (સરસ) પણ દિવાકર પ્રકાશન (C/o N 7 વાઢિ હીલસ, સંગના સિનેમા સામને, મહાત્મા થી રોડ, મરી, ઉત્તરપ્રવેશ, પિન-૨૮૨૦૦૨) દ્વારા ઘણું સાહિત્ય આગમ વિષે પ્રકાશિત કરે છે. શ્રીચંદજી સુરાણા સાથે અમારે જુનો પરિચય તો હતો જ, પણ જ્યારે અમારે આગરા જવાનું થયું અને એક દિવસ તેમને ત્યાં રોકાયા, ત્યારે ખબર પડી કે કેટલી મોટી પ્રવૃત્તિ ત્યાં પણ ચાલી રહી છે.
પ્રાકૃત ભારતી અકાદમી (9રૂ-૭ મૈન માનવીય નર નયપુર, રાનસ્થાન, વિન
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રસ્તાવના
૩૦૨૦૬૭)માં પણ ડૉ. વિનયસાગરજી, તથા સુરેન્દ્રકુમારજી બોથરા આદિ ઘણી પ્રવૃત્તિ કરી રહ્યા છે.
વર્ધમાન સ્થાનકવાસી જૈન શ્રમણ સંઘમાં ઉપપ્રવર્તક શ્રી અમરમુનિજીના માર્ગદર્શન નીચે પદ્મ પ્રાશન, (પદ્મધામ, નરેની મંડી, વિલ્હી ૧૧૦૦૪૦) તરફથી સચિત્ર આગમ ગ્રંથો હિન્દી તથા અંગ્રેજી અનુવાદો સાથે એક પછી એક ઝપાટાબંધ પ્રકાશિત થઈ રહ્યા છે. આના સહસંપાદક આગરાના શ્રીચંદજી સુરાણા (સરસ) છે તથા અંગ્રેજી અનુવાદ સુરેન્દ્રકુમાર બોથરા (પ્રાકૃત ભારતી અકાદમી, જયપુર) કરી રહ્યા છે.
७
આગમોની બાબતમાં અનેક સ્થાનકવાસી તથા તેરાપંથી સંસ્થાઓ પણ ખૂબ ખૂબ સક્રિય છે. હિન્દી ભાષાંતરો, વિવેચનો, સચિત્ર અંગ્રેજી અનુવાદો, શોધનિબંધો ઘણા મોટા પ્રમાણમાં પ્રકાશિત થયા છે તથા પ્રકાશિત થઈ રહ્યા છે. તેરાપંથીઓએ પ્રકાશિત કરેલું કેટલુંક સાહિત્ય ખૂબ ખૂબ અધ્યયન તથા ઝીણવટથી ભરેલું હોય છે. શ્રી ગુરૂપ્રાણ ફાઉન્ડેશન (શ્રી રોયલ પાર્ક સ્થાનકવાસી જૈન મોટા સંઘ, રાજકોટ, ગુજરાત રાજ્ય, પિન ૩૬૦૦૦૫) તરફથી ગુરૂપ્રાણબત્રીસી ગ્રંથમાલામાં ગુજરાતી અનુવાદ તથા વિવેચન સાથે બત્રીસ આગમો પ્રકાશિત થઈ રહ્યા છે. તેમાં ૨૦ ગ્રંથો તો આજ સુધી પ્રકાશિત થઈ પણ ગયા છે.
સ્થાનકવાસીઓમાં જો કે ઘાસીલાલજી તથા પુષ્પભિક્ષુએ આગમોની બાબતમાં કેટલાક મનફાવતા ફેરફારો કરી નાખ્યા છે. છતાં સ્થાનકવાસીઓએ પ્રકાશિત કરેલું બીજુ બધું જ સાહિત્ય એવું નથી. હસ્તલિખિત ગ્રંથોને વફાદાર રહીને પણ ઘણું સાહિત્ય પ્રકાશિત થયેલું છે. પરંતુ મોટી ખામી એ છે કે સ્થાનકવાસી તથા તેરાપંથીઓ પાસે પ્રાચીન હસ્તલિખિત ગ્રંથોની સામગ્રી છે જ નહિ અથવા નહિવત્ છે. આ બધી સામગ્રી શ્વેતાંબર મૂર્તિપૂજક સંઘ પાસે જ છે. એટલે શ્વે. મૂર્તિપૂજક શ્રમણ સંઘ, જો આગમ આદિ સાહિત્યના સંશોધનમાં ગંભીર રીતે ચિંતન કરીને રસ લેતો થાય તો ઘણું જ સુંદર, શુદ્ધ તથા પ્રમાણભૂત સાહિત્ય પ્રકાશમાં આવે તથા ઘણી ભ્રાંતિઓ ઉભી થતી અટકે. આ લખવાનું પ્રયોજન એ છે કે શ્વે.મૂ. શ્રમણસંઘ આ વિષે ગંભીરતાથી વિચારે તેમ જ સત્વર જાગરિત થઈને સક્રિય બને. શ્વે.મૂ.સંઘ પાસે અપાર સામગ્રી તથા શક્તિ છે એટલે શ્વે.મૂ.સંઘની આ જવાબદારી તથા પવિત્ર ફરજ પણ છે.
ઈંગ્લેન્ડમાં પણ Oxford University Press, Great Clarendon Street, OXFORD, OX2 6DP U.K. તરફથી OXFORD WORLD'S CLASSICS આ ગ્રંથમાલામાં પ્રો. રિચાર્ડ ગોમ્બ્રીચ Prof. Richard Gombrich ના માર્ગદર્શન નીચે પ્રો. રિચાર્ડ ફાયનેસ Prof. Richard Fynes જૈન ચરિત્ર ગ્રંથોના અંગ્રેજી અનુવાદો એક પછી એક પ્રકાશિત કરી રહ્યા છે, આ વાતની પણ નોંધ લેવા જેવી છે. જો કે આપણી અનેક વાતોથી અપરિચિત હોવાને લીધે
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રસ્તાવના
એમના અનુવાદોમાં કેટલીક ભૂલો આવી જાય એ સ્વાભાવિક છે, છતાં જો આપણો સંપર્ક હોય તો ભૂલો સુધારી લેવાનું એમનું સૌજન્ય ઘણું હોય છે.
આ વાત એટલા માટે જણાવી છે કે ગુજરાત-મહારાષ્ટ્ર-રાજસ્થાન આદિમાં વિચરતા આપણા સાધુ-સાધ્વીઓને આ વાતની કશી કલ્પના જ હોતી નથી. જ્યારે બહાર વિચરીએ અથવા બીજાના સમાગમમાં આવીએ ત્યારે જ ખબર પડે કે આપણે ધારીએ તેના કરતાં, આગમ આદિ સાહિત્ય વિષે વિચારણા અને અભ્યાસ ગુજરાત-મહારાષ્ટ્ર-રાજસ્થાન બહાર પણ ઘણા ઘણામોટા પ્રમાણમાં થઈ રહ્યા છે.
ગંભીરતાથી તથા વિશાળ સ્વરૂપે સ્થાનાંગના અભ્યાસીઓએ શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય તરફથી વિક્રમસં. ૨૦૪૧માં જૈન આગમ ગ્રંથમાલામાં ગ્રંથાંક ૩ રૂપે પ્રકાશિત થયેલું અને અમે સંપાદિત કરેલું સ્થાનાંગસૂત્ર પણ સાથે જ રાખીને વાંચન કરવું ખાસ જરૂરી છે. કારણકે તેમાં વિવિધ પાઠાંતરો, તથા પરિશિષ્ટોમાં સ્થાનાંગ-સમવાયાંગની પરસ્પર તુલના તથા સ્થાનાંગની બીજા આગમઆદિ ગ્રંથો સાથે તુલના, તથા બૌદ્ધ ત્રિપિટક સાથે વિસ્તારથી તુલના કરેલી
છે. એ બધું આ પ્રકાશનમાં અમે સમાવેલું નથી. આ બધું શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયના | વિક્રમસં.૨૦૪૧ (ઈ.સ.૧૯૮૫)ના પ્રકાશનમાં જ છે.
હિન્દી ભાષા ઉપર અમારો કાબૂ ન હોવાથી હિંદીમાં વિચારો સુંદર રીતે રજુ કરી શકાય એટલા માટે મામપ્રકાશન સમિતિ (થાવર, રાનસ્થાન) તરફથી નિનામગ્રંથમાના ग्रन्थाङ्क ७ भi शित. थयेदा स्थानांगसूत्रमा स्थानाङ्गसूत्रः एक समीक्षात्मक अध्ययन રૂપે સ્થાનકવાસી આચાર્ય દેવેન્દ્રમુનિજી શાસ્ત્રીએ અતિવિસ્તૃત નિબંધ (પૃ૦૧-૫૦) લખ્યો છે, તેમાંથી જરૂર પુરતો ભાગ યથાયોગ્ય સંસ્કાર કરીને અહીં પ્રસ્તાવના પછી ઉદ્ધત કર્યો છે.
સ્થા) આ૦ દેવેન્દ્રમુનિજી શાસ્ત્રીના બધા વિચારો કે કલ્પનાઓ સાથે અમે સંમત છીએ એવું નથી. પરંતુ આ વિષયમાં એમનું પણ દૃષ્ટિબિંદુ શું છે ? એ જણાવવા માટે જ એ નિબંધ ઉદ્ધત કર્યો છે.
ટીકાની હસ્તલિખિત પ્રતિઓમાં કાગળ ઉપર તેમજ તાડપત્ર ઉપર લખેલી પ્રતિઓ અમે જોઈ છે. તેમાં કાગળ ઉપર લખેલી પ્રતિઓ તાડપત્રની જ સાક્ષાત્ અથવા પરંપરાએ નકલો છે એટલે અમે તાડપત્રનો જ મુખ્ય આધાર લીધેલો છે. તાડપત્રમાં નેતથા હિં, પ્રાચીન છે. પ૦ તથા નેર તે પછીની છે. સંભવ છે કે નેર તથા પ૦ નું મૂળ એક જ હોય. કેટલીક વાર એમ લાગે કે અભયદેવસૂરિમહારાજે જે આદર્શ પહેલાં લખ્યો હશે તેમાં પોતે જ કેટલાક સ્થાને સુધારા કર્યા હોય અને એ સુધારેલા આદર્શ ઉપરથી પ૦ તથા નેર લખાયા હોય. ચોક્કસ કહેવું મુશ્કેલ છે. ને સૌથી વધારે પ્રાચીન છે, છતાં તેમાંયે કોઈક સ્થળે પાઠ પડી ગયા છે. એટલે ને? અને રવંડ ઉપર અમે વધારે આધાર રાખ્યો છે, છતાં પા૦ તથા ગેર નો પણ ઉપયોગ કર્યો જ છે. આ ટીકા ગ્રંથને શુદ્ધ કરવા માટે અત્યંત
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રસ્તાવના
પ્રાચીન હસ્તલિખિત આદર્શો સાથે અમે અક્ષરશઃ મેળવવા પ્રયત્ન કર્યો છે. આ સંપાદનમાં કેવા કેવા અતિ વિશિષ્ટ અનેક અનેક શુદ્ધ અદ્ભુત પાઠો છે તે જાણવા માટે વાચકોએ પોતે જ બીજાં પ્રકાશનો સાથે તુલના કરી લેવી.
અમારી સંશોધન-સંપાદન પદ્ધતિ કેવા પ્રકારની છે એ અમે અગાઉના સંપાદનોમાં જણાવેલું જ છે.
આ.મ.શ્રી અભયદેવસૂરિ મહારાજે જે સ્પષ્ટ સમજાય એવી અથવા પહેલાં આવી ગયેલી વાતો ફરીથી આવી છે તેની ટીકા લખેલી નથી. જરૂરી પદોની જ વ્યાખ્યા કરી છે. આ वात तेमो पोते ४ श्रीवीरं जिननाथं नत्वा स्थानाङ्गकतिपयपदानाम् । प्रायोऽन्यशास्त्रदृष्टं રોગ્યદું વિવર બ્રિષ્યિ || આ મંગલાચરણના પ્રારંભના શ્લોકમાં જ જણાવી છે.
અમને એક અનુભવ એવો પણ થયો કે જેમને માટે આ ટીકાની તેમણે રચના કરી છે, તે બધા તે સમયના શાસ્ત્રોના જાણકાર મહાપુરૂષો જ છે એમ સમજીને એમણે લખ્યું છે. પાંચમા અધ્યયનમાં ત્રીજા ઉદેશકમાં (પૃ. ૨૮૦ ૫૦ ૧૭-૧૮) ત૨ વોપાદિતા- ફર્વસ રો ઘમ્મો
ત્યાદિથાપૂરવિયા એમ લખ્યું છે. પરંતુ આ માથાપૂ! કેટલી ગાથાઓનું બનેલું છે તેમજ આ ગાથાઓ કયાંથી તેમણે ઉદ્ધત કરી છે એ કંઈ જ લખ્યું નથી. એટલે આ ગાથાઓ શોધવા માટે સમુદ્રમંથન જેવો અમારે શ્રમ કરવો પડ્યો. છેવટે ઉપશમાના માંથી અમને છ ગાથાઓ મળી આવી. પૃ૦૬૭૯ માં નિયમુવધાનપથિં રૂત્યાદ્રિ એટલું જ લખ્યું છે. બાકીનું બધું આપણે સમજી લેવાનું. તપાસ કરતાં આ ચાર ગાથાઓ આવશ્યકનિયુક્તિ તથા બૃહત્કલ્પભાષ્યમાં મળી આવી. આવા અનેક અનુભવો અમને થયા છે. સ્થાનાંગટીકા ઉદ્ધત પાઠોનો મહાસાગર છે. એનાં મૂલ સ્થાનો શોધવા અમે ઘણો ઘણો પ્રયત્નો કર્યો છે. અને મળ્યાં તે મૂળસ્થાનો અમે [ ] આવા કોઇકમાં જણાવેલાં પણ છે. છતાં અનેક પાઠોનાં મૂળસ્થાનો અમને મળ્યાં નથી. ક્યાં તો તે ગ્રંથો આજે વિદ્યમાન નથી, અને કદાચ વિદ્યમાન હશે તો પણ અમારા ધ્યાનમાં આવ્યા નથી. જેમના ધ્યાનમાં આવે તે અમને જણાવવા કૃપા કરે. કેટલાક પાઠો એવા હોય છે કે અનેક ગ્રંથકારો તે તે ગ્રંથોમાં યંત્ર તત્ર ઉદ્ધત કરતા હોય છે. પરંતુ તે મૂલસ્થાન ન ગણાય, પણ અર્થ સમજવામાં અથવા પાઠશુદ્ધિમાં કયારેક ઉપયોગી થઈ શકે.
પ્રતિષવા વગેરે મૂર્ધન્ય ષ વાળા તથા અન્ય પણ કેટલાક વ્યાકરણ સંબંધી પ્રયોગો અત્યારે મળતાં વ્યાકરણ પ્રમાણે અશુદ્ધ લાગવા છતાં, બીજા કોઈ વ્યાકરણને આધારે અભયદેવસૂરિમહારાજ એવા પ્રયોગો લખ્યા હોય એમ સમજીને હસ્તલિખિત આદર્શોમાં જેવા પાઠો મળ્યા છે તેવા જ પાઠો અમે અહીં મુદ્રિત કર્યા છે.
આ સ્થાનાંગસૂત્રમાં અમે નવ પરિશિષ્ટો આપેલાં છે. પ્રથમ પરિશિષ્ટમાં સ્થાનાંગ સૂત્રમાં આવતા વિશિષ્ટ શબ્દો, બીજા પરિશિષ્ટમાં સ્થાનાંગસૂત્રમાં આવતી ગાથાઓના અર્ધભાગનો અકારાદિક્રમ, ત્રીજા પરિશિષ્ટમાં તુલના તથા વિવરણાદિરૂપ ટિપ્પણો, ચોથા પરિશિષ્ટમાં તૃતીય
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
વિભાગ માં ટીકામાં આવેલા સાક્ષિપાઠોની પૃષ્ઠક્રમથી સૂચિ, પાંચમા પરિશિષ્ટમાં સટીક સ્થાનાંગસૂત્રના ત્રણેય ભાગોની ટીકામાં રહેલા બધા જ સાક્ષિપાઠોની અકારાદિક્રમથી સૂચિ, છઠ્ઠા પરિશિષ્ટમાં સ્થાનાંગટીકામાં આવતાં તીર્થંકર-આચાર્ય આદિ, ગ્રંથ-ગ્રંથકાર આદિ, દેશનગર-ગ્રામ-નદી આદિનાં વિશેષ નામોની સૂચિ, સાતમા પરિશિષ્ટમાં સંપાદનમાં ઉપયોગમાં લીધેલા ગ્રંથોની સૂચિ તથા સંકેતવિવરણ- આમ વિવિધ વિષયો આપેલા છે.
પ્રસ્તાવના
આ સટીક ગ્રંથો એક પછી એક શૃંખલારૂપે પ્રકાશિત થઈ રહેલા છે. એટલે પૂર્વ પ્રકાશિત ગ્રંથોમાં અમારા અનવધાન આદિથી રહી ગયેલી જે અશુદ્ધિઓ-ત્રુટિઓ અમારી નજરે ચડી છે, તેનું પરિમાર્જન કરવા માટે આઠમા પરિશિષ્ટમાં શુદ્ધિપત્રક આપ્યું છે. સ્થાનાંગસૂત્રમાં જંબુદ્રીપ આદિ ક્ષેત્ર આદિ સાથે સંબંધ ધરાવતાં ઘણાં જ ઘણાં સૂત્રો આવે છે. તે બરાબર સ્પષ્ટ સમજાય તે માટે જંબુદ્રીપ આદિ ક્ષેત્રોના નકશાઓ-ચિત્રો નવમા પરિશિષ્ટમાં આપ્યા છે. આ નકશાઓ આ.શ્રી રાજેન્દ્રસૂરિસંકલિત ચિત્રસંપુટને આધારે તથા આ.શ્રી યશોદેવસૂરિ મહારાજે સંપાદિત કરેલ સંગ્રહણીરત્ન પુસ્તકને આધારે આપ્યા છે.
જે ગ્રંથોનું-શાસ્ત્રોનું સંશોધન-સંપાદન અમે કરીએ છીએ, તે અત્યંત પ્રમાણભૂત થાય એ ઉદ્દેશથી તે તે ગ્રંથોના-શાસ્ત્રોના અત્યંત પ્રાચીન તથા અર્વાચીન આદર્શો મેળવવા માટે અમે લગભગ ૨૫ વર્ષથી નિરંતર શ્રમ કરીએ છીએ. એ માટે જેસલમેર, પાટણ આદિ સ્થળોએ અમે જાતે પણ ગયા છીએ. અને જ્યાં પહોંચાય તેમ ન હોય ત્યાં બીજાઓને મોકલીને પણ અમે સામગ્રી એકત્રિત કરવા પ્રયત્ન કરીએ છીએ. આ કામમાં કલ્પનાતીત કષ્ટોનો પણ અમને અનુભવ થયો છે. અમે સાધુઓ તો શ્રુતજ્ઞાનની આરાધના સમજીને જ પ્રયત્ન કરીએ છીએ, પરંતુ જે શ્રાવકો પોતાના સમયનો ઘણો ભોગ આપીને અપાર મૂકસેવા આપી રહ્યા છે, તે ખાસ ખાસ ધન્યવાદને પાત્ર છે.
સ્થાનાંગ આદિ જોતાં એક વાત સ્પષ્ટ જણાય છે કે આ.ભ. દેવર્કિંગણી ક્ષમાશ્રમણની અધ્યક્ષતામાં આગમો પુસ્તકારૂઢ કરવામાં આવ્યાં ત્યાં સુધી, ગીતાર્થ મહાપુરૂષોએ પૂર્વપરંપરાથી ચાલી આવતી સૂત્રપરંપરામાં કોઈક કોઈક સ્થળે વૃદ્ધિ-હાનિરૂપ સંસ્કારો પણ કર્યા છે. જેમકે સ્થાનાંગના નવમા અધ્યયનમાં ૬૮૦ મા સૂત્રમાં ભગવાન્ મહાવીરના નવ ગણોનો નામોલ્લેખ આવે છે - ૧ ગોદાસગણ, ૨ ઉત્તરબલિસ્સતગણ, ૩ ઉદેહગણ, ૪ ચારણગણ, ૫ ઉદવાતિતગણ, ૬ વિસવાતિતગણ, ૭ કામિâિતગણ, ૮ માણવગણ, ૯ કોડિતગણ. આ ગણોની ઉત્પત્તિ કલ્પસૂત્રની સ્થવિરાવલીમાં આ રીતે જણાવી છે
वित्थरवायणाए पुण अज्जजसभद्दाओ पुरओ थेरावली एवं पलोइज्जइ, तंजहा- थेरस्स अज्जजसभद्दस्स तुंगियायणसगुत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हुत्था, तंजहाथेरे अज्जभ बाहू पाईणसगुत्ते, थेरे अज्जसंभूअविजए माढरसगुत्ते, थेरस्स णं अज्जभद्दबाहुस्स पाईणसगुत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हुत्था, तंजहा - थेरे गोदासे १,
',
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રસ્તાવના
थेरे अग्गिदत्ते २, थेरे जण्णदत्ते ३, थेरे सोमदत्ते ४ कासवगुत्तेणं, थेरेहिंतो गोदासेहिंतो कासवगुत्तेहितो इत्थ णं गोदासगणे नामं गणे निग्गए । ....। थेरस्स णं अज्जसंभूयविजयस्स माढरसगुत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हुत्था, तंजहा- नंदणभदुश्वनंदणभद्दे २ तह तीसभद्द ३ जसभद्दे ४ । थेरे य सुमणभद्दे ५, मणिभद्दे ६, पुण्णभद्दे ७ य ॥१॥ थेरे अ थूलभद्दे ८, उज्जुमई ९ जंबूनामधिज्जे १० य । थेरे अ दीहभद्दे ११, थेरे तह पंडुभद्दे १२ य ॥२॥ ....। थेरस्स णं अज्जथूलभद्दस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हुत्था, तंजहा- थेरे अजमहागिरी एलावच्चसगुत्ते १, थेरे अज्झसुहत्थी वासिठ्ठसगुत्ते २ । थेरस्स णं अजमहागिरिस्स एलावच्चसगुत्तस्स इमे अट्ठ थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हुत्था, तंजहाथेरे उत्तरे १, थेरे बलिस्सहे ३, थेरे धणड्ढे ३, थेरे सिरिड्ढे ४, थेरे कोडिन्ने ५, थेरे नागे ६, थेरे नागमित्ते ७, थेरे छलूए रोहगुत्ते कोसियगुत्तेणं ८, थेरेहिंतो णं छलूएहितो रोहगुत्तेहितो कोसियगुत्तेहिंतो तत्थ णं तेरासिया निग्गया। थेरेहितो णं उत्तरबलिस्सहेहिंतो तत्थ णं उत्तरबलिस्सहे नाम गणे निग्गए । ....। थेरस्स णं अजसुहत्थिस्स वासिठ्ठसगुत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हुत्था, तंजहा- थेरे अ अजरोहण १, जसभद्दे २ मेहगणी ३ य कामिड्डी ४ । सुट्ठिय ५ सुप्पडिबुद्धे ६, रक्खिय ७ तह रोगहुत्ते ८ अ ॥१॥ इसिगुत्ते ९ सिरिगुत्ते १०, गणी अ बंभे ११ गणी य तह सोमे १२ । दस दो य गणहरा खलु, एए सीसा सुहत्थिस्स ॥२॥ थेरेहितो णं अजरोहणेहिंतो णं कासवगुत्तेहिंतो णं तत्थ णं उद्देहगणे नामं गणे निग्गए । .....। थेरेहितो णं सिरिगुत्तेहिंतो हारियसगुत्तेहिंतो इत्थ णं चारणगणे नामं गणे निग्गए । ....। थेरेहितो भद्दजसेहिंतो भारद्दायसगुत्तेहिंतो इत्थ णं उडुवाडियगणे नामं गणे निग्गए। .....। थेरेहितो णं कामिड्डीहिंतो कोडालसगुत्तेहिंतो इत्थ णं वेसवाडियगणे नामं गणे निग्गए । ....। तस्स णं कुलाइं एवमाहिजंति, तंजहा- गणियं १ मेहियं २ कामिड्डिअं ३ च तह होइ इंदपुरगं ४ च । एयाई वेसवाडियगणस्स चत्तारि उ कुलाई ॥१॥ थेरेहिंतो णं इसिगुत्तेहिंतो काकंदएहिंतो वासिट्ठसगुत्तेहिंतो इत्थ णं माणवगणे नामं गणे निग्गए। ....। थेरेहितो सुट्टिय-सुप्पडिबुद्धेहिंतो कोडिय-काकंदएहितो वग्घावच्चसगुत्तेहिंतो इत्थ णं कोडियगणे नामं गणे निग्गए।
આમાં કામિતિ ગણની ઉત્પત્તિનો કોઈ નિર્દેશ નથી, પરંતુ સંભવ છે કે આર્ય સુહસ્તીના શિષ્ય કામિઢિત સ્થવિરથી જ આ ગણ નીકળ્યો હોય. કલ્પસૂત્રની સ્થવિરાવલીમાં કામિઢિતગણનો નિર્દેશ નથી, પણ કામિઢિત કુલનો અવશ્ય ઉલ્લેખ છે. આ કામિતિ કુલ કામિઢિત સ્થવિરથી નીકળેલા વેસવાડિય વિસ્સવાતિત) ગણનું જ એક કુલ છે.
આ બધા ગણો ભગવાન્ મહાવીર પરમાત્માના નિર્વાણ પછી લગભગ બસો વર્ષ પછીના છે. એટલે એમ લાગે છે કે આવી ઘટનાઓ આ.ભ. દેવદ્ધિગણી ક્ષમાશ્રમણની પહેલાં
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
પ્રસ્તાવના
જ અથવા તેમના સમયમાં સ્થાનાંગસૂત્રમાં ભૂતકાલીન ઘટનારૂપે પ્રક્ષિત કરવામાં આવી હોય.
સ્થાનાંગટીકામાં પૃ. ૬૨૯માં નોશ્રી તથા પૃ૦ ૭૬રમાં નોકઝીટીા નો પાઠ ઉદ્ધત કરેલો છે. આ તો શ્રી ગ્રંથ તથા નોશ્રી ટીકા કોણે બનાવેલા છે, ક્યારે બનાવેલા છે ? તેની અમને કશી જ ખબર નથી. આ વિષે સંશોધકોએ ગવેષણા કરવાની જરૂર છે.
સ્થાનાંગસૂત્ર તથા તેની ટીકા વિષે આજ સુધી જે જે પ્રકાશનો જ્યાં જ્યાંથી પ્રકાશિત થયાં છે તેની વિગતવાર માહિતી ઓસ્ટ્રેલિયાના વિદ્વાન (Royce Wiles) રોયસ વિલેસે Bibliography of the Swetamber Canon માં વિસ્તારથી આપી છે. સંક્ષેપમાં અમારી જાણમાં મહત્ત્વનાં આ પ્રકાશનો છે
સ્થાનાંગ-સમવાયાંગ મૂળમાત્રનું પ્રકાશન શ્વેતાંબર મૂર્તિપૂજક જૈન સંઘની અનેક સંસ્થાઓ તરફથી થયેલું છે. તે ઉપરાંત સ્થાનકવાસી તથા તેરાપંથી સંઘની પણ અનેક સંસ્થાઓ તરફથી પ્રકાશન થયેલું છે. ગુજરાતી તથા હિંદી ભાષામાં અનુવાદો પણ પ્રકાશિત થયેલા છે. સ્થાનાંગ ઉપર સૌથી પ્રાચીન વૃત્તિ નવાંગીવૃત્તિકાર આ.શ્રી અભયદેવસૂરીશ્વરમહારાજે વિક્રમ સંવત્ ૧૧૨૦ માં રચેલી છે. આ વૃત્તિ રાય ધનપતસિંહ તરફથી ઈસ્વીસન ૧૮૮૦ માં કલકત્તાથી પ્રકાશિત થયેલી છે, તે પછી આગમોદયસમિતિ તરફથી ઈસ્વીસન ૧૯૧૮ તથા ૧૯૨૦ માં બે ભાગમાં પ્રકાશિત થઈ છે. આનું જ પુનર્મુદ્રણ અને પ્રકાશન શ્રી જિનશાસન આરાધના ટ્રસ્ટ તરફથી પણ વિક્રમ સંવ ૨૦૫૧ માં થયું છે. ઈસ્વીસન ૧૯૩૭ માં શેઠ માણેકલાલ ચુનીલાલ (અમદાવાદ) તરફથી પણ પ્રકાશિત થઈ છે. સ્થાનાંગ ઉપર વિક્રમ સંવત ૧૬૫૭ માં નગર્ષિગણીએ વૃત્તિ રચેલી છે. તથા આ.ભ.શ્રી અભયદેવસૂરિવિરચિતવૃત્તિમાં ઉદ્ધત કરેલી ગાથાઓના વિવરણરૂપે વિક્રમ સંવત્ ૧૭૦૫ માં સુમતિકલ્લોલગણિ તથા હર્ષવર્ધનગણિએ રચેલા સંસ્કૃત ગાથાવિવરણના હસ્તલિખિત આદર્શો મળે છે.
સ્થાનાંગસૂત્ર ઉપરની પં. શ્રી મિત્રાનંદવિજયજી મહારાજ સંપાદિત નગર્ષિગણિ વિરચિત દીપિકાવૃત્તિનો પ્રથમ ભાગ દેવચંદ લાલભાઈ પુસ્તકોદ્ધાર ફંડ, સુરતથી પ્રકાશિત થયેલો છે.
મોતીલાલ બનારસીદાસ (દિલ્હી ૭) તરફથી એક જ વોલ્યુમમાં સટીક સ્થાનાંગ - સમવાયાંગ અનેક મહત્ત્વના પરિશિષ્ટો તથા શુદ્ધિપત્રક સાથે ઈસ્વીસન ૧૯૮૫ માં પ્રકાશિત થયાં છે. શ્રી હર્ષપુષ્યામૃત જૈન ગ્રંથમાલા, લાખા બાવળ-શાંતિપુરી, સૌરાષ્ટ્ર (સંપાદક- શ્રી જિનેન્દ્રસૂરિજી મહારાજ) થી મૂલમાત્ર સ્થાનાંગસૂત્ર પણ ઇ.સ. ૧૯૭૫માં પ્રકાશિત થયું છે.
ગામથુતપ્રકાશન દ્વારા આગમોદયસમિતિના પ્રકાશનના આધારે મુનિશ્રી દીપરત્ન સાગરજીએ સંપાદિત-પ્રકાશિત કરેલા આગમસુરાણિ મૂળમાત્ર તથા સટીક ગ્રંથમાં પણ મૂલમાત્ર તથા સટીક સ્થાનાંગસૂત્ર ઈ.સ.૨૦૦૦ માં છપાયું છે.
સ્થાનકવાસી જૈન સંઘમાં મહત્ત્વનાં નિમ્નલિખિત પ્રકાશનો અમારી જાણમાં છે. ૧. અમોલકઋષિકૃત હિન્દી અનુવાદ સાથે, પ્રકાશક- જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર મુદ્રાલય, સિકંદરાબાદ
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રસ્તાવના
હૈદ્રાબાદ, ઈસવીસન ૧૯૧૬. ૨. સ્થાનકવાસી જૈન લાયબ્રેરી-અમદાવાદથી પ્રકાશિત, ઈ.સ. ૧૯૩૦. ૩. જીવરાજ ઘેલાભાઈ દોશી - અમદાવાદ તરફથી ગુજરાતી અનુવાદ સાથે ઈ.સ.૧૯૩૧. ૪. અભયદેવસૂરિ વિરચિત ટીકાના ગુજરાતી અનુવાદ સાથે આઠ કોટી મોટી પક્ષ જૈન
સંઘ - મુંદ્રા (કચ્છ) તરફથી - ઈ.સ. ૧૯૫૧. ५. सुत्तागमे, संपादक - पुष्पभिक्षु, प्रकाशक- सुत्तागमप्रकाश समिति, गुडगाँव छावणी, पूर्वपंजाब,
.. 98 રૂ. સ્થાનાંગસૂત્ર, ઘાસીલાલજી વિરચિત ટીકા સહિત, પ્રકાશક - અખિલ ભારત જૈન શ્વેતાંબર સ્થાનકવાસી સમિતિ, રાજકોટ, સૌરાષ્ટ્ર, ઈ.સ. ૧૯૬૪. સ્થાનાંગસૂત્ર હીન્દી અનુવાદ તથા પરિશિષ્ટ સહિત, સંપાદક – મુનિ કન્ધયાલાલજી કમલ, પ્રકાશક - આગમ અનુયોગ પ્રકાશન, સાંડેરાવ, રાજસ્થાન, ઈ.સ. ૧૯૭૨. સ્થાનાંગસૂત્ર, સંસ્કૃત છાયા - હિન્દી વિવેચનિકા સહિત, લેખક – આત્મારામજી, પ્રકાશક
આચાર્ય શ્રી આત્મારામ જૈન પ્રકાશન સમિતિ, લુધિયાના, ઈ.સ. ૧૯૭૫. ૯. સ્થાનાંગસૂત્ર હિન્દી અનુવાદ સહિત, જિનાગમ ગ્રંથમાલા ગ્રંથાંક ૭, પ્રકાશક આગમ
પ્રકાશન સમિતિ, બાવર, રાજસ્થાન ઈ.સ.૧૯૭૫, તૃતીય સંસ્કરણ ઈ.સ. ૨૦૦૧. તેરાપંથી સંઘનાં પ્રકાશનો– ૧. ગંગુત્તળ, જૈન વિશ્વભારતી, લાડનું, (રાજસ્થાન) થી પ્રકાશિત, ઈ.સ. ૧૯૭૪. ૨. કાં મૂળ - સંસ્કૃત છાયા - હિન્દી અનુવાદ તથા વિવિધ ટિપ્પણો સહિત, સંપાદક - મુનિ નથમલજી (મહાપ્રશ), ઈ.સ. ૧૯૭૬.
આ ઉપરાંત સ્થાનાંગ - સમવાયાંગનું ગુજરાતી રૂપાંતર અનેક ટિપ્પણો સહિત, સંપાદક - દલસુખભાઈ માલવણિયા, ગુજરાત વિદ્યાપીઠ, ઈ.સ. ૧૯૫૫ અમદાવાદ - પુંજાભાઈ જૈન ગ્રંથમાલા નં-૨૩ આદિ પ્રકાશનો પણ છે.
વર્તમાનકાળમાં જે.મૂર્તિપૂજક સંઘમાં ૪૫ આગમ આ શબ્દ અત્યંત રૂઢ થઈ ગયો છે, અને તેનાં નામો પણ નિશ્ચિતપ્રાય છે. છતાં, ખરેખર આગમોની સંખ્યા, વિભાગો તથા નામ આદિ સંબંધમાં ઘણા ઘણા પ્રાચીન સમયથી ભિન્ન ભિન્ન વિચારધારાઓ ચાલી જ આવે છે. અને તે આપણે જાણવી જ જોઈએ. આ હેતુથી શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલય - મુંબઈ - તરફથી વિક્રમ સં. ૨૦૪૦ (ઈ.સ. ૧૯૮૪) માં નૈન નામ ગ્રંથમાના પ્રખ્યા ૭ રૂપે પ્રકાશિત થયેલા પાયલુડું (પ્રથમ ભા:) માં પૂ. આ. પ્ર. મુનિરાજશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજનું વક્તવ્ય છપાયું છે તે અત્યંત ઉપયોગી સમજીને તે તથા તે સાથે તેના સંપાદક પં. અમૃતલાલભાઈ ભોજકે લખેલી પ્રસ્તાવનાનો પ્રારંભિક ઉપયોગી અંશ તથા તિસ્થતીય પ્રીજ માં આવતો આગમવાચના તથા આગમવિચ્છેદ આદિ સંબંધી પાઠ, સટીક સમવાયાંગના
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
૪
પ્રકાશન સમયે આપવાની અમારી ભાવના છે.
સ્થાનાંગના દશમા અધ્યયનમાં સૂ. ૭૪૭માં સંઘ્યાન - ગણિતનો ઉલ્લેખ આવે છે. તે સંબંધમાં જૈનવિશ્વભારતી-લાડનુંથી પ્રકાશિત થયેલા ળું સૂત્રમાં છપાયેલું તેરાપંથી આચાર્યશ્રી નથમલજીએ હિન્દીમાં લખેલું ટિપ્પણ ત્રીજા પરિશિષ્ટમાં ઉદ્ધૃત કરીને અમે આપ્યું છે, તેમજ આ અંગે વિસ્તૃત વિચારણા કરતો હિન્દી ભાષામાં એક નિબંધ અનુપમ જૈન એવં સુરેશચંદ્ર અગ્રવાલે લખેલો છે અને તે નૈન આમોં મેં નિહિત નિતીય અધ્યયન વિષય આ શીર્ષકથી પાર્શ્વનાથ વિદ્યાપીઠ (વારાણસી-૫) થી પ્રકાશિત થયેલા Aspects of Jainology Vol. I માં પૃ.૭૫ થી ૮૮માં છપાયેલો છે. તે પણ પરિશિષ્ટમાં ટિપ્પણોમાં અહીં ઉદ્ધૃત કર્યો છે.
ધન્યવાદ :- શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયની આગમ જૈનગ્રંથમાળાના પ્રણેતા પુણ્યનામધેય આ.પૂ.મુશ્રી પુણ્યવિજયજી મહારાજને અનેકશઃ વંદન પૂર્વક હૃદયથી શ્રદ્ધાંજલી અર્પણ કરૂં છું. દ્વાદશારનયચક્રના સંશોધન-સંપાદન દ્વારા આ સંશોધન-સંપાદન ક્ષેત્રમાં મને તેઓ જ લાવ્યા
હતા.
પ્રસ્તાવના
સ્વપૂ॰ આગમોદ્ધારક સાગરાનંદસૂરીશ્વરજી મહારાજ કે જેમના ભગી૨થ પ્રયાસથી આગમ આદિ વિશાળ જૈન સાહિત્ય પ્રકાશમાં આવ્યું છે, તેઓશ્રીને પણ આ પ્રસંગે ભાવપૂર્વક વંદન કરૂં છું.
શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયના મુંબઈના કાર્યવાહકોએ આના અત્યંત દ્રવ્યવ્યયસાધ્ય મુદ્રણની જવાબદારી ઉપાડી છે, અને અમને સદા પ્રોત્સાહન આપ્યું છે.
શ્રી સિદ્ધક્ષેત્ર પાલિતાણા નગરમાં, વીસાનીમાની ધર્મશાળામાં, વિક્રમસંવત્ ૨૦૫૧, પોષ સુદ દસમ બુધવારે ૧૦૧ મા વર્ષે તારીખ ૧૧-૧-૧૯૯૫ની રાત્રે ૮-૫૪ મીનીટે સ્વર્ગસ્થ થયેલાં મારાં પરમ ઉપકારી પરમપૂજ્ય માતૃશ્રી સંઘમાતા સાધ્વીજીશ્રી મનોહરશ્રીજી મહારાજ કે જેઓ સ્વ૦ સાધ્વીજીશ્રી લાભશ્રીજી મહારાજ (સરકારી ઉપાશ્રયવાળા)નાં બહેન તથા શિષ્યા છે, તેમના સતત આશીર્વાદ, એ મારૂં અંતરંગ બળ તથા મહાનમાં મહાન્ સદ્ભાગ્ય છે. મારા વયોવૃદ્ધ અત્યંત વિનીત પ્રથમ શિષ્ય દેવતુલ્ય સ્વ. મુનિરાજશ્રી દેવભદ્રવિજયજી કે જેમનો લોલાડા (શંખેશ્વરજી તીર્થ પાસે) ગામમાં વિક્રમ સંવત્ ૨૦૪૦માં કાર્તિક સુદ બીજે, રવિવારે (તા.૬-૧૧-૮૩) સાંજે છ વાગે સ્વર્ગવાસ થયો હતો, તેમનું પણ આ પ્રસંગે ખૂબજ સદ્ભાવથી સ્મરણ કરૂં છું.
મારા અતિવિનીત શિષ્ય મુનિશ્રી ધર્મચંદ્રવિજયજી તથા તેમના શિષ્ય સેવાભાવી મુનિરાજશ્રી પુંડરીકરત્નવિજયજી, તપસ્વી મુનિરાજશ્રી ધર્મઘોષવિજયજી તથા મુનિરાજશ્રી મહાવિદેહવિજયજી આ કાર્યમાં રાત-દિવસ અતિસહાયક રહ્યા છે.
આ ગ્રંથના મુદ્રણ આદિમાં, હમણાં અમદાવાદમાં રહેતા પણ મૂળ આદરિયાણાના વતની જીતેન્દ્રભાઈ મણીલાલ સંઘવી તથા માંડલના વતની અશોકભાઈ ભાઈચંદભાઈ સંઘવીએ
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રસ્તાવના
જેસલમેર, પાટણ તથા ખંભાતના હસ્તલિખિત પ્રાચીનમાં પ્રાચીન તાડપત્રીય પ્રતિઓના ફોટા તથા ઝેરોક્ષ લેવા માટે તે તે સ્થાનના ટ્રસ્ટના કાર્યવાહકોએ અમને સંમતિ આપી અને અનુકૂળતા કરી આપી છે, તે માટે તેમને ઘણા ઘણા ધન્યવાદ ઘટે છે.
આ ગ્રંથના સંશોધન-સંપાદનમાં મારા શિષ્યવર્ગે ખૂબ જ ખૂબ સહકાર આપ્યો છે. તેમજ મારાં સંસારી માતૃશ્રી સંઘમાતા શતવર્ષાધિકા, સાધ્વીજીશ્રી મનોહરશ્રીજી મહારાજના પરમસેવિકા શિષ્યાશ્રી સ્વ. સાધ્વીજીશ્રી સૂર્યપ્રભાશ્રીજીના શિષ્યા સાધ્વીજીશ્રી જિનેન્દ્રપ્રભાશ્રીજીએ આમાં ઘણો સહકાર આપ્યો છે. અમે જે અનેક અનેક તાડપત્રી પ્રતિઓનો ઉપયોગ કર્યો છે, તે બધી મોટા ભાગે ફોટા રૂપે છે, અથવા ઝેરોક્ષ રૂપે છે. ફોટાના ઝીણા ઝીણા અક્ષરો વાંચવા, ફોટા તથા ઝેરોક્ષ કોપીમાંથી તે તે સ્થળોના પાઠો શોધી કાઢવા, એ સામાન્ય રીતે કોઈની કલ્પનામાં પણ ન આવી શકે એવું અતિ કષ્ટદાયક કામ છે. આ સાધ્વીજીએ શ્રુતભક્તિથી આવું ઘણું ઘણું કામ અત્યંત હર્ષપૂર્વક કર્યું છે. મુફોને વાંચવામાં પણ ખૂબ શ્રમ અને ઝીણવટભરી નજર માંગી લે છે. એ કામ આ સાધ્વીજીએ કર્યું છે તથા તેમના પરિવારે પણ ઘણો જ ઘણો સહકાર વિવિધ કાર્યોમાં આપ્યો છે, તે માટે તે ઘણા ધન્યવાદને પાત્ર છે.
શ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયની સંમતિથી જ પૂ૦ સાધુ-સાધ્વીજી મહારાજ તથા જ્ઞાનભંડાર આદિને યથાયોગ ભેટ આપવા માટે આ જ ગ્રંથની ત્રણસો કોપીઓ શ્રી સિદ્ધિ-ભુવન-મનોહર જૈન ટ્રસ્ટ, અમદાવાદ તથા શ્રી જૈન આત્માનંદ સભા, ભાવનગર- વતી વધારે કઢાવેલી છે. આ સંમતિ આપવા માટેશ્રી મહાવીર જૈન વિદ્યાલયના કાર્યવાહકોને અનેકશઃ અભિનંદન તથા ધન્યવાદ ઘટે છે.
આ ગ્રંથનું કમ્પોઝીંગનું જટિલ કામ અજયભાઈ સી. શાહ સંચાલિત શ્રી પાર્શ્વ કોમ્યુટર્સ (અમદાવાદ)ના વિમલકુમાર બિપિનચંદ્ર પટેલે હરિદ્વાર, સમેતશિખરજી, નાકોડાજી, લોલાડા વગેરે દૂર દૂરના સ્થળોએ આવીને ખંતપૂર્વક અમારી સમક્ષ કર્યું છે, તે માટે તે પણ ધન્યવાદને પાત્ર છે.
આ પુણ્ય કાર્યમાં દેવ-ગુરૂકૃપાએ આમ વિવિધ રીતે સહાયક સર્વેને મારા હજારો હાર્દિક ધન્યવાદ અને અભિનંદન છે.
પૂજ્યપાદ અનંત ઉપકારી પિતાશ્રી ગુરૂદેવ મુનિરાજશ્રી ભુવનવિજયજી મહારાજના કરકમળમાં આ ગ્રંથ રૂપી પુષ્પ મૂકીને તેમના દ્વારા જિનવાણીરૂપી પુષ્પથી જિનેશ્વર પરમાત્માની પૂજા કરીને આજે ધન્યતા અનુભવું છું. લોલાડા, (તા. સમી, જિ. પાટણ)
પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવશ્રી વિજયસિદ્ધિસૂરીશ્વરપટ્ટાલંકારઉત્તર ગુજરાત, પિન-૩૮૪૨૪ર. વિક્રમ સં.૨૦૫૯,
- પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવશ્રી વિજય મેઘસૂરીશ્વરશિષ્યઆસો સુદિ ૧૦ (વિજયાદશમી)
પૂજ્યપાદ સદ્ગુરૂદેવ મુનિરાજશ્રીભુવનવિજ્યાન્તવાસી રવિવાર, તા.૫-૧૦-૨૦૦૩.
મુનિ જંબૂવિજય
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६
श्रीसिद्धाचलमण्डन-श्रीऋषभदेवस्वामिने नमः । श्री शान्तिनाथस्वामिने नमः । श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । श्री नाकोडापार्श्वनाथाय नमः । श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः । श्री नाकोडाभैरववीराय नमः ।
श्री सद्गुरुभ्यो नमः ।। किञ्चित् प्रास्ताविकम् ।।
अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । - आव० नि० ९२ ।
अरिहंत परमात्मा अर्थ की देशना देते हैं, और गणधर भगवान उसीके अनुसार सूत्रों की रचना करते हैं।
भगवान महावीर की देशना के आधार से गणधरभगवंतो ने द्वादशांगी (बार अंग सूत्रों) की रचना की थी। यह द्वादशांगी समस्त जैन प्रवचन-जैन शासन की आधार शिला है । द्वादशांगी में भिन्न भिन्न विषयों का विस्तार से वर्णन किया गया है । इस में यह स्थानांग तीसरा अंगसूत्र है।
बारहवाँ अंग का विच्छेद तो दो हजार वर्ष पूर्व हो गया है। ग्यारह अंगसूत्रों में विषम काल के प्रभाव से कुछ हानि और परिवर्तन भी हुआ है । वल्लभीपुर में भगवान् देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में वीरनिर्वाण के बाद ९८० या ९९३ वर्ष में जो सूत्रवाचना पुस्तकारूढ- पुस्तकमें लिपीबद्ध हुई यही वाचना आज विद्यमान है।
स्थानांग सूत्र के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं। विक्रम संवत् २०४१ (इस्वी. १९८५) में श्री महावीर जैन विद्यालय से विशिष्ट संस्करण प्रकाशित हुआ है। इस में प्राचीन-प्राचीनतम ताडपत्र एवं कागज पर लिखित अनेक अनेक प्रतिओं के आधार से संशोधित पाठ दिया है। अनेक पादटिप्पन, पाठान्तर, परिशिष्ट आदि से परिष्कृत इस संस्करण में प्रस्तावना आदि भी विस्तार से दिया है।
मूल सूत्र ग्रंथों को समझने के लिये टीका आदि व्याख्या ग्रंथ अति आवश्यक है । स्थानांग आदि नव अंगो का ऐसा विवेचन नहीं था । इसलिये विक्रमकी १२ वीं शताब्दी के महाविद्वान् आचार्य भगवान् श्री अभयदेवसूरिजी महाराज ने स्थानांग आदि नव अंगसूत्रों पर टीका लिखी थी। इस से नवांगीटीकाकार के नाम से वे अत्यंत विख्यात हैं।
इस टीका को अत्यंत प्राचीन हस्तलिखित आदर्शों के आधार से संशोधन करने के लिये प्राचीनप्राचीनतम ताडपत्रलिखित जैसलमेर, खंभात एवं पाटण के आदर्शों का उपयोग कर के यह विक्रम संवत् ११२० में रचित श्री अभयदेवसूरिविरचित स्थानांगसूत्रटीका का तृतीय विभाग आज देवगुरु कृपा से ही प्रकाशित हो रहा है इसका हमें बडा हर्ष है।
स्थानांगसूत्र के दश अध्ययन है । टीका सहित यह ग्रन्थ अति महाकाय होने से तीन विभागो
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
किञ्चत् प्रास्ताविकम्
१७ में प्रकाशित किया है। १-२-३ अध्ययनयुक्त प्रथम विभाग, और ४-५-६ अध्ययनयुक्त द्वितीय विभाग कुछ समय पूर्व ही प्रकाशित हो चुके हैं। आज ७-८-९-१० अध्ययनवाला तृतीय विभाग अनेक परिशिष्टों के साथ प्रकाशित हो रहा है। यह अन्तिम विभाग है और इस विभाग में सटीक स्थानांग सूत्र सम्पूर्ण प्रकाशित हो जाता है।
परमकृपालु अनन्त अनन्त उपकारी अरिहंत परमात्मा एवं मेरे परम उपकारी परमपूज्य सद्गुरुदेव एवं पिताश्री मुनिराजश्री भुवनविजयजी महाराज की कृपा से ही यह कार्य संपन्न हुआ है। ___ इस महान कार्य में मेरे शिष्य मुनिराजश्री धर्मचन्द्रविजयजी, पुंडरीकरत्नविजयजी, धर्मघोषविजयजी एवं महाविदेहविजयजीने बहुत सहयोग दिया है।
मेरी परमोपकारिणी शतवर्षाधिकायु परमपूज्य माता साध्वीजी (जिन का मेरे उपर अपार आशीर्वाद है) श्री मनोहरश्रीजी महाराज की शिष्या परमसेविका साध्वीजी श्री सूर्यप्रभाश्रीजी महाराज की शिष्या साध्वीजीश्री जिनेन्द्रप्रभाश्रीजी ने इस विराट संशोधन कार्य में अति अति सहयोग दिया है।
___ इस कार्य में जिन्हों ने भिन्न भिन्न रूप से सहयोग दिया है, उन सबको मेरा हार्दिक अभिनंदन एवं धन्यवाद है। प्रभुकी असीम कृपा से ही संपन्न इस ग्रंथको प्रभु के करकमलों में समर्पण कर आज में धन्यता का अनुभव कर रहा हूँ। लोलाडा (ता. समी),
पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टालंकारजि. पाटण, उत्तर गुजरात
पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्यPin-384242
पूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी विक्रमसं० २०६०, कार्तिकशुक्लद्वितीया
मुनि जम्बूविजयः सोमवार ता० २७-१०-०३ मुनि देवभद्रविजयस्वर्गवासदिवसः
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
श्री सिद्धाचलमण्डन-श्री ऋषभदेवस्वामिने नमः । श्री शान्तिनाथस्वामिने नमः । श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । श्री नाकोडापार्श्वनाथाय नमः । श्री नाकोडाभैरववीराय नमः ।
श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरजीपादपद्मेभ्यो नमः । पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरजीपादपद्येभ्यो नमः । पूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्री भुवनविजयजीपादपद्येभ्यो नमः ।
आमुखम् । अनन्तोपकारिणां परमकृपालूनां जिनेश्वराणां परमकृपया परमोपकारिणां पितृचरणानां सद्गुरुदेवानां पूज्यपाद मुनिराजश्री भुवनविजयजीमहाराजानां च परमकृपया साहाय्येन च सम्पन्न पञ्चमगणधरदेवश्री सुधर्मस्वामिपरम्परयाऽऽयातस्य श्री स्थानाङ्गसूत्रस्य पू.आ.भ.श्री अभयदेवसूरिविरचितया वृत्त्या समलङ्कृतं सप्तमा-ऽष्टम-नवम-दशमाध्ययनात्मकं तृतीयं विभागं जैनागमरसिकानां पुरतो विन्यस्यन्तो वयमद्यामन्दमानन्दमनुभवामः ।
यदत्र वक्तव्यं तत् श्रीमहावीरविद्यालयेन विक्रमसंवत् २०४१ तमे (ई.स.१९८५) वर्षे जैन-आगम-ग्रन्थमालायां ग्रन्थाङ्क ३ रूपेण प्रकाशितस्य मूलमात्रस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य गूर्जरभाषानिबद्धायां प्रस्तावनायां टिप्पणेषु परिशिष्टेषु तथा सटीकस्यास्य प्रथम-द्वितीयतृतीयविभागानां गूर्जरभाषानिबद्धायां प्रस्तावनायां परिशिष्टादिषु चोक्तप्रायं तत एवावगन्तव्यम् । यदवशिष्टं तत् किमपि सटीकस्य समवायाङ्गस्य प्रस्तावनायां वक्ष्यते ।।
___ अत्र नव परिशिष्टानि योजितानि सन्ति । तत्र प्रथमे परिशिष्टे स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतानां विशिष्टशब्दानां सूचिः, द्वितीये परिशिष्टे स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतानां गाथार्धानामकारादिक्रमेण सूचिः, तृतीये परिशिष्टे तुलनाद्यात्मकानि विवरणात्मकानि च टिप्पणानि, चतुर्थे परिशिष्टे तृतीये विभागे स्थानाङ्गटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां पृष्ठक्रमेण सूचिः, पञ्चमे परिशिष्टे प्रथम-द्वितीयतृतीयविभागेषु स्थानाङ्गटीकायामुद्भूतानां सर्वेषामपि साक्षिपाठानामकारादिक्रमेण सूचिः, षष्ठे परिशिष्टे स्थानाङ्गटीकायां निर्दिष्टानां तीर्थकृदादि-ग्रन्थ-ग्रन्थकृदादि-ग्राम-नगर-देशादीनां विशेषनाम्नां सूचिः, सप्तमे परिशिष्टे सटीकस्थानाङ्गसूत्र-संशोधनसम्पादनोपयुक्तानां ग्रन्थादीनां सङ्केतादीनां सूचिः- इत्येवं सप्तसु परिशिष्टेषु बहुविधं सूच्यादिकं वर्तते ।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
आमुखम्
अस्माभिः संशोधिताः सम्पादिताश्च ग्रन्थाः शृङ्खलारूपेण प्रकाश्यन्ते, अतः पूर्वं प्रकाशितेषु सटीकेषु ग्रन्थेषु यदशुद्ध्यादिकमस्माकं दृष्टिगोचरतामायातं तदष्टमे परिशिष्टे प्रदर्शितम् । नवमे परिशिष्टे स्थानाङ्गसूत्रे निर्दिष्टानां क्षेत्रादीनां चित्राणि सन्ति ।
धन्यवादः- अस्य ग्रन्थस्य संशोधने सम्पादने च यतो यतः किमपि साहायकं लब्धं तेभ्यः सर्वेभ्यो भूयो भूयो धन्यवादान् वितरामि । विशेषतस्तु इमे स्मर्तव्याः- अस्या जैनागमग्रन्थमालायाः प्रकाशने बीजभूताः प्रेरकाश्च स्व० आगमप्रभाकरपूज्यमुनिराजश्री पुण्यविजयजीमहाभागाः । तैरेव च संशोधन-सम्पादनक्षेत्रेऽहं योजितः। अतः कृतज्ञभावेन विशेषेण तेषां चरणयोर्वन्दनं विदधामि ।
अनेकेभ्यो वर्षेभ्यः प्राक् आगमोद्धारकैराचार्यश्री सागरानन्दसूरिभिः महान् ग्रन्थराशिः महता महता परिश्रमेण जैनसंघस्य पुरस्ताद् मुद्रयित्वा उपन्यस्तः । समग्रोऽपि जैनसंघः तैरुपकृतः। अतस्तेषामपि चरणयोः वन्दनं विदधामि ।
___ परमोपकारिणी परमपूज्या विक्रमसंवत् २०५१ तमे वर्षे श्री सिद्धक्षेत्रे पालिताणानगरे पौषशुक्लदशम्यां दिवंगता शताधिकवर्षायुष्का मम माता साध्वीजीश्री मनोहरश्रीरिहलोकपरलोककल्याणकारिभिराशीर्वचनैर्निरन्तरं मम परमं साहायकं सर्वप्रकारैर्विधत्ते ।
__लोलाडाग्रामे विक्रमसंवत् २०४० कार्तिकशुक्लद्वितीयादिने दिवंगतो ममान्तेवासी वयोवृद्धो देवतुल्यो मुनिदेवभद्रविजयः सदा मे मानसिकं बलं पुष्णाति ।
ममातिविनीतोऽन्तेवासी मुनिधर्मचन्द्रविजयः तच्छिष्यः मुनिपुण्डरीकरत्नविजयः मुनिधर्मघोषविजयश्च अनेकविधेषु कार्येषु महद् महत् साहायकमनुष्ठितवन्तः । ।
एवमेव मम मातुः साध्वीश्रीमनोहरश्रियः शिष्यायाः साध्वीश्रीसूर्यप्रभाश्रियः शिष्यया साध्वीश्रीजिनेन्द्रप्रभाश्रिया एतद्ग्रन्थसंशोधनसम्बन्धिषु सर्वकार्येषु प्रभूतं प्रभूतं साहायकमनुष्ठितम्।
श्रीमहावीरजैनविद्यालयस्य कार्यवाहकैः महता द्रव्यव्ययेन साध्यस्य एतन्मुद्रणादिकस्य व्यवस्था स्वीकृता । अतस्तेभ्योऽपि भूयो भूयो धन्यवादान् वितरामि । __एतेभ्यः सर्वेभ्यो भूयो भूयो धन्यवादा वितीर्यन्ते ।
देव-गुरुप्रणिपातपूर्वकं प्रभुपूजनम् परमकृपालूनां परमेश्वराणां देवाधिदेवश्री शखेश्वरपार्श्वनाथप्रभूणां परमोपकारिणां पूज्यपादानां पितृचरणानां सद्गुरुदेवानां मुनिराजश्री भुवनविजयजीमहाराजानां च कृपया साहाय्याच्चैव संपन्नं कार्यमिदमिति तेषां चरणेषु अनन्तशः प्रणिपातं विधाय अस्मिन् ग्रामे
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
आमुखम्
मूलनायकरूपेण विराजमानस्य श्री शान्तिनाथस्य भगवतः करमकलेऽद्य भक्तिभरनिर्भरण हृदयेन भगवद्वचनात्मकमेव पुष्परूपमेतं ग्रन्थं निधाय अनन्तशः प्रणिपातपूर्वकं भगवन्तं श्री शान्तिनाथं महयाम्येतेन कुसुमेन ।
लोलाडा (ता० समी)
इत्यावेदयतिजि० पाटण, (उत्तर गुजरात) पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरपट्टालंकारPin-384242.
पूज्यपादाचार्यमहाराजश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरशिष्यविक्रम सं० २०५९,
पूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराजश्रीभुवनविजयान्तेवासी आश्विनकृष्णद्वादशी, बुधवासरः
मुनि जम्बूविजयः ता. २२-१०-०३ मातृशिष्यासूर्यप्रभाश्रियः स्वर्गवासदिवसः
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
FOREWORD
It gives me immense pleasure, to place before the students and scholers who are interested in Jain canonical literture, the critical edition of the Sthananga-Sutra with the oldest available Sanskrit commentary composed by Acārya Abhayadevsūri in Vikrama-Samvat 1120.
The text of the Sthananga-Sutra critically edited by us was already published by Mahavir Jain Vidyalaya in 1985 A.D. with variant readings in foot-notes and with many appendices etc.
1
The same text has been adopted here, though some slight changes have been made somewhere where it was important, moreover an old palm-leaf manuscript was found in Bhandarkar Oriental Research Institute, Pune, which is also consulted. In some cases it is unique. We have done some changes in the text according to this manuscript where it was quite necessary. Some variant readings have been given in the foot-notes from the same as To I
To understand the text, the commentary is most necessary. So we have added the commentary composed by Acarya Sri Abhayadevsūri in Vikrama Samvat 1120. This is the oldest commentary. AbhayadevSuri commented on nine Angasūtras, Viz. स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति), ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत. So he is well-known as R. He is reputed as a great authority. The is devided in ten Adhyayanas. To understand the text, au quotes many verses or words from other authentic works, hence this commentary is like an occon.
As this is a very big work, we have thought to publish it in three parts. The first part comprising 1-2-3 adhyayanas has already been published recently. The second part comprising 4-5-6 adhyayanas has also been already published. The third part comprising 7-8-9-10 adhyayanas is being published now and this entire exercise and
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
FOREWORD
adhyayanas of this work is accomplished with all relevant appendices. In editing this whole work, I have received a great help from my disciples namely मुनि धर्मचन्द्रविजयजी, मुनि पुण्डरीकरत्नविजयजी, मुनि धर्मघोषविजयजी and मुनि महाविदेहविजयजी.
2
साध्वीजीश्री जिनेन्द्रप्रभाश्रीजी who is the disciple of late साध्वीजी श्री सूर्यप्रभाश्रीजी who is the disciple of my late Rev. mother et gefa has also helped me very much in every way in critically editing this work. I am extremely grateful to all these.
Lolada,
(Ta.Sami, Dist.Patan.) Pin-384242.
(Gujarat), INDIA October 29, 2003.
Muni Jambūvijaya disciple of His Holiness Muniraja Sri Bhuvanavijayaji Mahārāja
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
लेखक : स्थानकवासी आचार्य देवेन्द्रमुनिजी शास्त्री भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति रूपी भव्य भवन के वेद, त्रिपिटक और आगम ये तीन मूल आधार-स्तम्भ हैं, जिन पर भारतीय-चिन्तन आधृत है। भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति की अन्तरात्मा को समझने के लिए इन तीनों का परिज्ञान आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य
वेद :- वेद भारतीय तत्त्वद्रष्टा ऋषियों की वाणी का अपूर्व व अनूठा संग्रह है। ब्राह्मण दार्शनिक मीमांसक वेदों को सनातन और अपौरुषेय मानते हैं । नैयायिक और वैशेषिक प्रभृति दार्शनिक उसे ईश्वरप्रणीत मानते हैं। उनका यह आघोष है कि वेद ईश्वर की वाणी हैं। किन्तु आधुनिक इतिहासकार वेदों की रचना का समय अन्तिम रूप से निश्चित नही कर सके हैं । विभिन्न विज्ञों के विविध मत हैं, पर यह निश्चित है कि वेद भारत की प्राचीन साहित्य-सम्पदा है । प्रारम्भ में ऋग्वेद, यजुर्वेद
और सामवेद ये तीन ही वेद थे। अतः उन्हें केदत्रयी कहा गया है । उसके पश्चात् अथर्ववेद को मिलाकर चार वेद बन गये । ब्राह्मण ग्रन्थ व आरण्यक ग्रन्थों में वेद की विशेष व्याख्या की गई है। उस व्याख्या में कर्मकाण्ड की प्रमुखता है। उपनिषद् वेदों का अन्तिम भाग होने से वह वेदान्त कहलाता है। उसमें ज्ञानकाण्ड की प्रधानता है । वेदों को प्रमाणभूत मानकर ही स्मृतिशास्त्र और सूत्र-साहित्य का निर्माण किया गया । ब्राह्मण परम्परा का जितना भी साहित्य निर्मित हुआ है, उस का मूल स्रोत वेद है । भाषा की दृष्टि से वैदिक-विज्ञों ने अपने विचारो की अभिव्यक्ति का माध्यम संस्कृत को बनाया है और उस भाषा को अधिक से अधिक समृद्ध करने का प्रयास किया है।
त्रिपिटक :- त्रिपिटक तथागत बुद्ध के प्रवचनों का सुव्यवस्थित संकलन-आकलन है, जिस में आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक और नैतिक उपदेश भरे पड़े हैं। बौद्धपरम्परा का सम्पूर्ण आचारविचार और विश्वास का केन्द्र त्रिपिटक साहित्य है । पिटक तीन हैं- सुत्तपिटक, विनयपिटक, अभिधम्मपिटक । सुत्तपिटक में बौद्धसिद्धान्तों का विश्लेषण है, विनयपिटक में भिक्षुओं की परिचर्या और अनुशासन-सम्बन्धी चिन्तन है और अभिधम्मपिटक में तत्त्वों का दार्शनिक-विवेचन है। आधुनिक इतिहास-वेत्ताओं ने त्रिपिटक का रचनाकाल भी निर्धारित किया है । बौद्धसाहित्य अत्यधिक विशाल है । उस साहित्य ने भारत को ही नहीं, अपितु चीन, जापान, लंका, वर्मा, कम्बोडिया, थाईदेश आदि अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज को भी प्रभावित किया है। वैदिकविज्ञों ने वेदों की भाषा संस्कृत अपनाई तो बुद्ध ने उस युग की जनभाषा पाली अपनाई । पाली भाषा अपनाने से बुद्ध जनसाधारण के अत्यधिक लोकप्रिय हुए।
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन जैन आगम :- “जिन' की वाणी में जिसकी पूर्ण निष्ठा है, वह जैन है । जो राग द्वेष आदि आध्यात्मिक शत्रुओं के विजेता हैं, वे जिन हैं । श्रमण भगवान् महावीर जिन भी थे, तीर्थंकर भी थे । वे यथार्थज्ञाता, वीतराग, आप्त पुरुष थे । वे अलौकिक एवं अनुपम दयालु थे । उनके हृदय के कण-कण में, मन के अणु-अणु में करुणा का सागर कुलाचे मार रहा था । उन्होंने संसार के सभी जीवों की रक्षा रूप दया के लिए पावन प्रवचन किये । उन प्रवचनों को तीर्थंकरों के साक्षात् शिष्य श्रुतकेवली गणधरों ने सूत्ररूप में आबद्ध किया । वह गणिपिटक आगम है। आचार्य भद्रबाहु के शब्दों में यों कह सकते हैं, तप, नियम, ज्ञान, रूप वृक्ष पर आरूढ़ होकर अनन्तज्ञानी केवली भगवान् भव्य जनों के विबोध के लिए ज्ञान-कुसुम की वृष्टि करते हैं । गणधर अपने बुद्धिपट में उन कुसुमों को झेल कर प्रवचनमाला गूंथते हैं । यह आगम है । जैन धर्म का सम्पूर्ण विश्वास, विचार और आचार का केन्द्र आगम है। आगम ज्ञान-विज्ञान का, धर्म और दर्शन का, नीति और
आध्यात्मिकचिन्तन का अपूर्व खजाना है । वह अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में विभक्त है। नन्दीसूत्र आदि में उसके सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा है । ___अपेक्षा दृष्टि से जैन आगम पौरुषेय भी हैं और अपौरुषेय भी । तीर्थंकर व गणधर आदि व्यक्तिविशेष के द्वारा रचित होने से वे पौरुषेय हैं और पारमार्थिक-दृष्टि से चिन्तन किया जाय तो सत्य तथ्य एक है । विभिन्न देश काल व व्यक्ति की दृष्टि से उस सत्य तथ्य का आविर्भाव विभिन्न रूपों में होता है। उन सभी आविर्भावों में एक ही चिरन्तन सत्य अनुस्यूत है। जितने भी अतीत काल में तीर्थंकर हुये हैं, उन्होंने आचार की दृष्टि से अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, सामायिक, समभाव, विश्ववात्सल्य और विश्वमैत्री का पावन संदेश दिया है। विचार की दृष्टि से स्याद्वाद, अनेकान्तवाद या विभज्यवाद का उपदेश दिया । इस प्रकार अर्थ की दृष्टि से जैन आगम अनादि अनन्त हैं । समवायाङ्ग में यह स्पष्ट कहा है - द्वादशांग गणिपिटक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, यह भी नहीं है कि कभी नहीं है, और कभी नहीं होगा, यह भी नहीं है । वह था, है और होगा। वह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। आचारांग में भी कहा गया है कि जो अरिहंत हो गये हैं, जो अभी वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, उन सभी का एक ही उपदेश है कि किसी भी प्राणी भूत जीव और सत्त्व की हत्या मत करो । उनके ऊपर अपनी सत्ता मत जमाओ । उन्हें गुलाम मत बनाओ, उन्हें कष्ट मत दो । यही
१. “यद् भगवद्भिः सर्वज्ञैः सर्वदर्शिभिः परमर्षिभिरर्हद्भिस्तत्स्वाभाव्यात् परमशुभस्य च प्रवचनप्रतिष्ठापनफलस्य तीर्थंकरनामकर्मणोऽनुभावादुक्तम्, भगवच्छिष्यैरतिशयवद्भिस्तदतिशयवाम्बुद्धिसम्पन्नैर्गणधरैर्दृब्धं तदङ्गप्रविष्टम् ॥” - तत्त्वार्थस्वोपज्ञभाष्य १/२० ॥ २. “तवनियमनाणरुक्खं आरूढो केवली अमियनाणी । तो मुयइ नाणवुटिं भवियजणविबोहणट्ठाए । तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिहिउं निरवसेसं ॥” - आवश्यकनियुक्ति गा० ८९-९०।। ३. (क) समवायांग-द्वादशांग परिचय (ख) नन्दीसूत्र, सूत्र ५७ ।।
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
३
धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और विवेकी पुरुषों ने बताया है । इस प्रकार जैन आगमों में पौरुषेयता और अपौरुषेयता का सुन्दर समन्वय हुआ है ।
यहाँ पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि तीर्थंकर अर्थ रूप में उपदेश प्रदान करते हैं, वे अर्थ के प्रणेता हैं । उस अर्थ को सूत्रबद्ध करने वाले गणधर या स्थविर हैं । गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं । अंगबाह्य आगम की रचना करने वाले स्थविर हैं । ३
जिस तीर्थंकर के जितने गणधर होते हैं, वे सभी एक ही अर्थ को आधार बनाकर सूत्र की रचना करते हैं । कल्पसूत्र की स्थविरावली में श्रमण भगवान् महावीर के नौ गण और ग्यारह गणधर । बताये हैं । उपाध्याय विनयविजय जी ने गण का अर्थ एक वाचना ग्रहण करने वाला 'श्रमणसमुदाय' किया है ।" और गण का दूसरा अर्थ स्वयं का शिष्य समुदाय भी है । कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने यह स्पष्ट किया है कि प्रत्येक गण की सूत्रवाचना पृथक् पृथक् थी । भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर और नौ गण थे । नौ गणधर श्रमण भगवान् महावीर के सामने ही मोक्ष पधार चूके थे और भगवान् महावीर के परिनिर्वाण होते ही गणधर - इन्द्रभूति गौतम केवली बन चुके थे। सभी ने अपने-अपने गण सुधर्मा को समर्पित किये थे, क्योंकि वे सभी गणधरों में दीर्घजीवी थे ! " आज जो द्वादशांगी विद्यमान है वह गणधर सुधर्मा की रचना है ।
सेनप्रश्न ग्रन्थ में तो आचार्य ने यह प्रश्न उठाया है कि भिन्न-भिन्न वाचना होने से गणधरों में साम्भोगिक सम्बन्ध था या नहीं ? और उन की समाचारी में एकरूपता थी या नहीं ? आचार्य
स्वयं ही उत्तर दिया है कि वाचना-भेद होने से संभव है समाचारी में भेद हो । और कथंचित् असाम्भोगिक सम्बन्ध हो । आगमतत्त्ववेत्ता मुनि जम्बूविजय जी ने ' आवश्यकचूर्णि को आधार बनाकर इस तर्क का खण्डन किया है । उन्होंने तर्क दिया है कि यदि पृथक-पृथक् वाचनाओं के आधार पर द्वादशांगी पृथक्-पृथक् थी तो श्वेताम्बर और दिगम्बर के प्राचीन ग्रन्थों में इस का उल्लेख होना
१. (क) आचारांग अ० ४ सूत्र १३६ (ख) सूत्रकृतांग २ / १ / १५, २/२/४१ ॥ २. आवश्यकनिर्युक्ति १९२॥ ३. (क) विशेषावश्यकभाष्य गा. ५५० (ख) बृहत्कल्पभाष्य गा. १४४ (ग) तत्त्वार्थभाष्य १-२० (घ) सर्वार्थसिद्धि १-२० ॥ ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा इक्कारस गणहरा हुत्था । - कल्पसूत्र ॥ ५. एकवाचनिको यतिसमुदायो गणः । - कल्पसूत्र सुबोधिका वृत्ति ॥ ६. “ एवं रचयतां तेषां सप्तानां गणधारिनाम् । परस्परमजायन्त विभिन्नाः सूत्रवाचनाः । अकम्पिताऽचलभ्रात्रोः श्रीमेतार्यप्रभासयोः । परस्परमजायन्त सदृक्षा एव वाचनाः ॥ श्री वीरनाथस्य गणधरेष्वेकादशस्वपि । द्वयोर्द्वयोर्वाचनयोः साम्यादासन् गणा नव ॥' - त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र - पर्व १०, सर्ग ५, श्लोक १७३ से १७५ ।। ७. “सामिस्स जीवंते णव कालगता, जो य कालं करेति सो सुधम्मसामिस्स गणं देति, इंदभूती सुधम्मो य सामिम्मि परिनिव्वुए परिनिव्वुता।” आवश्यकचूर्णि, पृ. ३३९ ।। ८. “तीर्थंकरगणभृतां मिथो भिन्नवाचनत्वेऽपि साम्भोगिकत्वं भवति न वा ? तथा सामाचार्यादिकृतो भेदो भवति न वा ? इति प्रश्न उत्तरम् - - गणभृतां परस्परं वाचनाभेदेन सामाचार्या अपि कियान् भेदः सम्भाव्यते, तद्भेदे च कथंचिदसाम्भोगिकत्वमपि सम्भाव्यते ।" - सेनप्रश्न, उल्लास २, प्रश्न ८९ ॥ ९ सूयगडंगसुत - प्रस्तावना, पृष्ठ २८ - ३० ॥
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन चाहिए था । पर वह नहीं है । उदाहरण के रूप में एक कक्षा में पढ़ने वाले विद्यार्थीओं के एक ही प्रकार के पाठ्यग्रन्थ होते हैं । पढ़ाने की सुविधा की दृष्टि से एक ही विषय को पृथक्-पृथक् अध्यापक पढ़ाते हैं । पृथक्-पृथक् अध्यापकों के पढ़ाने से विषय कोई पृथक् नहीं हो जाता । वैसे ही पृथक्-पृथक् गणधरों के पढ़ाने से सूत्ररचना भी पृथक् नहीं होती । आचार्य जिनदास गणि महत्तर ने भी यह स्पष्ट लिखा है कि दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् सभी गणधर एकान्त स्थान में जाकर सूत्र की रचना करते हैं। उन सभी के अक्षर, पद और व्यञ्जन समान होते हैं । इस से भी यह स्पष्ट है कि सभी गणधरों की भाषा एक सदृश थी । उसमें पृथक्ता नहीं थी। पर जिस प्राकृत भाषा में सूत्र रचे गये थे, वह लोकभाषा थी। इसलिए उसमें एकरूपता निरन्तर सुरक्षित नहीं रह सकती। ___ जैन श्रमणों की आचारसंहिता प्रारम्भ से ही अत्यन्त कठिन रही है। अपरिग्रह उनका जीवनव्रत है। अपरिग्रह महाव्रत की सुरक्षा के लिए आगमों को लिपिबद्ध करना, उन्होंने उचित नहीं समझा। लिपि का परिज्ञान भगवान् ऋषभदेव के समय से ही चल रहा था ।२ ।
किन्तु जैन आगम लिखे नहीं जाते थे। आत्मार्थी श्रमणों ने देखा- यदि हम लिखेंगे तो हमारा अपरिग्रह महाव्रत पूर्णरूप से सुरक्षित नहीं रह सकेगा, हम पुस्तकों को कहाँ पर रखेंगे, आदि विविध दृष्टियों से चिन्तन कर उसे असंयम का कारण माना। पर जब यह देखा गया कि काल की कालीछाया से विक्षुब्ध हो अनेक श्रुतधर श्रमण स्वर्गवासी बन गये, श्रुत की धारा छिन्न-भिन्न होने लगी, तब मूर्धन्य मनीषियों ने चिन्तन किया । यदि श्रुतसाहित्य नहीं लिखा गया तो एक दिन वह भी आ सकता है कि जब सम्पूर्ण श्रुत-साहित्य नष्ट हो जाए । अतः उन्होंने श्रुत-साहित्य को लिखने का निर्णय लिया । जब श्रुत साहित्य को लिखने का निर्णय लिया गया, तब तक बहुत सारा श्रुत विस्मृत हो चुका था । पहले आचार्यों ने जिस श्रुतलेखन को असंयम का कारण माना था, उसे ही संयम का कारण मानकर पुस्तक को भी संयम का कारण माना । यदि ऐसा नहीं मानते, तो रहा-सहा श्रुत भी नष्ट हो जाता । इस तरह जैन आगम साहित्य के विच्छिन्न होने के अनेक कारण रहे हैं।
बौद्ध साहित्य के इतिहास का पर्यवेक्षण करने पर यह स्पष्ट होता है कि तथागत बुद्ध के उपदेश १. जदा य गणहरा सव्वे पव्वजिता ताहे किर एगनिसज्जाए एगारस अंगाणि चोद्दसहिं चोद्दस पुव्वाणि, एवं ता भगवता अत्थो कहितो, ताहे भगवंतो एगपासे सुतं करे (रें)ति तं अक्खरेहिं पदेहिं वंजणेहिं समं, पच्छा सामी जस्स जत्तियो गणो तस्स तत्तियं अणुजाणति । आतीय सुहम्मं करेति, तस्स महल्लमाउयं, एत्तो तित्थं होहिति त्ति।"-आवश्यकचूर्णि॥ २. (क) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ति (ख) कल्पसूत्र १९५ ॥ ३. (क) दशवैकालिक चूर्णि, पृ.२ (ख) बृहत्कल्पनियुक्ति, १४७, पृ.२१ (ग) विशेषशतक - ४९ ।। ४. “कालं पुण पडुच्च चरणकरणट्ठा अवोच्छित्तिनिमित्तं च गेण्हमाणस्स पोत्थए संजमो भवइ ।" - दशवैकालिक चूर्णि, पृ.२१ ॥
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन को व्यवस्थित करने के लिए अनेक बार संगीतियाँ हुईं। उसी तरह भगवान् महावीर के पावन उपदेशों को पुनः सुव्यवस्थित करने के लिए आगमों की वाचनाएँ हुईं। श्रुत की अविरल धारा आर्य भद्रबाहु तक चलती रही। वे अन्तिम श्रुतकेवली थे । जैन शासन को वीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी के मध्य दुष्काल के भयंकर वात्याचक्र से जूझना पड़ा था। अनुकूल-भिक्षा के अभाव में अनेक श्रुतसम्पन्न मुनि कालकवलित हो गए थे । दुष्काल समाप्त होने पर विच्छिन्न श्रुत को संकलित करने के लिए वीर निर्वाण १६० (वि.पू.३१०) के लगभग श्रमण-संघ पाटलिपुत्र (मगध) में एकत्रित हुआ। इस सम्मेलन का सर्वप्रथम उल्लेख “तित्थोगाली'१ में प्राप्त होता है। उसके बाद के बने हुए अनेक ग्रन्थों में भी इस वाचना का उल्लेख है । मगध जैन-श्रमणों की प्रचारभूमि थी, किन्तु द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण श्रमणों को मगध छोड़ कर समुद्र-किनारे जाना पड़ा । श्रमण किस समुद्र तट पर पहुंचे इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है। कितने ही विज्ञों ने दक्षिणी समुद्र तट पर जाने की कल्पना की है। पर मगध के सन्निकट बंगोपसागर (बंगाल की खाड़ी) भी है, जिस के किनारे उडीसा अवस्थित है । वह स्थान भी हो सकता है। दुष्काल के कारण सन्निकट होने से श्रमण संघ का वहां जाना संभव लगता है । पाटलिपुत्र में सभी श्रमणों ने मिलकर एक-दूसरे से पूछकर प्रामाणिक रूप से ग्यारह अंगो का पूर्णतः संकलन उस समय किया । पाटलिपुत्र में जितने भी श्रमण एकत्रित हुए थे, उनमें दृष्टिवाद का परिज्ञान किसी श्रमण को नहीं था । दृष्टिवाद जैन आगमों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाग था, जिसका संकलन किये बिना अंगों की वाचना अपूर्ण थी । दृष्टिवाद के एकमात्र ज्ञाता भद्रबाहु थे । आवश्यक-चूर्णि के अनुसार वे उस समय नेपाल की पहाड़ियों में महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। संघ ने आगम-निधि की सुरक्षा के लिए श्रमणसंघाटक को नेपाल प्रेषित किया। श्रमणों ने भद्रबाहु से प्रार्थना की- 'आप वहाँ पधार कर श्रमणों को दृष्टिवाद की ज्ञान-राशि से लाभान्वित करें ।' भद्रबाहु ने साधना में विक्षेप समझते हुए प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया ।
_ “तित्थोगालीय" के अनुसार भद्रबाहु ने आचार्य होते हुए भी संघ के दायित्व से उदासीन होकर कहा - 'श्रमणो ! मेरा आयुष्य काल कम रह गया है। इतने स्वल्प समय में मैं दृष्टिवाद की वाचना देने में असमर्थ हूँ । आत्महितार्थ मैं अपने आपको समर्पित कर चुका हूँ । अतः संघ को वाचना देकर क्या करना है ?'६ इस निराशाजनक उत्तर से श्रमण उत्तप्त हुए। उन्होंने पुनः निवेदन १. तित्थोगाली, गाथा ७१४ ।। २. (क) आवश्यकचूर्णि भाग-२, पृ.१८७ (ख) परिशिष्ट पर्व-सर्ग-९, श्लोक ५५५९ ॥ ३. आवश्यकचूर्णि, भाग दो, पत्र १८७ ।। ४. “अह बारसवारिसिओ, जाओ कूरो कयाइ दुक्कालो । सव्वो साहुसमूहो, तओ गओ कत्थई कोई ॥२२॥ तदुवरमे सो पुणरवि, पाडलिपुत्ते समागओ विहिया । संघेणं सुयविसया चिंता किं कस्स अत्थित्ति ।।२३।। जं जस्स आसि पासे उद्देसज्झयणगाइ तं सव्वं । संघडियं एक्कारसंगाइं तहेव ठवियाई ॥२४॥" - उपदेशमाला, विशेषवृत्ति पत्रांक २४१ ।। ५. “नेपालवत्तणीए य भद्दबाहुसामी अच्छंति चौद्दसपुवी।" - आवश्यकचूर्णि, भाग-२, पृ.१८७ ॥ ६. “सो भणति एव भणिए, असिट्ठ किलिट्ठएणं वयणेणं । न हु ता अहं समत्थो, इण्हिं भे वायणं दाउं । अप्पट्टे आउत्तस्स मज्झ किं वायणाए कायव्वं । एवं च भणियमेत्ता रोसस्स वसं गया साह ॥" - तित्थोगाली-गाथा ७२८, ७२९ ।।
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
किया- ‘संघ की प्रार्थना को अस्वीकार करने पर आपको क्या प्रायश्चित लेना होगा ?'१
आवश्यकचूर्णि' के अनुसार आये हुये श्रमण-संघाटक ने कोई नया प्रश्न उपस्थित नहीं किया, वह पुनः लौट गया। उसने सारा संवाद संघ को कहा। संघ अत्यन्त विक्षुब्ध हुआ । क्योंकि भद्रबाहु के अतिरिक्त दृष्टिवाद की वाचना देने में कोई भी समर्थ नहीं था । पुनः संघ ने श्रमण-संघाटक को नेपाल भेजा । उन्होंने निवेदन किया - भगवन् ! संघ की आज्ञा की अवज्ञा करने वाले को क्या प्रायश्चित्त आता है ? प्रश्न सुनकर भद्रबाहु गम्भीर हो गये। उन्होंने कहा- जो संघ का अपमान करता है, वह श्रुतनिह्नव है । संघ से बहिष्कृत करने योग्य है । श्रमण-संघाटक ने पुनः निवेदन किया- आपने भी संघ की बात को अस्वीकृत किया है, आप भी इस दण्ड के योग्य हैं ? "तित्थोगालिय' में प्रस्तुत प्रसंग पर श्रमण-संघ के द्वारा बारह प्रकार के संभोग विच्छेद का भी वर्णन है।
आचार्य भद्रबाहु को अपनी भूल का परिज्ञान हो गया। उन्होंने मधुर शब्दों में कहा- मैं संघ की आज्ञा का सम्मान करता हूँ। इस समय मैं महाप्राण की ध्यान-साधना में संलग्न हूँ। प्रस्तुत ध्यान साधना से चौदह पूर्व की ज्ञान-राशि का मुहूर्त मात्र में परावर्तन कर लेने की क्षमता आ जाती है। अभी इसकी सम्पन्नता में कुछ समय अवशेष है । अतः मैं आने में असमर्थ हूं । संघ प्रतिभासम्पन्न श्रमणों को यहाँ प्रेषित करे । मैं उन्हें साधना के साथ ही वाचना देने का प्रयास करूंगा।
___“तित्थोगालिय'४ के अनुसार भद्रबाहु ने कहा- मैं एक अपवाद के साथ वाचना देने को तैयार हूं । आत्महितार्थ, वाचना ग्रहणार्थ आने वाले श्रमण-संघ में बाधा उत्पन्न नहीं करूंगा। और वे भी मेरे कार्य में बाधक न बनें । कायोत्सर्ग सम्पन्न कर भिक्षार्थ आते-जाते समय और रात्रि में शयन-काल के पूर्व उन्हें वाचना प्रदान करता रहूंगा । “तथास्तु' कह वन्दन कर वहाँ से वे प्रस्थित हुये । संघ को संवाद सुनाया ।
संघ ने महान् मेधावी उद्यमी स्थूलभद्र आदि को दृष्टिवाद के अध्ययन के लिए प्रेषित किया। परिशिष्ट पर्व के अनुसार पांच सौ शिक्षार्थी नेपाल पहुंचे थे। “तित्थोगालिय'६ के अनुसार श्रमणों की संख्या पन्द्रह सौ थी। इनमें पांच सौ श्रमण शिक्षार्थी थे और हजार श्रमण परिचर्या करने वाले थे । आचार्य भद्रबाहु प्रतिदिन उन्हें सात वाचना करते थे । एक वाचना भिक्षाचर्या से आते समय, १. “एव भणंतस्स तुहं को दंडो होई तं मुणसु।" - तित्थोगाली ७३० ।। २. "तं ते भणंति दुक्कालनिमित्तं महापाणं पविठ्ठो मि तो न जाति वायणं दातुं ।” - आवश्यकचूर्णि, भाग-२, पत्रांक १८७ ॥ ३. "तेहिं अण्णोवि संघाडओ विसज्जितो, जो संघस्स आणं अतिक्कमति तस्स को दंडो ? तो अक्खाई- उग्घाडिजई । ते भणंति मा उग्घाडेह, पेसेह मेहावी, सत्त पडिपुच्छगाणि देमि ।" -आवश्यकचूर्णि, भाग-२, पत्रांक १८७ ।। ४. “एक्केण कारणेणं, इच्छं भे वायणं दाउं । अप्पट्टे आउत्तो, परमढे सुट्ठ दाणि उज्जुत्तो । न वि हं वाहरियव्वो, अहं पि नवि वाहरिस्सामि॥ पारियकाउस्सग्गो, भत्तद्वित्तो व अहव सज्झाए । निंतो व अइंतो वा एवं भे वायणं दाहं ॥" -तित्थोगाली, गाथा ७३५, ७३६ ॥ ५. परिशिष्ट पर्व, सर्ग ९, गाथा ७० ॥ ६. तित्थोगाली गाथा ७३८, ७३९ ।।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
तीन वाचना विकाल वेला में और तीन वाचना प्रतिक्रमण के पश्चात् रात्रि में प्रदान करते थे।
दृष्टिवाद अत्यन्त कठिन था । वाचना प्रदान करने की गति मन्द थी । मेधावी मुनियों का धैर्य ध्वस्त हो गया। चार सौ निन्यानवै शिक्षार्थी मुनि वाचना-क्रम को छोड़कर चले गये । स्थूलभद्र मुनि निष्ठा से अध्ययन में लगे रहे। आठ वर्ष में उन्होंने आठ पूर्वो का अध्ययन किया । आठ वर्ष के लम्बे समय में भद्रबाहु और स्थूलभद्र के बीच किसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं मिलता। एक दिन स्थूलभद्र से भद्रबाहु ने पूछा- 'तुम्हे भिक्षा एवं स्वाध्याय योग में किसी भी प्रकार का कोई कष्ट तो नहीं है ?' स्थूलभद्र ने निवेदन किया- 'मुझे कोई कष्ट नहीं है । पर जिज्ञासा है कि मैंने आठ वर्षों में कितना अध्ययन किया है ? और कितना अवशिष्ट है ?' भद्रबाहु ने कहा- 'वत्स! सरसों जितना ग्रहण किया है, और मेरु जितना बाकी है । दृष्टिवाद के अगाध ज्ञानसागर से अभी तक तुम बिन्दुमात्र पाये हो ।' स्थूलभद्र ने पुनः निवेदन किया- 'भगवन् ! मैं हतोत्साह नहीं हूं, किन्तु मुझे वाचना का लाभ स्वल्प मिल रहा है । आपके जीवन का सन्ध्याकाल है, इतने कम समय में वह विराट ज्ञान राशि कैसे प्राप्त कर सकूँगा ?' भद्रबाहु ने आश्वासन देते हुए कहा - 'वत्स ! चिन्ता मत करो । मेरा साधनाकाल सम्पन्न हो रहा है। अब मैं तुम्हें यथेष्ट वाचना दूंगा।' उन्होंने दो वस्तु कम दशपूर्वो की वाचमा ग्रहण कर ली । तित्थोगालिय के अनुसार दशपूर्व पूर्ण कर लिये थे और ग्यारहवें पूर्व का अध्ययन चल रहा था। साधनाकाल सम्पन्न होने पर आर्य भद्रबाहु स्थूलभद्र के साथ पाटलिपुत्र आये । यक्षा आदि साध्वियाँ वन्दनार्थ गईं । स्थूलभद्र ने चमत्कार प्रदर्शित किया। जब वाचना ग्रहण करने के लिये स्थूलभद्र भद्रबाहु के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा'वत्स ! ज्ञान का अहं विकास में बाधक है। तुम ने शक्ति का प्रदर्शन कर अपने आप को अपात्र सिद्ध कर दिया है। अब तुम आगे की वाचना के लिये योग्य नहीं हो ।' स्थूलभद्र को अपनी प्रमादवृत्ति पर अत्यधिक अनुताप हुआ । चरणों में गिर कर क्षमायाचना की और कहा- पुनः अपराध का आवर्तन नहीं होगा। आप मझे वाचना प्रदान करें । प्रार्थना स्वीकृत नहीं हई । स्थूलभद्र ने निवेदन किया- मैं पर-रूप का निर्माण नहीं करूंगा, अवशिष्ट चार पूर्व ज्ञान देकर मेरी इच्छा पूर्ण करें । स्थूलभद्र के अत्यन्त आग्रह पर चार पूर्वो का ज्ञान इस अपवाद के साथ देना स्वीकार किया कि अवशिष्ट चार पूर्वो का ज्ञान आगे किसी को भी नहीं दे सकेगा । दशपूर्व तक उन्होंने अर्थ से ग्रहण किया था और शेष चार पूर्वो का ज्ञान शब्दशः प्राप्त किया था । उपदेशमाला विशेषवृत्ति, आवश्यकचूर्णि, तित्थोगालिय, परिशिष्टपर्व, प्रभृति ग्रन्थों में कहीं संक्षेप में और कहीं विस्तार से वर्णन है। १. “श्रीभद्रबाहुपादान्ते स्थूलभद्रो महामतिः । पूर्वाणामष्टकं वर्षेरपाठीदष्टभिर्भृशम् ॥” -परिशिष्ट पर्व, सर्ग-९, श्लोक८१ ।। २. “दृष्ट्वा सिंहं तु भीतास्ताः सूरिमेत्य व्यजिज्ञपन् । ज्येष्ठार्यं जनसे सिंहस्तत्र सोऽद्यापि तिष्ठति ।।" -परिशिष्ट पर्व, सर्ग-९, श्लोक- ८१ ।। ३. “अह भणइ थूलभद्दो अन्नं रूवं न किंचि काहामो । इच्छामि जाणिउं जे, अहयं चत्तारि पुव्वाई ।।" -तित्थोगाली पइन्ना - ८०० ।।
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन दिगम्बर साहित्य के उल्लेखानुसार दुष्काल के समय बारह सहस्र श्रमणों ने परिवृत होकर भद्रबाहु उज्जैन होते हुये दक्षिण की ओर बढ़े और सम्राट चन्द्रगुप्त को दीक्षा दी ।
यहाँ पर यह भी स्मरण रखना होगा कि नेपाल जाकर योग की साधना करने वाले भद्रबाहु और उज्जैन होकर दक्षिण की ओर बढ़ने वाले भद्रबाहु, एक व्यक्ति नहीं हो सकते । दोनों के लिए चतुर्दशपूर्वी लिखा गया है। यह उचित नहीं है। इतिहास के लम्बे अन्तराल में इस तथ्य को दोनों परम्पराएं स्वीकार करती हैं। प्रथम भद्रबाहु का समय वीर-निर्वाण की द्वितीय शताब्दी है तो द्वितीय भद्रबाहु का समय वीर-निर्वाण की पांचवीं शताब्दी के पश्चात् है । प्रथम भद्रबाहु चतुर्दश पूर्वी और छेद सूत्रों के रचनाकार थे । द्वितीय भद्रबाहु वराहमिहिर के भ्राता थे । राजा चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध प्रथम भद्रबाहु के साथ न होकर द्वितीय भद्रबाहु के साथ है। क्योंकि प्रथम भद्रबाहु का स्वर्गवासकाल वीर निर्वाण एक सौ सत्तर (१७०) के लगभग है। एक सौ पचास वर्षीय नन्द साम्राज्य का उच्छेद
और मौर्य शासन का प्रारम्भ वीर-निर्वाण दो सौ दस के आस-पास है । द्वितीय भद्रबाहु के साथ चन्द्रगुप्त अवन्ती का था, पाटलिपुत्र का नहीं । आचार्य देवसेन ने चन्द्रगुप्त की दीक्षा देने वाले भद्रबाहु के लिए श्रुतकेवली विशेषण नहीं दिया है किन्तु निमित्तज्ञानी विशेषण दिया है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भी वे निमित्तवेत्ता थे । सम्राट चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्नों का फलादेश बताने वाले वे भद्रबाहु ही होने चाहिए । मौर्यशासक चन्द्रगुप्त और अवन्ती के शासक चन्द्रगुप्त और दोनों भद्रबाहु की जीवन घटनाओं में एक सदृश नाम होने से संक्रमण हो गया है।
तित्थोगालिय के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि पाटलिपुत्र में अंग-साहित्य की वाचना हुई थी। वहां अंगबाह्य आगमों की वाचना के सम्बन्ध में कुछ भी निर्देश नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि अंगबाह्य आगम उस समय नहीं थे । श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार अंगबाह्य आगमों की रचनाएं पाटलिपुत्र की वाचना के पहले ही हो चुकी थीं। क्योंकि वीर-निर्वाण (८४) चौसठ में शय्यम्भव जैन श्रमण बने थे और वीर-निर्वाण ७५ में वे आचार्य पद से अलंकृत हुए थे। उन्होंने अपने पुत्र अल्पायुष्य मुनि मणक के लिए आत्मप्रवाद से दशवैकालिक सूत्र का निर्वृहण किया । वीर-निर्वाण के ८० वर्ष बाद इस महत्त्वपूर्ण सूत्र की रचना हुई थी । स्वयं भद्रबाहु ने भी छेदसूत्रों की रचनाएं की थीं, उस समय विद्यमान थे । पर इन ग्रन्थों की वाचना के सम्बन्ध में कोई संकेत नहीं है।
पाटलिपुत्र की वाचना के सम्बन्ध में दिगम्बर प्राचीन साहित्य में कहीं उल्लेख नहीं है । यद्यपि दोनों ही परम्पराएं भद्रबाहु को अपना आराध्य मानती हैं । आचार्य भद्रबाहु के शासनकाल में दो १. “वंदामि भद्दबाहुं पाईणं चरियं सगलसुयनाणिं । सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्पे य ववहारे ॥" - दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति, गाथा १ ॥ २. “आसि उज्जेणीणयरे, आयरियो भद्दबाहुणामेण । जाणियं सुणिमित्तधरो, भणियो संघो णियो तेण॥ -भावसंग्रह ॥ ३. “सिद्धान्तसारमृद्धृत्याचार्यः शय्यम्भवस्तदा । दशवैकालिकं नाम, श्रुतस्कन्धमुदाहरत् ।।- परिशिष्टपर्व, सर्ग ५, श्लोक ८५।
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
९
विभिन्न दिशाओं में बढ़ती हुई श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के आचार्यों की नामशृङ्खला एक केन्द्र पर आ पहुंची थी । अब पुनः वह शृङ्खला विशृङ्खलित हो गयी थी ।
द्वितीय वाचना :- आगमसंकलन का द्वितीय प्रयास वीर- निर्वाण ३०० से ३३० के बीच हुआ । सम्राट खारवेल उड़ीसा प्रान्त के महाप्रतापी शासक । उन का अपर नाम " महामेघवाहन" था । उन्होंने अपने समय में एक बृहद् जैन सम्मेलन का आयोजन किया था, जिसमें अनेक जैन भिक्षु, आचार्य, विद्वान तथा विशिष्ट उपासक सम्मिलित हुए थे । सम्राट खारवेल को उनके कार्यों की प्रशस्ति के रूप में “धम्मराज”, “भिक्खुराज”, “ खेमराज" जैसे विशिष्ट शब्दों से सम्बोधित किया गया है । हाथी गुफा (उड़ीसा) के शिलालेख में इस सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन है । हिमवन्त स्थविरावली के अनुसार महामेघवाहन, भिक्षुराज खारवेल सम्राट ने कुमारी पर्वत पर एक श्रमण सम्मेलन का आयोजन किया था । प्रस्तुत सम्मेलन में महागिरि - परम्परा के बलिस्सह, बौद्धिलिङ्ग, देवाचार्य, धर्मसेनाचार्य, नक्षत्राचार्य, प्रभृति दो सौ जिनकल्पतुल्य उत्कृष्ट साधना करने वाले श्रमण तथा आर्य सुस्थित, आर्य सुप्रतिबद्ध, उमास्वाति, श्यामाचार्य, प्रभृति तीन सौ स्थविरकल्पी श्रमण थे । आर्या पोइणी प्रभृति ३०० साध्वियाँ, भिखुराय, चूर्णक, सेलक, प्रभृति ७०० श्रमणोपासक और पूर्णमित्रा प्रभृति ७०० उपासिकाएँ विद्यमान थीं ।
बलिस्सह, उमास्वाति, श्यामचार्य प्रभृति स्थविर श्रमणों ने सम्राट खारवेल की प्रार्थना को सन्मान देकर सुधर्मा - रचित द्वादशांगी का संकलन किया । उसे भोजपत्र, ताडपत्र और वल्कल पर लिपिबद्ध कराकर आगम वाचना के ऐतिहासिक पृष्ठों में एक नवीन अध्याय जोड़ा । प्रस्तुत वाचना भुवनेश्वर के निकट कुमारगिरि पर्वत पर, जो वर्तमान में खण्डगिरि उदयगिरि पर्वत के नाम से विश्रुत है, वहाँ • हुई थी, जहाँ पर अनेक जैन गुफाएं हैं जो कलिंग नरेश खारवेल महामेघवाहन के धार्मिक जीवन की परिचायिका हैं । इस सम्मेलन में आर्य सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध दोनों सहोदर भी उपस्थित थे। कलिंगाधिप भिक्षुराज ने इन दोनों का विशेष सम्मान किया था । हिमवन्त थेरावली के अतिरिक्त अन्य किसी जैन ग्रन्थ में इस सम्बन्ध में उल्लेख नहीं है । खण्डगिरि और उदयगिरि में इस सम्बन्ध में जो विस्तृत लेख उत्कीर्ण है, उससे स्पष्ट परिज्ञात होता है कि उन्होंने आगम-वाचना के लिए सम्मेलन किया था ।
तृतीय वाचना :- आगमों को संकलित करने का तृतीय प्रयास वीर - निर्वाण ८२७ से ८४० के मध्य हुआ । वीर - निर्वाण की नवमी शताब्दी में पुन: द्वादशवर्षीय दुष्काल से श्रुत-विनाश का भीषण आघात जैन शासन को लगा । श्रमण - जीवन की मर्यादा के अनुकूल आहार की प्राप्ति अत्यन्त कठिन हो गयी । बहुत-से श्रुतसम्पन्न श्रमण काल के अंक में समा गये । सूत्रार्थग्रहण, परावर्त्तन १. “सुट्ठियसुपडिबुद्धे, अज्जे दुन्ने वि ते नम॑सामि । भिक्खुरायकलिंगाहिवेण सम्माणिए जिट्ठे ॥” - हिमवंत स्थविरावली, गा. १० ॥ २. (क) जर्नल आफ दी बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी, - भाग १३, पृ. ३३६ (ख) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग १, पृ. ८२ (ग) जैनधर्म के प्रभावक आचार्य, -साध्वी संघमित्रा, पृ.१०-११ ॥
.
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन के अभाव में श्रुत-सरिता सूखने लगी। अति विषम स्थिति थी । बहुत सारे मुनि सुदूर प्रदेशों में विहरण करने के लिए प्रस्थित हो चुके थे।
दुष्काल की परिसमाप्ति के पश्चात् मथुरा में श्रमणसम्मेलन हुआ । प्रस्तुत सम्मेलन का नेतृत्व आचार्य स्कन्दिल ने संभाला । श्रुतसम्पन्न श्रमणों की उपस्थित से सम्मेलन में चार चाँद लग गये। प्रस्तुत सम्मेलन में मधुमित्र, गन्धहस्ति, प्रभृति १५० श्रमण उपस्थित थे । मधुमित्र और स्कन्दिल ये दोनों आचार्य आचार्य सिंह के शिष्य थे। आचार्य गन्धहस्ती मधुमित्र के शिष्य थे । इनका वैदुष्य उत्कृष्ट था । अनेक विद्वान् श्रमणों के स्मृतपाठों के आधार पर आगम-श्रुत का संकलन हुआ था।
आचार्य स्कन्दिल की प्रेरणा से गन्धहस्ती ने ग्यारह अंगों का विवरण लिखा । मथुरा के ओसवाल वंशज सुश्रावक ओसालक ने गन्धहस्ती-विवरण सहित सूत्रों को ताडपत्र पर उट्टङ्कित करवा कर निग्रन्थों को समर्पित किया। आचार्य गन्धहस्ती को ब्रह्मदीपिक शाखा में मुकुटमणि माना गया है।
प्रभावकचरित के अनुसार आचार्य स्कन्दिल जैन शासन रूपी नन्दनवन में कल्पवृक्ष के समान हैं। समग्र श्रुतानुयोग को अंकुरित करने में महामेघ के समान थे । चिन्तामणि के समान वे इष्टवस्तु के प्रदाता थे ।२
यह आगमवाचना मथुरा में होने से माथुरी वाचना कहलायी । आचार्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में होने से स्कन्दिली वाचना के नाम से इसे अभिहित किया गया । जिनदास गणी महत्तर ने यह भी लिखा है कि दुष्काल के क्रूर आघात से अनुयोगधर मुनियों में केवल एक स्कन्दिल ही बच पाये थे । उन्होंने मथुरा में अनुयोग का प्रवर्तन किया था । अतः यह वाचना स्कन्दिली नाम से विश्रुत हुई।
प्रस्तुत वाचना में भी पाटलिपुत्र की वाचना की तरह केवल अंगसूत्रों की ही वाचना हुई । क्योंकि नन्दीसूत्र की चूर्णि' में अंगसूत्रों के लिए कालिक शब्द व्यवहृत हुआ है। अंगबाह्य आगमों की वाचना या संकलना का इस समय भी प्रयास हुआ हो, ऐसा पुष्ट प्रमाण नहीं है । पाटलिपुत्र में जो अंगों की वाचना हुई थी उसे ही पुनः व्यवस्थित करने का प्रयास किया गया था । नन्दीसूत्र के अनुसार वर्तमान में जो आगम विद्यमान हैं वे माथुरी वाचना के अनुसार हैं। पहले जो वाचना हुई थी, वह पाटलिपुत्र में हुई थी, जो बिहार में था । उस समय बिहार जैनों का केन्द्र रहा था।
१. “इत्थ दूसहदुब्भिक्खे दुवालसवारिसिए नियत्ते सयलसंघ मेलिअ आगमाणुओगो पवत्तिओ खंदिलायरियेण ।" -विविध तीर्थकल्प, पृ.१९ ॥ २. “पारिजातोऽपारिजातो जैनशासननन्दने । सर्वश्रुतानुयोगट्ठ-कन्दकन्दलनाम्बुदः ॥ विद्याधरवराम्नाये चिन्तामणिरिवेष्टदः । आसीच्छ्रीस्कन्दिलाचार्यः पादलिप्तप्रभोः कुले ॥" - प्रभावकचरित, पृ.५४॥ ३. “अण्णे भणंति जहा-सुत्तं ण णटुं, तम्मि दुब्भिक्खकाले जे अण्णे पहाणा अणुओगधरा ते विणट्ठा, एगे खंदिलायरिए संथरे, तेण मधुराए अणुओगो पुणो साधूणं पवत्तितो त्ति मथुरा वायणा भण्णति ।" -नन्दीचूर्णि, गा. ३२, पृ.९ ।। ४. “अहवा कालियं आयारादि सुत्तं तदुवदेसेणं सण्णी भण्णति ।" -नन्दीचूर्णि गा. ३२ पृ.९ ॥ ५. "जेसि इमो अणुओगो, पयरइ अज्जावि अड्डभरहम्मि । बहुनगरनिग्गयजसो ते वंदे खंदिलायरिए ॥" -नन्दीसूत्र, गा.३२ ।।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
किन्तु माथुरी वाचना के समय बिहार से हटकर उत्तर प्रदेश केन्द्र हो गया था। मथुरा से ही कुछ श्रमण दक्षिण की ओर आगे बढ़े थे। जिसका सूचन हमें दक्षिण में विश्रुत माथुरी संघ के अस्तित्व से प्राप्त होता है ।
नन्दीसूत्र की चूर्णि और मलयगिरि वृत्ति के अनुसार यह माना जाता है कि दुर्भिक्ष के समय श्रुतज्ञान कुछ भी नष्ट नहीं हुआ था । केवल आचार्य स्कन्दिल के अतिरिक्त शेष अनुयोगधर श्रमण स्वर्गस्थ हो गये थे । एतदर्थ आचार्य स्कन्दिल ने पुनः अनुयोग का प्रवर्तन किया, जिससे सम्पूर्ण अनुयोग स्कन्दिल-सम्बन्धी माना गया ।
चतुर्थ वाचना :- जिस समय उत्तर-पूर्व और मध्य भारत में विचरण करने वाले श्रमणों का सम्मेलन मथुरा में हुआ था, उसी समय दक्षिण और पश्चिम में विचरण करने वाले श्रमणों की एक वाचना वीरनिर्वाण संवत् ८२७ से ८४० के आस-पास वल्लभी में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई । इसे 'वल्लभीवाचना' या 'नागार्जुनीयवाचना' की संज्ञा मिली। इस वाचना का उल्लेख भद्रेश्वर रचित कहावली ग्रन्थ में मिलता है, जो आचार्य हरिभद्र के बाद हुये । स्मृति के आधार पर सूत्र-संकलना होने के कारण वाचनाभेद रह जाना स्वाभाविक था। पण्डित दलसुख मालवणिया ने प्रस्तुत वाचना के सम्बन्ध में लिखा है “कुछ चूर्णियों में नागार्जुन के नाम से पाठान्तर मिलते हैं। पण्णवणा जैसे अंगबाह्य सत्र में भी पाठान्तर का निर्देश है। अत एव अनुमान किया गया कि नागार्जुन ने भी वाचना की होगी। किन्तु इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मौजूदा अंग आगम माथुरीवाचनानुसारी हैं, यह तथ्य है। अन्यथा पाठान्तरों में स्कन्दिल के पाठान्तरों का भी निर्देश मिलता ।अंग और अन्य अंगबाह्य ग्रन्थों की व्यक्तिगत रूप से कई वाचनाएं होनी चाहिए थीं । क्योंकि आचारांग आदि आगम साहित्य की चूर्णियों में जो पाठ मिलते हैं उनसे भिन्न पाठ टीकाओं में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। जिससे यह तो सिद्ध है कि पाटलिपुत्र की वाचना के पश्चात् समय-समय पर मूर्धन्य मनीषी आचार्यों के द्वारा वाचनाएँ होती रही हैं। उदाहरण के रूप में हम प्रश्नव्याकरण को ले सकते हैं। समवायाङ्ग में प्रश्नव्याकरण का जो परिचय दिया गया है, वर्तमान में उसका वह स्वरूप नहीं है । आचार्य श्री अभयदेव ने प्रश्नव्याकरण की टीका में लिखा है कि अतीत काल में वे सारी विद्याएँ इसमें थी। इसी तरह अन्तकृत्दशा में भी दश अध्ययन १. (क) नन्दीचूर्णि, पृ.९ (ख) नन्दीसूत्र गाथा ३३, मलयगिरि वृत्ति-पृ.५९ ।। २. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ.७पं. दलसुख मालवणिया ॥ ३. “इह हि स्कन्दिलाचार्यप्रवृत्तौ दुष्षमानुभावतो दुर्भिक्षप्रवृत्या साधूनां पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनेशत् । ततो दुर्भिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः संघयोर्मेलापकोऽभवत् । तद्यथा एको वल्लभ्यामेको मथुरायाम्। तत्र च सूत्रार्थसंघटने परस्परवाचनाभेदो जातः । विस्मृतयोर्हि सूत्रार्थयोः संघटने भवत्यवश्यवाचनाभेदो न काचिदनुपपत्तिः।" -ज्योतिष्करण्डक टीका ॥ ४. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ.७ ।। ५. वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना, पृ.११४ -गणि कल्याणविजय।। ६. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ.७ ।। ७. जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, पृ.१७० से १८५ -देवेन्द्रमुनि, प्र.-श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर ॥
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन नहीं हैं । टीकाकार ने स्पष्टीकरण में यह सूचित किया है कि प्रथम वर्ग में दश अध्ययन हैं । पर यह निश्चित है कि क्षत-विक्षत आगम-निधि का ठीक समय पर संकलन कर आचार्य नागार्जुन ने जैन शासन पर महान् उपकार किया है ! इसलिए आचार्य देववाचक ने बहुत ही भावपूर्ण शब्दों में नागार्जुन की स्तुति करते हुए लिखा है- मृदुता आदि गुणों से सम्पन्न, सामायिक श्रुतादि के ग्रहण से अथवा परम्परा से विकास की भूमिका पर क्रमशः आरोहणपूर्वक वाचकपद को प्राप्त ओघश्रुतसमाचारी में कुशल आचार्य नागार्जुन को में प्रणाम करता हूं ।२ ।
दोनों वाचनाओं का समय लगभग समान है। इसलिए सहज ही यह प्रश्न उबुद्ध होता है कि एक ही समय में दो भिन्न-भिन्न स्थानों पर वाचनाएं क्यों आयोजित की गईं ? अनेक संभावनाएं की जा सकती हैं । पर उनका निश्चित आधार नहीं है। यही कारण है कि माथुरी और वल्लभी वाचनाओं में कई स्थानों पर मतभेद हो गये । यदि दोनों श्रुतधर आचार्य परस्पर मिल कर विचारविमर्श करते तो संभवतः वाचनाभेद मिटता । किन्तु परिताप है कि न वे वाचना के पूर्व मिले और न बाद में मिले । वाचनाभेद उनके स्वर्गस्थ होने के बाद भी बना रहा, जिससे वृत्तिकारों को 'नागार्जुनीया पुनः एवं पठन्ति' आदि वाक्यों का निर्देश करना पड़ा ।
पञ्चम वाचना :- वीर-निर्वाण की दशवीं शताब्दी (९८० या ९९३ ई.सन् ४५४-४६६) में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में पुनःश्रमण-संघ एकत्रित हुआ । स्कन्दिल और नागार्जुन के पश्चात् दुष्काल ने हृदय को कम्पा देने वाले नाखूनी पंजे फैलाये । अनेक श्रुतधर श्रमण कालकवलित हो गये । श्रुत की महान् क्षति हुयी । दुष्काल परिसमाप्ति के बाद वल्लभी में पुनः जैन संघ सम्मिलित हुआ । देवर्द्धिगणि ग्यारह अंग और एक पूर्व से भी अधिक श्रुत के ज्ञाता थे । श्रमणसम्मेलन में त्रुटित और अत्रुटित सभी आगमपाठों का स्मृति-सहयोग से संकलन हुआ । श्रुत को स्थायी रूप प्रदान करने के लिए पुस्तकारूढ किया गया । आगम-लेखन का कार्य आर्यरक्षित के युग में अंश रूप से प्रारम्भ हो गया था । अनुयोगद्वार में द्रव्यश्रुत और भावश्रुत का उल्लेख है । पुस्तक लिखित श्रुत को द्रव्यश्रुत माना गया है ।
आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन के समय में आगमों को लिपिबद्ध किया गया था, ऐसा उल्लेख मिलता है। किन्तु देवर्द्धिगणि के कुशल नेतृत्व में आगमों का व्यवस्थित संकलन और लिपिकरण हुआ है, इसलिये आगम-लेखन का श्रेय देवर्द्धिगणि को प्राप्त है । इस सन्दर्भ में एक प्रसिद्ध गाथा १. अन्तकृद्दशा, प्रस्तावना -पृ.२१ से २४ तक ।। २. (क) मिउमद्दवसंपण्णे अणपव्विं वायगत्तणं पत्ते । ओहसुयसमायारे णागज्जुणवायए वंदे ।। -नन्दीसूत्र-गाथा ३५, (ख) लाइफ इन ऐन्श्येंट इंडिया एज डेपिक्टेड इन द जैन कैन्ससपृ.३२-३३ -ला. इन ए.इ.) डा. जगदीशचन्द्र जैन बम्बई, १९४७, (ग) योगशास्त्रवृत्ति प्र.३, पृ.२०७ ॥ ३. “से किं तं.....दव्वसुअं? पत्तयपोत्थयलिहिअं' -अनुयोगद्वार सूत्र ॥ ४. “जिनवचनं च दुष्षमाकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुनस्कन्दिलाचार्य्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् ।” -योगशास्त्रवृत्ति, प्रकाश ३, पत्र २०७॥
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
है कि वल्लभी नगरी में देवर्द्धिगणि प्रमुख श्रमण संघ ने वीर निर्वाण ९८० में आगमों को पुस्तकारूढ किया था ।
देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समक्ष स्कन्दिली और नागार्जुनीय ये दोनों वाचनाएं थी, नागार्जुनीय वाचना के प्रतिनिधि आचार्य कालक (चतुर्थ) थे। स्कन्दिली वाचना के प्रतिनिधि स्वयं देवर्द्धिगणि थे । हम पूर्व लिख चुके हैं आर्य स्कन्दिल और आर्य नागार्जुन दोनों का मिलन न होने से दोनों वाचनाओं में कुछ भेद था । देवर्द्धिगणि ने श्रुतसंकलन का कार्य बहुत ही तटस्थ नीति से किया। आचार्य स्कन्दिल की वाचना को प्रमुखता देकर नागार्जुनीय वाचना को पाठान्तर के रूप में स्वीकार कर अपने उदात्त मानस का परिचय दिया, जिससे जैनशासन विभक्त होने से बच गया। उनके भव्य प्रयत्न के कारण ही श्रुतनिधि आज तक सुरक्षित रह सकी।
आचार्य देवर्द्धिगणि ने आगमों को पुस्तकारूढ़ किया । यह बात बहुत ही स्पष्ट है । किन्तु उन्होंने किन-किन आगमों को पुस्तकारूढ़ किया ? इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता । नन्दीसूत्र में श्रुतसाहित्य की लम्बी सूची है। किन्तु नन्दीसूत्र देवर्द्धिगणि की रचना नहीं है। उसके रचनाकार आचार्य देववाचक हैं। यह बात नन्दीचूर्णि और टीका से स्पष्ट है । इस दृष्टि से नन्दी सूची में जो नाम आये हैं, वे सभी देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के द्वारा लिपिबद्ध किये गये हों, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता ।
कितने ही विज्ञों का यह अभिमत है कि वल्लभी में सारे आगमों को व्यवस्थित रूप दिया गया । भगवान् महावीर के पश्चात् एक सहस्र वर्ष में जितनी भी मुख्य-मुख्य घटनाएं घटित हुईं, उन सभी प्रमुख घटनाओं का समावेश यत्र-तत्र आगमों में किया गया। जहाँ-जहाँ पर समान आलापकों का बार-बार पुनरावर्तन होता था, उन आलापकों को संक्षिप्त कर एक दूसरे का पूर्तिसंकेत एक दूसरे आगम में किया गया । जो वर्तमान में आगम उपलब्ध हैं, वे देवर्द्धिगणि की वाचना के हैं। उसके पश्चात् उसमें परिवर्तन और परिवर्धन नहीं हुआ ।
यह सहज ही जिज्ञासा उबुद्ध हो सकती है कि आगम-संकलना यदि एक ही आचार्य की है तो अनेक स्थानों पर विसंवाद क्यों है ? उत्तर में निवेदन है कि सम्भव है उसके दो कारण हों। जो श्रमण उस समय विद्यमान थे उन्हें जो-जो आगम कण्ठस्थ थे, उन्हीं का संकलन किया गया हो । संकलनकर्ता को देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने एक ही बात दो भिन्न आगमों में भिन्न प्रकार से कही है, यह जानकर के भी उसमें हस्तक्षेप करना अपनी अनधिकार चेष्टा समझी हो । वे समझते थे कि सर्वज्ञ की वाणी में परिवर्तन करने से अनन्त संसार बढ़ सकता है । दूसरी बात यह भी १. “वलहीपुरम्मि नयरे, देवडिपमुहेण समणसंघेण । पुत्थइ आगमु लिहियो नवसय असीआओ वीराओ ॥” २. "परोप्परमसंपण्णमेलावा य तस्समयाओ खंदिल्लनागज्जुणायरिया कालं काउं देवलोगं गया । तेण तुल्याए वि तद्दुधरियसिद्धताणं जो संजाओ कथम (कहमवि) वायणा भेओ सो य न चालिओ पच्छिमेहिं ।" -कहावली-२९८ ॥ ३. नन्दीसूत्र चूर्णि, पृ.१३ ॥ ४. दसवेआलियं, भूमिका, पृ.२७, आचार्य तुलसी ॥
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
हो सकती है -नौवीं शताब्दी में सम्पन्न हुई माथुरी और वल्लभी वाचना की परम्परा के जो श्रमण बचे थे, उन्हें जितना स्मृति में था, उतना ही देवर्द्धिगणि ने संकलन किया था, सम्भव है वे श्रमण बहुत सारे आलापक भूल ही गये हों, जिससे भी विसंवाद हुये हैं ।
ज्योतिषकरण्ड की वृत्ति में यह प्रतिपादित किया गया है कि इस समय जो अनुयोगद्वार सूत्र उपलब्ध है, वह माथुरी वाचना का है। ज्योतिषकरण्डक ग्रन्थ के लेखक आचार्य वल्लभी वाचना की परम्परा के थे । यही कारण है कि अनुयोगद्वार और ज्योतिषकरण्डक के संख्यास्थानों में अन्तर है। अनुयोगद्वार के शीर्षप्रहेलिका की संख्या एक सौ छानवे (१९६) अंको की है और ज्योतिषकरण्ड में शीर्षप्रहेलिका की संख्या २५० अंको की है।
___ इस प्रकार हम देखते हैं कि आगमों को व्यवस्थित करने के लिए समय-समय पर प्रयास किया गया है । व्याख्याक्रम और विषयगत वर्गीकरण की दृष्टि से आर्यरक्षित ने आगमों को चार भाग में विभक्त किया है- (१) चरणकरणानुयोग- कालिकश्रुत, (२) धर्मकथानुयोग- ऋषिभाषित उत्तराध्ययन आदि, (३) गणितानुयोग- सूर्यप्रज्ञप्ति आदि । (४) द्रव्यानुयोग- दृष्टिवाद या सूत्रकृत आदि । प्रस्तुत वर्गीकरण विषय-सादृश्य की दृष्टि से है । व्याख्याक्रम की दृष्टि से आगमों के दो रूप हैं- (१) अपृथक्त्वानुयोग, (२) पृथक्त्वानुयोग । आर्य रक्षित से पहले अपृथक्त्वानुयोग प्रचलित था । उसमें प्रत्येक सूत्र का चरण-करण, धर्मकथा, गणित और द्रव्य दृष्टि से विश्लेषण किया गया था । यह व्याख्या अत्यन्त ही जटिल थी। इस व्याख्या के लिए प्रकृष्ट प्रतिभा की आवश्यकता होती थी । आर्यरक्षित ने देखा- महामेघावी दुर्बलिका पुष्पमित्र जैसे प्रतिभासम्पन्न शिष्य भी उसे स्मरण नहीं रख पा रहे हैं, तो मन्दबुद्धि वाले श्रमण उसे कैसे स्मरण रख सकेंगे। उन्होंने पृथक्त्वानुयोग का प्रवर्तन किया, जिससे चरण-करण प्रभृति विषयों की दृष्टि से आगमों का विभाजन हुआ । जिनदासगणि महत्तर ने लिखा है कि अपृथक्त्वानुयोग के काल में प्रत्येक सूत्र का विवेचन चरणकरण आदि चार अनुयोगों तथा ७०० नयों में किया जाता था । पृथक्त्वानुयोग के काल में चारों अनुयोगों की व्याख्या पृथक्-पृथक् की जाने लगी।
नन्दीसूत्र में आगम साहित्य को अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य, इन दो भागों में विभक्त किया है। अंगबाह्य के आवश्यक, आवश्यकव्यतिरिक्त, कालिक, उत्कालिक आदि अनेक भेद-प्रभेद किये हैं । दिगम्बर परम्परा के तत्त्वार्थसूत्र की श्रुतसागरीय वृत्ति में भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो १. सामाचारीशतक, आगम स्थापनाधिकार-३८ ।। २. (क) सामाचारीशतक, आगम स्थापनाधिकार-३८, (ख) गच्छाचार, पत्र ३ से ४ ।। ३. “अपुहुत्ते अणुओगो चत्तारि दुवार भासई एगो । पहुत्ताणुओगकरणे ते अत्था तवो उ वुच्छिन्ना ।। देविंदवंदिएहिं महाणुभावेहिं रक्खिअ अज्जेहिं । जुगमासज्ज विहत्तो अणुओगो तो कओ चउहा ॥" -आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७७३-७७४ ।। ४. “जत्थ एते चत्तारि अणुयोगा पिहप्पिहं वक्खाणिज्जंति पहुत्ताणुयोगो, अपुहुत्ताणुजोगो पुण जं एक्ककं सुत्तं एतेहिं चउहिं वि अणुयोगेहिं सत्तहिं णयसतेहिं वक्खाणिज्जंति ।" -सूत्रकृताङ्गचूर्णि, पत्र -४ ।। ५. “तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तं जहा- अंगपविढं अंगबाहिरं च ।" -नन्दीसूत्र, सूत्र ७७ ।।
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन आगम के भेद किये हैं । अंगबाह्य आगमों की सूची में श्वेताम्बर और दिगम्बर में मतभेद हैं । किन्तु दोनों ही परम्पराओं में अंगप्रविष्ट के नाम एक सदृश मिलते हैं, जो प्रचलित हैं ।
श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी सभी अंगसाहित्य को मूलभूत आगमग्रन्थ मानते हैं, और सभी की दृष्टि से दृष्टिवाद का सर्वप्रथम विच्छेद हुआ है। यह पूर्ण सत्य है कि जैन आगम साहित्य चिन्तन की गम्भीरता को लिये हुए है। तत्त्वज्ञान का सूक्ष्म व गहन विश्लेषण उसमें है। पाश्चात्य चिन्तक डॉ. हर्मन जोकोबी ने अंगशास्त्र की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है । वे अंगशास्त्र को वस्तुतः जैनश्रुत मानते हैं, उसी के आधार पर उन्होंने जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध करने का प्रयास किया है, और वे उसमें सफल भी हुए हैं ।२।। _ 'जैन आगम साहित्य- मनन और मीमांसा' ग्रन्थ में मैंने बहुत विस्तार के साथ आगम-साहित्य के हरपहलू पर चिन्तन किया है । विस्तारभय से उन सभी विषयों पर चिन्तन न कर उस ग्रन्थ को देखने का सूचन करता हूँ । यहाँ अब हम स्थानांगसूत्र के सम्बन्ध में चिन्तन करेंगे ।
स्थानाङ्ग- स्वरूप और परिचय :- द्वादशांगी में स्थानांग का तृतीय स्थान है । यह शब्द 'स्थान' और 'अंग' इन दो शब्दों के मेल से निर्मित हुआ है। आचार्य देववाचक ने और गुणधर ने लिखा है कि प्रस्तुत आगम में एक स्थान से लेकर दश स्थान तक जीव और पुद्गल के विविध भाव वर्णित हैं | आचार्य हरिभद्र ने कहा है- जिसमें जीवादि का व्यवस्थित रूप से प्रतिपादन किया जाता है, वह स्थान है । प्रस्तुत आगम में तत्त्वों के एक से लेकर दश तक संख्या वाले पदार्थों का उल्लेख है, अतः इसे 'स्थान' कहा गया है । अंग का सामान्य अर्थ “विभाग' से है। इसमें संख्याक्रम से जीव, पुद्गल आदि की स्थापना की गई है । अतः इस का नाम ‘स्थान' या “स्थानाङ्ग” है।
स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग, इन दोनों आगमों में विषय को प्रधानता न देकर संख्या को प्रधानता दी गई है । संख्या के आधार पर विषय का संकलन-आकलन किया गया है। एक विषय की दूसरे विषय के साथ इसमें सम्बन्ध की अन्वेषणा नहीं की जा सकती । जीव, पुद्गल, इतिहास, गणित, भूगोल, खगोल, दर्शन, आचार, मनोविज्ञान आदि शताधिक विषय बिना किसी क्रम के इसमें संकलित किये गये हैं। प्रस्तुत आगम में अनेक ऐतिहासिक सत्य-कथ्य रहे हुए हैं। यह एक प्रकार से कोश की शैली में ग्रथित आगम है, जो स्मरण करने की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी है । यह शैली जैन परम्परा के आगमों में नहीं वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में भी प्राप्त १. तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीय वृत्ति १/२० ।। २. जैनसूत्राज्- भाग १, प्रस्तावना, पृष्ठ ९ ।। ३. “ठाणे णं एगाइयाए एगुत्तरियाए वुड्डीए दसट्ठाणविवड्डियाणं भावाणं परूवणा आघविजति ।" -नन्दीसूत्र, सूत्र ८२ ॥ ४. “ठाणं णाम जीवपुद्गलादीणामेगादिएगुत्तरकमेण ठाणाणि वण्णेदि।" -कसायपाहुड, भाग १, पृ.१२३ ॥ ५. “तिष्ठन्त्यस्मिन् प्रतिपाद्यतया जीवादय इति स्थानम्.....स्थानेन स्थाने वा जीवाः स्थाप्यन्ते, व्यवस्थितस्वरूपप्रतिपादनयेति हृदयम् ।" -नन्दीसूत्र हरिभद्रीया वृत्ति, पृ.७९ ।।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन होती है। महाभारत के वनपर्व, अध्याय एक सौ चौतीस में भी इस शैली में विचार प्रस्तुत किये गये हैं । बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय, पुग्गलपञत्ति, महाव्युत्पत्ति एवं धर्मसंग्रह में यही शैली दृष्टिगोचर होती है।
व्यवहारसूत्र के अनुसार स्थानाङ्ग और समवायांग के ज्ञाता को ही आचार्य, उपाध्याय और गणावच्छेदक पद देने का विधान है। इसलिये इस अंग का कितना गहरा महत्त्व रहा हुआ है, यह इस विधान से स्पष्ट है।
समवायाङ्ग व नन्दीसूत्र के अनुसार स्थानाङ्ग की वाचनाएं संख्येय हैं, उसमें संख्यात श्लोक है, संख्यात संग्रहणियाँ हैं । अंगसाहित्य में उस का तृतीय स्थान है । उसमें एक श्रुतस्कन्ध है, दश अध्ययन हैं । इक्कीस उद्देशनकाल हैं । बहत्तर हजार पद हैं । संख्यात अक्षर हैं।
दश अध्ययनों का एक ही श्रुतस्कन्ध है । द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अध्ययन के चार-चार उद्देशक है । पंचम अध्ययन के तीन उद्देशक हैं । शेष छह अध्ययनों में एक-एक उद्देशक हैं। इस प्रकार इक्कीस उद्देशक हैं । समवायांग और नन्दीसूत्र के अनुसार स्थानाङ्ग की पदसंख्या बहत्तर हजार कही गई है। यह निश्चित है कि वर्तमान में उपलब्ध स्थानाङ्ग में बहत्तर हजार पद नहीं है।
क्या स्थानाङ्ग अर्वाचीन है ? स्थानाङ्ग में श्रमण भगवान् महावीर के पश्चात् दूसरी से छठी शताब्दी तक की अनेक घटनाएं उल्लिखित हैं, जिससे विद्वानों को यह शंका हो गयी है कि प्रस्तुत आगम अर्वाचीन है । वे शंकाएं इस प्रकार हैं -
(१) नववें स्थान में गोदासगण, उत्तरबलिस्सहगण, उद्देहगण, चारणगण, उडुवातितगण, विस्सवातितगण, कामड्डिगण, माणवगण और कोडितगण इन गणों की उत्पत्ति का विस्तृत उल्लेख कल्पसूत्र में है। प्रत्येक गण की चार-चार शाखाएं, उद्देह आदि गणों के अनेक कुल थे । ये सभी गण श्रमण भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् दो सौ से पाँच सौ वर्ष की अवधि तक उत्पन्न हुये थे।
(२) सातवें स्थान में जमालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गङ्ग, रोहगुप्त, गोष्ठामाहिल, इन सात निह्नवों का वर्णन है। इन सात निह्नवों में से दो निह्नव भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद हुए और शेष पांच निर्वाण के बाद हुये । इनका अस्तित्वकाल भगवान् महावीर के केवलज्ञान प्राप्ति के चौदहवर्ष बाद से निर्वाण के पाँच सो चौरासी वर्ष पश्चात् तक का है। अर्थात् वे तीसरी शताब्दी से लेकर छठी शताब्दी के मध्य में हुये । १. ठाण-समवायधरे कप्पइ आयरित्ताए उवज्झायत्ताए गणावच्छेइयत्ताए उद्दिसित्तए । -व्यवहारसूत्र, उ. ३, सू.६८ ॥ २. समवायांग सूत्र १३९, पृष्ठ १२३ -मुनि कन्हैयालालजी म. ॥ ३. नन्दीसूत्र ८७ पृष्ठ ३५ -पुण्यविजयजी म.॥ ४. कल्पसूत्र, सूत्र - २०६ से २१६ तक -देवेन्द्रमुनि ।। ५. णाणुप्पत्तीए दुवे उप्पण्णा णिव्वुए सेसा । - आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७८३ ॥ ६. चोद्दस सोलस वासा, चोद्दस वीसुत्तरा य दोण्णि सया । अट्ठावीसा य दुवे, पंचेव सया उ चोयाला । -आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७८२ ।।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन उत्तर में निवेदन है कि पहले आगम श्रुतिपरम्परा के रूप में चले आ रहे थे। वे आचार्य स्कन्दिल और देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय लिपिबद्ध किये गये । उस समय वे घटनाएं, जिनका प्रस्तुत आगम में उल्लेख है, घटित हो चुकी थीं।
अतः आचार्य प्रवरों ने उस समय तक घटित घटनाएं इसमें संकलित कर दी हों । इस प्रकार दो-चार घटनाएं भूतकाल की क्रिया में लिखने मात्र से प्रस्तुत आगम गणधरकृत नहीं है, इस प्रकार प्रतिपादन करना उचित नहीं है।
__ यह संख्या-निबद्ध आगम है। इसमें सभी प्रतिपाद्य विषयों का समावेश एक से दस तक की संख्या में किया गया है । एतदर्थ ही इसके दश अध्ययन हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि स्थानांग विषय-सामग्री की दृष्टि से आगम-साहित्य में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यों सामान्य गणना के अनुसार इस में बारह सौ विषय हैं । भेद-प्रभेद की दृष्टि से विषयों की संख्या और भी अधिक है। यदि इस आगम का गहराई से परिशीलन किया जाए तो विविध विषयों का गम्भीर ज्ञान हो सकता है। भारतीय-ज्ञानगरिमा और सौष्ठव का इतना सुन्दर समन्वय अन्यत्र दुर्लभ है। इसमें ऐसे अनेक सार्वभौम सिद्धान्तों का संकलन-आकलन हुआ है, जो जैन, बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं के ही मूलभूत सिद्धान्त नहीं हैं अपितु आधुनिक विज्ञानजगत में वे मूलसिद्धान्त के रूप में वैज्ञानिकों के द्वारा स्वीकृत हैं । हर ज्ञानपिपासु और अभिसन्धित्सु को प्रस्तुत आगम अन्तस्तोष प्रदान करता है । व्याख्या-साहित्य
सर्वप्रथम इस पर संस्कृत भाषा में नवाङ्गीटीकाकार अभयदेव सूरि ने वृत्ति का निर्माण किया। आचार्य अभयदेव प्रकृष्ट प्रतिभा के धनी थे । उन्होंने वि०सं० ग्यारह सौ बीस में स्थानांग सूत्र पर वृत्ति लिखी । प्रस्तुत वृत्ति मूल सूत्रों पर है जो केवल शब्दार्थ तक ही सीमित नहीं है, अपितु उसमें सूत्र से सम्बन्धित विषयों पर गहराई से विचार हुआ है। विवेचन में दार्शनिक दृष्टि यत्रतत्र स्पष्ट हुई है । अनेक स्थलों पर दार्शनिक चर्चाएं हुई हैं । वृत्ति में यत्र-तत्र निक्षेपपद्धति का उपयोग किया है, जो नियुक्तियों और भाष्यों का सहज स्मरण कराती है । वृत्ति में मुख्य रूप से संक्षेप में विषय को स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्त भी दिये गये हैं।
वृत्तिकार अभयदेव ने उपसंहार में अपना परिचय हेतु हुये यह स्वीकार किया है कि यह वृत्ति मैंने यशोदेवगणी की सहायता से सम्पन्न की । वृत्ति लिखते समय अनेक कठिनाइयाँ आईं । प्रस्तुत वृत्ति को द्रोणाचार्य ने आदि से अन्त तक पढ़कर संशोधन किया। उनके लिये भी वृत्तिकार ने
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
उनका हृदय से आभार व्यक्त किया । वृत्ति का ग्रन्थमान चौदह हजार दौ सौ पचास श्लोक है । प्रस्तुत वृत्ति सन् १८८० में राय धनपतसिंह द्वारा कलकत्ता से प्रकाशित हुई । सन् १९१८ और सन् १९२० में आगमोदय समिति बम्बई से, १९३७ में माणकलाल चुन्नीलाल अहमदाबाद से और गुजराती अनुवाद के साथ मुन्द्रा (कच्छ) से प्रकाशित हुईं। केवल गुजराती अनुवाद के साथ सन् १९३१ में जीवराज घेलाभाई दोसी ने अहमदाबाद से, सन् १९५५ में. पं. दलसुखभाई मालवणिया ने गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद से स्थानांग समवायांग के साथ में रूपान्तर प्रकाशित किया है। जहाँ-तहाँ तुलनात्मक टिप्पण देने से यह ग्रन्थ अतीव महत्त्वपूर्ण बन गया है ।
संस्कृतभाषा में संवत् १६५७ में नगर्षिगणि तथा संवत् १७०५ में सुमतिकल्लोल और हर्षनन्दन ने भी स्थानांग पर वृत्ति लिखी है तथा पूज्य घासीलाल जी म. ने अपने ढंग से उस पर वृत्ति लिखी है । वीर संवत् २४४६ में हैदराबाद से सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद के साथ आचार्य अमोलकऋषि जी म. ने सरल संस्करण प्रकाशित करवाया । सन् १९७२ में मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' ने आगम अनुयोग प्रकाशन, साण्डेराव से स्थानांग का एक शानदार संस्करण प्रकाशित करवाया है, जिसमें अनेक परिशिष्ट भी हैं । आचार्यसम्राट आत्मारामजी म. ने हिन्दी में विस्तृत व्याख्या लिखी। वह आत्माराम-प्रकाशन समिति, लुधियाना से प्रकाशित हुई । वि.सं. २०३३ में मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पणी के साथ जैन विश्वभारती से इसका का प्रशस्त संस्करण भी प्रकाशित हुआ है ।
- देवेन्द्रमुनि शास्त्री
स्थानकवासी जैन स्थानक, राखी (राजस्थान) ज्ञानपंचमी २/११/१९८१
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्रस्य विषयानुक्रमः
सूत्राकाः
विषयः
पृष्ठाङ्काः
६५१-७१२
६५१-६५८ ६५९-६६४ ६६४-६६६ ६६६-६७१ ६७१-६८०
६८१
६८२-६८३ ६८३-६८५ ६८५-६९१
६९१
५४१-५९३ सप्तममध्ययनं 'सप्तस्थानकम्' ५४१-५४३ सप्त गणापक्रमणकारणानि, विभङ्गज्ञानानि, योनिसंग्रहाः ५४४-५४६ सप्त गणे संग्रहा-ऽसंग्रहस्थानानि, पिण्डैषणादयः, पृथिव्यादयः ५४७-५५० बादरवायुकायिक-संस्थान-भयस्थान-छद्मस्थत्वकेवलित्वज्ञानोपायाः ५५१-५५२ सप्त मूलगोत्राणि, नयाश्च ५५३-५५४ विस्तरेण स्वरमण्डलम्, सप्तविधः कायक्लेशः ५५५ जम्बूद्वीपादिसम्बद्धा वर्ष-वर्षधर-नद्यः ५५६ जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रेऽतीतानागतवर्तमानकालीनकुलकरादि ५५७-५५९ दण्डनीति-चक्रवर्तिरत्न-दुःषमा-सुषमाज्ञानोपायाः ५६०-५६४ जीवाः, ब्रह्मदत्तवक्तव्यता, मल्लिजिनेन सह दीक्षाग्राहिण: ५६५-५६७ दर्शनानि, कर्मप्रकृतयः, छद्मस्थेन अज्ञेया जिनेन ज्ञेयाः पदार्थाः ५६८-५७० भगवतो महावीरस्योच्चत्वम्, विकथाः, आचार्योपाध्यायातिशयाः ५७१-५७३ संयमासंयमौ, आरम्भादयः, धान्ययोन्यादिस्थितिः, ५७४-५७९ लोकपालाग्रमहिष्यः, देव-देवीस्थिति-लौकान्तिकसंख्यादि ५८०-५८३ नन्दीश्वरं यावद् द्वीप-समुद्राः, श्रेण्यः, इन्द्रानीकादि, कक्षाः ५८४-५८७ सप्त वचनविकल्पाः, विनयभेदाः, समुद्घाताः, निह्नवाः ५८८-५८९ साता-ऽसातानुभावाः, सप्ततारं नक्षत्रम्, पूर्वादिद्वाराणि नक्षत्राणि ५९०-५९३ कूटाः, जातिकुलकोटयः, कर्मचयादि, सप्तप्रदेशिकस्कन्धादि ५९४-६६० अष्टममध्ययनम् ‘अष्टस्थानकम्' ५९४-५९७ एकाकिविहारप्रतिमाधिकारिणः, योनिसंग्रहादयः,अनालोचना
-ऽऽलोचनकारण-फलादि, ५९८-५९९ संवरा-ऽसंवर-स्पर्शाः ६००-६०३ लोकस्थितिः, गणिसम्पद्, निधिप्रतिष्ठानादि, समितयः ६०४-६०७ आलोचनाधिकारिणः, प्रायश्चित्तानि, मदस्थानानि, अक्रियावादिनः ६०८-६१० महानिमित्तानि, वचनविभक्तिः, छद्मस्थेनाज्ञेयाः जिनेन ज्ञेया भावाः ६११-६१४ अष्टविध आयुर्वेदः, इन्द्राद्यग्रमहिष्यः, महाग्रहाः, वनस्पतयः
६९१-६९३ ६९३-६९५ ६९५-६९६ ६९६-६९९ ६९९-७१० ७१०-७११ ७११-७१२
७१३-७६३
७१३-७२३ ७२३-७२४ ७२४-७२६ ७२६-७३२ ७३२-७३५
७३५-७३७
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयानुक्रमः
७३७-७३९
७३९ ७४०-७४१ ७४१-७४३
७४३-७४५ ७४५-७४६ ७४६-७४८ ७४८-७५३ ७५३-७५६ ७५७-७५८ ७५८-७६० ७६०-७६१
७६१-७६२
६१५-६१८ संयमासंयमौ, सूक्ष्माः, भरतचक्रिवंशे सिद्धाः, प्रभुपार्श्वगणधराः ६१९-६२१ दर्शनानि, अद्धौपमिकाः, अर्हतोऽरिष्टनेमेर्युगान्तकृद्भूमिः ६२२-६२३ भगवता महावीरेण प्रवाजिता राजानः, आहारः ६२४-६२५ अष्टौ कृष्णराजयः, तदन्तर्गता अष्टविधा लौकान्तिकदेवाः ६२६-६२८ धर्मास्तिकायादिमध्यप्रदेशाः, अर्हता महापद्मन प्रव्राजिष्यमाणा राजानः,
कृष्णाग्रमहिष्यः ६२९-६३२ वीर्यप्रवादवस्तूनि, गतयः, द्वीप-समुद्रविष्कम्भः ६३३-६३६ काकणिरत्नम्, मागधयोजनमानम्, जम्बूवृक्षादिमानम् ६३७-६४२ जम्बूद्वीपादिस्थितपर्वतादिनाम-मानादि ६४३-६४५ कूट-दिक्कुमारीनामानि, कल्प-कल्पेन्द्र-विमानानि, प्रतिमाः ६४६-६४८ जीवाः, संयमः, पृथिव्यः, ईषत्प्राग्भारामान-नामानि ६४९-६५१ पराक्रमस्थानानि, विमानमानम्, अर्हदरिष्टनेमिवादिसम्पत् ६५२ केवलिसमुद्घातसमयाः ६५३-६५६ भगवतो महावीरस्य अनुत्तरौपपातिकशिष्याः, वानमन्तरदेवाः,
तेषां चैत्यवृक्षाः, सूर्यविमानस्थानम्, प्रमर्दयोगीनि नक्षत्राणि ६५७-६६० द्वीप-समुद्रद्वारमानम्, कर्मबन्धस्थितिः,
जातिकुलकोट्यः, कर्मचयादि, अष्टप्रदेशिककर्मबन्धादि ६६१-७०३ नवममध्ययनं 'नवस्थानकम्' ६६१-६६२ विसंभोगिककारणानि, आचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनानि ६६३-६६४ ब्रह्मचर्यस्य गुप्तयः, अगुप्तयः, अभिनन्दन-सुमत्योरन्तरम् ६६५-६६८ नव पदार्थाः, जीवाः, जीवावगाहनादि, रोगोत्पत्तिकारणानि,
दर्शनावरणीयकर्मभेदाः ६६९-६७२ अभिजिदादिनक्षत्रविचारः, तारास्थानम्,
मत्स्याः , बलदेव-वासुदेवपित्रादिवक्तव्यता ६७३-६७५ महानिधिविष्कम्भादि, विकृतयः, शरीरे स्रोतांसि ६७६-६७९ नव पुण्यानि, पापायतनानि, पापश्रुतप्रसङ्गाः , नैपुणिकवस्तूनि ६८०-६८१ भगवतो महावीरस्य नव गणाः, नवकोटिपरिशुद्धा भिक्षा ६८२-६८६ अग्रमहिष्यादि, देवनिकायादि, विमानप्रस्तटादि, आयुष्परिणामः ६८७-६८९ प्रतिमा, प्रायश्चित्तानि, जम्बूद्वीपे कूटानि ६९०-६९१ अर्हतः पार्श्वनाथस्योच्चत्वम्, भगवन्महावीरतीर्थे तीर्थकरनामकर्मार्जकाः
७६२-७६३
७६४-८०९ ७६४-७६५ ७६५-७६७
७६७-७७०
७७०-७७२ ७७२-७७६ ७७६-७७८ ७७८-७७९ ७७९-७८१ ७८१-७८५ ७८५-७८७
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
३
७८७-७८९ ७८९-८०६
८०६-८०७ ८०७-८०८ ८०८-८०९
८१०-९०७ ८१०-८१३ ८१३-८१५
विषयानुक्रमः ६९२ आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां मोक्षगामिनो नव जीवाः ६९३-६९४ श्रेणिकनृपस्य आगामितीर्थकरभववर्णनम्, नक्षत्राणि ६९५-६९८ विमान-विमलवाहनोच्चत्वम्, ऋषभदेवकृतं तीर्थप्रवर्तनम्,
द्वीपायामविष्कम्भौ ६९९-७०० शुक्रस्य वीथयः, नोकषायकर्म ७०१-७०३ जातिकुलकोट्यः, कर्मचयादि, नवप्रदेशिकस्कन्धादि ७०४-७८३ दशममध्ययनं 'दशस्थानकम्' ७०४-७०७ लोकस्थितिः, शब्दाः, इन्द्रियार्थाः, पुद्गलचलनकारणानि ७०८-७१० क्रोधोत्पत्तिकारणानि, संयमासंयमौ, अहमन्तित्वकारणानि ७११-७१३ समाधि-असमाधि-प्रव्रज्या-श्रमणधर्म-वैयावृत्यानां दशविधत्वम्,
जीवाजीवपरिणामाः ७१४-७१६ अस्वाध्यायिकानि, संयमासंयमौ, सूक्ष्माः ७१७-७२७ जम्बूद्वीपादिस्था: पदार्थाः, द्रव्यानुयोगः, उत्पातपर्वताः ७२८-७३० शरीरावगाहना, सम्भवाभिनन्दनार्हतोरन्तरम्, अनन्तकानि ७३१-७३२ उत्पादपूर्ववस्तूनि, प्रतिषेवणा, आलोचनाया दोषा अधिकारिणश्च ७३३-७३५ प्रायश्चित्तानि, मिथ्यात्वानि, चन्द्रप्रभजिनादीनामायुरुच्चत्वं च । ७३६-७३९ भवनवासिनः, सुखानि, उपघात-विशुद्धयः, संक्लेशासंक्लेशाः ७४०-७४३ बलम्, सत्यम्, मृषा, सत्यामृषा, दृष्टिवादनामानि, शस्त्राणि ७४४-७४७ दान-विशेष-शुद्धवागनुयोग-दान-गति-मुण्ड-संख्यानानि ७४८-७४९ दशधा प्रत्याख्यानानि, सामाचारी ७५० भगवतो महावीरस्य छद्मस्थान्तिमरात्रौ स्वप्नाः ७५१-७५४ सम्यग्दर्शनानि, संज्ञाः, वेदनाः, छद्मस्थाज्ञेयाः जिनज्ञेयाः पदार्थाः ७५५ कर्मविपाक-उपासकदशादयो दश दशाः ७५६-७५८ कालः, नैरयिकावास-स्थित्यादि, आगमिष्यद्भद्रताकारणानि ७५९-७६३ आशंसाप्रयोगाः, ग्रामधर्मादयो धर्माः, स्थविराः, पुत्राः,
केवलिनोऽनुत्तराणि ७६४-७६८ कुरावर्णनम्, दुःषमा-सुषमाज्ञानोपायः,
दश कल्पवृक्षाः, अतीतानागतोत्सर्पिणीकुलकराः, वक्षस्काराः ७६९-७७१ इन्द्राधिष्ठितकल्पाः, इन्द्राः, पारियानिकानि, प्रतिमादिवसाः, जीवाः ७७२-७७५ बाल्यादयो दशाः, वनस्पतयः, श्रेणिविष्कम्भः, विमानोच्चत्वम्
८१५-८१९ ८१९-८२२ ८२२-८३२ ८३२-८३४ ८३४-८३७ ८३७-८३९ ८३९-८४२ ८४२-८४६ ८४७-८५६ ८५६-८६० ८६०-८६५ ८६५-८६९ ८६९-८८२ ८८२-८८५
८८५-८८८
८८८-८९० ८९०-८९२ ८९२-८९४
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयानुक्रमः
७७६-७७८ भस्मसाद्भवने कारणानि, आश्चर्याणि, पृथ्वीकाण्डबाहल्यम् ७७९-७८१ द्वीपसमुद्राद्युद्वेधः, मण्डलचारः, ज्ञानवृद्धिकराणि नक्षत्राणि ७८२-७८३ जातिकुलकोट्यः, कर्मचयादि, दशप्रदेशिक स्कन्धादि नव परिशिष्टानि
४
प्रथमं परिशिष्टम् स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः द्वितीयं परिशिष्टम् स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतानां गाथार्धानामकारादिक्रमः तृतीयं परिशिष्टम् टिप्पनानि
चतुर्थं परिशिष्टम् स्थानाङ्गसूत्रटीकायाः तृतीयविभागे ग्रन्थान्तरेभ्यः उद्धृतानां साक्षिपाठानां पृष्ठक्रमेण सूचिः
पञ्चमं परिशिष्टम् विभागत्रये स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां
साक्षिपाठानामकारादिक्रमः
षष्ठं परिशिष्टम् स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुल्लिखितानां विशेषनाम्नां सूचिः सप्तमं परिशिष्टम् स्थानाङ्गसूत्रसम्पादनोपयुक्तग्रन्थसंकेतादिसूचिः अष्टमं परिशिष्टम् शुद्धि - वृद्धिपत्रकम्
नवमं परिशिष्टम् स्थानाङ्गसूत्रनिर्दिष्टानां क्षेत्रादीनां चित्राणि
८९४-९०२
९०२ - ९०३ ९०३-९०७
१-८३
८४-८७
८८-१७६
१७७-१८४
१८५-२१७
२१८-२२३
२२४-२२६
२२७-२२८
२२९-२४३
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ अर्हम् ॥
आ. श्री अभयदेवसूरिविरचितटीकाविभूषितं स्थानाङ्गसूत्रम् । अथ सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् ।
[सू० ५४१] सत्तविधे गणावक्कमणे पन्नत्ते, तंजहा - सव्वधम्मा रोतेमि १, एगतिता रोएम, एगइया णो रोएम २, सव्वधम्मा वितिगिच्छामि ३, एगतिता 5 वितिगिच्छामि, एगतिता नो वितिगिच्छामि ४, सव्वधम्मा जुहुणामि ५, एगतिता जुहुणामि, एगइया णो जुहुणामि ६, इच्छामि णं भंते ! एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तते ७ ।
[टी०] व्याख्यातं षष्ठमध्ययनमधुना सप्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धःइहानन्तराध्ययने षट्सङ्ख्योपेता: पदार्थाः प्ररूपिता:, इह तु त एव सप्तसङ्ख्योपेता: 10 प्ररूप्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्यास्य चतुरनुयोगद्वारस्येदमादिसूत्रम् - सत्तविहेत्यादि । अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः - अनन्तरसूत्रे पुद्गलाः पर्यायत उक्ता:, इह तु पुद्गलविशेषाणामेव क्षयोपशमतो योऽनुष्ठानविशेषो जीवस्य भवति तस्य सप्तविधत्वमुच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, संहितादिस्तु तत्क्रम: प्रतीत एव, नवरं सप्तविधं सप्तप्रकारं प्रयोजनभेदेन भेदात् गणाद् गच्छादपक्रमणं निर्गमो गणापक्रमणं प्रज्ञप्तं तीर्थकरादिभिः, 15 तद्यथा - सर्व्वान् धर्म्मान् निर्जराहेतून् श्रुतभेदान् सूत्रार्थोभयविषयान् अपूर्वग्रहणविस्मृतसन्धान- पूर्वाधीतपरावर्त्तनरूपान् चारित्रभेदांश्च क्षपण वैयावृत्यरूपान् रोचयामि रुचिविषयीकरोमि चिकीर्षामि ते चामुत्र परगणे सम्पद्यन्ते नेह स्वगणे, बहुश्रुतादिसामग्र्यभावाद्, ‘अतस्तदर्थं स्वगणादपक्रामामि भदन्त !' इत्येवं गुरुपृच्छाद्वारेणैकं गणापक्रमणमुक्तम् १, अथ 'सर्वधर्मान् रोचयामी' त्युक्ते कथं पृच्छार्थोऽवगम्यते 20 इति ?, उच्यते, 'इच्छामि णं भंते ! एकल्लविहारपडिम' मित्यादिपृच्छावचनसाधर्म्यादिति, रुचेस्तु करणेच्छार्थता 'पत्तियामि रोएमी' त्यत्र व्याख्यातैवेति, क्वचित्तु 'सव्वधम्मं जाणामि, एवं पि एगे अवक्कमे' इत्येवं पाठः, तत्र ‘ज्ञानी अहमिति किं गणेन' इति मदादपक्रामति १, तथा एगइयत्ति एककान् कांश्चन श्रुतधर्मांश्चारित्रधर्म्मान् वा रोचयामि चिकीर्षामि एककांश्च 25 श्रुतधर्म्माश्चारित्रधर्मान् वा नो रोचयामि न चिकीर्षामीत्यतश्चिकीर्षितधर्माणां स्वगणे १. तुलना- पृ०७१३ पं०१२ । २. भेदानित्यर्थः सूत्रार्थी जे१ ॥। ३. क्वचित् सव्व १ ॥
-
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
करणसामग्र्यभावादपक्रामामि भदन्त इति द्वितीयम् २, तथा सर्व्वधर्म्मान् उक्तलक्षणान् विचिकित्सामि संशयविषयीकरोमीत्यतः संशयापनोदार्थं गणादपक्रामामीति तृतीयम् ३, एवमेककान् विचिकित्सामि, एककान् नो विचिकित्सामीति चतुर्थम् ४, तथा जुहुणामित्ति जुहोमि अन्येभ्यो ददामि, न च स्वगणे पात्रमस्त्यतोऽपक्रामामीति 5 पञ्चमम् ५, एवं षष्ठमपि ६, तथा इच्छामि णं भदन्त ! धर्माचार्य ! एकाकिनो गच्छनिर्गतत्वाज्जिनकल्पिकादितया यो विहारो विचरणं तस्य या प्रतिमा प्रतिपत्तिः प्रतिज्ञा सा एकाकिविहारप्रतिमा तामुपसम्पद्य अङ्गीकृत्य विहर्त्तुमिति सप्तममिति ७ | अथवा सर्वधर्म्मान् रोचयामि श्रद्दधे अहमिति तेषां स्थिरीकरणार्थमपक्रामामि, तथा - एककान् रोचयामि श्रद्दधे एककांश्च नो रोचयामीत्यश्रद्धितानां 10 श्रद्धानार्थमपक्रामामीत्यनेन पदद्वयेन सर्वविषयाय देशविषयाय च सम्यग्दर्शनाय गणापक्रमणमुक्तम् । एवं सर्व देशविषयसंशयविनोदसूचकेन सव्वधम्मा विचिकिच्छामीत्यादिपदद्वयेन ज्ञानार्थमपक्रमणमुक्तम्, तथा सर्वधर्मान् जुहोमीति जुहोतेरदनार्थत्वाद् भक्षणार्थस्य चाऽऽ सेवावृत्तिदर्शनादाचराम्यासेवाम्यनुतिष्ठामीति यावत्, तथा एककान्नासेवामीति सर्वेषामासेव्यमानानां विशेषार्थमनासेवितानां च क्षपण15 वैयावृत्यादीनां चरित्रधर्माणामासेवार्थमपक्रामामीत्यनेन पदद्वयेन तथैव चारित्रार्थमपक्रमणमुक्तमिति, उक्तं च
20
25
६५२
-
नाट्ठ दंसणट्ठा चरणट्ठा एवमाइ संकमणं ।
संभोगट्ठा व पुणो आयरियट्ठा व णायव्वं ॥ [ निशीथ० ५४५८ ] इति । तत्र ज्ञानार्थम् - सुत्तस्स व अत्थस्स व उभयस्स व कारणा उ संकमणं ।
वीसज्जियस्स गमणं भीओ य नियत्तए कोइ ॥ [ निशीथ० ५४५९] इति । दर्शनप्रभावकशास्त्रार्थं दर्शनार्थम् । चारित्रार्थं यथा
चरितट्ठ देसि दुविहा, देशे द्विविधा दोषा इत्यर्थः, एसणदोसा य इत्थिदोसा य । ततो गणापक्रमणं भवति, गच्छम्मि य सीयंते आयसमुत्थेहिं दोसेहिं ॥ [ निशीथ० ५५३९] इति ।
सम्भोगार्थं नाम यत्रोपसम्पन्नस्ततोऽपि विसम्भोगकारणे सदनलक्षणे सत्यपक्रामतीति, १. गाथेयं बृहत्कल्पभाष्येऽपि ५४४० ॥
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५४२]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । आचार्यार्थं नामाऽऽचार्यस्य महाकल्पश्रुतादि श्रुतं नास्त्यतस्तदध्यापनाय शिष्यस्य गणान्तरसङ्क्रमो भवतीति, इह च स्वगुरुं पृष्ट्वैव विसर्जितेनापक्रमितव्यमिति सर्वत्र पृच्छार्थो व्याख्येय:, उक्तकारणवशात् पक्षादिकालात् परतोऽविसर्जितोऽपि गच्छेदिति, निष्कारणं गणापक्रमणं त्वविधेयम्, यत:
आयरियाईण भया पच्छित्तभया न सेवइ अकिच्चं । वेयावच्चज्झयणेसु सजए तदुवओगेणं॥ [निशीथ० ५४५५] सूत्रार्थोपयोगेनेत्यर्थः, तथाएगो इत्थीगम्मो तेणादिभया य अल्लिययगारे गृहस्थान् । कोहादी व उदिन्ने परिनिव्वावंति से अन्ने । [निशीथ० ५४५६] त्ति ।
[सू० ५४२] सत्तविधे विभंगणाणे पन्नत्ते, तंजहा-एगदिसिं लोगाभिगमे, पंचदिसिं लोगाभिगमे, किरियावरणे जीवे, मुदग्गे जीवे, अमुदग्गे जीवे, 10 रूवी जीवे, सव्वमिणं जीवा ।
तत्थ खलु इमे पढमे विभंगणाणे- जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुप्पजति, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पन्नेणं पासति पातीणं वा पडिणं वा दाहिणं वा उदीणं वा उर्दु वा जाव सोहम्मे कप्पे, तस्स णमेवं भवति-अत्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पन्ने- 15 एगदिसिं लोगाभिगमे, संतेगतिता समणा वा माहणा वा एवमाहंसु- पंचदिसिं लोगाभिगमे, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, पढमे विभंगणाणे ।
अहावरे दोच्चे विभंगणाणे-जता णं तधारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुप्पजति, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पन्नेणं पासति पातीणं वा पडिणं वा दाहिणं वा उदीणं वा उढे जाव सोहम्मे कप्पे, तस्स 20 णमेवं भवति-अत्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पन्ने- पंचदिसिं लोगाभिगमे, संतेगतिता समणा वा माहणा वा एवमाहंसु- एगदिसिं लोगाभिगमे, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, दोच्चे विभंगणाणे ।
अधावरे तच्चे विभंगणाणे-जया णं तधारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुप्पजति, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पन्नेणं पासति 25
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पाणे अतिवातेमाणे मुसं वतमाणे अदिनमादितमाणे मेहुणं पडिसेवमाणे परिग्गहं परिगेण्हमाणे रातिभोयणं भुंजमाणे वा, पावं च णं कम्मं कीरमाणं णो पासति, तस्स णमेवं भवति-अत्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पन्नेकिरितावरणे जीवे, संतेगतिता समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-नो किरितावरणे 5 जीवे, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, तच्चे विभंगणाणे । __ अधावरे चउत्थे विभंगणाणे-जया णं तधारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा जाव समुप्पजति, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पन्नेणं देवामेव पासति, बाहिरब्भंरते पोग्गले परितादितित्ता पुढेगत्तं णाणत्तं फुसिता फुरित्ता फुडित्ता विकुवित्ताणं चिट्टित्तते, तस्स णमेवं भवति-अत्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे 10 समुप्पन्ने- मुदग्गे जीवे, संतेगतिता समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-अमुदग्गे जीवे, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, चउत्थे विभंगनाणे ।
अहावरे पंचमे विभंगणाणे-जया णं तधारूवस्स समणस्स जाव समुप्पजति, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पन्नेणं देवामेव पासति, बाहिरब्भंतरए पोग्गले अपरितादितित्ता पुढेगत्तं णाणत्तं जाव विकुव्वित्ताणं चिट्टित्तते, तस्स 15 णमेवं भवति-अत्थि जाव समुप्पन्ने- अमुदग्गे जीवे, संतेगतिता समणा वा
माहणा वा एवमाहंसु-मुदग्गे जीवे, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, पंचमे विभंगणाणे ।
अहावरे छठे विभंगणाणे-जया णं तधारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा जाव समुप्पज्जति, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पन्नेणं देवामेव पासति, 20 बाहिरब्भंतरते पोग्गले परितादितित्ता वा अपरियादितित्ता वा पुढेगत्तं णाणत्तं
फुसित्ता जाव विकुव्वित्ताणं चिट्ठित्तते, तस्स णमेवं भवति-अत्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पन्ने- रूवी जीवे, संतेगतिता समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-अरूवी जीवे, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, छट्टे विभंगणाणे । 25 अहावरे सत्तमे विभंगणाणे-जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५४२] सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् ।
६५५ वा विभंगणाणे समुप्पजति, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पन्नेणं पासति सुहमेणं वायुकातेणं फुडं पोग्गलकायं एतंतं वेतंतं चलंतं खुब्भंतं फंदंतं घटुंतं उदीरेतं तं तं भावं परिणमंतं, तस्स णमेवं भवति-अत्थि णं मम अतिसेसे णाणदंसणे समुप्पन्ने- सव्वमिणं जीवा, संतेगतिता समणा वा माहणा वा एवमाहंसु-जीवा चेव अजीवा चेव, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, 5 तस्स णमिमे चत्तारि जीवनिकाया णो सम्ममुवगता भवंति, तंजहा-पुढविकाइया जाव वाउकाइया, इच्चेतेहिं चउहिं जीवनिकाएहिं मिच्छादंडं पवत्तेइ, सत्तमे विभंगणाणे ।
[टी०] एवं श्रद्धानस्थैर्याद्यर्थमन्यथा वा गणादपक्रान्तस्य कस्यापि विभङ्गज्ञानं स्यादिति तस्य भेदानाह- सत्तविहेत्यादि, सप्तविधं सप्तप्रकारं विरुद्धो वितथो वा अयथा 10 वस्तुभङ्गो वस्तुविकल्पो यस्मिंस्तद्विभङ्गं तच्च तज्ज्ञानं च साकारत्वादिति विभङ्गज्ञानं मिथ्यात्वसहितावधिरित्यर्थः, एगदिसिं ति एकस्यां दिशि, एकया दिशा पूर्वादिकयेत्यर्थः, लोकाभिगमो लोकावबोध इत्येकं विभङ्गज्ञानम्, विभङ्गता चास्य शेषदिक्षु लोकस्यानभिगमेन तत्प्रतिषेधनादिति १ । तथा पञ्चसु दिक्षु लोकाभिगमो नैकस्यां कस्यांचिदिति, इहापि विभङ्गता एकदिशि लोकनिषेधादिति २ । क्रियामात्रस्यैव 15 प्राणातिपातादेर्जीवै: क्रियमाणस्य दर्शनात्तद्धेतुकर्मणश्चादर्शनात् क्रियैवावरणं कर्म यस्य स क्रियावरणः, कोऽसौ? जीव इत्यवष्टम्भपरं यद्विभङ्गं तत्तृतीयम्, विभङ्गता चास्य कर्मणोऽदर्शनेनानभ्युपगमादेवमुत्तरत्रापि विभङ्गताऽवसेयेति ३ । मुयग्गे त्ति बाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितशरीरो जीव इत्यवष्टम्भवत्, भवनपत्यादिदेवानां बाह्याभ्यन्तरपुद्गलपर्यादानतो वैक्रियकरणदर्शनादिति चतुर्थम् ४ । अमुदग्गे जीवे त्ति देवानां 20 बाह्याभ्यन्तरपुद्गलादानविरहेण वैक्रियवतां दर्शनाद् अबाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितावयवशरीरो जीव इत्यवसायवत् पञ्चमम् ५ । तथा रूवी जीवे त्ति देवानां वैक्रियशरीरवतां दर्शनाद् रूप्येव जीव इत्येवमवष्टम्भवत् षष्ठमिति ६ । तथा सव्वमिणं जीव त्ति वायुना चलत: पुद्गलकायस्य दर्शनात् सर्वमेवेदं वस्तु जीवा एव, चलनधर्मोपेतत्वादित्येवं निश्चयवत् सप्तममिति सङ्ग्रहवचनमेतत् ७ । १. वदिति पंचमं जे१ खं० ॥
25
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तत्थेत्यादि त्वेतस्यैव विवरणवचनमुत्तानार्थमेव, नवरं तत्थ त्ति तेषु सप्तसु मध्ये जया णं ति यस्मिन् काले से णं ति इह तदेति गम्यते स विभंगी पासइ त्ति उपलक्षणत्वाज्जानातीति च, अन्यथा ज्ञानत्वं विभङ्गस्य न स्यादिति, पाईणं वेत्यादौ
वा विकल्पार्थः, उड्ढं जाव सोहम्मो कप्पो इत्यनेन सौधर्मात परतः किल प्रायो 5 बालतपस्विनो न पश्यन्तीति दर्शितम्, तथाऽवधिमतोऽप्यधोलोको दुरधिगमो विभङ्गज्ञानिनस्तु सुतरामित्यधोदिग्दर्शनमिह नाभिहितम्, दुरधिगम्यता चाधोलोकस्य त्रिस्थानकेऽभिहितेति, एवं भवइ त्ति एवंविधो विकल्पो भवति, यदुत- अस्ति मे अतिशेषं शेषाण्यतिक्रान्तं सातिशयमित्यर्थो ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानेन वा दर्शनं ज्ञानदर्शनम्, ततश्चैकदिशो दर्शनेन तत्रैव लोकस्योपलम्भादाह- एकदिशि लोकाभिगम 10 इति, एकदिग्मात्र एव लोकस्तथोपलम्भादिति भावः, सन्ति विद्यन्ते एकके श्रमणा
वा ब्राह्मणा वा, ते चैवमाहुः- अन्यास्वपि पञ्चसु दिक्षु लोकाभिगमो भवति, तास्वपि तस्य विद्यमानत्वात्, ये ते एवमाहुः यदुत- पञ्चस्वपि दिक्षु लोकाभिगमो मिथ्या ते एवमाहुरिति प्रथमं विभङ्गज्ञानमिति १॥ अथापरं द्वितीयम्, तत्र पाईणं
वेत्यादौ वाशब्दश्चकारार्थो द्रष्टव्यः, विकल्पार्थत्वे तु पञ्चानां दिशां पश्यत्ता न गम्यते, 15 एकस्या एव च गम्यते, तथा च प्रथम-द्वितीययोर्विभङ्गयोर्भेदो न स्यादिति, क्वचिद्
वाशब्दा न दृश्यन्त एवेति २ । प्राणानतिपातयमानानित्यादिषु जीवानिति गम्यते, नो किरियावरणे त्ति अपि तु कर्मावरण इति ३ । देवामेव त्ति देवानेव भवनवास्यादीनेव बाहिरब्भंतरे त्ति बाह्यान् शरीरावगाहक्षेत्राद् अभ्यन्तरान् अवगाहक्षेत्रस्थान् पुद्गलान्
वैक्रियवर्गणारूपान् पर्यादाय परि समन्तात् वैक्रियसमुद्घातेनाऽऽदाय गृहीत्वा, पुढेगत्तं 20 ति पृथक्काल-देशभेदेन कदाचित् क्वचिदित्यर्थः, एकत्वम् एकरूपत्वं नानात्वं नानारूपत्वं विकृत्य उत्तरवैक्रियतया चितॄत्तए त्ति स्थातुम् आसितुं प्रवृत्तानिति वाक्यशेष इति सम्बन्धः, कथं विकृत्येत्याह- फुसित्ता तानेव पुद्गलान् स्पृष्ट्वा, तथाऽऽत्मना स्फुरित्वा वीर्यमुल्लास्य पुद्गलान् वा स्फोरयित्वा, तथा स्फुटित्वा प्रकाशीभूय, पुद्गलान् वा स्फोटयित्वा, वाचनान्तरे तु पदद्वयमपरमुपलभ्यते, तत्र संवर्त्य सारानेकीकृत्य निवर्त्य १. सू० २१३ ॥ २. तथापरं जे१ ॥ ३. °ल्पार्थे तु जे१ ॥
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५४२] सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् ।
६५७ असारान् पृथक्कृत्येति, अथवा पर्याप्तपुद्गलैरुत्तरवैक्रियशरीरस्यैकत्वं नानात्वं च कर्मतापनं स्पृष्ट्वा प्रारभ्य, तथा स्फुरत् कृत्वा स्फुटं कृत्वा, सम् एकीभावेन वर्तितं सामान्यनिष्पन्नं कृत्वा, निवर्तितं कृत्वा सर्वथा परिसमाप्य, किमुक्तं भवति ? विकुळ वैक्रियं कृत्वा न त्वौदारिकतयेति, तस्येति विभङ्गज्ञानिनो बाह्याभ्यन्तरपुद्गलपर्यादानप्रवृत्तदेवान् पश्यत एवं भवति इति विकल्पो जायते, मुदग्गे त्ति बाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितशरीरो जीव इति 5 ४ । अथापरं पञ्चमम्, तत्र बाह्याभ्यन्तरान् पुद्गलान् अपर्यादायेत्यत्र निषेधस्य वैक्रियसमुद्घातापेक्षित्वादुत्पत्तिक्षेत्रस्थांस्तूत्पत्तिकाले गृहीत्वा भवधारणीयशरीरस्यैकत्वमेकदेवापेक्षया कण्ठाद्यवयवापेक्षया वा नानात्वं त्वनेकदेवापेक्षया हस्ताङ्गुल्याद्यवयवापेक्षया वा विकुळ स्थातुं प्रवृत्तानित्यादि, शेषं प्राग्वत्, बाह्यपुद्गलपर्यादानं हि विनोत्तरवैक्रियैकत्व-नानात्वे किल न भवत इति भवधारणीय- 10 मिहाधिकृतम्, तदेवमबाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितशरीरदेवदर्शनात्तस्यैवं विकल्पो भवति- अमुदग्गे त्ति अबाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितावयवशरीरो जीव इति ५ । रूविं जीवे त्ति पुद्गलानां पर्यादानेऽपर्यादाने च वैक्रियरूपस्यैकानेकरूपस्य देवेषु दर्शनाद्रूपवानेव जीव इत्यवसायो जायते, तस्य अरूपस्य कदाचनाप्यदर्शनादिति ६ । सुहुमेत्यादि सूक्ष्मेण मन्देन, न तु सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्त्तिना, तस्य वस्तुचलनासमर्थत्वात्, फुडं ति 15 स्पृष्टं पुद्गलकायं पुद्गलराशिम् एयंतं ति एजमानं कम्पमानं व्येजमानं विशेषेण कम्पमानं चलन्तं स्वस्थानादन्यत्र गच्छन्तं क्षुभ्यन्तम् अधो निमज्जन्तं स्पन्दन्तम् ईषच्चलन्तं घट्टयन्तं वस्त्वन्तरं स्पृशन्तमुदीरयन्तं प्रेरयन्तं तं तमनाख्येयमनेकविधं भावं पर्याय परिणमन्तं गच्छन्तम् । सव्वमिणं ति सर्वमिदं चलत् पुद्गलजातं जीवा: स्पन्दनलक्षणजीवधर्मोपेतत्वात्, यच्च चलदपि श्रमणादयो जीवाश्चाजीवाश्चेति प्राहु: 20 तन्मिथ्येति तदध्यवसाय इति, तस्स णं ति तस्य विभङ्गज्ञानवत: इमे त्ति वक्ष्यमाणाः, न सम्यगुपगता: अचलनावस्थायां जीवत्वेन न बोधविषयीभूताः, तद्यथापृथिव्यप्तेजोवायवः, चलन-दोहदादिधर्मवतां त्रसानामेव दोहदादित्रसधर्मवतां वनस्पतीनामेव च जीवतया प्रज्ञानात्, पृथिव्यांदीनां तु वायुचलनेन स्वतश्चलनेन च १. निर्वर्तितं खं० पासू० ॥ २. रूवीं पा० जे२ ॥
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे त्रसत्वेनैव प्रज्ञानात् स्थावरजीवतया तु तेषामनभ्युपगमाच्चेति । इच्चेएहिं ति इति हेतोरेतेषु चतुर्यु जीवनिकायेषु मिथ्यात्वपूर्वो दण्डो हिंसा मिथ्यादण्डस्तं प्रवर्त्तयति, तद्रूपानभिज्ञ: संस्तान् हिनस्ति निद्भुते चेति भाव इति सप्तमं विभङ्गज्ञानमिति ७ ।
[सू० ५४३] सत्तविधे जोणिसंगहे पन्नत्ते, तंजहा-अंडजा, पोतजा, जराउजा, 5 रसजा, संसेदगा, संमुच्छिमा, उब्भिगा ।
अंडगा सत्तगतिता सत्तागतिता पन्नत्ता, तंजहा-अंडगे अंडगेसु उववजमाणे अंडतेहिंतो वा पोतजेहिंतो वा जाव उभिएहिंतो वा उववजेजा, से चेव णं से अंडते अंडगत्तं विप्पजहमाणे अंडगत्ताते वा पोतगत्ताते वा जाव
उब्भियत्ताते वा गच्छेज्जा । 10 पोतगा सत्तगतिता सत्तागतिता, एवं चेव सत्तण्ह वि गतिरागती भाणियव्वा
जाव उब्भिय त्ति । ___ [टी०] मिथ्यादण्डं प्रवर्तयतीत्युक्तम्, दण्डश्च जीवेषु भवतीति योनिसङ्ग्रहतो जीवानाह- सत्तविहेत्यादि, योनिभि: उत्पत्तिस्थानविशेषैर्जीवानां सङ्ग्रहः
योनिसङ्ग्रहः, स च सप्तधा, योनिभेदात् सप्तधा जीवा इत्यर्थः, अण्डजा: पक्षि15 मत्स्य-सर्पादयः, पोतं वस्त्रं तद्वज्जाता: पोतादिव वा बोहित्थाज्जाता:, अजरायुवेष्टिता
इत्यर्थः, पोतजा: हस्ति-वल्गुलीप्रभृतयः, जरायौ गर्भवेष्टने जाता:, तद्वेष्टिता इत्यर्थः, जरायुजा: मनुष्या गवादयश्च, रसे तीमन-काञ्जिकादौ जाता रसजा:, संस्वेदाज्जाता: संस्वेदजा: यूकादय:, सम्मूर्छन निर्वृत्ता: सम्मूर्छिमा: कृम्यादयः, उद्भिदो
भूमिभेदाज्जाता उद्भिज्जा: खञ्जनकादयः । 20 अथाण्डजादीनामेव गत्यागतिप्रतिपादनाय अंडजेत्यादि सूत्रसप्तकम्, तत्र मृतानां सप्त गतयोऽण्डजादियोनिलक्षणा येषां ते सप्तगतयः, सप्तभ्य एवाण्डजादियोनिभ्य आगतिः उत्पत्तिर्येषां ते सप्तागतयः । एवं चेव त्ति यथाऽण्डजानां सप्तविधे गत्यागती भणिते तथा पोतजादिभि: सह सप्तानामप्यण्डजादिजीवभेदानां गतिरागतिश्च भणितव्या जाव उब्भिय त्ति सप्तमसूत्रं यावदिति, शेषं सुगमम् ।
१. संगधे क० भां० ला० विना ॥
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५९
[सू० ५४४]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । [सू० ५४४] आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि सत्त संगहट्ठाणा पन्नत्ता, तंजहा-आयरियउवज्झाए गणंसि आणं वा धारणं वा सम्मं पउंजित्ता भवति १, एवं जधा पंचट्ठाणे जाव आयरियउवज्झाए गणंसि आपुच्छियचारि यावि भवति नो अणापुच्छियचारि यावि भवति ५, आयरियउवज्झाए गणंसि अणुप्पनाइं उवकरणाई सम्मं उप्पाइत्ता भवति ६, आयरियउवज्झाए गणंसि 5 पुव्वुप्पन्नाइं उवकरणाइं सम्मं सारक्खित्ता संगोवित्ता भवति, णो असम्म सारक्खित्ता संगोवित्ता भवति ७ ।।
आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि सत्त असंगहट्ठाणा पन्नत्ता, तंजहाआयरियउवज्झाए गणंसि आणं वा धारणं वा नो सम्मं पउंजित्ता भवति १, एवं जाव उवगरणाणं नो सम्मं सारक्खेत्ता संगोवेत्ता भवति ७ । 10 _ [टी०] पूर्वं योनिसङ्ग्रह उक्त इति सङ्ग्रहप्रस्तावात् सङ्ग्रहस्थानसूत्रम्आयरियेत्यादि, आचार्योपाध्यायस्येति समाहारद्वन्द्वः कर्मधारयो वागणे गच्छे सङ्ग्रहो ज्ञानादीनां शिष्याणां वा तस्य स्थानानि हेतव: सङ्ग्रहस्थानानि, आचार्योपाध्यायो गणे आज्ञां वा विधिविषयमादेशं धारणां वा निषेधविषयमादेशमेव सम्यक् प्रयोक्ता भवति, एवं हि ज्ञानादिसङ्ग्रहः शिष्यसङ्ग्रहो वा स्याद्, अन्यथा तभ्रंश एवेति 15 प्रतीतम्, यत:
जहिं नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छम्मि। सो उ अगच्छो गच्छो मोत्तव्वो संजमत्थीहिं ॥ [बृहत्कल्प० ४४६४] ति ।
एवं जहा पंचंठाणे त्ति, तच्चेदम्- ‘आयरियउवज्झाए णं गणंसि अहाराइणियाए कितिकम्मं पउंजित्ता भवइ २, आयरियउवज्झाए णं गणंसि जे सुयपज्जवजाते धारेइ 20 ते काले काले सम्म अणुप्पवाइत्ता भवइ ३, आयरिउवज्झाए णं गणंसि गिलाणसेहवेयावच्चं सम्मं अब्भुट्टित्ता भवइ ४, आयरियउवज्झाए णं गणंसि आपुच्छियचारी यावि भवइ, नो अणापुच्छियचारी ५,' स्थानद्वयं त्विहैवेति, व्याख्या तु सुकरैव, पदद्वयं च सुगममेव, नवरमाप्रच्छनं गच्छस्य, यत उक्तम्१. सू० ३९९ ॥ २. पदद्वयं च सुगममेव जे१ विना नास्ति ।।
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
5
६६०
10
मूलगपत्तसरिसगा परिभूया वच्चिमो थेरा ॥ [ बृहत्कल्प० १४५७-५८ ] इति ।
तथा अणुप्पन्नाइं ति अनुत्पन्नानि अलब्धानि उपकरणानि वस्त्र - पात्रादीनि सम्यग् एषणादिशुद्ध्या उत्पादयिता सम्पादनशीलो भवति । संरक्षयिता उपायेन चौरादिभ्यः, सङ्गोपयिता अल्पसागारिककरणेन मलिनतारक्षणेन वेति । एवं सङ्ग्रहस्थानविपर्ययभूतमसङ्ग्रहसूत्रमपि भावनीयमिति ।
[सू० ५४५] सत्त पिंडेसणाओ पन्नत्ताओ १ |
सत्त पाणेसणातो पण्णत्ताओ २। सेत्त उग्गहपडिमातो पन्नत्ताओ ३ | सत्त सत्तिक्कया पण्णत्ता ४। सत्त महज्झयणा पण्णत्ता ५। सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमा एकूणपण्णत्ताते रातिंदिएहिमेगेण य छण्णउतेणं भिक्खासतेणं अहासुत्तं जाव आराहिया वि भवति ६ ।
[टी०] अनन्तरमाज्ञां न प्रयोक्ता भवतीत्युक्तमाज्ञा च पिण्डैषणादिविषयेति 15 पिण्डैषणादिसूत्रषट्कम् - सत्त पिंडेसणाउ त्ति, पिण्डः समयभाषया भक्तं तस्यैषणा ग्रहणप्रकाराः पिण्डैषणाः, ताश्चैताः
सट्ट १ मसट्टा २ उद्घड ३ तह अप्पलेविया चेव ४ ।
उग्गहिया ५ पग्गहिया ६ उज्झियधम्मा य ७ सत्तमिया ॥ [ ]
अत्रासंसृष्टा हस्त-मात्राभ्यां चिन्तनीया 'असंसट्टे हत्थे असंसट्टे मत्ते', अखरडिय 20 त्ति वुत्तं भवइ, एवं गृह्णतः प्रथमा भवति, गाथायां सुखमुखोच्चारणार्थोऽन्यथा पाठः। संसृष्टा ताभ्यामेव चिन्त्या 'संस हत्थे संसट्टे मत्ते, खरडिए त्ति वुत्तं भवइ, एवं गृह्णतो द्वितीया । उद्धृता नाम स्थाल्यादौ स्वयोगेन भोजनजातमुद्धृतम्, ततो असंसट्टे हत्थे ॲसंसट्टे मत्ते संसट्टे वा मत्ते संसट्ठे हत्थे, एवं गृह्णतः तृतीया । अल्पलेपा नाम १. ओघनि० १३४-३५ ॥ २. दृश्यतां पृ० ५१३ टि०२ । ३. तत्रासं खं० । तत्र सं जे१ ॥ ४. अत्र हस्तलिखितादर्शेषु ईदृशाः पाठाः - असंसट्ठे हत्थे असंसट्टे मत्ते संसट्टे वा मत्ते संसट्टे हत्थे पा० । असंसट्टे
वा मत्ते संसट्टे हत्थे जे१ खं० । असंसट्टे हत्थे संसट्टे मत्ते असंसट्टे वा मत्ते संसट्ठे हत्थे जे२ ।
li
||||
असंसट्टे मत्ते असंसट्टे वा मत्ते संसट्टे हत्थे जेसं १ ॥
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
सीसे जड़ आमंते पडिच्छगा तेण बाहिरं भावं । अह इयरे तो सीसा ते वि समत्तम्मि गच्छति ॥ तरुणा बाहिरभावं न य पडिलेहोवही ण कीकम्मं ।
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५४५]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । अल्पशब्दोऽभाववाचकः, निर्लेपं पृथुकादि गृह्णतश्चतुर्थी । अवगृहीता नाम भोजनकाले शरावादिषूपहृतमेव भोजनजातं यत् ततो गृह्णत: पञ्चमी । प्रगृहीता नाम भोजनवेलायां दातुमभ्युद्यतेन करादिना प्रगृहीतं यद्भोजनजातं भोक्तुं वा स्वहस्तादिना तद् गृह्णत इति षष्ठी। उज्झितधा नाम यत् परित्यागार्ह भोजनजातमन्ये च द्विपदादयो नावकाङ्क्षन्ति तदर्द्धत्यक्तं वा गृह्णत इति हृदयं सप्तमीति । पानकैषणा एता एव, नवरं चतुर्थ्यां 5 नानात्वम्, तत्र ह्यायाम-सौवीरकादि निर्लेपं विज्ञेयमिति ।
उग्गहपडिम त्ति, अवगृह्यत इत्यवग्रहो वसतिः, तत्प्रतिमाः अभिग्रहा अवग्रहप्रतिमाः, तत्र पूर्वमेव विचिन्त्यैवंभूतः प्रतिश्रयो मया ग्राह्यो नान्यथाभूत इति तमेव याचित्वा गृह्णत: प्रथमा । तथा यस्य भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहो भवति, तद्यथा- अहं च खल्वेषां साधूनां कृते अवग्रहं ग्रहीष्यामि, अन्येषां चावग्रहे गृहीते सति वत्स्यामीति 10 तस्य द्वितीया । प्रथमा सामान्येन, इयं तु गच्छान्तर्गतानां सम्भोगिकानामसम्भोगिकानां चोद्युक्तविहारिणाम्, यतस्तेऽन्योन्यार्थं याचन्त इति । तृतीया त्वियम्- अन्यार्थमवग्रहं याचिष्ये अन्यावगृहीतायां तु न स्थास्यामीति, एषा त्वहालन्दिकानाम्, यतस्ते सूत्रावशेषमाचार्यादभिकाङ्क्षन्त: आचार्यार्थं तां याचन्त इति । चतुर्थी पुनरहमन्येषां कृते अवग्रहं न याचिष्ये अन्यावगृहीते तु वत्स्यामीति, इयं तु गच्छ एव अभ्युद्यतविहारिणां 15 जिनकल्पाद्यर्थं परिकर्म कुर्वताम् । पञ्चमी तु अहमात्मकृते अवग्रहमवग्रहीष्यामि न चापरेषां द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चानामिति, इयं तु जिनकल्पिकस्येति । षष्ठी पुनर्यदीयमवग्रहं ग्रहीष्यामि तदीयमेव चेत् कटादिसंस्तारकं ग्रहीष्यामि, इतरथोत्कुटुको वा निषण्ण उपविष्टो वा रजनीं गमिष्यामीत्येषाऽपि जिनकल्पिकादेरिति । सप्तमी एषैव पूर्वोक्ता, नवरं यथाऽऽस्तृतमेव शिलादिकं ग्रहीष्यामि नेतरदिति । अयं च सूत्रत्रयार्थः क्वचित् 20 सूत्रपुस्तक एव दृश्यत इति । __ सत्त सत्तिक्कय त्ति, अनुद्देशकतयैकसरत्वेन एकका: अध्ययनविशेषा आचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयचूडारूपाः, ते च समुदायत: सप्तेति कृत्वा सप्तैकका अभिधीयन्ते, तेषामेकोऽपि सप्तैकक इति व्यपदिश्यते, तथैवनामत्वात्, एवं च ते सप्तेति, तत्र प्रथम: १. "त्कुटको जे१ ॥
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
स्थानसप्तैककः, द्वितीयो नैषेधिकीसप्तैककः, तृतीय उच्चार-प्रश्रवणविधिसप्तैककः, चतुर्थः शब्दसप्तैककः, पञ्चमो रूपसप्तैककः, षष्ठः परक्रियासप्तैककः, सप्तमोऽन्योन्यक्रियासप्तैकक इति ।
सत्त महज्झयण त्ति सूत्रकृताङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे महान्ति प्रथमश्रुत5 स्कन्धाध्ययनेभ्यः सकाशाद् ग्रन्थतो बृहन्ति अध्ययनानि महाध्ययनानि तानि च पुण्डरीकम् १, क्रियास्थानम् २, आहारपरिज्ञा ३, प्रत्याख्यानक्रिया ४, अनाचारश्रुतम् ५, आर्द्रककुमारीयम् ६, नालन्दीयम् ७ चेति ।
सत्तसत्तमि ति सप्त सप्तमानि दिनानि यस्यां सा सप्तसप्तमिका, सा हि सप्तभिर्दिनसप्तकैर्यथोत्तरं वर्द्धमानदत्तिभिर्भवति, तत्र प्रथमे सप्तके प्रतिदिनमेका भक्तस्य 10 पानकस्य चैका दत्तिर्यावत् सप्तमे सप्त दत्तय:, भिक्षुप्रतिमा साध्वभिग्रहविशेष:, सा चैकोनपञ्चाशता रात्रिन्दिवैः अहोरात्रैर्भवति, यतः सप्त सप्तकान्येकोनपञ्चाशदेव स्यादिति, तथा एकेन च षण्णवत्यधिकेन भिक्षाशतेन, यतः प्रथमे सप्तके सप्तैव, द्वितीयादिषु तद्विगुणाद्याः यावत् सप्तमे एकोनपञ्चाशदिति, सर्वाः सङ्कलिताः शतं षण्णवत्यधिकं भवति, भक्तभिक्षाश्चैताः, पानकभिक्षा अप्येतावत्यो न चेह गणिता इति, 15 एतत्स्वरूपमेवम्–
६६२
पडिमा सत्ता सत्त पढमे तत्थ सत्तए । एक्क्कं गिहए भिक्खं बीइए दोन्नि दोन्नि ऊ ॥ एवमेक्क्कियं भिक्खं छुभेज्जेक्वेक्कसत्तए ।
गिहई अंतिमे जाव सत्त सत्त दिणे दिणे ॥
20 अहवा एक्केक्कियं दत्तिं जा सत्तेक्क्कसत्तए ।
आसो अत्थि एसो वि सिंहविक्कमसन्निभो ॥ [ ] इत्यादि ।
अहासुत्तं ति यथासूत्रं सूत्रानतिक्रमेण, यावत्करणात् अहाअत्थं यथार्थं निर्युक्त्यादिव्याख्यानानतिक्रमेणेत्यर्थः, अहातच्वं यथातत्त्वं सप्तसप्तमिकेत्यभिधानार्थानतिक्रमेण, अन्वर्थसत्यापनेनेत्यर्थः, अहामग्गं मार्गः क्षायोपशमिको 25 भावस्तदनतिक्रमेण, औदयिक भावागमनेनेत्यर्थः, अहाकप्पं यथाकल्पं
१. बिईए जे२ । बीए जे१ खं० ॥
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५४६]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । कल्पनीयानतिक्रमेण प्रतिमासमाचारानतिक्रमेण वा, सम्मं काएणं कायप्रवृत्त्या न मनोमात्रेणेत्यर्थः, फासिया स्पृष्टा प्रतिपत्तिकाले विधिना प्राप्ता, पालिय त्ति पुन: पुनरुपयोगप्रतिजागरणेन रक्षिता, सोहिय त्ति शोभिता तत्समाप्तौ गुर्वादिप्रदानशेषभोजनासेवनेन शोधिता वा अतिचारवर्जनेन तदालोचनेन वा, तीरिय त्ति तीरं पारं नीता, पूर्णेऽपि कालावधौ किञ्चित्कालावस्थानेन, किट्टिय त्ति कीर्त्तिता पारणकदिने 5 'अयमयं चाभिग्रहविशेष: कृत आसीद् अस्यां प्रतिमायां स चाराधित एवाधुना मुत्कलोऽहम्' इति गुरुसमक्षं कीर्तनादिति, आराहिय त्ति एभिरेव प्रकारैः सम्पूर्णैर्निष्ठां .. नीता भवतीति, प्रत्याख्यानापेक्षया अन्यत्र व्याख्यानमेषामेवम्
उचिए काले विहिणा पत्तं जं फासियं तयं भणियं । तह पालियं तु असई सम्मं उवओगपडियरियं ॥ गुरुदाणसेसभोयणसेवणयाए उ सोहियं जाण । पुन्ने वि थेवकालावत्थाणा तीरियं होइ ॥ भोयणकाले अमुगं पच्चक्खायं ति भुंज किट्टिययं । आराहियं पयारेहिं सम्ममेएहिं निट्ठवियं ॥ [ ] ति । [सू० ५४६] अधेलोगे णं सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, सत्त घणोदधीतो 15 पन्नत्ता, सत्त घणवाता पण्णत्ता, सत्त तणुवाता पण्णत्ता, सत्त उवासंतरा पन्नत्ता।
एतेसु णं सत्तसु उवासंतरेसु सत्त तणुवाया पतिट्टिता । एतेसु णं सत्तसु तणुवातेसु सत्त घणवाता पतिट्ठिता। एएसु णं सत्तसु घणवातेसु सत्त घणोदधी पतिट्टिता । एतेसु णं सत्तसु घणोदधीसु पिंडलगपिहुलसंठाणसंठिताओ सत्त 20 पुढवीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-पढमा जाव सत्तमा ।
एतासि णं सत्तण्हं पुढवीणं सत्त णामधेजा पन्नत्ता, तंजहा-घम्मा, वंसा, सेला, अंजणा, रिट्ठा, मघा, माघवती । एतासि णं सत्तण्हं पुढवीणं सत्त गोत्ता पन्नत्ता, तंजहा-रतणप्पभा, सक्करप्पभा, वालुयप्पभा, पंकप्पभा, धूमप्पभा, तमा, तमतमा ।
25 १. पडलग भां० ॥
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] सप्तसप्तमिकादिप्रतिमाश्च पृथिव्यामेव विधीयन्त इति पृथिवीप्रतिपादनायाहअहेलोए इत्यादि, अधोलोकग्रहणादूर्ध्वलोकेऽपि पृथिवीसत्ताऽवगम्यते, तत्र चैका ईषत्प्राग्भाराख्या पृथिव्यस्तीति, इह च यद्यपि प्रथमपृथिव्या उपरितनानि नव योजनशतानि तिर्यग्लोके भवन्ति तथापि देशोनाऽपि पृथिवीति कृत्वा न दोषायेति, एताश्च क्रमेण 5 बाहल्यतो योजनलक्षमशीत्यादिसहस्राधिकं भवन्ति, उक्तं च
पढमा असीइसहस्सा १ बत्तीसा २ अट्ठवीस ३ वीसा य ४ । अट्ठार ५ सोल ६ अट्ट य ७ सहस्स लक्खोवरिं कुज्जा ॥ [बृहत्सं० २४१] इति ।
अधोलोकाधिकारात्तद्गतवस्तुसूत्राण्या बादरसूत्रात्, सुगमानि चैतानि, नवरं घनोदधीनां बाहल्यं विंशतिर्योजनसहस्राणि घन-तनुवाता-ऽऽकाशान्तराणामसङ्ख्यातानि तानि, 10 आह च
सव्वे वीससहस्सा बाहल्लेणं घनोदधी नेया । सेसाणं तु असंखा अहो अहो जाव सत्तमिया ॥ [बृहत्सं० २४२] इति । तथा छत्रमतिक्रम्य छत्रं छत्रातिच्छत्रम्, तस्य संस्थानम् आकार: ‘अधस्तनं छत्रं महदुपरितनं लघु' इति, तेन संस्थिताः छत्रातिच्छत्रसंस्थानसंस्थिताः, इदमुक्तं भवति15 सप्तमी सप्तरज्जुविस्तृता षष्ठ्यादयस्त्वेकैकरज्जुहीना इति, क्वचित् पाठः पिंडलगपिहुल
संठाणसंठिया, तत्र पिंडलगं पटलकं पुष्पभाजनम्, तद्वत् पृथुलसंस्थानसंस्थिता इति पटलकपृथुलसंस्थानसंस्थिता:, पृथुलपृथुलसंस्थानसंस्थिता इति क्वचित् पाठः, स च व्यक्त एव, नामधेज त्ति नामान्येव नामधेयानि, गोत्त त्ति गोत्राणि
तान्यपि नामान्येव, केवलमन्वर्थयुक्तानि गोत्राणि इतराणि त्वितराणि, अन्वर्थश्च 20 सुखोनेयः।
[सू० ५४७] सत्तविहा बादरवाउकाइया पन्नत्ता, तंजहा-पातीणवाते, पडीणवाते, दाहिणवाते, उदीणवाते, उड्डेवाते, अहेवाते, विदिसिवाते ।
[टी०] सप्तावकाशान्तराणि प्राक् प्ररूपितानि, तेषु च बादरा वायवः सन्तीति तत्प्ररूपणायाह- सत्तविहा बायरेत्यादि, सूक्ष्माणां न भेदोऽस्ति ततो बादरग्रहणम्, 25 भेदश्च दिग्विदिग्भेदात् प्रतीत एवेति ।
१. संख्येयानि जे१ ॥ २-३. पिड जे१ खं० ॥ ४. विदिसवाते भां० ॥
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५४८-५५०] सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् ।
६६५ [सू० ५४८] सत्त संठाणा पन्नत्ता, तंजहा-दीहे, रहस्से, वट्टे, तंसे, चउरंसे, पिहुले, परिमंडले ।
[सू० ५४९] सत्त भयट्ठाणा पन्नत्ता, तंजहा-इहलोगभते, परलोगभते आदाणभते, अकम्हाभते, वेयणाभते, मरणभते, असिलोगभते । ___ [टी०] वायवो ह्यदृश्यास्तथापि संस्थानवन्तो भयवन्तश्चेति संस्थान-भयसूत्रे, 5 संस्थानानि च प्रतीतानि, तद्विशेषा: प्रतर-घनादयोऽन्यतो ज्ञेयाः । सत्त भयट्ठाणेत्यादि, भयं मोहनीयप्रकृतिसमुत्थ आत्मपरिणामः, तस्य स्थानानि आश्रया भयस्थानानि, तत्र मनुष्यादिकस्य सजातीयादन्यस्मान्मनुष्यादेरेव सकाशाद्यद् भयं तदिहलोकभयम्, इहाधिकृतभीतिमतो जातौ लोक इहलोकस्ततो भयमिति व्युत्पत्तिः, तथा विजातीयात् तिर्यग्-देवादेः सकाशान्मनुष्यादीनां यद् भयं तत् परलोकभयम्, आदीयत इत्यादानं 10 धनं तदर्थं चौरादिभ्यो यद् भयं तदादानभयम्, अकस्मादेव बाह्यनिमित्तानपेक्षं गृहादिष्वेव स्थितस्य रात्र्यादौ भयमकस्माद्भयम्, वेदना पीडा, तद्भयं वेदनाभयम्, मरणभयं प्रतीतम्, अश्लोकभयम् अकीर्तिभयम्, एवं हि क्रियमाणे महदयशो भवतीति तद्भयान्न प्रवर्त्तत इति ।
[सू० ५५०] सत्तहिं ठाणेहिं छउमत्थं जाणेजा, तंजहा-पाणे अतिवातेत्ता 15 भवति, मुसं वदित्ता भवति, अदिनमातित्ता भवति, सद्द-फरिस-रस-रूवगंधे आसादेत्ता भवति, पूतासक्कारमणुवूहेत्ता भवति, इमं सावजं ति पण्णवेत्ता पडिसेवेत्ता भवति, णो जधावादी तधाकारी यावि भवति । ___ सत्तहिं ठाणेहिं केवली जाणेज्जा, तंजहा-णो पाणे अतिवातेत्ता भवति जाव जधावादी तधाकारी यावि भवति ।
[टी०] भयं च छद्मस्थस्यैव भवति, स च यैः स्थानैर्ज्ञायते तान्याह- सत्तहिं ठाणेहिं इत्यादि, सप्तभिः स्थानैर्हेतुभूतैः छद्मस्थं जानीयात्, तद्यथा-प्राणान् अतिपातयिता, तेषां कदाचिद् व्यापादनशीलो भवति, इह च प्राणातिपातनमिति वक्तव्येऽपि धर्मधर्मिणोरभेदादतिपातयितेति धर्मी निर्दिष्टः, प्राणातिपातनाच्छद्यस्थो१. ठाणेहीत्यादि खं० पा० जे२ ।।
20
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६६ आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ऽयमित्यवसीयते, केवली हि क्षीणचारित्रावरणत्वान्निरतिचारसंयमत्वादप्रतिषेवित्वान्न कदाचिदपि प्राणानामतिपातयिता भवतीत्येवं सर्वत्र भावना कार्या, तथा मृषा वदिता भवति, अदत्तमादाता ग्रहीता भवति, शब्दादीनास्वादयिता भवति, पूजासत्कारं
पुष्पार्चन-वस्त्राद्यर्चने अनुबृंहयिता परेण स्वस्य क्रियमाणस्य तस्यानुमोदयिता, तद्भावे 5 हर्षकारीत्यर्थः, तथेदमाधाकर्मादि सावा सपापमित्येवं प्रज्ञाप्य तदेव प्रतिषेविता
भवति, तथा सामान्यतो नो यथावादी तथाकारी, अन्यथाभिधायाऽन्यथा कर्ता भवति, चापीति समुच्चये । एतान्येव विपर्यस्तानि के वलिगमकानि भवन्तीत्येतत्प्रतिपादनपरं केवलिसूत्रं सुगममेव ।
[सू० ५५१] सत्त मूलगोत्ता पन्नत्ता, तंजहा-कासवा, गोतमा, वच्छा, 10 कोच्छा, कोसिता, मंडवा, वासिट्ठा ।
जे कासवा ते सत्तविधा पन्नत्ता, तंजहा-ते कासवा, ते संडिल्ला, ते गोला, ते वाला, ते मुंजतिणो, ते पव्वतिणो, ते वरिसकण्हा ।
जे गोतमा ते सत्तविधा पन्नत्ता, तंजहा-ते गोयमा, ते गग्गा, ते भारद्दा, ते अंगरिसा, ते सक्कराभा, ते भक्खराभा, ते उदत्ताभा । 15 जे वच्छा ते सत्तविधा पन्नत्ता, तंजहा-ते वच्छा, ते अग्गेया, ते मित्तेया, ते सामलिणो, ते सेलतता, ते अट्ठिसेणा, ते वीयकण्हा ।
जे कोच्छा ते सत्तविधा पन्नत्ता, तंजहा-ते कोच्छा, ते मोग्गलायणा, ते पिंगायणा, ते कोडीणो, ते मंडलिणो, ते हारिता, ते सोमभी ।।
जे कोसिता ते सत्तविधा पन्नत्ता, तंजहा-ते कोसिता, ते कच्चातणा, 20 ते सालंकातणा, ते गोलिकातणा, ते पक्खिकातणा, ते अग्गिच्चा, ते
लोहिच्चा । __ जे मंडवा ते सत्तविधा पन्नत्ता, तंजहा-ते मंडवा, ते आरिट्ठा, ते संमुता, ते तेला, ते एलावच्चा, ते कंडिल्ला, ते खारातणा ।
जे वासिट्ठा ते सत्तविधा पन्नत्ता, तंजहा-ते वासिट्ठा, ते उंजायणा, ते 25 जारुकण्हा ते वग्यावच्चा, ते कोडिन्ना, ते सन्नी, ते पारासरा ।
१. भावना ज्ञेया पा० जे२ ॥ २. वादिता खं० पामू० जे२ ॥ ३. प्रज्ञप्य जेसं१ खं० ॥
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५५२]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । [टी०] केवलिनश्च प्रायो गोत्रविशेषवन्त एव भवन्ति प्रव्रज्यायोग्यत्वान्नाभेयादिवदिति सत्त मूलगोत्तेत्यादिना ग्रन्थेन गोत्रविभागमाह, सुगमाश्चायम्, नवरं गोत्राणि तथाविधैकैकपुरुषप्रभवा मनुष्यसन्ताना:, उत्तरगोत्रापेक्षया मूलभूतानि आदिभूतानि गोत्राणि मूलगोत्राणि, कासे भव: कास्य: रसः, तं पीतवानिति कास्यपः, तदपत्यानि कास्यपाः, मुनिसुव्रत-नेमिवर्जा जिनाश्चक्रवर्त्यादयश्च क्षत्रिया: सप्तमगणधरादयो द्विजा: 5 जम्बूस्वाम्यादयो गृहपतयश्चेति, इह च गोत्रस्य गोत्रवद्भयोऽभेदादेवं निर्देश:, अन्यथा कास्यपमिति वाच्यं स्यादेवं सर्वत्र, तथा गोतमस्यापत्यानि गौतमाः क्षत्रियादयो यथा सुव्रत-नेमी जिनौ नारायण-पद्मवर्जवासुदेव-बलदेवा इन्द्रभूत्यादिगणनाथत्रयं वैरस्वामी च, तथा वत्सस्यापत्यानि वत्सा: शय्यम्भवादय:, एवं कुत्सा शिवभूत्यादय: कोच्छं सिवभूई पि य [ कल्पसू०] इति वचनात्, एवं कौशिका: षडुलूकादय:, 10 मण्डोरपत्यानि मण्डवाः, वशिष्ठस्यापत्यानि वाशिष्ठा: षष्ठगणधरा-ऽऽर्यसुहस्त्यादय:, तथा ये ते कास्यपास्ते सप्तविधाः, एके कास्यपशब्दव्यपदेश्यत्वेन कास्यपा एवान्ये तु कास्यपगोत्रविशेषभूतसण्डिलादिपुरुषापत्यरूपा: साण्डिल्यादयोऽवगन्तव्याः । __ [सू० ५५२] सत्त मूलनया पन्नत्ता, तंजहा-नेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसुते, सद्दे, समभिरूढे, एवंभूते ।
15 [टी०] अयं च मूलगोत्र-प्रतिगोत्रविभागो नयविशेषमताद्भवतीति नयविभागमाहसत्त मूलेत्यादि, मूलभूता नया मूलनया:, ते च सप्त, उत्तरनया हि सप्त शतानि, यदाहएक्केको य सयविहो सत्त नयसया हवंति एवं तु । अन्नो वि य आएसो पंचेव सया नयाणं तु ॥ [आव० नि० ५४२, विशेषाव० २२६४] तथा- 20
१. अत्रेदमवधेयम्- हस्तलिखितादर्शेषु अत्र अग्रे च सर्वत्र कासे भव: कास्यो रसः.... ... इत्येवं सर्वत्र सकारस्यैव प्रयोगः, यत्र तु शकारस्य निर्देशः तत्र पाठभेदो दर्शयिष्यते ॥ २. कस्यप जे१ ॥ ३. कल्पसूत्रे स्थविरावल्या अन्ते चतुर्दशसु गाथाषु प्रथमा गाथा ॥ 'वंदामि फग्गुमित्तं च गोयमं धणगिरिं च वासिटुं। कुच्छं सिवभूई पि य कोसिय दुजंत कण्हे य ॥” इति सम्पूर्णा गाथा ॥ ४. मण्डव: जे१ खं० ॥ ५. वसिष्ट खं० । एवमग्रेऽपि ।। ६. काश्य पा० । एवमग्रेऽपि ॥ ७. काश्य जे१ पा० जे२ । एवमग्रेऽपि। ८. 'शांडि जे१ ॥
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
5
15
६६८
20
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
जावइया वयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया ।
जावइया नयवाया तावइया चेव परसमय ॥ [ सम्मति० ३।४७ ] त्ति । तत्रानन्तधर्माध्यासिते वस्तुन्येकधर्म्मसमर्थनप्रवणो बोधविशेषो नय इति, तत्र गमे त्ति नैकैर्मानैर्महासत्ता - सामान्यविशेष- विशेषज्ञानैर्मिमीते मिनोति वा नैकमः, आह च
10 अहवा जं णेगगमो णेगपहो गमो तेणं ॥ [ विशेषाव० २१८७] ति ।
तत्रायं सर्वत्र सदित्येवमनुगताकारावबोधहेतुभूतां महासत्तामिच्छति, अनुवृत्तव्यावृत्तावबोधहेतुभूतं च सामान्यविशेषं द्रव्यत्वादि, व्यावृत्तावबोधहेतुभूतं च नित्यद्रव्यवृत्तिमन्त्यं विशेषमिति । आह- इत्थं तर्ह्ययं नैगमः सम्यग्दृष्टिरेवास्तु सामान्यविशेषाभ्युपगमपरत्वात् साधुवदिति, नैतदेवम्, सामान्यविशेषवस्तूनामत्यन्तभेदाभ्युपगमपरत्वात्तस्येति, आह च भाष्यकार:
जं सामन्नविसेसे परोप्परं वत्थुओ य सो भिन्ने ।
मन्नइ अच्वंतमओ मिच्छादिट्ठी कणादो व्व ॥
दोहिं वि नहिं नीयं सत्थमुलूएण तह वि मिच्छत्तं ।
जं सविसयप्पहाणत्तणेण अन्नोन्ननिरवेक्खा ॥ [ विशेषाव० २९९४ - ९५ ] इति १ । तथा सङ्ग्रहणं भेदानां सङ्गृह्णाति वा भेदान् सङ्गृह्यन्ते वा भेदा येन स सङ्ग्रहः, उक्तं च
संगहणं संगिण्हइ संगिज्झते व तेण जं भेया । तो संगहो ति [ विशेषाव० २२०३]
एतदुक्तं भवति– सामान्यप्रतिपादनपरः खल्वयं सदित्युक्ते सामान्यमेव प्रतिपद्यते न विशेषम्, तथा च मन्यते - विशेषाः सामान्यतोऽर्थान्तरभूताः स्युरनर्थान्तरभूता वा ?, 25 यद्यर्थान्तरभूता न सन्ति ते, सामान्यादर्थान्तरत्वात् खपुष्पवत्, अथानर्थान्तरभूताः सामान्यमात्रं ते, तदव्यतिरिक्तत्वात्, तत्स्वरूपवदिति, आह च१. 'संगहियपिंडियत्थं वओ जस्स ॥' इति अवशिष्टोंऽशः ॥
गाइं माणाइं सामन्नोभयविसेसनाणाई ।
जं तेहिं मिणइ तो गमो णओ णेगमाणो त्ति ॥ [ विशेषाव० २१८६ ]
निगमेषु वा अर्थबोधेषु कुशलो भवो वा नैगमः, अथवा नैके गमाः पन्थानो यस्य स नैकगमः, आह च
लोगत्थनिबोहा वा निगमा तेसु कुसलो भवो वाऽयं ।
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६९
[सू० ५५२]
सप्तममध्ययन सप्तस्थानकम् । सदिति भणियम्मि जम्हा सव्वत्थाणुप्पवत्तए बुद्धी । तो सव्वं तम्मत्तं नत्थि तदत्थंतरं किंचि ॥ कुंभो भावाणन्नो जइ तो भावो अहऽनहाऽभावो । एवं पडादओ वि हु भावा नन्न त्ति तम्मत्तं ॥ [विशेषाव० २२०७-८] ति २।
तथा व्यवहरणं व्यवहरतीति वा व्यवह्रियते वा अपलप्यते सामान्यमनेन विशेषान् 5 वाऽऽश्रित्य व्यवहारपरो व्यवहारः, आह च
ववहरणं ववहरए स तेण ववहीरते व सामन्नं । ववहारपरो य जओ विसेसओ तेण ववहारो ॥ [विशेषाव० २२१२] इति ।
अयं हि विशेषप्रतिपादनपर: सदित्युक्ते विशेषानेव घटादीन् प्रतिपद्यते, तेषामेव व्यवहारहेतुत्वात्, न तदतिरिक्तं सामान्यम्, तस्य व्यवहारापेतत्वात्, तथा च सामान्यं 10 विशेषेभ्यो भिन्नमभिन्नं वा स्यात् ?, यदि भिन्नं विशेषव्यतिरेकेणोपलभ्येत, न चोपलभ्यते, अथाभिन्नं विशेषमानं तत्, तदव्यतिरिक्तत्वात्, तत्स्वरूपवदिति, आह चउवलंभव्ववहाराभावाओ तव्विसेसभावाओ । तं नत्थि खपुप्फ पिव संति विसेसा सपच्चक्खं ॥ [विशेषाव० २२१४] ति ।
तथा लोकसंव्यवहारपरो व्यवहारः, तथाहि- असौ पञ्चवर्णेऽपि भ्रमरादिवस्तुनि 15 बहुतरत्वात् कृष्णत्वमेव मन्यते, आह च
बहुतरओ त्ति य तं चिय गमेइ संते वि सेसए मुयइ ।। संववहारपरतया ववहारो लोगमिच्छंतो ॥ [विशेषाव० २२२१] इति ३ ।
तथा ऋजु वक्रविपर्ययादभिमुखं श्रुतं ज्ञानं यस्यासौ ऋजुश्रुतः, ऋजु वा । वर्तमानमतीतानागतवक्रपरित्यागाद्वस्तु सूत्रयति गमयतीति ऋजुसूत्रः, उक्तं च- 20
उज्जु रिउं सुयं नाणमुज्जु सुयमस्स सोऽयमुज्जुसुओ। सुत्तयइ वा जमुजु वत्थु तेणुजुसुत्तो त्ति ॥ [विशेषाव० २२२२] ।
अयं हि वर्तमानं निजकं लिङ्ग-वचन-नामादिभिन्नमप्येकं वस्तु प्रतिपद्यते, शेषमवस्त्विति, तथाहि अतीतमेष्यद्वा न भावः, विनष्टानुत्पन्नत्वाददृश्यत्वात्, खपुष्पवत्, तथा परकीयमप्यवस्तु, निष्फलत्वात्, खकुसुमवत्, तस्माद्वर्त्तमानं स्वं वस्तु, तच्च न 25 १. तीति व्यव' जे१ खं० ॥
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
लिङ्गादिभिन्नमपि स्वरूपमुज्झति, लिङ्गभिन्नं तटस्तटी तटमिति, वचनभिन्नमापो जलम्, नामादिभिन्नं नाम - स्थापना - द्रव्य-भावभिन्नम्, आह च
तम्हा निजगं संपयकालीयं लिंग - वयणभिन्नं पि ।
नामादिभेयविहियं पडिवज्जइ वत्थुमुज्जुसुओ ॥ [ विशेषाव० २२२६]त्ति ४ । 5 तथा शपनं शपति वा असौ शप्यते वा तेन वस्त्विति शब्दः, तस्यार्थपरिग्रहादभेदोपचारान्नयोऽपि शब्द एव, यथा कृतकत्वादिलक्षणहेत्वर्थप्रतिपादकं पदं हेतुरेवोच्यत इति, आह च
सवणं सवइ स तेणं व सप्पए वत्थु जं तओ सो ।
तस्सऽत्थपरिग्गहओ नओ वि सद्दो त्ति हेतु व्व ॥ [ विशेषाव० २२२७] इति ।
10
अयं च नाम-स्थापना-द्रव्यकुम्भा न सन्त्येवेति मन्यते, तत्कार्याकरणात्, खपुष्पवत्, न च भिन्नलिङ्ग-वचनमेकम्, लिङ्ग-वचनभेदादेव, स्त्री-पुरुषवत् कुटा वृक्ष इत्यादिवत्, अतो घटः कुटः कुम्भ इति स्वपर्यायध्वनिवाच्यमेकमेवेति, आह च
तं चिरिउत्तमयं पच्चुप्पन्नं विसेसियतरं सो ।
15
६७०
25
इच्छइ भावघडं चिय जं न उ नामादओ तिन्नि ॥ [ विशेषाव० २२२८] ५ । तथा नानार्थेषु नानासंज्ञासमभिरोहणात् समभिरूढः, उक्तं चजं जं सन्नं भासइ तं तं चिय समभिरोहए जम्हा ।
घट
सन्नंतरत्थविमुहो तओ कओ समभिरूढो त्ति ॥ [ विशेषाव० २२३६] | अयं हि मन्यते— घट-कुटादयः शब्दा भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वाद्भिन्नार्थगोचराः, पटादिशब्दवत्, तथा च घटनात् घटो विशिष्टचेष्टावानर्थो घट इति, तथा कुट कौटिल्ये 20 [पा० धा० १३६७], कुटनात् कुट:, कौटिल्ययोगात् कुट इति घटोऽन्यः कुटोऽप्यन्य एवेति ६ । तथा यथा शब्दार्थ एवं पदार्थो भूतः सन्नित्यर्थोऽन्यथाभूतोऽसन्नितिप्रतिपत्तिपर एवंभूतो नयः, आह च
एवं जहसद्दत्थो संतो भूओ तयऽन्नहाऽभूओ ।
तेणेवंभूयनओ सद्दत्थपरो विसेसेणं ॥ [ विशेषाव० २२५१] ति ।
अयं हि योषिन्मस्तकव्यवस्थितं चेष्टावन्तमेवार्थं घटशब्दवाच्यं मन्यते, न स्थानभरणादिक्रियान्तरापन्नमिति, भवन्ति चात्र श्लोकाः
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५५३]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । शुद्धं द्रव्यं समाश्रित्य सङ्ग्रहस्तदशुद्धितः । नैगम-व्यवहारौ स्त: शेषा: पर्यायमाश्रिताः ।। अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते नैगमो नयः ॥ सद्रूपतानतिक्रान्तस्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्वं सगृह्णन् सङ्ग्रहो मतः ।। व्यवहारस्तु तामेव प्रतिवस्तु व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वाद् व्यवहारयति देहिनः ॥ तत्रर्जुसूत्रनीति: स्यात् शुद्धपर्यायसंस्थिता । नश्वरस्यैव भावस्य भावात् स्थितिवियोगतः ॥ अतीता-ऽनागता-ऽऽकार-कालसंस्पर्शवर्जितम् । वर्त्तमानतया सर्वमृजुसूत्रेण सूत्र्यते ॥ विरोधिलिङ्ग-सङ्ख्यादिभेदाद्भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं शब्दः प्रत्यवतिष्ठते ॥ तथाविधस्य तस्यापि वस्तुनः क्षणवृत्तिनः । ब्रूते समभिरूढस्तु संज्ञाभेदेन भिन्नताम् । एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नोपपद्यते । क्रियाभेदेन भिन्नत्वादेवंभूतोऽभिमन्यते ॥ [ ] इति । [सू० ५५३] संत्त सरा पन्नत्ता, तंजहासज्जे, रिसभे, गंधारे, मज्झिमे, पंचमे सरे । धेवते चेव, णेसादे, सरा सत्त वियाहिता ॥४७॥ एतेसि णं सत्तण्हं सराणं सत्त सरट्ठाणा पन्नत्ता, तंजहासज्नं तु अग्गजिब्भाते, उरेण रिसभं सरं । कंठुग्गतेण गंधारं, मज्झजिब्भाते मज्झिमं ॥४८॥ णासाते पंचमं बूया, दंतोट्टेण य रेवतं । मुद्धाणेण य णेसातं, सरट्ठाणा वियाहिता ॥४९॥
सत्त सरा जीवनिस्सिता पन्नत्ता, तंजहा१. तृतीये परिशिष्टे टिप्पनं द्रष्टव्यम् । तुलना- अनुयोगद्वार० सू० २६० ॥
25
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
5
सजं रवति मऊरो, कुक्कुडो रिसभं सरं । हंसो णदति गंधारं, मज्झिमं तु गवेलगा ॥५०॥ अह कुसुमसंभवे काले, कोइला पंचमं सरं । छटुं च सारसा कोंचा, णेसायं सत्तमं गतो ॥५१॥ सत्त सरा अजीवनिस्सिता पन्नत्ता, तंजहासजं रवति मुइंगो, गोमुही रिसभं सरं । संखो णदति गंधारं, मज्झिमं पुण झल्लरी ॥५२॥ चउचलणपतिट्ठाणा, गोहिया पंचमं सरं ।
आडंबरो रेवततं, महाभेरी य सत्तमं ॥५३॥ 10 एतेसि णं सत्तण्हं सराणं सत्त सरलक्खणा पत्नत्ता, तंजहा
सज्जेण लभति वित्तिं, कतं च ण विणस्सति । गावो मित्ता य पुत्ता य, णारीणं चेव वल्लभो ॥५४॥ रिसभेणं तु एसजं, सेणावच्चं धणाणि य ।
वत्थगंधमलंकारं, इथिओ सयणाणि त ॥५५॥ 15 गंधारे गीतजुत्तिण्णा, वज्जवित्ती कलाहिया ।
भवंति कतिणो पण्णा, जे अन्ने सत्थपारगा ॥५६॥ मज्झिमसरसंपन्ना, भवंति सुहजीविणो । खायती पियती देती, मज्झिमं सरमस्सितो ॥५७।।
पंचमसरसंपन्ना, भवंति पुढवीपती । 20 सूरा संगहकत्तारो, अणेगगणणातगा ॥५८॥
रेवतसरसंपन्ना, भवंति कलहप्पिया । साउणिता वग्गुरिता, सोयरिया मच्छबंधा य ॥५९॥ चंडाला मुट्ठिया मेता, जे अन्ने पावकम्मिणो ।
गोघातगा य जे चोरा, णेसातं सरमस्सिता ॥६०॥ ____ 25 एतेसिं णं सत्तण्हं सराणं तयो गामा पण्णत्ता, तंजहा-सज्जगामे,
___मज्झिमगामे, गंधारगामे ।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७३
[सू० ५५३]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । सजगामस्स णं सत्त मुच्छणातो पन्नत्ताओ, तंजहामंगी कोरव्वी या, हरी य रयणी य सारकंता य । छट्ठी य सारसी णाम, सुद्धसज्जा य सत्तमा ॥६१॥ मज्झिमगामस्स णं सत्त मुच्छणातो पन्नत्ताओ, तंजहाउत्तरमंदा रयणी, उत्तरा उत्तराससा । अस्सोकंता य सोवीरा, अभिरु हवति सत्तमा ॥२॥ गंधारगामस्स णं सत्त मुच्छणातो पन्नत्ताओ, तंजहाणंदी तु खुद्दिमा पूरिमा य चउत्थी य सुद्धगंधारा । उत्तरगंधारा वि त, पंचमिता हवति मुच्छा उ ॥६३।। सुटुत्तरमायामा, सा छट्ठी णियमसो उ णायव्वा । अह उत्तरायता कोडीमा त सा सत्तमी मुच्छा ॥६४॥ सत्त स्सरा कतो संभवंति ? गेयस्स का भवति जोणी ? । कतिसमता उस्सासा ? कति वा गेयस्स आगारा ? ॥६५॥ सत्त सरा णाभीतो, भवंति गीतं च रुन्नजोणीतं । पादसमता उस्सासा, तिन्नि य गीयस्स आगारा ॥६६॥ आइमिउ आरभंता, समुव्वहंता य मज्झगारम्मि । अवसाणे य खवेंता, तिन्नि य गेयस्स आगारा ॥६७॥ छ दोसे अट्ठ गुणे, तिनि य वित्ताई दो य भणितीओ । जाणाहिति सो गाहिति, सुसिक्खितो रंगमज्झम्मि ॥६८॥ भीतं दुतं रहस्सं, गायतो मा त गाहि उत्तालं । काकस्सरमणुनासं च, होति गेयस्स छ दोसा ॥६९॥ पुण्णं रत्तं च अलंकियं च, वत्तं तथा अविघुटुं । मधुरं सम सुकुमारं, अट्ठ गुणा होंति गेयस्स ॥७०॥ उर-कंठ-सिरपसत्थं च, गिजते मउअ-रिभितपदबद्धं । समताल-पडुक्खेवं, सत्तस्सरसीभरं गेयं ॥७१॥
25
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
5
15
६७४
25
10 सामा गायती मधुरं, काली गायति खरं च रुक्खं च । गोरी गातति चउरं, काण विलंबं दुतं अंधा ॥ विस्सरं पुण पिंगला ॥७६॥
तंतिसमं तालसमं, पादसमं लयसमं गहसमं च । नीससिऊससितसमं, संचारसमा सरा सत्त ॥७७॥ सत्त सरा ततो गामा, मुच्छणा एकविंसती । ताणा एकूणपण्णासा, संमत्तं सरमंडलम् ॥७८॥
[ टी०] अथ कथं सप्त नयशतान्यसङ्ख्या वा नयाः सप्तसु नयेष्वन्तर्भवन्तीति ?, उच्यते, यथा वक्तृविशेषादसङ्ख्येया अपि स्वराः सप्तसु स्वरेष्विति स्वराणामेव स्वरूपप्रतिपादनाय सत्त सरेत्यादि स्वरप्रकरणमाह, सुगमं चेदम्, नवरं स्वरणानि स्वराः 20 शब्दविशेषाः । सज्जेत्यादिश्लोकाः, षड्भ्यो जात: षड्ज:, उक्तं हि-नासां कण्ठमुरस्तालु जिह्वां दन्तांश्च संश्रितः ।
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
निद्दोसं सारवंतं च, हेउजुत्तमलंकियं । उवणीतं सोवयारं च, मितं मधुरमेव य ॥७२॥ सममद्धसमं चेव, सव्वत्थ विसमं च जं । तिन्नि वित्तप्पयाराई, चउत्थं नोपलब्भती ॥ ७३ ॥
सक्कता पागता चेव, दुविधा भणितीओ आहिता । सरमंडलम्मि गिज्जंते, पसत्था इसिभासिता ||७४ || केसी गातति मधुरं, केसी गातति खरं च रुक्खं च । केसी गायति चउरं, केसी विलंबं दुतं केसी ॥ विस्सरं पुण केरिसी ? ॥७५॥
षड्भिः सञ्जायते यस्मात्तस्मात् षड्ज इति स्मृतः ॥ [
तथा ऋषभो वृषभस्तद्वद् यो वर्त्तते स ऋषभ इति, आह चवायुः समुत्थितो नाभेः कण्ठशीर्षसमाहतः ।
नर्द्दत्यृषभवद् यस्मात् तस्मादृषभ उच्यते ॥
१. नीससियऊससियसमं भां० ॥
[ ]
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तममध्ययन सप्तस्थानकम् ।
[सू० ५५३]
तथा गन्धो विद्यते यत्र स गन्धारः, स एव गान्धारः, गन्धवाहविशेष: इत्यर्थः, अभाणि हिवायुः समुत्थितो नाभे: कण्ठशीर्षसमाहत: । नानागन्धावहः पुण्यो गान्धारस्तेन हेतुना ॥ [ ] तथा मध्ये कायस्य भवो मध्यम:, यदवाचिवायुः समुत्थितो नाभेरुरोहृदि समाहतः । नाभिं प्राप्तो महानादो मध्यमत्वं समश्नुते ॥ [ ]
तथा पञ्चानां षड्जादिस्वराणां निर्देशक्रममाश्रित्य पूरण: पञ्चमः, अथवा पञ्चसु नाभ्यादिस्थानेषु मातीति पञ्चम: स्वरः, यदभ्यधायि
वायुः समुत्थितो नाभेरुरोहत्कण्ठशिरोहतः । पञ्चस्थानोत्थितस्यास्य पञ्चमत्वं विधीयते ॥ [ ] तथा अभिसन्धयते अनुसन्धयति शेषस्वरानिति निरुक्तिवशाद् धैवत:, यदुक्तम्अभिसन्धयते यस्मादेतान् पूर्वोत्थितान् स्वरान् ।। तस्मादस्य स्वरस्यापि धैवतत्वं विधीयते ॥ [ ] पाठान्तरेण रेवतश्चैवेति । तथा निषीदन्ति स्वरा यस्मिन् स निषादः, यतोऽभिहितम्
___15 निषीदन्ति स्वरा यस्मान्निषादस्तेन हेतुना । सर्वांश्चाभिभवत्येष यदादित्योऽस्य दैवतम् ॥ [ ] इति । तदेवं स्वराः सप्त वियाहिय त्ति व्याख्याता: । ननु कार्यं हि कारणायत्तम्, जिह्वा च स्वरस्य कारणम्, सा चासङ्ख्येयरूपा तत: कथं स्वराणां सङ्ख्यातत्वमिति, उच्यते, असङ्ख्याता अपि विशेषत: स्वरा: सामान्यत: सर्वेऽपि सप्तस्वन्तर्भवन्ति, अथवा 20 स्थूरस्वरान् गीतं वाश्रित्य सप्त उक्ताः, आह च
कज्ज करणायत्तं जीहा य सरस्स ता असंखेज्जा । सरसंखमसंखेजा करणस्सासंखयत्ताओ ।। सत्त य सुत्तनिबद्धा कह न विरोहो ? ततो गुरू आह ।
सत्तणुवाई सव्वे बायरगहणं च गेयं वा ॥ [ ] इति । १. असंख' जेमू१ ॥
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे स्वरान्नामतोऽभिधाय कारणतस्तन्निरूपणायोपक्रमते- एएसि णमित्यादि, तत्र नाभिसमुत्थ: स्वरोऽविकारी आभोगेन अनाभोगेन वा यं प्रदेशं प्राप्य विशेषमासादयति तत् स्वरस्योपकारकमिति स्वरस्थानमुच्यते। सज्जमित्यादिश्लोकद्वयम्, ब्रूयादिति सर्वत्र क्रिया, षड्जं तु प्रथमस्वरमेव, अग्रभूता जिह्वा अग्रजिह्वा जिह्वाग्रमित्यर्थः, तया, 5 यद्यपि षड्जभणने स्थानान्तराण्यपि व्याप्रियन्ते अग्रजिह्वा वा स्वरान्तरेषु व्याप्रियते
तथापि सा तत्र बहुतरव्यापारवतीति कृत्वा तया तमेव ब्रूयादित्यभिहितम्, उरो वक्षस्तेन ऋषभस्वरम्, कंठुग्गएणं ति कण्ठश्चासावुग्रकश्च उत्कट: कण्ठोग्रकस्तेन कण्ठस्य वोग्रत्वं यत्तेन कण्ठोग्रत्वेन कण्ठाद्वा यदुद्गतम् उद्गति: स्वरोद्गमलक्षणा क्रिया तेन कण्ठोद्गतेन
गान्धारम्, जिह्वाया मध्यो भागो मध्यजिह्वा, तया मध्यमम्; तथा दन्ताश्च ओष्ठौ 10 च दन्तोष्ठं तेन धैवतं रेवतं वेति । __जीवनिस्सिय त्ति जीवाश्रिता: जीवेभ्यो वा नि:सृता निर्गताः । सज्जमित्यादिश्लोकः, नदति रौति, गवेलग त्ति गावश्च एलकाश्च ऊरणका गवेलका:, अथवा गवेलका ऊरणका एव इति । अह कुसुम इत्यादिरूपकं गाथाभिधानम्,
विषमाक्षरपादं वा पादैरसमं दशधर्मवत् । 15 तन्त्रेऽस्मिन् यदसिद्ध गाथेति तत् पण्डितै या ॥ [ ] इति वचनात् ।
अथेति विशेषार्थः, विशेषार्थता चैवम्- यथा गवेलका अविशेषेण मध्यमं स्वरं नदन्ति न तथा कोकिला: पञ्चमम्, अपि तु कुसुमसम्भवे काल इति । कुसुमानां बाहुल्यतो वनस्पतिषु सम्भवो यस्मिन् स तथा तत्र, मधावित्यर्थः । अजीवनिस्सिय
त्ति तथैव, नवरं जीवप्रयोगादेत इति । सजमित्यादि श्लोकः, मृदङ्गो मर्दल:, गोमुखी 20 काहला यतस्तस्या मुखे गोशृङ्गमन्यद्वा क्रियत इति, चउ इत्यादिश्लोकः, चतुर्भिश्चरणैः
प्रतिष्ठानं भुवि यस्याः सा तथा, गोधाचर्मणा अवनद्धेति गोधिका वाद्यविशेषो दईरिकेति यत्पर्याय:, आडम्बरः पटहः, सप्तममिति निषादम् ।।
एएसि णमित्यादि, सत्त त्ति स्वरभेदात् सप्त स्वरलक्षणानि यथास्वं फलं प्रति प्रापणाव्यभिचारीणि स्वरस्वरूपाणि भवन्ति, तान्येव फलत आह–सजेणेत्यादि श्लोका: १. गंधारं पा० जे२ ॥ २. दंतौष्ठं पा० जे२ ॥ ३. विशेषणार्थः जे१ ॥ ४. स्वरसरूपाणि जे१ ॥
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
10
[सू० ५५३] सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् ।
६७७ सप्त, षड्जेन लभते वृत्तिम्, अयमर्थ:- षड्जस्येदं लक्षणं स्वरूपमस्ति येन वृत्तिं जीवनं लभते षड्जस्वरयुक्तः प्राणी, एतच्च मनुष्यापेक्षया लक्ष्यते, मनुष्यलक्षणत्वादस्येति, कृतं च न विनश्यति तस्येति शेषः, निष्फलारम्भो न भवतीत्यर्थः, गावो मित्राणि च पुत्राश्च भवन्तीति शेष: । एसजं ति ऐश्वर्यं गन्धारे गीतयुक्तिज्ञा: वर्यवृत्तय: प्रधानजीविका: कलाभिरधिका: कवय: काव्यकारिण: 5 प्राज्ञाः सद्बोधाः, ये च उक्ते भ्यो गीतयुक्तिज्ञादिभ्योऽन्ये शास्त्रपारगाः धनुर्वेदादिपारगामिनस्ते भवन्तीति । शकुनेन श्येनलक्षणेन चरन्ति पापद्धिं कुर्वन्ति शकुनान् वा घ्नन्ति शाकुनिकाः, वागुरा मृगबन्धनम्, तया चरन्तीति वागुरिका:, शूकरेण शूकरवधार्थं चरन्तीति शूकरान् वा घ्नन्तीति शौकरिका:, मौष्टिका मल्ला इति।
एतेषामित्यादि, तत्र व्याख्यानगाथासजाइ तिहा गामो स समूहो मुच्छणाण विण्णेओ । ता सत्त एक्कमेक्के तो सत्त सराण इगवीसा । अन्नन्नसरविसेसे उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया । कत्ता व मुच्छिओ इव कुणई मुच्छं व सो व त्ति ॥ [ ]
कर्ता वा मूर्च्छित इव करोति, मूर्च्छन्निव वा स कर्तेत्यर्थः, इह च मङ्गीप्रभृतीनामेकविंशतिमूर्च्छनानां स्वरविशेषा: पूर्वगते स्वरप्राभृते भणिता:, अधुना तु तद्विनिर्गतेभ्यो भरत-वैशाखिलादिशास्त्रेभ्यो विज्ञेया इति ।
सत्तस्सरा कओ गाहा, इह चत्वारः प्रश्नाः, तत्र कुत इति स्थानात्, का योनिरिति का जाति:, तथा कति समया येषु ते कतिसमयाः उच्छ्वासा: किंपरिमाणकाला 20 इत्यर्थः, तथाऽऽकारा: आकृतयः स्वरूपाणीत्यर्थः । सत्त सरा गाहा प्रश्ननिर्वचनार्था स्पष्टा, नवरं रुदितं योनिः जाति: समानरूपतया यस्य तद् रुदितयोनिकम्, पादसमया उच्छ्वासा यावद्भिः समयैः पादो वृत्तस्य नीयते तावत्समया उच्छ्वासा गीते भवन्तीत्यर्थः। आकारानाह- आइ गाहा, आदौ प्राथम्ये मृदु कोमलमादिमृदु गीतमिति गम्यते, आरभमाणाः, इह समुदितत्रयापेक्षं बहुवचनमन्यथा एक एव आकारो द्वयमन्यद् 25 १. सूक जे१ । एवमग्रेऽपि ॥
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
वक्ष्यमाणलक्षणमिति, तथा समुद्वहन्तश्च महत्तां गीतध्वनेरिति गम्यते, मध्यकारे मध्यभागे, तथा अवसाने च क्षपयन्तो गीतध्वनिं मन्द्रीकुर्वन्तस्त्रयो गीतस्याकारा भवन्ति, आदि-मध्या-ऽवसानेषु गीतध्वनि: मृदु-तार-मन्द्रस्वभाव: क्रमेण भवतीति
भावः । 5 किञ्चान्यत्– छ दोसे दारगाहा, षट् दोषा वर्जनीया:, तानाह– भीयं गाहा, भीतं त्रस्तमानसम् १, द्रुतं त्वरितम् २, रहस्सं ति हस्वस्वरं लघुशब्दमित्यर्थः, पाठान्तरेण उप्पित्थं श्वासयुक्तम् ३, उत्तालम् उत् प्राबल्यार्थे इत्यतितालमस्थानतालं वा, तालस्तु कंशिकादिशब्दविशेष इति ४, काकस्वरं श्लक्ष्णाश्रव्यस्वरम्, अनुनासं च सानुनासिकं
नासिकाकृतस्वरमित्यर्थः, किमित्याह- गायन् गानप्रवृत्तस्त्वं हे गायन ! मा गासी:, 10 किमिति ?, यत एते गेयस्य षट् दोषा इति ।
अष्टौ गुणानाह– पुन्नं गाहा, पूर्ण स्वरकलाभि: १, रक्तं गेयरागेणानुरक्तस्य २, अलङ्कृतमन्यान्यस्वरविशेषाणां स्फुटशुभानां करणात् ३, व्यक्तमक्षरस्वरस्फुटकरणत्वात् ४, अविघुटुं विक्रोशनमिव यन्न विस्वरम् ५, मधुरं मधुरस्वरं कोकिलारुतवत् ६,
समं ताल-वंशस्वरादिसमनुगतम् ७, सुकुमारं ललितं ललतीव यत् स्वरघोलनाप्रकारेण 15 शब्दस्पर्शनेन श्रोत्रेन्द्रियस्य सुखोत्पादनाद्वेति ८, एभिरष्टाभिर्गुणैर्युक्तं गेयं भवति, अन्यथा
विडम्बना । किञ्चान्यत्- उर गाहा, उर:-कण्ठ-शिर:सु प्रशस्तं विशुद्धम्, अयमर्थःयधुरसि स्वरो विशालस्तत उरोविशुद्धम्, कण्ठे यदि स्वरो वर्तितोऽस्फुटितश्च तत: कण्ठविशुद्धम्, शिरसि प्राप्तो यदि नानुनासिकस्तत: शिरोविशुद्धम्, अथवा उर:
कण्ठ-शिर:सु श्लेष्मणा अव्याकुलेषु विशुद्धेषु प्रशस्तेषु यत्तत्तथेति, चकारो 20 गेयगुणान्तरसमुच्चये, गीयते उच्चार्यते गेयमिति सम्बध्यते, किंविशिष्टमित्याह- मृदुकं
मधुरस्वरं रिभितं यत्राक्षरेषु घोलनया संचरन् स्वरो रङ्गतीव, घोलनाबहुलमित्यर्थः, पदबद्धं गेयपदैर्निबद्धमिति, पदत्रयस्य कर्मधारयः, समतालपडुक्खेवं ति समशब्द: प्रत्येकं सम्बध्यते, तेन समास्ताला हस्तताला उपचारात् तद्रवो यस्मिंस्तत् समतालं तथा सम: प्रत्युत्क्षेप: प्रतिक्षेपो वा मुरज-कंशिकाद्यातोद्यानां यो ध्वनिस्तल्लक्षण: १. “अक्षरस्वरस्फुटकरणाद् व्यक्तम्' इति अनुयोगद्वारस्य [सू० २६०] हे० वृत्तौ पृ० ३१४ ॥
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५५३] . सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । नृत्यत्पदक्षेपलक्षणो वा यस्मिंस्तत्समप्रत्युत्क्षेपं समप्रतिक्षेपं वेति । तथा सत्तसरसीभरं ति सप्त स्वरा: सीभरं ति अक्षरादिभि: समा यत्र तत् सप्तस्वरसीभरम्, ते चामी
अक्खरसमं १ पयसमं २ तालसमं ३ लयसमं ४ गहसमं च ५। नीससिऊससियसमं ६ संचारसमं ७ सरा सत्त ॥ [अनुयोग० सू० २६० [१०]] त्ति ।
इयं च गाथा स्वरप्रकरणोपान्ते तंतिसममित्यादिरधीतापि इहाऽक्षरसममित्यादिः 5 व्याख्यायते, अनुयोगद्वारटीकायामेवमेव दर्शनादिति, तत्र दीर्घ अक्षरे दीर्घः स्वर: क्रियते हस्वे ह्रस्व: प्लुते प्लुत: सानुनासिके सानुनासिकः तदक्षरसमम्, तथा यद् गेयपदं नामिकादिकमन्यतरबन्धेन बद्धं यत्र स्वरे अनुपाति भवति तत्तत्रैव यत्र गीते गीयते तत् पदसममिति, यत् परस्पराहतहस्ततालस्वरानुवर्त्ति भवति तत्तालसमम्, शृङ्गदार्वाद्यन्यतरमयेनाङ्गुलिकोशकेनाहतायास्तन्त्र्या: स्वरप्रकारो लयस्तमनुसरतो गातुर्यद् 10 गेयं तल्लयसमम्, प्रथमतो वंश-तन्त्र्यादिभिर्य: स्वरो गृहीतस्तत्समं गीयमानं ग्रहसमम्, नि:श्वसितोच्छसितमानमनतिक्रामतो यद् गेयं तन्नि:श्वसितोच्छ्वसितसमम्, तैरेव वंश-तन्त्र्यादिभिर्यदङ्गुलिसञ्चारसमं गीयते तत् सञ्चारसमम्, गेयं च सप्त स्वरास्तदात्मकमित्यर्थः ।
यो गेये सूत्रबन्ध: स एवमष्टगुण एव कार्य इत्याह- निद्दोसं सिलोगो, तत्र निर्दोषम् 15 अलियमुवघायजणयं [आव० नि० ८८१-८८४, बृहत्कल्प० २७८-२८१] इत्यादिद्वात्रिंशत्सूत्रदोषरहितम् १, सारवद् अर्थेन युक्तम् २, हेतुयुक्तम् अर्थगमककारणयुक्तम् ३, अलङ्कृतं काव्यालङ्कारयुक्तम् ४, उपनीतम् उपसंहारयुक्तम् ५, सोपचारम् अनिष्ठुराविरुद्धालज्जनीयाभिधानं सोत्प्रासं वा ६, मितं पद-पादा-ऽक्षरैः, नापरिमितमित्यर्थः ७, मधुरम् त्रिधा शब्दा-ऽर्था-ऽभिधानतः ८, गेयं भवतीति शेष:। 20 __तिनि य वित्ताई ति यदुक्तं तद्व्याख्या- समं सिलोगो, तत्र समं पादैरक्षरैश्च, तत्र पादैश्चतुर्भिरक्षरैस्तु गुरुलघुभिः, अर्द्धसमं त्वेकतरसमम्, विषमं तु सर्वत्र पादाक्षरापेक्षयेत्यर्थः, अन्ये तु व्याचक्षते- समं यत्र चतुर्ध्वपि पादेष समान्यक्षराणि. अर्द्धसमं यत्र प्रथम-तृतीययोर्द्वितीय-चतुर्थयोश्च समत्वम्, तथा सर्वत्र सर्वपादेषु विषमं १. "त्पाद पा० जे२ ॥ २. 'त्यादिः कृत्वा व्या जेमू१ ।। ३. पृ०३०९॥४. °सममिति गेयं जे१ ।। ५. पदपदा जे१॥
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८०
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे च विषमाक्षरं यद् यस्माद् वृत्तं भवति ततस्त्रीणि वृत्तप्रजातानि पद्यप्रकारा:, अत एव चतुर्थं नोपलभ्यत इति ।
दोन्नि य भणिईओ त्ति, अस्य व्याख्या- सक्कया सिलोगो, भणिति: भाषा आहिया आख्याता स्वरमण्डले षड्जादिस्वरसमूहे, शेष कण्ठ्यम् । कीदृशी स्त्री 5 कीदृशं गायतीति प्रश्नमाह- केसी गाहा, केसि त्ति कीदृशी खरं ति खरस्थानं रूक्षं प्रसिद्धं चतुरं दक्षं विलम्बं परिमन्थरं द्रुतं शीघ्रमिति । विस्सरं पुण केरिसि त्ति गाथाधिकमिति । उत्तरमाह- सामा गाहा कण्ठ्या, पिंगल त्ति कपिला । __तंति गाहा, तन्त्रीसमं वीणादितन्त्रीशब्देन तुल्यं मिलितं च, शेषं प्राग्वत्, नवरं
पादो वृत्तपादः, तन्त्रीसममित्यादिषु गेयं सम्बन्धनीयम्, तथा गेयस्य स्वरानन्तरत्वादुक्तं 10 संचारसमा सरा सत्त त्ति, अन्यथा सञ्चारसममिति वाच्यं स्यात्, तंतिसमा तालसमेत्यादि
वेति ।
अयं च स्वरमण्डलसक्षेपार्थः- सत्त सरा सिलोगो, तता तन्त्री सानो भण्यते, तत्र षड्जादि: स्वर: प्रत्येकं सप्तभिस्तानैर्गीयत इत्येवमेकोनपञ्चाशत् ताना: सप्ततन्त्रीकायां
वीणायां भवन्तीति, एवमेकतन्त्रीकायां त्रितन्त्रीकायां च, कण्ठेनापि गीयमाना 15 एकोनपञ्चाशदेवेति ।
[सू० ५५४] सत्तविधे कायकिलेसे पन्नत्ते, तंजहा-ठाणातिते, उक्कुडुयासणिते, पडिमट्ठाती, वीरासणिते, णेसजिते, दंडायतिए, लगंडसाती ।
[टी०] अनन्तरं गानतो लौकिक: कायक्लेश उक्तोऽधुना लोकोत्तरं तमेवाहसत्तविहेत्यादि, प्राय: प्रांगेव व्याख्यातमिदं तथापि किञ्चिल्लिख्यते, कायस्य शरीरस्य 20 क्लेश: खेद: पीडा कायक्लेशो बाह्यतपोविशेष:, स्थानायतिक: स्थानातिग:
स्थानातिदो वा कायोत्सर्गकारी, इह च धर्मधर्मिणोरभेदादेवमुपन्यास:, अन्यथा कायक्लेशस्य प्रक्रान्तत्वात् स एव वाच्य: स्यात्, न तद्वान्, इह तु तद्वानिर्दिष्ट इति, एवं सर्वत्र, उत्कुटुकासनिकः प्रतीतः, तथा प्रतिमास्थायी भिक्षुप्रतिमाकारी,
वीरासनिको य: सिंहासननिविष्ट इवाऽऽस्ते, नैषधिकः समपद-पुतादिनिषद्योपवेशी, 25 दण्डायतिकः प्रसारितदेहः, लगण्डशायी भूम्यलग्नपृष्ठः ।
१. सू० ३९६ ॥
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५५५] सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् ।
६८१ [सू० ५५५] जंबुद्दीवे दीवे सत्त वासा पन्नत्ता, तंजहा-भरहे, एरवते, हेमवते, हेरन्नवते, हरिवासे, रम्मगवासे, महाविदेहे । __ जंबुद्दीवे दीवे सत्त वासहरपव्वता पन्नत्ता, तंजहा-चुल्लहिमवंते, महाहिमवंते, निसढे, नीलवंते, रुप्पी, सिहरी, मंदरे ।
जंबुद्दीवे दीवे सत्त महानदीओ पुरत्थाभिमुहीओ लवणसमुदं समप्पेंति, 5 तंजहा-गंगा, रोहिता, हिरी, सीता, णरकंता, सुवण्णकूला, रत्ता ।
जंबुद्दीवे दीवे सत्त महानदीओ पच्चत्थाभिमुहीओ लवणसमुदं समति, तंजहा-सिंधू, रोहितंसा, हरिकंता, सीतोदा, णारिकंता, रुप्पकूला, रत्तावती।
धायइसंडदीवपुरत्थिमद्धे णं सत्त वासा पनत्ता, तंजहा-भरहे जाव महाविदेहे। धायइसंडदीवपुरत्थिमद्धे णं सत्त वासहरपव्वता पन्नत्ता, तंजहा-चुल्लहिमवंते 10 जाव मंदरे ।
धायइसंडदीवपुरत्थिमद्धे णं सत्त महानदीओ पुरत्थाभिमुहीओ कालोदसमुदं समप्पेंति, तंजहा-गंगा जाव रत्ता ।
धायइसंडदीवपुरथिमद्धे णं सत्त महानदीओ पच्चत्थाभिमुहीओ लवणसमुदं समप्येति, तंजहा-सिंधू जाव रत्तावती ।
धायइसंडदीवपच्चत्थिमद्धे णं सत्त वासा एवं चेव, णवरं पुरत्थाभिमुहीओ लवणसमुदं समप्पेंति, पच्चत्थाभिमुहीओ कालोदं, सेसं तं चेव ।
पुक्खरवरदीवड्डपुरत्थिमद्धे णं सत्त वासा तहेव, णवरं पुरत्थाभिमुहीओ पुक्खरोदं समुदं समप्पेंति, पच्चत्थाभिमुहीतो कालोदं समुदं समप्पेंति, सेसं तं चेव। एवं पच्चत्थिमद्धे वि, णवरं पुरत्थाभिमुहीओ कालोदं समुदं समप्पेंति, 20 पच्चत्थाभिमुहीओ पुक्खरोदं समुदं समप्यति, सव्वत्थ वासा वासहरपव्वता णदीओ य भाणितव्वाणि ।
[टी०] इदं च कायक्लेशरूपं तपो मनुष्यलोक एवास्तीति तत्प्रतिपादनपरं जंबुद्दीवेत्यादि प्रकरणम्, गतार्थं चैतत् ।। १. जंबूदी जे१ । जंबुदी' पामू० ॥
15
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ५५६] जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तीताते उस्सप्पिणीते सत्त कुलकरा होत्था, तंजहा
मित्तदामे सुदामे य सुपासे य सयंपभे ।
विमलघोसे सुघोसे य महाघोसे य सत्तमे ॥७९॥ 5 जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीते सत्त कुलकरा होत्था, तंजहा
पढमित्थ विमलवाहण चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे । तत्तो पसेणती पुण मरुदेवे चेव नाभी य ॥८०॥
एतेसि णं सत्तण्हं कुलकराणं सत्त भारियाओ होत्था, तंजहा10
चंदजसा चंदकंता सुरूव पडिरूव चक्खुकंता य । सिरिकंता मरुदेवा कुलकरइत्थीण नामाइं ॥८१॥
जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमेसाते उस्सप्पिणीते सत्त कुलकरा भविस्संति, तंजहा
मित्तवाहणे सुभोमे य सुप्पभे य सयंपभे । 15 दत्ते सुहुमे सुबंधू य आगमेसेण होक्खती ॥८२॥
विमलवाहणे णं कुलकरे सत्तविधा रुक्खा उवभोगत्ताते हव्वमागच्छिंसु, तंजहा
मत्तंगता त भिंगा चित्तंगा चेव होंति चित्तरसा ।
मणियंगा त अणियणा सत्तमगा कप्परुक्खा य ॥८३॥ 20 [सू० ५५७] सत्तविधा दंडनीती पन्नत्ता, तंजहा-हक्कारे, मक्कारे, धिक्कारे, परिभासे, मंडलबंधे, चारते, छविच्छेदे । - [सू० ५५८] एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवहिस्स सत्त एगिदियरतणा
पन्नत्ता, तंजहा-चक्करतणे, छत्तरयणे, चम्मरयणे, दंडरतणे, असिरतणे, .. मणिरयणे, काकणिरतणे । 25 एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स सत्त पंचेंदियरतणा पन्नत्ता, तंजहा
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८३
[सू० ५५६-५५९]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । सेणावतीरतणे, गाहावतिरतणे, वडतिरयणे, पुरोहितरयणे, इत्थिरतणे, आसरतणे, हत्थिरयणे ।।
[सू० ५५९] सत्तहिं ठाणेहिं ओगाढं दुस्समं जाणेज्जा, तंजहा-अकाले वरिसइ, काले ण वरिसइ, असाधू पुजंति, साधू ण पुजंति, गुरूहि जणो मिच्छं पडिवन्नो, मणोदुहता, वतिदुहता ।
सत्तहिं ठाणेहिं ओगाढं सुसमं जाणेज्जा, तंजहा-अकाले न वरिसइ, काले वरिसति, असाधू ण पुजंति, साधू पुजंति, गुरूहिं जणो सम्म पडिवन्नो, मणोसुहता, वतिसुहता ।
टी०] मनुष्यक्षेत्राधिकारात्तद्गतकुलकर-कल्पवृक्ष-नीति-रत्न-दुष्षमादिलिङ्गसूत्राणि, पाठसिद्धानि चैतानि, नवरम् आगमिस्सेण होक्खइ त्ति आगमिष्यता कालेन हेतुना 10 भविष्यतीत्यर्थः, तथा विमलवाहने प्रथमकुलकरे सति सप्तविधा इति पूर्वं दशविधा अभूवन्, रुक्ख त्ति कल्पवृक्षाः, उवभोगत्ताए त्ति उपभोग्यतया हव्वं शीघ्रमागतवन्त:, भोजनादिसम्पादनेनोपभोगं तत्कालीनमनुष्याणामागता इत्यर्थः ।
मत्तंगया य गाहा, मत्तंगया इति मत्तं मदस्तस्य कारणत्वान्मद्यमिह मत्तशब्देनोच्यते, तस्याङ्गभूता: कारणभूताः, तदेव वाऽङ्गम् अवयवो येषां ते मत्ताङ्गकाः, 15 सुखपेयमद्यदायिन इत्यर्थः, चकार: पूरणे, भिंग त्ति संज्ञाशब्दत्वाद् भृङ्गारादिविविधभाजनसम्पादका भृङ्गाः, चित्तंग त्ति चित्रस्य अनेकविधस्य माल्यस्य कारणत्वाच्चित्राङ्गाः, चित्तरस त्ति चित्रा विचित्रा रसा मधुरादयो मनोहारिणो येभ्य: सकाशात् सम्पद्यन्ते ते चित्ररसा:, मणियंग त्ति मणीनाम् आभरणभूतानामङ्गभूताः कारणभूता: मणयो वा अङ्गानि अवयवा येषां ते मण्यङ्गाः, भूषणसम्पादका इत्यर्थः, 20 अणियण त्ति अनग्नकारकत्वादनना विशिष्टवस्त्रदायिनः, संज्ञाशब्दो वाऽयमिति, कप्परुक्ख त्ति उक्तव्यतिरिक्तसामान्यकल्पितफलदायित्वेन कल्पना कल्पस्तत्प्रधाना वृक्षा: कल्पवृक्षा इति । __दंडनीइ त्ति दण्डनं दण्ड: अपराधिनामनुशासनम्, तत्र तस्य वा स एव वा नीति: नयो दण्डनीति:, हक्कारे त्ति ह इत्यधिक्षेपार्थस्तस्य करणं हक्कारः, अयमर्थ:- प्रथम- 25
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
द्वितीयकुलकरकालेऽपराधिनो दण्डो हक्कारमात्रम्, तेनैवासौ हृतसर्वस्वमिवात्मानं मन्यमानः पुनरपराधस्थाने न प्रवर्त्तत इति तस्य दण्डनीतिता, एवं मा इत्यस्य निषेधार्थस्य करणम् अभिधानं माकारः, तृतीय- चतुर्थकुलकरकाले महत्यपराधे माकारो दण्डः इतरत्र तु पूर्व एवेति, तथा धिगधिक्षेपार्थ एव तस्य करणम् उच्चारणं धिक्कारः, पञ्चम-षष्ठ5 सप्तमकुलकरकाले महापराधे धिक्कारो दण्डो जघन्य - मध्यमापराधयोस्तु क्रमेण हक्कारमाकाराविति, आह च
पढम-बीयाण पढमा तइय-चउत्थाण अभिनवा बीया ।
पंचम - छट्ठस्स य सत्तमस्स तइया अभिणवा उ ।। [ आव० नि० १६८ ] इति ।
तथा परिभाषणं परिभाषा अपराधिनं प्रति कोपाविष्कारेण मा यासीरित्यभिधानम्, 10 तथा मण्डलबन्धो मण्डलम् इङ्गितं क्षेत्रम्, तत्र बन्धो नास्मात् प्रदेशाद् गन्तव्यमित्येवं वचनलक्षणम्, पुरुषमण्डलपरिवारणलक्षणो वा, चारकम् गुप्तिगृहम्, छविच्छेदो हस्त-पाद-नासिकादिच्छेदः, इयमनन्तरा चतुर्विधा भरतकाले बभूव, चतसृणामन्त्यानामाद्यद्वयमृषभकाले अन्यत् तु भरतकाले इत्यन्ये, आह च
15
६८४
20
परिभासणा उ पढमा मंडलिबंधम्मि होइ बीया उ ।
चारग- छविछेदादी भरहस्स चउव्विहा नीई || [ आव० भा० ३] इति ।
] इति वचनात्
चक्करयणेत्यादि, रत्नं निगद्यते तत् जातौ जातौ यदुत्कृष्टम् [ चक्रादिजातिषु यानि वीर्यत उत्कृष्टानि तानि चक्ररत्नादीनि मन्तव्यानि, तत्र चक्रादीनि सप्तैकेन्द्रियाणि पृथिवीपरिणामरूपाणि तेषां च प्रमाणम्
चक्कं छत्तं दंडोतिन्नि वि एयाइं वामतुल्लाई ।
चम्मं दुहत्थदीहं बत्तीसं अंगुलाई असी ॥
चउरंगुलो मणी पुण तस्सद्धं चेव होइ वित्थिन्नो ।
चउरंगुलप्पमाणा सुवन्नवरकागणी नेया ॥ [ बृहत्सं० ३०१-२]
सेनापतिः सैन्यनायकः, गृहपतिः कोष्ठागारनियुक्तः, वर्द्धकी सूत्रधारः, पुरोहितः शान्तिकर्मकारीति, चतुर्दशाप्येतानि प्रत्येकं यक्षसहस्राधिष्ठितानीति ।
१. अन्ये तु जे२ । अन्यत्तु नीतिद्वयमित्यर्थः । ' अन्ये तु द्वे नीती' इत्यर्थः ॥
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तममध्ययन सप्तस्थानकम् ।
[सू० ५६०-५६१]
६८५ ओगाढं ति अवतीर्णाम् अवगाढां वा प्रकर्षप्राप्तामिति । अकाल: अवर्षाः । असाधवः असंयताः । गुरुषु माता-पितृ-धर्माचार्येषु मिच्छं मिथ्याभावं विनयभ्रंशमित्यर्थः प्रतिपन्नः आश्रितः । मणोदुहय त्ति मनसो मनसा वा दुःखिता दुःखितत्वं दुःखकारित्वं वा द्रोहकत्वं वा, एवं वइदुहयेत्यपि व्याख्येयमिति । सम्म ति सम्यग्भावं विनयमित्यर्थः।
[सू० ५६०] सत्तविधा संसारसमावनगा जीवा पन्नत्ता, तंजहा-नेरतिता, तिरिक्खजोणिता, तिरिक्खजोणिणीतो, मणुस्सा, मणुस्सीओ, देवा, देवीओ।
[टी०] एते च दुष्षमा-सुषमे संसारिणां दु:खाय सुखाय चेति संसारिप्ररूपणायाहसत्तेत्यादि कण्ठ्यम् । [सू० ५६१] सत्तविधे आउभेदे पन्नत्ते, तंजहाअज्झवसाण-निमित्ते आहारे वेयणा-पराघाते । फासे आणापाणू सत्तविधं भिज्जए आउं ॥८४॥ [टी०] संसारिणां च संसरणम् आयुर्भेदे सति भवतीति दर्शनायाह- सत्तेत्यादि, तत्र आउयभेदे त्ति आयुषो जीवितव्यस्य भेदः उपक्रम: आयुर्भेदः, स च सप्तविधनिमित्तप्रापितत्वात् सप्तविध एवेति । अज्झवसाण गाहा, अध्यवसानं राग- 15 स्नेह-भयात्मकोऽध्यवसायो निमित्तं दण्ड-कश-शस्त्रादीति समाहारद्वन्द्वः, तत्र सति आयुर्भिद्यत इति सम्बन्धः, तथा आहारे भोजनेऽधिके सति, तथा वेदना नयनादिपीडा, पराघातो गर्तपातादिसमुत्थः, इहापि समाहारद्वन्द्व एव, तत्र सति, तथा स्पर्श तथाविधभुजङ्गादिसम्बन्धिनि सति, तथा आणापाणु त्ति उच्छ्वास-नि:श्वासौ निरुद्धावाश्रित्येति, एवं च सप्तविधं यथा भवति तथा भिद्यते आयुरिति । अथवा 20 अध्यवसानमायुरुपक्रमकारणमिति शेषः, एवं निमित्तमित्यादि यावदाणापाणु त्ति व्याख्येयम्, प्रथमैकवचनान्तत्वादध्यवसानादिपदानाम्, एवं सप्तविधत्वादायुर्भेदहेतूनां सप्तविधं यथा भवति तथा भिद्यते आयुरिति, अयं चायुर्भेद: सोपक्रमायुषामेव नेतरेषामिति । आह– यद्येवं भिद्यते आयुस्तत: कृतनाशोऽकृताभ्यागमश्च स्यात्, कथम् ?, १. अवर्षा पा० जे२ । अवर्षाः वर्षाभिन्ना ऋतव इत्यर्थः ।। २. °वति दर्शयनाह पामू०, वति तत् दर्शनायाह
पासं० । वतीति दर्शयन्नाह जे२ ।।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे संवत्सरशतमुपनिबद्धमायुस्तस्य अपान्तराल एव व्यपगमात् कृतनाशो येन च कर्मणा तद् भिद्यते तस्याकृतस्यैवाभ्यागमः, एवं च मोक्षानाश्वासः, ततश्चारित्राप्रवृत्त्यादयो दोषा इति, आह च
कम्मोवक्कामिजइ अपत्तकालं पि जइ तओ पत्ता । 5 अकयागमकयनासा मोक्खाणासासओ दोसा ॥ [विशेषाव० २०४७]
अत्रोच्यते- यथा वर्षशतभोग्यभक्तमप्यग्निकव्याधितस्याल्पेनापि कालेनोपभुञ्जानस्य न कृतनाशो नाप्यकृताभ्यागमस्तद्वदिहापीति, आह च
न हि दीहकालियस्स वि णासो तस्साणुभूइओ खिप्पं । बहुकालाहारस्स व दुयमग्गियरोगिणो भोगो ॥ सव्वं च पएसतया भुज्जइ कम्ममणुभागओ भइयं । तेणावस्साणुभवे के कयनासादओ तस्स ? ॥ [विशेषाव० २०४८-४९] किंचिदकाले वि फलं पाइज्जइ पच्चए य कालेणं । तह कम्मं पाइज्जइ कालेण वि पच्चए अन्नं ॥ [विशेषाव० २०५८] जह वा दीहा रजू डज्झइ कालेण पुंजिया खिप्पं ।
वितओ पडो उ सुस्सइ पिंडीभूओ उ कालेण ॥ [विशेषाव० २०६१] इत्यादि । 15 [सू० ५६२] सत्तविधा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइया, आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया, वणस्सतिकाइया, तसकाइया, अकाइया ।।
अहवा सत्तविहा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा-कण्हलेसा जाव सुक्कलेसा, अलेसा ।
[टी०] अयं चायुर्भेदः कथञ्चित् सर्वजीवानामस्तीति तानाह– सत्तेत्यादि सूत्रद्वयं 20 कण्ठ्यम्, नवरं सर्वे च ते जीवाश्चेति सर्वजीवाः, संसारि-मुक्ता इत्यर्थः, तथा
अकाइय त्ति सिद्धा: षड्विधकायाव्यपदेश्यत्वादिति । अलेश्या: सिद्धाः अयोगिनो
10
वेति ।
[सू० ५६३] बंभदत्ते णं राया चाउरंतचक्कवट्टी सत्त धणूइं उटुंउच्चत्तेणं सत्त य वाससताई परमाउं पालयित्ता कालमासे कालं किच्चा अधे सत्तमाते 25 पुढवीते अप्पतिट्ठाणे णरए णेरतितत्ताते उववन्ने ।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८७
[सू० ५६४]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । [टी०] अनन्तरं कृष्णलेश्यादयो जीवभेदा उक्ताः, तत्र च कृष्णलेश्य: सन्नारकोऽप्युत्पद्यते ब्रह्मदत्तवदिति ब्रह्मदत्तस्वरूपाभिधानायाह- बंभदत्तेत्यादि सुगमम्।
[सू० ५६४] मल्ली णं अरहा अप्पसत्तमे मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्वइए, तंजहा-मल्ली विदेहरायवरकन्नगा, पडिबुद्धी इक्खागराया, चंदच्छाये अंगराया, रुप्पी कुणालाधिपती, संखे कासीराया, अदीणसत्तू कुरुराया, 5 जितसत्तू पंचालराया ।
[टी०] ब्रह्मदत्त उत्तमपुरुष इति तदधिकारात् उत्तमपुरुषविशेषस्थानोत्पन्नमल्लिवक्तव्यतामाह- मल्ली णमित्यादि, मल्लिरहन् अप्पसत्तमे त्ति आत्मना सप्तम: सप्तानां पूरण:, आत्मा वा सप्तमो यस्यासावात्मसप्तमः, मल्लिशब्दस्य स्त्रीलिङ्गत्वेऽप्यर्हच्छब्दापेक्षया पुंनिर्देश:, विदेहजनपदराजस्य वरकन्या विदेहराजवरकन्या १, 10 तथा प्रतिबुद्धिर्नाम्ना इक्ष्वाकुराज: साकेतनिवासी २, चन्द्रच्छायो नाम अङ्गजनपदराजश्चम्पानिवासी ३, रुक्मी नाम कुणालजनपदाधिपति: श्रावस्तीवास्तव्यः ४, शङ्खो नाम काशीजनपदराजो वाराणसीनिवासी ५, अदीनशत्रुर्नाम्ना कुरुदेशनाथ: हस्तिनागपुरवास्तव्य: ६, जितशत्रुर्नाम पञ्चालजनपदराज: काम्पिल्यनगरनायक इति ७, आत्मसप्तमत्वं च भगवत: प्रव्रज्यायामभिहितप्रधानपुरुषापेक्षयावगन्तव्यम्, 15 अन्यथा त्रिभिः पुरुषशतैः बाह्यपरिषदा त्रिभिश्च स्त्रीशतैरभ्यन्तरपरिषदाऽसौ परिवृतः प्रव्रजित इति ज्ञातेषु श्रूयत इति, उक्तं च- पासो मल्ली य तिहिं तिहिं सएहिं आव० नि० २२४] ति, एवमन्येष्वपि विरोधाभासेषु विषयविभागा: सम्भवन्तीति निपुणैर्गवेषणीया:, शेष सुगममिति । __ इत्थं चैतच्चरितं मल्लिज्ञाताध्ययने श्रूयते- जम्बूद्वीपेऽपरविदेहे सलिलावतीविजये 20 वीतशोकायां राजधान्यां महाबलाभिधानो राजा षड्भिर्बालवयस्यैः सह प्रव्रज्यां प्रतिपेदे, तत्र महाबलस्तैर्वयस्यानगारैरूचे- यद्भवांस्तपस्तपस्यति तद्वयमपीत्येवं प्रतिपन्नेषु १. `तपुरुषप्रव्रज्याग्रहणाभ्युपगतापेक्षया अवगन्तव्यम्, यतः प्रव्रजितेन प्रवाजिताः तथा त्रिभिः- खं० ।
"तपुरुषप्रव्रज्याग्रहणाभ्युपगमापेक्षया अवगन्तव्यम्, यतः प्रव्रजितेन तेन ते प्रवाजिताः, तथा त्रिभिः पा० । 'तप्रधानपुरुषप्रव्रज्याग्रहणाभ्युपगमापेक्षया अवगन्तव्यम्, यतः प्रव्रजितेन तेन ते प्रताजिताः, तथा त्रिभिः- जे२ ॥ २. परिव्रजित ण. जे२ ॥ ३. दृश्यतां णायाधम्मकहाओ-अष्टममध्ययनम् ।।
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तेषु यदा ते तमनुसरन्तश्चतुर्थादि विदधुस्तदाऽसावष्टमादि व्यधासीद्, एवं च स्त्रीनामगोत्रकर्माऽसौ बबन्ध अर्हदादिवात्सल्यादिभिश्च हेतुभिस्तीर्थकरनामेति, ततस्ते जीवितक्षयाजयन्ताभिधानविमाने अनुत्तरसुरत्वेनोत्पेदिरे, ततश्च्युत्वा महाबलो विदेहेषु जनपदेषु मिथिलायां राजधान्यां कुम्भकराजस्य प्रभावत्या देव्यास्तीर्थकरीत्वेन 5 समजनि, मल्लिरिति नाम च पितरौ चक्रतुः, तदन्ये तु यथोक्तेषु साकेतादिषु सञ्जज्ञिरे, ततो मल्ली देशोनवर्षशतजाता अवधिना तानाभोगयाञ्चकार, तत्प्रतिबोधनार्थं च गृहोपवने षड्गर्भगृहोपेतं भवनं तन्मध्यभागे च कनकमयीं शुषिरां मस्तकच्छिद्रां पद्मपिधानां स्वप्रतिमां कारयामास, तस्यां चानुदिवसं स्वकीयभोजनकवलं प्रक्षेपयामास, इतश्च
साकेते प्रतिबुद्धिराज: पद्मावत्या देव्या कारिते नागयज्ञे जलजादिभास्वरपञ्च10 वर्णकुसुमनिर्मितं श्रीदामगण्डकं दृष्ट्वा अहोऽपूर्वभक्तिकम् इदमिति विस्मयादमात्यमुवाच
दृष्ट क्वापीदमीदृशमिति ?, सोऽवोचत्- मल्लिविदेहवरराजकन्यासत्कश्रीदामगण्डापेक्षयेदं लक्षांशेऽपि शोभया न वर्त्तते, ततो राज्ञाऽवाचि- सा पुनः कीदृशी ?, मन्त्री जगादअन्या नास्ति तादृशीत्युपश्रुत्य सञ्जातानुरागोऽसौ मल्लिवरणार्थं दूतं विससर्ज १ ।
तथा चम्पायां चन्द्रच्छायराजः कदाचिदर्हन्नकाभिधानेन श्रावकेण पोतवणिजा 15 चम्पावास्तव्येन यात्राप्रतिनिवृत्तेन दिव्ये कुण्डलयुग्मे कौशलिकतयोपनीते सति पप्रच्छ,
यदुत- यूयं बहुश: समुद्रं लङ्घयथ, तत्र च किञ्चिदाश्चर्यमपश्यत ?, सोऽवोचत्स्वामिन्नस्यां यात्रायां समुद्रमध्येऽस्माकं धर्मचालनार्थं देव: कश्चिदुपसर्गं चकार, अविचलने चास्माकं तुष्टेन तेन कुण्डलयुगलद्वितयमदायि, तदेकं कुम्भकस्य अस्माभिरुपनिन्ये,
तेनापि मल्लिकन्याया: कर्णयो: स्वकरेण विन्यासि, सा च कन्या त्रिभुवनाश्चर्यभूता दृष्टा, 20 इति श्रुत्वा तथैव दूतं प्रेषयामास २ ।
तथा श्रावस्त्यां रुक्मिराजः सुबाह्वभिधानाया: स्वदुहितुश्चातुर्मासिकमजनमहोत्सवे नगरीचतुष्पथनिवेशितमहामण्डपे विभूत्या मज्जितां तां तत्रैवोपविष्टस्य पितुः पादवन्दनार्थमागताम् अङ्के निवेश्य तल्लावण्यमवलोकयन् व्याजहार, यदुत भो वर्षधर!
दृष्ट ईदृशोऽन्यस्या: कस्याश्चिदपि कन्याया मज्जनकमहोत्सव: ?, सोऽवोचद्- देव ! 25 विदेहवरराजकन्यासत्कमजनोत्सवापेक्षया अयं लक्षांशेऽपि रमणीयतया न वर्त्तत
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८९
[सू० ५६४]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । इत्युपश्रुत्य तथैव दूतं प्रेषयति स्मेति ३ ।
तथा अन्यदा मल्लिसत्कदिव्यकुण्डलयुग्मसन्धिर्विजघटे, तत्सङ्घटनार्थं कुम्भकेन सुवर्णकारा: समादिष्टास्तथैव कर्तुं तमशक्नुवन्तश्च नगर्या निष्कासिता:, वाराणस्यां शङ्खराजमाश्रिताः, भणिताश्च ते तेन- केन कारणेन कुम्भेन निष्कासिता यूयम् ?, तेऽभिदधुः- मल्लिकन्यासत्कविघटितकर्णकुण्डलसन्धानाशकनेनेति, ततः कीदृशी सेति 5 पृष्टेभ्यस्तेभ्यो मल्लिरूपमुपश्रुत्य तथैव दूतं प्राहिणोत् ४ । ___ तथा कदाचिन्मल्ल्या मल्लदिन्नाभिधानोऽनुजो भ्राता सभां चित्रकश्चित्रयामास, तत्रैकेन चित्रकरयूना लब्धिविशेषवता यमनिकान्तरिताया मल्लिकन्याया: पादाङ्गुष्ठमुपलभ्य तदनुसारेण मल्लिसदृशमिव तद्रूपं निर्वर्तितम्, ततश्च मल्लदिन्नकुमार: सान्त:पुरश्चित्रसभायां प्रविवेश, विचित्राणि च चित्ररूपाण्यवलोकयन् मल्लिरूपं ददर्श, साक्षान्मल्लीयमिति 10 मन्यमानो ज्येष्ठाया भगिन्या गुरुदेवभूताया अहमग्रतोऽविनयेनायात इति भावयन् परमव्रीडां जगाम, ततस्तद्धात्री चित्रमिदमिति न्यवेदयत्, ततोऽसावस्थाने तेनेदं लिखितमिति कुपितस्तं वध्यमाज्ञापितवान्, चित्रकरश्रेणी तु तं ततो मोचयामास, तथापि कुमार: सन्दंशकं छेदयित्वा तं निर्विषयमादिदेश, स च हस्तिनागपुरे अदीनशत्रुराजमुपाश्रितः, ततो राजा तन्निर्गमकारणं पप्रच्छ, तेन च तथैव कथिते दूतं प्रहिणोति स्मेति ५ । 15 __तथा कदाचिच्चोक्षाभिधाना परिव्राजिका मल्लिभवनं प्रविवेश, तां च दानधर्मं च शौचधर्मं चोद्ग्राहयन्तीं मल्लिस्वामिनी निर्जिगाय, निर्जिता च सती सा कुपिता काम्पिल्यपुरे जितशत्रुराजमुपाश्रिता, भणितं च नरपतिना- चोक्षे ! बहुत्र त्वं संचरस्यतोऽद्राक्षी: काञ्चित् क्वचिदस्मदन्तःपुरपुरन्ध्रिसदृशीम् ?, सा व्याजहारविदेहवरराजकन्यापेक्षया युष्मत्पुरन्ध्रयो लक्षांशेऽपि रूप-सौभाग्यादिभिर्गुणैर्न वर्तन्त 20 इति श्रुत्वा तथैव दूतं विसर्जितवानिति ६ । ___ एवमेते षडपि दूता: कुम्भकं कन्यां याचितवन्त:, स च तानपद्वारेण निष्कासितवान्, दूतवचनाकर्णनाजातकोपाः षडपि अविक्षेपेण मिथिलां प्रति प्रतस्थुः, आगच्छतश्च तानुपश्रुत्य कुम्भक: सबल-वाहनो देशसीमान्ते गत्वा रणरङ्गरसिकतया तान् प्रतीक्षमाणस्तस्थौ, आयातेषु तेषु लग्नमायोधनम्, बहुत्वात् परबलस्य 25 १. रेण सदृशमिव जे१ खं० ॥
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९०
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे निहतकतिपयप्रधानपुरुषमतिनिशितशरशतजर्जरितजयकुञ्जरमतिखरक्षुरुप्रप्रहारोत्प्लुतवाजिविसरविक्षिप्ताश्ववारमुत्तुङ्गमत्तमतङ्गजचूर्णितचक्रि चक्रमुल्लूनच्छत्रं पतत्पताकं कान्दिशीककातरं कुम्भकसैन्यं भङ्गमगमत्, ततोऽसौ निवृत्य रोधकसज्ज: सन्नासामासे, ततस्तज्जयोपायमलभमानमतिव्याकुलमानसं जनकमवलोक्य मल्ली समाश्वासयन्ती 5 समादिदेश, यदुत- भवते दीयते कन्येत्येवं प्रतिपादनपरपरस्परप्रच्छन्नपुरुषप्रत्येकप्रेषणोपायेन पुरि पार्थिवाः षडपि प्रवेश्यन्ताम्, तथैव कृतम्, प्रवेशितास्ते पूर्वरचितगर्भगृहेषु, मल्लिप्रतिमामवलोक्य च ते सेयं मल्लीति मन्यमानास्तद्रूप-यौवनलावण्येषु मूर्च्छिता निर्निमेषदृष्ट्या तामेवावलोकयन्तस्तिष्ठन्ति स्म, ततो मल्ली तत्राजगाम,
प्रतिमाया: पिधानं चापससार, ततस्तस्या गन्ध: सादिकमृतकगन्धातिरिक्त उद्दधाव, 10 ततस्ते नासिकां पिदधुः पराङ्मुखाश्च तस्थुः, मल्ली च तानेवमवादीत्- किन्नु भो यूयमेवं
पिहितनासिका: पराङ्मुखीभूताः ?, ते ऊचुः- गन्धेनाभिभूतत्वात्, पुन: साऽवोचत्यदि भो देवानांप्रिया: ! प्रतिदिनमतिमनोज्ञाहारकवलक्षेपेणैवंरूप: पुद्गलपरिणाम: प्रवर्तते कीदृश: पुनरस्यौदारिकस्य शरीरस्य खेल-वान्त-पित्त-शुक्र-शोणित-पूयाश्रवस्य
दुरन्तोच्छ्वासनिःश्वासस्य पूतिपुरीषपूर्णस्य चयापचयिकस्य शटन-पतन-विध्वंसनधर्मकस्य 15 परिणामो भविष्यतीति?, ततो मा यूयं मानुष्यककामेषु सजत, किञ्च
किं थ तयं पम्हुटुं जं थ तया भो जयंतपवरम्मि ।। वुच्छा समयनिबद्धं देवा ! तं संभरह जाइं ॥ [ज्ञाताधर्म० ११८]
इति भणिते सर्वेषामुत्पन्नं जातिस्मरणम्, अथ मल्लिरवादीत्- अहं भो: ! संसारभयात् प्रव्रजिष्यामि, यूयं किं करिष्यथ ?, ते ऊचुः- वयमप्येवम्, ततो मल्लिरवोचत्– यद्येवं 20 ततो गच्छत स्वनगरेषु स्थापयत पुत्रान् राज्येषु तत: प्रादुर्भवत ममान्तिकमिति, तेऽपि तथैव प्रतिपेदिरे, ततस्तान् मल्ली गृहीत्वा कुम्भकराजान्तिकमाजगाम, तस्य तान् पादयो: पातयामास, कुम्भकराजोऽपि तान् महता प्रमोदेनापुपूजत् स्वस्थानेषु च विससर्जेति, मल्ली च सांवत्सरिकमहादानानन्तरं पोषशुद्धैकादश्यामष्टमभक्तेनाश्विनीनक्षत्रे तै: षड्भिर्नृपतिभिरन्यैश्चाष्टभिर्नन्द-नन्दिमित्रादिभिर्नागवंश्यकुमारैस्तथा बाह्यपर्षदा पुरुषाणां १. किंनु भूपा यूय पा० जे२ ॥ २. पूपुजत् खं० पासं० जे२ । 'पुपुजत् पामू० ॥ ३. नक्षत्रेष्टभिर्नन्द
नन्दिमित्रा' खं० पामू० जे२॥ ४. परिषदा जे१ खं० ॥
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५६५-५६८]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । त्रिभिः शतैरभ्यन्तरपर्षदा च स्त्रीणां त्रिभिः शतैः सह प्रवव्राज, उत्पन्नकेवलश्च तान् प्रव्राजितवानिति ।
[सू० ५६५] सत्तविहे दंसणे पन्नत्ते, तंजहा-सम्मदंसणे, मिच्छदंसणे, सम्मामिच्छदंसणे, चक्खुदंसणे, अचक्खुदंसणे, ओहिदंसणे, केवलदसणे ।
[टी०] एते च सम्यग्दर्शने सति प्रव्रजिता इति सामान्यतो दर्शननिरूपणायाह- 5 दंसणेत्यादि सुगमम्, परं सम्यग्दर्शनं सम्यक्त्वं मिथ्यादर्शनं मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यादर्शनं मिश्रमिति, एतच्च त्रिविधमपि दर्शनमोहनीयभेदानां क्षयक्षयोपशमोपशमोदयेभ्यो जायते तथाविधरुचिस्वभावं चेति, चक्षुर्दर्शनादि तु दर्शनावरणीयभेदचतुष्टयस्य यथासम्भवं क्षयोपशम-क्षयाभ्यां जायते सामान्यग्रहणस्वभावं चेति, तदेवं श्रद्धान-सामान्यग्रहणयोर्दर्शनशब्दवाच्यत्वाद्दर्शनं सप्तधोक्तमिति । 10
[सू० ५६६] छउमत्थवीयरागे णं मोहणिज्जवजाओ सत्त कम्मपयडीओ वेदेति, तंजहा-णाणावरणिजं दरिसणावरणिजं वेयणिजं आउयं नामं गोतमंतरातितं ।
[सू० ५६७] सत्त ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं न याणति न पासति, तंजहा-धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, जीवं असरीरपडिबद्धं, 15 परमाणुपोग्गलं, सई, गंधं । ___ एयाणि चेव उप्पन्नणाणे जाव जाणति पासति, तंजहा-धम्मत्थिकायं जाव गंधं ।
[टी०] अनन्तरं केवलदर्शनमुक्तम्, तच्च छद्मस्थावस्थाया अनन्तरं भवतीति छद्मस्थप्रतिबद्धं सूत्रद्वयं विपर्ययसूत्रं च छउमत्थेत्यादि सुगमम्, नवरं छद्मनि 20 आवरणद्वयरूपे अन्तराये च कर्मणि तिष्ठतीति छद्मस्थः अनुत्पन्नकेवलज्ञान-दर्शन: स चासौ वीतरागश्च उपशान्तमोहत्वात् क्षीणमोहत्वाद्वा विगतरागोदय इत्यर्थः, सत्त त्ति मोहस्य क्षयादुपशमाद्वा नाऽष्टावित्यर्थः, अत एवाह- मोहणिज्जवजाउ त्ति ।
[सू० ५६८] समणे भगवं महावीरे वइरोसभणारातसंघयणे समचउरंससंठाणसंठिते सत्त रयणीओ उडुंउच्चत्तेणं होत्था ।
25
१. क्षय-उपशम-क्षयोपशमोदयेभ्यो जे१ ।।
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे - [सू० ५६९] सत्त विकहाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-इत्थिकहा, भत्तकहा, देसकहा, रायकहा, मिउकोलुणिता, दंसणभेयणी, चरित्तभेदणी ।
[टी०] एतान्येव च जिनो जानातीत्युक्तम्, स च वर्तमानतीर्थे महावीर इति तत्स्वरूपं तत्प्रतिषिद्धविकथाभेदांश्चाह- समणे इत्यादि सूत्रद्वयं सुगमम्, नवरं विकहाउ 5 त्ति चतस्रः प्रसिद्धा: व्याख्याताश्चेति । मिउकोलुणिय त्ति श्रोतृहृदयमाईवजननात् मृद्वी
सा चासौ कारुणिकी च कारुण्यवती मृदुकारुणिकी पुत्रादिवियोगदुःखदुःखितमात्रादिकृतकारुण्यरसगर्भप्रलापप्रधानेत्यर्थः, तद्यथा
हा पुत्त पुत्त हा वच्छ ! वच्छ ! मुक्का मि कहमणाहाहं ? ।
एवं कलुणविलावा जलंतजलणेऽज्ज सा पडिया ॥ [ ] इति । 10 दर्शनभेदनी ज्ञानाद्यतिशयतः कुतीर्थिकप्रशंसादिरूपा, तद्यथा
सूक्ष्मयुक्तिशतोपेतं सूक्ष्मबुद्धिकरं परम् । सूक्ष्मार्थदर्शिभिर्दृष्टं श्रोतव्यं बौद्धशासनम् ॥ [ ] इत्यादि ।
एवं हि श्रोतॄणां तदनुरागात् सम्यग्दर्शनभेद: स्यादिति । चारित्रभेदनी 'न सम्भवन्तीदानीं महाव्रतानि साधूनां प्रमादबहुलत्वादतिचारप्रचुरत्वादतिचार15 शोधकाचार्यतत्कारकसाधु-शुद्धीनामभावादिति ज्ञान-दर्शनाभ्यां तीर्थं वर्तत इति ज्ञान-दर्शनकर्त्तव्येष्वेव यत्नो विधेयः' इति, भणितं च -
सोही य नत्थि न वि दिंत करेंता नवि य केइ दीसंति । तित्थं च नाणदंसण निजवगा चेव वोच्छिन्न ॥ [ ] त्ति इत्यादि ।
अनया हि प्रतिपन्नचारित्रस्यापि तद्वैमुख्यमुपजायते किं पुनस्तदभिमुखस्येति 20 चारित्रभेदनीति ।
सू० ५७०] आयरिय-उवज्झायस्स णं गणंसि सत्त अतिसेसा पन्नत्ता, तंजहा-आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सगस्स पाते णिगिज्झिय णिगिज्झिय पप्फोडेमाणे वा पमजमाणे वा णातिक्कमति, एवं जधा पंचट्ठाणे जाव बाहिं १. 'कालु' भा० विना ॥ २. सू० २८२ ।। ३. 'भेदिनी पामू० जे२ ॥ ४. चारबहुलत्वादतिचारशोध'
जे१ ।। ५. सू० ४३८ ।।
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९३
[सू० ५७०-५७१]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । उवस्सगस्स एगरातं वा दुरातं वा वसमाणे नातिक्कमति, उवकरणातिसेसे, भत्तपाणातिसेसे ।
[टी०] विकथासु च वर्तमानान् साधूनाचार्या निषेधयन्ति सातिशयत्वात्तेषामिति तदतिशयप्रतिपादनायाह- आयरियेत्यादि, पञ्चस्थानके व्याख्यातप्रायं तथापि किञ्चिदुच्यते- आचार्योपाध्यायो निगृह्य निगृह्य अन्तर्भूतकारितार्थत्वेन पादधूल्या: 5 प्रसरन्त्या निग्रहं कारयित्वा प्रस्फोटयन पादप्रोञ्छनेन वैयावृत्यकरादिना प्रस्फोटनं कारयन् प्रमार्जयन् प्रमार्जनं कारयन् नाज्ञामतिक्रामति, शेषसाधव: उपाश्रयाद् बहिरिदं कुर्वन्तीत्याचार्यादेरतिशय:, एवमित्यादिनेदं सूचितम् आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स उच्चारपासवणं विगिंचेमाणे वा विसोहेमाणे वा णाइक्कमइ २, आयरियउवज्झाए पभू इच्छा वेयावडियं करेज्जा इच्छा नो करेज्जा ३, आयरियउवज्झाए अंतो उवस्सयस्स 10 एगरायं वा दुरायं वा संवसमाणे णाइक्कमइ ४, आयरियउवज्झाए बाहिं उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा संवसमाणे णाइक्कमइ ५,' एतद् व्याख्यातमेवेति । इदमधिकम्उपकरणातिशेष: शेषसाधुभ्य: सकाशात् प्रधानोज्ज्वलवस्त्राद्युपकरणता, उक्तं च
आयरियगिलाणाणं मइला मइला पुणो वि धोवंति ।। मा हु गुरूण अवन्नो लोगम्मि अजीरणं इयरे ॥ [ओघनि० ३५१] इति ग्लाने इत्यर्थः। 15 भक्तपानातिशेषः पूज्यतरभक्तपानतेति, उक्तं चकलमोयणो उ पयसा परिहाणी जाव कोद्दवुब्भज्जी । तत्थ उ मिउ तुप्पतरं जत्थ य ज अच्चियं दोसु ॥ [ओघनि० भा० ३०७] कोद्दवुब्भजि त्ति कोद्दवजाउलयम्, दोसु त्ति क्षेत्र-कालयोरिति, गुणाश्चैतेसुत्तत्थथिरीकरणं विणओ गुरुपूय सेहबहुमाणो।। दाणवतिसद्धवुट्टी बुद्धीबलवद्धणं चेव ॥ [ओघनि० ६०९] इति ।
[सू० ५७१] सत्तविधे संजमे पन्नत्ते, तंजहा-पुढविकातितसंजमे जाव तसकातितसंजमे, अजीवकायसंजमे १ ।
सत्तविधे असंजमे पन्नत्ते, तंजहा-पुढविकातितअसंजमे जाव तसकातितअसंजमे, अजीवकायअसंजमे २ । १,३. सू० ४३८ ॥ २. “इन् कारितं धात्वर्थे । धातोश्च हेतौ । चुरादेश्च ।" इति कातन्त्रव्याकरणे ३।२।९-११॥
20
25
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ___ सत्तविधे आरंभे पन्नत्ते, तंजहा-पुढविकातितआरंभे जाव अजीवकातआरंभे ३ । एवमणारंभे वि ४, एवं सारंभे वि ५, एवमसारंभे वि ६, एवं समारंभे वि ७, एवं असमारंभे वि जाव अजीवकायअसमारंभे ८ ।
[टी०] एते चाचार्यातिशया: संयमोपकारायैव विधीयन्ते न रागादिनेति संयम 5 तद्विपक्षभूतमसंयमं चासंयमभेदभूतारम्भादित्रयं च सविपक्षं प्रतिपादयन् सूत्राष्टकं सातिदेशमाह- सर्तविहे इत्यादि सुगमम्, नवरं संयम: पृथिव्यादिविषयेभ्यः सङ्घट्टपरितापोपद्रवणेभ्य: उपरमः, अजीवकायसंजमे त्ति अजीवकायानां पुस्तकादीनां ग्रहणपरिभोगोपरमः, असंयमस्त्वनुपरमः, आरम्भादयोऽसंयमभेदाः, तल्लक्षणमिदं
प्रागभिहितम्10 आरंभो उद्दवओ परितावकरो भवे समारंभो ।
संकप्पो संरंभो सुद्धनयाणं तु सव्वेसिं ॥ [ ] ति ।
नन्वारम्भादयोऽपद्रावण-परितापादिरूपा उक्तास्ते चाजीवकायानामचेतनतया न युक्तास्तदयोगादजीवकायानारम्भादयोऽपीति, अत्रोच्यते, अजीवेषु पुस्तकादिषु ये
समाश्रिता जीवास्तदपेक्षया अजीवकायप्राधान्यादजीवकायारम्भादयो न विरुध्यन्त इति। 15 [सू० ५७२] अध भंते ! अदसि-कुसुंभ-कोद्दव-कंगु-रालग-वरा-कोदूसग
सण-सरिसव-मूलगबीयाणं एतेसि णं धन्नाणं कोट्टाउत्ताणं पल्लाउत्ताणं जाव पिहिताणं केवतितं कालं जोणी संचिट्ठति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सत्त संवच्छराइं, तेण परं जोणी पमिलायति जाव जोणीवोच्छेदे
पण्णत्ते १ । 20 [सू० ५७३] बादरआउकाइयाणं उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साई ठिती पन्नत्ता २।
तच्चाए णं वालुयप्पभाते पुढवीते उक्कोसेणं नेरइयाणं सत्त सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ३ । __ चउत्थीते णं पंकप्पभाते पुढवीते जहन्नेणं नेरइयाणं सत्त सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता ४ । १. विहेत्यादि जे१, २, खं० ॥ २. तुलना- "संकप्पो सरंभो परितावकरो भवे समारंभो । आरंभो उद्दवओ
सव्वणयाणं तु सुद्धाणं ॥१८१३।।" इति निशीथभाष्ये ॥ ३. सू० १५४, ४५९ ।।
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् ।
[सू० ५७४-५७९ ]
[टी०] अनन्तरं संयमादय उक्तास्ते च जीवविषया इति जीवविशेषान् स्थितितः प्रतिपादयन् सूत्रचतुष्टयमाह - अहेत्यादि सूत्रसिद्धम्, नवरम् अथेति परिप्रश्नार्थः, भदन्तेति गुर्वामन्त्रणम्, अयसीति अतसी, कुसुंभो लट्टा, रालक: कंगूविशेष:, सन: त्वक्प्रधानो धान्यविशेष:, सर्षपाः सिद्धार्थकाः, मूलकः शाकविशेषः, तस्य बीजानि मूलकबीजानि, ककारलोप- सन्धिभ्यां मूलाबीय त्ति प्रतिपादितमिति, शेषाणां पर्याया 5 लोकरूढितो ज्ञेया इति, यावद्ग्रहणात् 'मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणं ओलित्ताणं लित्ताणं लंछियाणं मुद्दियाणं' ति द्रष्टव्यम्, व्याख्याऽस्य प्रागिवेति, पुनर्यावत्करणात् 'पविद्धंसइ विद्धंसइ से बीए अबीए भवइ तेण परं' ति दृश्यम् ।
बादरआउकाइयाणं ति, सूक्ष्माणां त्वन्तर्मुहूर्त्तमेवेति, एवमुत्तरत्रापि विशेषणफलं यथासम्भवं स्वधिया योजनीयम् ।
[सू० ५७४] सक्क्स्स णं देविंदस्स देवरन्नो वरुणस्स महारण्णो सत्त अग्गमहिसीतो पन्नत्ताओ ।
ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारण्णो सत्त अग्गमहिसीतो पन्नत्ताओ ।
[सू० ५७६] सारस्सयमाइच्चाणं सत्त देवा सत्त देवसता पन्ना । गद्दतोय-तुसियाणं देवाणं सत्त देवा सत्त देवसहस्सा पन्नत्ता ।
९. सू० १५४, ४५९ ॥
६९५
ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो सत्त अग्गमहिसीओ 15 पन्नत्ताओ ।
[सू० ५७५ ] ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो अब्भिंतरपरिसाते देवाणं सत्त पलिओवमाइं ठिती पन्नत्ता |
सक्क्स्स णं देविंदस्स देवरन्नो अग्गमहिसीणं देवीणं सत्त पलिओवमाइं ठिती पन्नत्ता ।
सोहम्मे कप्पे परिग्गहियाणं देवीणं उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाई ठिती
पन्नत्ता ।
10
20
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ५७७] सणंकुमारे कप्पे उक्कोसेणं देवाणं सत्त सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता ।
माहिंदे कप्पे उक्कोसेणं देवाणं सातिरेगाइं सत्त सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता।
बंभलोगे कप्पे जहन्नेणं देवाणं सत्त सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता । 5 [सू० ५७८] बंभलोय-लंततेसु णं कप्पेसु विमाणा सत्त जोयणसताई उटुंउच्चत्तेणं पन्नत्ता ।
[सू० ५७९] भवणवासीणं देवाणं भवधारणिज्जा सरीरगा उक्कोसेणं सत्त रयणीओ उटुंउच्चत्तेणं, एवं वाणमंतराणं, एवं जोइसियाणं ।
सोहम्मीसाणेसु णं कप्पेसु देवाणं भवधारणिजगा सरीरा सत्त रयणीओ 10 उटुंउच्चत्तेणं पन्नत्ता ।
[टी०] अनन्तरं नारका उक्ता इति स्थिति-शरीरादिभिस्तत्साधादेवानां वक्तव्यतामभिधित्सुः सूत्रप्रपञ्चमाह- सक्कस्सेत्यादि, सुगमश्चायम्, नवरं वरुणस्स महारन्नो त्ति लोकपालस्य पश्चिमदिग्वर्त्तिन:, सोमस्य पूर्वदिग्लोकपालस्य, यमस्य
दक्षिणदिग्लोकपालस्य । 15 [सू० ५८०] णंदिस्सरवरदीवस्स णं दीवस्स अंतो सत्त दीवा पन्नत्ता, तंजहाजंबूदीवे, धायइसंडे, पोक्खरवरे, वरुणवरे, खीरवरे, घयवरे, खोयवरे ।
णंदीसरवरदीवस्स णं दीवस्स अंतो सत्त समुद्दा पन्नत्ता, तंजहा-लवणे, कालोदे, पुक्खरोदे, वरुणोदे, खीरोदे, घओदे, खोतोदे ।
[टी०] अनन्तरं देवानामधिकार उक्तो देवावासाश्च द्वीप-समुद्रा इति तदर्थं नंदीसरेत्यादि 20 सूत्रद्वयं कण्ठ्य म् ।
[सू० ५८१] सत्त सेढीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-उज्जुआयता, एगतो वंका, दुहतो वंका, एगतो खहा, दुहतो खहा, चक्कवाला, अद्धचक्कवाला ।
[टी०] एते च प्रदेशश्रेणीसमूहात्मकक्षेत्राधारा: श्रेण्याऽवस्थिता इति श्रेणिप्ररूपणायाहसत्त सेढीत्यादि, श्रेणयः प्रदेशपङ्क्तयः, ऋज्वी सरला सा चासावायता च दीर्घा 25 ऋज्वायता, स्थापना _, एकओ वंका एकस्यां दिशि वक्रा L, दुहओ वंका उभयतो
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५८२]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । वक्रा, स्थापना । ।, एगओ खहा एकस्यां दिश्यङ्कुशाकारा 1 , दुहओ खहा उभयतोऽङ्कुशाकारा 2, चक्रवाला वलयाकृतिः 0, अर्द्धचक्रवाला अर्द्धवलयाकारेति (। एताश्चैकतोवक्राद्या लोकपर्यन्तप्रदेशापेक्षा: सम्भाव्यन्ते ।
[सू० ५८२] चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सत्त अणिता सत्त अणिताधिपती पन्नत्ता, तंजहा-पत्ताणिते, पीढाणिते, कुंजराणिते, महिसाणिते, 5 रहाणिते, नट्टाणिते, गंधव्वाणिते । दुमे पत्ताणिताधिपती एवं जहा पंचट्ठाणे जाव किंनरे रधाणिताधिपती, रिटे णट्टाणियाधिपती, गीतरती गंधव्वाणिताधिपती । __ बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो सत्त अणिया सत्त अणियाधिपती पन्नत्ता, तंजहा-पत्ताणिते जाव गंधव्वाणिते । महढुमे पत्ताणिताधिपती जाव 10 किंपुरिसे रधाणिताधिपती, महारिढे णट्टाणिताधिपती, गीतजसे गंधव्वाणिताधिपती । ___ धरणस्स णं नागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो सत्त अणिता सत्त अणिताधिपती पन्नत्ता, तंजहा-पत्ताणिते जाव गंधव्वाणिते । रुद्दसेणे पत्ताणिताधिपती जाव आणंदे रबाणिताधिपती, नंदणे णडाणियाधिपती, 15 तेतली गंधव्वाणियाधिपती । ___ भूताणंदस्स सत्त अणिया सत्त अणियाहिवई पन्नत्ता, तंजहा-पत्ताणिते जाव गंधव्वाणिए । दक्खे पत्ताणियाहिवती जाव णंदुत्तरे रहाणियाहिपती, रती णट्टाणियाहिवती, माणसे गंधव्वाणियाहिवती । एवं जाव घसमहाघोसाणं नेयव्वं ।
20 ___ सक्कस्स णं देविंदस्स देवरणो सत्त अणिया सत्त अणियाहिवती पन्नता, तंजहा-पत्ताणिए जाव गंधव्वाणिए । हरिणेगमेसी पत्ताणियाधिपती जव माढरे रधाणिताधिपती, सेते णट्टाणिताहिवती, तुंबुरू गंधव्वाणिताधिपती
ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सत्त अणिया सत्त अणियाहिवई पन्नत्ता, तंजहा-पत्ताणिते जाव गंधव्वाणिते । लहुपरक्कमे पत्ताणियाहिवती जाब 25 १. सू० ४०४ ॥
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे महासेते णट्टाणियाहिवती, णारते गंधव्वाणिताधिपती, सेसं जधा पंचट्ठाणे, एवं जावऽच्चुतस्स त्ति नेतव्वं ।
[टी०] चक्रवालार्द्धचक्रवालादिना गतिविशेषेण भ्रमणयुक्तानि दर्पितत्वाद्देवसैन्यानि भवन्तीति तत्प्रतिपादनाय चमरेत्यादि प्रकरणं सुगमम्, नवरं पीठानीकम् अश्वसैन्यम्, 5 नाट्यानीकं नर्तकसमूहः, गन्धर्वानीकं गायनसमूहः, एवं जहा पंचठाणए त्ति
अतिदेशात् ‘सोमे आसराया पीढाणीयाहिवई २, वेकुंथू हत्थिराया कुंजराणियाहिवई ३, लोहियक्खे महिसाणियाहिवई ४,' इति द्रष्टव्यमेवमुत्तरसूत्रेष्वपीति । तथा धरणस्येव सकलदाक्षिणात्यानां भवनपतीन्द्राणां सेना सेनाधिपतय:, औदीच्यानां तु भूतानन्दस्येवेति।
[सू० ५८३] चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो दुमस्स 10 पत्ताणिताहिपतिस्स सत्त कच्छाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-पढमा कच्छा जाव सत्तमा कच्छा ।
चमरस्स णमसुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो दुमस्स पत्ताणिताधिपतिस्स पढमाए कच्छाए चउसद्धिं देवसहस्सा पन्नत्ता, जावतिता पढमा कच्छा तब्बिगुणा
दोच्चा कच्छा, जावइया दोच्चा कच्छा तब्बिगुणा तच्चा कच्छा, एवं जाव 15 जावतिता छट्ठा कच्छा तब्बिगुणा सत्तमा कच्छा । ___ एवं बलिस्स वि, णवरं महढुमे सटिं देवसाहस्सितो, सेसं तं चेव । धरणस्स एवं चेव, णवरमट्ठावीसं देवसहस्सा, सेसं तं चेव। जधा धरणस्स एवं जाव महाघोसस्स, नवरं पत्ताणिताधिपती अन्ने, ते पुव्वभणिता । ___ सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो हरिणेगमेसिस्स सत्त कच्छाओ पन्नत्ताओ, 20 तंजहा-पढमा कच्छा एवं जहा चमरस्स तहा जावऽच्चुतस्स, णाणत्तं
पत्ताणिताधिपतीणं, ते पुव्वभणिता । देवपरिमाणमिमं-सक्कस्स चउरासीति देवसहस्सा, ईसाणस्स असीतिं देवसहस्सा, देवा इमाते गाथाते अणुगंतव्वा
चउरासीति असीति बावत्तरि सत्तरी य सट्ठी य । पन्ना चत्तालीसा तीसा वीसा दस सहस्सा ॥८५॥
१. सू० ४०४ ॥
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५८४-५८५/१] सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् ।
जावऽच्चुतस्स लहुपरक्कमस्स दस देवसहस्सा जाव जावतिता छट्ठा कच्छा तब्बिगुणा सत्तमा कच्छा ।
[टी०] कच्छ त्ति समूहः, यथा धरणस्य तथा सर्वेषां भवनपतीन्द्राणां महाघोषान्तानाम्, केवलं पादातानीकाधिपतयोऽन्ये ज्ञेया:, ते च पूर्वमनन्तरसूत्रे भणिताः, नाणत्तं ति शक्रादीनामानतप्राणतेन्द्रान्तानामेकान्तरितानां हरिनेगमेषी 5 पादातानीकाधिपतिरीशानादीनामारणाच्युतेन्द्रान्तानामेकान्तरितानां लघुपराक्रम इति । देवेत्यादि, देवाः प्रथमकच्छासम्बन्धिनोऽनया गाथयाऽवगन्तव्याः, चतुरासी गाहा, चतुरशीत्यादीनि पदानि सौधर्मादिषु क्रमेण योजनीयानि, नवरं विंशतिपदमानतप्राणतयोर्योजनीयम्, तयोर्हि प्राणताभिधानस्येन्द्रस्यैकत्वात्, दशेति पदं त्वारणाऽच्युतयोर्योजनीयम्, अच्युताभिधानस्येन्द्रस्यैकत्वादिति ।
10 _[सू० ५८४] सत्तविधे वयणविकप्पे पन्नत्ते, तंजहा-आलावे, अणालावे, उल्लावे, अणुल्लावे, संलावे, पलावे, विप्पलावे ।
[टी०] सकलमिदमनन्तरोदितं वचनप्रत्याय्यमिति वचनभेदानाह– सत्तविहेत्यादि, सप्तविधो वचनस्य भाषणस्य विकल्पो भेदो वचनविकल्प: प्रज्ञप्तस्तद्यथा- आङ ईषदर्थत्वादीषल्लपनमालापः, नञः कुत्सार्थत्वादशीलेत्यादिवत् कुत्सित आलाप: 15 अनालाप इति, उल्लापः काक्वा वर्णनं काक्वा वर्णनमुल्लापः [अमरको० ? ] इति वचनात्, स एव कुत्सितोऽनुल्लाप:, क्वचित् पुनरनुलाप इति पाठस्तत्रानुलाप: पौन:पुन्यभाषणम् अनुलापो मुहुर्भाषा [अमरको० १६] इति वचनात्, संलाप: परस्परभाषणं संलापो भाषणं मिथ: [अमरको० १६] इति वचनात्, प्रलापो निरर्थकं वचनं प्रलापोऽनर्थकं वचः [अमरको० १५] इति वचनात्, स एव विविधो विप्रलाप इति ।
20 [सू० ५८५-१] सत्तविधे विणए पन्नत्ते, तंजहा-णाणविणए, दंसणविणए, चरित्तविणए, मणविणए, वतिविणए, कायविणए, लोगोवयारविणए ।
[टी०] एतेषां वचनविकल्पानां मध्ये केचिद्विकल्पा विनयार्था अपि स्युरिति विनयभेदप्रतिपादनायाह- सत्तविहेत्यादि, सप्तविधो विनीयतेऽष्टप्रकारं कर्माऽनेनेति १. हरिणेग जे१ ॥ २. अणुलावे पा० भां० ॥
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
विनयः प्रज्ञप्तस्तद्यथा - ज्ञानम् आभिनिबोधिकादि पञ्चधा, तदेव विनयो ज्ञानविनयः, ज्ञानस्य वा विनयो भक्त्यादिकरणं ज्ञानविनयः, उक्तं च
भत्ती १ तह बहुमाणो २ तट्ठित्थाण सम्म भावणया ३ ।
विहिगहण ४ भासो वि य ५ एसो विणओ जिणाभिहिओ ॥ [ ]
दर्शनं सम्यक्त्वं तदेव विनयो दर्शनविनयो दर्शनस्य वा तदव्यतिरेकाद्दर्शनगुणाधिकानां शुश्रूषणा- नाशातनारूपो विनयो दर्शनविनयः, उक्तं च
सुस्सूसणा अणासायणा य विणओ उ दंसणे दुविहो । दंसणगुणाहिए कज्जइ सुस्सूसणाविणओ ||
२
सक्कार १ भुट्ठाणे २ सम्माणा ३ सणअभिग्गहो तह य ४ । आसणमणुप्पयाणं ५ कीकम्मं ६ अंजलिगहो य ७ ।। इंतस्सऽणुगच्छणया ८ ठियस्स तह पज्जुवासणा भणिया ९ । गच्छंताणुव्वयणं १० एसो सुस्सूसणाविणओ ॥ [
] इति,
इह च सत्कारः स्तवन-वन्दनादिः, अभ्युत्थानं विनयार्हस्य दर्शनादेवाऽऽसनत्यजनम्, सन्मानो वस्त्र - पात्रादिपूजनम्, आसनाभिग्रहः पुनस्तिष्ठत आदरेण 15 आसनानयनपूर्वकमुपविशताऽत्रेति भणनम्, आसनानुप्रदानं तु आसनस्य स्थानात् स्थानान्तरसञ्चारणम्, कृतिकर्म्म द्वादशावर्त्तवन्दनकम्, शेषं प्रकटमिति, उचितक्रियाकरणरूपोऽयं दर्शने शुश्रूषणाविनयः । अनाशातनाविनयस्तु अनुचितक्रियाविनिवृत्तिरूपः, अयं पञ्चदशविधः, आह च
तित्थगर १ धम्म २ आयरिय ३ वायगे ४ थेर ५ कुल ६ गणे ७ संघे ८ । संभोगिय ९ किरियाए १० मइनाणाईण १५ य तहेव ॥ [ ] सम्भोगका एकसामाचारीकाः, क्रिया आस्तिकता, तीर्थकराणामनाशातनायां तीर्थकरप्रज्ञप्तधर्म्मस्यानाशातनायाम् 'वर्त्तितव्य' मित्येवं सर्वत्र
अत्र
भावना
द्रष्टव्यमिति ।
5
10
20
25
७००
काव्वा पुण भत्ती बहुमाणो तहय वन्नवाओ य ।
अरहंतमाइयाणं केवलनाणावसाणाणं ॥ [ ]
उक्तो दर्शनविनयः, साम्प्रतं चारित्रविनय उच्यते, तत्र चारित्रमेव विनयश्चारित्रस्य १. विनयसम्बद्धाः सर्वा अपि गाथा दशवैकालिकस्य हारिभद्र्यां वृत्तावुद्धृता वर्तन्ते ॥ २. कितिकम्मं जे१ ॥
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०१
[सू० ५८५/२]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । वा श्रद्धानादिरूपो विनयश्चारित्रविनय:, आह च
सामाइयादिचरणस्स सद्दहणया १ तहेव काएणं । संफासणं २ परूवण ३ मह पुरओ भव्वसत्ताणं ॥ [ ] ति, मनोवाक्कायविनयास्तु मन:प्रभृतीनां विनयार्हेषु कुशलप्रवृत्त्यादिः, उक्तं चमणवइकाइयविणओ आयरियाईण सव्वकालं पि । अकुसलाण निरोहो कुसलाणमुईरणं तह य ॥ [ ] लोकानामुपचारो व्यवहारः, तेन स एव वा विनयो लोकोपचारविनयः । [सू० ५८५-२] पसत्थमणविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तंजहा-अपावते, असावज्जे, अकिरिते, निरुवक्केसे, अणण्हवकरे, अच्छविकरे, अभूताभिसंकणे
5
10
अपसत्थमणविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तंजहा-पावते, सावज्जे, सकिरिते, सउवक्केसे, अण्हवकरे, छविकरे, भूताभिसंकणे २ ।
पसत्थवइविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तंजहा-अपावते, असावज्जे, जाव अभूताभिसंकणे ३ ।
अपसत्थवइविणते सत्तविधे पन्नत्ते, तंजहा-पावते जाव भूताभिसंकणे ४। 15 पसत्थकातविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तंजहा-आउत्तं गमणं, आउत्तं ठाणं, आउत्तं निसीयणं, आउत्तं तुअट्टणं, आउत्तं उल्लंघणं, आउत्तं पल्लंघणं, आउत्तं सव्विंदियजोगजुंजणता ५।
अपसत्थकातविणते सत्तविधे पन्नत्ते, तंजहा-अणाउत्तं गमणं जाव अणाउत्तं सव्विंदियजोगजुंजणता ६।
20 लोगोवतारविणते सत्तविधे पन्नत्ते, तंजहा-अब्भासवत्तितं, परच्छंदाणुवत्तितं, कजहेडं, कतपडिकतिता, अत्तगवेसणता, देसकालण्णता, सव्वत्थेसु अपडिलोमता ७।
[टी०] मनोवाक्कायविनयान् प्रशस्ताप्रशस्तभेदान् प्रत्येकं सप्तप्रकारान् लोकोपचारविनयं च सप्तधैवाह- पसत्थमणेत्यादि सूत्रसप्तकं सुगमम्, नवरं प्रशस्त: शुभो मनसो 25 विनयनं विनय:, प्रवर्तनमित्यर्थः, प्रशस्तमनोविनयः । तत्र अपापकः शुभचिन्तारूप:,
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
असावद्यः चौर्यादिगर्हितकर्मानालम्बनः, अक्रियः कायिक्याधिकरणिक्यादिक्रियावर्जितः, निरुपक्लेशः शोकादिबाधावर्जितः, स्नु प्रश्रवणे [पा० धा० १०३८] इति वचनात् आस्नवः आश्रवः कर्मोपादानम्, तत्करणशील आस्नवकरः, तन्निषेधादनास्नवकरः प्राणातिपाताद्याश्रववर्जित इत्यर्थः, अक्षयिकरः प्राणिनां न क्षयेः 5 व्यथाविशेषस्य कारकः, अभूताभिशङ्कनो न भूतान्यभिशङ्कन्ते बिभ्यति यस्मात् स तथा, अभयङ्कर इत्यर्थः, एतेषां च प्रायः सदृशार्थत्वेऽपि शब्दनयाभिप्रायेण भेदोऽवगन्तव्योऽन्यथा वेति, एवं शेषमपि । आयुक्तं गमनम् आयुक्तस्य उपयुक्तस्य संलीनयोगस्य यदिति, एवं सर्वत्र, नवरं स्थानम् ऊर्ध्वस्थानं कायोत्सर्गादि, निसीयणं ति निषदनम् उपवेशनम्, तुयट्टणं शयनम्, उल्लङ्घनं डेवनं देहला (ल्या? ) दे:, प्रलङ्घनम् 10 अर्गलादेः, सर्वेषामिन्द्रियाणां योगा व्यापाराः सर्वे वा ये इन्द्रिययोगास्तेषां योजनता करणं सर्वेन्द्रिययोगयोजनता ।
७०२
अब्भासवत्तियं ति प्रत्यासत्तिवर्त्तित्वम्, श्रुताद्यर्थिना हि आचार्यादिसमीपे आसितव्यमित्यर्थः, परच्छंदाणुवत्तियं ति पराभिप्रायानुवर्त्तित्वम्, कज्जहेउं ति कार्यहेतोः, अयमर्थः कार्यं श्रुतप्रापणादिकं हेतुं कृत्वा श्रुतं प्रापितोऽहमनेनेति 15 हेतोरित्यर्थः, विशेषेण विनये तस्य वर्त्तितव्यं तदनुष्ठानं च कर्त्तव्यमिति, तथा कृतप्रतिकृतिता कृते भक्तादिनोपचारे प्रसन्ना गुरवः प्रतिकृतिं प्रत्युपकरणं सूत्रादिदानतः करिष्यन्तीति भक्तादिदानं प्रति यतितव्यमिति, आर्त्तस्य दुःखार्त्तस्य गवेषणम् औषधादेरित्यार्त्तगवेषणं तदेवाऽऽर्त्तगवेषणतेति, पीडितस्योपकार इत्यर्थः, अथवा आत्मना आप्तेन वा भूत्वा गवेषणं सुस्थदुःस्थतयोरन्वेषणं कार्यमिति, देश - कालज्ञता 20 अवसरज्ञता, सर्वार्थेष्वप्रतिलोमता आनुकूल्यमिति ।
[सू० ५८६] सत्त समुग्धाता पन्नत्ता, तंजहा - वेदणासमुग्धाते, कसायसमुग्धाते, मारणंतियसमुग्घाते, वेउव्वियसमुग्घाते, तेजससमुग्धाते, आहारसमुग्घाते केवलसमुग्धा ।
मणुस्साणं सत्त समुग्धाता एवं चेव ।
[टी०] विनयात् कर्मघातो भवति, स च समुद्घाते विशिष्टतर इति समुद्घातप्ररूपणायाह— सत्त समुग्धायेत्यादि, हन् हिंसागत्योः [ पा० धा० १०९२ ], हननं
25
-
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५८७] सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् ।
७०३ घात:, समित्येकीभावे, उत् प्राबल्ये, तत एकीभावेन प्राबल्येन च घातो निर्जरा समुद्घात:, कस्य केन सहै कीभावगमनम् ?, उच्यते, आत्मनो वेदनाकषायाद्यनुभवपरिणामेन, यदा ह्यात्मा वेदनीयाद्यनुभवज्ञानपरिणतो भवति तदा नान्यज्ञानपरिणत इति, प्राबल्येन घात: कथम् ?, यस्माद्वेदनीयादिसमुद्घातपरिणतो बहून् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्य उदये 5 प्रक्षिप्यानुभूय निर्जरयति, आत्मप्रदेशैः सह संश्लिष्टा। शातयतीत्यर्थः, उक्तं चपुवकयकम्मसडणं तु निजरा [मूलाचारे ४४५] इति । स च वेदनादिभेदेन सप्तधा भवतीत्याह– सप्त समुद्घाता: प्रज्ञप्ता:, तद्यथा- वेदनासमुद्घात इत्यादि, तत्र वेदनासमुद्घातोऽसद्वेद्यकाश्रयः, कषायसमुद्घातः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्माश्रय:, मारणान्तिकसमुद्घातोऽन्तर्मुहूर्तशेषायुष्ककर्माश्रयः, वैकुर्विक-तैजसा- 10 ऽऽहारकसमुद्घाता: शरीरनामकर्माश्रयाः, केवलिसमुद्घातस्तु सदसद्वेधशुभाशुभनामोच्चनीचैर्गोत्रकर्माश्रय इति, तत्र वेदनासमुद्घातसमुद्धत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलशातं करोति, कषायसमुद्घातसमुद्धत: कषायपुद्गलशातं मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धत: आयुष्ककर्मपुद्गलघातं वैकुर्विकसमुद्घातसमुद्धतस्तु जीवप्रदेशान् शरीराबहिनिःकास्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमात्रमायामतश्च सङ्ख्येयानि योजनानि दण्डं निसृजति निसृज्य 15 च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान् शातयति, यथोक्तम्वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणइ, समोहणित्ता संखेजाइं जोयणाई दंडं निसरइ, २ त्ता अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ [कल्पसू० ] त्ति, एवं तैजसा-ऽऽहारकसमुद्घातावपि व्याख्येयौ, केवलिसमुद्घातेन समुद्धतः केवली वेदनीयादिकर्मपुद्गलान् शातयतीति, इहान्त्योऽष्टसामयिक: शेषास्त्वसङ्ख्यातसामयिका इति ।
. 20 __चतुर्विंशतिदण्डकचिन्तायां सप्तापि समुद्घाता मनुष्याणामेव भवन्तीत्याह- मणुस्साणं सत्तेत्यादि, एवं चेव त्ति सामान्यसूत्र इव सप्तापि समुच्चारणीया इति ।
[सू० ५८७] समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तित्थंसि सत्त पवतणनिण्हगा १. 'वेउब्विअसमुग्घाएणं समोहणित्ता संखिज्जाइं जोअणाई दंड निसिरइ, तंजहा- रयणाणं वइराणं वेरुलिआणं
लोहिअक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगब्भाणं पुलयाणं सोगंधियाणं जोईरसाणं अंजणाणं अंजणपुलयाणं जायरूवाणं सुभगाणं अंकाणं फलिहाणं रिट्ठाणं अहाबायरे पुग्गले परिसाडेई' इति पर्युषणाकल्पसूत्रे महावीरचरित्रे पाठः।
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पन्नत्ता, तंजहा-बहुरता, जीवपतेसिता, अव्वत्तिता, सामुच्छेइता, दोकिरिता, तेरासिता, अबद्धिता १ । ___ एतेसि णं सत्तण्हं पवयणनिण्हगाणं सत्त धम्मातरिता होत्था, तंजहा
जमाली, तीसगुत्ते, आसाढे, आसमित्ते, गंगे, छलुए, गोट्ठामाहिले २ । 5 एतेसि णं सत्तण्हं पवयणनिण्हगाणं सत्त उप्पत्तिनगरा होत्था, तंजहा
सावत्थी, उसभपुरं, सेतविता, मिहिल, उल्लुगातीरं । पुरिमंतरंजि, दसपुर, णिण्हगउप्पत्तिनगराई ॥८६॥ ३ । [टी०] एतच्च समुद्घातादिकं जिनाभिहितं वस्त्वन्यथा प्ररूपयन् प्रवचनबाह्यो भवति यथा निह्नवा इति तद्वक्तव्यतां सूत्रत्रयेणाह- समणेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं प्रवचनम् 10 आगमं निह्ववते अपलपन्त्यन्यथा प्ररूपयन्तीति प्रवचननिह्नवा: प्रज्ञप्ता जिनैः । तत्रं
बहुरय त्ति एकेन समयेन क्रियाध्यासितरूपेण वस्तुनोऽनुत्पत्तेः प्रभूतसमयैश्चोत्पत्तेः बहुषु समयेषु रताः सक्ता बहुरताः, दीर्घकालद्रव्यप्रसूतिप्ररूपिण इत्यर्थः । तथा जीव: प्रदेश एव येषां ते जीवप्रदेशास्त एव जीवप्रदेशिका:, अथवा जीवप्रदेशो जीवाभ्युपगमतो विद्यते येषां ते तथा, चरमप्रदेशजीवप्ररूपिण इति हृदयम् । तथा अव्यक्तम् अस्फुटं 15 वस्तु अभ्युपगमतो विद्यते येषां तेऽव्यक्तिकाः, संयताद्यवगमे सन्दिग्धबुद्धय इति
भावना । तथा समुच्छेदः प्रसूत्यनन्तरं सामस्त्येन प्रकर्षेण च छेदः समुच्छेदो विनाश:, समुच्छेदं ब्रुवत इति सामुच्छेदिकाः, क्षणक्षयिकभावप्ररूपका इत्यर्थः । तथा द्वे क्रिये समुदिते द्विक्रियम्, तदधीयते तद्वेदिनो वा द्वैक्रिया:, कालाभेदेन क्रियाद्वयानुभवप्ररूपिण इत्यर्थः, तथा जीवा-ऽजीव-नोजीवभेदास्त्रयो राशय: समाहृतास्त्रिराशि, तत् प्रयोजनं 20 येषां ते त्रैराशिकाः, राशित्रयख्यापका इत्यर्थः । तथा स्पृष्टं जीवेन कर्म न
स्कन्धबन्धवद्वद्धमबद्धम्, तदेषामस्तीत्यबद्धिकाः, स्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपका इति हृदयम्। धम्मायरिय त्ति धर्मः उक्तप्ररूपणादिलक्षण: श्रुतधर्मस्तत्प्रधाना: प्रणायकत्वेनाचार्या धर्माचार्यास्तन्मतोपदेष्टार इत्यर्थः, तत्र जमाली क्षत्रियकुमारः, यो हि श्रमणस्य
भगवतो महावीरस्य भागिनेयो भगवद्दुहितु: सुदर्शनाभिधानाया भर्ता पुरुषपञ्चशतीपरिवारो 25 भगवत्प्रवाजित आचार्यत्वं प्राप्त: श्रावस्त्यां नगर्यां तेन्दुके चैत्ये विहरन्ननुचिता
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् ।
[सू० ५८७ ]
७०५
हारादुत्पन्नरोगो वेदनाभिभूततया शयनार्थं समादिष्टसंस्तारक संस्तरणः 'कृत: संस्तारकः ?' इतिविहितपरिप्रश्नः संस्तारककारिसाधुना संस्त्रियमाणत्वेऽपि संस्तृत इतिदत्तप्रतिवचनो गत्वा च दृष्टक्रियमाणसंस्तारकः कर्मोदयाद्विपर्यस्तबुद्धिः प्ररूपयामास ‘यत् क्रियमाणं कृतमिति भगवान् दिदेश तदसत् प्रत्यक्षविरुद्धत्वाद् अश्रावणशब्दवत्', प्रत्यक्षविरुद्धता चास्यार्द्धसंस्तृतसंस्तारकासंस्तृतत्वदर्शनात्, ततश्च क्रियमाणत्वेन 5 प्रत्यक्षसिद्धेन कृतत्वधर्मोऽपनीयत इति भावना, आह च
सक्खं चिय संथारो ण कज्नमाणो कडो त्ति मे जम्हा ।
बेड़ जमाली सच्चं न कज्जमाणं कयं तम्हा ॥ [ विशेषाव० २३०८ ] इति ।
यश्चैवं प्ररूपयन् स्थविरैरेवमुक्त:- हे आचार्य ! क्रियमाणं कृतमिति नाध्यक्षविरुद्धम्, यदि हि क्रियमाणं क्रियाविष्टं कृतं नेष्यते ततः क्रियानारम्भसमय इव पश्चादपि क्रियाऽभावे 10 कथं तदिष्यत इति संदा प्रसङ्गात्, क्रियाऽभावस्याविशिष्टत्वात्, यदप्युक्तम् ‘अर्द्धसंस्तृतसंस्तारकासंस्तृतत्वदर्शनात्' तदप्ययुक्तम्, यतो यद्यदा यत्राकाशदेशे वस्त्रमास्तीर्यते तत्तदा तत्रास्तीर्णमेव, एवं पाश्चात्त्यवस्त्रास्तरणसमये खल्वसावस्तीर्ण एवेति, आह च
जं जत्थ नभोदेसे अत्थुव्वइ जत्थ जत्थ समयम्मि ।
तं तत्थ तत्थमत्थुयमत्थुव्वंतं पि तं चेव ॥ [ विशेषाव० २३२१] इति । तदेवं विशिष्टसमयापेक्षीणि भगवद्वचनानीति, एवमपि प्रत्युक्तो यो न तत् प्रतिपन्नवान्, सोऽयं बहुरतधर्म्माचार्यः १ ।
तथा तिष्यगुप्तः वसुनामधेयाचार्यस्य चतुर्दशपूर्वधरस्य शिष्यः, यो हि राजगृहे विहरन्नात्मप्रवादाभिधानपूर्वस्य एगे भंते ! जीवप्पएसे जीवे त्ति वत्तव्वं सिया ? नो इणट्ठे 20 समट्टे, एवं दो तिन्नि संखेजा असंखेज्जा वा जाव एक्केणावि पएसेण ऊणे नो जीवे त्ति वत्तव्वं सिया, जम्हा कसिणे पडिपुन्ने लोगागासपएसतुल्लप्पएसे जीवे त्ति वत्तव्वं सिया [ ] इत्येवमादिकमालापकमधीयानः कर्मोदयादुत्थितः सन्नित्थमभिहितवान् यद्येकादयो जीवप्रदेशाः खल्वेकप्रदेशहीना अपि न जीवाख्यां लभन्ते किन्तु चरमप्रदेशयुक्ता एव लभन्त इति, ततः स एवैकः प्रदेशो जीव इति, तद्भावभावित्वाज्जीवत्वस्येति, आह च१. सदाऽप्रसंगात् पासं० ॥ २. इणमट्ठे पा० ॥
15
25
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
एगादओ पएसा न य जीवो न य पएसहीणो वि । जं तो स जेण पुन्नो स एव जीवो पएसो त्ति ॥ [विशेषाव० २३३६]
यश्चैवमभिदधानो गुरुणोक्तो नैतदेवम्, जीवाभावप्रसङ्गात्, कथम् ?, भवदभिमतोऽन्त्यप्रदेशोऽप्यजीव:, आद्यप्रदेशतुल्यपरिणामत्वात्, प्रथमादिप्रदेशवत्, प्रथमादिप्रदेशो 5 वा जीव:, शेषप्रदेशतुल्यपरिणामत्वाद्, अन्त्यप्रदेशवत्, न च पूरण इति कृत्वा तस्य जीवत्वं युज्यते, एकैकस्य पूरणत्वाविशेषाद्, एकमपि विना तस्यासम्पूर्णत्वमिति, आह चगुरुणाऽभिहिओ जइ ते पढमपएसो न संमओ जीवो ।
तो तप्परिणामो च्चिय जीवो कहमंतिमपएसो? ॥ [विशेषाव० २३३७] इत्यादि । 10 एवमुक्तोऽपि न प्रतिपन्नवान्, ततः सङ्घाद् बहिष्कृतः, यश्चामलकल्पायां मित्रश्रीनाम्ना श्रमणोपासकेन संखड्यां भक्तादिग्रहणार्थं गृहमानीयाग्रतश्च विविधानि खाद्यकादिद्रव्याण्युपनिधाय तत एकैकमवयवं दत्त्वा पादेषु निपत्य 'अहो धन्योऽहं मया साधवः प्रतिलम्भिताः' इत्यभिदधानेन ‘अहो अहं भवता धर्षितः' इति वदन्
'भवत्सिद्धान्तेन भवान् प्रतिलम्भितो मया यदि परं वर्द्धमानस्वामिसिद्धान्तेन न' इति 15 प्रतिभणता प्रतिबोधित:, सोऽयं जीवप्रदेशिकानां धर्माचार्य इति २ ।
तथा आषाढः, येन हि श्वेतव्यां नगर्यां पोलासे उद्याने स्वशिष्याणां प्रतिपन्नागाढयोगानां रात्रौ हृदयशूलेन मरणमासाद्य देवेन भूत्वा तदनुकम्पया स्वकीयमेव कडेवरमधिष्ठाय सर्वां सामाचारीम् अनुप्रवर्तयता योगसमाप्ति: शीघ्रं कृता, वन्दित्वा
तानभिहितं च- क्षमणीयं भदन्ता: ! यन्मया यूयं वन्दनं कारिताः, यस्य च शिष्या 20 ‘इयच्चिरमसंयतो वन्दितोऽस्माभिः' इति विचिन्त्याव्यक्तमतमाश्रिताः, तथाहि
को जाणइ किं साहू देवो वा तो न वंदणिज्जो त्ति । होज्जाऽसंजयनमणं होज मुसं वाऽयममुगो त्ति ॥ [विशेषाव० २३५९], यच्छिष्यांश्च प्रतिथेरवयणं जड़ परे संदेहो किं सुरो त्ति साहु त्ति ।
देवे कहन्न संका ? किं सो देवो अदेवो त्ति ॥ 25 तेण कहियं ति व मई देवोऽहं देवदरिसणाओ य
साहु त्ति अहं कहिए समाणरूवम्मि किं संका ? ॥ १. वा अय' जे१,२ पामू० ॥
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०७
[सू० ५८७]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । देवस्स व किं वयणं सच्चं ति न साहुरूवधारिस्स । न परोप्परं पि वंदह जं जाणंता वि जयओ त्ति ॥ [विशेषाव० २३६०-२३६२]
एवं चोच्यमाना अप्यप्रतिपद्यमाना यद्विनेया सवाद् बहिष्कृता विहरन्तश्च राजगृहे बलभद्राभिधानराजेन कटकमद्देन मारणमादिश्य कथमस्मान् यतीन् श्रावकस्त्वं मारयसि' इति ब्रुवाणा 'न वयं जानीम: के यूयं चौरा वा चारिका वा' इति प्रत्युत्तरदानत: 5 प्रतिबोधिता: सोऽयमव्यक्तमतधर्माचार्यः, न चायं तन्मतप्ररूपकत्वेन किन्तु प्रागवस्थायामिति ३ ।
तथा अश्वमित्रः, यो हि महागिरिशिष्यस्य कौण्डिन्याभिधानस्य शिष्यो मिथिलायां नगर्यां लक्ष्मीगृहे चैत्ये अनुप्रवादाभिधाने पूर्वे नैपुणिके वस्तुनि छिन्नच्छेदनयवक्तव्यतायां पडुप्पन्नसमयनेरइया वोच्छिजिस्संति, एवं जाव वेमाणिय त्ति, एवं बिइयाइ- 10 समएसु वत्तव्व[ मित्येवंरूपमालापकमधीयानो मिथ्यात्वमुपगत:, बभाण च- यदि सर्व एव वर्तमानसमयसञ्जाता व्यवच्छेत्स्यन्ति तदा कुत: कर्मणां वेदनमिति, आह च
एवं च कओ कम्माण वेयणं सुकयदुक्कयाणं ति ? । उप्पायाणंतरओ सव्वस्स वि णाससब्भावा ॥ [ ] यश्चैवं प्ररूपयन् गुरुणा भणित:एगनयमएणमिदं सुत्तं वच्चाहि मा हु मिच्छत्तं । निरवेक्खो सेसाण वि नयाण हिययं वियारेहि ॥ [ ] न हि सव्वहा विणासो अद्धापज्जायमेत्तनासम्मि । अद्धापर्याया: कालकृतधर्माः, सपरपज्जायाणंतधम्मिणो वत्थुणो जुत्तो ॥ [विशेषाव० २३९३] अह सुत्ताउ त्ति मई नणु सुत्ते सासयं पि निद्दिढें । वत्थु दव्वट्ठाए असासयं पज्जयट्ठाए ॥ तत्थ वि न सव्वनासो समयादिविसेसणं जओऽभिहियं । इहरा न सव्वनासे समयादिविसेसणं जुत्तं ॥ [विशेषाव० २३९४-५] ति ।
इदं चाप्रतिपद्यमान उद्घाटितः, यश्च काम्पिल्ये शुल्कपालश्रावकैौर्यमाणः 'अस्माभिर्युयं श्रावका: श्रुताः, तत् कथं साधून मारयथ' इति वदन् ‘युष्मत्सिद्धान्तेन 25 १. इदं सर्वमपि गाथापञ्चकम् आवश्यकसूत्रस्य हारिभत्र्यां वृत्तौ मूलभाष्यस्य जेट्ठासुंदसण.... ॥१२६॥ इति
गाथाया वृत्तौ उद्धृतम् ॥ २. धम्मुणो जे१ ॥
15
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे प्रव्रजिता: श्रावकाश्च ये ते व्यवच्छिन्नाः, यूयं वयं चान्ये' इति दत्तप्रत्युत्तर: सम्यक्त्वं प्रतिपन्न: सोऽयं सामुच्छेदिकानां धर्माचार्य इति ४ । __तथा गंग इति, यो हि आर्यमहागिरिशिष्यस्य धनगुप्तस्य शिष्यः
उल्लुकातीराभिधाननगराच्छरद्याचार्यवन्दनार्थं प्रस्थित उल्लुकां नदीमुत्तरन् खलतिना शिरसा 5 दिनकरकरनिकरसम्पातसञ्जातमुष्णं पादाभ्यां च शीतलजलजनितनितान्तशीतं
वेदयंश्चिन्तयामास- सूत्रेऽभिहितमेका क्रियैकदा वेद्यते शीता वोष्णा वा, अहं च द्वे क्रिये वेदयामि अतो द्वे क्रिये समयेनैकेन वेद्येते इति, गत्वा च गुर्वन्तिके वन्दित्वाऽभिदधावभिप्रायमात्मीयमाचार्याय, तेन चावाचि- मैवं वोच:, यतो
नास्त्येकदा क्रियाद्वयवेदनम्, केवलं समय-मनसोरतिसूक्ष्मतया भेदो न लक्ष्यते, 10 उत्पलपत्रशतव्यतिभेदवत्, एवं च प्रतिपादित: सन्नप्रतिपद्यमानो बहिष्कृतः, अन्यदा
राजगृहे महातपस्तीरप्रभाभिधाने नदविशेषे मणिनागनाम्नो नागस्य चैत्ये पर्षन्मध्ये स्वमतमावेदयन् मणिनागेन विसर्पदर्पगर्भया भारत्याऽभिहितो- रे रे दुष्टशैक्ष ! कस्मादस्मासु सत्स्वेवमप्रज्ञापनीयं प्रज्ञापयसि ?, यत इहैव स्थाने स्थितेन भगवता
वर्द्धमानस्वामिना प्रणिन्ये यथैकदैकैव क्रिया वेद्यत इति, ततस्त्वं ततोऽपि लष्टतरो 15 जात: ?, छईयैनं वातम्, मा ते दोषात् नाशयिष्यामीति भयमापन्न: प्रतिबुद्ध:, सोऽयं
द्वैक्रियाणां धर्माचार्य इति ५ ।। ___ तथा छलुए त्ति, द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-समवाय-विशेषलक्षणषट्पदार्थप्ररूपकत्वाद् गोत्रेण चे कौशिकत्वात् षडुलूकः, यो हि नामान्तरेण रोहगुप्तः,
यश्चाऽन्तरज्यां पुर्यां भूतगुहाभिधानव्यन्तरायतने व्यवस्थितानां श्रीगुप्ताभिधानाना20 माचार्याणां वन्दनार्थं ग्रामान्तरादागच्छन् प्रवादिप्रदापितपटहकध्वनिमाकर्ण्य सदधैं च तं निषेध्याऽऽचार्यस्य तन्निवेद्य ततो मायूर्यादिविद्या उपादाय राजकुलमतिगत्य बलश्रीनाम्नो नरनायकस्याग्रत: पोदृशालाभिधानपरिव्राजकप्रवादिनमाहूय तेन च जीवा-ऽजीवलक्षणे राशिद्वये स्थापिते तत्प्रतिभाप्रतिघाताय नोजीवलक्षणं तृतीयं राशि व्यवस्थाप्य तद्विद्यानां स्वविद्याभिः प्रतिघातकरणेन तं निगृह्य गुरुसमीपमागत्य १. यद्यपि सामान्य-विशेष-समवाय' इति रूढः क्रमः, तथापि अत्र सामान्य-समवाय-विशेष' इति क्रमेण
जे१,२, पा० ख० मध्ये पाठ उपलभ्यते इति तथैव स्थापितम् ॥ २. च नास्ति जे२ खं० ॥
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् ।
[सू० ५८७ ]
तन्निवेदितवान्, यश्च गुरुणा अभिहितो यथा - गच्छ राजसभामनुप्रविश्य ब्रूहि राशित्रयप्ररूपणमपसिद्धान्तरूपं वादिपरिभवाय मया कृतमिति, ततो योऽभिमानादाचार्यं प्रत्यवादीत् यथा राशित्रयमेवास्ति, तथाहि-- जीवाः संसारस्थादयः, अजीवा घटादयः, नोजीवास्तु दृष्टान्तसिद्धाः, यथा हि दण्डस्यादिमध्याग्राणि भवन्तीत्येवं सर्वभावानां त्रैविध्यमिति, यश्च राजसमक्षमाचार्येण कुत्रिकापणे जीवयाचने पृथिव्यादिजीवलाभात् 5 अजीवयाचने अचेतनलेष्ट्वादिलाभात् नोजीवयाचनेऽचेतनलेष्ट्वादिलाभाच्च निगृहीतः, सोऽयं त्रैराशिकधर्माचार्य इति ६ ।
तथा गोष्ठामाहिल इति, यो हि दंशपुरनगरे आर्यरक्षितस्वामिनि दिवं गते आचार्य श्री दुबे लिकापुष्पमित्रे गणं परिपालयति विन्ध्याभिधानसाधोरष्टमं कर्मप्रवादाभिधानं पूर्वमाचार्यादुपश्रुत्य प्रत्युच्चारयतः कर्म्मबन्धाधिकारे किञ्चित् कर्म 10 जीवप्रदेशैः स्पृष्टमात्रं कालान्तरस्थितिमप्राप्य विघटते शुष्ककुड्यापतितचूर्णमुष्टिवत्, किञ्चित् पुनः स्पृष्टं बद्धं च कालान्तरेण विघटते आर्द्रलेपकुड्ये सस्नेहचूर्णवत् किञ्चित् पुनः स्पृष्टं बद्धं निकाचितं जीवेन सहैकत्वमापन्नं कालान्तरेण वेद्यते इत्येवमाकर्ण्योक्तवान् नन्वेवं मोक्षाभावः प्रसजति, कथम् ? जीवात् कर्म्म न वियुज्यते, अन्योन्याविभागबद्धत्वात्, स्वप्रदेशवत्, उक्तं च
सोउं भणइ सदोसं वक्खाणमिणं ति पावइ जओ ते । मोक्खाभावो जीवप्पएसकम्माविभागाओ ॥
७०९
नहि कम्मं जीवाओ अवेइ अविभागओ पएस व्व ।
तदणवगमादमोक्खो जुत्तमिणं तेण वक्खाणं ॥ [ विशेषाव० २५१५ - १६] ति, तथा जीवः कर्म्मणा स्पृष्टो न तु बध्यते, वियुज्यमानत्वात्, कञ्चुकेनेव तद्वानिति, 20 ततो विन्ध्यसाधुनैतस्मिन्नाचार्यायाऽर्थे निवेदिते यस्तेनाभिहितो 'भद्र ! यदुक्तं त्वया जीवात् कर्म्म न वियुज्यत इति, तत्र प्रत्यक्षबाधिता प्रतिज्ञा आयु: पुःकर्म्मवियोगात्मकस्य मरणस्य प्रत्यक्षत्वात्, हेतुरप्यनैकान्तिकोऽन्योन्याविभागसम्बद्धानामपि क्षीरोदकादीनामुपायतो वियोगदर्शनात् दृष्टान्तोऽपि न साधनधर्मानुगतः, स्वप्रदेशस्य वियुतत्वासिद्धेस्तद्रूपेणानादिरूपत्वाद् भिन्नं च जीवात् कर्मेति, यच्चोक्तं 'जीवः कर्म्मणा 25 स्पृष्टो न बध्यते' इत्यादि, तत्र किं प्रतिप्रदेशं स्पृष्टो नभसेवोत त्वङ्मात्रे कञ्चुकेनेव ?,
15
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
5
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
यद्याद्यः पक्षः तदा दृष्टान्त - दाष्टन्तिकयोर्वैषम्यं कञ्चुकेन प्रतिप्रदेशमस्पृष्टत्वाद्, अथ द्वितीय:, ततो नापान्तरालगत्यनुयायि कर्म, पर्यन्तवर्त्तित्वाद्, बाह्याङ्गमलवद्, एवं सर्वो मोक्षभाक् कर्मानुगमरहितत्वात् मुक्तवत्' इत्यादि प्रतिपाद्यमानो यो नैतत् प्रतिपन्नवानुद्घाटितश्चेति सोऽयमबद्धिकधर्माचार्य इति ७ ।
उत्पत्तिनगराणि सप्तानां क्रमेण सप्तैव होत्थ त्ति सामान्येन वर्त्तमानत्वेऽपि नगराणां तद्विशेषगुणातीतत्वेनातीतनिर्देश:, सावत्थी गाहा, ऋषभपुरं राजगृहम्, उल्लुका नदी, तत्तीरवर्त्तिनगरमुल्लुकातीरम्, पुरीति नगरी अंतरंजीति तन्नाम, इह च मकारोऽलाक्षणिकः, दसपुर ति अनुस्वारलोपादिति ।
७१०
[सू० ५८८] सातावेयणिज्जस्स कम्मस्स सत्तविधे अणुभावे पन्नत्ते, तंजहा10 मणुन्ना सद्दा, मणुण्णा रूवा जाव मणुन्ना फासा, मणोसुहता, वतिसुहता । असातावेयणिज्जस्स णं कम्मस्स सत्तविधे अणुभावे पन्नत्ते, तंजहाअमणुण्णा सद्दा जाव वतिदुहता ।
[टी०] एते च निह्नवा: संसारे पर्यटन्तः सातासातभोगिनो भविष्यन्तीति तत्स्वरूपं सूत्रद्वयेनाह-- सायेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरम् अणुभावे त्ति विपाक: उदयो रस इत्यर्थः, 15 मनोज्ञाः शब्दादयः सातोदयकारणत्वादनुभावा एवोच्यन्ते, तथा मनसः शुभता मन:शुभता, साऽपि सातानुभावकारणत्वात् सातानुभाव उच्यते, एवं वचः शुभताऽपि, मनःसुखता वा सातानुभाव:, तत्स्वरूपत्वात् तस्याः, एवं वाक्सुखताऽपीति, एवमसातानुभावोऽपि ।
20
[सू० ५८९ ] महाणक्खत्ते सत्ततारे पन्नत्ते १ ।
अभियादिता सत्त णक्खता पुव्वदारिता पन्नत्ता, तंजहा- अभिती, सवणो, धणिट्ठा, सतभिसता, पुव्वा भद्दवता, उत्तरा भवता रेवती २ ।
अस्सिणितादिता णं सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिता पन्नत्ता, तंजहा - अस्सिणी, भरणी, कित्तिता, रोहिणी, मिगसिर, अद्दा, पुणव्वसू ३ ।
पुस्सादिता णं सत्त णक्खत्ता अवरदारिता पन्नत्ता, तंजहा- पुस्सो, 25 असिलेसा, मघा, पुव्वा फग्गुणी, उत्तरा फग्गुणी, हत्थो, चित्ता ४ । सातितातिया णं सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिता पन्नत्ता, तंजहा- साति,
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
७११
[सू० ५८९-५९०]
सप्तममध्ययनं सप्तस्थानकम् । विसाहा, अणुराहा, जेट्ठा, मूलो, पुव्वा आसाढा, उत्तरा आसाढा ५ ।
टी०] सातासाताधिकारात् तद्वतां देवविशेषाणां प्ररूपणाय सूत्रपञ्चकमाह-महेत्यादि सुगमम्, नवरं पूर्वं द्वारं येषामस्ति तानि पूर्वद्वारिकाणि, पूर्वस्यां दिशि गम्यते येष्वित्यर्थः, एवं शेषाण्यपि सप्त सप्तेति, इह चार्थे पञ्च मतानि सन्ति, यत आह चन्द्रप्रज्ञप्त्याम्तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु कत्तिआइआ सत्त नक्खत्ता 5 पुव्वदारिया पन्नत्ता [१०।२१], एवमन्ये मघादीन्यपरे धनिष्ठादीनि इतरेऽश्विन्यादीनि अपरे भरण्यादीनि, दक्षिणापरोत्तरद्वाराणि च सप्त सप्त यथामतं क्रमेणैव समवसेयानीति, वयं पुण एवं वयामो अभियियाइया णं सत्त नक्खत्ता पुव्वदारिया पन्नत्ता [१०।२१], एवं दक्षिणद्वारिकादीन्यपि क्रमेणैवेति, तदिह षष्ठं मतमाश्रित्य सूत्राणि प्रवृत्तानि, लोके तु प्रथमं मतमाश्रित्यैतदभिधीयते, यदुत
दहनाद्यमृक्षसप्तकमैन्द्रयां तु मघादिकं च याम्यायाम् । अपरस्यां मैत्र्यादिकमथ सौम्यां दिशि धनिष्ठादि । भवति गमने नराणामभिमुखमुपसर्पतां शुभप्राप्तौ । अथ पूर्वमृक्षसप्तकमुद्दिष्टं मध्यममुदीच्याम् ॥ पूर्वायामौदीच्यं प्रातीच्यं दक्षिणाभिधानायाम् । याम्यं तु भवति मध्यममपरस्यां यातुराशायाम् ॥ येऽतीत्य यान्ति मूढा: परिघाख्यामनिलदहनदिग्रेखाम् । निपतन्ति तेऽचिरादपि दुर्व्यसने निष्फलारम्भाः ॥ [ ] इति,
[सू० ५९०] जंबूदीवे दीवे सोमणसे वक्खारपव्वते सत्त कूडा पन्नत्ता, तंजहासिद्धे सोमणसे ता बोद्धव्वे मंगलावतीकूडे । देवकुरु विमल कंचण वसिट्ठकूडे त बोद्धव्वे ॥८७॥ जंबुद्दीवे दीवे गंधमायणे वक्खारपव्वते सत्त कूडा पन्नत्ता, तंजहासिद्धे त गंधमातण बोधव्वे गंधिलावतीकूडे । उत्तरकरु फलिहे लोहितक्ख आणंदणे चेव ॥८॥
25 [टी०] देवाधिकाराद्देवनिवासकूटसूत्रद्वयं जंबू इत्यादि कण्ठ्यम्, केवलं सोमणसे १. अभियाइया खं० पा० जे२ ॥ २. प्रतीच्यं पामू०, प्रतीच्यां पासं० ॥ ३. याम्यां जे१ ॥ ४. °णसे य भा०॥
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे त्ति सौमनसे गजदन्तके देवकुरूणां प्राचीने कूटानि शिखराणि, सिद्धे गाहा, सिद्धायतनोपलक्षितं सिद्धकूटं मेरुप्रत्यासन्नमेवं सर्वगजदन्तकेषु सिद्धायतनानि, शेषाणि तत: परंपरयेति, सोमणसे त्ति सौमनसकूटं तत्समाननामकतदधिष्ठातृदेवभवनोपलक्षितम्,
मङ्गलावतीविजयसमनामदेवस्य मङ्गलावतीकूटम्, एवं देवकुरुदेवनिवासो 5 देवकुरुकूटमिति, विमल-काञ्चनकूटे यथार्थे क्रमेण च वत्सावत्समित्राभिधाना
धोलोकवासिदिक्कुमारीद्वयनिवासभूते, वशिष्टकूटं तन्नामदेवनिवासः, एवमुत्तरत्रापि । गन्धमादनो गजदन्तक एवोत्तरकुरूणां प्रतीचीनः, तत्र सिद्ध गाहा कण्ठ्या, नवरं स्फटिककूट-लोहिताक्षकूटे अधोलोकनिवासिभोगङ्करा-भोगवत्यभिधानदिक्कुमारीद्वयनिवासभूते इति । 10 [सू० ५९१] बेतिंदिताणं सत्त जातीकुलकोडिजोणिपमुहसतसहस्सा पन्नत्ता।
[सू० ५९२] जीवा णं सत्तट्ठाणनिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तंजहा-नेरतियनिव्वत्तिते जाव देवनिव्वत्तिते। एवं
चिण जाव णिजरा चेव ॥ 15 [सू० ५९३] सत्तपदेसिता खंधा अणंता पण्णत्ता । सत्तपदेसोगाढा पोग्गला जाव सत्तगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता ।।
[टी०] कूटेष्वपि पुष्करिणीजले द्वीन्द्रिया: सन्तीति द्वीन्द्रियसूत्रं बेइंदियाणमित्यादि, जातौ द्वीन्द्रियजातौ या: कुलकोटय: तास्तथा ताश्च ता योनिप्रमुखाश्च द्विलक्षसङ्ख्य
द्वीन्द्रियोत्पत्तिस्थानद्वारिकास्ता जातिकुलकोटियोनिप्रमुखाः, इह च विशेषणं परपदं 20 प्राकृतत्वात्, तासां शतसहस्राणि लक्षाणीति, इदमुक्तं भवति- द्वीन्द्रियजातौ या
योनयस्तत्प्रभवा या: कुलकोटयस्तासां लक्षाणि सप्त प्रज्ञप्तानीति, तत्र योनिर्यथा गोमयः, तत्र चैकस्यामपि कुलानि विचित्राकारा: कृम्यादय इति । शेषा ध्रुवगण्डिका ससम्बन्धा पूर्ववद् व्याख्येयेति ।
इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गविवरणे सप्तस्थानकाभिधानं 25 सप्तममध्ययनं समाप्तमिति । श्लोकाः ९३० ॥
१. समाप्तं ९३० पा० जे२ ॥
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१३
अथाष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् । [सू० ५९४] अट्ठहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तते, तंजहा-सड्डी पुरिसजाते, सच्चे पुरिसजाते, मेहावी पुरिसजाते, बहुस्सुते पुरिसजाते, सत्तिमं, अप्पाधिकरणे, धितिमं, वीरितसंपन्ने।
[टी०] व्याख्यातं सप्तममध्ययनमधुना सङ्ख्याक्रमसम्बद्धमेवाष्टस्थानकाख्य- 5 मष्टममध्ययनमारभ्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम्- अट्टहीत्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायं सम्बन्ध:- अनन्तरं पुद्गला उक्ता:, ते च कार्मणा: प्रतिमाविशेषप्रतिपत्तिमतो विशेषण निर्जीर्यन्त इत्येकाकिविहारप्रतिमायोग्य: पुरुषो निरूप्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, संहितादिचर्चस्तु प्रसिद्ध एव, नवरम् अष्टाभि: स्थानैः गुणविशेषैः सम्पनो युक्तोऽनगारः साधुरर्हति योग्यो भवति, एगल्ल त्ति एकाकिनो विहारो ग्रामादिचर्या स एव प्रतिमा 10 अभिग्रह: एकाकिविहारप्रतिमा जिनकल्पप्रतिमा मासिक्यादिका वा भिक्षुप्रतिमा तामुपसम्पद्य आश्रित्य णमित्यलङ्कारे विहर्तुं ग्रामादिषु चरितुम्, तद्यथा- सड्डि त्ति श्रद्धा तत्त्वेषु श्रद्धानमास्तिक्यमित्यर्थोऽनुष्ठानेषु वा निजोऽभिलाषस्तद्वत्, सकलनाकिनायकैरप्यचलनीयसम्यक्त्वचारित्रमित्यर्थः, पुरुषजातं पुरुषप्रकार: १, तथा सत्यं सत्यवादि, प्रतिज्ञाशूरत्वात्, सद्भयो हितत्वाद्वा सत्यम् २, तथा मेधा 15 श्रुतग्रहणशक्तिस्तद्वत् मेधावि, अथवा मेराए धावति त्ति मेधावि मर्यादावर्ति ३, तथा मेधावित्वाद् बहु प्रचुरं श्रुतम् आगम: सूत्रतोऽर्थतश्च यस्य तद् बहुश्रुतम्, तच्चोत्कृष्टतोऽसम्पूर्णदशपूर्वधरं जघन्यतो नवमस्य तृतीयवस्तुवेदीति ४, तथा शक्तिमत् समर्थं पञ्चविधकृततुलनमित्यर्थः, तथाहितवेण सत्तेण सुत्तेण एगत्तेण बलेण य ।
20 तुलणा पंचहा वुत्ता जिणकप्पं पडिवजओ ॥ [बृहत्कल्प० १३२८] त्ति ५।
अल्पाधिकरणं निष्कलहम् ६, धृतिमत् चित्तस्वास्थ्ययुक्तमरतिरत्यनुलोमप्रतिलोमोपसर्गसहमित्यर्थः ७, वीर्यम् उत्साहातिरेकस्तेन संपन्नमिति ८, इहाद्यानामेव चतुर्णां पदानां प्रत्येकमन्ते पुरुषजातशब्दो दृश्यते ततोऽन्त्यानामप्ययं सम्बन्धनीय इति।
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
[सू० ५९५ ] अट्ठविधे जोणिसंगहे पन्नत्ते, तंजहा - अंडगा, पतंगा जाव उब्भिगा, उववातिता १ ।
अंडगा अट्ठगतिता अट्ठागतिता पन्नत्ता, तंजहा - अंडए अंडएसु उववज्जमाणे अंडरहिंतो वा पोततेहिंतो वा जाव उववातितेहिंतो वा उववज्जेज्जा, से चेव 5 णं से अंडते अंडगत्तं विप्पजहमाणे अंडगत्ताते वा पोतगत्ताते वा जाव उववातितत्ताते वा गच्छेज्जा २ ।
७१४
एवं पोतगा वि ३, जराउजा वि ४, सेसाणं गतीरागती णत्थि ।
[टी०] अयं चैवंविधोऽनगारः सर्वप्राणिनां रक्षणक्षमो भवतीति तेषामेव योन्याः सङ्ग्रहं गत्यागती चाह— अट्ठविहेत्यादि सूत्रचतुष्टयं सुगमम्, नवरमौपपातिका देव10 नारकाः, सेसाणं ति अण्डज - - पोतज- जरायुजवर्जितानां रसजादीनां गतिरागतिश्च नास्तीत्यष्टप्रकारेति शेषः, यतो रसजादयो नौपपातिकेषूत्पद्यन्ते, पञ्चेन्द्रियाणामेव तत्रोत्पत्तेः, नाप्यौपपातिका रसजादिषु सर्वेष्वप्युपपद्यन्ते, पञ्चेन्द्रियैकेन्द्रियेष्वेव तेषामुपपत्तेरिति अण्डज-पोतज - जरायुजसूत्राणि त्रीण्येव भवन्तीति ।
[सू० ५९६] जीवा णमट्ठ कम्मपगडीतो चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति 15 वा, तंजहा - णाणावरणिज्जं, दरिसणावरणिज्जं, वेयणिज्जं, मोहणिज्जं, आउयं, नामं, गोत्तं, अंतरातितं ।
नेरइया णं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा एवं चेव । एवं निरंतरं जाव वेमाणियाणं ।
जीवा मट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा एवं 20 चेव । एवं निरंतरं जाव वेमाणियाणं ।
जीवा मट्ठ कम्मपगडीओ उवचिंणिसु वा ३ एवं चेव । एवंचिण उवचिण बंध उदीर वेय तह णिज्जरा चेव ॥
एते छ चउवीसा दंडगा भाणियव्वा ।
[टी०] अण्डजादयश्च जीवा अष्टविधकर्म्मचयादेर्भवन्तीति चयादीन् षट् क्रियाविशेषान् 25 सामान्यतो नारकादिपदेषु च प्रतिपादयन्नाह - जीवा णमित्यादि, प्रागिव व्याख्येयम्, १. सू० ५४३ ॥ २. 'तिकेषु सर्वेप्युत्पद्यन्ते खं० । 'तिकेषु सर्वेषूत्पद्यन्ते पा० जे२ ॥ ३. सू० २५० ॥
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
७१५
[सू० ५९७] नवरं चयनं व्याख्यानान्तरेणाऽऽसकलनम्, उपचयनं परिपोषणम्, बन्धनं निर्मापणम्, उदीरणं करणेनाकृष्य दलिकस्योदये दानम्, वेदनम् अनुभव उदय इत्यर्थः, निर्जरा प्रदेशेभ्य: शटनमिति, लाघवार्थमतिदिशन्नाह एवं चेव त्ति यथा चयनार्थ: कालत्रयविशेषत: सामान्येन नारकादिषु चोक्तः एवमुपचयार्थोऽपीति भाव: । एवं चिणेत्यादि गाथोत्तरार्द्ध प्राग्वत् । एए छेत्यादि, यतश्चयनादिपदानि षड् अतः 5 सामान्यसूत्रपूर्वका: षडेव दण्डका इति ।
[सू० ५९७] अट्ठहिं ठाणेहिं माई मायं कटु नो आलोएजा, नो पडिक्कमेजा जाव नो पडिवज्जेजा, तंजहा-करिंसु वऽहं १, करेमि वऽहं २, करिस्सामि वऽहं ३, अकित्ती वा मे सिया ४, अवण्णे वा मे सिया ५, अवणये वा मे सिया ६, कित्ती वा मे परिहातिस्सति ७, जसे वा मे परिहातिस्सति 10 ८ । __ अट्ठहिं ठाणेहिं माई मायं कटु आलोएजा जाव पडिवजेजा, तंजहामातिस्स णं अस्सिं लोए गरहिते भवति १, उववाते गरहिते भवति २, आजाती गरहिता भवति ३, एगमवि माती मातं कटु नो आलोएजा जाव नो पडिवज्जेजा णत्थि तस्स आराहणा ४, एगमवि मायी मायं कटु 15 आलोएजा जाव पडिवजेजा अत्थि तस्स आराहणा ५, बहुतो वि माती माताओ कट्ट नो आलोएज्जा जाव नत्थि तस्स आराधणा ६, बहुओ वि माती मायाओ कटु आलोएजा जाव अत्थि तस्स आराधणा ७, आयरियउवज्झायस्स वा मे अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पजेजा, से य मममालोएजा माती णं एसे ८ ।
20 माती णं मातं कटु से जहानामए अयागरे ति वा तंबागरे ति वा तउआगरे ति वा सीसागरे ति वा रुप्पागरे ति वा सुवन्नागरे ति वा तिलागणी ति वा तुसागणी ति वा भुसागणी ति वा णलागणी ति वा दलागणी ति वा सोंडितालित्थाणि वा भंडितालित्थाणि वा गोलियालित्थाणि वा कुंभारावाते ति वा कवेलुतावाते ति वा इटावाते ति वा जंतवाडचुल्ली ति वा लोहारंबरिसाणि 25
१. सू० १७३ ।। २. वा हं भां० विना ॥ ३. अविणते भां० जे० विना ॥
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
वा तत्ताणि समजोतिभूताणि किंसुकफुल्लसमाणाणि उक्कासहस्साइं विणिम्मुतमाणाई २ जालासहस्साइं पहुंचमाणाई २ इंगालसहस्साइं पविक्खिरमाणाई २ अंतो अंतो झियायंति एवामेव माती मातं कट्टु अंतो अंतोझियाइ । जदि वि त णं अन्ने केति वदंति तं पित णं माती जाणति 5 'अहमेसे अभिसंकिज्जामि २' |
माती णं मतं कट्टु अणालोतितपडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताते उववत्तारो भवंति, तंजहा - नो महिड्डिएसु जाव नो दूरंगतितेसु नो चिट्ठितीसु, से णं तत्थ देवे भवति णो महिड्डिए जाव नो चिरट्ठितीते, जावित से तत्थ बाहिरब्भंतरिया परिसा भवति सा वि त णं नो आढाति 10 नो परियाणाति णो महरिहेणमासणेणं उवनिमंतेति । भासं पित से भासमा
जाव चत्तारि पंच देवा अणुत्ता चेव अब्भुट्ठेति ' मा बहुं देवे ! भासउ २' |
से णं ततो देवलोगाओ आउक्खणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता इहेव माणुस्सए भवे जाई इमाई कुलाई भवंति, तंजहाअंतकुलाणि वा पंतकुलाणि वा तुच्छकुलाणि वा दरिद्दकुलाणि वा 15 किवणकुलाणि वा भिक्खागकुलाणि वा तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताते पच्चायाति, से णं तत्थ पुमे भवति दुरूवे दुवन्ने दुग्गंधे दुरसे दुफासे अणिट्ठे अकंते अप्पिए अमणुण्णे अमणामे हीणस्सरे दीणस्सरे अणिट्ठस्सरे अकंतस्सरे अपियस्सरे अमणुण्णस्सरे अमणामस्सरे अणाज्जवयणपच्चायाते । जा वि त से तत्थ बाहिरब्भंतरिता परिसा भवति सा वि त णं णो आढाति णो 20 परिताणाति नो महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेति, भासं पित से भासमा जाव चत्तारि पंच जणा अवुत्ता चेव अब्भुट्ठेति मा बहुं अज्जउत्तो ! भासउ २' ।
मातीणं मातं कट्टु आलोचितपडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तंजहा- महिड्डिएसु जाव चिरट्ठितीएसु । 25 से णं तत्थ देवे भवति महिड्डिते जाव चिरट्ठितीते हारविरातितवच्छे
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५९७ ]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
कडकडितथंभितभुते अंगद - कुंडल - मट्ठगंडतलकन्नपीढधारी विचित्तहत्थाभरणे विचित्तवत्थाभरणे विचित्तमालामउली कल्लाणगपवरवत्थपरिहिते कल्लाणगपवरगंधमल्लाणुलेवणधरे भासरबोंदी पलंबवणमालधरे दिव्वेणं वन्त्रेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं रसेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघातेणं दिव्वेणं ठाणेणं दिव्वाते इड्डीते दिव्वाते जुतीए दिव्वाते पभाते दिव्वाते छाया 5 दिव्वाते अच्चीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाते लेस्साते दस दिसाओ उज्जोवेमाणे पभासेमाणे महयाहतणट्टगीतवातिततंतीतलतालतुडितघणमुतिंगपडुप्पवातितरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति । जा वित से तत्थ बाहिरब्भंतरिता परिसा भवति सा वि त णमाढाति परियाणाति महारिणमासणेणं उवनिमंतेति, भासं पित से भासमाणस्स जाव चत्तारि 10 पंच देवा अवुत्ता चेव अब्भुट्ठेति 'बहुं देवे ! भासउ २' । से णं ततो देवलोगातो आउक्खएणं ३ जाव चइत्ता इहेव माणुस्सए भवे जाई इमाई कुलाई भवंति अड्डाई जाव बहुजणस्स अपरिभूताइं तहप्पगारेसु कुलेसु पुमा पच्चाताति । से णं तत्थ पुमे भवति सुरूवे सुवन्ने सुगंधे सुरसे सुफासे इट्ठे कंते जाव मणामे अहीणस्सरे जाव मणामस्सरे 15 आदेज्जवतणपच्चायाते । जा वि य से तत्थ बाहिरब्भंतरिता परिसा भवति सावणं आढत जाव ' बहुमज्जउत्ते ! भासउ २' |
[टी०] अष्टविधकर्मणः पुनश्चयादिहेतुमासेव्य तद्विपाकं जानन्नपि कर्म्मगुरुत्वात् कश्चिन्नालोचयतीति दर्शयन्नाह - अट्ठहीत्यादि, मायीति मायावान् मायं ति गुप्तत्वेन मायाप्रधानोऽतिचारो मायैव, तां कृत्वा विधाय नो आलोचयेद् गुरवे न निवेदयेत्, 20 नो प्रतिक्रामेत् न मिथ्यादुष्कृतं दद्यात्, जावकरणात् नो निंदेना स्वसमक्षम्, नो गरहेजा गुरुसमक्षम्, नो विउट्टेज्जा न व्यावर्त्तेतातिचारात्, नो विसोहेज्जा न विशोधयेदतिचारकलङ्क शुभभावजलेन, नो अकरणतया अपुनः करणेनाभ्युत्तिष्ठेद् अभ्युत्थानं कुर्यात्, नो यथार्हं तपः कर्म्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्येतेति, तद्यथा- करेसुं वऽहं ति कृतवांश्चाहमपराधम् कृतत्वाच्च कथं तस्य निन्दादि युज्यते, तथा कॅरेमि 25 १. वा हं पा० जे२ ॥ २. करेमि वा हं जे१ ॥
७१७
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे वऽहं ति साम्प्रतमपि तमहमतिचारं करोमीति कीदृश्यनिवृत्तस्यालोचनादिक्रिया ?, तथा करिष्यामि वाऽहमिति न युक्तमालोचनादीति ३, शेषं स्पष्टम्, नवरमकीर्तिः एकदिग्गामिन्यप्रसिद्धिः, अवर्ण: अयश: सर्वदिग्गामिन्यप्रसिद्धिरेव, एतद् द्वयमविद्यमानं मे भविष्यतीति, अपनयो वा पूजा-सत्कारादेरपनयनं मे स्यादिति, तथा कीर्तिर्यशो 5 वा विद्यमानं मे परिहास्यतीति ।। ___ उक्तार्थस्य विपर्ययमाह- अट्टहीत्यादि सुगमम्, नवरं मायीत्यासेवावसर एव नालोचनाद्यवसरेऽपि, मायिन आलोचनाद्यप्रवृत्तेः, मायाम् अपराधलक्षणां कृत्वा आलोचयेदित्यादि, मायिनो ह्यनालोचनादावयमनर्थः, यदुत- अस्सिं ति अयं लोको जन्म गर्हितो भवति, सातिचारतया निन्दितत्वादिति, उक्तं चभीउव्विग्गनिलुक्को पायडपच्छन्नदोससयकारी । अप्पच्चयं जणंतो जणस्स धी जीवियं जियइ ॥ [उपदेशमाला० ४७८] त्ति । इत्येकम् । तथा उपपातो देवजन्म गर्हितः किल्बिषिकादित्वेनेति, उक्तं चतवतेणे वइतेणे रूवतेणे य जे नरे ।
आयारभावतेणे य कुव्वई देवकिब्बिसं ॥ [दशवै० ५।२।४६] इति द्वितीयम् । 15 आजाति: ततश्च्युतस्य मनुष्यजन्म गर्हिता जात्यैश्वर्यरूपादिरहिततयेति, उक्तं चतत्तो वि से चइत्ताणं लब्भिही एलमूयगं । नरगं तिरिक्खजोणिं वा बोही जत्थ सुदुल्लहा ॥ [दशवै० ५।२।४८] इति तृतीयम् ।
तथा एकामपि मायी मायाम् अतिचाररूपां कृत्वा यो नालोचयेदित्यादि नास्ति 20 तस्याराधना ज्ञानादिमोक्षमार्गस्येत्यनर्थ इति, उक्तं च__ लजाए गारवेण य बहुस्सुयमएण वा वि दुच्चरियं ।।
जे न कहिंति गुरूणं न हु ते आराहगा होति ॥ [उत्तरा० नि० २१७], तथानवि तं सत्थं व विसं व दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो ।
जंतं व दुप्पउत्तं सप्पो व पमाइओ कुद्धो ॥ 25 जं कुणइ भावसल्लं अणुद्धियं उत्तमट्ठकालम्मि ।
दुल्लहबोहीअत्तं अणंतसंसारियत्तं वा ॥ [ओघनि० ८०३-४] इति चतुर्थम् ।
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१९
[सू० ५९७]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् । तथा एकामपीत्यादिना त्वर्थप्राप्तिरुक्तेति, यदाहउद्धरियसव्वसल्लो भत्तपरिन्नाए धणियमाउत्तो । मरणाराहणजुत्तो चंदगवेझं समाणेइ ॥ [ओघनि० ८०७] इति पञ्चममिति ।
एवं बहुत्वेनापि अनालोचनादावालोचनादौ वाऽनर्थोऽर्थश्च षष्ठ-सप्तमे । तथाऽऽचार्योपाध्यायस्य वा मे अतिशेष ज्ञानदर्शनं समुत्पद्येत, स च मामालोकयेत् 5 मायी णमेष इत्युल्लेखेनेत्येवं भयादालोचयतीत्यष्टमम् । शेष सूत्रम् अयं लोक उपपात आजातिश्च गर्हितेत्यस्य पदत्रयस्य विवरणतया अवगन्तव्यम् । तत्र मायी मायां कृत्वेति, इह कीदृशो भवेदुच्यत इति वाक्यशेषो दृश्य:, स इति यो भवतोऽपि प्रसिद्ध: यथेति दृष्टान्तोपन्यासे नामए त्ति सम्भावनायामलङ्कारे वा अयआकरो लोहाकर: यत्र लोहं ध्यायते, इतिरुपप्रदर्शने, वा विकल्पे, तिला धान्यविशेषास्तेषामवयवा अपि 10 तिलास्तेषामग्निः तद्दहनप्रवृत्तो वह्निस्तिलाग्निः, एवं शेषा अप्यग्निविशेषाः, नवरं तुषा: कोद्रवादीनाम्, बुसं यवादीनां कडङ्गरः, नल: शुषिरशराकारः, दलानि पत्राणि, सुण्डिका: पिटकाकाराणि सुरापिष्टस्वेदनभाजनानि केवल्ल्यो वा सम्भाव्यन्ते, तासां लित्थाणि चुल्लीस्थानानि सम्भाव्यन्ते, उक्तं च वृद्धैः- गोलियसोंडियभंडियलित्थाणि अग्नेराश्रयाः [ ], अन्यैस्तु देशभेदरूढ्या एते पिष्टपाचकाग्न्यादिभेदा इत्युक्तम्, 15 मयाऽप्येतदुपजीव्यैव सम्भावितमिति, तथा भाण्डिकाः स्थाल्य:, ता एव महत्यो गोलिकाः, प्रतीतं चैतच्छब्दद्वयम्, लिंत्थानि तान्येवेति, कुम्भकारस्यापाको भाण्डपचनस्थानम्, कवेल्लुकानि प्रतीतानि तेषामापाकः प्रतीत एव, जंतवाडचुल्ली इक्षुयन्त्रपाटचुल्ली, लोहारंबरिसाणि व त्ति लोहकारस्याम्बरीषा भाष्ट्रा आकरणानीति लोहकाराम्बरीषा इति, तप्तानि उष्णानि, समानि तुल्यानि जाज्वल्यमानत्वात् ज्योतिषा 20 वह्निना भूतानि जातानि यानि तानि समज्योतिर्भूतानि, किंशुकफुल्लं पलासकुसुमम्, तत्समानानि रक्ततया, उल्का इव उल्का अग्निपिण्डास्तत्सहस्राणीति प्राचुर्यख्यापकं विनिर्मुञ्चन्ति विनिर्मुञ्चन्तीति भृशार्थे द्विवचनम्, अङ्गारा लघुतराग्निकणाः, १. सरा' पा० जे२ ॥ २. शुंडिका: जे१ ॥ ३. कवेल्लयो पा० ॥ ४. लित्थाणि जे२ ॥ ५. लित्थाणि
जे१,२ ॥ ६. भंडिका: पा० जे२ ॥ ७. लित्थाणि खं० जे२ ।। ८. आकारणानीति खं० । आकाराणीति जे१ ॥ ९. पलाशकुसुमं जे२ । पलासफुल्लं खं० ॥ १०. प्रमुञ्चन्ति प्रमुञ्चन्तीति जे१ ॥
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
तत्सहस्राणि प्रविकिरन्ति प्रविकिरन्ति अन्तरन्तः झियायंति ध्मायन्ति इन्धनैर्दीप्यन्त इति दृष्टान्तः, दाष्टन्तिकस्त्वेवमेवेत्यादि, पश्चात्तापाग्निना ध्मायति जाज्वल्यते, अहमेसे त्ति अहमेषोऽभिशङ्क्ये अहमेषोऽभिशङ्क्य इति एभिरहं दोषकारितया आशङ्क्ये सम्भाव्ये इति, उक्तं हि
5 निच्वं संकियभीओ गम्मो सव्वस्स खलियचारित्तो ।
७२०
साहुजणस्स अवमओ मओ वि पुण दुग्गइं जाइ || [ उपदेशमाला० २२६ ] अनेनाऽनालोचकस्यायं लोको गर्हितो भवतीति दर्शितम् ।
सेणं तस्सेत्यादिना, पाठान्तरेण मायी णं मायं कट्टु इत्यादिना वा उपपातो गर्हितो भवतीति दर्श्यते । कालमासे त्ति मरणमासे उपलक्षणत्वान्मरणदिवसे मरणमुहूर्ते कालं 10 किच्चा मरणं कृत्वा अन्यतरेषु व्यन्तरादीनां देवलोकेषु देवजनेषु मध्ये उववत्तारो त्ति वचनव्यत्ययादुपपत्ता भवतीति, नो महर्द्धिकेषु परिवारादिऋद्ध्या, नो महाद्युतिषु शरीराभरणादिदीप्त्या, नो महानुभागेषु वैक्रियादिशक्तितः, नो महाबलेषु प्राणवत्सु, नो महासौख्येषु नो महेशाख्येषु वा, नो दूरंगतिकेषु न सौधर्म्मादिगतिषु, नो चिरस्थितिकेषु एक-द्व्यादिसागरोपमस्थितिकेषु, यापि च से तस्य तत्र देवलोकेषु 15 बाह्या अप्रत्यासन्ना दासादिवत् अभ्यन्तरा प्रत्यासन्ना पुत्र - कलत्रादिवत् परिषत् परिवारो भवति सापि नो आद्रियते नादरं करोति, नो परिजानाति स्वामितया नाभिमन्यते, नो नैव महच्च तदर्हं च योग्यं महार्हं तेनाऽऽसनेनोपनिमन्त्रयते, किं बहुना ?, दौर्भाग्यातिशयात्तस्य यावच्चतुःपञ्चा: देवा भाषणनिषेधायाऽभ्युत्तिष्ठन्ति प्रयतन्ते, कथम् ?, मा बहुमित्यादि, अनेनोपपातगर्होक्ता ।
आजातिगर्हितत्वं तु से णमित्यादिनाऽऽचष्टे, से त्ति सोऽनालोचकस्ततो व्यन्तरादिरूपाद् देवलोकादवधेः, आयुः क्षयेण आयुः कर्म्मपुद्गलनिर्जरणेन, भवक्षयेण आयुः कर्मादिनिबन्धनदेवपर्यायनाशेन, स्थितिक्षयेण आयुःस्थितिबन्धक्षयेण देवभवनिबन्धनशेषकर्म्मणां वा, अनन्तरम् आयुः क्षयादेः समनन्तरमेव च्यवं च्यवनं च्युत्वा कृत्वा इहैव प्रत्यक्षे मानुष्यके भवे पुंस्तया प्रत्याजायत इति सम्बन्धः, केषु ? 25 कुलेषु कुटुम्बेषु अन्वयेषु वा, किंविधेषु ? यानि इमानि वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षाणि
20
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ५९७] अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
७२१ भवन्ति, तद्यथा- अन्तकुलानि वरुट-छिपकादीनाम्, प्रान्तकुलानि चण्डालादीनाम्, तुच्छकुलानि अल्पमानुषाणि अगम्भीराशयानि वा, दरिद्रकुलानि अनीश्वराणि, कृपणकुलानि तर्कणवृत्तीनि नट-नग्नाचार्यादीनाम्, भिक्षाककुलानि भिक्षणवृत्तीनि तथाविधलिङ्गिकानां च, तथाप्रकारेष्वन्तकुलादिष्वित्यर्थः, प्रत्यायाति प्रत्याजायते वा पुमे त्ति पुमान् । अणिद्वेत्यादि, इष्यते स्म प्रयोजनवशादितीष्टः, कान्त: कान्तियोगात्, 5 प्रिय: प्रेमविषय:, मनोज्ञ: शुभस्वभाव:, मनसा अभ्यते गम्यते सौभाग्यतोऽनुस्मर्यत इति मनोऽमः, एतन्निषेधात् प्रकृतविशेषणानि । तथा हीनस्वरः हस्वस्वरः, तथा दीनो दैन्यवान् पुरुषस्तत्सम्बन्धित्वात् स्वरोऽपि दीन:, स स्वरो यस्य स तथा, अनादेयवचनश्चासौ प्रत्याजातश्चेति, अथवा प्रथमैकवचनलोपादनादेयवचनो भवति प्रत्याजात: सन्निति, शेषं कण्ठ्यं यावद् भासउ त्ति, अनेन प्रत्याजातिगर्हितत्वमुक्तमिति। 10
मायीत्यादिना आलोचकस्येहलोकादिस्थानत्रयागर्हितत्वमुक्तविपर्ययस्वरूपमाह । हारेण विराजितं वक्ष: उरो यस्य स तथा, कटकानि प्रतीतानि तुटितानि बाह्वाभरणविशेषास्तैः स्तम्भितौ स्तब्धीकृतौ भुजौ बाहू यस्य स तथा । अंगदेत्यादि, कर्णावेव पीठे आसने कुण्डलाधारत्वात् कर्णपीठे, मृष्टे घृष्टे गण्डतले च कपोलतटे कर्णपीठे च यकाभ्यां ते मृष्टगण्डतलकर्णपीठे ते च ते कुण्डले चेति विशेषणोत्तरपद: 15 प्राकृतत्वात् कर्मधारयः, अङ्गदे च केयूरे बाह्वाभरणविशेषावित्यर्थः, कुण्डलमृष्टगण्डतलकर्णपीठे च धारयति य: स तथा, अथवा अङ्गदे च कुण्डले च मृष्टगण्डतले कर्णपीठे च कर्णाभरणविशेषभूते धारयति यः स तथा, तथा विचित्राणि विविधानि हस्ताभरणानि अङ्गुलीयकादीनि यस्य स तथा, तथा विचित्राणि वस्त्राणि चाभरणानि च यस्य, वस्त्राण्येव वाऽऽभरणानि भूषणानि, अवस्थाभरणानि वा 20 अवस्थोचितानीत्यर्थो यस्य स तथा, विचित्रा मालाश्च पुष्पमाला मौलिश्च शेखरो यस्य विचित्रमालानां वा मौलिर्यस्य स तथा, कल्याणकानि मङ्गल्यानि प्रवराणि मूल्यादिना वस्त्राणि परिहितानि निवसितानि येन तान्येव वा परिहितो निवसितो य: स तथा, कल्याणकं प्रवरं च पाठान्तरेण प्रवरगन्धं च माल्यं मालायां साधु १. पुमि त्ति पा० जे२ ॥ २. कल्याणकं च प्रवरं च जे१ ।।
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पुष्पमित्यर्थः अनुलेपनं च श्रीखण्डादिविलेपनं यो धारयति स तथा, भास्वरा दीप्रा बोन्दी शरीरं यस्य स तथा, प्रलम्बा या वनमाला आभरणविशेषस्तां धारयति यः स तथा, दिव्येन स्वर्गसम्बन्धिना प्रधानेनेत्यर्थो वर्णादिना युक्त इति गम्यते, सङ्घातेन
संहननेन वज्रर्षभनाराचलक्षणेन संस्थानेन समचतुरस्रलक्षणेन ऋद्ध्या विमानादिरूपया 5 युक्त्या अन्यान्यभक्तिभिस्तथाविधद्रव्ययोजनेन प्रभया प्रभावन माहात्म्येनेत्यर्थः, छायया प्रतिबिम्बरूपया अर्चिषा शरीरनिर्गततेजोज्वालया तेजसा शरीरस्थकान्त्या लेश्यया अन्त:परिणामरूपया शुक्लादिकया उद्द्योतयमानः स्थूलवस्तूपदर्शनत: प्रभासयमानस्तु सूक्ष्मवस्तूपदर्शनत इति, एकार्थिकत्वेऽपि चैतेषां न दोषः, उत्कर्षप्रतिपादकत्वेना
ऽभिहितत्वादिति, महता प्रधानेन बृहता वा रवेणेति सम्बन्धः, अहतः अनुबद्धो 10 रवस्यैतद्विशेषणं नाट्यं नृत्तं तेन युक्तं गीतं नाट्यगीतं तच्च वादितानि च तानि
शब्दवन्ति कृतानि तन्त्री च वीणा तलौ च हस्तौ तालाश्च कंशिका: तुडिय त्ति तूर्याणि च पटहादीनि वादिततन्त्री-तल-ताल-तूर्याणि तानि च तथा घनो मेघस्तदाकारो यो मृदङ्गो ध्वनिगाम्भीर्यसाधात् स चासौ पटुना दक्षेण प्रवादितश्च य: स
घनमृदङ्गपटुप्रवादित: स चेति द्वन्द्वे तेषां रव: शब्दस्तेन करणभूतेन, अथवा आहय 15 त्ति आख्यानकप्रतिबद्धं यन्नाट्यं तेन युक्तं यद् गीतम्, शेषं तथैव, इह च मृदङ्गग्रहणं
तूर्येषु मध्ये तस्य प्रधानत्वात्, यत उच्यते- मद्दलसाराइं तूराई [ ] ति, भोगार्हा भोगा: शब्दादयो भोगभोगास्तान् भुञ्जान: अनुभवन् विहरति क्रीडति तिष्ठति वेति, भाषामपि च से तस्य भाषमाणस्याऽऽस्तामेको द्वौ वा सौभाग्यातिशयात् यावच्चत्वारः पञ्च
वा देवा अनुक्ता एव केनाप्यप्रेरिता एव भाषणप्रवर्तनाय बहोरपि भाषितस्य 20 स्वबहुमतत्वख्यापनाय चाभ्युत्तिष्ठन्ति, ब्रुवते च बहुमित्यादि, अभिमतमिदं भवदीयं
भाषणमिति हृदयम्, अनेनालोचकस्योपपातागर्हितत्वमुक्तम्, एतद्भणनादिहलोकागर्हितत्वमपि लघुता-ऽऽह्लादाद्यालोचनागुणसद्भावेन वाच्यम्, आलोचनागुणाश्चैते
लहुया ल्हाईजणणं अप्पपरनियत्ति अज्जवं सोही ।
दुक्करकरणं आढा निस्सल्लत्तं च सोहिगुणा ॥ [व्यवहारभा० १।३१७] १. अनुलेपनं श्रीखण्डादिविलेपनं च जे१। अनुलेपनं च श्री खण्डादिविलेपनं च जे२ ॥ २. कंसिकाः
जे१ ॥ ३. °ल्हाइयज' पासं० ॥
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२३
[सू० ५९८-५९९]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् । इदानीं तस्यैव प्रत्याजात्यगर्हितत्वमाह से णमित्यादिना, अड्डाइं ति धनवन्ति यावत्करणात् दित्ताई दीप्तानि प्रसिद्धानि दृप्तानि वा दर्पवन्ति वित्थिन्नविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइं तत्र विस्तीर्णानि विस्तारवन्ति विपुलानि बहूनि भवनानि गृहाणि शयनानि पर्यादीनि आसनानि सिंहासनादीनि यानानि रथादीनि वाहनानि च वेगसरादीनि येषु कुलेषु तानि तथा, क्वचिद् वाहणाइन्नाई 5 ति पाठस्तत्र विस्तीर्णविपुलैर्भवनादिभिराकीर्णानि सङ्कीर्णानि युक्तानीत्यर्थः इति व्याख्येयम्, तथा बहुधणबहुजायरूवरयया, बहु धनं गणिम-धरिमादि येषु तानि तथा, बहु जातरूपं च सुवर्णं रजतं च रूप्यं येषु तानि तथा, पश्चात् कर्मधारयः, आयोगपयोगसंपउत्ताई, आयोगेन द्विगुणादिलाभेन द्रव्यस्य प्रयोग: अधमर्णानां दानं तत्र सम्प्रयुक्तानि व्यापृतानि तेन वा संप्रयुक्तानि संगतानि तानि तथा, 10 विच्छड्डियपउरभत्तपाणाई, विच्छदिते त्यक्ते बहुजनभोजनावशेषतया विच्छवती वा विभूतिमती विविधभक्ष्य-भोज्य-चूष्य-लेह्य-पेयाद्याहारभेदयुक्ततया प्रचुरे भक्तपाने येषु तानि तथा, बहुदासीदासगोमहिसगवेलयप्पभूयाई, बहवो दासीदासा येषु तानि तथा, गावो महिष्यश्च प्रतीता:, गवेलका उरभ्रास्ते प्रभूता: प्रचुरा येषु तानि तथा, पश्चात् कर्मधारयः, अथवा बहवो दास्यादय: प्रभूता जाता येषु तानि तथा, 15 बहुजनस्यापरिभूतानि अपरिभवनीयानीत्यर्थः, तृतीयार्थे वा षष्ठी, ततो बहुजनेनाऽपरिभूतानि अतिरस्कृतानि, अजउत्ते त्ति आर्ययो: अपापकर्मवतो: पित्रोः पुत्रो य: स तथा, अनेनाऽऽलोचकस्याऽनालोचकप्रत्याजातिविपर्यय उक्तः । _ [सू० ५९८] अट्ठविधे संवरे पन्नत्ते, तंजहा-सोतिंदियसंवरे जाव फासिंदियसंवरे, मणसंवरे, वतिसंवरे, कायसंवरे ।
20 अट्ठविधे असंवरे पन्नत्ते, तंजहा-सोतिंदियअसंवरे जाव कायअसंवरे । [टी०] कृतालोचनाद्यनुष्ठानाश्च संवरवन्तो भवन्तीति संवरं तद्विपर्यस्तमसंवरं चाहअट्ठविहेत्यादि सूत्रद्वयं कण्ठ्यम् ।
[सू० ५९९] अट्ठ फासा पन्नत्ता, तंजहा-कक्खडे, मउते, गरुते, लहुते, सीते, उसिणे, निद्धे, लुक्खे । १. "मित्यादि अड्डाई जे१ ॥ २. विस्तर जेमू१, पा० जे२ ॥
25
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] अनन्तरं कायासंवर उक्तः, कायश्चाष्टस्पर्शो भवतीति स्पर्शसूत्रं कण्ठ्यं चेति। [सू० ६००] अट्ठविधा लोगट्टिती पन्नत्ता, तंजहा-आगासपतिहिते वाते, वातपतिट्ठिते उदही, एवं जधा छट्ठाणे जाव जीवा कम्मपतिट्टिता, अजीवा जीवसंगहिता, जीवा कम्मसंगहिता । 5 [टी०] स्पर्शाश्चाष्टावेवेति लोकस्थितिरियमतो लोकस्थितिविशेषमाह- अट्टविहेत्यादि
कण्ठ्यम्, एवं जहा छट्ठाणे, तत्र चैवम्- उदधिपइट्ठिया पुहवी, घनोदधावित्यर्थ: ३, पुढविपइट्ठिया तसा थावरा पाणा, मनुष्यादय इत्यर्थः ४, अजीवा जीवपइट्ठिया, शरीरादिपुद्गला इत्यर्थ: ५, जीवा कम्मपइट्ठिया, कर्मवशवर्तित्वादिति ६, अजीवा:
पुद्गलाकाशादयो जीवैः सगृहीताः स्वीकृता:, अजीवान् विना जीवानां सर्वव्यवहारा10 भावात् ७, जीवाः कर्मभि: ज्ञानावरणादिभिः सगृहीता बद्धा: ८, षष्ठपदे जीवोपग्राहकत्वेन कर्मण आधारता विवक्षितेह तु तस्यैव जीवबन्धनतेति विशेषः ।
[सू० ६०१] अट्ठविधा गणिसंपता पन्नत्ता, तंजहा-आचारसंपता, सुयसंपता, सरीरसंपता, वतणसंपता, वातणासंपता, मतिसंपता, पतोगसंपता,
संगहपरिण्णा णाम अट्ठमा । 15 टी०] इदं च लोकस्थित्यादि स्वसम्पदुपेतगणिवचनात् ज्ञायत इति गणिसम्पदमाह
अट्ठविहा गणिसंपयेत्यादि, गण: समुदायो भूयानतिशयवान् वा गुणानां साधूनां वा यस्यास्ति स गणी आचार्यस्तस्य सम्पत् समृद्धिर्भावरूपा गणिसम्पत्, तत्राचरणमाचारः अनुष्ठानं स एव सम्पत् विभूतिस्तस्य वा सम्पत् सम्पत्ति: प्राप्ति: आचारसम्पत्, सा च चतुर्द्धा, तद्यथा- संयमध्रुवयोगयुक्तता, चरणे नित्यं समाध्युपयुक्ततेत्यर्थः १, 20 असंप्रग्रहः, आत्मनो जात्याधुत्सेकरूपग्राहवर्जनमिति भावः २, अनियतवृत्तिः,
अनियतविहार इति योऽर्थः ३, वृद्धशीलता, वपुर्मनसो निर्विकारतेति यावत् ४ एवं श्रुतसम्पत् । साऽपि चतुर्द्धा, तद्यथा- बहुश्रुतता, युगप्रधानागमतेत्यर्थः १, परिचितसूत्रता २, विचित्रसूत्रता स्वसमयादिभेदात् ३, घोषविशुद्धिकरता च, उदात्तादिविज्ञानादिति
१. सू० ४९८ ॥ २. नतिशयन्वा गुणानां खं० । नतिशयवान् गुणानां जे१ ।। ३. तुलना- व्यवहारभाष्ये
उ० १० गा० ४०८०-४१२४ । प्रवचनसारोद्धारे गा० ५४०-५४८ ॥
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६०२-६०३]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
७२५ ४ । शरीरसम्पच्चतु , तद्यथा- आरोहपरिणाहयुक्तता, उचितदैर्घ्यविस्तरतेत्यर्थः १, अनवत्रप्यता, अलज्जनीयाङ्गतेत्यर्थः २, परिपूर्णेन्द्रियता ३, स्थिरसंहननता चेति ४ । वचनसम्पच्चतु , तद्यथा- आदेयवचनता १, मधुरवचनता २, अनिश्रितवचनता, मध्यस्थवचनतेत्यर्थः ३, असन्दिग्धवचनता चेति ४ । वाचनासम्पच्चतुर्द्धा, तद्यथाविदित्वोद्देशनम् १, विदित्वा समुद्देशनम्, पारिणामिकादिकं शिष्यं ज्ञात्वेत्यर्थ: २, 5 परिनिर्वाप्य वाचना, पूर्वदत्तालापकानधिगमय्य शिष्यं पुनः सूत्रदानमित्यर्थः ३, अर्थनिर्यापणा, अर्थस्य पूर्वापरसाङ्गत्येन गमनिकेत्यर्थ: ४। मतिसम्पच्चतु , अवग्रहेहाऽपाय-धारणाभेदादिति। प्रयोगसम्पच्चतुर्द्धा, इह प्रयोगो वादविषयस्तत्रात्मपरिज्ञानं वादादिसामर्थ्य विषये १, पुरुषपरिज्ञानं किंनयोऽयं वाद्यादिः २, क्षेत्रपरिज्ञानम् ३, वस्तुपरिज्ञानम्, वस्तु त्विह वादकाले राजामात्यादि ४ । सङ्ग्रहपरिज्ञा, सङ्ग्रहः 10 स्वीकरणम्, तत्र परिज्ञा ज्ञानं नाम अभिधानमष्टमी सम्पत्, सा च चतुर्विधा, तद्यथाबालादियोग्यक्षेत्रविषया १, पीठ-फलकादिविषया २, यथासमयं स्वाध्यायभिक्षादिविषया ३, यथोचितविनयविषया चेति ४ ।
[सू० ६०२] एगमेगे णं महानिधी अट्टचक्कवालपतिट्ठाणे अट्ट अट्ट जोयणाई उर्ल्डउच्चत्तेणं पन्नत्ते ।
15 [सू० ६०३] अट्ठ समितीतो पन्नत्ताओ, तंजहा-इरियासमिती, भासासमिती, एसणासमिती, आयाणभंड[मत्तनिक्खेवणासमिती], उच्चार-पा[सवणखेल-सिंघाणग[-जल्लपरिट्ठावणियासमिती] मणस [मिती] वतिस[मिती] कायसमिती ।
[टी०] आचार्या हि गुणरत्ननिधानमिति निधानप्रस्तावान्निधिव्यतिकरमाह- एकेत्यादि, 20 एकैको महानिधिश्चक्रवर्तिसम्बन्धी अष्टचक्रवालप्रतिष्ठान: अष्टचक्रप्रतिष्ठितः, मञ्जूषावत्, तत्स्वरूपं चेदम्नवजोयणवित्थिन्ना बारसदीहा समूसिया अट्ठ । जक्खसहस्सपरिवुडा चक्कट्ठपइट्ठिया नव वि ॥ [ ]
द्रव्यनिधानवक्तव्यतोक्ता, भावनिधानभूतसमितिस्वरूपमाह- अट्ट समिईत्यादि, 25 १. 'त्रपता खं० ॥ २. परि खं० ॥ ३. “दिशिष्यं जे१ खं०॥ ४. सू० ७११ ॥ ५. बारहदीहा जे१॥
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सम्यगितिः प्रवृत्ति: समिति:, ईर्यायां गमने समितिश्चक्षुर्व्यापारपूर्वतयेतीर्यासमितिः, एवं भाषायां निरवद्यभाषणत:, एषणायामुद्गमादिदोषवर्जनतः, आदाने ग्रहणे भाण्डमात्राया उपकरणमात्रायाः, भाण्डस्य वा वस्त्राद्युपकरणस्य मृन्मयादिपात्रस्य वा मात्रस्य च साधुभाजनविशेषस्य, निक्षेपणायां च समिति: सुप्रत्युपेक्षितसुप्रमार्जित5 क्रमेणेति, उच्चार-प्रश्रवण-खेल-सिवान-जल्लानां परिष्ठापनिकायां समिति: स्थण्डिल
शुद्धयादिक्रमेण, खेलो निष्ठीवनम्, सिंघानो नासिकाश्लेष्मेति, मनस: कुशलतायां समितिः, वाचोऽकुशलत्वनिरोधे समितिः, कायस्य स्थानादिषु समितिरिति ।
[सू० ६०४] अट्ठहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति आलोतणं पडिच्छित्तते, तंजहा-आयारवं, आहारवं, ववहारवं, ओवीलए, पकुव्वते, अपरिस्साती, 10 निजवते, अवातदंसी १॥
__ अट्ठहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति अत्तदोसमालोएत्तए, तंजहाजातिसंपन्ने, कुलसंपन्ने, विणयसंपन्ने, णामसंपन्ने, दंसणसंपन्ने, चरित्तसंपन्ने, खंते, दंते २।
[सू० ६०५] अट्ठविहे पायच्छिते पन्नत्ते, तंजहा-आलोयणारिहे, 15 पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, विवेगारिहे, विउस्सगारिहे, तवारिहे, छेदारिहे, मूलारिहे ३।
[टी०] समितिष्वतिचारादावालोचना देयेत्यालोचनाचार्यस्यालोचकसाधो: प्रायश्चित्तस्य च स्वरूपाभिधानाय सूत्रत्रयमाह- अट्टहीत्यादि सुगमम्, नवरम् आयारवं
ति ज्ञानादिपञ्चप्रकाराचारवान् ज्ञाना-ऽऽसेवनाभ्याम्, आहारवं ति अवधारणावान् 20 आलोचकेनालोच्यमानानामतीचाराणामिति, आह च
आयरवमायारं पंचविहं मुणइ जो य आयरइ । आहारवमवहारे आलोएंतस्स तं सव्वं ॥ [ ] ति । ववहारवं ति आगम-श्रुता-ऽऽज्ञा-धारणा-जीतलक्षणानां पञ्चानामुक्तरूपाणां व्यवहाराणां ज्ञातेति, ओवीलए त्ति अपव्रीडयति विलज्जीकरोति यो लज्जया १. भांडस्य मात्राया जे१ ॥ २. "मात्रायां खं० ॥ ३. तुलना- भगवती० २५।७।१९२-१९३ ॥
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२७
[सू० ६०४-६०५]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् । सम्यगनालोचयन्तं सर्वं यथा सम्यगालोचयति तथा करोतीत्यपव्रीडकः, अभिहितं चववहारव ववहारं आगममाई उ मुणइ पंचविहं। ओवीलुवगृहंतं जह आलोएइ तं सव्वं ॥ [ ] ति । पकुव्वए त्ति आलोचिते सति य: शुद्धिं प्रकर्षण कारयति स प्रकारीति, भणितं च- आलोइयम्मि सोहिं जो कारावेइ सो पकुव्वीओ ॥ [ ] इति । 5
अपरिस्साइ त्ति न परिश्रवति नालोचकदोषानुपश्रुत्यान्यस्मै प्रतिपादयति य एवंशील: सोऽपरिश्रीवीति, यदाह- जो अन्नस्स उ दोसे न कहेई अपरिसाई सो होइ ॥ [ ] इति। निजवए त्ति निर्यापयति तथा करोति यथा गुर्वपि प्रायश्चित्तं शिष्यो निर्वाहयतीति निर्यापक इति, न्यगादि च– निजवओ तह कुणई निव्वहई जेण पच्छित्तं [ ] ति । अवायदंसि त्ति अपायान् अनर्थान् शिष्यचित्तभङ्गा-ऽनिर्वाहादीन् दुर्भिक्ष- 10 दौर्बल्यादिकृतान् पश्यतीत्येवंशील:, सम्यगनालोचनायां वा दुर्लभबोधिकत्वादीन् अपायान् शिष्यस्य दर्शयतीति अपायदर्शीति, भणितं च
दुब्भिक्खदुब्बलाई इहलोए जाणए अवाए उ । दंसेइ य परलोए दुल्लहबोहि त्ति संसारे ॥ [ ] इति ।
अत्तदोसं ति आत्मापराधमिति, जाति-कुले माता-पितृपक्षौ, तत्सम्पन्न: 15 प्रायोऽकृत्यं न करोति, कृत्वापि पश्चात्तापादालोचयतीति तद्ग्रहणम्, यदाह
जाई-कुलसंपन्नो पायमकिच्चं न सेवई किंचि । आसेविउं च पच्छा तग्गुणओ सम्ममालोए ॥ [ ] इति । विनयसम्पन्न: सुखेनैवालोचयति, तथा ज्ञानसम्पन्नो दोषविपाकं प्रायश्चित्तं चाऽवगच्छति, यतोऽवाचि
__20 नाणेण उ संपन्नो दोसविवागं वियाणिउं घोरं । आलोएइ सुहं चिय पायच्छित्तं च अवगच्छे ॥ [ ] इति । दर्शनसम्पन्न: शुद्धोऽहमित्येवं श्रद्धत्ते, चारित्रसम्पन्नो भूयस्तमपराधं न करोति सम्यगालोचयति प्रायश्चित्तं च निर्वाहयतीति, उक्तं च१. सव' जे१ ।। २. स्रावी जे१ ॥ ३. वये त्ति जे१ ॥
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२८
सुद्धो तह त्ति सम्मं सद्दहई दंसणेण संपन्नो ।
चरणेण उ संपन्नो न कुणड़ भुज्जो तमवराहं ॥ [
] ति
१
क्षान्तः परुषं भणितोऽप्याचार्यैर्न रुष्यतीति, आह च- खंतो आयरिएहिं फरुसं भणिओ वि नं वि रुसे [ ] त्ति, दान्त: प्रायश्चित्तं दत्तं वोढुं समर्थो भवतीति, आह 5 च - दंतो समत्थो वोढुं पच्छित्तं जमिह दिज्जते तस्स [
] इति ।
आलोयणेत्यादि व्याख्यातं प्रायः ।
[सू० ६०६] अट्ठ मतट्ठाणा पन्नत्ता, तंजहा - जातिमते, कुलमते, बलमते, रूवमते, तवमते, सुतमते, लाभमते, इस्सरितते ।
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
[टी०] जात्यादिमदेषु सत्स्वालोचनायां न प्रवर्त्तत इति मदस्थानसूत्रं गतार्थम्, नवरं 10 मदस्थानानि मदभेदा:, इह च दोषा:
25
जात्यादिमदोन्मत्तः पिशाचवद्भवति दुःखितश्चेह |
जात्यादिहीनतां परभवे च निःसंशयं लभते ॥ [प्रशम० ९८ ] इति ।
[सू० ६०७] अट्ठ अकिरियावाती पन्नत्ता, तंजहा - एगावाती, अणेगावाती, मितवाती, निम्मितवाती, सायवाती, समुच्छेदवाती, णितावाती, 15 णसंतिपरलोगवाती ।
[टी०] वादिनां हि प्राय: श्रुतमदो भवतीति वादिविशेषान् दर्शयन्नाह - अट्ठ अकिरियेत्यादि, क्रिया ‘अस्ती' तिरूपा सकलपदार्थसार्थव्यापिनी सैवायथावस्तुविषयतया कुत्सिता अक्रिया नञः कुत्सार्थत्वात्, तामक्रियां वदन्तीत्येवंशीलाः अक्रियावादिनः, यथावस्थितं हि वस्त्वनेकान्तात्मकं तन्नास्त्येकान्तात्मकमेव चास्तीति प्रतिपत्तिमन्त 20 इत्यर्थः, नास्तिका इति भाव:, एवंवादित्वाच्चैते परलोकसाधकक्रियामपि परमार्थतो न वदन्ति, तन्मतवस्तुसत्त्वे हि परलोकसाधकक्रियाया अयोगादित्यक्रियावादिन एव ते इति, तत्रैक एवात्मादिरर्थ इत्येवं वदतीत्येकवादी, दीर्घत्वं च प्राकृतत्वादिति, उक्तं चैतन्मतानुसारिभिः
एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थित: । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ [
१. भणिओ य न वि य रुसे इ दान्तः जे१ ॥
]
इति ।
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
[सू० ६०७]
अपरस्त्वात्मैवास्ति नान्यदिति प्रतिपन्नः, तदुक्तम्पुरुष एवेदं ग्निं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ [शुक्लयजु० ३१।२] यदेजति यन्नैजति यह्रे यदु अन्तिके । यदन्तरस्य सर्वस्य यदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥ [ईशावास्य० ५] इति। तथानित्यज्ञानविवर्तोऽयं क्षिति-तेजो-जलादिकः । आत्मा तदात्मकश्चेति सङ्गिरन्ते परे पुनः ॥ [ ] इति ।। शब्दाद्वैतवादी तु सर्वं शब्दात्मकमिदमित्येकत्वं प्रतिपन्न:, उक्तं चअनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्त्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यत: ॥ [वाक्यप० १११] इति ।
अथवा सामान्यवादी सर्वमेवैकं प्रतिपद्यते, सामान्यस्यैकत्वादित्येवमनेकधैकवादी, अक्रियावादिता चास्य सद्भूतस्यापि तदन्यस्य नास्तीति प्रतिपादनात् आत्माद्वैत-पुरुषाद्वैतशब्दाद्वैतादीनां युक्तिभिरघटमानानामस्तित्वाभ्युपगमाच्च, एवमुत्तरत्रापीति १ । तथा सत्यपि कथञ्चिदेकत्वे भावानां सर्वथा अनेकत्वं वदतीत्यनेकवादी, परस्परविलक्षणा 15 एव भावास्तथैव प्रमीयमाणत्वात्, यथा रूपं रूपतयेति, अभेदे तु भावानां जीवाजीवबद्धमुक्त-सुखितदुःखितादीनामेकत्वप्रसङ्गात् दीक्षादिवैयर्थ्य मिति । किञ्च, सामान्यमङ्गीकृत्यैकत्वं विवक्षितं परैः, सामान्यं च भेदेभ्यो भिन्नाभिन्नतया चिन्त्यमानं न युज्यते, एवमवयवेभ्योऽवयवी धर्मेभ्यश्च धर्मीत्येवमनेकवादी, अस्याप्यक्रियावादित्वं सामान्यादिरूपतयैकत्वे सत्यपि भावानां सामान्यादिनिषेधेन तन्निषेधनादिति, न च 20 सामान्यं सर्वथा नास्ति, अभिन्नज्ञाना-ऽभिधानाभावप्रसङ्गात्, सर्वथा वैलक्षण्ये चैकपरमाणुमन्तरेण सर्वेषामपरमाणुत्वप्रसङ्गात्, तथा अवयविनं धर्मिणं च विना न प्रतिनियतावयव-धर्मव्यवस्था स्याद्, भेदाभेदविकल्पदूषणं च कथञ्चिद्वादाभ्युपगमनेन निरवकाशमिति २ । तथा अनन्तानन्तत्वेऽपि जीवानां मितान् परिमितान् वदति १. दृश्यतां द्वादशारे नयचक्रे पृ० १३६ पं० ८ तथा तट्टिप्पने ॥ २. यद्वन्तिके खं० पा० जे२ । यद्वान्तिके
जे१ ॥ ३. यत् सर्वस्यास्य जे१ खं० ॥
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
'उत्सन्नभव्यकं भविष्यति भुवन' मित्यभ्युपगमात् मितं वा जीवम् अङ्गुष्ठपर्वमात्रं श्यामाकतन्दुलमात्रं वा वदति न त्वपरिमितमसङ्ख्येयप्रदेशात्मकया अङ्गुलासङ्ख्येयभागादारभ्य यावल्लोकमापूरयतीत्येवमनियतप्रमाणतया वा, अथवा मितं सप्तद्वीपसमुद्रात्मकतया लोकं वदत्यन्यथाभूतमपीति मितवादीति, तस्याप्यक्रियावादित्वं 5 वस्तुतत्त्वनिषेधनादेवेति ३ । तथा निर्मितम् ईश्वर-ब्रह्म- पुरुषादिना कृतं लोकं वदतीति निर्म्मितवादी, तथा चाहु:
आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् ।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥ [ मनुस्मृ० ११५ ] तस्मिन्नेकार्णवीभूते नष्टस्थावरजङ्गमे ।
10
नष्टामरनरे चैव प्रणष्टोरगराक्षसे ॥ केवलं गह्वरीभूते महाभूतविवर्जिते । अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र शयानस्तप्यते तपः ॥ तत्र तस्य शयानस्य नाभेः पद्मं विनिर्गतम् । तरुणरविमण्डलनिभं हृद्यं काञ्चनकर्णिकम् ॥ तस्मिन् पद्मे तु भगवान् दण्डी यज्ञोपवीतसंयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातर: सृष्टाः ॥ अदितिः सुरसङ्घानां दितिरसुराणां मनुर्मनुष्याणाम् । विनता विहङ्गमानां माता विश्वप्रकाराणाम् ।
] इति ।
कद्रुः सरीसृपाणां सुलसा माता तु नागजातीनाम् । सुरभिश्चतुष्पदानामिला पुनः सर्वबीजानाम् ॥ [ प्रमाणयति चासौ — बुद्धिमत्कारणकृतं भुवनं संस्थानत्वात् घटवदित्यादि । अक्रियावादिता चास्य न कदाचिदनीदृशं जगत् [ ] इति वचनादकृत्रिमभुवनस्याकृत्रिमतानिषेधात् न चेश्वरादिकर्तृकत्वं जगतोऽस्ति, कुलालादिकारकवैयर्थ्यप्रसङ्गात् कुलालादिवच्चेश्वरादेर्बुद्धिमत्कारणस्यानीश्वरताप्रसङ्गात्, किञ्च, 25 ईश्वरस्याशरीरतया कारणाभावात् क्रियास्वप्रवृत्तिः स्यात्, सशरीरत्वे च तच्छरीरस्यापि कर्त्रन्तरेण भाव्यम्, एवं चानवस्थाप्रसङ्ग इति ४ । तथा सातं सुखमभ्यसनीयमिति
१. सर्वजीवानां जे१ ॥
15
७३०
20
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६०७ ]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
वदतीति सातवादी, तथाहि-- भवत्येवंवादी कश्चित् सुखमेवानुशीलनीयं सुखार्थिना, न त्वसातरूपं तपो-नियम - ब्रह्मचर्यादि, कारणानुरूपत्वात् कार्यस्य, नहि शुक्लैस्तन्तुभिरारब्धः पटो रक्तो भवति अपि तु शुक्ल एव, एवं सुखासेवनात् सुखमेवेति, उक्तं च
७३१
मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया भक्तं मध्ये पानकं चापराह्णे ।
द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्द्धरात्रे मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः ॥ [ 1
अक्रियावादिता चास्य संयम - तपसो : पारमार्थिक प्रशमसुखरूपयो: दुःखत्वेनाभ्युपगमात् कारणानुरूपकार्याभ्युपगमस्य च विषयसुखादननुरूपस्य निर्वाणसुखस्याभ्युपगमेन बाधितत्वादिति ५ । तथा समुच्छेदं प्रतिक्षणं निरन्वयनाशं वदति यः स समुच्छेदवादी, तथाहि - वस्तुनः सत्त्वं कार्यकारित्वम्, कार्याकारिणोऽपि 10 वस्तुत्वे खरविषाणस्यापि सत्त्वप्रसङ्गात्, कार्यं च नित्यं वस्तु क्रमेण न करोति, नित्यस्यैकस्वभावतया कालान्तरभाविसकलकार्यभावप्रसङ्गात्, न चेदेवं प्रतिक्षणं स्वभावान्तरोत्पत्त्या नित्यत्वहानिरिति, यौगपद्येनापि न करोति अध्यक्षसिद्धत्वाद्यौगपद्याकरणस्य, तस्मात् क्षणिकमेव वस्तु कार्यं करोतीति, एवं च अर्थक्रियाकारित्वात् क्षणिकं वस्त्विति, अक्रियावादी चायमित्थमवसेयःनिरन्वयनाशाभ्युपगमे हि परलोकाभाव: प्रसजति, फलार्थिनां च क्रियास्वप्रवृत्तिरिति, तथा सकलक्रियासु प्रवर्त्तकस्यासङ्ख्येयसमयसम्भव्यनेकवर्णोल्लेखवतो विकल्पस्य प्रतिसमयक्षयित्वे एकाभिसन्धिप्रत्ययाभावात् सकलव्यवहारोच्छेदः स्यात्, अत एवैकान्तक्षणिकात् कुलालादेः सकाशादर्थक्रिया न घटत इति, तस्मात् पर्यायतो वस्तु समुच्छेदवद् द्रव्यतस्तु न तथेति ६ । तथा नियतं नित्यं वस्तु वदति यः स तथा, तथाहि— नित्यो लोकः, आविर्भाव - तिरोभावमात्रत्वादुत्पाद-विनाशयोः, तथा असतोऽनुत्पादाच्छशविषाणस्येव सतश्चाविनाशात् घटवत्, नहि सर्वथा घटो विनष्टः, कपालाद्यवस्थाभिस्तस्य परिणतत्वात् तासां चापारमार्थिकत्वात्, मृत्सामान्यस्यैव पारमार्थिकत्वात्, तस्य चाविनष्टत्वादिति, अक्रियावादी चायमेकान्तनित्यस्य स्थिरैकरूपतया सकलक्रियाविलोपाभ्युपगमादिति ७ । तथा नसंति - परलोगवाइ त्ति 25
20
5
15
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३२
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
नेति न विद्यते शान्तिश्च मोक्षः परलोकश्च जन्मान्तरमित्येवं यो वदति स तथा, तथाहिनास्त्यात्मा प्रत्यक्षादिप्रमाणाविषयत्वात् खरविषाणवत्, तदभावान्न पुण्य-पापलक्षणं कर्म्म, तदभावान्न परलोको नापि मोक्ष इति यच्चैतच्चैतन्यं तद् भूतधर्म्म इति, अस्याक्रियावादिता स्फुटैव, न चैतस्य मतं सङ्गच्छते, प्रत्यक्षाद्यप्रवृत्त्याऽऽत्मादीनां 5 निराकर्त्तुमशक्यत्वात्, सत्यपि वस्तुनि प्रमाणाप्रवृत्तिदर्शनादागमविशेषसिद्धत्वाच्च, भूतधर्मतापि न चैतन्यस्य, विवक्षितभूताभावेऽपि जातिस्मरणादिदर्शनादिति, एषां चेह वादिनामष्टानामपि दिङ्मात्रमुपदर्शितम्, विशेषस्त्वन्यतो ज्ञेय ऊह्यो वेति ।
[सू० ६०८ ] अट्ठविधे महानिमित्ते पन्नत्ते, तंजहा - भोमे, उप्पाते, सुविणे, अंतलिक्खे, अंगे, सरे, लक्खणे, वंजणे ।
एते च वादिनः शास्त्राभिसंस्कृतबुद्धयो भवन्तीत्यष्टस्थानकावतारीणि शास्त्राण्याहअट्ठ महानिमित्तेत्यादि, अतीता - ऽनागत-वर्त्तमानानामतीन्द्रियभावानामधिगमे निमित्तं हेतुर्यद्वस्तुजातं तन्निमित्तम्, तदभिधायकशास्त्राण्यपि निमित्तानीत्युच्यन्ते तानि च प्रत्येकं सूत्र- वृत्ति-वार्त्तिकतः क्रमेण सहस्र-लक्ष- कोटीप्रमाणानीति कृत्वा महान्ति च तानि निमित्तानि चेति महानिमित्तानि, तत्र भूमिविकारो भौमं भूकम्पादि, तदर्थं 15 शास्त्रमपि भौममेवमन्यान्यपि वाच्यानि १ नवरमुदाहरणमिह -
10
20
25
शब्देन महता भूमिर्यदा रसति कम्पते । सेनापतिरमात्यश्च राजा राज्यं च पीड्यते ॥ [ ] इत्यादि । उत्पाद:(तः?) सहजरुधिरवृष्ट्यादिः २ | स्वप्नो यथामूत्रं वा कुरुते स्वप्ने पुरीषं वाऽतिलोहितम् ।
प्रतिबुद्ध्येत् तदा कश्चिल्लभते सोऽर्थनाशनम् ।। [ ] इति ३ । अन्तरिक्षम् आकाशं तत्र भवमान्तरिक्षं गन्धर्व्वनगरादि, यथाकपिलं सस्यघाताय माञ्जिष्ठं हरणं गवाम् ।
अव्यक्तवर्णं कुरुते बलक्षोभं न संशयः ॥
गन्धर्वनगरं स्निग्धं सप्राकारं सतोरणम् ।
सौम्यां दिशं समाश्रित्य राज्ञस्तद्विजयङ्करम् ॥ [ ] इत्यादि ४ । अङ्गं शरीरावयवः, तद्विकार आङ्गं शिरः स्फुरणादि, यथा
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३३
[सू० ६०९]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् । दक्षिणपार्श्वे स्पन्दमभिधास्ये तत्फलं स्त्रिया वामे । पृथिवीलाभ: शिरसि स्थानविवृद्धिर्ललाटे स्याद् ॥ [ ] इत्यादि ५ । स्वरः शब्दः षड्जादिः, स च निमित्तं यथासजेण लभई वित्तिं कयं च न विणस्सइ । गावो मित्ता य पुत्ता य नारीणं चेव वल्लभो ॥ [स्थानाङ्ग० सू० ५५३, गा० ५४] इत्यादि। 5 शकुनरुतं वा यथाचिविचिविसद्दो पुनो सामाए सूलिसूलि धन्नो उ । चेरी चेरी दित्तो चिक्कुत्ती लाभहेउ त्ति ॥ [ ] इत्यादि ६ । लक्षणं स्त्रीपुरुषादीनां यथाअस्थिष्वर्थाः सुखं मांसे त्वचि भोगा: स्त्रियोऽक्षिषु । गतौ यानं स्वरे चाज्ञा सर्वं सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥ [ ] इत्यादि ७ । व्यञ्जनं मषादि, यथा- ललाटकेश: प्रभुत्वाय [ ] इत्यादि ८ । [सू० ६०९] अट्ठविधा वयणविभत्ती पन्नत्ता, तंजहानिद्देसे पढमा होति बीतिया उवतेसणे । ततिमा करणम्मि कता चउत्थी संपदावणे ॥८९॥ पंचमी त अवाताणे छट्ठी सस्सामिवायणे । सत्तमी सन्निहाणत्थे अट्ठमी आमंतणी भवे ॥१०॥ तत्थ पढमा विभत्ती निद्देसे सो इमो अहं व त्ति । बितीता उण उवेतेसे भण कुण व तिमं व तं व त्ति ॥११॥ ततिता करणम्मि कता णीतं च कतं च तेण व मते वा। 20 हंदि णमो साहाते हवति चउत्थी पदाणम्मि ॥१२॥ अमणे गिण्हसु तत्तो इत्तो त्ति वा पंचमी अवादाणे ।
छट्ठी तस्स इमस्स व गतस्स वा सामिसंबंधे ॥९३॥ १. तुलना- अनुयोगद्वार० सू० २६१ ॥
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे हवति पुण सत्तमी तं इमम्मि आधार-काल-भावे त । आमंतणी भवे अट्ठमी उ जह हे जुवाण त्ति ॥१४॥ [टी०] एतानि च शास्त्राणि वचनविभक्तियोगेनाभिधेयप्रतिपादकानीति वचनविभक्तिस्वरूपमाह- अट्ठविहा वयणविभत्तीत्यादि, उच्यते एकत्व-द्वित्व5 बहुत्वलक्षणोऽर्थो यैस्तानि वचनानि, विभज्यते कर्तृत्व-कर्मत्वादिलक्षणोऽर्थो यया
सा विभक्तिः, वचनात्मिका विभक्तिर्वचनविभक्तिः, सु औ जस् [पा० ४।१।२] इत्यादि। निद्देसे सिलोगो, निर्देशनं निर्देश: कर्मादिकारकशक्तिभिरनधिकस्य लिङ्गार्थमात्रस्य प्रतिपादनम्, तत्र प्रथमा भवति, यथा स वा अयं वाऽऽस्ते अहं वा
आसे १ । तथा उपदिश्यत इत्युपदेशनम् उपदेशक्रियाया यद् व्याप्यम्, उपलक्षणत्वादस्य 10 क्रियाया यद् व्याप्यं कर्मेत्यर्थः, तत्र द्वितीया, यथा भण इमं श्लोकम्, कुरु वा तं
घटम्, ददाति तम्, याति ग्रामम् २। तथा क्रियते येन तत् करणं क्रियां प्रति साधकतमम्, करोतीति वा करण: कर्ता कृत्यल्युटो बहुलम् [पा० ३।३।११३] इति वचनादिति, तत्र करणे तृतीया कृता विहिता, यथा नीतं सस्यं तेन शकटेन, कृतं कुण्डं मयेति ३। तथा संपदावणे त्ति सत्कृत्य प्रदाप्यते यस्मै उपलक्षणत्वात् सम्प्रदीयते वा यस्मै स 15 सम्प्रदापनं सम्प्रदानं वा, तत्र चतुर्थी, यथा भिक्षवे भिक्षां दापयति ददाति वेति,
सम्प्रदापनस्योपलक्षणत्वादेव नम:-स्वस्ति-स्वाहा-स्वधा-ऽलं-वषड्युक्ताच्च चतुर्थी भवति, नम: शाखायै वैरादिकायै, नम:प्रभृतियोगोऽपि कैश्चित् सम्प्रदानमभ्युपगम्यते इति ४ । पंचमी य श्लोकः, अपादीयते अपायतो विश्लेषत आ मर्यादया दीयते दो
अवखण्डने [पा० धा० ११४८] इति वचनात् खण्ड्यते भिद्यते आदीयते वा गृह्यते 20 यस्मात्तदपादानमवधिमात्रमित्यर्थः, तत्र पञ्चमी भवति, यथा अपनय ततो गृहाद्धान्यमितो
वा कुशूलाद् गृहाणेति ५। छट्ठी सस्सामिवायणे त्ति स्वं च स्वामी च स्वस्वामिनौ तयोर्वचनं प्रतिपादनम्, तत्र स्वस्वामिवचने, स्वस्वामिसम्बन्धे इत्यर्थः, षष्ठी भवति, यथा तस्यास्य वा गतस्य वाऽयं भृत्यः, वायणे त्तीह प्राकृतत्वाद् दीर्घत्वम् ६ । सन्निधीयते क्रिया अस्मिन्निति सन्निधानम् आधारः, तदेवार्थः सन्निधानार्थः, तत्र १. विहीत्यादि जे१ ।। २. सि जे१,२ । “स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङेभ्याम्भ्यसिभ्याम्भ्यस्ङसोसाम्ङ्योस्सुप्"
पा० ४।१।२ ॥ ३. क्रियाया व्याप्य' जे१ विना ॥ ४. कुसूलाद् पा० जे१ ॥
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३५
[सू० ६१०-६११]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् । सप्तमी, विषयोपलक्षणत्वाच्चास्य काले भावे च क्रियाविशेषणे, तत्र सन्निधाने तद्भक्तमिह पात्रे, तत् सप्तच्छदवनमिह शरदि पुष्प्यति, पुष्पनक्रिया शरदा विशेषिता, तत् कुटुम्बकमिह गवि दुह्यमानायां गतम्, इह गमनक्रिया गोदोहनभावेन विशेषितेति ७ । अष्टम्यामन्त्रणी भवेदिति, सु औ जसिति, प्रथमाऽपीयं विभक्तिरामन्त्रणलक्षणस्यार्थस्य कर्म-करणादिवत् लिङ्गार्थमात्रातिरिक्तस्य प्रतिपादकत्वेनाष्टम्युक्ता, यथा हे युवन्निति श्लोकद्वयार्थः ८। 5 उदाहरणगाथास्तु व्याख्यातानुसारेण भावनीयाः, तत्थ गाहा, तइया गाहा, इह हंदीत्युपप्रदर्शने, पयाणम्मि त्ति सम्प्रदाने । अवणे गाहा, अवणे त्ति अपनयेत्यर्थः, इदं चाऽनुयोगद्वारानुसारेण व्याख्यातम्, आदर्शेषु तु अमणे इति दृश्यते, तत्र च स्त्र्यामन्त्रणतया गमनीयम्, हे अमनस्के इत्यर्थः । _ [सू० ६१०] अट्ठ ठाणाइं छउमत्थे सव्वभावेणं ण याणति न पासति, 10 तंजहा-धम्मत्थिगातं जाव गंधं, वातं ।
एताणि चेव उप्पन्ननाणदंसणधरे जाव गंध, वातं ।।
[टी०] अथ वचनविभक्तियुक्तशास्त्रसंस्कारात् किं छद्मस्था: साक्षाददृश्यार्थान् विदन्ति ?, उच्यते, नेत्याह- अट्ठ ठाणेत्यादि व्याख्यातं प्राक्, नवरं यावत्करणात् 'अधम्मत्थिकायं २, आगासत्थिकायं ३, जीवमसरीरपडिबद्धं ४, परमाणुपोग्गलं ५, 15 सद्द ६' मिति द्रष्टव्यमिति, एतान्येव जिनो जानातीत्याह- एयाणीत्यादि सुगमम् ।
[सू० ६११] अट्ठविधे आउव्वेदे पन्नत्ते, तंजहा-कुमारभिच्चे, कायचिगिच्छा, सालाती, सल्लहत्ता, जंगोली, भूतवेजा, खारतंते, रसातणे ।
[टी०] यथा धर्मास्तिकायादीन् जिनो जानाति तथाऽऽयुर्वेदमपि जानाति, स चायम्- अट्ठविहे आउव्वेए इत्यादि, आयुः जीवितं तद्विदन्ति रक्षितुमनुभवन्ति 20 वोपक्रमरक्षणेन विन्दन्ते वा लभन्ते यथाकालं तेन तस्मात्तस्मिन् वेत्यायुर्वेदः चिकित्साशास्त्रं तदष्टविधम्, तद्यथा- कुमाराणां बालकानां भृतौ पोषणे साधु कुमारभृत्यम्, तद्धि तन्त्रं कुमारभरण-क्षीरदोषसंशोधनार्थं दुष्टस्तन्यनिमित्तानां व्याधीनामुपशमनार्थं चेति १, कायस्य ज्वरादिरोगग्रस्तस्य चिकित्साप्रतिपादकं तन्त्रं १. सू० ४५०, ४७८ ॥ २. "त्याह च एया पा० जे२ ॥ ३. तृतीये परिशिष्टे द्रष्टव्यम् ।। ४. विन्दन्ति पा० जे२ ॥
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे कायचिकित्सा, तत्तन्त्रं हि मध्याह्नसमाश्रितानां ज्वरा-ऽतीसार-रक्तशोषोन्मादप्रमेह-कुष्ठादीनां शमनार्थमिति २, शलाकाया: कर्म शालाक्यम्, तत्प्रतिपादकं तन्त्रं शालाक्यम्, तद्धि उर्ध्वजत्रुगतानां रोगाणां श्रवण-वदन-नयन-घ्राणादिसंश्रितानामुपशमनार्थमिति ३, शल्यस्य हत्या हननमुद्धारः शल्यहत्या, तत्प्रतिपादकं तन्त्रमपि 5 शल्यहत्येत्युच्यते, तद्धि विविधतृण-काष्ठ-पाषाण-पांशु-लोह-लोष्ठाऽस्थि-नखप्रायाऽङ्गान्तर्गतशल्योद्धरणार्थमिति ४, जङ्गोलीति विषविघाततन्त्रम्, अगदतन्त्रमित्यर्थः, तद्धि सर्प-कीट-लूतादष्टविषविनाशनार्थं विविधविषसंयोगोपशमनार्थं चेति ५, भूतादीनां निग्रहार्थं विद्यातन्त्रं भूतविद्या, सा हि देवा-ऽसुर-गन्धर्व-यक्षरक्ष:-पितृ-पिशाच-नाग-ग्रहाद्युपसृष्टचेतसां शान्तिकर्म-बलिकरणादिग्रहोपशमनार्थेति 10 ६, क्षारतन्त्रमिति क्षरणं क्षार: शुक्रस्य, तद्विषयं तन्त्रं यत् तत्तथा, इदं हि सुश्रुतादिषु
वाजीकरणतन्त्रमुच्यते, अवाजिनो वाजीकरणं रेतोवृद्ध्या अश्वस्येव करणमित्यनयो: शब्दार्थः सम एवेति, तत् तन्त्रं हि अल्प-क्षीण-विशुष्करेतसामाप्यायनप्रसादोपजनननिमित्तं प्रहर्षजननार्थमिति ७, रस: अमृतरसः, तस्याऽयनं प्राप्ति: रसायनम्, तद्धि वय:स्थापनमायुर्मेधाकरणं रोगापहरणसमर्थं च, तत्प्रतिपादकं शास्त्रं 15 रसायनतन्त्रमिति ॥
[सू० ६१२] सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो अट्ठऽग्गमहिसीतो पन्नत्ताओ, तंजहा-पउमा, सिवा, सूती, अंजू, अमला, अच्छरा, णवमिया, रोहिणी १॥
ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरन्नो अट्ठऽग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहाकण्हा, कण्हराती, रामा, रामरक्खिता, वसू, वसुगुत्ता, वसुमित्ता, वसुंधरा २॥ 20 सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारणो अट्ठऽग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ३।
ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारन्नो अट्ठऽग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ ४ ।
[सू० ६१३] अट्ठ महग्गहा पन्नत्ता, तंजहा-चंदे, सूरे, सुक्के, बुधे, बहस्सती, १. एतद्धि पा० जे२ ॥ २. “जत्रु सन्धिरुरोंसगः"- अभि० चिन्ता० ५८७ ॥ ३. तद्विविध पा० जे२ ॥
४. विषविनाशार्थं खं० । विषनाशनार्थं पा० ॥
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
७३७
[सू० ६१३-६१६] अंगारते, सणिंचरे, केऊ ५ ।।
[टी०] कृतरसायनश्च देववन्निरुपक्रमायुर्भवतीति देवप्रस्तावाद्देवानामष्टकान्याह, तत्र सक्कस्सेत्यादि सूत्रपञ्चकं सुगमम्, नवरं महाग्रहा महार्था-ऽनर्थसाधकत्वादिति ।
[सू० ६१४] अट्ठविधा तणवणस्सतिकातिया पन्नत्ता, तंजहा-मूले, कंदे, खंधे, तया, साले, पवाले, पत्ते, पुप्फे ।
[टी०] महाग्रहाश्च मनुष्य-तिरश्चामुपघाता-ऽनुग्रहकारिणो बादरवनस्पत्युपघातादिकारित्वेनेति बादरवनस्पतीनाह- अट्टविहेत्यादि सुगमम्, नवरं तणवणस्सइ त्ति बादरवनस्पतिः, कन्दः स्कन्धस्याधः, स्कन्ध: स्थुडमिति प्रतीतम्, त्वक् छल्ली, शाला शाखा, प्रवालम् अङ्कुरः, पत्र-पुष्पे प्रतीते ।
[सू० ६१५] चउरिंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स अट्ठविधे संजमे 10 कजति, तंजहा-चक्खुमातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति, चक्खुमतेणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति, एवं जाव फासामातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति, फासामतेणं दुक्खेणं असंजोगेत्ता भवति ।
चउरिंदिया णं जीवा समारभमाणस्स अट्ठविधे असंजमे कजति, तंजहाचक्खुमातो सोक्खातो ववरोवेत्ता भवति, चक्खुमतेणं दुक्खेणं संजोगेत्ता 15 भवति, एवं जाव फासामातो सोक्खातो [ववरोवेत्ता भवति, फासामतेणं दुक्खेणं संजोगेत्ता भवति ।
[टी०] एतदाश्रयाश्चतुरिन्द्रियादयो जीवा भवन्तीति चतुरन्द्रियानाश्रित्य संयमाऽसंयमसूत्रे, ते च प्रोगिवेति ।
[सू० ६१६] अट्ठ सुहुमा पन्नत्ता, तंजहा-पाणसुहुमे १, पणगसुहुमे २, 20 बीयसुहमे ३, हरितसुहमे ४, पुप्फुसुहुमे ५, अंडसुहमे ६, लेणसुहमे ७, सिणेहसुहुमे ।
टी०] सूक्ष्माण्यप्याश्रित्य संयमासंयमौ स्त इति तान्याह- अट्ठ सुहुमेत्यादि, सूक्ष्माणि श्लक्ष्णत्वादल्पाधारतया च, तत्र प्राणसूक्ष्मम् अनुद्धरिः कुन्थुः, स हि चलनेव १. सू० २४४, ४३१, ४८४ ॥ २. तुलना- सू० ३६८, ४२९, ४३०, ५२१ ॥
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
विभाव्यते न स्थितः सूक्ष्मत्वादिति १, पनकसूक्ष्मं पनक: उल्ली, स च प्राय: प्रावृट्काले भूमि - काष्ठादिषु पञ्चवर्णस्तद्रव्यलीनो भवति, स एव सूक्ष्ममिति, एवं सर्वत्र २, तथा बीजसूक्ष्मं शाल्यादिबीजस्य मुखमूले कणिका लोके या तुषमुखमित्युच्यते ३, हरितसूक्ष्मम् अत्यन्ताभिनवोद्भिन्नं पृथिवीसमानवर्णं हरितमेवेति ४, पुष्पसूक्ष्मं 5 वटोदुम्बराणां पुष्पाणि तानि तद्वर्णानि सूक्ष्माणीति न लक्ष्यन्ते ५, अण्डसूक्ष्मं मक्षिकाकीटिका-गृहकोकिला-ब्राह्मणी - कृकलासाद्यण्डकमिति ६, लयनसूक्ष्मं लयनम् आश्रयः सत्त्वानाम्, तच्च कीटिकानगरकादि, तत्र कीटिकाश्चान्ये च सूक्ष्माः सत्त्वा भवन्तीति स्नेहसूक्ष्ममवश्याय-हिम-महिका - करक - हरतनुरूपमिति ८ ।
७,
[सू० ६१७] भरहस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स अट्ठ पुरिसजुगाई अणुबद्धं 10 सिद्धाई जाव सव्वदुक्खप्पहीणाई, तंजहा- आदिच्चजसे, महाजसे, अतिबले, महाबले, तेतवीरिते, कत्तवीरिते, दंडवीरिते, जलवीरिते ।
[ टी०] अनन्तरोक्तसूक्ष्मविषयसंयममासेव्य ये अष्टकतया सिद्धास्तानाह भरहस्सेत्यादि कण्ठ्यम्, किन्तु पुरिसजुगाई ति पुरुषा युगानीव कालविशेषा इव क्रमवृत्तित्वात् पुरुषयुगानि, अनुबद्धं सन्ततम् यावत्करणात् 'बुद्धाइं मुक्काई 15 परिनिव्वुडाई 'ति, एतेषां चाऽऽदित्ययशः प्रभृतीनामिहोक्तक्रमस्यान्यथात्वमप्युपलभ्यते,
तथाहि
20
७३८
राया आइच्चजसे महाजसे अइबले अ बलभद्दे ।
बलविरिय कत्तविरिए जलविरिए दंडविरिए य || [ आव० नि० ३६३ ] इति । इह चान्यथात्वमेकस्यापि नामान्तरभावाद् गाथानुलोम्याच्च सम्भाव्यत इति ।
[सू० ६१८] पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणितस्स अट्ठ गणा अट्ठ गणधरा होत्था, तंजहा - सुभे, अज्जघोसे, वसिट्टे, बंभचारी, सोमे, सिरिधरे, वीरिते, भद्दजसे ।
[टी०] संयमवदधिकारात् संयमवतामेवाष्टकान्तरमाह - पासेत्यादि व्यक्तम्, किन्तु पुरिसादाणीयस्स त्ति पुरुषाणां मध्ये आदीयत इत्यादानीय उपादेय इत्यर्थः, गणा एकक्रिया-वाचनानां साधूनां समुदायाः, गणधराः तन्नायका आचार्याः भगवतः
१. 'त्वात् पनक जे१ ॥
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६१९-६२१]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् । सातिशयानन्तरशिष्याः, आवश्यके तूभयेऽपि दश श्रूयन्ते, दस नवगं गणाण माणं जिणिंदाणं [आव० नि० २६८] इति वचनात् जावइया जस्स गणा तावइया गणहरा तस्स [आव०नि० २६९) इति वचनाच्च । तदिहाल्पायुष्कत्वादिकं कारणमपेक्ष्य द्वयोरविवक्षणमिति सम्भाव्यते, न चाष्टस्थानकानुरोध इह समाधानं वक्तुं शक्यते पर्युषणाकल्पेऽप्यष्टानामेवाभिधानादिति।
[सू० ६१९] अट्ठविधे दंसणे पन्नत्ते, तंजहा-सम्मइंसणे, मिच्छदंसणे, सम्मामिच्छदसणे, चक्खुदंसणे, जाव केवलदंसणे, सुविणदंसणे ।
[टी०] गणधराश्च दर्शनवन्त इति दर्शनं निरूपयन्नाह- अट्ठविहे दंसणे इत्यादि कण्ठ्यम्, केवलं स्वप्नदर्शनस्याचक्षुर्दर्शनान्तर्भावेऽपि सुप्तावस्थोपाधितो भेदो विवक्षित
5
इति ।
10
[सू० ६२०] अट्ठविधे अद्धोवमिते पन्नत्ते, तंजहा-पलितोवमे, सागरोवमे, ओसप्पिणी, उस्सप्पिणी, पोग्गलपरियट्टे, तीतद्धा, अणागतद्धा, सव्वद्धा ।
[टी०] सम्यग्दर्शनादेश्च स्थितिप्रमाणमौपम्याद्धया भवतीति तां प्ररूपयन्नाह– अट्ठविहे अद्धोवमिते इत्यादि सुगमम्, नवरम् औपम्यमुपमा पल्य-सागररूपा तत्प्रधाना अद्धा कालोऽद्धौपम्यं राजदन्तादिदर्शनात्, पल्येनोपमा यत्र काले परिमाणत: स पल्योपमम्, 15 रूढितो नपुंसकलिङ्गता, एवं सागरोपमम्, अवसर्पिण्यादीनां तु सागरोपमनिष्पन्नत्वादुपमाकालत्वं भावनीयम्, समयादिस्तु शीर्षप्रहेलिकान्त: कालोऽनुपमाकाल इति। _[सू० ६२१] अरहतो णं अरिट्टनेमिस्स जाव अट्ठमातो पुरिसजुगातो जुगंतकरभूमी, दुवासपरियाते अंतमकासी ।
[टी०] कालाधिकारादिदमपरमाह- अरहओ इत्यादि, जाव अट्ठमाउ त्ति अष्टमं 20 पुरुषयुगम् अष्टमपुरुषकालं यावत् युगान्तकरभूमि: पुरुषलक्षणयुगापेक्षयाऽन्तकराणां भवक्षयकारिणां भूमिः कालः सा आसीदिति । इदमुक्तं भवति- नेमिनाथस्य शिष्यप्रशिष्यक्रमेण अष्टौ पुरुषान् यावद् निर्वाणं गतवन्तो न परत इति, तथा पर्यायापेक्षयाऽप्यन्तकरभूमिः प्रसङ्गादुच्यते- दुवास त्ति द्विवर्षमात्रे केवलिपर्याये नेमिनाथस्य जाते सति साधवो भवान्तमकार्षुरिति । १. सू० ५६५ ॥ २. “राजदन्तादिषु परम्'- पा० २।२।३१ ॥ ३. दुवासे त्ति जे१ खं० ॥
25
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४०
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ६२२] समणेणं भगवता महावीरेणं अट्ठ रायाणो मुंडा भवेत्ता अगारातो अणगारितं पव्वाविता, तंजहावीरंगते वीरजसे संजय एणिज्जते य रायरिसी ।
सेय सिवे उद्दायणे संखे कासीवद्धणे ॥१५॥ 5 [टी०] तीर्थकरवक्तव्यताधिकारादिदमाह- समणेणमित्यादि सुगमम्, नवरं भवित्त त्ति अन्तर्भूतकारितार्थत्वात् मुण्डान् भावयित्वेति दृश्यम्, वीरंगते इत्यादि, तह संखे कासिवद्धणए इत्येवं चतुर्थपादे सति गाथा भवति, न चैवं दृश्यते पुस्तकेष्विति, एते च यथा प्रव्राजितास्तथोच्यते, तत्र वीराङ्गको वीरयशा: संजय इत्येते अप्रतीता: ।
एणेयको गोत्रत:, स च केतक्यर्द्धजनपदश्वेतवीनगरीराजस्य प्रदेशिनाम्न: श्रमणोपासकस्य 10 निजकः कश्चिद्राजर्षिः ।। ___ तथा सेय आमलकल्पानगर्याः स्वामी, यस्यां हि सूर्यकाभो देव: सौधर्मात् देवलोकाद् भगवतो महावीरस्य वन्दनार्थमवततार नाट्यविधिं चोपदर्शयामास, यत्र च प्रदेशिराजचरितं भगवता प्रत्यपादीति ।
तथा शिव: हस्तिनागपुरराजः, यो ह्येकदा चिन्तयामास- अहमनुदिनं हिरण्यादिना 15 वृद्धिमुपगच्छामि यतस्ततोऽस्ति पुराकृतकर्मणां फलमतोऽधुनापि तदर्थमुद्यच्छामीति, ततो व्यवस्थाप्य राज्ये पुत्रं कृत्वोचितमखिलकर्त्तव्यं दिक्प्रोक्षकतापसतया प्रवव्राज, तत: षष्ठंषष्ठेन तपस्यतस्तथोचितमातापयत: परिशटितपत्रादिना पारयतो विभङ्गज्ञानमुत्पेदे, तेन च विलोकयाञ्चकार सप्त द्वीपान् सप्त समुद्रानिति, उत्पन्नं च मे दिव्यज्ञानमित्य
वष्टम्भादागत्य नगरे बहुजनस्य यथोपलब्धं तत्त्वमुपदिदेश, तदा च तत्र भगवान् विजहार 20 गौतमश्च भिक्षां भ्राम्यन् जनाच्छिवप्ररूपणां शुश्राव, गत्वा च भगवन्तं पप्रच्छ,
भगवांस्त्वसङ्ख्येयान् द्वीप-समुद्रान् प्रज्ञापयामास, भगवद्वचनं च जनात् श्रुत्वा शिवः शङ्कित:, ततस्तस्य विभङ्ग: प्रतिपपात, ततोऽसौ भगवति जातभक्तिर्भगवत्समीपं जगाम, भगवता प्रकटिताकूतो जातसर्वज्ञप्रत्यय: प्रवव्राज, एकादश चाङ्गानि पपाठ सिद्धश्चेति।
तथा उदायन: सिन्धु-सौवीरादीनां षोडशानां जनपदानां वीतभयप्रमुखानां त्रयाणां 25 त्रिषष्ट्यधिकानां नगरशतानां दशानां च मुकुटबद्धानां राज्ञां स्वामी श्रमणोपासकः, येन
१. वीरंगए खं० पा० जे२ ॥ ३. सेये पासं० जे२ ॥ ३. आमलककल्पा' जे१ ॥
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६२३-६२४] अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
७४१ चण्डप्रद्योतमहाराज उज्जयनीं गत्वा उभयबलसमक्षं रणाङ्गणे रणकर्मकुशलेन करिवरगिरेनिपात्य बद्धो मयूरपित्तेन ललाटपट्टे अङ्कितश्च, तथाऽभिजिन्नामानं स्नेहानुगतानुकम्पया राज्यगृद्धोऽयं मा दुर्गतिं यासीदिति भावयता स्वपुत्रं राज्ये अव्यवस्थाप्य केशिनामानं च भागिनेयं राजानं विधाय महावीरसमीपे प्रवव्राज, यश्चैकदा तत्रैव नगरे विजहार, उत्पन्नरोगश्च वैद्योपदेशाद् दधि बुभुजे, राज्यापहारशङ्किना 5 च केशिराजेन विषमिश्रदधिदापनेन पञ्चत्वं गमितः, यद्गुणपक्षपातिन्या च कुपितदेवतया पाषाणवर्षेण कुम्भकारशय्यातरवर्जं सर्वं तन्नगरं न्यघानीति ।
तथा शङ्खः काशीवर्द्धनो वाराणसीनगरीसम्बन्धिजनपदवृद्धिकर इत्यर्थः, अयं च न प्रतीतः, केवलमलकाभिधानो राजा वाराणस्यां भगवता प्रव्राजितोऽन्तकृद्दशासु श्रूयते स यदि परं नामान्तरेणायं भवतीति ।
10 [सू० ६२३] अट्ठविधे आहारे पन्नत्ते, तंजहा-मणुण्णे असणे पाणे खाइमे साइमे, अमणुण्णे असणे पाणे खाइमे साइमे ।
[टी०] एते चाहारादौ मनोज्ञामनोज्ञे समवृत्तय इति प्रस्तावादाहारस्वरूपमाहअट्ठविहेत्यादि सुगमम् ।
[सू० ६२४] उप्पिं सणंकुमारमाहिंदाणं कप्पाणं हव्विं बंभलोगे कप्पे 15 रिट्टविमाणपत्थडे एत्थ णमक्खाडगसमचउरंससंठाणसंठितातो अट्ठ कण्हरातीतो पन्नत्ताओ, तंजहा-पुरत्थिमेणं दो कण्हरातीतो, दाहिणेणं दो कण्हरातीतो, पच्चत्थिमेणं दो कण्हरातीतो, उत्तरेणं दो कण्हरातीतो । पुरत्थिमा अब्भंतरा कण्हराती दाहिणं बाहिरं कण्हराई पुट्ठा, दाहिणा अब्भंतरा कण्हराती पच्चत्थिमं बाहिरं कण्हराई पुट्ठा, पच्चत्थिमा अब्भंतरा कण्हराती उत्तरं बाहिरं कण्हराइं 20 पुट्ठा, उत्तरा अब्भंतरा कण्हराती पुरत्थिमं बाहिरं कण्हराइं पुट्ठा । पुरथिमपच्चत्थिमिल्लाओ बाहिराओ दो कण्हरातीतो छलंसातो, उत्तरदाहिणाओ बाहिरातो दो कण्हरातीतो तंसाओ, सव्वाओ वि णं अब्भंतरकण्हरातीओ चउरंसाओ ।
एतासि णं अट्ठण्हं कण्हरातीणं अट्ठ नामधेजा पन्नत्ता, तंजहा-कण्हराती 25 ति वा मेहराती ति वा मघा ति वा माघवती ति वा वातफलिहे ति वा वातपलिक्खोभे ति वा देवफलिहे ति वा देवपलिक्खोभे ति वा ।
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ६२५] एतासि णं अट्ठण्हं कण्हरातीणं अट्ठसु ओवासंतरेसु अट्ठ लोगंतितविमाणा पन्नत्ता, तंजहा-अच्ची, अच्चिमाली, वतिरोयणे, पभंकरे, चंदाभे, सूराभे, सुपइट्ठाभे, अग्गिच्चाभे ।
एतेसु णं अट्ठसु लोगंतितविमाणेसु अट्ठविधा लोगंतिता देवा पन्नत्ता, 5 तंजहा
सारस्सतमाइच्चा वण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिता अव्वाबाहा अग्गिच्चा चेव बोधव्वा ॥१६॥
एतेसि णमट्ठण्हं लोगंतितदेवाणं अजहण्णमणुक्कोसेणं अट्ठ सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । 10 [टी०] आहारद्रव्याणि रसपरिणामविशेषवन्त्यमनोज्ञान्यनन्तरमुक्तान्यथ क्षेत्रविशेषान्
पुद्गलगतवर्णपरिणामविशेषवत्त्वेनाऽमनोज्ञान् कृष्णराज्यभिधानान् प्रतिपादयन् सूत्रपञ्चकमाह- उप्पिं इत्यादि सुगमम्, नवरम् उप्पिं ति उपरि हव्विं ति अधस्तात् ब्रह्मलोकस्य रिष्टाख्यो यो विमानप्रस्तटस्तस्येति भावः, आखाटकवत् समं तुल्यं
सर्वासु दिक्षु चतुरस्रं चतुष्कोणं यत् संस्थानम् आकारस्तेन संस्थिताः 15 आखाटकसमचतुरस्रसंस्थानसंस्थिताः कृष्णराजय: कालकपुद्गलपङ्क्तयस्तद्युक्त
क्षेत्रविशेषा अपि तथोच्यन्त इति, यथा च ता व्यवस्थितास्तथा दर्श्यते- पुरत्थिमे णं ति पुरस्तात् पूर्वस्यां दिशीत्यर्थः द्वे कृष्णराजी, एवमन्यास्वपि द्वे द्वे, तत्र प्राक्तनी यकाऽभ्यन्तरा कृष्णराजी सा दाक्षिणात्यां बाह्यां तां स्पृष्टा स्पृष्टवती, एवं सर्वा
अपि वाच्या:, तथा पौरस्त्य-पाश्चात्त्ये द्वे बाह्ये कृष्णराजी षडने षट्कोटिके, 20 औत्तरदाक्षिणात्ये द्वे बाह्ये कृष्णराज्यौ त्र्यो, सर्वाश्चतस्रोऽपीत्यर्थोऽभ्यन्तरा
श्चतुरस्राः। नामान्येव नामधेयानि, कृष्णराजी कृष्णपुद्गलपक्तिरूपत्वाद्, इतिरुपप्रदर्शने, वा विकल्पे, मेघराजीव या सा मेघराजीति । चाभिधीयते कृष्णत्वात्, तथा मघा षष्ठपृथिवी तद्वदतिकृष्णतया सा मघेति वा, माघवती सप्तमपृथिवी तद्वद्या सा माघवतीति, वातपरिघादीनि तु तमस्कायसूत्रवद् व्याख्येयानीति । १. दयंते जे१,२, खं० । दृश्यतां पृ० ७४० पं० ८ ॥ २. सू० २९१ ॥
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६२६-६२८]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
एतासामष्टानां कृष्णराजीनामष्टस्ववकाशान्तरेषु राजीद्वयमध्यलक्षणेष्वष्टौ लोकान्तिकविमानानि भवन्ति, एतानि चैवं प्रज्ञप्त्यामुच्यन्ते - अभ्यन्तरपूर्वाया अग्रे अर्चिविमानं तत्र सारस्वता देवाः, पूर्वयोः कृष्णराज्योर्मध्ये अर्चिमालीविमाने आदित्या देवाः, अभ्यन्तरदक्षिणाया अग्रे वैरोचने विमाने वह्नयः, दक्षिणयोर्मध्ये शुभङ्करे वरुणाः, अभ्यन्तरपश्चिमाया अग्रे चन्द्राभे गर्द्दतोयाः, अपरयोर्मध्ये सूराभे तुषिता:, 5 अभ्यन्तरोत्तराया अग्रे अङ्काभेऽव्याबाधाः, उत्तरयोर्मध्ये सुप्रतिष्ठाभे आग्नेया:, बहुमध्यभागे रिष्टाभे विमाने रिष्टा देवा इति, स्थापना
अजहत्रुक्कोसेणं ति जघन्यत्वोत्कर्षाभावेनेत्यर्थः, ब्रह्मलोके हि जघन्यतः सप्त सागरोपमाण्युत्कृष्टतस्तु दशेति लोकान्तिकानां त्वष्टाविति ।
७४३
अट्ठ 10
[सू० ६२६ ] अट्ठ धम्मत्थिगातमज्झपतेसा पन्नत्ता १, अधम्मत्थिगातमज्झपतेसा पन्नत्ता २, एवं चेव अट्ठ आगासत्थिगातमज्झपतेसा पन्नत्ता ३, एवं चेव अट्ठ जीवमज्झपएसा पन्नत्ता ४ ।
[टी०] कृष्णराजयो ह्यूर्ध्वलोकस्य मध्यभागवृत्तय इति धर्मादीनामपि मध्यभागवृत्तिकस्याष्टकचतुष्टयस्याविष्करणाय सूत्रचतुष्टयम्- अट्ठ धम्मेत्यादि स्फुटम्, नवरं धर्म्मा - Sधर्मा - ssकाशानां मध्यप्रदेशास्ते अष्ट ये रुचकरूपा इति, जीवस्यापि 15 केवलिसमुद्घाते रुचकस्था एव ते अन्यदा त्वष्टावविचला ये ते मध्यप्रदेशाः, शेषास्त्वावर्त्तमानजलमिवानवरतमुद्वर्त्तन-परिवर्त्तनपरास्तत्स्वभावत्वाद्ये ते अमध्यप्रदेशा
इति ।
[सू० ६२७] अरहा णं महापउमे अट्ठ रायाणो मुंडा भवित्ता अगारातो अणगारितं पव्वावेस्सति, तंजहा पउमं, पउमगुम्मं, नलिणं, नलिणगुम्मं, 20 पउमद्धतं, धणुद्धतं, कणगरहं, भरहं ।
[सू० ६२८] कण्हस्स णं वासुदेवस्स अट्ठ अग्गमहिसीओ अरहतो अरिट्ठनेमिस्स अंतितं मुंडा भवेत्ता अगारातो अणगारितं पव्वतित्ता सिद्धाओ जाव सव्वदुक्खप्पहीणाओ, तंजहा
१. लौका खं० ॥ २. भगवती० ६/५/३२-३९ । ३. अर्चिर्वि जे१,२ खं० ॥ ४. अर्च्चिर्मालिवि जे२ ॥ ५. पनेयम् १ । स्थापना चित्रपरिशिष्टे द्रष्टव्या ।। ६. लौका जे१ पा० ।। ७. अष्ट जे१ पासं० मध्ये एव वर्तते ॥
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पउमावई य गोरी, गंधारी लक्खणा सुसीमा य । जंबवती सच्चभामा, रुप्पिणी कण्हग्गमहिसीओ ॥९७॥
[टी०] जीवमध्यप्रदेशादिपदार्थप्रतिपादकास्तीर्थकरा भवन्तीति प्रकृताध्ययनावतारिणी तीर्थकरवक्तव्यतां सूत्रद्वयेनाह- अरहा णमित्यादि सुगमम्, नवरं महापउमे त्ति महापद्मो 5 भविष्यदुत्सर्पिण्यां प्रथमतीर्थकरः श्रेणिकराजजीव इति इहैव नेवस्थानके वक्ष्यमाणव्यतिकर इति, मुंडा भवित्त त्ति मुण्डान् भावयित्वेति । __ कृष्णाग्रमहिषीवक्तव्यता त्वन्तकृद्दशाङ्गादवसेया, सा चेयम्- किल द्वारकावत्यां कृष्णो वासुदेवो बभूव, पद्मावत्यादिकास्तस्य भार्या अभूवन्, अरिष्टनेमिस्तत्र विहरति
स्म, कृष्ण: सपरिवार: पद्मावतीप्रमुखाश्च देव्यो भगवन्तं पर्युपासामासिरे, भगवास्तु 10 तेषां धर्ममाचख्यौ, तत: कृष्णो वन्दित्वाऽभ्यधात्- अस्या भदन्त ! द्वारकावत्या
द्वादश-नवयोजनायाम-विस्ताराया धनपतिमतिनिर्मिताया: प्रत्यक्षदेवलोकभूताया: किंमूलको विनाशो भविष्यति ? भगवान् भुवनगुरुर्जगाद- सुराग्निद्वीपायनमुनिमूलको विनाशो भविष्यतीति निशम्य मधुमथनो मनसैवं विभावितवान्– धन्यास्ते प्रद्युम्नादयो
ये निष्क्रान्ता: अहमधन्यो भोगमूर्च्छितो न शक्नोमि प्रव्रजितुमिति, ततस्तमर्हन्नवादीद्15 भोः ! कृष्ण न भवत्ययमर्थो यद्वासुदेवा: प्रव्रजन्ति, कृतनिदानत्वात्तेषाम् । अथाह
भदन्त ! क्वोत्पत्स्ये?, भुवनविभुराह– दग्धायां पुरि पाण्डुमथुरां प्रति चलितः कौशाम्बकानने न्यग्रोधस्याध: सुप्तो जराकुमाराभिधानभ्रात्रा काण्डेन पादे विद्ध: कालं कृत्वा वालुकाप्रभायामुत्पत्स्यसे, एवं निशम्य यदुनन्दनो दीनमनोवृत्तिरभवत्, ततो जगद्गुरुरगादीत्- मा दैन्यं व्रज यतस्ततस्त्वमुवृत्याऽऽगामिन्यामुत्सर्पिण्यां भारते 20 वर्षेऽममाभिधानो द्वादशोऽर्हन् भविष्यसीति श्रुत्वा जहर्ष सिंहनादादि च चकार, ततो
जनार्दनो नगरी गत्वा घोषणां कारयाञ्चकार यदुतार्हता नेमिनाथेनाऽस्या नगर्या विनाश: समादिष्टस्ततो यः कोऽपि तत्समीपे प्रव्रजति तस्याहं निष्क्रमणमहिमानं वितनोमीति निशम्य पद्मावतीप्रभृतिका देव्योऽवादिषुः- वयं युष्माभिरनुज्ञाता: प्रव्रजाम:, ततस्ता महान्तं निष्क्रमणमहिमानं कृत्वा नेमिजिननायकस्य शिष्यिकात्वेन दत्तवान्, भगवांस्तु
१. सू० ६९३ ॥ १. मनस्येवं पा० जे२ ।।
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६२९-६३२] अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
७४५ ता: प्रव्राजितवान्, ताश्च विंशतिवर्षाणि प्रव्रज्यापर्यायं परिपाल्य मासिक्या संलेखनया चरमोच्छ्वासनि:श्वासाभ्यां सिद्धा इति । [सू० ६२९] वीरितपुव्वस्स णं अट्ठ वत्थू अट्ठ चूलवत्थू पन्नत्ता । [टी०] एताश्च सिद्धा वीर्यादिति वीर्याभिधायिनः पूर्वस्य स्वरूपमाहवीरियपुव्वेत्यादि, वीर्यप्रवादाख्यस्य तृतीयपूर्वस्य वस्तूनि मूलवस्तूनि अध्ययनविशेषा 5 आचारे ब्रह्मचर्याध्ययनवत्, चूलावस्तूनि त्वाचाराग्रवदिति ।
[सू० ६३०] अट्ठ गतीतो पत्नत्ताओ, तंजहा-णिरतगती, तिरियगती, जाव सिद्धिगती, गुरुगती, पणोल्लणगती, पन्भारगती ।
[टी०] वस्तुवीर्यादेव गतयोऽपि भवन्तीति ता दर्शयन्नाह– अट्ठ गतीओ इत्यादि सुगमम्, नवरं गुरुगइ त्ति भावप्रधानत्वानिर्देशस्य गौरवेण ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्गमनस्वभावेन 10 या परमाण्वादीनां स्वभावतो गतिः सा गुरुगतिरिति, या तु परप्रेरणात् सा प्रणोदनगतिर्बाणादीनामिव, या तु द्रव्यान्तराक्रान्तस्य सा प्राग्भारगतिर्यथा नावादेरधोगतिरिति ।
[सू० ६३१] गंगा-सिंधु-रत्ता-रत्तवतिदेवीणं दीवा अट्ट अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं पन्नत्ता ।
15 उक्कामुह-मेहमुह-विजुमुह-विजुदंतदीवा णं दीवा अट्ट अट्ठ जोयणसयाइं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ता ।
[सू० ६३२] कालोते णं समुद्दे अट्ठ जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते ।
अब्भंतरपुक्खरद्धे णं अट्ठ जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पन्नत्ते, 20 एवं बाहिरपुक्खरद्धे वि ।
[टी०] अनन्तरं गतिरुक्तेति गतिमतीनां गङ्गादिनदीनामधिष्ठातृदेवीद्वीपस्वरूपमाहगंगेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं गङ्गाद्या भरतैरवतनद्यस्तदधिष्ठातृदेवीनां निवासद्वीपा गङ्गादिप्रपातकुण्डमध्यवर्तिनः । १. सू० ४४२, ७४५ ॥
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे द्वीपाधिकारादन्तरद्वीपसूत्रम्, तत एव द्वीपवत: कालोदसमुद्रस्य प्रमाणसूत्रम्, तदनन्तरभाविनः पुष्कराभ्यन्तरार्द्धस्य बाह्यार्द्धस्य च सूत्रे, सुगमानि चैतानि, नवरमुल्कामुख-मेघमुख-विद्युन्मुख-विद्युद्दन्तशब्देषु प्रत्येकं द्वीपशब्दः सम्बध्यते, ततश्चोल्कामुखद्वीपादयो णमित्यलङ्कारे द्वीपा हिमवतः शिखरिणश्च वर्षधरपर्वतस्य 5 पूर्वयोर्दष्ट्रयोरपरयोश्च सप्तानां सप्तानामन्तरद्वीपानां मध्ये षष्ठा अन्तरद्वीपा: अष्टावष्टौ योजनशतानि आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्ताः ।
[सू० ६३३] एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स अट्ठसोवण्णिते काकणिरतणे छत्तले दुवालसंसिते अट्ठकण्णिते अधिकरणिसंठिते पन्नत्ते ।
टी०] पुष्कराद्धे च चक्रिणो भवन्तीति तत्सत्करत्नविशेषस्याष्टस्थानकेऽवतारं : 10 कुर्वन्नाह- एगमेगेत्यादि, एकैकस्य राज्ञश्चतुरन्तचक्रवर्तिन इत्यत्रान्यान्य
कालोत्पन्नानामपि तुल्यकाकणीरत्नप्रतिपादनार्थमेकैकग्रहणम्, निरुपचरितराजशब्दविषयज्ञापनार्थं राजग्रहणम्, षट्खण्डभरतादिभोक्तृत्वप्रतिपादनार्थं चतुरन्तचक्रवर्तिग्रहणमिति, अष्टसौवर्णिकं काकणिरत्नम्, सुवर्णमानं तु चत्वारि मधुरतृणफलान्येक:
श्वेतसर्षपः, षोडश सर्षपा एकं धान्यमाषफलम्, द्वे धान्यमाषफले एका गुञ्जा, पञ्च 15 गुञ्जा एक: कर्ममाषकः, षोडश कर्ममाषका एकः सुवर्णः, एतानि च मधुरतृणफलादीनि
भरतकालभावीनि गृह्यन्ते, यत: सर्वचक्रवर्तिनां तुल्यमेव काकणिरत्नमिति, षट्तलं द्वादशाम्रि अष्टकर्णिकम् अधिकरणीसंस्थितं प्रज्ञप्तमिति, तत्र तलानि मध्यखण्डानि, अश्रय: कोटय:, कर्णिकाः कोणविभागा:, अधिकरणिः सुवर्णकारोपकरणं
प्रतीतमेवेति, इदं च चतुरङ्गुलप्रमाणं चउरंगुलप्पमाणा सुवन्नवरकागणी नेय [बृहत्सं० ३०२] 20 त्ति वचनादिति ।
[सू० ६३४] मागधस्स णं जोयणस्स अट्ट धणुसहस्साइं निधत्ते पण्णत्ते।
[टी०] अङ्गुलप्रमाणनिष्पन्नं योजनमानमाह- मागहेत्यादि, मगधेषु भवं मागधं मगधदेशव्यवहृतं तस्य योजनस्य अध्वमानविशेषस्याष्ट धनुःसहस्राणि निहारो निर्गम:
प्रमाणमिति यावत्, निहत्ते त्ति क्वचित्पाठः, तत्र निधत्तं निकाचितं निश्चितं प्रमाणमिति 25 गम्यते, इदं च प्रमाणं परमाण्वादिना क्रमेणावसेयम्, तथाहि
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४७
[सू० ६३५-६३६]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् । परमाणू तसरेणू रहरेणू अग्गयं च वालस्स । लिक्खा जूया य जवो अट्ठगुणविवद्धिया कमसो ॥ [अनुयोगद्वार० सू० ३३९]
तत्र परमाणुरनन्तानां निश्चयपरमाणूनां समुदयरूपः, ऊर्ध्वरेण्वादिभेदा अनुयोगद्वाराभिहिता अनेनैव सगृहीता दृश्या:, तथा पौरस्त्यादिवायुप्रेरितस्त्रस्यति गच्छतीति त्रसरेणुः, रथगमनोत्खातो रथरेणुरिति, एवं चाष्टौ यवमध्यान्यङ्गुलम्, 5 चतुर्विंशतिरगुलानि हस्त:, चत्वारो हस्ता धनुः, द्वे सहस्रे धनुषां गव्यूतम्, चत्वारि गव्यूतानि योजनमिति, मागधग्रहणात् क्वचिदन्यदपि योजनं स्यादिति प्रतिपादितम्, तत्र यस्मिन् देशे षोडशभिर्धनु:शतैर्गव्यूतं स्यात्तत्र षड्भिः सहस्रैश्चतुर्भिः शतैर्धनुषां योजनं भवतीति ।
[सू० ६३५] जंबू णं सुदंसणा अट्ट जोयणाई उटुंउच्चत्तेणं बहुमज्झदेसभाए, 10 अट्ट जोयणाई विक्खंभेणं, सातिरेगाइं अट्ट जोयणाइं सव्वग्गेणं पन्नत्ता १। कूडसामली णं अट्ठ जोयणाई एवं चेव २।
[सू० ६३६] तिमिसगुहा णमट्ठ जोयणाई उडुंउच्चत्तेणं पन्नत्ता ३ । खंडगपवातगुहा णं अट्ठ एवं चेव ४ ।
[टी०] योजनप्रमाणमभिधायाथ योजनतो जम्ब्वादीनां प्रमाणप्रतिपादनाय 15 सूत्रचतुष्टयमाह- जंबू णमित्यादि, जम्बू: वृक्षविशेषस्तदाकारा सर्वरत्नमयी या सा जम्बूः, यया अयं जम्बूद्वीपोऽभिधीयते, सुदर्शनेति तस्या नाम, सा चोत्तरकुरूणां पूर्वार्द्ध शीताया महानद्या: पूर्वेण जाम्बूनदमययोजनशतपञ्चकायामविष्कम्भस्य द्वादशयोजनमध्यभागपिण्डस्य क्रमपरिहाणितो द्विगव्यूतोच्छ्रितपर्यन्तस्य द्विगव्यूतोच्छ्रितपञ्चधनु:शतविस्तीर्णपद्मवरवेदिकापरिक्षिप्तस्य द्विगव्यूतोच्छ्रित- 20 सच्छत्रतोरणचतुरिस्य पीठस्य मध्यभागव्यवस्थितायां चतुर्योजनोच्छ्रितायामष्टयोजनायाम-विष्कम्भायां मणिपीठिकायां प्रतिष्ठिता द्वादशवेदिकागुप्ता । अट्ठ जोयणाइमित्यादि अष्ट योजनान्यूर्वोच्चत्वेन बहुमध्यदेशभागे शाखाविस्तारदेशे, अष्ट योजनानि विष्कम्भेण, सातिरेकाणि अतिरेकयुक्तान्युद्वेधगव्यूतिद्वयेनाधिकानीति १. ज्योतिष्करण्डके गा० ७३, जीवसमासे गा० ९८, प्रवचनसारोद्धारे गा० १३९१ ॥ २. °याष्टयोजनतो पा० ॥
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
5
10
15
20
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
भावः सर्व्वाग्रेण सर्व्वपरिमाणेनेति, तस्याश्च चतस्रः पूर्वादिदिक्षु शाखा:,
पूर्वशाखायाम्
भवणं कोसपमाणं सयणिज्जं तत्थऽणाढियसुरस्स । तिसु पासाया सालेषु तेसु सीहासणा रम्मा |
७४८
ते पासाया को समूसिया कोसमद्धवित्थिन्ना । विडिमोवरि जिणभवणं कोसद्धं होइ वित्थिन्नं ॥
देसूणकोसमुच्चं जंबू अट्ठस्सएण जंबूणं । परिवारिया विराय तत्तो अप्पमाणाहिं ॥ [ बृहत्क्षेत्र० २८८-२९०] तथा त्रिभिर्योजनशतप्रमाणैर्वनैः संपरिक्षिप्ता
जंबू पन्नासं दिसि विदिसिं गंतु पढम वणसंडं । चउरो दिसासु भवणा विदिसासु य होंति पासाया ॥ कोसपमाणा भवणा चउवावीपरिगया य पासाया । कोसद्धवित्थडा कोसमूसियाऽणाढियसुरस्स ॥
पंचेव धणुसयाइं ओवेहेणं हवंति वावीओ ।
कोसद्धवित्थडाओ कोसायामाउ सव्वाउ || [ बृहत्क्षेत्र० २९३ - २९५ ] इति । पासायाण चउण्हं भवणाण य अंतरे कूडा ॥ [ बृहत्क्षेत्र० २९८ ] तानि चाष्टौ, यदाह—
अड्डसभकूडतुल्ला सव्वे जंबूणयामया भणिया ।
तेसुवरिं जिणभवणा कोसपमाणा परमरम्मा ॥ [ बृहत्क्षेत्र० २९९] इति । कूटशाल्मली जम्बूतुल्यवक्तव्यता, यदाह—
देवकुरुपच्छिमद्धे गरुलावासस्स सामलिदुमस्स ।
एसेव गमो नवरं पेढं कूडा य रययमया ॥ [ बृहत्क्षेत्र० ३००] इति ।
अत एव एवं चेवेत्युक्तम् । गुहासूत्रे व्यक्ते ।
[सू० ६३७] जंबुमंदरस्स पव्वतस्स पुरत्थिमेणं सीताते महानतीते उभतोकूले 25 अट्ठ वक्खारपव्वता पन्नत्ता, तंजहा - चित्तकूडे, पम्हकूडे, नलिणकूडे, एगसेले, तिकूडे, वेसमणकूडे, अंजणे, मायंजणे १ ।
तत्र
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६३७]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
जंबुमंदरपच्चत्थिमेणं सीतोताते महानतीते उभतोकूले अट्ठ वक्खारपव्वता पन्नत्ता, तंजहा- अंकावती, पम्हावती, आसीविसे, सुहावहे, चंदपव्वते, सूरपव्वते, णागपव्वते, देवपव्वते २ ।
जंबुमंदरपुरत्थिमेणं सीताते महानतीते उत्तरेणं अट्ठ चक्कवहिविजया पन्नत्ता, तंजहा- कच्छे, सुकच्छे, महाकच्छे, कच्छगावती, आवत्ते जाव पुक्खलावती 5
३।
७४९
जंबुमंदर [ पुरत्थिमेणं] सीताते महानतीते दाहिणेणं अट्ठ चक्कवट्टिविजया पन्नत्ता, तंजहा- वच्छे, सुवच्छे जाव मंगलावती ४ ।
जंबुमंदरपच्चत्थिमेणं सीतोताते महानदीते दाहिणेणं अट्ठ चक्कवट्टिविजया पन्नत्ता, तंजहा - पम्हे जाव सलिलावती ५ ।
जंबुमंदरपच्चत्थिमेणं सीतोताए महानदीए उत्तरेणं अट्ठ चक्कवट्टिविजया पन्नत्ता, तंजहा- वप्पे, सुवप्पे जाव गंधिलावती ६ ।
जंबुमंदरपुरत्थिमेणं सीताते महानतीते उत्तरेणं अट्ठ रायहाणीतो पन्नत्ताओ, तंजहा - खेमा, खेमपुरा चेव जाव पुंडरिगिणी ७ ।
जंबुमंदरपुरत्थिमेणं सीताए महानदीए दाहिणेणं अट्ठ रायहाणीतो पन्नत्ताओ, 15 तंजहा - सुसीमा, कुंडला चेव जाव रतणसंचया ८ ।
जंबुमंदरपच्चत्थिमेणं सीओदाते महानतीते दाहिणेणं अट्ठ रायहाणीओ पन्नत्ताओ, तंजहा- आसपुरा, जाव वीतसोगा ९ ।
जंबुमंदरपच्चत्थिमेणं सीतोताते महानतीते उत्तरेणं अट्ठ रायहाणीओ पन्नत्ताओ, तंजहा - विजया, वेजयंती जाव अउज्झा १० ।
10
[टी०] जम्ब्वादीनि च वस्तूनि जम्बूद्वीपे भवन्तीति जम्बूद्वीपाधिकारात्तद्गतवस्तुप्ररूपणाय क्षेत्रसाधर्म्याद् धातकीखण्डपुष्करार्द्धगतवस्तुप्ररूपणाय च जम्बू इत्यादिकं सूत्रप्रपञ्चमाह, सूत्रसिद्धश्चायम्, नवरं सूत्राणामयं विभागो - द्वे आद्ये वक्षस्काराणां २ चत्वारि च प्रत्येकं विजय - नगरी - तीर्थकरादि- दीर्घवैताढ्यादीना १६ मेकं चूलिकायाः १९, एवं धातकीखण्डादौ धातक्यादिसूत्रपूर्वाण्येतान्येव द्विर्द्विर्भवन्तीति, तथा मालवच्छैलं 25
20
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५०
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे मेरो: पूर्वोत्तरविदिग्व्यवस्थितं लक्षणीकृत्य प्रदक्षिणया वक्षारा विजयाश्च व्यवस्थाप्यन्त इति, तत्र चक्रवर्त्तिनो विजयन्ते येषु यान् वा ते चक्रवर्त्तिविजया: क्षेत्रविभागा इति, जाव पुक्खलावइ त्ति भणनात् ‘मंगलावत्ते पुक्खले' त्ति द्रष्टव्यम्, जाव मंगलावइ त्ति करणात् ‘महावच्छे वच्छावई रम्मे रम्मए रमणिज्जे' इति दृश्यम्, जाव सलिलावइ 5 त्ति करणात् ‘सुपम्हे महापम्हे पम्हावई संखे नलिणे कुमुए'त्ति दृश्यम्, जाव गंधिलावइ
त्ति करणात् ‘महावप्पे वप्पावई वग्गू सुवग्गू गंधिले'त्ति दृश्यम्, खेमपुरा चेव जाव त्ति करणात् ‘अरिट्ठा रिट्ठवई खग्गी मंजूसा ओसहिपुरी'ति दृश्यम्, सुसीमा कुंडला चेव जाव त्ति करणात् 'अपराजिया पहंकरा अंकावई पम्हावई सुभा'इति दृश्यम्,
आसपुरा जाव त्ति करणात् ‘सीहपुरा महापुरा विजयपुरा अवराजिया अवरा असोग'त्ति 10 दृश्यम्, वेजयन्ती जाव त्ति करणात् ‘जयन्ती अवराजिया चक्कपुरा खग्गपुरा अवज्झ'त्ति दृश्यम् ।
[सू० ६३८] जंबुमंदरपुरस्थिमेणं सीताते महाणदीए उत्तरेणं उक्कोसपए अट्ठ अरहंता अट्ठ चक्कवट्टी अट्ट बलदेवा अट्ठ वासुदेवा उप्पजंति वा उप्पजिंसु
वा उप्पजिस्संति वा ११ । जंबुमंदरपुरस्थिमेणं सीताए [महाणदीए] दाहिणेणं 15 उक्कोसपए एवं चेव १२ । जंबुमंदरपच्चत्थिमेणं सीओदाते महाणदीए दाहिणेणं उक्कोसपए एवं चेव १३, एवं उत्तरेण वि १४ ।
[टी०] एताश्च क्षेमादिराजधान्य: कच्छादिविजयानां शीतादिनदीसमासन्नखण्डत्रयमध्यमखण्डे भवन्ति नवयोजनविस्तारा द्वादशयोजनायामाः।
__ आसु च तीर्थकरादयो भवन्तीति अट्ठ अरहंत त्ति उत्कृष्टतोऽष्टावर्हन्तो भवन्ति, 20 प्रत्येकं विजयेषु भावात्, एवं चक्रवर्त्यादयोऽपि, एवं च चतुर्ध्वपि महानदीकूलेषु
द्वात्रिंशत्तीर्थकरा भवन्ति, चक्रवर्तिनस्तु यद्यपि शीताशीतोदानद्योरेकैकस्मिन् कूले अष्टावष्टावुत्पद्यन्त इत्युच्यते तथापि सर्वविजयापेक्षया नैकदा ते द्वात्रिंशद्भवन्ति, जघन्यतोऽपि वासुदेवचतुष्टयाविरहितत्वान्महाविदेहस्य, यत्र च वासुदेवस्तत्र चक्रवर्ती
१. सुसीमा नास्ति खं० विना ॥ २. भवंतीति पा० जे२ ।।
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६३९ ]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
न भवतीति, तस्मादुत्कृष्टतोऽप्यष्टाविंशतिरेव चक्रवर्त्तिनो भवन्ति, एवं जघन्यतोऽपि चक्रवर्त्तिचतुष्टयसम्भवाद् वासुदेवा अप्यष्टाविंशतिरेव, वासुदेवसहचरत्वाद् बलदेवा अप्येवमिति ।
[सू० ६३९ ] जंबुमंदरपुरत्थिमेणं सीताते महानईए उत्तरेणं अट्ठ दीहवेयड्डा, अट्ठ तिमिसगुहाओ, अट्ठ खंडगप्पवातगुहाओ, अट्ठ कतमालगा देवा, अट्ठ णट्टमालगा देवा, अट्ठ गंगाकुंडा, अट्ठ सिंधुकुंडा, अट्ठ गंगातो, अट्ठ सिंधूओ, अट्ठ उसभकूडा पव्वता, अट्ठ उसभकूडा देवा पन्नत्ता १५
जंबुमंदरपुरत्थिमेणं सीताते महानतीते दाहिणेणं अट्ठ दीहवेयड्डा एवं चेव जाव अट्ठ उसभकूडा देवा पन्नत्ता, नवरमेत्थ रत्ता-रत्तावतीतो तासिं चेव कुंडा १६ ।
७५१
5
जंबुमंदरपच्चत्थिमेणं सीतोताए महानतीते दाहिणेणं अट्ठ दीहवेयड्ढा, जाव अट्ठ नट्टमालगा देवा, अट्ठ गंगाकुंडा, अट्ठ सिंधुकुंडा, अट्ठ गंगातो, अट्ठ सिंधूओ, अट्ठ उसभकूडा पव्वता, अट्ठ उसभकूडा देवा पन्नत्ता १७ ।
जंबुमंदरपच्चत्थिमेणं सीतोदाए महानतीते उत्तरेणं अट्ठ दीहवेयड्डा, जाव अट्ठ नट्टमालगा देवा, अट्ठ रत्ताकुंडा, अट्ठ रत्तावतिकुंडा, अट्ठ रत्ताओ, जाव 15 अट्ठ उसभकूडा देवा पन्नत्ता १८ ।
10
मंदरचूलिया णं बहुमज्झदेसभाते अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं पन्नत्ता १९ । [ टी०] दीहवेय ति दीर्घग्रहणं वर्त्तुलवैताढ्यव्यवच्छेदार्थम्, गुहाष्टकयोर्यथाक्रमं देवाष्टके इति, गङ्गाकुण्डानि नीलवद्वर्षधरपर्वतदक्षिणनितम्बस्थितानि षष्टियोजनायामविष्कम्भाणि मध्यवर्त्तिगङ्गादेवीसभवनद्वीपानि त्रिदिक्सतोरणद्वाराणि येभ्यः प्रत्येकं 20 दक्षिणतोरणेन गङ्गा विनिर्गत्य विजयानि विभजन्त्यो भरतगङ्गावच्छीतामनुप्रविशन्तीति, एवं सिन्धुकुण्डान्यपि । अट्ठ उसभकूड त्ति अष्टौ ऋषभकूटपर्वता अष्टास्वपि विजयेषु तद्भावात् ते च वर्षधरपर्व्वतप्रत्यासन्ना म्लेच्छखण्डत्रयमध्यखण्डवर्त्तिनः सर्वविजयभरतैरवतेषु भवन्ति, तत्प्रमाणं चेदम्
१. विजयान् ? ॥
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सव्वे वि उसभकूडा उव्विद्धा अट्ट जोयणा होति । बारस अट्ठ य चउरो मूले मज्झुवरि वित्थिना ॥ [बृहत्क्षेत्र० १९३] इति ।
देवास्तन्निवासिन एवेति, नवरमेत्थ रत्त-रत्तवईओ तासिं चेव कुंड त्ति, शीताया दक्षिणतोऽपि अष्टौ दीर्घवैताढ्या इत्यादि सर्वं समानम्, केवलं गंगा-सिन्धुस्थाने रक्ता5 रक्तवत्यौ वाच्ये, गङ्गादिकुण्डस्थानेऽपि रक्तादिकुण्डानि वाच्यानीति, तथाहि- ‘अट्ठ रत्ताकुंडा पन्नत्ता, अट्ठ रत्तवईकुंडा, अट्ठ रत्ताओ, अट्ठ रत्तवईओ' । तथा निषधवर्षधरपद्धृतोत्तरनितम्बवर्तीनि षष्टियोजनप्रमाणानि रक्ता-रक्तवतीकुण्डानि येभ्य उत्तरतोरणेन विनिर्गत्य ता: शीतामनुपतन्तीति ।
[सू० ६४०] धायइसंडदीवपुरथिमद्धे णं धायतिरुक्खे अट्ठ जोयणाई 10 उडुंउच्चत्तेणं बहुमज्झदेसभाए, अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं, साइरेगाइं अट्ठ
जोयणाई सव्वग्गेणं पन्नत्ते । एवं धायइरुक्खातो आढवेत्ता सच्चेव जंबुद्दीववत्तव्वता भाणियव्वा जाव मंदरचूलिय त्ति । एवं पच्चत्थिमद्धे वि महाधाततिरुक्खातो आढवेत्ता जाव मंदरचूलिय त्ति । एवं
पुक्खरवरदीवडपुरत्थिमद्धे वि पउमरुक्खाओ आढवेत्ता जाव मंदरचूलिय त्ति। 15 एवं पुक्खरवरदीवड्डपच्चत्थिमद्धे वि महापउमरुक्खातो जाव मंदरचूलित त्ति।
[टी०] तथा धातकी-महाधातकी-पद्म-महापद्मवृक्षाः जम्बूवृक्षसमानवक्तव्या:, यदाह
जो भणिओ जंबूए विही उ सो चेव होइ एएसिं ।
देवकुरासुं सामलिरुक्खा जह जंबूदीवम्मि ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३।५५] इति । 20 [सू० ६४१] जंबूदीवे दीवे मंदरे पव्वते भद्दसालवणे अट्ठ दिसाहत्थिकूडा पन्नत्ता, तंजहा
पउमुत्तरे नीलवंते सुहत्थि अंजणागिरी । कुमुदे य पलासे य वडेंसे रोयणागिरी ॥९८॥ १॥
[टी०] क्षेत्राधिकारात् जंबूदीवेत्यादि सूत्रचतुष्टयं सुगमम्, नवरं भद्दसालवणे 25 त्ति मेरुपरिक्षेपतो भूम्यां भद्रशालवनमस्ति, तत्राष्टौ शीता-शीतोदयोरुभयकूलवर्तीनि
१. रत्ताव पा० जे२ ॥
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६४२-६४३ / १]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
७५३
पूर्वादिषु दिक्षु हस्त्याकाराणि कूटानि दिशाहस्तिकूटानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - पउमे सिलोगो कण्ठ्यः, नवरमस्य सप्रसंगो विभागोऽयम्
मेरूओ पन्नासं दिसिविदिसिं गंतु भद्दसालवणं । चउरो सिद्धाययणा दिसासु विदिसासु पासाया ॥ छत्तीसुच्चा पणुवीसवित्थडा दुगुणमायताययणा । चउवाविपरिक्खित्ता पासाया पंचसयउच्चा || [ बृहत्क्षेत्र० ३२१-२२] ईसाणस्सुत्तरिमा पासाया दाहिणा य सक्कस्स । अट्ठय हवंति कूडा सीतासीतोदुभयकूले ॥ दो दो चउद्दिसिं मंदरस्स हिमवंतकूडसमकप्पा । पउमुत्तरोऽत्थ पढमो पुव्विम सीउत्तरे कूले ॥ तत्तोय लवंते सुहत्थि तह अंजणागिरी कुमुदे ।
तह य पलासवडेंसे अट्ठमए रोयणगिरी य ॥ [ बृहत्क्षेत्र० ३२४- २६] ति |
[सू० ६४२] जंबूदीवस्स णं दीवस्स जगती अट्ठ जोयणाई उड्डउच्चत्तेणं बहुमज्झदेसभाते, अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं २ |
5
[टी०] जगती वेदिकाधारभूता पाली ।
[सू० ६४३ - १] जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं महाहिमवंते वासधरपव्वते अट्ठ कूडा पन्नत्ता, तंजहा
सिद्ध महाहिमवंते हेमवते रोहिता हरीकूडे ।
हरिकंता हरिवासे वेरुलिते चेव कूडा उ ।।९९।। ३। जंबुमंदरउत्तरेणं रुप्पिम्मि वासहरपव्वते अट्ठ कूडा पन्नत्ता, तंजासिद्धे रुप्पी रम्मग नरकंता बुद्धि रुप्पकूडे या । हेरण्णवते मणिकंचणे त रुप्पिम्मि कूडा उ ॥१००॥। ४।
[टी०] सिद्ध गाहा, सिद्धायतनोपलक्षितं कूटं सिद्धकूटम्, तच्च प्राच्याम्, ततः क्रमेणापरतः शेषाणि, महाहिमवत्कूटं तद्गिरिनायकदेवभवनाधिष्ठितम्, हैमवतकूटं हैमवद्वर्ष नायकदेवावासभूतम्, रोहितकूटं रोहिताख्यनदीदेवतासत्कम्, ह्रीकूटं 25 १. 'वणे - बृ०० ॥ २. 'यणे बृ०क्षे० ॥। ३. °रिया- बृ०क्षे० ॥ ४. अट्ठ दिसि हत्थि कूडा बृ०० ॥ ५. सीया पुव्वत्तरे कूले- बृ०क्षे० ॥
10
15
20
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे महापद्माख्यतद्दनिवासिहीनामकदेवतासत्कम्, हरिकान्ताकूटं तन्नामनदीदेवतासत्कम्, हरिवर्षकूटं हरिवर्षनायकदेवसत्कम्, वैडूर्यकूटं तद्रत्नमयत्वादिति, अनेनैव क्रमेण रुक्मिकूटान्यप्यूह्यानि, तद्गाथा सिद्धे रुप्पीत्यादि कण्ठ्या ।
[सू० ६४३ - २] जंबुमंदरपुरत्थिमेणं रुयगवरे पव्वते अट्ठ कूडा पन्नत्ता, 5 तंजहा
10
15
७५४
रिट्ठ तवणिज्ज कंचण रयत दिसासोत्थिते लंबे ।
अंजणे अंजणपुलते रुयगस्स पुरत्थिमे कूडा ॥१०१॥ १।
तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरितातो महिड्डियातो जाव पलिओवमद्वितीतातो परिवति, तंजहा
दुत्तरा य णंदा, आणंदा, दिवद्धणा ।
विजया य वेजयंती, जयंती अपराजिता ॥ १०२ || २ |
जंबुमंदरदाहिणेणं रुतगवरे पव्वते अट्ठ कूडा पन्नत्ता, तंजाकणते कंचणे पउमे, नलिणे ससि दिवागरे । वेसणे वेरुलिते, रुयगस्स उ दाहिणे कूडा || १०३ || ३|
तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियातो महिड्डियातो जाव पलिओवमद्वितीतातो परिवसंति, तंजहा
समाहारा सुप्पतिण्णा, सुप्पबुद्धा जसोहरा ।
लच्छीवती सेसवती, चित्तगुत्ता वसुंधरा ॥ १०४ ॥ ४
जंबुमंदरपच्चत्थिमेणं रुयगवरे पव्वते अट्ठ कूडा पन्नत्ता, तंजहा
20 सोत्थिते त अमोहे य, हिमवं मंदरे तथा ।
रुतगे रुतगुत्तमे चंदे, अट्ठमे त सुदंसणे ॥ १०५।। ५।
तत्थ मट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ महिड्डियातो जाव पलिओवमद्वितीताओ परिवसंति, तंजहा
इलादेवी सुरादेवी, पुढवी पउमावती ।
25 एगनासा णवमिता, सीता भद्दा त अट्ठमा ||१०६ ।। ६ ।
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५५
[सू० ६४३-६४४]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् । जंबुमंदरउत्तररुयगवरे पव्वते अट्ठ कूडा पन्नत्ता, तंजहारयण रतणुच्चते ता, सव्वरयण रयणसंचते चेव । विजये वेजयंते, जयंते अपराजिते ॥१०७॥ ७।
तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियातो महिड्डिताओ जाव पलिओवमद्वितीताओ परिवसंति, तंजहा
अलंबुसा मिस्सकेसी अ, पोंडरिगी त वारुणी । आसा सव्वगा चेव, सिरी हिरी चेव उत्तरतो ॥१०८॥ ८॥ [टी०] जंबूदीवेत्यादि क्षेत्राधिकारात् रुचकाश्रितं सूत्राष्टकं कण्ठ्यम्, नवरं जम्बूद्वीपे यो मन्दरस्तदपेक्षया प्राच्यां दिशि रुचकवरे रुचकद्वीपवर्तिनि प्राग्वर्णितस्वरूपे चक्रवालाकारे अष्टौ कूटानि, तत्र रिटेत्यादिगाथाः स्पष्टाः, तेषु च नन्दोत्तराद्या: 10 दिक्कुमार्यो वसन्ति भगवतोऽर्हतो या जन्मन्यादर्शहस्ता गायन्त्यस्तं पर्युपासते, एवं दाक्षिणात्या भृङ्गारहस्ता गायन्ति, एवं प्रातीच्या: तालवृन्तहस्ता:, एवमौदीच्याश्चामरहस्ताः ।
[सू० ६४३-३] अट्ठ अहेलोगवत्थव्वातो दिसाकुमारिमहत्तरितातो पन्नत्ताओ, तंजहा
भोगंकरा भोगवती, सुभोगा भोगमालिणी । सुवच्छा वच्छमित्ता य, वारिसेणा बलाहगा ॥१०९॥ १॥ अट्ठ उद्दलोगवत्थव्वाओ दिसाकुमारिमहत्तरितातो पन्नत्ताओ, तंजहामेहंकरा मेहवती, सुमेघा मेघमालिणी । तोयधारा विचित्ता य, पुप्फमाला अणिंदिता ॥११०॥ २॥ 20 [सू० ६४४] अट्ट कप्पा तिरितमिस्सोववन्नगा पन्नत्ता, तंजहा-सोहम्मे जाव सहस्सारे ।
एतेसु णमट्ठसु कप्पेसु अट्ट इंदा पन्नत्ता, तंजहा-सक्के जाव सहस्सारे ४।
एतेसि णं अट्ठण्हमिंदाणं अट्ठ परियाणिया विमाणा पन्नत्ता, तंजहा१. गाथा स्पष्टा पा० जे२ ॥ २. प्रतीच्याः खं० जे२ ॥
15
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे पालते, पुप्फते, सोमणसे, सिरिवच्छे, णंदियावत्ते, कामकमे, पीतिमणे, विमले ५।
[टी०] देवाधिकारादेव अट्ठ अहेत्यादिपञ्चसूत्री कण्ठ्या, नवरम् अहेलोगवत्थव्वाओ
त्ति,
5 सोमणसगंधमायणविजुप्पभमालवंतवासीओ ।
अट्ठ दिसिदेवयाओ वत्थव्वाओ अहेलोए ॥ [ ] इति ।
भोगंकराद्या अष्टौ या अर्हतो जन्मभवनसंवर्तकपवनादि विदधतीति । ऊर्ध्वलोकवास्तव्याः, तथा च-नंदणवणकूडेसु एयाओ उद्दलोयवत्थव्वाउ [ ] त्ति,
या: अभ्रवर्द्दलकादि कुर्वन्तीति । 10 तिरियमिस्सोववन्नग त्ति अष्टसु तिर्यञ्चोऽप्युत्पद्यन्ते इति भूतभवापेक्षया
तिर्यग्भिर्मिश्रास्तिर्यमिश्रास्ते मनुष्या उपपन्ना देवतया जाता येषु ते तिर्यमिश्रोपपन्नका इति ।
परियायते गम्यते यैस्तानि परियानानि, तान्येव परियानिकानि, परियानं वा गमनं प्रयोजनं येषां तानि पारियानिकानि यानकारकाभियोगिकपालकादिदेवकृतानि 15 पालकादीन्यष्टौ क्रमेण शक्रादीनामिन्द्राणामिति ।
[सू० ६४५] अट्ठमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्टीते रातिदिएहिं दोहि य अट्ठासीतेहिं भिक्खासतेहिं अहासुत्ता जाव अणुपालिता तावि भवति । ___ [टी०] देवत्वं च तपश्चरणादिति तद्विशेषमाह- अट्ठट्ठमियेत्यादि, अष्टावष्टमानि
दिनानि यस्यां सा तथा, या ह्यष्टाभिर्दिनानामष्टकैः पूर्यते तस्यामष्टावष्टमदिनानि भवन्त्येव, 20 तत्र चाष्टावष्टकानि चतुःषष्टिर्भवत्येव, तथा प्रथमाष्टके एका दत्तिर्भोजनस्य पानकस्य
च, एवं द्वितीये द्वे, एवमष्टमेऽष्टौ, ततो द्वे शते अष्टाशीत्यधिके भिक्षाणां सर्वाग्रतो भवत इति, अहासुत्ता 'अहाकप्पा अहामग्गा अहातच्चा सम्मं काएण फासिया पालिया सोहिया तीरिया किट्टिया आराहिया' इति यावत्करणात् दृश्यम्, अणुपालिय त्ति आत्मसंयमानुकूलतया पालिता इति । १. दृश्यं तथा अणु' जे१ ॥
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५७
[सू० ६४६-६४७]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् । [सू० ६४६] अट्ठविधा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता, तंजहापढमसमयनेरतिता, अपढमसमयनेरतिता, एवं जाव अपढमसमयदेवा ।
अट्ठविधा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा-नेरतिता, तिरिक्खजोणिता, तिरिक्खजोणिणीओ, मणुस्सा, मणुस्सीओ, देवा, देवीओ, सिद्धा २॥
अथवा अट्ठविधा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा-आभिनिबोधितनाणी जाव 5 केवलनाणी, मतिअण्णाणी, सुतअण्णाणी, विभंगणाणी ३॥
[टी०] तपश्च न सर्वेषामपि संसारिणामिति सम्बन्धात् संसारिणो जीवाधिकारात् सर्वजीवांश्च प्रतिपादयन् अट्टविहेत्यादि सूत्रत्रयमाह, कण्ठ्यं चेदम्, नवरं प्रथमसमयनैरयिका नरकायु:प्रथमसमयोदये, इतरे त्वितरस्मिन्, एवं सर्वेऽपि ।
[सू० ६४७] अट्ठविधे संजमे पन्नत्ते, तंजहा-पढमसमयसुहुमसंपराग- 10 सरागसंजमे, अपढमसमयसुहुमसंपरागसरागसंजमे, पढमसमयबादरसंपरागसरागसंजमे, अपढमसमयबादरसंपरागसरागसंजमे, पढमसमयउवसंतकसायवीतरागसंजमे, अपढमसमयउवसंतकसायवीतरागसंजमे, पढमसमयखीणकसायवीतरागसंजमे, अपढमसमयखीणकसायवीतरागसंजमे ।।
[टी०] अनन्तरं ज्ञानिन उक्तास्ते च संयमिनोऽपि भवन्तीति सम्बन्धात् संयमसूत्रम्, 15 तत्र संयमे त्ति चारित्रम्, स चेह तावद् द्विधा- सराग-वीतरागभेदात्, तत्र सरागो द्विधासूक्ष्म-बादरकषायभेदात्, पुनस्तौ प्रथमाप्रथमसमयभेदाद् द्विधा, एवं चतुर्द्धा सरागसंयम इति, तत्र प्रथम: समय: प्राप्तौ यस्य स तथा, सूक्ष्म: किट्टीकृत: सम्परायः कषाय: सज्वलनलोभलक्षणो वेद्यमानो यस्मिन् स तथा, सह रागेण अभिष्वङ्गलक्षणेन य: स सरागः, स एव संयमः, सरागस्य वा साधो: संयमो य: स तथा, पश्चात् कर्मधारय 20 इत्येकः, द्वितीयोऽयमेव अप्रथमसमयविशेषित इति, अयं च द्विविधोऽपि श्रेणिद्वयापेक्षया पुनद्वैविध्यं लभमानोऽपि न विवक्षित इति चतुर्द्धा नोक्तः, तथा बादरा अकिट्टीकृताः सम्पराया: सज्वलनक्रोधादयो यस्मिन् स तथा, वीतरागसंयमस्तु श्रेणिद्वयाश्रयणाद् द्विविधः, पुन: प्रथमाप्रथमसमयभेदेनैकैको द्विविध इति चतुर्द्धा, सामस्त्येन चाष्टधेति।
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
5
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
[सू० ६४८] अट्ठ पुंढवीओ पन्नत्ताओ, तंजहा -रतणप्पभा जाव अहेसत्तमा, ईसिप भारा १ ।
ईसिपब्भाराते णं पुढवीते बहुमज्झदेसभागे अट्ठजोयणिए खेत्ते अट्ठ जोयणाइं बाले पत्ते २ |
७५८
ईसिपब्भाराते णं पुढवीते अट्ठ नामधेज्जा पन्नत्ता, तंजहा - ईसि तिवा ईसिप भारा ति वा, तणू ति वा, तणुतणू इवा, सिद्धी ति वा, सिद्धा ति वा, मुत्तीति वा, मुत्तालते ति वा ३।
[टी०] संयमिनश्च पृथिव्यां भवन्तीति पृथिवीसूत्रत्रयं कण्ठ्यम्, नवरमष्टयोजनिकं क्षेत्रमायाम-विष्कम्भाभ्यामिति गम्यते । ईषत्प्राग्भाराया ईषदिति वा नाम रत्नप्रभाद्यपेक्षया 10 ह्रस्वत्वात् तस्या: १, एवं प्राग्भारस्य ह्रस्वत्वादीषत्प्राग्भारेति वा २, अत एव तरि वा तन्वीत्यर्थः ३, अतितनुत्वात्तनुतनुरिति वा ४, सिध्यन्ति तस्यामिति सिद्धिरिति वा ५, सिद्धानामाश्रयत्वात् सिद्धालय इति वा ६, मुच्यन्ते सकलकर्म्मभिस्तस्यामिति मुक्तिरिति वा ७, मुक्तानामाश्रयत्वान्मुक्तालय इति वेति ८ ।
[सू० ६४९] अट्ठहिं ठाणेहिं सम्मं घडितव्वं जतितव्वं परक्कमितव्वं, अस्सिं 15 च णं अट्ठे णो पमातेतव्वं भवति - असुताणं धम्माणं सम्मं सुणणताते अब्भुट्ठेतव्वं भवति १, सुताणं धम्माणं ओगिण्हणताते उवधारणयाते अब्भुतव्वं भवति २, णवाणं कम्माणं संजमेणमकरणताते अब्भुट्ठेयव्वं भवति ३, पोराणाणं कम्माणं तवसा विगिंचणताते विसोहणताते अब्भुट्टेतव्वं भवति ४, असंगिहीतपरितणस्स संगिण्हणताते अब्भुट्ठेयव्वं भवति ५, सेहं 20 आयारगोयरं गाहणताते अब्भुट्ठेयव्वं भवति ६, गिलाणस्स अगिलाते वेयावच्चं करणताए अब्भुट्ठेयव्वं भवति ७, साधम्मिताणमधिकरणंसि उप्पन्नंसि तत्थ अनिस्सितोवस्सिते अपक्खग्गाही मज्झत्थभावभूते 'कहं णु साहम्मिता अप्पसद्दा अप्पझंझा अप्पतुमुतुमा' उवसामणता अब्यव्वं भवति ८ । [टी०] सिद्धिश्च शुभानुष्ठानेष्वप्रमादितया भवतीति तानि तद्विषयतयाह- अट्ठहीत्यादि १. सू० ५४६ ॥ २. 'त्वात् तस्या ईष जे१ ।। ३ °त आह पा० ॥
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६५० ]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
७५९
10
कण्ठ्यम्, नवरम् अष्टासु स्थानेषु वस्तुषु सम्यग् घटितव्यम् अप्राप्तेषु योगः कार्यः, यतितव्यं प्राप्तेषु तदवियोगार्थं यत्नः कार्यः, पराक्रमितव्यं शक्तिक्षयेऽपि तत्पाल पराक्रमः उत्साहातिरेको विधेय इति, किं बहुना ? एतस्मिन् अष्टस्थानलक्षणे वक्ष्यमाणेऽर्थे न प्रमादनीयं न प्रमादः कार्यो भवति, अश्रुतानाम् अनाकर्णितानां धर्म्माणां श्रुतभेदानां सम्यक् श्रवणतायां श्रवणतायै वाऽभ्युत्थातव्यम् अभ्युपगन्तव्यं 5 भवति १, एवं श्रुतानां श्रोत्रेन्द्रियविषयीकृतानामवग्रहणतायै मनोविषयीकरणाय उपधारणतायै अविच्युति- स्मृति-वासनाविषयीकरणायेत्यर्थः २, विकिंचण ति विवेचना निर्जरेत्यर्थः, तस्यै, अत एवात्मनो विशुद्धिः विशोधना अकलङ्कत्वं तस्यै इति ३, असङ्गृहीतस्य अनाश्रितस्य परिजनस्य शिष्यवर्गस्येति ४, सेहं ति विभक्तिपरिणामाच्छैक्षकस्य अभिनवप्रव्रजितस्य आयारगोयरं ति आचार: साधुसमाचारस्तस्य गोचरो विषयो व्रतषट्कादिराचारगोचर:, अथवा आचारश्च ज्ञानादिविषयः पञ्चधा गोचरश्च भिक्षाचर्येत्याचारगोचरम्, इह विभक्तिपरिणामादाचारगोचरस्य ग्राहणतायां शिक्षणे शैक्षमाचारगोचरं ग्राहयितुमित्यर्थः ६, अगिलाए त्ति अग्लान्या अखेदेनेत्यर्थः, वैयावृत्यं प्रतीति शेष: ७, अधिगरणंसित्त विरोधे, तत्र साधर्मिकेषु, निश्रितं रागः उपाश्रितं द्वेषः, अथवा निश्रितम् 15 आहारादिलिप्सा उपाश्रितं शिष्य-कुलाद्यपेक्षा, तद्वर्जितो यः सोऽनिश्रितोपाश्रितः, न पक्षं शास्त्रबाधितं गृह्णातीत्यपक्षग्राही, अत एव मध्यस्थभावं भूतः प्राप्तो यः स तथा, स भवेदिति शेष:, तेन च तथाभूतेन कथं नु केन प्रकारेण साधर्म्मिका साधवोऽल्पशब्दाः विगतराटीमहाध्वनयः अल्पझंझा विगततथाविधविप्रकीर्णवचनाः अल्पतुमुतुमाः विगतक्रोधकृतमनोविकारविशेषा भविष्यन्तीति भावयतोपशमनाया - 20 ऽधिकरणस्याभ्युत्थातव्यं भवतीति ।
[सू० ६५० ] महासुक्क सहस्सारेसु णं कप्पेसु विमाणा अट्ठ जोयणसताई उडुंउच्चत्तेणं पन्नत्ता ।
[टी०] अप्रमादिनां देवलोकोऽपि भवतीति देवलोक प्रतिबद्धाष्टकमाहमहासुक्केत्यादि कण्ठ्यम् ।
१. विकिंचणयाए त्ति पा० जे२ ॥ २. भवन्तीति जे१ । ३. संभवतीति जे१ ॥
25
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६०
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ६५१] अरहतो णं अरिट्टनेमिस्स अट्ठ सया वादीणं सदेवमणुयासुराते परिसाते वादे अपराजिताणं उक्कोसिता वादिसंपता होत्था ।
[टी०] अनन्तरोक्तविमाननिवासिदेवैरपि वस्तुविचारे न जीयन्ते केचिद्वादिन इति तदष्टकमाह- अरहओ इत्यादि सुगमम् । 5 [सू० ६५२] अट्ठसमतिए केवलिसमुग्धाते पन्नत्ते, तंजहा-पढमे समते दंडं
करेति, बीए समते कवाडं करेति, ततिए समते मंथं करेति, चउत्थे समते लोग पूरेति, पंचमे समते लोगं पडिसाहरति, छटे समते मंथं पडिसाहरति, सत्तमे समते कवाडं पडिसाहरति, अट्ठमे समते दंडं पडिसाहरति ।
[टी०] एतेषां च नेमिनाथस्य विनेयानां मध्ये कश्चित् केवली भूत्वा वेदनीयादि10 कर्मस्थितीनामायुष्कस्थित्या समीकरणार्थं केवलिसमुद्घातं कृतवानिति समुद्घातमाह
अद्वेत्यादि, तत्र समुद्घातं प्रारभमाण: प्रथममेवावर्जीकरणमभ्येति, अन्तर्मोहूर्त्तिकम् उदीरणावलिकायां कर्मप्रक्षेपव्यापाररूपमित्यर्थः, तत: समुद्घातं गच्छति, तत्र च प्रथमसमये स्वदेहविष्कम्भमूर्ध्वमधश्चायतमुभयतोऽपि लोकान्तगामिनं जीवप्रदेश
सङ्घातं दण्डमिव दण्डं केवली ज्ञानाभोगत: करोति, द्वितीये तु तमेव दण्ड 15 पूर्वापरदिग्द्वयप्रसारणात् पार्श्वतो लोकान्तगामि कपाटमिव कपाटं करोति, तृतीये तदेव
दक्षिणोत्तरदिग्द्वयप्रसारणान्मन्थानं करोति लोकान्तप्रापिणमेवेति, एवं च लोकस्य प्रायो बहु पूरितं भवति, मन्थान्तराण्यपूरितानि भवन्ति अनुश्रेणिगमनाज्जीवप्रदेशानामिति, चतुर्थे तु समये मन्थान्तराण्यपि सकललोकनिष्कुटैः सह पूरयति, ततश्च सकलो लोकः
पूरितो भवतीति, तदनन्तरमेव पञ्चमे समये यथोक्तप्रतिलोमं मन्थान्तराणि संहरति 20 जीवप्रदेशान् सकर्मकान् सङ्कोचयति, षष्ठे मन्थानमुपसंहरति, घनतरसङ्कोचात्,
सप्तमे कपाटमुपसंहरति, दण्डात्मनि सङ्कोचात्, अष्टमे दण्डमुपसंहृत्य शरीरस्थ एव भवति, तत्र च
औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तम-षष्ठ-द्वितीयेषु ॥ १. दिग्द्वये प्र पा० ॥
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६५३-६५६]
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
७६१
कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च । समयत्रये च तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमाद् ॥ [प्रशम० २७६-२७७] इति । वाङ्मनसोस्त्वप्रयोक्तैव, प्रयोजनाभावादिति, अतोऽभिहितमष्टौ समया: यस्मिन् सोऽष्टसमय:, स एवऽष्टसामयिक: केवलिन: समुद्घातः केवलिसमुद्घातो न शेष इति ।
5 - [सू० ६५३] समणस्स णं भगवतो महावीरस्स अट्ठ सया अणुत्तरोववातिताणं गतिकल्लाणाणं जाव आगमेसिभदाणं उक्कोसिता अणुत्तरोववातितसंपता होत्था।
[सू० ६५४] अट्ठविधा वाणमंतरदेवा पन्नत्ता, तंजहा- पिसाया, भूता, जक्खा, रक्खसा, किन्नरा, किंपुरिसा, महोरगा, गंधव्वा । एतेसि णं अट्ठविहाणं वाणमंतरदेवाणं अट्ठ चेतितरुक्खा पन्नत्ता, तंजहा- 10 कलंबो उ पिसायाणं, वडो जक्खाण चेतितं । तुलसी भूयाण भवे, रक्खसाणं च कंडओ ॥११॥ असोगो किन्नराणं च, किंपुरिसाण य चंपतो । नागरुक्खो भुयगाणं, गंधव्वाण य तेंदुओ ॥११२॥ [सू० ६५५] इमीसे रतणप्पभाते पुढवीते बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ 15 अट्ट जोयणसते उड्डमबाहाते सूरविमाणे चारं चरति ।
[सू० ६५६] अट्ट नक्खत्ता चंदेणं सद्धिं पमई जोगं जोतेंति, तंजहाकत्तिता, रोहिणी, पुणव्वसू, महा, चित्ता, विसाहा, अणुराधा, जेट्टा ।
[टी०] अनन्तरं केवलिनां समुद्घातवक्तव्यतोक्ता, अथाकेवलिनां गुणवतां देवत्वं भवतीति देवाधिकारवत् समणस्सेत्यादि सूत्रपञ्चकं सुगमम्, नवरम् अनुत्तरेषु 20 विजयादिविमानेषूपपातो येषामस्ति तेऽनुत्तरोपपातिकास्तेषां साधूनामिति गम्यते, तथा गति: देवगतिलक्षणा कल्याणा येषाम्, एवं स्थितिरपि, तथा आगमिष्यद् भद्रं निर्वाणलक्षणं येषां ते तथा, तेषाम् ।
चैत्यवृक्षा मणिपीठिकानामुपरिवर्त्तिन: सर्वरत्नमया उपरिच्छत्र-ध्वजादिभिरलङ्कृता: सुधादिसभानामग्रतो ये श्रूयन्ते त एत इति सम्भाव्यते, ये तु
25
१. अकेव जे१ ॥
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
चिंधाई कलंबझए सुलस वडे तह य होइ खटुंगे। असोय चंपए या नागे तह तुंबरु चेव ॥ [बृहत्सं० ६१] इति, ते चिह्नभूता एतेभ्योऽन्य एवेति, कलंबो इत्यादि श्लोकद्वयं कण्ठ्यम्, नवरं भुयगाणं ति महोरगाणामिति । चारं चरति त्ति चारं करोति, चरतीत्यर्थः । पमदं 5 ति प्रमईः चन्द्रेण स्पृश्यमानता, तल्लक्षणं योगं योजयन्त्यात्मनश्चन्द्रेण सार्द्ध कदाचित्, न तु तमेव सदैवेति, उक्तं च
पुणव्वसु-रोहिणि-चित्ता मह-जेट्ट-ऽणुराह-कित्ति-विसाहा चंदस्स उभयजोग [ ] त्ति।
यानि च दक्षिणोत्तरयोगीनि तानि प्रमईयोगीन्यपि कदाचिद्भवन्ति, यतो लोकश्रीटीकाकृतोक्तम्- एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि चन्द्रस्य दक्षिणेनोत्तरेण च युज्यन्ते 10 कथञ्चिच्चन्द्रेण भेदमप्युपयान्ति [ ] इति । एतत्फलं चेदम्- एतेषामुत्तरगा ग्रहा: सुभिक्षाय चन्द्रमा नितराम् [ ] इति । [सू० ६५७] जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स दारा अट्ठ जोयणाई उटुंउच्चत्तेणं पन्नत्ता। सव्वेसि पि णं दीवसमुद्दाणं दारा अट्ट जोयणाई उठंउच्चत्तेणं पन्नत्ता ।
[सू० ६५८] पुरिसवेयणिजस्स णं कम्मस्स जहन्नेणं अट्ठ संवच्छराई 15 बंधट्टिती पन्नत्ता ।
जसोकित्तीणामाए णं कम्मस्स जहन्नेणं अट्ठ मुहुत्ताइं बंधहिती पण्णत्ता। उच्चागोतस्स णं कम्मस्स एवं चेव । [सू० ६५९] तेइंदियाणमट्ठ जातीकुलकोडीजोणीपमुहसतसहस्सा पन्नत्ता ।
[सू० ६६०] जीवा णं अट्ठाणणिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु 20 वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, तंजहा-पढमसमयनेरतितनिव्वत्तिते जाव अपढमसमयदेवनिव्वत्तिते, एवंचिण उवचिण निज्जरा जाव चेव ॥
अट्ठपतेसिता खंधा अणंता पण्णत्ता, अट्ठपतेसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता, जाव अट्ठगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता ।
॥ अट्ठट्ठाणं सम्मत्तं ॥ १. भुयंगाणं पा० ॥
25
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
अष्टममध्ययनम् अष्टस्थानकम् ।
७६३
[सू० ६५७-६६०]
[टी०] देवनिवासाधिकारादेवनिवासभूतजम्बूद्वीपादिद्वारसूत्रद्वयम्, देवाधिकाराद्देवत्वभाविकर्मविशेषसूत्रत्रयम्, कर्माधिकारात्तन्निबन्धनकुलकोटिसूत्रम्, त्रीन्द्रियादिवैचित्र्यहेतुकर्मपुद्गलसूत्राणि च सुगमानि, नवरं जातीत्यादि जातौ त्रीन्द्रियजातौ कुलकोटीनां योनिप्रमुखाणां योनिद्वारिकाणां यानि शतसहस्राणि तानि तथेति ॥
इति श्रीमदभयदेवसूरिविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गविवरणे अष्टस्थानकाख्यमष्टम- 5 मध्ययनं समाप्तमिति । श्लोकाः ७२० ।
१. तं श्लोका: ७२० । जे२ ।।
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६४
अथ नवममध्ययनं नवस्थानकम् । [सू० ६६१] नवहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे संभोतितं विसंभोतितं करेमाणे णातिक्कमति, तंजहा-आयरियपडिणीयं उवज्झायपडिणीयं थेरपडिणीयं कुलपडिणीयं गणपडिणीयं संघपडिणीयं नाणपडिणीयं दंसणपडिणीयं 5 चरित्तपडिणीयं ।
[टी०] व्याख्यातमष्टममध्ययनमधुना नवममारभ्यते, अस्य च पूर्वेण सह सम्बन्ध: सङ्ख्याक्रमकृत एवैकः, सम्बन्धान्तरं तु पूर्वस्मिन् जीवादिधर्मा उक्ता: इहापि त एवेत्येवंसम्बन्धस्यास्यादिसूत्रम्- नवहिं ठाणेहिं समणे इत्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण
सहायमभिसम्बन्धः- पूर्वसूत्रे पुद्गला वर्णितास्तद्विशेषोदयाच्च कश्चिच्छमणभावमुपगतोऽपि 10 धर्माचार्यादीनां प्रत्यनीकतां करोति, तं च विसम्भोगिकं कुर्वन्नपर: सुश्रमणो नाज्ञामतिक्रामतीतीहाभिधीयत इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, सा च सम्बन्धत एवोक्तेति ।
[सू० ६६२] णव बंभचेरा पन्नत्ता, तंजहा-सत्थपरिण्णा लोगविजओ जाव उवहाणसुयं महपरिण्णा । 15 [टी०] स्वयं ब्रह्मचर्यव्यवस्थित एव चैवं करोतीति तदभिधायकाध्ययनानि दर्शयन्नाह
नव बंभचेरेत्यादि, ब्रह्म कुशलानुष्ठानं तच्च तच्चर्यं चासेव्यमिति ब्रह्मचर्यं संयम इत्यर्थः, तत्प्रतिपादकान्यध्ययनान्याचारप्रथमश्रुतस्कन्धप्रतिबद्धानि ब्रह्मचर्याणि, तत्र शस्त्रं द्रव्य-भावभेदादनेकविधम्, तस्य जीवशंसनहेतोः परिज्ञा ज्ञानपूर्वकं प्रत्याख्यानं
यत्रोच्यते सा शस्त्रपरिज्ञा १, लोकविजओ त्ति भावलोकस्य राग-द्वेषलक्षणस्य 20 विजयो निराकरणं यत्राभिधीयते स लोकविजय: २, सीओसणिजं ति शीता:
अनुकूला: परीषहा उष्णा: प्रतिकूलास्तानाश्रित्य यत् कृतं तच्छीतोष्णीयम् ३, सम्मत्तं ति सम्यक्त्वमविचलं विधेयम्, न तापसादीनां कष्टतप:सेविनामष्टगुणैश्वर्यमुद्वीक्ष्य दृष्टिमोह: कार्य इति प्रतिपादनपरं सम्यक्त्वम् ४, आवंतीति आद्यपदेन, नामान्तरेण तु लोकसारः, तच्चाज्ञानाद्यसारत्यागेन लोकसाररत्नत्रयोद्युक्तेन भाव्यमित्येवमर्थं १. तुलना- सू० १८०,२०८,३९८ ।। २. 'मधुना संख्याक्रमसंबद्धमेव नवमस्थानकाख्यं नवममध्ययनमारभ्यते
पासं० ॥ ३. संबद्धस्या जे१॥
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६५
[सू० ६६३]
नवममध्ययनं नवस्थानकम् । लोकसारः ५, धूयं ति धूतं सङ्गानां त्यजनं तत्प्रतिपादकं धूतमिति ६, विमोहो त्ति मोहसमुत्थेषु परीषहोपसर्गेषु प्रादुर्भूतेषु विमोहो भवेत् तान् सम्यक् सहेतेति यत्राभिधीयते स विमोहः ७, महावीरासेवितस्योपधानस्य तपसः प्रतिपादकं श्रुतं ग्रन्थ उपधानश्रुतमिति ८, महती परिज्ञा अन्तक्रियालक्षणा सम्यग् विधेयेति प्रतिपादनपरं महापरिक्षेति ९ ।
5 [सू० ६६३] नव बंभचेरगुत्तीतो पन्नत्ताओ, तंजहा-विवित्ताई सयणासणाई सेवेत्ता भवति, नो इत्थिसंसत्ताई नो पसुसंसत्ताई नो पंडगसंसत्ताई १, नो इत्थीणं कहं कहेत्ता २, नो इत्थिगणाई सेवेत्ता भवति ३, णो इत्थीणमिंदिताई मणोहराई मणोरमाई आलोतितं आलोतितं निज्झातेत्ता भवति ४, णो पणीतरसभोती ५, णो पाण-भोयणस्स अतिमातमाहारते सता भवति ६, 10 णो पुव्वरतं पुव्वकीलितं सरेत्ता भवति ७, णो सद्दाणुवाती, णो रूवाणुवाती, णो सिलोगाणुवाती ८, णो सातासोक्खपडिबद्धे यावि भवति ९ । ___णव बंभचेरअगुत्तीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-णो विवित्ताई सयणासणाई सेवेत्ता भवति, इत्थिसंसत्ताई पसुसंसत्ताइं पंडगसंसत्ताई १, इत्थीणं कहं कहेत्ता भवइ २, इत्थिठाणाई सेवेत्ता भवति ३, इत्थीणं इंदियाई मणो० 15 जाव निज्झाएत्ता भवति ४, पणीतरसभोती ५, पाणभोयणस्स अइमातमाहारते सता भवति ६, पुव्वरयं पुव्वकीलितं सरेत्ता भवति ७, सद्दाणुवाती, रूवाणुवाती, सिलोगाणुवाती ८, सायासोक्खपडिबद्धे यावि भवति ९ ।
[टी०] ब्रह्मचर्यशब्देन मैथुनविरतिरप्यभिधीयत इति ब्रह्मचर्यगुप्ती: प्रतिपादयन्नाहनवेत्यादि, ब्रह्मचर्यस्य मैथुनव्रतस्य गुप्तयो रक्षाप्रकारा: ब्रह्मचर्यगुप्तयः, विविक्तानि 20 स्त्री-पशु-पण्डकेभ्य: पृथग्वर्तीनि शयनासनानि संस्तारक-पीठकादीनि उपलक्षणतया स्थानादीनि च सेविता तेषां सेवको भवति ब्रह्मचारी, अन्यथा तबाधासम्भवात्, एतदेव सुखार्थं व्यतिरेकेणाह-नो स्त्रीसंसक्तानि नो देवी-नारी-तिरश्चीभि: समाकीर्णानि सेविता भवतीति सम्बध्यते, एवं पशुभि: गवादिभिः, तत्संसक्तौ हि तत्कृतविकारदर्शनात् १. इत्थिठाणाई पा० विना । इत्थिगणाई भांमू०, इत्थिठाणाई भासं० ॥
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे मनोविकार: सम्भाव्यत इति, पण्डका: नपुंसकानि, तत्संसक्तौ स्त्रीसमानो दोषः प्रतीत एवेत्येकम् १, नो स्त्रीणां केवलानामिति गम्यते कथां धर्मदेशनादिलक्षणवाक्यप्रतिबन्धरूपां यदिवा कर्णाटी सुरतोपचारकुशला लाटी विदग्धप्रिया [ ] इत्यादिकां प्रागुक्तां वा जात्यादिचतूरूपां कथयिता तत्कथको भवति ब्रह्मचारीति द्वितीयम् २, 5 नो इत्थिगणाई तीह सूत्रं दृश्यते केवलं नो इत्थिठाणाई ति सम्भाव्यते उत्तराध्ययनेषु तथाऽधीतत्वात् प्रक्रमानुसारित्वाच्चास्येतीदमेव व्याख्यायते, नो स्त्रीणां तिष्ठन्ति येषु तानि स्थानानि निषद्या: स्त्रीस्थानानि तानि सेविता भवति ब्रह्मचारी, कोऽर्थः ? स्त्रीभिः सहैकासने नोपविशेद्, उत्थितास्वपि हि तासु मूहुर्तं नोपविशेदिति, दृश्यमानपाठाभ्युपगमे
त्वेवं व्याख्या- नो स्त्रीगणानां पर्युपासको भवेदिति ३, नो स्त्रीणामिन्द्रियाणि नयन10 नासिकादीनि मनो हरन्ति दृष्टमात्राण्याक्षिपन्तीति मनोहराणि, तथा मनो रमयन्ति दर्शनानन्तरमनुचिन्त्यमानान्याह्लादयन्तीति मनोरमानि, आलोक्यालोक्य निर्ध्याता दर्शनानन्तरमतिशयेन चिन्तयिता यथाऽहो सलवणत्वं लोचनयोः ऋजुत्वं
नाशावंशस्येत्यादि भवति ब्रह्मचारीति ४, नो प्रणीतरसभोगी नो गलत्स्नेहबिन्दुभोक्ता __ भवति ५, नो पान-भोजनस्य रूक्षस्याप्यतिमात्रम्
अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए । वाउपवियारणट्ठा छन्भायं ऊणयं कुजा ॥ [पिण्डनि० ६५०] इत्येवंविधप्रमाणातिक्रमेणाऽऽहारक: अभ्यवहर्ता सदा सर्वदा भवति, खाद्यस्वाद्ययोरुत्सर्गतो यतीनामयोग्यत्वात् पान-भोजनयोर्ग्रहणमिति ६, नो पूर्वरतं नो
गृहस्थावस्थायां स्त्रीसम्भोगानुभवनं तथा पूर्वक्रीडितं तथैव द्यूतादिरमणलक्षणं स्मर्ता 20 चिन्तयिता भवति ७, नो शब्दानुपातीति शब्दं मन्मनभाषितादिकमभिष्वङ्गहेतुमनुपतति
अनुसरतीत्येवंशील: शब्दानुपाती, एवं रूपानुपाती, श्लोकं ख्यातिमनुपततीति श्लोकानुपातीति पदत्रयेणाप्येकमेव स्थानकमिति ८, नो सातसौख्यप्रतिबद्ध इति सातात् पुण्यप्रकृते: सकाशाद्यत् सौख्यं सुखं गन्ध-रस-स्पर्शलक्षणं विषयसम्पाद्यं तत्र
प्रतिबद्धः तत्परो ब्रह्मचारी, सातग्रहणादुपशमसौख्यप्रतिबद्धतायां न निषेधः, वापीति 25 समुच्चये, भवतीति ९ । उक्तविपरीता: अगुप्तयोऽप्येवमेवेति ।
१. सू० २८२ ॥ २. ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानाभिधे षोडशेऽध्ययने ॥ ३. सदा भवति जे१ खं० ॥
15
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६६४-६६५] नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
७६७ [सू० ६६४] अभिणंदणाओ णं अरहातो सुमती अरहा नवहिं सागरोवमकोडीसयसहस्सेहिं वीतिकंतेहिं समुप्पन्ने ।
[टी०] उक्तरूपं नवगुप्तिसनाथं च ब्रह्मचर्यं जिनैरभिहितमिति जिनविशेषौ प्रकृताध्ययनावतारद्वारेणाह- अभिणंदणेत्यादि कण्ठ्यम् ।
[सू० ६६५] नव सब्भावपयत्था पन्नत्ता, तंजहा-जीवा, अजीवा, पुण्णं, 5 पावं, आसवो, संवरो, निजरा, बंधो, मोक्खो । ।
[टी०] अभिनन्दन-सुमतिजिनाभ्यां च सद्भूता: पदार्थाः प्ररूपितास्ते च नवेति तान् दर्शयन्नाह– नव सब्भावेत्यादि, सद्भावेन परमार्थेनाऽनुपचारेणेत्यर्थः पदार्था वस्तूनि सद्भावपदार्थाः, तद्यथा- जीवा: सुख-दुःख-ज्ञानोपयोगलक्षणाः, अजीवास्तद्विपरीता:, पुण्यं शुभप्रकृतिरूपं कर्म, पापं तद्विपरीतं कर्मैव, आश्रूयते 10 गृह्यते कर्मानेनेत्याश्रव: शुभाशुभकर्मादानहेतुरिति भावः, संवरः आश्रवनिरोधो गुप्त्यादिभिः, निर्जरा विपाकात् तपसा वा कर्मणां देशत: क्षपणा, बन्ध: आश्रवैरात्तस्य कर्मण आत्मना संयोग:, मोक्षः कृत्स्नकर्मक्षयादात्मन: स्वात्मन्यवस्थानमिति ।
ननु जीवाजीवव्यतिरिक्ता: पुण्यादयो न सन्ति, तथाऽयुज्यमानत्वात्, तथाहिपुण्य-पापे कर्मणी, बन्धोऽपि तदात्मक एव, कर्म च पुद्गलपरिणामः, पुद्गलाश्चाजीवा 15 इति, आश्रवस्तु मिथ्यादर्शनादिरूप: परिणामो जीवस्य, स चात्मानं पुद्गलांश्च विरहय्य कोऽन्यः ?, संवरोऽप्याश्रवनिरोधलक्षणो देश-सर्वभेद आत्मन: परिणामो निवृत्तिरूपः, निर्जरा तु कर्मपरिशाटो जीव: कर्मणां यत् पार्थक्यमापादयति स्वशक्त्या, मोक्षोऽप्यात्मा समस्तकर्मविरहित इति, तस्माज्जीवाजीवौ सद्भावपदार्थाविति वक्तव्यम्, अत एवोक्तमिहैव जदत्थिं च णं लोए तं सव्वं दुप्पडोयारं, तंजहा- जीव च्चेय अजीव 20 च्चेय [सू० ४९], अत्रोच्यते, सत्यमेतत् किन्तु यावेव जीवाजीवपदार्थों सामान्येनोक्तौ तावेवेह विशेषतो नवधोक्तौ, सामान्य-विशेषात्मकत्वाद्वस्तुन:, तथेह मोक्षमार्गे शिष्यः प्रवर्तनीयो न सङ्ग्रहाभिधानमात्रमेव कर्त्तव्यम्, स च यदैवमाख्यायते यदुताश्रवो बन्धो बन्धद्वारायाते च पुण्य-पापे मुख्यानि तत्त्वानि संसारकारणानि, संवर-निर्जरे च मोक्षस्य,
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तदा संसारकारणत्यागेनेतरत्र प्रवर्तते नान्यथेत्यत: षट्कोपन्यास: मुख्यसाध्यख्यापनार्थं च मोक्षस्येति ।
[सू० ६६६] णवविधा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया, बेइंदिया जाव पंचेंदिया १ । 5 पुढविकाइया नवगइया नवआगइया पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइए
पुढविकाइएसु उववजमाणे पुढविकाइएहिंतो वा जाव पंचेंदियेहिंतो वा उववजेजा, से चेव णं से पुढविकाइए पुढविकाइयत्तं विप्पजहमाणे पुढविकाइयत्ताए वा जाव पंचेंदियत्ताते वा गच्छेज्जा २ । एवमाउकाइया वि
३ जाव पंचेंदिय त्ति १० । 10 णवविधा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा-एगिदिया बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया नेरतिता पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणुया देवा सिद्धा ११ ।
अथवा णवविधा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा-पढमसमयनेरतिता, अपढमसमयनेरतिता जाव अपढमसमयदेवा, सिद्धा १२ ।
नवविधा जीवोगाहणा पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइओगाहणा, 15 आउकाइओगाहणा, जाव वणस्सइकाइओगाहणा, बेइंदिओगाहणा, तेइंदिओगाहणा, चउरिंदिओगाहणा, पंचेंदिओगाहणा १३ ।
जीवा णं नवहिं ठाणेहिं संसारं वत्तिंसु वा वत्तंति वा वत्तिस्संति वा, तंजहा-पुढविकाइयत्ताए जाव पंचेंदियत्ताए १४ ।
[सू० ६६७] णवहिं ठाणेहिं रोगुप्पत्ती सिया, तंजहा-अच्चासणाते, 20 अहितासणाते, अतिणिद्दाए, अतिजागरितेणं, उच्चारनिरोधेणं, पासवणनिरोधेणं, अद्धाणगमणेणं, भोयणपडिकूलताते, इंदियत्थविकोवणताते १५ ।
[टी०] अत्र च पदार्थनवके प्रथमो जीवपदार्थोऽतस्तद्भेद-गत्यागत्यवगाहना-संसारनिर्वर्तन-रोगोत्पत्तिकारणप्रतिपादनाय नवविहेत्यादिसूत्रपञ्चदशकमाह, सुगम चेदम्,
नवरम् अवगाहन्ते यस्यां सा अवगाहना शरीरमिति, वत्तिंसु व त्ति संसरणं निर्वर्तितवन्त: 25 अनुभूतवन्त:, एवमन्यदपि, अच्चासणयाए त्ति अत्यन्तं सततमासनम् उपवेशनं यस्य
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६९
10
[सू० ६६८]
नवममध्ययनं नवस्थानकम् । सोऽत्यासनस्तद्भावस्तत्ता, तया, अर्थोविकारादयो हि रोगा एतया उत्पद्यन्त इति, अथवा अतिमात्रमशनमत्यशनं तदेवाऽत्यशनता, दीर्घत्वं च प्राकृतत्वात्, तया, सा चाजीर्णकारणत्वात् रोगोत्पत्तये इति, अहियासणयाए त्ति अहितम् अननुकूलं टोलपाषाणाद्यासनं यस्य स तथा, शेषं तथैव, तया, अहिताशनतया वा, अथवा साजीणे भुज्यते यत्तु तदध्यसनमुच्यते [ ] इति वचनात् अध्यसनम् अजीर्णे भोजनम्, 5 तदेव तत्ता, तयेति, भोजनप्रतिकूलता प्रकृत्यनुचितभोजनता, तया, इन्द्रियार्थानां शब्दादिविषयाणां विकोपनं विपाक: इन्द्रियार्थविकोपनं कामविकार इत्यर्थः, ततो हि स्त्र्यादिष्वभिलाषादन्मादादिरोगोत्पत्ति:, यत उक्तम्
आदावभिलाष: १ स्याच्चिन्ता तदनन्तरं २ तत: स्मरणम् ३ । तदनु गुणानां कीर्तन ४ मुद्वेगोऽथ ५ प्रलापश्च ६ ॥
उन्मादस्तदनु ७ ततो व्याधि ८ जडता तत ९स्ततो मरणम् १० । [रुद्रटकाव्यालं० १४॥४-५।] इति । विषयाप्राप्तौ रोगोत्पत्तिरत्यासक्तावपि राजयक्ष्मादिरोगोत्पत्ति: स्यादिति ।
[सू० ६६८] णवविधे दरिसणावरणिजे कम्मे पन्नत्ते, तंजहा-निद्दा, निद्दानिद्दा, पयला, पयलापयला, थीणगिद्धी, चक्खुदंसणावरणे, 15 अचक्खुदंसणावरणे, ओहिदसणावरणे, केवलदसणावरणे ।
[टी०] शारीररोगोत्पत्तिकारणान्युक्तानि, अथान्तररोगकारणभूतकर्मविशेषभेदाभिधानायाह- नवेत्यादि, सामान्य-विशेषात्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणात्मको बोधो दर्शनम्, तस्यावरणस्वभावं कर्म दर्शनावरणम्, तत् नवविधम्, तत्र निद्रापञ्चकं तावत् द्रा कुत्सायां गतौ [पा० धा० १०५४], नियतं द्राति कुत्सितत्वमविस्पष्टत्वं गच्छति 20 चैतन्यमनयेति निद्रा सुखप्रबोधा स्वापावस्था नखच्छोटिकामात्रेणापि यत्र प्रबोधो भवति, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निद्रेति कार्येण व्यपदिश्यते, तथा निद्रातिशायिनी निद्रा निद्रानिद्रा शाकपार्थिवादित्वात् मध्यपदलोपी समास:, सा पुनर्दुःखप्रबोधा स्वापावस्था, तस्यां ह्यत्यर्थमस्फुटतरीभूतचैतन्यत्वाद्दुःखेन बहुभिर्घोलनादिभिः प्रबोधो भवत्यत: सुखप्रबोधनिद्रापेक्षया अस्या अतिशायिनीत्वम्, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि 25 कार्यद्वारेण निद्रानिद्रेत्युच्यते, उपविष्ट ऊर्ध्वस्थितो वा प्रचलत्यस्यां स्वापावस्थायामिति
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
प्रचला, सा ह्युपविष्टस्योर्ध्वस्थितस्य वा घूर्णमानस्य स्वप्नुर्भवति, तथाविधविपाकवेद्या कर्म्मप्रकृतिरपि प्रचलेति, तथैव प्रचलातिशायिनी प्रचलाप्रचलाप्रचला, साहि चङ्क्रमणादि कुर्वतः स्वतुर्भवत्यतः स्थानस्थितस्वप्नभवां प्रचलामपेक्ष्यातिशायिनी, तद्विपाका कर्म्मप्रकृतिरपि प्रचलाप्रचला, स्त्याना बहुत्वेन सङ्घातमापन्ना गृद्धिः 5 अभिकाङ्क्षा जाग्रदवस्थाध्यवसितार्थसाधनविषया यस्यां स्वापावस्थायां सा स्त्यानगृद्धिः, तस्यां हि सत्यां जाग्रदवस्थाध्यवसितमर्थमुत्थाय साधयति, स्त्याना वा पिण्डीभूता ऋद्धिः आत्मशक्तिरूपाऽस्यामिति स्त्यानर्द्धिरित्यप्युच्यते, तद्भावे हि स्वप्मुः केशवार्द्धबलसदृशी शक्तिर्भवति, अथवा स्त्याना जडीभूता चैतन्यर्द्धिरस्यामिति स्त्यानर्द्धिरिति, तादृशविपाकवेद्या कर्म्मप्रकृतिरपि स्त्यानर्द्धिः स्त्यानगृद्धिरिति वा, तदेवं 10 निद्रापञ्चकं दर्शनावरणक्षयोपशमाल्लब्धात्मलाभानां दर्शनलब्धीनामावारकमुक्तमधुना यद्दर्शनलब्धीनां मूलत एव लाभमावृणोति तदिदं दर्शनावरणचतुष्कमुच्यते, चक्षुषा दर्शनं सामान्यग्राही बोधश्चक्षुर्दर्शनम्, तस्यावरणं चक्षुर्दर्शनावरणम्, अचक्षुषा चक्षुर्वर्जेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा वा यद्दर्शनं तदचक्षुर्दर्शनम्, तस्यावरणमचक्षुर्दर्शनावरणम्, अवधिना रूपिमर्यादया, अवधिरेव वा करणनिरपेक्षो बोधरूपो दर्शनं 15 सामान्यार्थग्रहणमवधिदर्शनम्, तस्यावरणमवधिदर्शनावरणम्, तथा केवलम् उक्तस्वरूपं तच्च तद्दर्शनं च तस्यावरणं केवलदर्शनावरणमित्युक्तं नवविधं दर्शनावरणम् । [सू० ६६९] अभिती णं णक्खत्ते सातिरेगे नव मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोगं जो ।
७७०
अभीतिआतिया णं णव नक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोतेंति, तंजहा20 अभीती सवणो धणिट्ठा जाव भरणी ।
25
[सू० ६७० ] इमीसे णं रतणप्पभाते पुढवीते बहुसमरमणिज्जातो भूमिभागाओ णव जोयणसते उ अबाहाते अवरिल्ले तारारूवे चारं चरति ।
[सू० ६७१] जंबूदीवे णं दीवे णव जोयणिया मच्छा पविसिंसु वा पविसंति वा पविसिस्संति वा ।
[सू० ६७२] जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे इमीसे ओसप्पिणीते णव
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
[सू० ६६९-६७२] बलदेववासुदेवपितरो होत्था, तंजहा
पयावती त बंभे, रुद्दे सोमे सिवे ति त । महसीह अग्गिसीहे, दसरहे नवमे त वसुदेवे ॥११३॥ एत्तो आढत्तं जधा संमाए निरवसेसं जाव एक्का से गब्भवसही, सिज्झिहिती आगमेसे णं ॥११४॥
5 जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे आगमेस्साते उस्सप्पिणीते नव बलदेववासुदेवपितरो भविस्संति, नव बलदेवमायरो भविस्संति, एवं जधा समाते निरवसेसं जाव
महाभीमसेणे सुग्गीवे य अपच्छिमे ॥११५॥ एते खलु पडिसत्तू, कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सव्वे य चक्कजोही, हम्मीहंती सच्चक्केहिं ॥११६॥ [टी०] जीवानां कर्मणः सकाशान्नक्षत्रादिदेवत्वं तिर्यक्त्वं मानुषत्वं च भवतीति नक्षत्रादिवक्तव्यताप्रतिबद्धं सूत्रवृन्दम् अभीत्यादि हम्मीहंती सचक्केहिं इत्येतदन्तमाह, सुगमं च। नवरं साइरेग त्ति सातिरेकान्नव मुहूर्तान् यावच्चतुर्विंशत्या मुहूर्तस्य द्विषष्टिभागैः षट्षष्ट्या च द्विषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागानामिति, उत्तरेण जोगं ति उत्तरस्यां दिशि स्थितानि दक्षिणाशास्थितचन्द्रेण सह योगमनुभवन्तीति भाव: । बहुसमरमणिज्जाउ त्ति 15 अत्यन्तसमो बहुसमोऽत एव रमणीयो रम्यस्तस्माद्भूमिभागात् न पर्वतापेक्षया नापि श्वभ्रापेक्षयेति भावः, अबाधाए त्ति अन्तरे ‘कृत्वे ति वाक्यशेष:, अवरिल्ले त्ति उपरितनम्, तारारूपं तारकजातीयं चारं भ्रमणं चरति आचरति । नवजोयणिय त्ति नवयोजनायामा एव प्रविशन्ति, लवणसमुद्रे यद्यपि पञ्चशतयोजनायामा मत्स्या भवन्ति तथापि नदीमुखेषु जगतीरन्ध्रौचित्येनैतावतामेव प्रवेश इति, लोकानुभावो वाऽयमिति, पयावईत्यर्द्धं 20 श्लोकस्योत्तरं तु गाथापश्चार्द्धमिति, सक्षेपायाऽतिदिशन्नाह– एत्तो त्ति इत: सूत्रादारब्धं जहा समाए त्ति समवाये चतुर्थाङ्गे यथा तथा निरवशेषं ज्ञेयम्, तच्चार्थत इदम्नव वासुदेव-बलदेवानां [पितरः] मातरः तेषामेव नामानि पूर्वभवनामानि धर्माचार्या निदानभूमयो निदानकारणानि प्रतिशत्रवो गतयश्चेति, किमन्तमेतदित्याह- जाव एक्का
१. समवाये भां० विना ॥ २. एगा क० भां० विना ।। ३. सुगमं नवरं खं० विना ॥ ४. समाए त्ति नास्ति जे१॥
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
७७२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे इत्यादि गाथापश्चार्द्धम्, पूर्वार्द्धं त्विदमस्या:- अटुंतकडा रामा एगो पुण बंभलोयकप्पम्मि [समवायाङ्गे सू० १५८ गा० १४०] त्ति । सिज्झिस्सइ आगमिस्से णं ति आगमिष्यति काले सेत्स्यति, णमिति वाक्यालङ्कारे तृतीया वेयमिति ।
तथा जंबूदीवेत्यादावागाम्युत्सर्पिणीसूत्रे एवं जहा समाए इत्याद्यतिदेशवचनमेवमेव 5 भावनीयं यावत् प्रतिवासुदेवसूत्रं महाभीमसेन: सुग्रीवश्चापश्चिमः इत्येतदन्तम् । तथा एते गाहा, एते अनन्तरोदिता नव प्रतिशत्रवः कित्तीपुरिसाणं ति कीर्तिप्रधाना: पुरुषा: कीर्तिपुरुषास्तेषाम्, चक्कजोहि त्ति चक्रेण योद्धं शीलं येषां ते चक्रयोधिन:, हम्मीहंति त्ति हनिष्यन्ते स्वचक्रैरिति ।
[सू० ६७३] एगमेगे णं महानिधी णव णव जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ते। 10 रन्नो णं चाउरंतचक्कवट्टिस्स नव महानिहीओ पन्नत्ता, तंजहा
णेसप्पे पंडुयए, पिंगलते सव्वरयण महपउमे । काले य महाकाले, माणवग महानिधी संखे ॥११७॥ णेसप्पम्मि निवेसा, गामागर-नगर-पट्टणाणं च । दोणमुह-मडंबाणं, खंधाराणं गिहाणं च ॥११८॥ गणितस्स य बीयाणं, माणुम्माणस्स जं पमाणं च । धन्नस्स य बीयाणं, उप्पत्ती पंडुते भणिया ॥११९॥ सव्वा आभरणविही, पुरिसाणं जा य होति महिलाणं । आसाण य हत्थीण य, पिंगलगनिहिम्मि सा भणिता ॥१२०॥
रयणाई सव्वरतणे, चोद्दस पवराई चक्कवट्टिस्स । 20 उप्पजंति एगेंदियाइं पंचेंदियाइं च ॥१२१॥
वत्थाण य उप्पत्ती, निप्फत्ती चेव सव्वभत्तीणं । रंगाण य धोव्वाण य, सव्वा एसा महापउमे ॥१२२॥ काले कालण्णाणं, भव्वपुराणं च तीसु वासेसु । सिप्पसतं कम्माणि य, तिन्नि पयाए हितकराई ॥१२३॥ १. प्रवचनसारोद्धारेऽपि [गा० १२१८-१२३१] संगृहीता इमाः सर्वा अपि चतुर्दश गाथाः ।।
15
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६७३]
नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
लोहस्स य उप्पत्ती, होइ महाकाले आगराणं च ।
रूप्पस्स सुवन्नस् य, मणि - मोत्ति - सिल - प्पवालाणं ॥ १२४॥ जोधाण य उप्पत्ती, आवरणाणं च पहरणाणं च । सव्वा य जुद्धनीती, माणवते दंडनीती य ॥१२५॥ नट्टविहि नाडगविही, कव्वस्स चउव्विहस्स उप्पत्ती । संखे महानिहिम्पी, तुडियंगाणं च सव्वेसिं ॥ १२६ ॥ चक्कट्ठपतिट्ठाणा, अडस्सेहा य नव य विक्खंभे । बारस दीहा मंजूससंठिता जह्नवीय मुहे ॥१२७॥ वेरुलियमणिकवाडा, कणगमया विविधरतणपडिपुणा । ससिसूरचक्कलक्खणअणुसमजुगबाहुवतणा त ॥१२८॥ पलिओवमट्ठितीता, णिधिसरिणामा य तेसु खलु देवा । जेसिं ते आवासा, अक्किज्जा आहिवच्चं च ॥ १२९ ॥ एते ते नव निहितो, पभूतधणरयणसंचयसमिद्धा । जे वसमुवगच्छंती, सव्वेसिं चक्कवट्टीणं ॥ १३०॥
[टी०] इह महापुरुषाधिकारे महापुरुषाणां चक्रवर्त्तिनां सम्बन्धि निधिप्रकरणमाह-- 15 एगमेगे इत्यादि सुगमम्, नवरं
सप्पे १ पंडुए २ पिंगले य ३ सव्वरयणे य ४ महापउमे ५ । काले य ६ महाकाले ७ माणवग महानिही ८ संखे ९ ॥
७७३
5
सप्पम्म गाहा, इह निधान - तन्नायकदेवयोरभेदविवक्षया नैसप्प देवः, तस्मिन् सति, तत इत्यर्थः, निवेशा: स्थापनानि अभिनवग्रामादीनामिति, अथवा चक्रवर्तिराज्योपयोगीनि द्रव्याणि सर्वाण्यपि नवसु निधिष्ववतरन्ति, नवनिधानतया व्यवह्रियन्त इत्यर्थः, तत्र ग्रामादीनामभिनवानां पुरातनानां च ये सन्निवेशा निवेशनानि ते नैसर्प्पनिधौ वर्त्तन्ते, नैसर्पनिधितया व्यवह्रियन्त इति भाव:, तत्र ग्रामो जनपदप्रायलोकाधिष्ठितः, आकरो यत्र सन्निवेशे लवणाद्युत्पद्यते, न करो यत्रास्ति तद् नकरम्, पत्तनं देशीस्थानम्, द्रोणमुखं जलपथ-स्थलपथयुक्तम्, मडम्बम् १. निहिणो जे० । निहओ भां० जे० विना ॥। २. नवरं नास्ति जे२ ॥ ३. 'काले य माण' जे२ ॥
25
10
20
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
७७४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अविद्यमानप्रत्यासन्नवसिमम्, स्कन्धावार: कटकनिवेशः, गृहं भवनमिति १ ।।
गणित गाहा, गणितस्य दीनारादि-पूगफलादिलक्षणस्य, चकारस्य व्यवहितः सम्बन्ध: स च दर्शयिष्यते, तथा बीजानां तन्निबन्धनभूतानाम्, तथा मानं सेतिकादि, तद्विषयं यत्तदपि मानमेव धान्यादि मेयमिति भावः, तथोन्मानं तुला-कर्षादि, तद्विषयं 5 यत्तदप्युन्मानं खण्ड-गुडादि धरिममित्यर्थः, ततो द्वन्द्वसमाहार: कार्यः, ततस्तस्य च, किमित्याह- यत् प्रमाणम्, चकारो व्यवहितसम्बन्ध एव, तथैव दर्शयिष्यते, तत् पाण्डुके भणितमिति लिङ्गपरिणामेन सम्बन्धः, तथा धान्यस्य व्रीह्यादे/जानां च तद्विशेषाणामुत्पत्तिश्च या सा पाण्डुके पाण्डुकनिधिविषया, तद्व्यापारोऽयमिति भावः,
भणिता उक्ता जिनादिभिरिति २ । 10 सव्वा गाहा कण्ठ्या ३ । रयण गाहा, अक्षरघटनैवम्, रत्नान्येकेन्द्रियाणि
चक्रादीनि सप्त पञ्चेन्द्रियाणि सेनापत्यादीनि सप्त उत्पद्यन्ते भवन्ति यानि चक्रवर्तिनस्तानि सर्वाणि सर्वरत्ने सर्व्वरत्ननामनि निधौ द्रष्टव्यानीति ४ । वत्थाणं गाहा, वस्त्राणां वाससां योत्पत्ति: सामान्यतो या च विशेषतो निष्पत्ति: सिद्धिः सर्वभक्तीनां
सर्ववस्त्रप्रकाराणां सर्वा वा भक्तयः प्रकारा येषां तानि तथा तेषाम्, किंभूतानां 15 वस्त्राणामित्याह- रङ्गाणां रङ्गवतां रक्तानामित्यर्थः, धौतानां शुद्धस्वरूपाणाम्, सर्वैवैषा महापद्मे महापद्मनिधिविषया ५ ।।
काले गाहा, काले कालनामनि निधौ कालज्ञानं कालस्य शुभाशुभरूपस्य ज्ञानं वर्त्तते, ततो ज्ञायत इत्यर्थः, किम्भूतमित्याह- भाविवस्तुविषयं भव्यं पुरातनवस्तुविषयं
पुराणम्, चशब्दाद् वर्त्तमानवस्तुविषयं वर्तमानम्, तीसु वासेसु त्ति 20 अनागतवर्षत्रयविषयमतीतवर्षत्रयविषयं चेति, तथा शिल्पशतं कालनिधौ वर्त्तते,
शिल्पशतं च घट १ लोह २ चित्र ३ वस्त्र ४ नापित ५ शिल्पानां प्रत्येक विंशतिभेदत्वादिति, तथा कर्माणि च कृषि-वाणिज्यादीनि कालनिधाविति प्रक्रमः, एतानि च त्रीणि कालज्ञान-शिल्प-कर्माणि प्रजाया: लोकस्य हितकराणि निर्वाहाभ्युदयहेतुत्वेनेति ६ । १. 'काराणि जे१,२ ॥
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
७७५
[सू० ६७३]
नवममध्ययनं नवस्थानकम् । ___ लोह गाहा, लोहस्य चोत्पत्तिर्महाकाले निधौ भवति वर्त्तते, तथा आकराणां च लोहादिसत्कानामुत्पत्तिराकरीकरणलक्षणा, एवं रूप्यादीनामुत्पत्ति: सम्बन्धनीया, केवलं मणय: चन्द्रकान्तादयः, मुक्ता मुक्ताफलानि, शिला: स्फटिकादिका:, प्रवालानि विद्रुमाणीति ७ । जो गाहा, योधानां शूरपुरुषाणां योत्पत्तिरावरणानां सन्नाहानां प्रहरणानां खगादीनां सा युद्धनीतिश्च व्यूहरचनादिलक्षणा माणवके निधौ 5 निधिनायके वा भवति, तत: प्रवर्त्तत इति भावः, दण्डेनोपलक्षिता नीतिर्दण्डनीतिश्च सामादिश्चतुर्विधा, अत एवोक्तमावश्यके- सेसा उ दंडनीई माणवगनिहीउ होइ भरहस्स [आव० नि० १६९] त्ति ८ ।
नट्ट गाहा, नाट्यं नृत्यम्, तद्विधि: तत्करणप्रकार:, नाटकं चरितानुसारि नाटकलक्षणोपेतं तद्विधिश्च, इह पदद्वये द्वन्द्वः, तथा काव्यस्य चतुर्विधस्य धर्मा-ऽर्थ- 10 काम-मोक्षलक्षणपुरुषार्थप्रतिबद्धग्रन्थस्य १ अथवा संस्कृत-प्राकृता-ऽपभ्रंशसङ्कीर्णभाषानिबद्धस्य २ अथवा सम-विषमा-ऽर्द्धसमवृत्तबद्धतया गद्यतया चेति ३ अथवा गद्य-पद्य-गेय-वर्णपदभेदबद्धस्येति उत्पत्तिः प्रभवः शङ्ख महानिधौ भवति, तथा तूर्याङ्गाणां च मृदङ्गादीनां सर्वेषामिति ९ ।।
चक्क गाहा, चक्रेष्वष्टासु प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा अवस्थानं येषां ते तथा, अष्टौ 15 योजनान्युत्सेध: उच्छ्रयो येषां ते तथा, नव च योजनानीति गम्यते विष्कम्भे विस्तरे, निधय इति शेष:, द्वादश योजनानि दीर्घाः, मञ्जूषाः प्रतीताः, तत्संस्थिता: तत्संस्थाना:, जाह्नव्या गङ्गाया मुखे भवन्तीति । वेरुलिय गाहा, वैडूर्यमणिमयानि कपाटानि येषां ते तथा, मयशब्दस्य वृत्त्या उक्तार्थतेति, कनकमया: सौवर्णाः, विविधरत्नप्रतिपूर्णा: प्रतीतम्, शशि-सूर-चक्राकाराणि लक्षणानि चिह्नानि येषां ते तथा, अनुसमा: 20 अनुरूपा अविषमाः, जुग त्ति यूप: तदाकारा वृत्तत्वाद्दीर्घत्वाच्च बाहवो द्वारशाखा वदनेषु मुखेषु येषां ते तथा, तत: पदत्रयस्य कर्मधारये शशिसूरचक्रलक्षणानुसमयुगबाहुवदना इति, च: समुच्चये । पलि गाहा, निहिसरिनाम त्ति निधिभि: सदृक् सदृक्षं नाम येषां ते तथा, येषां देवानां ते निधय: आवासा: आश्रयाः, किम्भूता: ? अक्रेया अक्रयणीयाः, सर्वदैव तत्सम्बन्धित्वात्, आधिपत्यं च स्वामिता 25 च तेषु येषां देवानामिति प्रक्रम:, एते ते गाहा कण्ठ्या ।
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
७७६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ६७४] णव विगतीतो पन्नत्ताओ तंजहा-खीरं, दधिं, णवणीतं, सप्पिं, तेल्लं, गुलो, महुं, मजं, मंसं ।
[टी०] अनन्तरं चित्तविकृति-विगतिहेतवो निधय उक्ता:, अधुना तथाविधा एव विकृती: प्रतिपादयन्नाह– नव विगतीओ इत्यादि गतार्थम्, तथाप्युच्यते किञ्चित्5 विगतीओ त्ति विकृतयो विकारकारित्वात्, पक्वान्नं तु कदाचिदविकृतिरपि तेनैता नव, अन्यथा तु दशापि भवन्तीति, तथाहिएक्केण चेव तवओ पूरिज्जइ पूयएण जो ताओ । बीतिओ वि स पुण कप्पइ निविगइय लेवडो नवरं ॥ [पञ्चवस्तु० ३७७] ति ।
द्वितीयोऽपि विकृतिर्न भवतीति भावः । तत्र क्षीरं पञ्चधा अजैडका-गो10 महिष्युष्ट्रीभेदात्, दधि-नवनीत-घृतानि चतुर्दुवोष्ट्रीणां तदभावात्, तैलं चतुर्द्धा तिला
ऽतसी-कुसुम्भ-सर्षपभेदात्, गुडो द्विधा द्रव-पिण्डभेदात्, मधु त्रिधा माक्षिक-कौत्तिकभ्रामरभेदात्, मद्यं द्विधा काष्ठ-पिष्टभेदात्, मांसं त्रिधा जल-स्थला-ऽऽकाशचरभेदादिति।
[सू० ६७५] णवसोतपरिस्सवा बोंदी पण्णत्ता, तंजहा-दो सोत्ता, दो णेत्ता, दो घाणा, मुहं, पोसए, पाऊ । 15 [टी०] विकृतयश्चोपचयहेतव: शरीरस्येति तस्यैव स्वरूपमाह- नवेत्यादि, नवभिः
श्रोतोभिः छिद्रैः परिश्रवति मलं क्षरतीति नवश्रोत:परिश्रवा बोन्दी शरीरमौदारिकमेवैवंविधम्, द्वे श्रोत्रे कर्णी नेत्रे नयने घ्राणे नासिके मुखम् आस्यं पोसए त्ति उपस्था पायुः अपानमिति ।
_ [सू० ६७६] णवविधे पुन्ने पन्नत्ते, तंजहा-अन्नपुन्ने, पाणपुन्ने, वत्थपुन्ने, 20 लेणपुन्ने, सयणपुन्ने, मणपुन्ने, वतिपुन्ने, कायपुन्ने, नमोक्कारपुन्ने । ।
[टी०] एवंविधेनापि शरीरेण पुण्यमुपादीयत इति पुण्यभेदानाह– पुन्नेत्यादि, पात्रायाऽन्नदानाद् यस्तीर्थकरनामादिपुण्यप्रकृतिबन्धस्तदन्नपुण्यमेवं सर्वत्र, नवरं लेणं ति लयनं गृहम्, शयनं संस्तारकः, मनसा गुणिषु तोषात्, वाचा प्रशंसनात्, कायेन पर्युपासनान्नमस्काराच्च यत् पुण्यं तन्मनःपुण्यादीति, उक्तं च
१. बितिओ खं० विना ।।
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
७७७
[सू० ६७७-६७९]
अन्नं पानं च वस्त्रं च, आलय: शयनासनम् । शुश्रूषा वन्दनं तुष्टिः, पुण्यं नवविधं स्मृतम् ॥ [ ] इति । [सू० ६७७] णव पावस्सायतणा पन्नत्ता, तंजहा-पाणातिवाते, मुसावाते जाव परिग्गहे, कोहे, माणे, माया, लोभे ।
[टी०] पुण्यविपर्यासरूपस्य पापस्य कारणान्याह– नव पावस्सेत्यादि कण्ठ्यम्, 5 नवरं पापस्य अशुभप्रकृतिरूपस्याऽऽयतनानि बन्धहेतव इति । [सू० ६७८] नवविधे पावसुयपसंगे पन्नत्ते, तंजहाउप्पाते निमित्ते मंते आतिक्खिते तिगिच्छिते । कला आवरणे अन्नाणे मिच्छापावतणे ति त ॥१३१॥ [टी०] पापहेत्वधिकारात् पापश्रुतसूत्रं कण्ठ्यम्, नवरं पापोपादानहेतुः श्रुतं शास्त्रं 10 पापश्रुतम्, तस्य प्रसङ्गः तथाऽऽसेवारूप: विस्तरो वा सूत्र-वृत्ति-वार्तिकरूप: पापश्रुतप्रसङ्गः। उप्पाए सिलोगो, तत्रोत्पात: प्रकृतिविकाररूप: सहजरुधिरवृष्ट्यादिः, तत्प्रतिपादनपरं शास्त्रमपि तथा राष्ट्रोत्पातादि १, तथा निमित्तम् अतीतादिपरिज्ञानोपायशास्त्रं कूरपर्वतादि २, मन्त्री मन्त्रशास्त्रं जीवोद्धरणगारुडादि ३, आइक्खिए त्ति मातङ्गविद्या यदुपदेशादतीतादि कथयन्ति डोंब्यो बधिरा इति लोकप्रतीता: 15 ४, चैकित्सिकम् आयुर्वेद: ५, कला लेखाद्या: गणितप्रधाना: शकुनरुतपर्यवसाना द्वासप्ततिः, तच्छास्त्राण्यपि तथा ६, आवियते आकाशमनेनेत्यावरणं भवन-प्रासादनगरादि, तल्लक्षणशास्त्रमपि तथा, वास्तुविद्येत्यर्थः ७, अज्ञानं लौकिकश्रुतं भारतकाव्य-नाटकादि ८, मिथ्याप्रवचनं शाक्यादितीर्थिकशासनमिति ९, एतच्च सर्वमपि पापश्रुतं संयतेन पुष्टालम्बनेनासेव्यमानमपापश्रुतमेवेति, इतिरेवंप्रकारे, च: समुच्चये । 20
[सू० ६७९] नव उणिता वत्थू पन्नत्ता, तंजहासंखाणे निमित्ते कातिते, पोराणे पारिहत्थिते । परपंडितते वाति, भूतिकम्मे तिगिच्छिते ॥१३२॥
[टी०] उत्पातादिश्रुतवन्तश्च निपुणा भवन्तीति निपुणपुरुषाभिधानायाह- नव निउणेत्यादि, निपुणं सूक्ष्मं ज्ञानं तेन चरन्तीति नैपुणिकाः, निपुणा एव वा नैपुणिकाः, 25 १. तत्र जे२ ॥
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
७७८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे वत्थु त्ति आचार्यादिपुरुषवस्तूनि, पुरुषा इत्यर्थः, संखाणे सिलोगो, सङ्ख्यानं गणितं तद्योगात् पुरुषोऽपि तथा, सङ्ख्याने वा विषये निपुण इति, एवमन्यत्रापि, नवरं निमित्तं चूडामणिप्रभृति, कायिकं शारीरिकम् इडा-पिङ्गलादि प्राणतत्त्वमित्यर्थः, पुराणो वृद्धः, स च चिरजीवित्वाद् दृष्टबहुविधव्यतिकरत्वान्नैपुणिक इति, पुराणं वा शास्त्रविशेष: 5 तज्ज्ञो निपुणप्रायो भवति, पारिहत्थिए त्ति प्रकृत्यैव दक्ष: सर्वप्रयोजनानामकालहीनतया कर्तेति, तथा परः प्रकृष्टः पण्डित: परपण्डितो बहुशास्त्रज्ञः, परो वा मित्रादिः पण्डितो यस्य स तथा, सोऽपि निपुणसंसर्गानिपुणो भवति, वैद्यकृष्णकवदिति, वादी वादलब्धिसम्पन्नो य: परेण न जीयते, मन्त्रवादी वा धातुवादी वेति, ज्वरादिरक्षानिमित्तं
भूतिदानं भूतिकर्म तत्र निपुणः, तथा चिकित्सिते निपुणः । अथवा 10 अनुप्रवादाभिधानस्य नवमपूर्वस्य नैपुणिकानि वस्तूनि अध्ययनविशेषा एवेति ।
[सू० ६८०] समणस्स णं भगवतो महावीरस्स णव गणा होत्था, तंजहागोदासगणे, उत्तरबलितस्सतगणे, उद्देहगणे, चारणगणे, उद्दवातितगणे, विस्सवातितगणे, कामिट्टितगणे, माणवगणे, कोडितगणे ।
[टी०] एते च नैपुणिका: साधवो गणान्त विनो भवन्तीति गणसूत्रं समणस्सेत्यादि 15 कण्ठ्यम्, नवरं गणा: एकक्रिया-वाचनानां साधूनां समुदाया:, गोदासादीनि च तन्नामानीति ।
[सू० ६८१] समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णवकोडिपरिसुद्धे भिक्खे पन्नत्ते, तंजहा-ण हणति, ण हणावेति, हणंतं
णाणुजाणति, ण पतति, ण पतावेति, पतंतं णाणुजाणति, ण किणति, ण 20 किणावेति, किणंतं णाणुजाणति ।
[टी०] उक्तगणवर्त्तिनां च साधूनां यद्भगवता प्रज्ञप्तं तदाह- समणेणमित्यादि, नवभिः कोटिभिः विभागैः परिशुद्धं निर्दोषं नवकोटिपरिशुद्ध भिक्षाणां समूहो भैक्षं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- न हन्ति साधुः स्वयमेव गोधूमादिदलनेन, न घातयति परेण गृहस्थादिना, घ्नन्तं न नैव अनुजानाति अनुमोदनेन तस्य वा दीयमानस्याप्रतिषेधनेन १. "कृष्टक जे१ ॥ २. पा० विना- नानुजानाति जे१ खं० । नैवानुजानाति जे२ ॥
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६८२-६८५]
नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
अप्रतिषिद्धमनुमतम् [ ] इति वचनात् हननप्रसङ्गजननाच्चेति, आह च
कामं सयं न कुव्वइ जाणंतो पुण तहा वि तग्गाही ।
वड्ढेइ तप्पसंगं अगिण्हमाणो उ वारेइ ॥ [ पिण्डनि० १११] इति ।
तथा हतं पिष्टं सत् गोधूमादि मुद्गादि वा अहतमपि सन्न पचति स्वयम्, शेषं प्राग्वत् सुगमं च, इह चाद्याः षट् कोटयोऽविशोधिकोट्यामवतरन्ति आधाकर्मादिरूपत्वात् 5 अन्त्यास्तु तिस्रो विशोधिकोट्यामिति, उक्तं च–
सा नवा दुह कीरड़ उग्गमकोडी विसोहिकोडी य ।
छसु पढमा ओयरई कीयतियम्मी विसोही उ ॥ [ दशवै० नि० २४१] इति ।
[सू० ६८२ ] ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारन्नो व अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ १ ।
10
[सू० ६८३ ] ईसाणस्स णं देविंदस्स [देवरण्णो] अग्गमहिसीणं णव पलिओवमाइं ठिती पन्नत्ता २
ईसाणे कप्पे उक्कोसेणं देवीणं णव पलिओवमाइं ठिती पन्नत्ता ३ | [सू० ६८४] नव देवनिकाया पन्नत्ता, तंजहा
सारस्सयमादिच्चा, वण्ही वरुणा य गद्दतोया य ।
तुसिता अव्वाबाधा, अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य ॥१३३॥ ४॥ अव्वाबाहाणं देवाणं नव देवा नव देवसता पन्नत्ता ५, एवं अग्गिच्चा वि ६, एवं रिट्ठा वि ७ ।
[सू० ६८५ ] णव मिट्ठमवेज्जविमाणपत्थडे,
मउवरिमवेज्जविमाणपत्थडे,
मज्झिममज्झिमगेवेज्जविमाणपत्थडे,
उवरिमहेट्ठिमगेवेज्जविमाणपत्थडे, उवरिमउवरिमगेवेज्जविमाणपत्थडे ८ ।
१. सू० ६२५ ॥
७७९
गेवेज्जविमाणपत्थडा पन्नत्ता, तं जहा
हेट्ठि ममज्झिमवेज्जविमाणपत्थडे, 20 मज्झिमहेट्ठिमगेवेज्जविमाणपत्थडे, मज्झिमउवरिमगेवेज्जविमाणपत्थडे, उवरिममज्झिमगेवेजविमाणपत्थडे,
15
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८०
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे एतेसि णं णवण्हं गेवेजविमाणपत्थडाणं णव नामधिजा पन्नत्ता, तंजहाभद्दे सुभद्दे सुजाते, सोमणसे पितदरिसणे । सुदंसणे अमोहे य, सुप्पबुद्धे जसोधरे ॥१३४॥ ९॥
[टी०] नवकोटीशुद्धाहारग्राहिणां कथञ्चिन्निर्वाणाभावे देवगतिर्भवत्येवेति 5 देवगतिगतवस्तुस्तोममभिधित्सुः ईसाणस्सेत्यादि सूत्रनवकमाह, सुगमं चेदम्, नवरं नव पलिओवमाई ति नवैव, तासां सपरिग्रहत्वाद्, उक्तं च
सपरिग्गहेयराणं सोहम्मीसाण पलिय १ साहीयं २ । उक्कोस सत्त पन्ना नव पणपन्ना य देवीणं ॥ [बृहत्सं० १७] ति ।
सारस्स गाहा, सारस्वताः १, आदित्याः २, वह्नयः ३, वरुणाः ४, गर्दतोयाः 10 ५, तुषिताः ६, अव्याबाधाः ७, आग्नेयाः ८, एते कृष्णराज्यन्तरेष्वष्टासु परिवसन्ति, रिष्टास्तु कृष्णराजिमध्यभागवर्तिनि रिष्टाभविमानप्रस्तटे परिवसन्तीति । - [सू० ६८६] नवविधे आउपरिणामे पन्नत्ते, तंजहा-गतिपरिणामे, गतिबंधणपरिणामे, ठितिपरिणामे, ठितिबंधणपरिणामे, उढुंगारवपरिणामे,
अधेगारवपरिणामे, तिरितंगारवपरिणामे, दीहंगारवपरिणामे, रहस्संगारव15 परिणामे।
[टी०] अनन्तरं ग्रैवेयकविमानानि उक्तानि, तद्वासिनश्चायुष्मन्तो भवन्तीत्यायु:परिणामभेदानाह– नवविहे इत्यादि, आउपरिणामे त्ति आयुष: कर्मप्रकृतिविशेषस्य परिणाम: स्वभाव: शक्ति: धर्म इत्यायु:परिणामः, तत्र गतिर्देवादिका तां नियतां
येन स्वभावेनायुर्जीवं प्रापयति स आयुषो गतिपरिणाम: १, तथा येनायु:स्वभावेन 20 प्रतिनियतगतिकर्मबन्धो भवति यथा नारकायु:स्वभावेन मनुष्य-तिर्यग्गतिनामकर्म बध्नाति न देव-नरकगतिनामकम्र्मेति स गतिबन्धनपरिणाम: २, तथा आयुषो या अन्तर्मुहूर्तादित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमान्ता स्थितिर्भवति स स्थितिपरिणाम: ३, तथा येन पूर्वभवायु:परिणामेन परभवायुषो नियतां स्थितिं बध्नाति स स्थितिबन्धनपरिणाम:,
यथा तिर्यगायु:परिणामेन देवायुष उत्कृष्टतोऽप्यष्टादश सागरोपमाणीति ४, 25 तथा येनायु:स्वभावेन जीवस्योर्ध्वदिशिगमनशक्तिलक्षण: परिणामो भवति स
१. आउयपरि' जे१ खं० ॥
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६८७-६८९] नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
___७८१ ऊर्ध्वगौरवपरिणाम:, इह गौरवशब्दो गमनपर्याय: ५, एवमितरौ द्वाविति ६-७, तथा यत आयु:स्वभावाज्जीवस्य दीर्घ दीर्घगमनतया लोकान्तात् लोकान्तं यावद् गमनशक्तिर्भवति स दीर्घगौरवपरिणामः ८, एवं यस्माद् हस्वं गमनं स ह्रस्वगौरवपरिणाम:, सर्वत्र प्राकृतत्वादनुस्वार इति, अन्यथाप्यूह्यमेतदिति ९ ।
[सू० ६८७] णवणवमिता णं भिक्खुपडिमा एगासीतीते रातिदिएहिं चउहिं 5 य पंचुत्तरेहिं भिक्खासतेहिं अधासुत्ता जाव आराहिता तावि भवति ।
[टी०] अनन्तरमायु:परिणाम उक्तः, तत्रैव चायु:परिणामविशेषे सति तप:शक्तिर्भवतीति तपोविशेषाभिधानायाह- नवनवमिएत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं नव नवमानि दिनानि यस्यां सा नवनवमिका नव नवमानि च भवन्ति नवसु नवकेष्विति तत्परिमाणेयमिति, नव च नवकान्येकाशीतिरिति कृत्वा एकाशीत्या रात्रिन्दिवै: अहोरात्रैर्भवति, तथा प्रथमनवके 10 प्रतिदिनमेका दत्ति: पानकस्य भोजनस्य चेत्येवमेकोत्तरया वृद्ध्या नवमे नवके नव दत्तयः, ततश्च सर्वसङ्कलनया चतुर्भिश्च पञ्चोत्तरैर्भिक्षाशतैर्यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्ग यथातत्त्वं सम्यक्कायेन स्पृष्टा पालिता शोभिता तीरिता कीर्त्तिता आराधिता चापि भवतीति ।
[सू० ६८८] णवविधे पायच्छित्ते पन्नत्ते, तंजहा-आलोयणारिहे जाव 15 मूलारिहे, अणवट्ठप्पारिहे ।
[टी०] इयं च जन्मान्तरकृतपापकर्मप्रायश्चित्तमिति प्रायश्चित्तनिरूपणसूत्रम्, तच्च गतार्थमिति । [सू० ६८९] जंबुमंदरदाहिणेणं भरहे दीहवेतड्ढे नव कूडा पन्नत्ता, तंजहासिद्धे भरहे खंडग, माणी वेयड पुण्ण तिमिसगुहा ।
20 भरहे वेसमणेया ९, भरहे कूडाण णामाई ॥१३५॥ जंबुमंदरदाहिणेणं निसभे वासहरपव्वते णव कूडा पन्नत्ता, तंजहासिद्धे निसहे हरिवस्स, विदेहे हरि धिती य सीतोदा ।
अवरविदेहे रुतगे ९, निसभे कूडाण णामाई ॥१३६॥ जंबुद्दीवे दीवे मंदरपव्वते णंदणवणे णव कूडा पन्नत्ता, तंजहा- 25 १. नव नव दत्तय: पा० जे२ ॥ २. सू० १९७, ४८९, ६०५, ७३३ ॥
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे णंदणे मंदरे चेव, निसहे हेमवते रयय रुयए य । सागरचित्ते वइरे, बलकूडे ९ चेव बोधव्वे ॥१३७॥ जंबुद्दीवे दीवे मालवंते वक्खारपव्वते णव कूडा पन्नत्ता, तंजहा
सिद्धे य मालवंते, उत्तरकुर कच्छ सागरे रयते । 5
सीता त पुण्णणामे, हरिस्सकूडे य ९ बोद्धव्वे ॥१३८॥ जंबुद्दीवे दीवे कच्छे दीहवेयड्ढे नव कूडा पन्नत्ता, तंजहासिद्धे कच्छे खंडग, माणी वेयड्ड पुन तिमिसगुहा । कच्छे वेसमणे या ९, कच्छे कूडाण णामाई ॥१३९॥
जंबुद्दीवे दीवे सुकच्छे दीहवेयड्ढे णव कूडा पन्नत्ता, तंजहा10 सिद्ध सुकच्छे खंडग, माणी वेयड्ड पुन तिमिसगुहा ।
सुकच्छे वेसमणे ता ९, सुकच्छे कूडाण णामाई ॥१४०।।
एवं जाव पोक्खलावतिम्मि दीहवेयड्ढे, एवं वच्छे दीहवेयड्ढे एवं जाव मंगलावतिम्मि दीहवेयड्ढे ।
जंबुद्दीवे दीवे विजुप्पभे वक्खारपव्वते नव कूडा पन्नत्ता, तंजहा15 सिद्धे य विजुणामे, देवकुरा पम्ह कणग सोवत्थी ।
सीतोदा य सयजले, हरिकूडे ९ चेव बोद्धव्वे ॥१४१॥ जंबुद्दीवे दीवे पम्हे दीहवेयड्ढे णव कूडा पन्नत्ता, तंजहासिद्धे पम्हे खंडग माणी वेयड्ड एवं चेव ॥१४२॥
जाव सलिलावतिम्मि दीहवेयड्ढे । एवं वप्पे दीहवेयड्ढे, एवं जाव 20 गंधिलावतिम्मि दीहवेयड्ढे नव कूडा पन्नत्ता, तंजहा
सिद्धे गंधिल खंडग, माणी वेयड पुन्न तिमिसगुहा ।। गंधिलावति वेसमणे ९, कूडाणं होति णामाई ॥१४३॥ एवं सव्वेसु दीहवेयड्ढेसु दो कूडा सरिसणामगा, सेसा ते चेव ।
जंबुमंदरउत्तरेणं नेलवंते वासहरे पव्वते णव कूडा पन्नत्ता, तंजहा१. कुरु क० भां० ॥ २. 'एवं चेव' इति शब्देन 'पुन तिमिसगुहा । पम्हे वेसमणे या ९ पम्हे कूडाण
नामाई ॥१४२॥' इति पाठोऽत्रानुसन्धेयः ||
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८३
[सू० ६८९]
नवममध्ययनं नवस्थानकम् । सिद्धे नेलवंत विदेहे, सीता कित्ती त नारिकंता त । अवरविदेहे रम्मगकूडे, उवदंसणे ९ चेव ॥१४४॥ जंबुमंदरउत्तरेणं एरवते दीहवेतड्ढे नव कूडा पन्नत्ता, तंजहासिद्धेरवए खंडग, माणी वेयट्ट पुण्ण तिमिसगुहा । एरवते वेसमणे ९, एरवते कूडणामाई ॥१४५।।
टी०] प्रायश्चित्तं च भरतादिक्षेत्रेष्वेवेति तद्गतवस्तुविशेषप्रतिपादनाय जंबूदीवेत्यादि एरवए कूडनामाई इत्येतदन्तं सूत्रप्रपञ्चमाह, सुगमश्चायम्, नवरं भरतग्रहणं विजयादिव्यवच्छेदार्थम्, दीर्घग्रहणं वर्तुलवैताढ्यव्यवच्छेदार्थमिति । सिद्धे गाहा, तत्र सिद्धायतनयुक्तं सिद्धकूटं सक्रोशयोजनषट्कोच्छ्रयमेतावदेव मूले विस्तीर्णम् एतदोपरिविस्तारं क्रोशायामेनार्द्धक्रोशविष्कम्भेण देशोनक्रोशोच्चेनापरदिग्द्वारवर्ज- 10 पञ्चधनु:शतोच्छयतदर्द्धविष्कम्भद्वारत्रयोपेतेन जिनप्रतिमाष्टोत्तरशतान्वितेन सिद्धायतनेन विभूषितोपरितनभागमिति, तच्च वैताढ्ये पूर्वस्यां दिशि, शेषाणि तु क्रमेण परतस्तस्मादेवेति, भरतदेवप्रासादावतंसकोपलक्षितं भरतकूटम्, खंडग त्ति खण्डप्रपाता नाम वैताढ्यगुहा यया चक्रवर्ती अनार्यक्षेत्रात् स्वक्षेत्रमागच्छति तदधिष्ठायकदेवसम्बन्धित्वात् खण्डप्रपातकूटमुच्यते, माणीति माणिभद्राभिधानदेवावा- 15 सत्वान्माणिभद्रकूटम्, वेयट्ट त्ति वैताढ्यगिरिनाथदेवनिवासाद् वैताढ्यकूटमिति, पुन्न त्ति पूर्णभद्राभिधानदेवनिवासात् पूर्णभद्रकूटम्, तिमिसगुहा नाम गुहा यया स्वक्षेत्राच्चक्रवर्ती चिलातक्षेत्रे याति तदधिष्ठायकदेवावासात् तिमिसगुहाकूटमिति, भरहे त्ति तथैव, वैश्रमणलोकपालावासत्वाद्वैश्रमणकूटमिति ।
सिद्धे गाहा, सिद्धे त्ति सिद्धायतनकूटम्, तथा निषधपर्वताधिष्ठातृदेवनिवासोपेतं 20 निषधकूटम्, हरिवर्षस्य क्षेत्रविशेषस्याधिष्ठातृदेवेन स्वीकृतं हरिवर्षकूटम्, एवं विदेहकूटमपि, हीदेवीनिवासो हीकूटम्, एवं धृतिकूटम्, शीतोदा नदी, तद्देवीनिवास: शीतोदाकूटम्, अपरविदेहकूटं विदेहकूटवदिति, रुचकश्चक्रवालपर्वतः तदधिष्ठातृदेवनिवासो रुचककूटमिति ।
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
नंदणे त्ति नन्दनवनं मैरौ प्रथममेखलायाम्, तत्र नव कूटानि, नंदण गाहा, तत्र नन्दनवने पूर्वादिदिक्षु चत्वारि सिद्धायतनानि, विदिक्षु चतुश्चतुःपुष्करिणीपरिवृताश्चत्वारः प्रासादावतंसकाः, तत्र पूर्वस्मात् सिद्धायतनादुत्तरत उत्तरपूर्वस्थप्रासादाद्दक्षिणतो नन्दनकूटम्, तत्र देवी मेघङ्करा १, तथा पूर्वसिद्धायतनादेव दक्षिणतो 5 दक्षिणपूर्वप्रासादादुत्तरतो मन्दरकूटम्, तत्र मेघवती देवी, अनेन क्रमेण शेषाण्यपि यावदष्टमम्, देव्यस्तु निषधकूटे सुमेघा, हैमवतकूटे मेघमालिनी, रजतकूटे सुवच्छा, रुचककूटे वच्छमित्रा, सागरचित्रकूटे वैरसेना, वैरकूटे बलाहकेति, बलकूटं मेरोरुत्तरपूर्वस्यां नन्दनवने तत्र बलो देव इति ।
मालवंते इत्यादि, सिद्धे गाहा, माल्यवान् पूर्वोत्तरो गजदन्तपर्वतः, तत्र 10 सिद्धायतनकूटं मेरोरुत्तरपूर्वतः, एवं शेषाण्यपि, नवरं सिद्धकूटे भोगा देवी, रजतकूटे भोगमालिनी देवी, शेषेषु स्वसमाननामानो देवाः, हरिसहकूटं तु नीलवत्पर्वतस्य नीलवत्कूटाद् दक्षिणतः सहस्रप्रमाणं विद्युत्प्रभवर्त्ति, हरिकूटं नन्दनवनवर्त्ति बलकूटं च, शेषाणि तु प्रायः पञ्चयोजनशतिकानीति, एवं कच्छादिविजयवैताढ्यकूटान्यपि व्याख्यातानुसारेण ज्ञेयानि, नवरम् एवं जाव पुक्खलावइम्मीत्यादौ 15 यावत्करणान्महाकच्छ- कच्छावती - आवर्त्त-नङ्गलावर्त्त पुष्कलेषु सुकच्छवद् वैताढ्येषु सिद्धकूटादीनि नव नव कूटानि वाच्यानि, नवरं द्वितीयाष्टमस्थानेऽधिकृतविजयनाम वाच्यमिति । एवं वच्छे त्ति शीताया दक्षिणे समुद्रासन्ने, एवं जाव मंगलावइम्मीत्यत्र यावत्करणात् सुवच्छ-महावच्छ-वच्छावती-रम्य - रम्यक - रमणीयेषु प्रागिव कूटनवकं दृश्यमिति । विद्युत्प्रभो देवकुरुपश्चिमगजदन्तकः, तत्र नव कूटानि पूर्ववत्, नवरं दिक्कुमार्यौ 20 वारिसेना-बलाहकाभिधाने क्रमेण कनककूट - स्वस्तिककूटयोरिति । पम्हे त्ति शीतोदाया दक्षिणेन विद्युत्प्रभाभिधानगजदन्तकप्रत्यासन्नविजये, जाव सलिलावइम्मीत्यत्र यावत्करणात् सुपक्ष्म-महापक्ष्म- पक्ष्मावती - शङ्ख- नलिन- कुमुदेषु प्रागिव नव नव कूटानि वाच्यानि । एवमित्युक्ताभिलापेन वप्पे त्ति शीतोदाया उत्तरेण समुद्रप्रत्यासन्ने विजये, जाव गंधिलावइम्मीत्यत्र यावत्करणात् सुवप्र - महावप्र-वप्रावती- वल्गु-सुवल्गु१. मेरोः पासं० जे२ ॥ २. पूर्वादिषु जे१ खं० ॥ ३ यावत् महाकच्छा- कच्छावती जे१ ॥ ४. मंगला
पा० ||
७८४
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६९०-६९१] नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
७८५ गन्धिलेषु नव नव कूटानि प्रागिव दृश्यानीति । एवं सव्वेसु इत्यादिना कूटानां सामान्य लक्षणमुक्तमिति, विशेषार्थिना तु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिर्निरूपणीया, एवं नीलवत्कूटानि ऐरवतकूटानि च व्याख्येयानीति ।
[सू० ६९०] पासे णं अरहा पुरिसादाणिए वजरिसभणारातसंघयणे समचउरंससंठाणसंठिते नव रयणीओ उटुंउच्चत्तेणं होत्था ।
[सू० ६९१] समणस्स भगवतो महावीरस्स तित्थम्मि णवहिं जीवेहिं तित्थगरणामगोत्ते कम्मे णिवत्तिते, तंजहा-सेणितेणं, सुपासेणं, उदातिणा, पोट्टिलेणं अणगारेणं, दढाउणा, संखेणं, सततेणं, सुलसाते सावियाते, रेवतीते ।
[टी०] इयं कूटवक्तव्यता तीर्थकरैरुक्तेति प्रकृतावतारिणीं जिनवक्तव्यतामाह- 10 पासेत्यादि सूत्रद्वयं कण्ठ्यम्, नवरं तित्थगरनाम त्ति तीर्थकरत्वनिबन्धनं नाम तीर्थकरनाम तच्च गोत्रं च कर्मविशेष एवेत्येकवद्भावात् तीर्थकरनामगोत्रमिति, अथवा तीर्थकरनामेति गोत्रम् अभिधानं यस्य तत्तीर्थकरनामगोत्रमिति । श्रेणिको राजा प्रसिद्धस्तेन १ । एवं सुपार्थो भगवतो वर्द्धमानस्य पितृव्यः २ । उदायी कोणिकपुत्रः, य: कोणिकेऽपक्रान्ते पाटलिपुत्रं नगरं न्यवीविशत् यश्च स्वभवनस्य 15 विविक्तदेशे पर्वदिनेष्वाहूय संविग्नगीतार्थसद्गुरुं तत्पर्युपासनापरायणः परमसंवेगरसप्रकर्षमनुसरन् सामायिक-पौषधादिकं सुश्रमणोपासकप्रायोग्यमनुष्ठानमनुतिष्ठते, एकदा च निशि देशनिर्धाटितरिपुराजपुत्रेण द्वादशवार्षिकद्रव्यसाधुना कृतपौषधोपवास: सुखप्रसुप्तः कङ्काय:कर्तिकाकण्ठकर्त्तनेन विनाशित इति ३ ।
पोटिलोऽनगारोऽनुत्तरोपपातिकाङ्गेऽधीतो हस्तिनागपुरवासी भद्राभिधान- 20 सार्थवाहीतनयो द्वात्रिंशद्भार्यात्यागी महावीरशिष्यो मासिक्या संलेखनया सर्वार्थसिद्धोपपन्न: महाविदेहात् सिद्धिगामी, अयं त्विह भरतक्षेत्रात् सिद्धिगामी गदित इति ततोऽयमन्य: सम्भाव्यत इति ४, दृढायुप्रतीत: ५। १. पुन: पम्हादिविजयेषु षोडशस्वतिदिशति एवं सव्वेसु इति पाठोऽत्र जे२ मध्ये एव वर्तते ॥ २. सू०
४।१०३।१-६ ।। ३. 'नामे त्ति जे१ खं० पा० ।। ४. रूंस्तत्प पा० । रुस्तत्प जे२ ॥ ५. निर्धारित जे१ खं० पा० । (निरित?) ॥
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे शङ्ख-शतको श्रावस्तीश्रावको, ययोरीदृशी वक्तव्यता- किल श्रावस्त्यां कोष्ठके चैत्ये भगवानेकदा विहरति स्म, शङ्खादिश्रमणोपासकाश्चागतं भगवन्तं विज्ञाय वन्दितुमागताः, ततो निवर्तमानांस्तान् शङ्खः खल्वाख्याति स्म- यथा भो देवानांप्रियाः! विपुलमशनाद्युपस्कारयत ततस्तत् परिभुञ्जाना: पाक्षिकं पर्व कुर्वाणा विहरिष्यामः, 5 ततस्ते तत् प्रतिपेदिरे, पुनः शङ्खोऽचिन्तयत्- न श्रेयो मेऽशनादि भुञ्जानस्य पाक्षिकपौषधं प्रतिजाग्रतो विहर्तुम्, श्रेयस्तु मे पौषधशालायां पौषधिकस्य मुक्ताभरणशस्त्रादे: शान्तवेषस्य विहर्तुम्, अथ स्वगृहे गत्वा उत्पलाभिधानस्वभार्याया वार्ता निवेद्य पौषधशालायां पौषधमकार्षीत्, इतश्च तेऽशनाद्युपस्कारयांचक्रुः एकत्र च समवेयुः,
शङ्ख प्रतीक्षमाणास्तस्थुः, ततोऽनागच्छति शो पुष्कली नाम श्रमणोपासक: 10 शतक इत्यपरनामा शङ्खस्याकारणार्थं तद्गृहं जगाम, आगतस्य चोत्पला
श्रावकोचितप्रतिपत्तिं चकार, तत: पौषधशालायां स विवेश, ईर्यापैथिकी प्रतिचक्राम, शङ्खमभ्युवाच यदुतोपस्कृतं तदशनादि तद् गच्छाम: श्रावकसमवायम्, भुज्महे तदशनादि, प्रतिजागृम: पाक्षिकपौषधम्, तत उवाच शङ्ख:- अहं हि पौषधिको
नागमिष्यामीति, तत: पुष्कली गत्वा श्रावकाणां तत् निविवेद, ते तु तदनु बुभुजिरे, 15 शङ्खस्तु प्रात: पौषधमपारयित्वैव पारगतपादपद्मप्रणिपतनार्थं प्रतस्थौ, प्रणिपत्य च
तमुचितदेशे उपविवेश, इतरेऽपि भगवन्तं वन्दित्वा धर्मं च श्रुत्वा शङ्खान्तिकं गत्वा एवमूचुः- सुष्ठ त्वं देवानांप्रिय ! अस्मान् हीलयसि, ततस्तान भगवान जगाद- मा भो यूयं शङ्ख हीलयत, शङ्खो ह्यहीलनीयः, यतोऽयं प्रियधर्मा दृढधा च,
तथा सुदृष्टिजागरिकां जागरित इत्यादि ६-७ । 20 सुलसा राजगृहे प्रसेनजितो राज्ञ: सम्बन्धिनो नागाभिधानस्य रथिकस्य भार्या
बभूव, यस्याश्चरितमेवमनुश्रूयते- किल तया पुत्रार्थं स्वपतिरिन्द्रादीन् नमस्यन्नभिहितः अन्यां परिणयेति, स च यस्तव पुत्रस्तेन मे प्रयोजनमिति भणित्वा न तत् प्रतिपन्नवान्, इतश्च तस्याः शक्रालये सम्यक्त्वप्रशंसां श्रुत्वा तत्परीक्षार्थं कोऽपि देव: साधुरूपेणागतस्तं १. तत् नास्ति जे१ खं० ॥ २. पासं० विना- पथिकां ॥१,२, खं० पामू० ॥ ३. न गमि जे१ खं०॥
४. प्रियधर्मा च दृढधर्मा च जे१ खं० ॥ ५. स्तेनेह प्रिये प्रयोजन पा० जे२ ॥ ६. तत् नास्ति जे१ खं० ॥
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८७
[सू० ६९२]
नवममध्ययनं नवस्थानकम् । च वन्दित्वा बभाण किमागमनप्रयोजनम् ?, देवोऽवादीत्- तव गृहे लक्षपाकं तैलमस्ति तच्च मे वैद्येनोपदिष्टमिति तद्दीयताम्, ददामीत्यतिगता गृहमध्ये अवतारयन्त्याश्च भिन्नं देवेन तद्भाजनम्, एवं द्वितीयं तृतीयं चेत्येवमखेदां दृष्ट्वा तुष्टो देवो द्वात्रिंशतं च गुटिका ददौ, ‘एकैकां खादेः' द्वात्रिंशत् ते सुता भविष्यन्ति, प्रयोजनान्तरे चाहं स्मर्त्तव्यः इत्यभिधाय गतोऽसौ, चिन्तितं चानया सर्वाभिरप्येक एव मे पुत्रो भूयादिति सर्वाः 5 पीता:, आहूता द्वात्रिंशत् पुत्राः, वर्द्धते स्म जठरमरतिश्च, तत: कायोत्सर्गमकरोत्, आगतो देवो निवेदितो व्यतिकरो विहितो महोपकारो जातो लक्षणवत्पुत्रगण इत्यादि ८ ।
___ तथा रेवती भगवत औषधदात्री, कथम् ?, किलैकदा भगवतो मेण्ढिकग्रामनगरे विहरत: पित्तज्वरो दाहबहुलो बभूव लोहितवर्चश्च प्रावर्त्तत, चातुर्वर्यं च व्याकरोति 10 स्म यदुत गोशालकस्य तपस्तेजसा दग्धशरीरोऽन्त: षण्मासस्य कालं करिष्यतीति, तत्र च सिंहनामा मुनिरातापनावसान एवममन्यत ‘मम धर्माचार्यस्य भगवतो महावीरस्य ज्वररोगो रुजति, ततो हा वदिष्यन्त्यन्यतीर्थिका: यथा छद्मस्थ एव महावीरो गोशालकतेजोऽपहत: कालगतः' इति एवम्भूतभावनाजनितमानसमहादु:खखेदितशरीरो मालुककच्छाभिधानं विजनं वनमनुप्रविश्य कुहुकुहेत्येवं महाध्वनिना प्रारोदीत्, भगवांश्च 15 स्थविरैस्तमाकार्योक्तवान् हे सिंह ! यत्त्वया व्यकल्पि न तद्भावि, यत इतोऽहं देशोनानि षोडश वर्षाणि केवलिपर्यायं पूरयिष्यामि, ततो गच्छ त्वं नगरमध्ये, तत्र रेवत्यभिधानया गृहपतिपत्न्या मदर्थं द्वे कूष्माण्डफलशरीरे उपस्कृते, न च ताभ्यां प्रयोजनम्, तथाऽन्यदस्ति तद्गृहे परिवासितं मार्जाराभिधानस्य वायोर्निवृत्तिकारकं कुक्कुटमांसकं बीजपूरककटाहमित्यर्थः, तदाहर, तेन न: प्रयोजनमित्येवमुक्तोऽसौ तथैव कृतवान्, रेवती च 20 सबहुमानं कृतार्थमात्मानं मन्यमाना यथायाचितं तत्पात्रे प्रक्षिप्तवती, तेनाप्यानीय तद्भगवतो हस्ते निसृष्टम्, भगवतापि वीतरागतयैवोदरकोष्ठे निक्षिप्तम्, ततस्तत्क्षणमेव क्षीणो रोगो जात:, जातानन्दो यतिवर्गो मुदितो निखिलो देवादिलोक इति ९ ।
[सू० ६९२] एस णं अज्जो ! कण्हे वासुदेवे, रामे बलदेवे, उदये पेढालपुत्ते, पुट्टिले, सतते गाहावती, दारुते नितंठे, सच्चती नितंठीपुत्ते, सावितबुद्धे अंबडे 25
१. च नास्ति जे१ खं० ॥
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे परिव्वायते, अजा वि णं सुपासा पासावच्चिजा आगमेस्साते उस्सप्पिणीते चाउज्जामं धम्मं पनवतित्ता सिज्झिहिंति जाव अंतं काहिति ।
[टी०] अनन्तरं ये तीर्थकरा भविष्यन्ति ते प्रकृताध्ययनानुपातेनोक्ता अधुना तु ये जीवा: सेत्स्यन्ति तथैव तानाह– एस णमित्यादि, तत्र एष इति वासुदेवानां मध्ये 5 पश्चिमोऽनन्तरकालातिक्रान्त इति अज्जो त्ति आमन्त्रणवचनं भगवान् महावीरः किल
साधूनामन्त्रयति- हे आर्याः ! उदये पेढालपुत्ते त्ति सूत्रकृतद्वितीयश्रुतस्कन्धे नालन्दीयाध्ययनाभिहित:, तद्यथा उदकनामाऽनगार: पेढालपुत्र: पार्श्वजिनशिष्यः, योऽसौ राजगृहनगरबाहिरिकाया नालन्दाभिधानाया: उत्तरपूर्वस्यां दिशि
हस्तिद्वीपवनखण्डे व्यवस्थितः, तदेकदेशस्थं गौतमं संशयविशेषमापृच्छय 10 विच्छिन्नसंशय: सन् चातुर्यामधर्मं विहाय पञ्चयामं धर्मं प्रतिपेदे इति । पोट्टिल
शतकावनन्तरोक्तावेव । दारुकोऽनगारो वासुदेवस्य पुत्रो भगवतोऽरिष्टनेमिनाथस्य शिष्योऽनुत्तरोपपातिकोक्तचरित इति । ___ तथा सत्यकिर्निर्ग्रन्थीपुत्रो यस्येदृशी वक्तव्यता- किल चेटकमहाराजदुहिता
सुज्येष्ठाभिधाना वैराग्येण प्रव्रजिता उपाश्रयस्यान्तरातापयति स्म, इतश्च पेढालो नाम 15 परिव्राजको विद्यासिद्धो विद्या दातुकामो योग्यपुरुषं गवेषयति यदि ब्रह्मचारिण्या: पुत्रो
भवेत्तत: सुन्यस्ता विद्या भवेयुरिति भावयंस्तां चातापयन्तीं दृष्ट्वा धूमिकाव्यामोहं कृत्वा बीजं निक्षिप्तवान्, गर्भ: सम्भूतो दारको जातः, निर्ग्रन्थिकासमेतो भगवत्समवसरणं गतः, तत्र च कालसन्दीपनामा विद्याधरो वन्दित्वा भगवन्तं पप्रच्छ कुतो मे भयम् ?,
स्वामी व्याकार्षीत्- एतस्मात् सत्यकेः, ततोऽसौ तत्समीपमुपागत्यावज्ञया तं प्रति 20 बभाण- अरे ! मां त्वं मारयिष्यसि ?, इति भणित्वा पादयो: पातितः, ततोऽन्यदा
साध्वीभ्यः सकाशादपहृत्य पितृविद्याधरेण विद्या: ग्राहितः, अथ रोहिण्या विद्यया पञ्चसु पूर्वभवेषु मारितः, षष्ठभवे षण्मासावशेषायुषा तेनासौ नेष्टा, इह तु सप्तमे भवे सिद्धा, तल्ललाटे विवरं विधाय तच्छरीरमतिगता, ललाटच्छिद्रं च देवतया तृतीयमक्षि कृतम्, तेन च स्वपिता स च कालसन्दीपो मारित: विद्याधरचक्रवर्त्तित्वं च प्रापि, ततोऽसौ 25 सर्वांस्तीर्थकरान् वन्दित्वा नाट्यं चोपदाभिरमते स्मेति ।
१. चतु' जे२ ॥ २. सत्यकिन: जे१ खं० ॥ ३. प्राप जे१ ॥
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
[सू० ६९३]
तथा श्राविकां श्रमणोपासिकां सुलसाभिधानां बुद्धः सर्वज्ञधर्मे भावितेयमित्यवगतवान् श्राविका वा बुद्धा ज्ञाता येन स श्राविकाबुद्धः अंमडो अंमडाभिधानः परिव्राजकविद्याधरश्रमणोपासकः, अयं चार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्- चम्पाया नगर्या : अम्बडो विद्याधरश्रावको महावीरसमीपे धर्म्ममुपश्रुत्य राजगृहं प्रस्थित:, स च गच्छन् भगवता बहुसत्त्वोपकाराय भणित:, यथा— 5 सुलसाश्राविकाया: कुशलवार्तां कथयेः, स च चिन्तयामास पुण्यवतीयं यस्यास्त्रिलोकनाथः स्वकीयकुशलवार्तां प्रेषयति, कः पुनस्तस्या गुण इति तावत् सम्यक्त्वं परीक्षे, ततः परिव्राजकवेषधारिणा गत्वा तेन भणिताऽसौ - आयुष्मति ! धर्मो भवत्या भविष्यतीत्यस्मभ्यं भक्त्या भोजनं देहि, तया भणितम् - येभ्यो दत्ते भवत्यसौ
विदिता एव, ततोऽसावाकाशविरचिततामरसासनो जनं विस्मापयते स्म, ततस्तं जनो 10 भोजनेन निमन्त्रयामास, स तु नैच्छत्, लोकस्तं पप्रच्छ - कस्य भगवन् ! भोजनेन भागधेयवत्तां मासक्षपणपर्यन्ते संवर्द्धयिष्यति ?, स प्रतिभणति स्म - सुलसाया:, ततो लोकस्तस्या वर्द्धनकं न्यवेदयत्, यथा तव गेहे भिक्षुरयं बुभुक्षुः, तयाऽभ्यधायि - किं पाषण्डिभिरस्माकमिति, लोकस्तस्मै न्यवेदयत्, तेनापि व्यज्ञायि परमसम्यग्दृष्टिरेषा या महातिशयदर्शनेऽपि न दृष्टिव्यामोहमगमदिति, ततो लोकेन सहासौ तद्द्वे नैषधिकीं 15 कुर्वन् पञ्चनमस्कारमुच्चारयन् प्रविवेश, साऽप्यभ्युत्थानादिकां प्रतिपत्तिमकरोत्, तेनाप्यसावुपबृंहितेति, यश्चौपपातिकोपाङ्गे महाविदेहे सेत्स्यतीत्यभिधीयते सोऽन्य इति सम्भाव्यते, तथा आर्यापि आर्यिकाऽपि सुपार्श्वाभिधाना पार्श्वापत्यीया पार्श्वनाथशिष्यशिष्या । चत्वारो यामा महाव्रतानि यत्र स चतुर्यामस्तं प्रज्ञाप्य सेत्स्यन्ति ५, एतेषु च मध्यमतीर्थकरत्वेनोत्पत्स्यन्ते केचित् केचित्तु केवलित्वेन, 20 भवसिद्धिओ उ भयवं सिज्झिस्सइ कण्हतित्थम्मी [ ]ति वचनादिति भाव:, शेषं स्पष्टम्।
[सू० ६९३] एस णं अज्जो ! सेणिए राया भिंभिसारे कालमासे कालं किच्चा इमीसे रतणप्पभाते पुढवीते सीमंतते नरए चउरासीतिवाससहस्सट्ठितीयंसि निरयंसि नेरइएसु णेरइयत्ताए उववज्जिहिति, से णं तत्थ णेरइए भविस्सति
१. अमडोऽमडाभि जे१ खं० ॥ २. 'नकावसेयः जे१ खं० ॥
७८९
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
काले कालोभासे जाव परमकिण्हे वन्नेणं, से णं तत्थ वेदणं वेदिहिती उज्जलं
व दुरहिया
।
से णं ततो नरतातो उव्वट्टेत्ता आगमेसाते उस्सप्पिणीते इहेव जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे वेयड्डगिरिपायमूले पुंडेसु जणवतेसु सतदुवारे णगरे संमुइस्स 5 कुलकरस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिंसि पुमत्ताए पच्चायाहिती । तए णं सा भद्दा भारिया नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्टमाण य रातिंदियाणं वीतिक्कंताणं सुकुमालपाणिपातं अहीणपडिपुन्नपंचेंदियसरीरं लक्खणवंजण जाव सुरूवं दारगं पयाहिती । जं रयणिं च णं से दारगे पयाहिती तं रयणिं च णं सतदुवारे णगरे सब्भंतरबाहिरए भारग्गसो य कुंभग्गसो त पउमवासे 10 त रयणवासे त वासिहिति । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो एक्कारसमे दिवसे वीइक्कंते जाव बारसाहे दिवसे अयमेतारूवं गोण्णं गुणनिप्फण्णं नामधिज्जं काहिंति । जम्हा णं अम्हमिणंसि दारगंसि जातंसि समाणंसि सतदुवारे नगरे सब्भिंतरबाहिरए भारग्गसो य कुंभग्गसो य पउमवासे य रणवासे य वासे वुट्ठे तं होउ णमम्हमिमस्स दारगस्स नामधिजं महापउमे 15 महापउमे, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधिज्जं काहिंति - महापउमाती । तए णं तं महापमं दारगं अम्मापितरो सातिरेगअट्ठवासजातगं जाणित्ता महता महता रायाभिसेएणं अभिसिंचिहिंति । से णं तत्थ राया भविस्स महता हिमवंत-महंतमलयमंदर० रायवन्नतो जाव रज्जं पसासेमाणे विहरिस्सति । तते णं तस्स महापउमस्स रन्नो अन्नदा कताड़ दो देवा महिड्डिया जाव 20 महेसक्खा सेणाकम्मं काहिंति, तंजहा - पुन्नभद्दे त माणिभद्दे
सतदुवारे नगरे बहवे रातीसर तलवर - माडंबित कोडुंबित - इब्भ-सेट्ठिसेणावति-सत्थवाहप्पभितयो अन्नमन्नं सद्दावेहिंति एवं वतिस्संति-जम्हाणं देवाप्पिया ! अम्हं महापउमस्स रन्नो दो देवा महिड्डिया जाव महेसक्खा सेणाकम्मं करेंति, तंजहा - पुन्नभद्दे त माणिभद्दे य, तं होउ णमम्हं देवाणुप्पिया ! 25 महापउमस्स रण्णो दोच्चे वि नामधेज्जे देवसेणे देवसेणे । तते णं तस्स महापउमस्स रण्णो दोच्चे वि नामधेज्जे भविस्सइ देवसेणाती देवसेणाती ।
७९०
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६९३]
नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
तते णं तस्स देवसेणस्स रन्नो अन्नत्ता कताती सेतसंखतलविमलसन्निकासे चउदंते हत्थिरतणे समुप्पज्जिहिति । तए णं से देवसेणे राया तं सेतं संखतलविमलसन्निकासं चउदंतं हत्थिरतणं दुरूढे समाणे सतदुवारं नगरं मज्झंमज्झेणं अभिक्खणं अभिक्खणं अतिंजातिहि य णिज्जाइहि य । तते णं सतदुवारे गरे बहवे रातीसरतलवर जाव अन्नमन्नं सद्दावेहिंति २, एवं 5 वतिस्संति - जम्हा णं देवाणुप्पिया ! अम्हं देवसेणस्स रण्णो सेते संखतलविमलसन्निकासे चउदंते हत्थिरतणे समुप्पन्ने तं होउ णं अम्हं देवाणुप्पिया ! देवसेणस्स रन्नो तच्चे वि नामधेजे विमलवाहणे विमलवाहणे, तणं तस्स देवसेणस्स रनो तच्चे वि णामधेज्जे भविस्सति विमलवाहणाती विमलवाहणाती ।
७९९१
तते णं से विमलवाहणे राया तीसं वासाई अगारवासमज्झे वसित्ता अम्मापितीहिं देवत्तं गतेहिं गुरुमहत्तरतेहिं अब्भणुन्नाते समाणे उदुम्मि सरते संबुद्धे अणुत्तरे मोक्खमग्गे पुणरवि लोगंतितेहिं जीयकप्पितेहिं देवेहिं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं उरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं वग्गूहिं अभिनंदिज्जमाणे य अभित्थुव्वमाणे 15 य बहिया सुभूमिभागे उज्जाणे एगं देवद्समादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयाहिति, तस्स णं भगवंतस्स साइरेगाई दुवालस वासाइं निच्चं वोसकाए चियत्तदेहे जे केई उवसग्गा उप्पज्जंति तंजहा - दिव्वा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा ते उप्पन्ने सम्मं सहिस्सति खमिस्सति तितिक्खिस्त अहियासिस्सइ । तए णं ते भगवं इरियासमिए भासासमिए जाव गुत्तबंभयारी 20 अममे अकिंचणे छिन्नगंथे निरुवलेवे कंसपाती इव मुक्कतोए जहा भावणाए जाव सुहुहुयासणे विव तेयसा जलंते ।
कंसे संखे जीवे गगणे वाते य सारए सलिले । पुक्खरपत्ते कुम्मे विहगे खग्गे य भारुंडे ॥१४६॥
१. 'ज्जादि य णिज्जादि य भां० विना ॥
10
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे कुंजर वसभे सीहे नगराया चेव सागरमखोभे । चंदे सूरे कणगे वसुंधरा चेव सुहुयहुते ॥१४७॥
नत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधे भवति । से य पडिबंधे चउव्विहे पन्नत्ते, तंजहा-अंडए ति वा पोयए ति वा उग्गहिए ति वा पग्गहिए ति 5 वा, जं णं जं णं दिसं इच्छति तं णं तं णं दिसं अपडिबद्धे सुचिभूए लहुभूते
अणुप्पगंथे संजमेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरिस्सइ, तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं नाणेणं अणुत्तरेणं दंसणेणं अणुत्तरेणं चरित्तेणं एवं आलएणं विहारेणं अजवेणं] मद्दवेणं] लाघवेणं] खंती[ए] मुत्ती[ए] गुत्ती[ए] सच्च
संजम-तवगुण-सुचरिय-सोचवियफलपरिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स 10 झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए जाव केवलवरणाणदंसणे
समुप्पजिहिति, तए णं से भगवं अरहा जिणे भविस्सति, केवली सव्वन्नू सव्वदरिसी सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स परियागं जाणइ पासइ, सव्वलोए सव्वजीवाणं आगतिं गतिं ठितिं चयणं उववायं तकं मणो माणसियं भुत्तं
कडं पडिसेवियं आवीकम्मं रहोकम्मं, अरहा अरहस्सभागी तं तं कालं 15 मणसवयसकाइए जोगे वट्टमाणाणं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरिस्सइ । तए णं से भगवं तेणं अणुत्तरेणं केवलवरनाणदंसणेणं सदेवमणुयासुरलोगं अभिसमेच्चा समणाणं निग्गंथाणं पंच महव्वताई सभावणाई छच्च जीवनिकाए धम्मं देसेमाणे विहरिस्सति ।।
से जहाणामते अजो ! मते समणाणं निग्गंथाणं एगे आरंभट्ठाणे पण्णत्ते, 20 एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं निग्गंथाणं एगं आरंभट्ठाणं पण्णवेहिति।
से जहाणामते अजो मते समणाणं निग्गंथाणं दुविधे बंधणे पन्नत्ते, तंजहापेज्जबंधणे त दोसबंधणे त, एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं दुविधं बंधणं पनवेहिती, तंजहा-पेजबंधणं च दोसबंधणं च ।।
से जहानामते अज्जो मए समणाणं निग्गंथाणं तओ दंडा पन्नत्ता, तंजहा25 मणोदंडे ३, एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं निग्गंथाणं ततो दंडे
पण्णवेहिति, तंजहा-मणोदंडं ३ ।
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
७९३ .
[सू० ६९३]
से जहाणामते एवमेतेणमभिलावेणं चत्तारि कसाया पन्नत्ता, तंजहाकोहकसाए ४ । पंच कामगुणा पन्नत्ता, तंजहा-सद्दा ५ । छज्जीवनिकाता पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइया जाव तसकाइया, एवामेव जाव तसकाइया ।
से जहाणामते आ[जो मए समणाणं निग्गंथाणं] सत्त भयट्ठाणा पन्नत्ता, तंजहा-एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं निग्गंथाणं सत्त भयट्ठाणे 5 पनवेहिती, एवमट्ठ भयट्ठाणे, णव बंभचेरगुत्तीओ, दसविधे समणधम्मे एवं जाव तेत्तीसमासातणाउ त्ति ।
से जधानामते अजो ! मते समणाणं निग्गंथाणं नग्गभावे मुंडभावे अण्हाणते अदंतवणते अच्छत्तए अणुवाहणते भूमिसेजा फलगसेजा कट्टसेज्जा केसलोए बंभचेरवासे परघरपवेसे लद्धावलद्धवित्तीओ पण्णत्ताओ, एवामेव 10 महापउमे वि अरहा समणाणं निग्गंथाणं णग्गभावं जाव लद्धावलद्धवित्ती पण्णवेहिती।
से जहाणामए अजो ! मए समणाणं निग्गंथाणं आधाकम्मिए ति वा उद्देसिते ति वा मीसजाए ति वा अज्झोयरए ति वा पूतिए [ति वा] कीते [ति वा] पामिच्चे [ति वा] अच्छेजे [ति वा] अणिसट्टे [ति वा] अभिहडे 15 ति वा कंतारभत्ते ति वा दुब्भिक्खभत्ते ति वा गिलाणभत्ते ति वा वद्दलिताभत्ते ति वा पाहणगभत्ते ति वा मूलभोयणे ति वा कंदभोयणे ति वा फलभोयणे ति वा बीयभोयणे ति वा हरियभोयणे ति वा पडिसिद्धे, एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं निग्गंथाणं आधाकम्मितं वा जाव हरितभोयणं वा पडिसेधिस्सति ।
20 ___ से जहाणामते अजो ! मए समणाणं पंचमहव्वतिते सपडिक्कमणे अचेलते धम्मे पण्णत्ते, एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं पंचमहव्वतितं जाव अचेलगं धम्मं पण्णवेहिती ।
से जधाणामते अजो ! मए सम[णाणं णिग्गंथाणं] पंचाणुव्वतिते सत्तसिक्खावतिते दुवालसविधे सावगधम्मे पण्णत्ते, एवामेव महापउमे वि 25 अरहा पंचाणुव्वतितं जाव सावगधम्मं पण्णवेस्सति ।
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ___ से जधानामए अज ! मए समणाणं निग्गंथाणं सेज्जातरपिंडे ति वा रायपिंडे ति वा पडिसिद्धे, एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं निग्गंथाणं सेज्जातरपिंडे ति वा रायपिंडे ति वा पडिसेधिस्सति ।
से जधाणामते अजो ! मम णव गणा एगारस गणधरा, एवामेव 5 महापउमस्स वि अरहतो णव गणा एगारस गणधरा भविस्संति ।
से जहाणामते अजो ! अहं तीसं वासाई अगारवासमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वतिते दुवालस संवच्छराई तेरस पक्खा छउमत्थपरियागं पाउणित्ता तेरसहिं पक्खेहिं ऊणगाइं तीसं वासाइं केवलिपरियागं पाउणित्ता
बायालीसं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता बावत्तरि वासाइं सव्वाउयं 10 पालइत्ता सिज्झिस्सं जाव दुक्खाणमंतं करेस्सं, एवामेव महापउमे वि अरहा
तीसं वासाई अगार जाव पव्वहिती, दुवालस संवच्छराई जाव बावत्तरिं वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिज्झिहिती जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिती
जस्सीलसमायारो, अरहा तित्थंकरो महावीरो ।
तस्सीलसमायारो, होति उ अरहा महापउमो ॥१४८॥ 15 [टी०] अनन्तरसूत्रोक्तस्य श्रेणिकस्य तीर्थकरत्वाभिधानायाह- एस णमित्यादि
जस्सीलसमायारो इत्यादिगाथापर्यन्तं सूत्रम्, सुगमं चैतत्, नवरम् एष: अनन्तरोक्त आर्या इति श्रमणामन्त्रणम्, भिंभि त्ति ढक्का, सा सारो यस्य स तथा, किल तेन कुमारत्वे प्रदीपनके जयढक्का गेहान्निष्काशिता तत: पित्रा भिंभिसार उक्त इति, सीमन्तके
नरकेन्द्रके प्रथमप्रस्तटवर्तिनि चतुरशीतिवर्षसहस्रस्थितिषु नारकेषु मध्ये 20 नारकत्वेनोत्पत्स्यते काल: स्वरूपेण, कालावभासः काल एवावभासते पश्यताम्,
यावत्करणात् गंभीरलोमहरिसे, गम्भीरो महान् लोमहर्षो भयविकारो यस्य स तथा, भीमो विकरालः, उत्तासणओ उद्वेगजनकः, परमकिण्हे वन्नेणं ति प्रतीतम्, स च तत्र नरके वेदनां वेदयिष्यति, उज्ज्वलां विपक्षस्य लेशेनाप्यकलङ्कितां यावत्करणात्
त्रीणि मनोवाक्कायबलानि उपरिमध्यमाधस्तनकायविभागान् वा तुलयति जयतीति त्रितुला, 25 ताम्, क्वचिद्विपुलामिति पाठः, तत्र विपुला शरीरव्यापिनी, ताम्, तथा प्रगाढां
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
[सू० ६९३]
"
प्रकर्षवतीम्, कटुकां कटुकरसोत्पादितां कर्कशां कर्कशस्पर्शसम्पादिताम्, अथवा कटुकद्रव्यमिव कटुकामनिष्टाम्, एवं कर्कशामपि चण्डां वेगवतीं झटित्येव मूर्च्छत्पादिकाम्, वेदना हि द्विविधा - सुखा दुःखा चेति, सुखाव्यवच्छेदार्थं दुःखामित्याह, दुर्गां पर्वतादिदुर्गमिव कथमपि लङ्घयितुमशक्याम्, दिव्यां देवनिर्मिताम्, किं बहुना ? दुरधिसहां सोढुमशक्यामिति ।
इहैव जम्बूद्वीपे, नासङ्ख्येयतमे, पुमत्ताए त्ति पुंस्तया पच्चायाहि त्ति प्रत्याजनिष्यते, बहुपडिपुन्नाणं ति अतिपरिपूर्णानामर्द्धमष्टमं येषु तान्यर्द्धाष्टमानि तेषु रात्रिन्दिवेषु अहोरात्रेषु व्यतिक्रान्तेषु, इह षष्ठी सप्तम्यर्थे, सुकुमारौ कोमलौ पाणी च पादौ च यस्य स सुकुमारपाणिपादः, तम्, प्रतिपूर्णानि स्वकीयस्वकीयप्रमाणतः प्रतिपुण्यानि वा पवित्राणि पञ्च इन्द्रियाणि करणानि यस्मिंस्तत्तथा, अहीन - 10 मङ्गोपाङ्गप्रमाणतः प्रतिपूर्णपञ्चेन्द्रियं प्रतिपुण्यपञ्चेन्द्रियं वा शरीरं यस्य सोऽहीनप्रतिपूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरः अहीनप्रतिपुण्यपञ्चेन्द्रियशरीरो वा, तम्, तथा लक्षणं पुरुषलक्षणं शास्त्राभिहितम् अस्थिष्वर्थाः सुखं मांसे [ ] इत्यादि, मानोन्मानादिकं वा, व्यञ्जनं मष - तिलकादि, गुणाः सौभाग्यादय:, अथवा लक्षण-व्यञ्जनयोर्ये गुणास्तैरुपेतो लक्षणव्यञ्जनगुणोपेतः, उववेओ त्ति तु प्राकृतत्वाद्वर्णागमतः, अथवा 15 उप अपेत इति स्थिते शकन्ध्वादिदर्शनादकारलोप इत्युपपेत इति लक्षणव्यञ्जनगुणोपेतः, तम्, लक्षण-व्यञ्जनस्वरूपमिदमुक्तम्
माम्माणपमाणादि लक्खणं वंजणं तु मसमाई । सहजं व लक्खणं वंजणं तु पच्छा समुप्पन्नं ॥ [
ति ।
लक्षणमेवाधिकृत्य विशेषणान्तरमाह- माणुम्माणेत्यादि, तत्र मानं 20 जलद्रोणप्रमाणता, सा ह्येवम् - जलभृते कुण्डे प्रमातव्यपुरुष उपवेश्यते, ततो यज्जलं कुण्डान्निर्गच्छति तद्यदि द्रोणप्रमाणं भवति तदा स पुरुष : मानोपपन्न इत्युच्यते, उन्मानं तुलारोपितस्यार्द्धभारप्रमाणता, प्रमाणम् आत्माङ्गुलेनाष्टोत्तरशताङ्गुलोच्छ्रयता, उक्तं चजलदोण १ मद्धभारं २ समुहाई समुस्सिओ व जो नव उ ३ ।
ति ।
माणुम्माणपमाणं तिविहं खलु लक्खणं एयं ॥ [
१. °याहि इति जे१ खं० ॥ २. “शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम्” - पा० वार्तिके पा० सि० ७९ || १ | १ | ६४ ॥
७९५
5
25
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ततश्च मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि सुष्ठ जातानि सर्वाण्यङ्गानि शिर:प्रभृतीनि यस्मिंस्तत् तथाविधं सुन्दरमङ्गं शरीरं यस्य स तथा, तं मानोन्मानप्रमाणप्रतिपूर्णसुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्गम्, तथा शशिवत् सौम्याकारं कान्तं कमनीयं प्रियं प्रेमावहं दर्शनं यस्य स शशिसौम्याकारकान्तप्रियदर्शनः, तम्, अत एव 5 सुरूपमिति दारकं प्रजनिष्यति भद्रेति सम्बन्धः । जं रयणिं च त्ति यस्यां च रजन्यां तं रयणिं च त्ति तस्यां रजन्यां पुनरिति, अर्द्धरात्र एव च तीर्थकरोत्पत्तिरिति रजनीग्रहणम् । से दारए पयाहिइ त्ति स दारकः प्रजनिष्यते उत्पत्स्यत इति, सभिंतरबाहिरए त्ति सहाभ्यन्तरेण बाह्यकेन च नगरभागेन यन्नगरं तत्र, सर्वनगर
इत्यर्थः, विंशत्या पलशतैर्भारो भवति अथवा पुरुषोत्क्षेपणीयो भारो भारक इति यः 10 प्रसिद्धः, अग्रं परिमाणम्, ततो भार एवाग्रं भाराग्रम्, तेन भाराग्रेण भाराग्रशो
भारपरिमाणतः, एवं कुम्भाग्रशः, नवरं कुम्भ आढकषष्ट्यादिप्रमाण:, पद्मवर्षश्च रत्नवर्षश्च वर्षिष्यति भविष्यतीत्यर्थः, जाव त्ति करणात् निव्वत्ते असुइजायकम्मकरणे संपत्ते त्ति दृश्यम्, तत्र निर्वृत्ते निर्वर्तित इत्यर्थः, पाठान्तरत: निवत्ते वा निवृत्ते उपरते
अशुचीनाम् अमेध्यानां जातकर्मणां प्रसवव्यापाराणां करणे विधाने, सम्प्राप्ते 15 आगते बारसाहदिवसे त्ति द्वादशानां पूरणो द्वादश: स एवाख्या यस्य स द्वादशाख्य:
स चासौ दिवसश्चेति विग्रहः, अथवा द्वादशं च तदहश्च द्वादशाहस्तन्नामको दिवसो द्वादशाहदिवस इति, अयं ति इदं वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षासन्नम् एयारूवं ति एतदेव रूपं स्वभावो यस्य न मात्रयापि प्रकारान्तरापन्नमित्यर्थः, किं तत् ? नामधेयं प्रशस्तं
नाम, किंविधम् ? गौणं न पारिभाषिकम्, गौणमित्यमुख्यमपि स्यादित्याह20 गुणनिप्फन्नं ति गुणानाश्रित्य पद्मवर्षादीन् निष्पन्नं गुणनिष्पन्नमित्यक्षरघटना, महापउमे
महापउमे त्ति तत्पित्रो: पर्यालोचनाभिलापानुकरणम् । तए णं ति पर्यालोचनानन्तरं महापउम इति महापद्म इत्येवंरूपम् ।।
साइरेगट्ठवासजायगं ति सातिरेकाणि साधिकान्यष्टौ वर्षाणि जातानि यस्य स तथा, तम् । रायवन्नओ त्ति राजवर्णको वक्तव्यः, स चायम्- महया हिमवंत25 महंतमलय-मंदर-महिंदसारे महता गुणसमूहेनान्तर्भूतभावप्रत्ययत्वाद्वा महत्तया
१. सर्वत्र नगर पा० जे२ ॥ २. प्रमाणं पा० जे२ ॥
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
[सू० ६९३]
हिमवांश्च वर्षधरपर्वतः, महांश्चासौ मलयश्च विन्ध्य इति चूर्णिकारः, महामलयः स च मन्दरश्च मेरुः, महेन्द्रश्च शक्रादिः, ते इव सारः प्रधानो यः स तथा । अच्छंतविसुद्धदीहरायकुलवंसप्पसूए, अत्यन्तविशुद्धः सर्वथा निर्दोषः दीर्घश्च पुरुषपरम्परापेक्षया यो राज्ञां भूपालानां कुललक्षणो वंशः सन्तानस्तत्र प्रसूतो जातो यः स तथा । निरंतरं रायलक्खणविराइयंगुवंगे नैरन्तर्येण राजलक्षणै: 5 चक्र-स्वस्तिकादिभिर्विराजितान्यङ्गानि शिरः प्रभृतीन्युपाङ्गानि च अङ्गुल्यादीनि यस्य स तथा । बहुजणबहुमाणपूड़ए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुदिए त्ति प्रतीतम् । मुद्धाभिसित् पितृ-पितामहादिभिर्मूर्द्धन्यभिषिक्तो यः स तथा । माउपिउसुजाए सुपुत्रो विनीतत्वादिनेत्यर्थः, दयप्पत्ते दयाप्राप्तो दयाकारीत्यर्थः, सीमंकरे मर्यादाकारी, सीमंधरे मर्यादां पूर्वपुरुषकृतां धारयति नात्मनापि लोपयति यः स तथा, खेमंकरे नोपद्रवकारी, 10 खेमंधरे क्षेमं धारयत्यन्यकृतमिति यः स तथा, माणुस्सिंदे, जणवयपिया लोकपिता वत्सलत्वात्, जणवयपुरोहिए जनपदस्य पुरोधाः पुरोहितः, शान्तिकारीत्यर्थः, सेतुकरे सेतुं मार्गमापद्गतानां निस्तरणोपायं करोति यः स तथा, केतुकरे चिह्नकरः अद्भुतकारित्वादिति । नरपवरे नरै: प्रवरः नरा वा प्रवरा यस्य स तथा पुरिसवरे पुरुषप्रधान:, पुरिससीहे शौर्याद्यधिकतया, पुरिसआसीविसे शापसमर्थत्वात्, 15 पुरिसपुंडरीए पूज्यत्वात् सेव्यत्वाच्च, पुरिसवरगंधहत्थी शेषराजगजविजयित्वात्, अड्ढे धनेश्वरत्वात्, दित्ते दर्पवत्त्वात्, वित्ते प्रसिद्धत्वात्, वित्थिन्नविपुलभवणसयणासणजाणवाहणान्ने पूर्ववत्, बहुधणबहुजायरूवरयए, आओगपओगसंपउत्ते, आयोगप्रयोगा द्रव्यार्जनोपायविशेषाः सम्प्रयुक्ताः प्रवर्त्तिता येन स तथा, विच्छड्डियपउरभत्तपाणे, बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए, 20 पडिपुन्नजंत- कोस- कोट्ठागारा - ऽऽयुहागारे, यन्त्राणि जलयन्त्रादीनि, कोश: श्रीगृहम्, कोष्ठागारं धान्यागारम्, आयुधागारं प्रहरणकोशः, बलवं हस्त्यादिसैन्ययुक्तः, दुब्बलपच्चामित्ते अबलप्रातिवेशिकराजः । ओहयकंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटयं एवं ओहयसत्तु ५, उपहता राज्यापहारात् निहता मारणात् मलिता मानभञ्जनादुद्धृता देशनिष्काशनात् कण्टका दायादा यत्र राज्ये तत्तथा, अत 25
७९७
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
७९८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे एवाऽकण्टकम्, एवं शत्रवोऽपि, नवरं शत्रवस्तेभ्योऽन्ये, पराइयसत्तुं विजयवत्त्वादिति, ववगयदुब्भिक्खं मारिभयविप्पमुक्कं खेमं सिवं सुभिक्खं पसन्नडिंब-डमरम्, डिम्बानि विघ्ना डमराणि कुमारादिव्युत्थानादीनि, रजं पसासेमाणे त्ति पालयन् विहरिस्सइ त्ति। 5 दो देवा महिड्डिया इत्यत्र यावत्करणात् महज्जुइया महाणुभागा महायसा महाबलेति दृश्यम्, सेणाकम्मं ति सेनायाः सैन्यस्य कर्म व्यापार: शत्रुसाधनलक्षण: सेनाविषयं वा कर्म इतिकर्तव्यतालक्षणं सेनाकर्म, पूर्णभद्रश्च दक्षिणयक्षनिकायेन्द्रः माणिभद्रश्च उत्तरयक्षनिकायेन्द्रः । बहवे राईसरेत्यादि, राजा महामाण्डलिकः, ईश्वरो
युवराजो माण्डलिकोऽमात्यो वा, अन्ये तु व्याचक्षते- अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्त ईश्वर 10 इति, तलवर: परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धभूषितः, माडम्बिकः छिन्नमडम्बाधिपः,
कौटुम्बिकः कतिपयकुटुम्बप्रभुः, इभ्य: अर्थवान्, स च किल यदीयपुञ्जीकृतद्रव्यराश्यन्तरितो हस्त्यपि नोपलभ्यत इत्येतावताऽर्थेनेति भावः, श्रेष्ठी श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टभूषितोत्तमाङ्ग: पुरज्येष्ठो वणिक्, सेनापति: नृपतिनिरूपितो हस्त्यश्व
-रथ-पदातिसमुदायलक्षणाया: सेनाया: प्रभुरित्यर्थः, सार्थवाहकः सार्थनायकः, 15 एतेषां द्वन्द्वः, ततश्च राजादयः प्रभृति: आदिर्येषां ते तथा । देवसेणे त्ति देवावेव सेना
यस्य देवाधिष्ठिता वा सेना यस्य स देवसेन इति, देवसेणातीति देवसेन इत्येवंरूपम्। सेतेत्यादि, श्रेयान् अतिप्रशस्य: श्वेतो वा, कीदृगित्याह- शङ्खतलेन कम्बुरूपेण विमलेन पङ्कादिरहितेन सन्निकाशः सङ्काशः सदृशो य: स शङ्खतल
विमलसन्निकाशः, दुरूढे त्ति आरूढ: समाणे त्ति सन् अतियास्यति प्रवेक्ष्यति 20 निर्यास्यति निर्गमिष्यतीति, क्वचिद्वर्त्तमाननिर्देशो दृश्यते स च तत्कालापेक्ष इति, एवं सर्वत्र ।
गुरुमयहरएहिं ति गुर्वो: मातापित्रोर्महत्तरा: पूज्या: अथवा गौरवार्हत्वेन गुरवो १. महड्डिया जे१ ॥ २. त्ति जे१ खं० पामू० ॥ ३. पूर्णभद्रश्च किंनरनिकायेन्द्रः माणिभद्रश्च किंपुरुषनिकायेन्द्रः
जे१ ।। ४. मंडलिकः ईश्वरो युवराजो माण्डलिको जे१ खं० । 'मंडलिकः ईश्वरो युवराजो मंडलिको पा० जे२ । दृश्यतां सू० १५८ टीका । अनुयोगद्वार० सू० २० टीका ॥ ५. अन्ये च व्या० पा० जे २ । द्दश्यताम् अनुयोगद्वार० सू० २० चूर्णिः ।। ६ °सेणो जे१ खं० ॥ ७. संकाश: नास्ति जे१ पामू०॥
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६९३] नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
७९९ महत्तराश्च वयसा वृद्धत्वाद्ये ते गुरुमहत्तरा: । पुणरवि त्ति महत्तराभ्यनुज्ञानानन्तरं लोकान्ते लोकाग्रलक्षणे सिद्धस्थाने भवा लौकान्तिकाः, भाविनि भूतवदुपचारन्यायेन चैवं व्यपदेशः, अन्यथा ते कृष्णराजीमध्यवासिनः, लोकान्तभावित्वं च तेषामनन्तरभव एव सिद्धिगमनादिति । जीतकल्प: आचरितकल्पो जिनप्रतिबोधनलक्षणो विद्यते येषां ते जीतकल्पिका:, आचरितमेव तेषामिदम्, न तु तैस्तीर्थकरः प्रतिबोध्यते, 5 स्वयंबुद्धत्वाद्भगवत इति । ताहिं ति ताभिर्विवक्षिताभि: वग्गूहिं ति वाग्भिर्यकाभिरानन्द उत्पद्यत इति भावः, इष्टाभिः इष्यन्ते स्म या:, कान्ताभिः कमनीयाभिः, प्रियाभिः प्रेमोत्पादिकाभिः, विरूपा अपि कारणवशात् प्रिया भवन्तीत्यत उच्यते- मनोज्ञाभिः शुभस्वरूपाभिः, मनोज्ञा अपि शब्दतोऽर्थतो न हृदयङ्गमा भवन्तीत्याह- मणामाहिं ति मन: अमन्ति गच्छन्ति यास्ता: तथा, ताभिः, उदारेण उदात्तेन स्वरेण प्रयुक्तत्वादर्थेन 10 वा युक्तत्वादुदाराभिः, कल्यम् आरोग्यम् अणन्ति शब्दयन्तीति कल्याणा:, ताभिः, शिवस्य उपद्रवाभावस्य सूचकत्वाच्छिवाभिः, धनं लभन्ते धने वा साध्व्यो धन्याः, ताभिः, मङ्गले दुरितक्षये साध्व्यो मङ्गल्याः, ताभिः, सह श्रिया वचनार्थशोभया यास्ताः सश्रीकाः, ताभिः, वाग्भिरिति सम्बन्धितम्, अभिनन्द्यमान: समुल्लास्यमान:, बहिय त्ति नगराद् बहिस्तादिति ।
इतो वाचनान्तरमनुसृत्य लिख्यते- साइरेगाई ति अर्द्धसप्तमैर्मासैादश वर्षाणि यावत् व्युत्सृष्टे काये परिकर्मवर्जनतः, त्यक्ते देहे परीषहादिसहनतः, तथा सक्ष्यति उत्पत्स्यमानेषूपसर्गेषु भयाभावतः, क्षमिष्यत्युत्पन्नेषु क्रोधाभावत:, तितिक्षिष्यति दैन्याभावत:, अध्यासिष्यते अविचलतयेति, जाव गुत्ते त्ति करणादिदं दृश्यम्एसणासमिए, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए भाण्डमात्राया आदाने निक्षेपे च 20 समित इत्यर्थः, उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्लपारिट्ठावणियासमिए, खेलो निष्ठीवनम्, सिंघाणो नासिकाश्लेष्मा, जल्लो मल:, मणगुत्ते वइगुत्ते कायगुत्ते, गुत्ते गुप्तत्वाद् त्रिगुप्तात्मेत्यर्थः, गुत्तिदिए स्वविषयेषु रागादिनेन्द्रियाणामप्रवृत्तेः, गुत्तबंभचारी गुप्तं नवभिर्ब्रह्मचर्यगुप्तिभी रक्षितं ब्रह्म मैथुनविरमणं चरतीति विग्रहः, तथा अममे अविद्यमान ममे'त्यभिलापो निरनुषङ्गत्वात्, अकिंचणे नास्ति किञ्चनं द्रव्यं यस्य स 25 १. लोका' पा० जे२ ॥ २. गुत्ते त्ति गुप्त' जे१ ॥ ३. किंचणं पा० जे२ ।.
15
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
८००
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तथा, छिन्नगंथे छिन्नो ग्रन्थो धन-धान्यादिस्तत्प्रतिबन्धो वा येन स तथा, क्वचित् किण्णगंथे इति पाठस्तत्र कीर्णः क्षिप्त:, निरुवलेवे द्रव्यतो निर्मलदेहत्वात् भावतो बन्धहेत्वभावान्निर्गत उपलेपो यस्मादिति निरुपलेपः, एतदेवोपमानैरभिधीयतेकंसपातीव मुक्कतोये कांस्यपात्रीव कांस्यभाजनविशेष इव मुक्तं त्यक्तं न लग्नमित्यर्थः, 5 तोयमिव बन्धहेतुत्वात्तोयं स्नेहो येन स मुक्ततोयः, यथा भावनायामाचाराङ्गद्वितीय
श्रुतस्कन्धपञ्चदशाध्ययने तथा अयं वर्णको वाच्य इति भावः, कियदूरं यावदित्याहजाव सुहुयेत्यादि,सुष्ठ हुतं क्षिप्तं घृतादीति गम्यते यस्मिन् स सुहुतः, स चासौ हुताशनश्च वह्निरिति सुहुतहुताशनस्तद्वत्तेजसा ज्ञानरूपेण तपोरूपेण वा ज्वलन् दीप्यमानः । ___ अतिदिष्टपदानां सङ्ग्रहं गाथाभ्यामाह- कंसे गाहा, कुंजर गाहा, कंसे त्ति 10 कंसपाईव मुक्कतोये, संखे त्ति संखे इव निरङ्गणे रङ्गणं रागाद्युपरञ्जनम्, तस्मानिर्गत
इत्यर्थः, जीवे त्ति जीव इव अप्पडिहयगई संयमे गति: प्रवृत्तिर्न हन्यते अस्य कथञ्चिदिति भावः, गगणे त्ति गयणमिव निरालंबणे न कुल-ग्रामाद्यालम्बन इति भाव:, वाये य त्ति वायुरिव अप्पडिबद्धे ग्रामादिष्वेकरात्रादिवासात्, सारयसलिले
त्ति सारयसलिलं व सुद्धहियए अकलुषमनस्त्वात्, पुक्खरपत्ते त्ति पुक्खरपत्तं पिव 15 निरुवलेवे प्रतीतम्, कुम्मे त्ति कुम्मो इव गुत्तिदिए, कच्छपो हि कदाचिदवयवपञ्चकेन
गुप्तो भवत्येवमसावपीन्द्रियपञ्चकेनेति, विहगे त्ति विहग इव विप्पमुक्के मुक्तपरिच्छदत्वादनियतवासाच्चेति, खग्गे य त्ति खग्गिविसाणं व एगजाए, खड्ग: आटव्यो जीवस्तस्य विषाणं शृङ्गं तदेकमेव भवति तद्वदेकजात: एकभूतो रागादिसहाय
वैकल्यादिति, भारंडे त्ति भारंडपक्खीव अप्पमत्ते भारण्डपक्षिणो: किलैकं शरीरं 20 पृथग्ग्रीवं त्रिपादं च भवति, तौ चात्यन्तमप्रमत्ततयैव निर्वाहं लभेते इति तेनोपमेति ॥१॥
कुंजरे त्ति कुंजरो इव सोंडीरे हस्तीव शूरः कषायादिरिपून प्रति, वसभे त्ति वसभो इव जायथामे गौरिवोत्पन्नबल:, प्रतिज्ञातवस्तुभरनिर्वाहक इत्यर्थः, सीहे त्ति सीहो १. सम्प्रति आचाराङ्गसूत्रे पाठोऽयं नैवोपलभ्यते । किन्तु आचाराङ्गचूर्णिकृतां समक्षं पाठोऽयमासीदेव, अस्माभिः
सम्पादितस्य संशोधितस्य चाचाराङ्गसूत्रस्य महावीरजैनविद्यालयेन विक्रमसं० २०३३ मध्ये प्रकाशितस्य ७७१ तमसूत्रोपरि सप्तमे टिप्पने विस्तरेणास्माभिरावेदितमस्ति एतत् । जिज्ञासुभिः तत्रैव द्रष्टव्यम् ॥ २. पुक्खरपत्तं व नि जे१ ॥ ३. पासं० विना- विहगो त्ति जे१ पामू० । विहग त्ति खंमू०, विहगि त्ति खंसं० जे२॥ ४. भारुड जे१ ॥
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६९३] नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
८०१ इव दुद्धरिसे परीषहादिभिरनभिभवनीय इत्यर्थः, नगराया चेव त्ति मंदरो इव अप्पकंपे मेरुरिवानुकूलाद्युपसर्गेरविचलितसत्त्वः, सागरमक्खोहे त्ति मकारोऽलाक्षणिकः सागरवदक्षोभः सागराक्षोभ इति सूत्रसूचा, सूत्रं च सागरो इव गंभीरे हर्षशोकादिभिरक्षोभितत्वादिति, चंदे त्ति चंदे इव सोमलेसे अनुपतापकारिपरिणाम:, सूरे त्ति सूरे इव दित्ततेए, दीप्ततेजा द्रव्यत: शरीरदीप्त्या भावतो ज्ञानेन, कणगे त्ति 5 जच्चकणगं पिव जायरूवे, जातं लब्धं रूपं स्वरूपं रागादिकुद्रव्यविरहाद् येन स तथा, वसुंधरा चेव त्ति वसुंधरा इव सव्वफासविसहे, स्पर्शाः शीतोष्णादयोऽनुकूलेतरा:, सुहुयहुए त्ति व्याख्यातमेवेति ।
नत्थीत्यादि, नास्ति तस्य भगवतो महापद्मस्यायं पक्षः, यदुत कुत्रापि प्रतिबन्धः स्नेहो भविष्यतीति, अंडए इ व त्ति अण्डजो हंसादिः ममायमित्युल्लेखेन वा प्रतिबन्धो 10 भवति, अथवा अण्डकं मयूर्यादीनामिदं रमणकं मयूरादेः कारणमिति प्रतिबन्ध: स्यादिति, अथवाऽण्डजं पट्टसूत्रजमिति वा, पोतजो हस्त्यादिरयमिति वा प्रतिबन्ध: स्यात्, अथवा पोतको बालक इति वा, अथवा पोतकं वस्त्रमिति वा प्रतिबन्ध: स्यात्, आहारेऽपि च विशुद्धे सरागसंयमवत: प्रतिबन्ध: स्यादिति दर्शयति- उग्गहिए इ व त्ति अवगृहीतं परिवेषणार्थमुत्पाटितं प्रगृहीतं भोजनार्थमुत्पाटितमिति, अथवा 15 अवग्रहिकमिति अवग्रहोऽस्यास्तीति वसति-पीठफलकादि, औपग्रहिकं वा दण्डकादिकमुपधिजातम्, तथा प्रकर्षेण ग्रहोऽस्येति प्रग्रहिकम् औधिकमुपकरणं पात्रादीति, अथवा अण्डजे वा पोतजे वेत्यादि व्याख्येयमिकारस्त्वागम इति ।
जन्नं ति यां यां दिशं णमिति वाक्यालङ्कारे नुशब्दो वा अयं तदर्थ एव, इच्छति तदा विहर्तुमिति शेष:, तां तां दिशं स विहरिष्यतीति सम्बन्धः, सप्तम्यर्था वेयं द्वितीया 20 तस्यां तस्यामित्यर्थः, शुचिभूतो भावशुद्धितो लघुभूतोऽनुपधित्वेन गौरवत्यागेन वा अणुप्पग्गंथे त्ति अनुरूपतया औचित्येन विरतेन त्वपुण्योदयादणुरपि वा सूक्ष्मोऽप्यल्पोऽपि प्रगतो ग्रन्थो धनादिर्यस्य यस्माद्वाऽसावनुप्रग्रन्थ: अपेर्तृत्त्यन्तर्भूतत्वादणुप्रग्रन्थो वा, अथवा अणुप्प त्ति अनl: अनर्पणीयः अढौकनीय: परेषामाध्यात्मिकत्वात् ग्रन्थवत् द्रव्यवत् ग्रन्थो ज्ञानादिर्यस्य सोऽनर्ण्यग्रन्थ इति । भावेमाणे त्ति वासयन्नित्यर्थः । 25 अणुत्तरेणं ति नास्त्युत्तरं प्रधानमस्मादित्यनुत्तरं तेन, एवमिति अनुत्तरेणेति १. अंडए ए व त्ति जे१मध्ये नास्ति ।
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे विशेषणमुत्तरत्रापि सम्बन्धनीयमित्यर्थः, आलयेन वसत्या विहारेणैकरात्रादिना, आर्जवादय: क्रमेण माया-मान-गौरव-क्रोध-लोभनिग्रहाः, गुप्तिर्मन:प्रभृतीनाम्, तथा सत्यं च द्वितीयं महाव्रतं संयमश्च प्रथमं तपोगुणाश्च अनशनादयः सुचरितं सुष्ठवासेवितं सोयवियं ति प्राकृतत्वाच्छौचं च तृतीयं महाव्रतम्, अथवा विय त्ति विच्च विज्ञानमिति 5 द्वन्द्वस्ततश्चैतान्येवैत एव वा फल त्ति फलप्रधान: परिनिर्वाणमार्गो निर्वृतिनगरीपथ: सत्यादिपरिनिर्वाणमार्गस्तेन । ध्यानयोः शुक्लध्यानद्वितीयतृतीयभेदलक्षणयोरन्तरं मध्यं ध्यानान्तरं तदेव ध्यानान्तरिका, तस्यां वर्त्तमानस्य, शुक्लस्य द्वितीयाद्रेदादुत्तीर्णस्य तृतीयमप्राप्तस्येत्यर्थः, अनन्तमनन्तविषयत्वात्, अनुत्तरं सर्वोत्तमत्वात्, निर्व्याघातं
धरणीधरादिभिरप्रतिहतत्वात्, निरावरणं सर्वावरणापगमात्, कृत्स्नं सर्वार्थविषयत्वात्, 10 प्रतिपूर्ण स्वरूपत: पौर्णमासीचन्द्रवत्, केवलमसहायमत एव वरं ज्ञानदर्शनं प्रतीतं
केवलवरज्ञानदर्शनमिति । अरह त्ति अर्हन् अष्टविधमहाप्रातिहार्यरूपपूजायोगात्, जिनो रागादिजेतृत्वात्, केवली परिपूर्णज्ञानादित्रययोगात्, सर्वज्ञः सर्वविशेषार्थबोधात्, सर्वदर्शी सकलसामान्यार्थावबोधात्, ततश्च सह देवैश्च वैमानिक-ज्योतिष्कलक्षणैर्मत्यैश्च
मनुजैरसुरैश्च भवनपति-व्यन्तरलक्षणैर्यः स सदेवमासुरस्तस्य, लोकः 15 पञ्चास्तिकायात्मकस्तस्य, परियागं ति जातावेकवचनमिति पर्यायान् विचित्रपरिणामान्
जाणइ पासइ त्ति ज्ञास्यति द्रक्ष्यति चेत्यर्थः, एतच्च देवादिग्रहणं प्रधानापेक्षमन्यथा सर्वजीवानां सर्वपर्यायान् ज्ञास्यति, अत एवाह- सव्वलोए इत्यादि । चयणं ति वैमानिक-ज्योतिष्कमरणम्, उपपातं नारक-देवानां जन्म, तर्क वितर्कं विमर्शम्, मन: चित्तम्, मनसि भवं मानसिकं चिन्तितं वस्तु, भुक्तमोदनादि, कृतं घटादि, प्रतिषेवितम् 20 आसेवितं प्राणिवधादि, आविष्कर्म प्रकटक्रियाम्, रहःकर्म विजनव्यापारम्,
ज्ञास्यतीत्यनुवर्तते, तथा अरहा न विद्यते रहो विजनं यस्य सर्वज्ञत्वादसावरहाः, अत एव रहस्यस्य प्रच्छन्नस्याभावोऽरहस्यम्, तद् भजत इत्यरहस्यभागी तं तं कालम् आश्रित्येति शेष:, सप्तमी वेयमतस्तस्मिंस्तस्मिन् काल इत्यर्थः, मणसवयसकाइए त्ति मानसश्च वाचसश्च कायिकश्च मानस-वाचस-कायिकं तत्र योगे व्यापारे, हस्वत्वं 25 च प्राकृतत्वादिति, वर्तमानानाम्, व्यवस्थितानां सर्वभावान् सर्वपरिणामान् जानन्
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६९३] नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
८०३ पश्यन् विहरिष्यति, अभिसमेच्च त्ति अभिसमेत्य अवगम्य, सभावणाई ति सह भावनाभिः प्रतिव्रतं पञ्चभिरीर्यासमित्यादिभिर्यानि तानि सभावनानि, तासां च स्वरूपमावश्यकान्मन्तव्यम्, षड्जीवनिकायान् रक्षणीयतया, धम्मं ति एवंरूपं चारित्रात्मकं सुगतौ जीवस्य धारणाद् धर्मं श्रुतधर्मं च देशयन् प्ररूपयन्निति ।
अथ महापद्मस्यात्मनश्च सर्वज्ञत्वात् सर्वज्ञयोश्च मताभेदाद् भेदे 5 चैकस्यायथावस्तुदर्शनेनासर्वज्ञताप्रसङ्गादित्युभयोर्भगवान् समां वस्तुप्ररूपणां दर्शयन्नाहसे जहेत्यादि, से इत्यथार्थो अथशब्दश्च वाक्योपन्यासार्थः, यथेत्युपमार्थः, नामए त्ति वाक्यालङ्कारे, अजो त्ति हे आर्या: ! शिष्यामन्त्रणम्, एगे आरंभट्ठाणे त्ति आरम्भ एव स्थानं वस्तु आरम्भस्थानमेकमेव तत् प्रमत्तयोगलक्षणत्वात् तस्य, यदाह- सव्वो पमत्तजोगो समणस्स उ होइ आरंभो [ ] इति, इत: शेषमावश्यके प्राय: प्रसिद्धमिति 10 न लिखितम् ।
तथा फलकं प्रतलमायतम्, काष्ठं स्थूलमायतमेव, लब्धानि च सन्मानादिनाऽपलब्धानि च न्यक्कारपूर्वकतया यानि भक्तादीनि तैर्वृत्तयो निर्वाहा लब्धापलब्धवृत्तयः, आहाकम्मिए इ व त्ति आधाय आश्रित्य साधून कर्म सचेतनस्याचेतनीकरणलक्षणा अचेतनस्य वा पाकलक्षणा क्रिया यत्र भक्तादौ 15 तदाधाकर्म, तदेवाधाकर्मिकम्, उक्तं च
सच्चित्तं जमचित्तं साहूणऽट्ठाए कीरए जं च । अचित्तमेव पच्चई आहाकम्मं तयं भणियं ॥ [पञ्चा० १३।७] ति ॥ इह चेकार: सर्वत्रागमिकः इतिशब्दो वाऽयमुपप्रदर्शनार्थपरः, वा विकल्पार्थः, उद्देसियं ति अर्थिन: पाषण्डिन: श्रमणानिर्ग्रन्थान् वोद्दिश्य दुर्भिक्षात्ययादौ यद्भक्तं 20 वितीर्यते तदौद्देशिकमिति, उद्देशे भवमौदेशिकमिति शब्दार्थः, यद्वा तथैव यदुद्वरितं सद् दध्यादिभिर्विमिथ्रय दीयते तापयित्वा वा तदपि तथैवेति, इहाभिहितम्
उद्दिसिय साहुमाई ओमच्चय भिक्खवियरणं जं च ।। उव्वरियं मीसेउं तविउ उद्देसियं तं तु ॥ [पञ्चा० १३।८] इति ।
मीसजाए व त्ति गृहि-संयतार्थमुपस्कृततया मिश्रं जातम् उत्पन्नं मिश्रजातम्, 25 १. अच्चित्तमेव पच्चइ जे१ । अचित्तमेव पच्चइ पा० जे२ ॥ २. गाथेयं पञ्चवस्तुकेऽपि विद्यते ७४२ ॥
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे यदाह- पढमं चिय गिहि-संजयमीसं उवक्खडइ मीसं तु ॥ [पञ्चा० १३।९] इति । __ अज्झोयरए त्ति स्वार्थमूलाद्रहणे साध्वाद्यर्थं कणप्रक्षेपणमध्यवपूरकः, आह चसट्ठा मूलद्दहणे अज्झोयर होइ पक्खेवो ॥ [पञ्चा० १३।१५] इति । पूइए त्ति शुद्धमपि कर्माद्यवयवैरपवित्रीकृतं पूतिकम्, उक्तं च- कम्मावयवसमेयं संभाविजइ जयं तु तं 5 पूइ। [पञ्चा० १३।९] त्ति । कीए त्ति द्रव्येण भावेन वा क्रीतं स्वीकृतं यत्तत् क्रीतमिति, यतोऽभ्यधायि– दव्वाइएहिं किणणं साहूणट्ठाए कीयं तु ॥ [पञ्चा० १३।११] इति । पामिच्चं अपमित्यकं साध्वर्थमुद्धारगृहीतम्, यतोऽभिहितम्- पामिच्चं साहूणं अट्ठा उच्छिंदिउं दियावेइ। [पञ्चा० १३।१२] इति । आच्छेद्यं बलाद् भृत्यादिसत्कमाच्छिद्य यत् स्वामी साधवे
ददाति, भणितं च- अच्छेजं चाच्छिंदिय जं सामी भिच्चमाईणं ॥ [पञ्चा० १३।१४] ति। 10 अनिसृष्टं साधारणं बहूनामेकादिना अननुज्ञातं दीयमानम्, आह च- अणिसटुं सामन्नं
गोट्ठियमाईण दयउ एगस्स । [पञ्चा० १३।१५] इति । अभ्याहृतं स्वग्रामादिभ्य आहृत्य यद्ददाति, यतोऽवाचि- सग्गामपरग्गामा जमाणियं अभिहडं तयं होइ । [पञ्चा० १३।१३] इति। एषां शब्दार्थः प्राय: प्रकट एवेति ।
कान्तारभक्तादय आधाकादिभेदा एव, तत्र कान्तारम् अटवी, तत्र भक्तं भोजनं 15 यत् साध्वाद्यर्थं तत्तथा, एवं शेषाण्यपि, नवरं ग्लानो रोगोपशान्तये यद्ददाति ग्लानेभ्यो
वा यद् दीयते । तथा वईलिका मेघाडम्बरम्, तत्र हि वृष्ट्या भिक्षाभ्रमणाक्षमो भिक्षुकलोको भवतीति गृही तदर्थं विशेषतो भक्तं दानाय निरूपयतीति । प्राघुणका:
आगन्तुका: भिक्षुका एव, तदर्थं यद्भक्तं तत्तथा, प्राघूर्णको वा गृही स यद्दापयति तदर्थं
संस्कृत्य तत्तथा । तथा मूलं पुनर्नवादीनाम्, तस्य भोजनं तदेव वा भोजनम्, भुज्यत 20 इति भोजनमिति कृत्वा, कन्दः सूरणादिः, फलं त्रपुष्यादि, बीजं दाडिमादीनाम्, हरितं
मधुरतृणादिविशेष:, जीववधनिमित्तत्वाच्चैषां प्रतिषेध इति । पंचमहव्वइए इत्यादि, प्रथम-पश्चिमतीर्थकराणां हि पञ्च महाव्रतानि शेषाणां महाविदेहजानां च चत्वारीति पञ्चमहाव्रतिकः, एवं सह प्रतिक्रमणेन उभयसन्ध्यमावश्यकेन य: स तथा, अन्येषां तु कारणजात एव प्रतिक्रमणमिति, उक्तं च१. मीसगं तु जे२ ॥ २. तथा नास्ति पा० जे२ ॥
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६९३] नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
८०५ सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिक्कमणं ॥ [आव० नि० १२५८, बृहत्क० ६४२५] ति।
तथा अविद्यमानानि जिनकल्पिकविशेषापेक्षया असत्त्वादेव, स्थविरकल्पिकापेक्षया तु जीर्ण-मलिन-खण्डित-श्वेता-ऽल्पत्वादिना, चेलानि वस्त्राणि यस्मिन् स तथा, धर्म: चारित्रम्, न च सति चेले अचेलता न लोके प्रतीता, यत उक्तम्
जह जलमवगाहंतो बहुचेलो वि सिरवेढियकडिल्लो । भन्नइ नरो अचेलो तह मुणओ संतचेला वि ॥ [विशेषाव० २६००], अत:परिसुद्धजुन्नकुच्छियथोवानिययन्नभोगभोगेहिं । मुणओ मुच्छारहिया संतेहिं अचेलया होंति ॥ [विशेषाव० २५९९]
अनियतैरन्यभोगे च सति भोग्यरित्यर्थः । न च वस्त्रं संसक्ति-रागादिनिमित्ततया 10 चारित्रविघाताय, अध्यात्मशुद्धेः, शरीरा-ऽऽहारादिवदिति, न हि शरीराङ्कादिसंसक्तिर्न भवति रागो वा नोत्पद्यते, उक्तं च
अह कुणसि थुल्लवत्थाइएसु मुच्छ धुवं सरीरे वि । अक्केजदुल्लभतरे काहिसि मुच्छं विसेसेणं ॥ [विशेषाव० २५६४] ति । अक्रयणीये इत्यर्थः । अध्यात्मशुद्ध्यभावेऽचेलकत्वमपि न चारित्राय, यथोक्तम्- 15 अपरिग्गहा वि परसंतिएसु मुच्छा-कसायदोसेहिं । अविणिग्गहियप्पाणो कम्ममलमणंतमजंति ॥ [विशेषाव० २५६६] इति । जिनोदाहरणादचेलकत्वमेव श्रेय इति न वक्तव्यमेतत्, यतोऽभ्यधायिन परोवएसवसया न य छउमत्था परोवएस पि । दिति न य सीसवग्गं दिक्खंति जिणा जहा सव्वे ॥ तह सेसेहि य सव्वं कजं जइ तेहिं सव्वसाहम्मं ।। एवं च कओ तित्थं ? न चेदचेल त्ति को गाहो ? ॥ [विशेषाव० २५८८-८९] ।
अपि च, उचितचेलसद्भावे चारित्रधर्मो भवत्येव तदुपकारित्वाच्छरीराऽऽहारादिवदिति । अथ कथं चेलस्य चारित्रोपकारितेति चेत, उच्यते, शीतादित्राणतो जीवसंसक्तिनिमित्ततणपरिहारादिहेतुत्वात्, उक्तं च
25 १. शरी[रे?]यूकादि जे१ । शरीराथूतिकादि खं० ॥
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
तणगहणानलसेवानिवारणा धम्मसुक्कझाणट्ठा । दिळं कप्पग्गहणं गिलाणमरणट्ठया चेव ॥ [ओघनि० ७०६, पञ्चव० ८१३] इति । तथा सेजायरे त्ति शेरते यस्यां साधव: सा शय्या, तया तरति भवसागरमिति शय्यातरो वसतिदाता, तस्य पिण्डो भक्तादिः शय्यातरपिण्डः, स च अशनादि ४ 5 वस्त्रादिः ४ सूच्यादि ४ श्चेति, तद्ग्रहणे दोषास्त्वमी
तित्थंकरपडिकुट्ठो अन्नायं उग्गमो वि य न सुज्झे । अविमुत्ती अलाघवता दुल्लहसेज्जा विउच्छेओ ॥ [पञ्चा० १७।१८] इति । राज्ञः चक्रवर्त्तिवासुदेवादे: पिण्डो राजपिण्डः ।
इदानीमुभयोरपि जिनयो: समानतानिगमनार्थमाह- जस्सील गाहा, यौ शील10 समाचारौ स्वभावा-ऽनुष्ठाने यस्य स यच्छीलसमाचारः, तावेव शील-समाचारौ यस्य स तथेति । [सू० ६९४] णव नक्खत्ता पच्छंभागा पन्नत्ता, तंजहाअभिती समणो धणिट्ठा, रेवति अस्सोति मिगसिरं पूसो ।
हत्थो चित्ता य तधा, पच्छंभागा णव हवंति ॥१४९॥ 15 [टी०] महापद्मजिनो हि महावीरवदुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रजन्मादिव्यतिकर इति
नक्षत्रसम्बन्धानक्षत्रसूत्रं कण्ठ्यं च, नवरं पच्छंभाग त्ति पश्चाद्भागश्चन्द्रेण भोगो येषां तानि पश्चाद्भागानि चन्द्रोऽतिक्रम्य यानि भुङ्क्ते, पृष्ठं दत्त्वेत्यर्थः, अभिई गाहा, अस्सोइ त्ति अश्विनी, मतान्तरं पुनरेवम्
अस्सिणि भरणी समणो अणुराह धणि? रेवई पूसो । 20 मियसिर हत्थो चित्ता पच्छिमजोगा मुणेयव्वा ॥ [ ] इति ।
[सू० ६९५] आणत-पाणत-आरण-ऽच्चुतेसु कप्पेसु विमाणा णव जोयणसताई उटुंउच्चत्तेणं पन्नत्ता ।
[टी०] नक्षत्रविमानव्यतिकर उक्त इति विमानविशेषव्यतिकरसूत्रं व्यक्तम् । [सू० ६९६] विमलवाहणे णं कुलकरे णव धणुसताई उडुंउच्चत्तेणं होत्था। १. प्रवचनसारोद्धारेऽपि गाथेयं वर्तते ५१७ ।। २. अभीइ जे१ ॥ तुलना-बृहत्कल्पभाष्ये गा० ३५४०, ६३७८ ।।
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
10
[सू० ६९६-६९९] नवममध्ययनं नवस्थानकम् ।
८०७ [सू० ६९७] उसभेणं अरहो कोसलितेणं इमीसे ओसप्पिणीए णवहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं वितिक्कंताहिं तित्थे पवत्तिते ।
[सू० ६९८] घणदंत-लट्ठदंत-गूढदंत-सुद्धदंतदीवा णं दीवा णव णव जोयणसताई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता ।
[टी०] अनन्तरं विमानानामुच्चत्वमुक्तमिति कुलकरविशेषस्योच्चत्वसूत्रं 5 कुलकरसम्बन्धाद् ऋषभकुलकरसूत्रम् ऋषभो मनुष्य इत्यन्तरद्वीपजमनुष्यक्षेत्रविशेषप्रमाणसूत्रं च, सुगमानि चैतानि, नवरं घनदन्तादय: सप्तमा अन्तरद्वीपा: ।
[सू० ६९९] सुक्कस्स णं महागहस्स णव वीहीओ पन्नत्ताओ, तंजहाहयवीही, गतवीही, णागवीही, वसभवीही, गोवीही, जरग्गववीही, अयवीही, मितवीही, वेसाणरवीही ।
[टी०] नव योजनशतानीत्युक्तमिति समधरणीतलादुपरिष्टान्नवयोजनशताभ्यन्तरचारिणो ग्रहविशेषस्य व्यतिकरमाह- सुक्कस्सेत्यादि, शुक्रस्य महाग्रहस्य नव वीथय: क्षेत्रभागा: प्रायस्त्रिभिस्त्रिभिर्नक्षत्रैर्भवन्ति, तत्र हयसंज्ञा वीथी हयवीथीत्येवं सर्वत्र, संज्ञा च व्यवहारविशेषार्थम्, या चेह हयवीथी साऽन्यत्र नागवीथीति रूढा, नागवीथी चैरावणपदमिति, एतासां च लक्षणं भद्रबाहुप्रसिद्धाभिरार्याभि: क्रमेण लिख्यते- 15
भरणी स्वात्याग्नेयं ३ नागाख्या १ वीथिरुत्तरे मार्गे । रोहिण्यादि ३ रिभाख्या २ चादित्यादिः ३ सुरगजाख्या ३ ॥१॥ [ ] आग्नेयं कृत्तिका, आदित्यं पुनर्वसुरिति । .. वृषभाख्या ४ पैत्रादिः ३ श्रवणादि ३ मध्यमे जरद्वाख्या ५ । प्रोष्ठपदादि ४ चतुष्के गोवीथि ६ स्तासु मध्यफलम् ॥२॥ [ ], पैत्रं मघा, मध्यमे 20 इति मार्गे, प्रोष्ठपदा पूर्वभद्रपदा ।
अजवीथी ७ हस्तादि ४ मंगवीथी ८ चैन्द्रदेवतादि स्यात् । दक्षिणमार्गे वैश्वानर्याषाढद्वयं ब्राह्मम् ॥३॥ [ ],
इन्द्रदेवता ज्येष्ठा, ब्राह्ममभिजिदिति । १. 'द्वीपमनु जे१ खं० ।। २. सम्प्रति यो भद्रबाहुसंहिताग्रन्थ उपलभ्यते, स न वस्तुतो भद्रबाहुस्वामिकृतः।
इति इतिहासविदां मतम् । तत्र नेमा आर्या उपलभ्यन्ते । ३. वाख्याः पा० जे२ ॥ ..
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
एतासु भृगुर्विचरति नागगजैरावतीषु वीथिषु चेत् । बहु वर्षेत् पर्जन्य: सुलभौषधयोऽर्थवृद्धिश्च ॥४॥ पशुसंज्ञासु च ३ मध्यमसस्यफलादिर्यदा चरेद् भृगुजः ।
अजमृगवैश्वानरवीथिष्वर्घभयादितो लोकः ॥५॥ [ ] इति । 5 [सू० ७००] नवविधे नोकसायवेयणिज्जे कम्मे पन्नत्ते, तंजहा-इत्थिवेदे, पुरिसवेदे, णपुंसगवेदे, हासे, रती, अरई, भये, सोगे, दुगुंछा ।
[टी०] वीथिविशेषचारेण च शुक्रादयो ग्रहा मनुजादीनामनुग्रहोपघातकारिणो भवन्ति द्रव्यादिसामग्र्या कर्मणामुदयादिसद्भावादिति सम्बन्धात् प्रस्तुताध्ययनावतारि
कर्मस्वरूपमाह- नवविहेत्यादि, इह नोशब्द: साहचर्यार्थः, कषायैः क्रोधादिभि: 10 सहचरा नोकषायाः, केवलानां नैषां प्राधान्यं किन्तु यैरनन्तानुबन्ध्यादिभि: सहोदयं
यान्ति तद्विपाकसदृशमेव विपाकमादर्शयन्तीति बुधग्रहवदन्यसंसर्गमनुवर्त्तन्ते, एवं च नोकषायतया वेद्यते यत् कर्म तन्नोकषायवेदनीयमिति । तत्र यदुदयेन स्त्रिया: पुंस्यभिलाष: पित्तोदयेन मधुराभिलाषवत् स फुफुकाग्निसमान: स्त्रीवेदः, यदुदयेन पुंस:
स्त्रियामभिलाष: श्लेष्मोदयादम्लाभिलाषवत् स दावाग्निज्वालासमान पुंवेदः, यदुदये 15 नपुंसकस्य स्त्रीपुंसयोरुभयोरभिलाष: पित्त-श्लेष्मणोरुदये मज्जिताभिलाषवत् स महानगरदाहाग्निसमानो नपुंसकवेद इति । यदुदयेन सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति तत् कर्म हास्यम्, यदुदयेन सचित्ताचित्तेषु बाह्यद्रव्येषु जीवस्य रतिरुत्पद्यते तद् रतिकर्म, यदुदयेन तेष्वेवारतिरुत्पद्यते तदरतिकर्म, यदुदयेन भयवर्जितस्यापि
जीवस्येहलोकादिसप्तप्रकारं भयमुत्पद्यते तद् भयकर्म, यदुदयेन शोकरहितस्यापि 20 जीवस्याक्रन्दनादि: शोको जायते तच्छोककर्मेति, यदुदयेन च विष्ठादिबीभत्सपदार्थेभ्यो जुगुप्सते तजुगुप्साकर्मेति । [सू० ७०१] चउरिंदियाणं णव जाइकुलकोडीजोणिपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता।
भुयगपरिसप्पथलचरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं नव जाइकुलकोडीजोणिपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता ।
१. ष्वर्थभ जे२ ॥ २. दवाग्नि जे१ खं० ॥
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०९
[सू० ७०२-७०३]
नवममध्ययनं नवस्थानकम् । [सू० ७०२] जीवा णं णवट्ठाणनिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु वा ३, [तंजहा-] पुढविकाइयनिव्वत्तिते जाव पंचेंदियनिव्वत्तिते । एवंचिण उवचिण जाव णिज्जरा चेव ।
[सू० ७०३] णवपएसिता खंधा अणंता पण्णत्ता जाव णवगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता ।
[टी०] अनन्तरं कर्मोक्तम्, तद्वशवर्त्तिनश्च नानाकुलकोटीभाजो भवन्तीति कुलकोटिसूत्रे, तद्गताश्च कर्म चिन्वन्तीति चयादिसूत्रषट्कम्, कर्मपुद्गलप्रस्तावात् पुद्गलसूत्राणि चं, सुगमानि चैतानि, नवरं नव जाईत्यादि, चतुरिन्द्रियाणां जातौ यानि कुलकोटीनां योनिप्रमुखाणां योनिद्वाराणां शतसहस्राणि तानि तथा, भुजैर्गच्छन्तीति भुजगा: गोधादय इति ।
इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचिते स्थानाख्ये तृतीयाङ्गविवरणे नेवस्थानकाख्यं नवममध्ययनं समाप्तम् । ग्रन्थाग्रं श्लोक ७०७ ।
10
१. च नास्ति खं० ॥ २. नवममध्ययनं समाप्तमिति ग्रन्थतः श्लोकाः ७०७ । जे१ ॥ ३. प्तमिति श्लोकाः
७०७ पा० । प्तमिति श्लोक ७०७ जे२ ॥
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१०
अथ दशममध्ययनं दशस्थानकम् । [सू० ७०४] दसविधा लोगट्टिती पन्नत्ता, तंजहा-जण्णं जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता तत्थेव तत्थेव भुजो भुजो पच्चायंति, एवं पेगा लोगट्टिती पण्णत्ता
१। जण्णं जीवाणं सता समिते पावे कम्मे कजति, एवं पेगा लोगट्टिती 5 पण्णत्ता २। जण्णं जीवाणं सता समितं मोहणिजे पावे कम्मे कजति, एवं पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता ३ । ण एतं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं जीवा अजीवा भविस्संति अजीवा वा जीवा भविस्संति, एवं पेगा लोगद्विती पण्णत्ता ४। ण एतं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं तसा पाणा
वोच्छिजिस्संति थावरा पाणा भविस्संति, थावरा वा पाणा वोच्छिजिस्संति 10 तसा पाणा भविस्संति, एवं पेगा लोगद्विती, पण्णत्ता ५ । ण एतं भूतं
वा भव्वं वा भविस्सति वा जं लोगे अलोगे भविस्सति अलोगे वा लोगे भविस्सति, एवं पेगा लोगट्टिती पण्णत्ता ६ । ण एतं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं लोए अलोए पविस्सति अलोए वा लोए पविस्सति, एवं
पेगा लोगट्टिती [पण्णत्ता] ७ । जाव ताव लोगे ताव ताव जीवा, जाव 15 ताव जीवा ताव ताव लोए, एवं पेगा लोगट्टिती [पण्णत्ता] ८ । जाव ताव
जीवाण त पोग्गलाण त गतिपरिताते ताव ताव लोए, जाव ताव लोगे ताव ताव जीवाण य पोग्गलाण त गतिपरिताते, एवं पेगा लोगद्विती [पण्णत्ता] ९ । सव्वेसु वि णं लोगंतेसु अबद्धपासपुट्ठा पोग्गला लुक्खत्ताते
कजंति, जेणं जीवा त पोग्गला त नो संचायंति बहिता लोगंता गमणताते, 20 एवं पेगा लोगट्टिती पण्णत्ता १० ।
[टी०] अथ सङ्ख्याविशेषसम्बद्धमेव दशस्थानकाध्ययनमारभ्यते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्ध:- अनन्तराध्ययने जीवाजीवा नवत्वेन प्ररूपिता इह तु त एव दशत्वेन निरूप्यन्त इत्येवंसम्बन्धस्य चतुरनुयोगद्वारस्यास्येदमादिसूत्रम्- दसविहा लोगेत्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्ध:- पूर्वं नवगुणरूक्षा: पुद्गला अनन्ता १. सहायं संबंध: जे१ खं० ॥
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७०५ ]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
इत्युक्तं ते चासङ्ख्येयप्रदेशे लोके संमान्तीति लोकस्थितिरतः सैवेहोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्य व्याख्या, इहापि संहितादिचर्च: प्रथमाध्ययनवत्, केवलं लोकस्य पञ्चास्तिकायात्मकस्य स्थितिः स्वभावः लोकस्थितिः, यदित्युद्देशे, णमिति वाक्यालङ्कारे, उद्दाइत्त त्ति अपद्राय मृत्वेत्यर्थः, तत्थेव त्ति लोकदेशे गतौ योनौ कुले वा सान्तरं निरन्तरं वौचित्येन भूयो भूयः पुनः पुनः प्रत्याजायन्ते प्रत्युत्पद्यन्त 5 इत्येवमप्येका लोकस्थितिरिति १, अपिशब्द उत्तरवाक्यापेक्षया, अपि : क्वचिन्न दृश्यते ।
अथ द्वितीया— जन्नमित्यादि, सदा प्रवाहतोऽनाद्यपर्यवसितं कालं समियं त निरन्तरं पापं कर्म ज्ञानावरणादिकं सर्व्वमपि मोक्षविबन्धकत्वेन सर्वस्यापि पापत्वादिति क्रियते बध्यते इत्येवमप्येका अन्येत्यर्थः, सततकर्म्मबन्धनमिति द्वितीया २ । मोहणिजे त्ति मोहनीयं प्रधानतया भेदेन निर्द्दिष्टमिति सततमोहनीयबन्धनं तृतीया 10 ३। जीवा-ऽजीवानामजीव - जीवत्वाभावश्चतुर्थी ४। त्रसानां स्थावराणां चाव्यवच्छेदः पञ्चमी ५। लोका-ऽलोकयोरलोक-लोकत्वेनाभवनं षष्ठी ६ । तयोरेवान्योन्याप्रवेशः सप्तमी ७|
जाव ताव लोए ताव ताव जीव त्ति यावल्लोकस्तावज्जीवाः, यावति क्षेत्रे लोकव्यपदेशस्तावति जीवा इत्यर्थः । जाव ताव जीवा ताव ताव लोए त्ति, इह 15 यावज्जीवास्तावत्तावल्लोकः, यावति यावति क्षेत्रे जीवास्तावत् क्षेत्रं लोक इति भावार्थ:, जाव तावेत्यादिवाक्यरचना तु भाषामात्रमित्यष्टमी ८ । यावज्जीवादीनां गतिपर्यायस्तावल्लोक इति नवमी ९ ।
सर्वेषु लोकान्तेषु अबद्धपासपुट्ठ त्ति बद्धा गाढश्लेषाः, पार्श्वस्पृष्टाः छुप्तमात्राः, ये न तथा तेऽबद्धपार्श्वस्पृष्टाः, रूक्षद्रव्यान्तरेणेति गम्यते, तत्सम्पर्कादजातरूक्षपरिणामा: 20 सन्त इति भावः, लोकान्ते स्वभावात् पुद्गलाः रूक्षतया क्रियन्ते रूक्षतया परिणमन्ति, अथवा लोकान्तस्वभावाद्या रूक्षता भवति तया ते पुद्गला अबद्धपार्श्वस्पृष्टाः परस्परमसम्बद्धाः क्रियन्ते, किं सर्वथा ?, नैवम्, अपि तु तेनेत्यस्य गम्यमानत्वात्तेन रूपेण क्रियन्ते येन जीवाः सकर्म्मपुद्गलाः, पुद्गलाश्च परमाण्वादयः, नो संचायति न शक्नुवन्ति बहिस्ताल्लोकान्ताद् गमनतायै गन्तुमिति, छान्दसत्वेन तुमर्थे 25 युट्प्रत्ययविधानादिति, एवमप्यन्या लोकस्थितिर्दशमी १०, शेषं कण्ठ्यमिति । [सू० ७०५ ] दसविधे सद्दे पन्नत्ते, तंजहा
१. पापकत्वा जेसं१ खं० ॥ २. प्रत्य खं० ॥
८११
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे नीहारि पिंडिमे लुक्खे, भिन्ने जजरिते ति त । दीहे रहस्से पुहुत्ते त, काकणी, खिंखिणिस्सरे ॥१५०॥
[टी०] लोकस्थितेरेव विशिष्टवक्तृनिसृष्टा अपि शब्दपुद्गला लोकान्त एव गच्छन्तीति प्रस्तावाच्छब्दभेदानाह– दसंविहे इत्यादि, नीहारी सिलोगो, निर्हारी घोषवान् शब्दो घण्टाशब्दवत्, पिण्डेन निर्वृत्त: पिण्डिमो घोषवर्जित: ढक्कादिशब्दवत्, रूक्षः काकादिशब्दवत्, भिन्न: कुष्ठाद्युपहतशब्दवत्, झर्झरितो जर्जरितो वा सतन्त्रीककरटिकादिवाद्यशब्दवत्, दी? दीर्घवर्णाश्रितो दूरश्रव्यो वा मेघादिशब्दवत्, इस्वो ह्रस्ववर्णाश्रयो विवक्षया लघुर्वा वीणादिशब्दवत्, पुहत्ते य त्ति पृथक्त्वे अनेकत्वे,
कोऽर्थः ? नानातूर्यादिद्रव्ययोगे य: स्वरो यमल-शङ्खादिशब्दवत् स पृथक्त्व इति, 10 काकणीति सूक्ष्मकण्ठगीतध्वनि: काकलीति यो रूढः, खिंखिणीति किंकिणी क्षुद्रघण्टिका, तस्या: स्वरो ध्वनिः किङ्किणीस्वरः ।
[सू० ७०६] दस इंदियत्था तीता पण्णत्ता, तंजहा-देसेण वि एगे सद्दाई सुणिंसु, सव्वेण वि एगे सद्दाइं सुणिंसु, देसेण वि एगे रूवाइं पासिंसु,
सव्वेण वि एगे रूवाइं पासिंसु, एवं गंधाई रसाइं फासाइं जाव सव्वेण 15 वि एगे फासाइं पडिसंवेदेंसु १॥
दस इंदियत्था पडुप्पन्ना पन्नत्ता, तंजहा-देसेण वि एगे सद्दाइं सुणेति, सव्वेण वि एगे सद्दाइं सुणेति, एवं जाव फासाई २॥
दस इंदियत्था अणागता पन्नत्ता, तंजहा-देसेण वि एगे सद्दाई सुणिस्सति, सव्वेण वि एगे सद्दाई सुणिस्सति, एवं जाव सव्वेण वि एगे फासाई 20 पडिसंवेतेस्सति ३॥
[टी०] अनन्तरं शब्द उक्तः, स चेन्द्रियार्थ इति कालभेदेनेन्द्रियार्थान् प्ररूपयन् सूत्रत्रयमाह-दस इंदियेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं देसेण वि त्ति विवक्षितशब्दसमूहापेक्षया देशेन देशत:, कांश्चिदित्यर्थः, एकः कश्चिच्छ्रुतवानिति । सव्वेण वि त्ति सर्वतया
सर्वानित्यर्थः, इन्द्रियापेक्षया वा श्रोत्रेन्द्रियेण देशतः, सम्भिन्नश्रोतोलब्धियुक्तावस्थानां 25 सर्वेन्द्रियैः सर्वतः, अथवैककर्णेन देशत उभाभ्यां सर्वत:, एवं सर्वत्र । पडुप्पन्न त्ति
प्रत्युत्पन्ना वर्तमानाः । १. विहेत्यादि जे१ ॥
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१३
5
[सू० ७०७-७०८]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् । [सू० ७०७] दसहिं ठाणेहिमच्छिन्ने पोग्गले चलेजा, तंजहा-आहारेजमाणे वा चलेजा, परिणामेजमाणे वा चलेजा, उस्ससिजमाणे वा चलेजा, निस्ससिजमाणे वा चलेजा, वेदेजमाणे वा चलेजा, णिजरिजमाणे वा चलेजा, विउव्विज्जमाणे वा चलेजा, परितारिजमाणे वा चलेजा, जक्खातिट्टे वा चलेजा, वातपरिगते वा चलेजा ।।
[टी०] इन्द्रियार्थाश्च पुद्गलधर्मा इति पुद्गलस्वरूपमाह- दसहीत्यादि स्पष्टम्, नवरम् अच्छिन्ने त्ति अच्छिन्न: अपृथग्भूत: शरीरे विवक्षितस्कन्धे वा सम्बद्ध एव चलेत् स्थानान्तरं गच्छेत्, आहारेजमाणे त्ति आहियमाण: खाद्यमान: पुद्गल: आहारे वा अभ्यवह्रियमाणे सति पुद्गलश्चलेत्, परिणम्यमानः पुद्गल एवोदराग्निना खल-रसभावेन परिणम्यमाने वा भोजने, उच्छ्वस्यमान: उच्छ्वासवायुपुद्गल: उच्छ्वस्यमाने वा उच्वसिते 10 क्रियमाणे, एवं निःश्वस्यमानो निःश्वस्यमाने वा, वेद्यमानो निर्जीर्यमाणश्च कर्मापुद्गलोऽथवा वेद्यमाने निर्जीर्यमाणे च कर्मणि, वैक्रियमाणो वैक्रियशरीरतया परिणम्यमान: वैक्रियमाणे वा शरीरे, परिचार्यमाणो मैथुनसंज्ञाया विषयीक्रियमाण: शुक्रपुद्गलादिः परिचार्यमाणे वा भुज्यमाने स्त्रीशरीरादौ शुक्रादिरेव, यक्षाविष्टो भूताद्यधिष्ठित: यक्षाविष्टे वा सति पुरुषे यक्षावेशे वा सति तच्छरीरलक्षण: पुद्गल:, 15 वातपरिगतो देहगतवायुप्रेरितः, वातपरिगते वा देहे सति, बाह्यवातेन वोत्क्षिप्त इति।
[सू० ७०८] दसहि ठाणेहिं कोधुप्पत्ती सिया, तंजहा-मणुन्नाई मे सद्दफरिस-रस-रूव-गंधाइमवहरिंसु १, अमणुन्नाइं मे सद्द-फरिस-रस-रूवगंधाई उवहरिंसु २, मणुण्णाई मे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाइं अवहरति ३, अमणुन्नाइं मे सद्दफरिस जाव गंधाई उवहरति ४, मणुण्णाई मे सद्द जाव 20 अवहरिस्सति ५, अमणुण्णाइं मे सद्द जाव उवहरिस्सति ६, मणुण्णाइं मे सद्द जाव गंधाइं अवहरिंसु अवहरइ अवहरिस्सति ७, अमणुण्णाइं मे सद्द जाव रस-रूव-गंधाइं उवहरिंसु उवहरति उवहरिस्सति ८, मणुण्णामणुण्णाई मे सद्द जाव अवहरिंसु अवहरति अवहरिस्सति उवहरिंसु उवहरति उवहरिस्सति १. "न्तरे पा० जे२ ॥
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
10
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
९, अहं च णं आयरियउवज्झायाणं सम्मं वट्टामि ममं च णं आयरियउवज्झाया मिच्छं विप्पडिवन्ना १० |
[टी०] पुद्गलाधिकारादेव पुद्गलधर्मानिन्द्रियार्थानाश्रित्य यद्भवति तदाह- दसहीत्यादि गतार्थम्, नवरं स्थानविभागोऽयम् - तत्र मनोज्ञान् शब्दादीन् मेऽपहृतवानित्येवं भावयतः 5 क्रोधोत्पत्तिः स्यादित्येकम्, एवम् अमनोज्ञानुपहृतवान् उपनीतवान्, इह चैकवचनबहुवचनयोर्न विशेषः प्राकृतत्वादिति द्वितीयम्, एवं वर्त्तमाननिर्देशेनापि द्वयं भविष्यतापि द्वयमित्येवं षट्, तथा मनोज्ञानामपहारतः कालत्रयनिर्देशेन सप्तमः, एवममनोज्ञानामुपहारतोऽष्टमम्, मनोज्ञा - ऽमनोज्ञानामपहारोपहारतः कालत्रयनिर्देशेन नवमम्, अहं चेत्यादि दशमम्, मिच्छं ति वैपरीत्यं विशेषेण प्रतिपन्नौ विप्रतिपन्नाविति ।
[सू० ७०९] दसविधे संजमे पन्नत्ते, तंजहा पुढविकाइयसंजमे आउ[काइयसंजमे] तेउ[काइयसंजमे] वाउ[काइयसंजमे] वणस्सति [काइयसंजमे] बेइंदितसंजमे तेंदितसंजमे चउरिंदितसंजमे पंचेंदितसंजमे अजीवकायसंजमे । दसविधे असंजमे पन्नत्ते, तंजहा- पुढविकाइयअसंजमे
जाव
अजीवकाय असंजमे ।
15
८१४
दसविधे संवरे पन्नत्ते, तंजहा- सोतिंदितसंवरे जाव फासेंदितसंवरे, मण[ संवरे], वा संवरे, काया संवरे, उवकरणसंवरे, सूचीकुसग्गसंवरे ।
दसविधे असंवरे पन्नत्ते, तंजहा- सोतिंदितअसंवरे जाव सूचीकुसग्गअसंवरे ।
[टी०] क्रोधोत्पत्तिः संयमिनां नास्तीति संयमसूत्रम्, संयमविपक्षश्चासंयम इत्यसंयमसूत्रम्, असंयमविपक्षः संवर इति संवरसूत्रम्, संवरविपरीतोऽसंवर 20 इत्यसंवरसूत्रम्, सुगमानि चैतानि, नवरमुपकरणसंवर: अप्रतिनियताकल्पनीयवस्त्राद्यग्रहणरूपोऽथवा विप्रकीर्णस्य वस्त्राद्युपकरणस्य संवरणमुपकरणसंवरः, अयं चौघिकोपकरणापेक्षः, तथा शूच्या: कुशाग्राणां च शरीरोपघातकत्वाद्यत् संवरणं सङ्गोपनं स शूची - कुशाग्रसंवरः, एष तूपलक्षणत्वात् समस्तौपग्रहिकोपकरणापेक्षो द्रष्टव्य:, इह चान्त्यपदद्वयेन द्रव्यसंवरावुक्ताविति ।
25
[सू० ७१०] दसहिं ठाणेहिं अहमंती ति थंभिज्जा, तंजहा- जातिमतेण वा कुलमएण वा जाव इस्सरियमतेण वा ८, णागसुवन्ना वा मे अंतितं
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
[सू० ७१०-७१३]
हव्वमागच्छंति ९, पुरिसधम्मातो वा मे उत्तरिते ओहोधिते णाणदंसणे समुप्पन्ने
१० ।
[टी०] असंवरस्यैव विशेषमाह - दसहीत्यादि स्पष्टम्, नवरम् अहमंतीति अहम् अंती इति अन्तो जात्यादिप्रकर्षपर्यन्तोऽस्यास्तीत्यन्ती, अहमेव जात्यादिभिरुत्तमतया पर्यन्तवर्त्ती, अथवाऽनुस्वारः प्राकृततयेति अहम् अति: अतिशयवानिति एवंविधोल्लेखेन 5 थंभिज्जत्ति स्तभ्नीयात् स्तब्धो भवेत्, माद्येदित्यर्थः, यावत्करणात् 'बलमएण रूवमएण सुयमएण तवमएण लाभमएणेति दृश्यम्, तथा नागसुवन्न त्ति नागकुमाराः सुपर्णकुमाराश्च, वा विकल्पार्थः, मे मम अन्तिकं समीपं हव्वं शीघ्रमागच्छन्तीति, पुरुषाणां प्राकृतपुरुषाणां धर्मो ज्ञानपर्यायलक्षणस्तस्माद्वा सकाशात् उत्तर: प्रधान: स एवौत्तरिकः, आहोधिए त्ति नियतक्षेत्रविषयोऽवधिस्तद्रूपं ज्ञानदर्शनं प्रतीतमिति 10 [सू० ७११] दसविधा समाधी पन्नत्ता, तं जहा - पाणातिवायवेरमणे मुसा [ वायवेरमणे] अदिन्ना [ दाणवेरमणे] मेहुण [ वेरमणे] परिग्गह [ वेरमणे ] रितासमिती भासासमिती एसणासमिती आताण[भंडमत्तणिक्खेवणासमिती] उच्चारपासवणखेलसिंघाणगपरिट्ठावणितासमिती ।
।
सविधा असमाधी पन्नत्ता, तंजहा-पाणातिवाते जाव परिग्गहे, रिताऽसमिती 15 जाव उच्चारपासवणखेलसिंघाणगपरिट्ठावणिताऽसमिती ।
[सू० ७१२] दसविधा पव्वज्जा पन्नत्ता, तंजहाछंदा रोस परिजुन्ना, सुविणा पडिस्सुता चेव । सारणिता रोगिणिता, अणाढिता देवसन्नत्ती ॥ १५१ ॥ वच्छबंधिता ।
दसविधे समणधम्मे पन्नत्ते, तंजहा खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चिताते, बंभचेरवासे ।
सविधे वेयावच्चे पन्नत्ते, तंजहा - आयरियवेयावच्चे, उवज्झायवेयावच्चे, थेर[वेयावच्चे], तवस्सि [वेयावच्चे], गिलाण [ वेयावच्चे], सेह [वेयावच्चे], कुल[वेयावच्चे], गण[वेयावच्चे], संघवे [ यावच्चे], साधम्मियवेयावच्चे |
१. इतः परं भां० प्रतेः पत्राणि न सन्ति ॥
८१५
20
25
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ७१३] दसविधे जीवपरिणामे पन्नत्ते, तंजहा-गतिपरिणामे, इंदियपरिणामे, कसायपरिणामे, लेसा परिणामे] जोगपरिणामे], उवओग[परिणामे], णाण परिणामे], दंसणपरिणामे], चरित्तपरिणामे, वेतपरिणामे]।
दसविधे अजीवपरिणामे पन्नत्ते, तंजहा-बंधणपरिणामे, गतिपरिणामे], 5 संठाणपरिणामे, भेदापरिणामे], वण्ण परिणामे], रस[परिणाम], गंधापरिणामे], फास[परिणामे], अगुरुलहु[परिणामे], सद्दपरिणामे ।
[टी०] उक्तमदविलक्षण: समाधिरिति तत्सूत्रम्, एतद्विपक्षोऽसमाधिरिति तत्सूत्रम्, समाधीतरयोराश्रय: प्रव्रज्येति तत्सूत्रम्, प्रव्रज्यावतश्च श्रमणधर्मस्तद्विशेषश्च वैयावृत्यमिति
तत्सूत्रे, जीवधर्माश्चैत इति जीवपरिणामसूत्रम्, एतद्विलक्षणत्वादजीवपरिणामसूत्रम्, 10 सुगमानि चैतानि, नवरं समाहि त्ति समाधानं समाधिः समता, सामान्यतो रागाद्यभाव
इत्यर्थः, स चोपाधिभेदाद्दशधेति । ___ छंदा गाहा, छंद त्ति छन्दात् स्वकीयादभिप्रायविशेषाद् गोविन्दवाचकस्येव सुन्दरीनन्दस्येव वा, परकीयाद्वा भ्रातृवशभवदत्तस्येव या सा छंदा, रोसा य त्ति रोषात् शिवभूतेरिव या सा रोषा, परिजुण्ण त्ति परिघुना दारिद्र्यात् काष्ठहारकस्येव या 15 सा परिघूना, सुविणेति स्वप्नात् पुष्पचूलाया इव या स्वप्ने वा या प्रतिपद्यते सा
स्वप्ना, पडिसुत चेव त्ति प्रतिश्रुतात् प्रतिज्ञाताद् या सा प्रतिश्रुता शालिभद्रभगिनीपतिधन्यकस्येव, सारणिय त्ति स्मारणाद्या सा स्मारणिका मल्लिनाथस्मारितजन्मान्तराणां प्रतिबुद्धयादिराजानामिव, रोगिणिय त्ति रोग: आलम्बनतया विद्यते यस्यां सा रोगिणी,
सैव रोगिणिका सनत्कुमारस्येव, अणाढिय त्ति अनादृता अनादराधा सा अनादृता 20 नन्दिषेणस्येव अनादृतस्य वा शिथिलस्य या सा तथा, देवसन्नत्ति त्ति देवसंज्ञप्ते:
देवप्रतिबोधनाद्या सा तथा मेतार्यादेरिवेति, वच्छाणुबंधा य त्ति गाथातिरिक्तम्, वत्स: पुत्रस्तदनुबन्धो यस्यामस्ति सा वत्सानुबन्धिका, वैरस्वामिमातुरिवेति ।। ___ श्रमणधर्मो व्याख्यात एव, नवरं चियाए त्ति त्यागो दानधर्म इति । व्यावृतो
व्यापृतो वा व्यापारपरस्तत्कर्म वैयावृत्यं वैयापृत्यं वा भक्तपानादिभिरुपष्टम्भ इत्यर्थः, 25 साहम्मिय त्ति समानो धर्म: सधर्मस्तेन चरन्तीति साधर्मिका: साधवः ।।
१. इमाः सर्वा अपि कथाः तृतीयपरिशिष्टे टिप्पनेषु द्रष्टव्याः ॥
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१७
[सू० ७१३] दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८१७ परिणामेत्यादि, परिणमनं परिणामस्तद्भावगमनमित्यर्थः, यदाहपरिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाश: परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥ [ ] द्रव्यार्थनयस्येति । सत्पर्ययेण नाश: प्रादुर्भावोऽसता च पर्ययतः ।। द्रव्याणां परिणाम: प्रोक्तः खलु पर्ययनयस्य ॥ [ ] इति ।
जीवस्य परिणाम इति विग्रहः, स च प्रायोगिकः, तत्र गतिरेव परिणामो गतिपरिणामः, एवं सर्वत्र, गतिश्चेह गतिनामकर्मो दयान्नारकादिव्यपदेशहेतु: तत्परिणामश्चाऽऽभवक्षयादिति, स च नरकगत्यादिश्चतुर्विधः, गतिपरिणामे च सत्येवेन्द्रियपरिणामो भवतीति तमाह- इंदियपरिणामे त्ति, स च श्रोत्रादिभेदात् पञ्चधेति, इन्द्रियपरिणतौ चेष्टानिष्टविषयसम्बन्धाद्रागद्वेषपरिणतिरिति तदनन्तरं कषायपरिणाम 10 उक्तः, स च क्रोधादिभेदाच्चतुर्विधः । कषायपरिणामे च सति लेश्यापरिणतिर्न तु लेश्यापरिणतौ कषायपरिणति: येन क्षीणकषायस्यापि शुक्ललेश्यापरिणतिर्देशोनपूर्वकोटि यावद् भवति, यत उक्तम्
मुहत्तद्धं तु जहन्ना उक्कोसा होइ पुव्वकोडीओ । नवहिं वरिसेहिं ऊणा नायव्वा सुक्कलेस्साए ॥ [ ] त्ति । अतो लेश्यापरिणाम उक्तः, स च कृष्णादिभेदात् षोढेति । अयं च योगपरिणामे सति भवति, यस्मान्निरुद्धयोगस्य लेश्यापरिणामोऽपैति, यतः समुच्छिन्नक्रियं ध्यानमलेश्यस्य भवतीति लेश्यापरिणामानन्तरं योगपरिणाम उक्तः, स च मनोवाक्कायभेदात् विधेति । संसारिणां च योगपरिणतावुपयोगपरिणतिर्भवतीति तदनन्तरमुपयोगपरिणाम उक्त:, स च साकारानाकारभेदाद् द्विधा । सति चोपयोगपरिणामे 20 ज्ञानपरिणामोऽतस्तदनन्तरमसावुक्तः, स चाभिनिबोधिकादिभेदात् पञ्चधा, तथा मिथ्यादृष्टानमप्यज्ञानमित्यज्ञानपरिणामो मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभङ्गज्ञानलक्षणस्त्रिविधोऽपि विशेषग्रहणसाधर्म्यात् ज्ञानपरिणामग्रहणेन गृहीतो द्रष्टव्य इति । ज्ञानाज्ञानपरिणामे च सति सम्यक्त्वादिपरिणतिरिति ततो दर्शनपरिणाम उक्त:, स च त्रिधा सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-मिश्रभेदात् । सम्यक्त्वे सति चारित्रमिति ततस्तत्परिणाम 25 उक्तः, स च सामायिकादिभेदात् पञ्चधेति । स्त्र्यादिवेदपरिणामे चारित्रपरिणामो न तु
15
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
८१८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे . चारित्रपरिणामे वेदपरिणतिर्यस्मादवेदकस्यापि यथाख्यातचारित्रपरिणतिर्दृष्टेति चारित्रपरिणामानन्तरं वेदपरिणाम उक्तः, स च स्त्र्यादिभेदात् त्रिविध इति ।
अजीवेत्यादि, अजीवानां पुद्गलानां परिणामोऽजीवपरिणाम:, तत्र बन्धनं पुद्गलानां परस्परं सम्बन्ध: संश्लेष इत्यर्थः, स एव परिणामो बन्धनपरिणाम:, एवं सर्वत्र, 5 बन्धनपरिणामलक्षणं चैतत्
समनिद्धयाए बंधो न होइ समलुक्खयाय वि न होइ । वेमायनिद्ध-लुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं ॥ [प्रज्ञापना० १९९]
एतदुक्तं भवति- समगुणस्निग्धस्य समगुणस्निग्धेन परमाण्वादिना बन्धो न भवति, समगुणरूक्षस्यापि समगुणरूक्षेणेति, यदा विषमा मात्रा तदा भवति बन्धः, 10 विषममात्रानिरूपणार्थमुच्यते
निद्धस्स निद्धेण दुयाहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं । निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधो, जहन्नवजो विसमो समो वा ॥ [प्रज्ञापना० २००] इति,
गतिपरिणामो द्विविध: स्पृशद्गतिपरिणाम इतरश्च, तत्राद्यो येन प्रयत्नविशेषात् क्षेत्रप्रदेशान् स्पृशन् गच्छति, द्वितीयस्तु येनास्पृशन्नेव तान् गच्छति, न चायं न 15 सम्भाव्यते, गतिमद्रव्याणां प्रयत्नभेदोपलब्धेः, तथाहि- अभ्रङ्कषहर्म्यतलगतविमुक्ताश्मपातकालभेद उपलभ्यते अनवरतगतिप्रवृत्तानां च देशान्तरप्राप्तिकालभेदश्चेत्यत: सम्भाव्यतेऽस्पृशद्गतिपरिणाम इति, अथवा दीर्घ-हस्वभेदात् द्विविधोऽयमिति, संस्थानपरिणामः परिमण्डल-वृत्त-त्र्यश्र-चतुरश्रा-ऽऽयतभेदात् पञ्चविधः,
भेदपरिणाम: पञ्चधा, तत्र खण्डभेदः क्षिप्तमृत्पिण्डस्येव १, प्रतरभेदोऽभ्रपटलस्येव २, 20 अनुतटभेदो वंशस्येव ३, चूर्णभेदः चूर्णनम् ४, उत्करिकाभेदः समुकीर्यमाण
प्रस्थकस्येवेति, वर्णपरिणाम: पञ्चधा, गन्धपरिणामो द्विधा, रसपरिणाम: पञ्चधा, स्पर्शपरिणामोऽष्टधा, न गुरुकमधोगमनस्वभावं न लघुकमूर्ध्वगमनस्वभावं यद् द्रव्यं तदगुरुकलघुकम् अत्यन्तसूक्ष्मं भाषा-मन:-कर्मद्रव्यादि तदेव परिणाम: परिणाम
तद्वतोरभेदात् अगुरुकलघुकपरिणाम: एतद्ग्रहणेनैतद्विपक्षोऽपि गृहीतो द्रष्टव्यः, तत्र 25 गुरुकं च विवक्षया लघुकं च विवक्षयैव यद् द्रव्यं तद् गुरुकलघुकम् औदारिकादि
१. गच्छतीति पा० जे२ ॥ २. अगुरुलघुक' जे१ खं० ॥
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७१४]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८१९
स्थूलतरमित्यर्थः, इदमुक्तरूपं द्विविधं वस्तु निश्चयनयमतेन, व्यवहारतस्तु चतुर्द्धा, तत्र गुरुकम् अधोगमनस्वभावं वज्रादि, लघुकम् ऊर्ध्वगमनस्वभावं धूमादि, गुरुकलघुकं तिर्यग्गामि वायु-ज्योतिष्कविमानादि, अगुरुलघुकम् आकाशादीति, आह च
भाष्यकार:
निच्छयओ सव्वगुरुं सव्वलहुं वा न विज्जई दव्वं । बायरमिह गुरुलहुयं अगुरुलहु सेयं दव्वं ॥
गुरुयं लहुयं उभयं णोभयमिति वावहारियनयस्स ।
दव्वं लेडुं १ दीवो २ वाऊ ३ वोमं ४ जहासंखं ॥ [ विशेषाव० ६६०, ६५९] ति । शब्दपरिणामः शुभाशुभभेदाद् द्विधेति ।
[सू० ७१४] दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाइए पन्नत्ते, तंजहा - उक्कावाते, 10 दिसिदाघे, गजिते, विज्जुते, निग्धाते, जूवते, जक्खालित्तते, धूमिता, महिता, युग्घ ।
सविधे ओरालिते असज्झातिते पन्नत्ते, तंजहा - अट्ठि, मंसे, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडणे, रायवुग्गहे, उवस्सगस्स अंतो ओरालिते सरीरगे ।
5
[टी०] अजीवपरिणामाधिकारात् पुद्गललक्षणाजीवपरिणाममन्तरीक्षलक्षंणाजीवपरिणामोपाधिकमस्वाध्यायिकव्यपदेश्यं दसविहेत्यादिना सूत्रेणाह - तत्र अंतलिक्ख अन्तरीक्षम् आकाशं तत्र भवमान्तरीक्षकम्, स्वाध्यायो वाचनादिः पञ्चविधो यथासम्भवं यस्मिन्नस्ति तत् स्वाध्यायिकम्, तदभावोऽस्वाध्यायिकम्, तत्रोल्का आकाशजा, तस्या: पात: उल्कापात:, तथा दिशो दिशि वा दाहो दिग्दाहः, इदमुक्तं भवति- 20 एकतरदिग्विभागे महानगरप्रदीपनकमिव य उद्योतो भूमावप्रतिष्ठितो गगनतलवर्त्ती स दिग्दाह इति, गर्जितं जीमूतध्वनिः, विद्युत् तडित्, निर्घातः साभ्रे निरभ्रे वा गगने व्यन्तरकृतो महागर्जितध्वनिः, जूयए त्ति सन्ध्याप्रभा चन्द्रप्रभा च यद्युगपद् भवतस्तत् जूयगो त्ति भणितम्, सन्ध्याप्रभा - चन्द्रप्रभयोर्मिश्रत्वमिति भाव:, तत्र चन्द्रप्रभाऽऽवृता सन्ध्या अपगच्छन्ती न ज्ञायते शुक्लपक्षप्रतिपदादिषु दिनेषु, सन्ध्याच्छेदे चाज्ञायमाने 25 कालवेलां न जानन्त्यतस्त्रीणि दिनानि प्रादोषिकं कालं न गृह्णन्ति, ततः
15
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२०
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे कालिकस्यास्वाध्याय: स्यादिति, उल्कादीनां चेदं स्वरूपम्दिसिदाहो छिन्नमूलो उक्क सरेहा पयासजुत्ता वा । संझाछेयावरणो जूयओ सुक्के दिणे तिन्नि ॥ [आव० नि० १३४९]
जक्खालित्तं ति यक्षादीप्तमाकाशे भवति, एतेषु स्वाध्यायं कुर्वतां क्षुद्रदेवता छलनां 5 करोति, धूमिका महिकाभेदो वर्णतो धूमिका धूमाकारा धूम्रेत्यर्थः, महिका प्रतीता, एतच्च द्वयमपि कार्त्तिकादिषु गर्भमासेषु भवति, तच्च पतनानन्तरमेव सूक्ष्मत्वात् सर्वमप्कायभावितं करोतीति, रयउग्घाए त्ति विश्रसापरिणामतः समन्ताद्रेणुपतनं रजउद्घातो भण्यते ।
अस्वाध्यायाधिकारादेवेदमाह- दसविहे ओरालिएत्यादि, औदारिकस्य 10 मनुष्यतिर्यक्शरीरस्येदमौदारिकमस्वाध्यायिकम्, तत्रास्थि-मांस-शोणितानि प्रतीतानि,
तत्र च पञ्चेन्द्रियतिरश्चामस्वाध्यापिकं द्रव्यतोऽस्थि-मांस-शोणितानि, ग्रन्थान्तरे चौप्यधीयते, यदाह-सोणिय मंसं चम्मं अट्ठी वि य होंति चत्तारि ॥ [आव० नि० १३६५] इति, क्षेत्रत: षष्टिहस्ताभ्यन्तरे, कालत: सम्भवकालाद्यावत्तृतीया पौरुषी, मार्जारादिभि
मूषिकादिव्यापादने अहोरात्रं चेति, भावत: सूत्रं नन्द्यादिकं नाध्येतव्यमिति, मनुष्य15 सम्बन्ध्यप्येवमेव, नवरं क्षेत्रतो हस्तशतमध्ये कालतोऽहोरात्रं यावत्, आर्त्तवं दिनत्रयम्,
स्त्रीजन्मनि दिनाष्टकम्, पुरुषजन्मनि दिनसप्तकम्, अस्थीनि तु जीवविमोक्षदिनादारभ्य हस्तशताभ्यन्तरस्थितानि द्वादश वर्षाणि यावदस्वाध्यायिकं भवति, चिताग्निना दग्धान्युदकवाहेन वा व्यूढान्यस्वाध्यायिकं न भवति, भूमिनिखातान्यस्वाध्यायिकमिति,
तथा अशुचीनि अमेध्यानि मूत्र-पुरीषाणि तेषां सामन्तं समीपमशुचिसामन्त20 मस्वाध्यायिकं भवति, उक्तं च कालग्रहणमाश्रित्य- सोणियमुत्तपुरीसे घाणालोयं परिहरेजा [आव० नि० १४१४] इति । श्मशानसामन्तं शबस्थानसमीपम् ।
चन्द्रस्य चन्द्रविमानस्योपरागो राहुविमानतेजसोपरञ्जनं चन्द्रोपरागो ग्रहणमित्यर्थः, एवं सूरोपरागोऽपि, इह चेदं कालमानं यदि चन्द्रः सूर्यो वा ग्रहणे सति सग्रहोऽन्यथा 25 वा निमज्जति तदा ग्रहणकालं तद्रात्रिशेषं तदहोरात्रशेषं च तत: परमहोरात्रं च वर्जयन्ति,
आह च– चंदिमसूरुवरागे निग्घाए गुंजिए अहोरत्तं । [आव० नि० १३५१] ति, आचरितं १. धूम्राकारा जे१ ॥
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७१५] दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८२१ तु यदि तत्रैव रात्रौ दिने वा मुक्तस्तदा चन्द्रग्रहणे तस्या एव रात्रे: शेषं परिहरन्ति, सूर्यग्रहणे तु तद्दिनशेष परिहृत्यानन्तरं रात्रिमपि परिहरन्तीति, आह च– आइन्नं दिणमुक्के सो च्चिय दिवसो व राई व । [आव० नि० १३५७] त्ति, चन्द्रसूर्योपरागयोश्चौदारिकत्वं तद्विमानपृथिवीकायिकापेक्षयाऽवसेयमान्तरीक्षकत्वं तु सदपि न विवक्षितम्, आन्तरीक्षत्वेनोक्तेभ्य आकस्मिकेभ्य उल्कादिभ्यश्चन्द्रादिविमानानां शाश्वतत्वेन 5 विलक्षणत्वादिति ।
पडणे त्ति पतनं मरणं राजा-ऽमात्य-सेनापति-ग्रामभोगिकादीनाम्, तत्र यदा दण्डिक: कालगतो भवति राजा वाऽन्यो यावन्न भवति तदा सभये निर्भये वा स्वाध्यायं वर्जयन्ति, निर्भयश्रवणानन्तरमप्यहोरात्रं वर्जयन्तीति, ग्राममहत्तरेऽधिकारनियुक्ते बहुस्वजने वा शय्यातरे वा पुरुष्ठान्तरे वा सप्तगृहाभ्यन्तरमृतेऽहोरात्रं स्वाध्यायं वर्जयन्ति शनैर्वा पठन्ति, 10 निर्दु:खा एत इति गहीँ लोको मा कार्षीदिति, आह च
मयहर पगए बहुपक्खिए य सत्तघरअंतरमयम्मि । _निढुक्ख त्ति य गरहा न पढंति सणीयगं वा वि ॥ [आव० नि० १३६१] त्ति ।
तथा रायवुग्गहे त्ति राज्ञां सङ्ग्राम उपलक्षणत्वात् सेनापति-ग्रामभोगिकमहत्तर-पुरुष-स्त्री-मल्लयुद्धान्यस्वाध्यायिकम्, एवं पांशु-पिष्टादिभण्डनान्यपि, यत एते 15 प्रायो व्यन्तरबहुलास्तेषु प्रमत्तं देवता छलयेन्निर्दु:खा एत इत्युड्डाहो वाऽप्रीतिकं वा भवेदित्यतो यद्विग्रहादिकं यच्चिरकालं यस्मिन् क्षेत्रे भवति तत्र विग्रहादिके तावत्कालं तत्र क्षेत्रे स्वाध्यायं परिहरन्तीति, उक्तं चसेणाहिव भोइय मयहरे य पुंसित्थिमल्लयुद्धे य । लोहाइभंडणे वा गुज्झग उड्डाह अचियत्तं ॥ [आव० नि० १३५९] ति ।। तथोपाश्रयस्य वसतेरन्त: मध्ये वर्तमानमौदारिकं मनुष्यादिसत्कं शरीरकं यद्युद्भिन्नं भवति तदा हस्तशताभ्यन्तरेऽस्वाध्यायिकं भवति, अथानुद्भिन्नं तथापि कुत्सितत्वादाचरितत्वाच्च हस्तशतं वय॑ते, परिष्ठापिते तु तत्र तत्स्थानं शुद्धं भवतीति।
सू० ७१५] पंचेंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स दसविधे संजमे कजति, तंजहा-सोतामताओ सोक्खाओ अवरोवेत्ता भवति, सोतामतेणं दुक्खेणं 25 १. यन्तीति पा० जे२ ॥
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे असंजोगेत्ता भवति, एवं जाव फासामतेणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति । एवं असंजमो वि भाणितव्वो ।
[टी०] पञ्चेन्द्रियशरीरमस्वाध्यायिकमित्यनन्तरमुक्तमिति पञ्चेन्द्रियाधिकारात् तदाश्रितसंयमा-ऽसंयमसूत्रे गतार्थे । 5 [सू० ७१६] दस सुहुमा पन्नत्ता, तंजहा-पाणसुहुमे, पणगसुहुमे जाव सिणेहसुहुमे, गणितसुहुमे, भंगसुहुमे ।
[टी०] संयमासंयमाधिकारात् तद्विषयभूतानि सूक्ष्माणि प्ररूपयन्नाह- दस सुहुमेत्यादि, प्राणसूक्ष्मम् अनुद्धरितकुन्थुः, पनकसूक्ष्मम् उल्ली, यावत्करणादिदं द्रष्टव्यम्, बीजसूक्ष्म
व्रीह्यादीनां नखिका, हरितसूक्ष्मं भूमिसमवर्णं तृणम्, पुष्पसूक्ष्मं वटादिपुष्पाणि, 10 अण्डसूक्ष्म कीटिकाद्यण्डकानि, लयनसूक्ष्मम् कीटिकानगरकादि, स्नेहसूक्ष्म
अवश्यायादीत्यष्टस्थानकभणितमेव, इदमपरं गणितसूक्ष्मम्, गणितं सङ्कलनादि तदेव सूक्ष्मं सूक्ष्मबुद्धिगम्यत्वात्, श्रूयते च वज्रान्तं गणितमिति, भङ्गसूक्ष्मं भङ्गा भङ्गका वस्तुविकल्पाः, ते च द्विधा- स्थानभङ्गकाः क्रमभङ्गकाश्च, तत्राद्या यथा द्रव्यतो नामैका हिंसा न भावत: १, अन्या भावतो न द्रव्यत: २, अन्या भावतो द्रव्यतश्च ३, अन्या 15 न भावतो नापि द्रव्यत: ४ इति, इतरे तु द्रव्यतो हिंसा भावतश्च १, द्रव्यतोऽन्या न भावत: २, न द्रव्यतोऽन्या भावत: ३, अन्या न द्रव्यतो न भावत: ४ इति । तल्लक्षणं सूक्ष्म भङ्गसूक्ष्मम्, सूक्ष्मता चास्य भजनीयपदबहत्वे गहनभावेन सूक्ष्मबुद्धिगम्यत्वादिति। - [सू० ७१७] जंबुमंदरदाहिणेणं गंगासिंधूओ महानदीओ दस महानदीओ
समप्पेंति, तंजहा-जउणा, सरऊ, आती, कोसी, मही, सतद्दू, वितत्था, 20 विभासा, एरावती, चंदभागा ।
__जंबुमंदरउत्तरेणं रत्ता-रत्तवतीओ महानदीओ दस महानदीओ समप्पेंति, तंजहा-किण्हा, महाकिण्हा, नीला, महानीला, तीरा, महातीरा, इंदा जाव महाभोगा।
[सू० ७१८] जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे दस रायहाणीओ पन्नत्ताओ, तंजहा__ चंपा महरा वाणारसी त सावत्थि तह त सातेतं । १. गम्यमानत्वात् जे१ ॥
25
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२३
[सू० ७१७-७२५]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् । हत्थिणउर कंपिल्लं मिहिला कोसंबि रायगिहं ॥१५२॥
एतासु णं दससु रायहाणीसु दस रायाणो मुंडा भवेत्ता जाव पव्वतिता, तंजहा-भरहे, सगरे, मघवं, सणंकुमारे, संती, कुंथू, अरे, महापउमे, हरिसेणे, जयणामे ।
[सू० ७१९] जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वए दस जोयणसयाइं उव्वेहेणं, 5 धरणितले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं, उवरिं दस जोयणसयाई विक्खंभेणं, दस दसाई जोयणसहस्साई सव्वग्गेणं पण्णत्ते ।।
[सू० ७२०] जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वतस्स बहुमज्झदेसभागे इमीसे रयणप्पभाते पुढवीते उवरिमहेट्ठिल्लेसु खुड्डगपतरेसु एत्थ णमट्ठपतेसिते रुयगे पण्णत्ते जओ णमिमातो दस दिसातो पवहंति, तंजहा-पुरत्थिमा, 10 पुरस्थिमदाहिणा, दाहिणा, दाहिणपच्चत्थिमा, पच्चत्थिमा, पच्चत्थिमुत्तरा, उत्तरा, उत्तरपुरत्थिमा, उड्डा, अधा ।
एतासि णं दसण्हं दिसाणं दस नामधेजा पन्नत्ता, तंजहाइंदा अग्गेयी जम्मा त, णेरती वारुणी य वायव्वा । सोमा ईसाणी ता, विमला य तमा य बोद्धव्वा ॥१५३॥
15 [सू० ७२१] लवणस्स णं समुद्दस्स दस जोयणसहस्साई गोतित्थविरहिते खेत्ते पन्नत्ते । लवणस्स णं समुद्दस्स दस जोयणसहस्साइं उदगमाले पन्नत्ते ।
सव्वे वि णं महापाताला दस दसाइं जोयणसहस्साणमुव्वेहेणं पण्णत्ता, मूले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं पन्नत्ता, बहुमज्झदेसभागे एगपएसिताते 20 सेढीते दस दसाइं जोयणसहस्साणं विक्खंभेणं पन्नत्ता, उवरिं मुहमूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ता । तेसि णं महापातालाणं कुड्डा सव्ववइरामता सव्वत्थ समा दस जोयणसयाई बाहल्लेणं पन्नत्ता ।
सव्वे वि णं खुद्दापाताला दस जोयणसताइं उव्वेहेणं पन्नत्ता, मूले दस दसाइं जोयणाणं विक्खंभेणं पन्नत्ता, बहुमज्झदेसभागे एगपएसिताते सेढीते 25 दस जोयणसताई विक्खंभेणं पन्नत्ता, उवरिं मुहमूले दस दसाइं जोयणाणं
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
विक्खंभेणं पन्नत्ता, तेसि णं खुद्दापातालाणं कुड्डा सव्ववइरामता सव्वत्थ समा दस जोयणाइं बाहल्लेणं पण्णत्ता ।
८२४
[सू० ७२२] धायतिसंडगा णं मंदरा दस जोयणसयाइं उव्वेधेणं, धरणित सूणाई दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं, उवरिं दस जोयणसयाइं विक्खंभेणं 5 पन्नत्ता । पुक्खरवरदीवड्डगा णं मंदरा दस जोयण एवं चेव ।
[सू० ७२३] सव्वे वि णं वट्टवेयड्डपव्वता दस जोयणसयाई उड्डउच्चत्तेणं, दस गाउयसताइमुव्वेहेणं, सव्वत्थ समा पल्लगसंठिता, दस जोयणसताई विक्खंभेणं पन्नत्ता ।
[सू० ७२४ ] जंबुद्दीवे दीवे दस खेत्ता पण्णत्ता, तंजहा-भरहे, एरवते, 10 हेमवते, हेरन्नवते, हरिवस्से, रम्मगवस्से, पुव्वविदेहे, अवरविदेहे, देवकुरा,
उत्तरकुरा ।
[सू० ७२५] माणुसुत्तरे णं पव्वते मूले दस बावीसे जोयणसते विक्खंभेणं पण्णत्ते ।
सव्वे वि णमंजणगपव्वता दस जोयणसयाइमुव्वेहेणं, मूले दस 15 जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं, उवरिं दस जोयणसताइं विक्खंभेणं पण्णत्ता । सव्वे वि णं दहिमुहपव्वता दस जोयणसताइं उव्वेहेणं, सव्वत्थ समा, पल्लगसंठिता, दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं पन्नत्ता ।
सव्वे विणं रतिकरगपव्वता दस जोयणसताई उड्डउच्चत्तेणं, दस गाउतसताई उव्वेहेणं, सव्वत्थ समा, झल्लरिसंठिता, दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं 20 पन्नत्ता ।
रुयगवरे णं पव्वते दस जोयणसयाई उव्वेहेणं, मूले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं, उवरिं दस जोयणसताइं विक्खंभेणं पन्नत्ते । एवं कुंडलवरे वि ।
[टी०] पूर्वं गणितसूक्ष्ममुक्तमिति तद्विषयविशेषभूतं प्रकृताध्ययनावतारितया जंबूदीवेत्यादि गङ्गासूत्रादिकं कुण्डलसूत्रावसानं क्षेत्रप्रकरणमाह, कण्ठ्यं चेदम्, नवरं 25 गङ्गां समुपयान्ति दशानामाद्याः पञ्च इतरा: सिन्धुमिति, एवं रक्तासूत्रमपि, नवरं यावत्करणात् इंदसेणा वारिसेण त्ति द्रष्टव्यमिति । रायहाणीओ त्ति राजा धीयते
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७१७-७२५] दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८२५ विधीयते अभिषिच्यते यासु ता राजधान्य: जनपदानां मध्ये प्रधाननगर्य:, चंपा गाहा, चम्पानगरी अङ्गजनपदेषु, मथुरा सूरसेनदेशे, वाराणसी काश्याम्, श्रावस्ती कुणालायाम्, साकेतमयोध्येत्यर्थः कोशलेषु जनपदेषु, हत्थिणपुरं ति नागपुरं कुरुजनपदे, काम्पिल्यं पञ्चालेषु, मिथिला विदेहे, कौशाम्बी वत्सेषु, राजगृहं मगधेष्विति, एतासु किल साधवः उत्सर्गतो न प्रविशन्ति तरुणी- रमणीयपण्यादिदर्शनेन 5 मन:क्षोभादिसम्भवात, मासस्यान्तर्द्विस्त्रिर्वा प्रविशतां त्वाज्ञादयो दोषा इति, एताश्च दशस्थानकानुसारेणाभिहिता न तु दशैवैता: अर्द्धषड्विंशतावार्यजनपदेषु षड्विंशतेनगरीणामुक्तत्वादिति, अयं च न्यायोऽन्यत्र ग्रन्थे तेषु तेषु प्रायश्चित्तादिविचारेषु प्रसिद्ध एवेति, व्याख्यातं च दशराजधानीग्रहणे शेषाणामपि ग्रहणं निशीथभाष्ये, यदाह
10 दसरायहाणिगहणा सेसाणं सूयणा कया होइ । मासस्संतो दुग तिग ताओ अइंतम्मि आणाई ॥ [निशीथभा० २५८८] दोषाश्चेहतरुणा-वेसित्थि-विवाह-रायमाईसु होइ सइकरणं । आउज-गीयसद्दे इत्थीसद्दे य सवियारे ॥ [निशीथभा० २५९२] इति । एतास्विति अनन्तरोदितासु दशस्वार्यनगरीषु मध्ये अन्यतरासु कासुचिद्दश राजान: 15 चक्रवर्तिनः प्रव्रजिता इत्येवं दशस्थानकेऽवतारस्तेषां कृतः, द्वौ च सुभूमब्रह्मदत्ताभिधानौ न प्रव्रजितौ नरकं च गताविति । तत्र भरत-सगरौ प्रथम-द्वितीयौ चक्रवर्तिराजौ साकेते नगरे विनीता-ऽयोध्यापर्याये जातौ प्रव्रजितौ च, मघवान् श्रावस्त्याम्, सनत्कुमारादयश्चत्वारो हस्तिनागपुरे, महापद्मो वाराणस्याम्, हरिषेण: काम्पिल्ये, जयनामा राजगृहे इति, न चैतासु नगरीषु क्रमेणैते राजानो व्याख्येयाः, 20 ग्रन्थविरोधात्, उक्त च
जम्मण विणीय उज्झा सावत्थी पंच हत्थिणपुरम्मि । वाणारसि कंपिल्ले रायगिहे चेव कंपिल्ले ॥ [आव० नि० ३९७] त्ति ।
अप्रव्रजितचक्रवर्तिनौ तु हस्तिनागपुर-काम्पिल्ययोरुत्पन्नाविति, ये च यत्रोत्पन्नास्ते तत्रैव प्रव्रजिता इति, इदमावश्यकाभिप्रायेण व्याख्यातम्, निशीथभाष्याभिप्रायेण तु 25 १. पांचा' पा० ॥ २. प्रव्रजितौ वा जे१ ॥
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे दशस्वेतासु नगरीषु द्वादश चक्रिणो जाता:, तत्र नवस्वेकैक: एकस्यां तु त्रय इति, आह चचंपा महुरा वाणारसी य सावत्थिमेव साकेयं ।
हत्थिणपुर कंपिल्लं मिहिला कोसंबि रायगिहं ॥ 5 संती कुंथू य अरो तिन्नि वि जिणचक्कि एक्कहिं जाया ।
तेण दस होंति जत्थ व केसव जाया जणाइन्न ॥ [निशीथभा० २५९०-९१] त्ति । मन्दरो मेरु:, उव्वेहेणं ति भूमाववगाहत:, विष्कम्भेण पृथुत्वेन, उपरि पण्डकवनप्रदेशे दश शतानि सहस्रमित्यर्थः । दश दशकानि शतमित्यर्थः, केषाम् ? योजनसहस्राणाम्,
लक्षमित्यर्थः, ईदृशी च भणितिर्दशस्थानकानुरोधात्, सर्वाग्रेण सर्वपरिमाणत इति । 10 उवरिमहेट्ठिल्लेसु त्ति उपरितनाधस्तनयोः क्षुल्लकप्रतरयो:, सर्वेषां मध्ये तयोरेव
लघुत्वात्, तयोरध उपरि च प्रदेशान्तरवृद्ध्या वर्द्धमानतरत्वाल्लोकस्येति, अट्ठपएसिए त्ति अष्टौ प्रदेशा यस्मिन्नित्यष्टप्रदेशिकः, स्वार्थिकप्रत्ययविधानादिति, तत्र चोपरितने प्रतरे चत्वार: प्रदेशा गोस्तनवदितरत्रापि चत्वारस्तथैवेति, इमाउ त्ति वक्ष्यमाणा: दस
त्ति चतस्रो द्विप्रदेशादयो व्युत्तराः शकटोर्द्धिसंस्थाना महादिशश्चतम्र एव एक15 प्रदेशादयोऽनुत्तरा मुक्तावलीकल्पा विदिशः, तथा द्वे चतुष्प्रदेशादिके अनुत्तरे
ऊर्ध्वाधोदिशाविति, पवहंति त्ति प्रवहन्ति प्रभवन्तीत्यर्थः । ___ इंदा गाहा, इन्द्रो देवता यस्या: सा ऐन्द्री, एवमाग्नेयी याम्येत्यादि, विमला वितिमिरत्वादूर्ध्वदिशो नामधेयम्, तमा अन्धकारयुक्तत्वेन रात्रितुल्यत्वादधोदिशश्चेति।
लवणेत्यादि, गवां तीर्थं तडागादाववतारमार्गो गोतीर्थम्, ततो गोतीर्थमिव गोतीर्थम् 20 अवतारवती भूमि:, तद्विरहितं सममित्यर्थः, एतच्च पञ्चनवतियोजनसहस्राण्यर्वाग्भागत:
परभागतश्च गोतीर्थरूपां भूमिं विहाय मध्ये भवतीति, उदकमाला उदकशिखा वेलेत्यर्थः, दश योजनसहस्राणि विष्कम्भतः, उच्चस्त्वेन तु षोडश सहस्राणीति, समुद्रमध्यभागादेवोत्थितेति, सव्वे वीत्यादि, सर्वेऽपीति पूर्वादिदिक्षु तद्भावाच्चत्वारोऽपि
महापातालाः पातालकलशा: वलयामुख-केयूर-जूयक-ईश्वरनामानश्चतु:25 स्थानकाभिहिताः, क्षुल्लकपातालकलशव्यवच्छेदार्थं महाग्रहणम्, दश दशकानि शतं
योजनसहस्राणां लक्षमित्यर्थः, उद्वेधेन गाधेनेत्यर्थः, मूले बुध्ने दश सहस्राणि, मध्ये
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७२६] दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
૮ર૭ लक्षम्, कथम् ?, मूलविष्कम्भादुभयत एकैकप्रदेशवृद्ध्या विस्तरं गच्छतां या एकप्रदेशिका श्रेणी भवति तया, अनेन प्रदेशवृद्धिरुपदर्शिता, अथवा एकप्रदेशिकायां श्रेण्याम् अत्यन्तमध्ये, ततोऽध उपरि च प्रदेशोनं लक्षमित्यर्थः, तथा उवरिं किमुक्तं भवति? अत आह- मुखमूले मुखप्रदेशे, कुड्ड त्ति कुड्यानि भित्तय इत्यर्थः, सर्वाणि च तानि वज्रमयानि चेति वाक्यम्, सर्वेऽपीति सप्त सहस्राण्यष्टशतानि चतुरशीत्यधिकानीत्येवं- 5 सङ्ख्या :, क्षुल्लका महदपेक्षया, उद्वेधेन मध्यविष्कम्भेण च सहस्रम्, मूले मुखे च विष्कम्भेण शतम्, कुड्यबाहल्येन च दश । धायईत्यादि, मंदर त्ति पूर्वापरौ मेरू, तत्स्वरूपं सूत्रतः सिद्धम्, विशेष उच्यतेधायइसंडे मेरू चुलसीइ सहस्स ऊसिया दो वि । ओगाढा य सहस्सं होंति य सिहरम्मि वित्थिन्ना ॥ [बृहत्क्षेत्र० ३।५७]
10 मूले पणनउइ सया चउणउइ सया य होंति धरणियले । [बृहत्क्षेत्र० ३।५८] इति,
सर्वेऽपि वृत्तवैताढ्यपर्वता: विंशति: प्रत्येकं पञ्चसु हैमवतैरण्यवत-हरिवर्ष-रम्यकेष्वेषां शब्दावती-विकटावती-गन्धावती-मालवत्पर्यायाख्यानां भावादिति, वृत्तग्रहणं दीर्घवैताढ्यव्यवच्छेदार्थमिति, मानुषोत्तरश्चक्रवालपर्वत: प्रतीतः, अञ्जनकाश्चत्वारो नन्दीश्वरद्वीपवर्तिनः, दधिमुखाः प्रत्येकमञ्जनकानां दिक्चतुष्टयव्यवस्थित- 15 पुष्करिणीमध्यवर्त्तिन: षोडशेति, रतिकरा नन्दीश्वरद्वीपे विदिग्व्यवस्थिता: चत्वारश्चतु:स्थानकाभिहितस्वरूपा: । रुचको रुचकाभिधानस्त्रयोदशद्वीपवर्ती चक्रवालपर्वत: । कुण्डलाभिधान एकादशद्वीपवर्ती चक्रवालपर्वत: एव, एवं कुण्डलवरे वीत्यनेनेह कुण्डलवर उद्वेध-मूलविष्कम्भोपरिविष्कम्भै रुचकवरपर्वतसमान उक्तः, द्वीपसागरप्रज्ञप्त्यां त्वेवमुक्त:
दस चेव जोयणसए बावीसे वित्थडो उ मूलम्मि । चत्तारि जोयणसए चउवीसे वित्थडो सिहरे ॥ [द्वीपसागर० ७४] त्ति ।
अत्र तुल्यं रुचकस्यापि, तत्रायं विशेष उक्त:- मूलविष्कम्भो दश सहस्राणि द्वाविंशत्यधिकानि शिखरे तु चत्वारि सहस्राणि चतुर्विंशत्यधिकानीति ।
[सू० ७२६] दसविधे दवियाणुओगे पन्नत्ते, तंजहा-दवियाणुओगे, 25 १. उपरि पा० जे२ ।। २. सूत्रसिद्धं पा० जे२ ॥
20
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
माउयाणुओगे, एगट्ठियाणुओगे, करणाणुओगे, अप्पिताणप्पिते, भाविताभाविते, बाहिराबाहिरे, सासतासासते, तधणाणे, अतधणाणे ।
८२८
[टी] अनन्तरं गणितानुयोग उक्तः, अथ द्रव्यानुयोगस्वरूपं भेदत आह- दसविहे दवियेत्यादि, अनुयोजनं सूत्रस्यार्थेन सम्बन्धनम्, अनुरूपोऽनुकूलो वा योग: 5 सूत्रस्याभिधेयार्थं प्रति व्यापारोऽनुयोगः, व्याख्यानमिति भावः, स च चतुर्द्धा व्याख्येयभेदात्, तद्यथा— चरणकरणानुयोगो धर्म्मकथानुयोगो गणितानुयोगो द्रव्यानुयोगश्च, तत्र द्रव्यस्य जीवादेरनुयोगो विचारो द्रव्यानुयोगः, स च दशधा, तत्र दवियाणुओगे त्ति यज्जीवादेर्द्रव्यत्वं विचार्यते स द्रव्यानुयोगः, यथा द्रवति गच्छति तांस्तान् पर्यायान् द्रूयते वा तैस्तैः पर्यायैरिति द्रव्यं गुण- पर्यायवानर्थ:, तत्र सन्ति जीवे ज्ञानादयः 10 सहभावित्वलक्षणा गुणाः, न हि तद्वियुक्तो जीवः कदाचनापि संभवति जीवत्वहानेः, तथा पर्याया अपि मानुषत्व - बाल्यादयः कालकृतावस्थालक्षणाः तत्र सन्त्येवेत्यतो भवत्यसौ गुण-पर्यायवत्त्वात् द्रव्यमित्यादिः द्रव्यानुयोगः १, तथा माउयाणुओगे त्ति, इह मातृकेव मातृका प्रवचनपुरुषस्योत्पाद-व्यय-ध्रौव्यलक्षणा पदत्रयी, तस्या अनुयोगो यथा उत्पादवज्जीवद्रव्यं बाल्यादिपर्यायाणामनुक्षणमुत्पत्तिदर्शनाद् अनुत्पादे च 15 वृद्धाद्यवस्थानामप्राप्तिप्रसङ्गादसमञ्जसापत्ते:, तथा व्ययवज्जीवद्रव्यं प्रतिक्षणं बाल्याद्यवस्थानां व्ययदर्शनादव्ययत्वे च सर्वदा बाल्यादिप्राप्तेरसमञ्जसमेव, तथा यदि सर्वथाऽप्युत्पादव्ययवदेव तत् न केनापि प्रकारेण ध्रुवं स्यात्तदा अकृताभ्यागमकृतविप्रणाशप्राप्त्या पूर्वदृष्टानुस्मरणा-ऽभिलाषादिभावानामभावप्रसङ्गेन च सकलेहलोकपरलोकालम्बनानुष्ठानानामभावतोऽसमञ्जसमेव, ततो द्रव्यतयाऽस्य ध्रौव्यमित्युत्पाद20 व्यय - ध्रौव्ययुक्तमतो द्रव्यमित्यादिः मातृकापदानुयोग: २, तथा एगट्ठियाणुओगे एकश्चासावर्थश्च अभिधेयो जीवादिः स येषामस्ति त एकार्थिकाः शब्दास्तैरनुयोगस्तत्कथनमित्यर्थः, एकार्थिकानुयोगो यथा जीवद्रव्यं प्रति जीव: प्राणी भूतः सत्त्वः, एकार्थिकानां वाऽनुयोगो यथा जीवनात् प्राणधारणाज्जीवः, प्राणानाम् उच्छ्वासादीनामस्तित्वात् प्राणी, सर्वदा भवनाद्भूतः, सदा सत्त्वात् सत्त्वः इत्यादिः ३, 25 तथा करणाणुओगे त्ति क्रियते एभिरिति करणानि तेषामनुयोग: करणानुयोग:, तथाहि१. मित्यादि द्रव्या पा० जे२ ॥ २. मित्यादि मातृ पा० ॥ ३ जीवद्रव्यं प्रति नास्ति जे१ ॥ ४. इत्यादि खं० पा० जे२ ॥
ति
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७२६ ]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
"
जीवद्रव्यस्य कर्त्तुर्विचित्रक्रियासु साधकतमानि काल - स्वभाव-नियति- पूर्वकृतानि, नैकाकी जीवः किञ्चन कर्त्तुमलमिति, मृद्द्रव्यं वा कुलाल - चक्र - चीवर - दण्डादिकं करणकलापमन्तरेण न घटलक्षणं कार्यं प्रति घटत इति तस्य तानि करणानीति द्रव्यस्य करणानुयोग इति ४, तथा अप्पियाणप्पिए त्ति द्रव्यं ह्यर्पितं विशेषितं यथा जीवद्रव्यं किंविधम् ? संसारीति, संसार्यपि त्रसरूपम्, त्रसरूपमपि पञ्चेन्द्रियम्, तदपि 5 नररूपमित्यादि, अनर्पितम् अविशेषितमेव, यथा जीवद्रव्यमिति, ततश्चार्पितं च तदनर्पितं चेत्यर्पितानर्पितं द्रव्यं भवतीति द्रव्यानुयोगः ५, तथा भावियाभाविए ति भावितं वासितं द्रव्यान्तरसंसर्गतः अभावितमन्यथैव येत्, यथा जीवद्रव्यं भावितं किञ्चित्, तच्च प्रशस्तभावितमितरभावितं च तत्र प्रशस्तभावितं संविग्नभावितमप्रशस्तभावितं चेतरभावितम्, तत् द्विविधमपि वामनीयमवामनीयं च, तत्र वामनीयं यत् संसर्गजं गुणं 10 दोषं वा संसर्गान्तरेण वमति, अवामनीयं त्वन्यथा, अभावितं त्वसंसर्गप्राप्तं प्राप्त संसर्गं वा वज्रतन्दुलकल्पं न वासयितुं शक्यमिति, एवं घटादि द्रव्यमपि ततश्च भावितं च अभावितं च भाविताभावितम् एवंभूतो विचारो द्रव्यानुयोग इति ६, बाहिरबाहिरे त्ति बाह्याबाह्यम्, तत्र जीवद्रव्यं बाह्यं चैतन्यधर्मेणाकाशास्तिकायादिभ्यो विलक्षणत्वात् तदेवाबाह्यममूर्त्तत्वादिना धर्मेण अमूर्त्तत्वादुभयेषामपि, चैतन्येन वा 15 अबाह्यं जीवास्तिकायाच्चैतन्यलक्षणत्वादुभयोरपि, अथवा घटादिद्रव्यं बाह्यं कर्म्मचैतन्यादि त्वबाह्यमाध्यात्मिकमिति यावदिति, एवमन्यो द्रव्यानुयोग इति ७, तथा सासयासासए त्ति शाश्वताशाश्वतम्, तत्र जीवद्रव्यमनादिनिधनत्वात् शाश्वतं तदेवापरापरपर्याय-प्राप्तितोऽशाश्वतमित्येवमन्यो द्रव्यानुयोग इति ८, तथा तहनाणे ति यथा वस्तु तथा ज्ञानं यस्य तत्तथाज्ञानं सम्यग्दृष्टिजीवद्रव्यं तस्यैवावितथज्ञानत्वात्, 20 अथवा यथा तद्वस्तु तथैव ज्ञानम् अवबोधः प्रतीतिर्यस्मिंस्तत्तथाज्ञानम्, घटादिद्रव्यं घटादितयैव प्रतिभासमानम्, जैनाभ्युपगतं वा परिणामि परिणामितयैव प्रतिभासमानमित्येवमन्यो द्रव्यानुयोग इति ९, अतहणाणे ति अतथाज्ञानं मिथ्यादृष्टिजीवद्रव्यमलातद्रव्यं वा चक्रतयाऽवभासमानमेकान्तवाद्यभ्युपगतं वा वस्तु, तथाहि— एकान्तेन नित्यमनित्यं वा वस्तु तैरभ्युपगतं प्रतिभाति च तत् परिणामितयेति 25 १. यत् नास्ति जे१ ॥
ܕ
"
८२९
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
८३०
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे तदतथाज्ञानमित्येवमन्यो द्रव्यानुयोग इति १०।
[सू० ७२७] चरमस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो तिगिंच्छिकूडे उप्पातपव्वते मूले दस बावीसे जोयणसते विक्खंभेणं पन्नत्ते ।
चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो सोमस्स महारण्णो सोमप्पभे 5 उप्पातपव्वते दस जोयणसताइं उडुंउच्चत्तेणं, दस गाउयसताइं उव्वेहेणं, मूले दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ते ।
चमरस्स णमसुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो जमस्स महारन्नो जमप्पभे उप्पातपव्वते एवं चेव, एवं वरुणस्स वि, एवं वेसमणस्स वि ।
बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो रुयगिंदे उप्पातपव्वते मूले दस 10 बावीसे जोयणसते विक्खंभेणं पण्णत्ते ।
बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो सोमस्स एवं चेव, जधा चमरस्स लोगपालाणं तं चेव बलिस्स वि ।।
धरणस्स णं णागकुमारिंदस्स णागकुमाररण्णो धरणप्पभे उप्पातपव्वते दस जोयणसयाई उहुंउच्चत्तेणं, दस गाउयसताइं उव्वेहेणं, मूले दस जोयणसताई 15 विक्खंभेणं ।
धरणस्स णं नागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो कालवालस्स महारण्णो कालावाल]प्पभे उप्पातपव्वते दस जोयणसताई उड़े एवं चेव, एवं जाव संखवालस्स । एवं भूताणंदस्स वि, एवं लोगपालाणं पि से जधा धरणस्स।
एवं जाव थणितकुमाराणं सलोगपालाणं भाणितव्वं, सव्वेसिं उप्पायपव्वता 20 भाणियव्वा सरिणामगा । ___ सक्कस्स णं देविंदस्स देवरणो सक्कप्पभे उप्पातपव्वते दस जोयणसहस्साई उटुंउच्चत्तेणं, दस गाउतसहस्साइं उव्वेहेणं, मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ते । सक्कस्स णं देविंदस्स देवरणो सोमस्स महारन्नो जधा सक्कस्स तधा
सव्वेसिं लोगपालाणं सव्वेसिंच इंदाणं जाव अच्चुतस्स त्ति, सव्वेसिं पमाणमेग। 25 [टी०] पुनर्गणितानुयोगमेवाधिकृत्योत्पातपर्वताधिकारमच्युतसूत्रं यावदाह
१. बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स एवं चेव- जे० ॥
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
८३१
[सू० ७२७]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् । चमरस्सेत्यादि सुगमम्, नवरं तिगिंच्छिकूडे त्ति तिगिच्छी किंजल्कः, तत्प्रधानकूटत्वात्तिगिंच्छिकूटः, तत्प्रधानत्वं च कमलबहुलत्वात्, संज्ञा चेयम्, उप्पायपव्वए त्ति उत्पतनम् ऊर्ध्वगमनमुत्पातस्तेनोपलक्षित: पर्वत उत्पातपर्वतः, स च रुचकवराभिधानात् त्रयोदशात् समुद्राद्दक्षिणतोऽसङ्ख्येयान् द्वीप-समुद्रानतिलध्य यावदरुणवरद्वीपा-ऽरुणवरसमुद्रौ तयोररुणवरसमुद्रं दक्षिणतो द्विचत्वारिंशतं 5 योजनसहस्राण्यवगाह्य भवति, तत्प्रमाणं च
सत्तरस एकवीसाइं जोयणसयाई सो समुव्विद्धो । दस चेव जोयणसए बावीसे वित्थडो हेट्ठा । चत्तारि जोयणसए चउवीसे वित्थडो उ मज्झम्मि । सत्तेव य तेवीसे सिहरतले वित्थडो होइ ॥ [द्वीपसागर० १६६-१६७] इति, 10 सच रत्नमय: पद्मवरवेदिकया वनखण्डेन च परिक्षिप्तः, तस्य च मध्येऽशोकावतंसको देवप्रासाद इति ।
चमरस्सेत्यादि, महारन्नो त्ति लोकपालस्य सोमप्रभ उत्पातपर्वत: अरुणोदसमुद्र एव भवति, एवं यम-वरुण-वैश्रमणसूत्राणि नेयानीति । बलिस्सेत्यादि, रुचकेन्द्र उत्पातपर्वतोऽरुणोदसमुद्रे एव भवति, यथोक्तम्- 15 अरुणस्स उत्तरेणं बायालीसं भवे सहस्साई।। ओगाहिऊण उदहिं सिलनिचओ रायहाणीओ ॥ [द्वीपसागर० २११] इति,
बलिस्सेत्यादि, वतीत्यादि सूत्रसूचा, एवं च दृश्यं वइरोयणिंदस्स वइरोयणरन्नो सोमस्स य महारन्नो एवं चेव त्ति अतिदेश:, एतद्भावना- जहेत्यादि, यथा यत्प्रकारं चमरस्य लोकपालानामुत्पातपर्वतप्रमाणं प्रत्येकं चतुर्भि: सूत्रैरुक्तं तं चेव त्ति तत्प्रकारमेव 20 चतुर्भि: स्त्रैः बलिनोऽपि वैरोचनेन्द्रस्यापि वक्तव्यम्, समानत्वादिति । ___ धरणस्सेत्यादि, धरणस्योत्पातपर्वतोऽरुण एव समुद्रे भवति, धरणस्सेत्यादि प्रथमलोकपालसूत्रे एवं चेव त्ति करणात् उच्चत्तेणं दस गाउयसयाइं उव्वेहेणमित्यादि सूत्रमतिदिष्टम् । एवं जाव संखवालस्स त्ति करणात् शेषाणां त्रयाणां लोकपालानां १. तिगिछि खं० । एवमग्रेऽपि ॥ २. तिगिछि जे१ खं० ॥ ३. “वतीत्यादि सूत्रसूचा' इति लिखित्वा
टीकायाम् आ.श्री अभयदेवसूरिभिः परिपूर्ण सूत्रं दर्शितमत्र, किन्तु अस्माकं समीपे विद्यमानेषु सर्वेष्वपि मूलस्य हस्तलिखितादर्शेषु संपूर्ण सूत्रं विद्यते, अतः आ.श्री अभयदेवसूरीणां समक्षं विद्यमानेषु आदर्शेषु वति० इत्येतावदेव सूत्रं भवेदिति संभाव्यते ।
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
८३२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे कालवाल-सेलवाल-संखवालाभिधानानामुत्पातपर्वताभिधायीनि त्रीण्यन्यानि सूत्राणि दर्शयति । एवं भूयाणंदस्स वि त्ति भूतानन्दस्यापि औदीच्यनागराजस्यापि उत्पातपर्वतस्तस्य नाम प्रमाणं च वाच्यम्, यथा धरणस्येत्यर्थः, भूतानन्दप्रभश्चोत्पातपर्वतोऽरुणोद एव भवति, केवलमुत्तरतः, एवं लोगपालाण वि से 5 त्ति से तस्य भूतानन्दस्य लोकपालानामपि, एवमुत्पातपर्वतप्रमाणं यथा
धरणलोकपालानामिति भावः, नवरं तन्नामानि चतु:स्थानकानुसारेण ज्ञातव्यानीति, जहा धरणस्सेति यथा धरणस्य । एवमिति तथा सुपर्णविद्युत्कुमारादीनां ये इन्द्रास्तेषामुत्पातपर्वतप्रमाणं भणितव्यम्, किंपर्यन्तानां तेषामित्यत आह- जाव
थणियकुमाराणं ति प्रकटम्, किमिन्द्राणामेव ? नेत्याह- सलोगपालाणं ति, 10 तल्लोकपालानामपीत्यर्थः, सव्वेसिमित्यादि, सर्वेषामिन्द्राणां तल्लोकपालानां
चोत्पातपर्वता: सदृग्नामानो भणितव्याः, यथा धरणस्य धरणप्रभः, प्रथमतल्लोकपालस्य कालवालस्य कालवालप्रभ इत्येवं सर्वत्र, ते च पर्वता: स्थानमङ्गीकृत्यैवं भवन्ति
असुराणं नागाणं उदहिकुमाराण होंति आवासा ।
अरुणोदए समुद्दे तत्थेव य तेसि उप्पाया ॥ 15
दीवदिसाअग्गीणं थणियकुमाराण होंति आवासा। अरुणवरे दीवम्मि उ तत्थेव य तेसि उप्पाया ॥ [द्वीपसागर० २२०-२२१] इति ।
सक्कस्सेत्यादि, कुण्डलवरे द्वीपे कुण्डलपर्वतस्याभ्यन्तरे दक्षिणतः षोडश राजधान्यः सन्ति, तासां चतसृणां चतसृणां मध्ये सोमप्रभ-यमप्रभ-वरुणप्रभ-वैश्रमणप्रभाख्या
उत्पातपर्वता: सोमादीनां शक्रलोकपालानां भवन्ति, उत्तरपार्श्वे तु एवमेवेशानलोक20 पालानामिति, यथा शक्रस्य तथाऽच्युतान्तानामिन्द्राणां लोकपालानां चोत्पातपर्वता वाच्याः, यतः सर्वेषामेकं प्रमाणम्, नवरं स्थानविशेषो विशेषसूत्रादवगन्तव्यः ।
[सू० ७२८] बादरवणस्सतिकातिताणं उक्कोसेणं दस जोयणसताई सरीरोगाहणा पण्णत्ता ११
जलचरपंचेंदियतिरिक्खजोणिताणं उक्कोसेणं दस जोयणसताई सरीरोगाहणा १. कोल' खं० पा० जे२ ।। २. स्सेत्यादि यथा जे१ ॥ ३. सुपर्ण नास्ति जे१ खं० भवनवासिनोऽसुर
नाग-विद्युत्-सुपर्णा-ऽग्नि-वात-स्तनितोदधि-द्वीप-दिक्कुमाराः [तत्त्वार्थ० ४।११] ॥ ४. उप्पाय त्ति दीव ॥१॥
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७२९-७३०]
पन्नत्ता २|
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
उरपरिसप्पथलचरपंचेंदिततिरिक्खजोणिताणं उक्कोसेणं एवं चेव ३ | [टी०] योजनसहस्राधिकारादेव योजनसाहस्रिकावगाहनासूत्रत्रयम् - बादरेत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं बादर त्ति बादराणामेव न सूक्ष्माणां तेषामङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रावगाहनत्वात्, एवं जघन्यतोऽपि मा भूदत: उक्कोसेणं त्यभिहितम्, दश 5 योजनशतानि उत्सेधयोजनेन, न तु प्रमाणयोजनेन, उस्सेहपमाणउ मिणे देहं [ बृहत्सं० ३४९] ति वचनात्, शरीरस्यावगाहना येषु प्रदेशेषु शरीरमवगाढं सा शरीरावगाहना, सा च तथाविधनद्यादिपद्मनालविषया द्रष्टव्येति । जलचरेत्यादि, इह जलचरा मत्स्याः गर्भजा इतरे च दृश्या:, मच्छजुयले सहस्सं [ बृहत्सं० ३०७] ति वचनात् एते च किल स्वयम्भूरमण एव भवन्तीति । उरेत्यादि, उरः परिसर्पा इह गर्भजा महोरगा दृश्या:, उरगेसु 10 य गब्भजाईसु ।। [बृहत्सं० ३०७] त्ति वचनात्, एते किल बाह्यद्वीपेषु जलनिश्रिता भवन्ति, एवं चेव त्ति दस जोयणसयाइं सरीरोगाहणा पन्नत्त त्ति सूत्रं वाच्यमित्यर्थः ।
[सू० ७२९] संभवाओ णमरहातो अभिनंदणे अरहा दसहिं सागरोवमकोडिसतसहस्सेहिं वीतिक्कंतेहिं समुप्पन्ने ।
[टी०] एवंविधाश्चार्था जिनैर्द्दर्शिता इति प्रकृताध्ययनावतारि जिनान्तरसूत्रं संभवेत्यादि 15 सुगमम् ।
[सू० ७३०] दसविहे अणंतते पण्णत्ते, तंजहा - णामाणंतते, ठवणाणंतते, दव्वाणंतते, गणणाणंतते, पएसाणंतते, एगतोणंतते, दुहतोणंतते, देसवित्थाराणंतते, सव्ववित्थाराणंतते, सासताणंतते ।
८३३
[टी०] अभिहितप्रमाणाश्चावगाहनादयोऽन्येऽपि पदार्था जिनैरनन्ता दृष्टा इत्यनन्तकं 20 भेदत आह— दसविहेत्यादि, नामानन्तकम् अनन्तकमित्येषा नामभूता वर्णानुपूर्वी यस्य वा सचेतनादेर्वस्तुनोऽनन्तकमिति नाम तन्नामानन्तकम्, स्थापनानन्तकं यदक्षादावनन्तकमिति स्थाप्यते, द्रव्यानन्तकं जीवद्रव्याणां पुद्गलद्रव्याणां वा यदनन्तत्वम्, गणनानन्तकं यदेको द्वौ त्रय इत्येवं सङ्ख्याता असङ्ख्याता अनन्ता इति सङ्ख्यामात्रतया सङ्ख्यातव्यानपेक्षं सङ्ख्यानमात्रं व्यपदिश्यत इति, प्रदेशानन्तकम् 25
१. माणाउ पा० ॥
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
८३४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे आकाशप्रदेशानां यदानन्त्यमिति, एकतोऽनन्तकमतीताद्धा अनागताद्धा वा, द्विधाऽनन्तकं सर्वाद्धा, देशविस्तारानन्तकम् एक आकाशप्रतरः, सर्वविस्तारानन्तकं सर्वाकाशास्तिकाय इति, शाश्वतानन्तकमक्षयं जीवादिद्रव्यमिति ।
[सू० ७३१] उप्पायपुव्वस्स णं दस वत्थू पण्णत्ता १। 5 अत्थिणत्थिप्पवातपुव्वस्स णं दस चूलवत्थू पण्णत्ता २।
[टी०] एवंविधार्थाभिधायकं पूर्वगतश्रुतमिति पूर्वश्रुतविशेषमिहावतारयन् सूत्रद्वयमाहउप्पायेत्यादि, उत्पादपूर्वं प्रथमं तस्य दश वस्तूनि अध्यायविशेषाः, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वं चतुर्थं तस्य मूलवस्तूनामुपरि चूलारूपाणि वस्तूनि चूलावस्तूनि। [सू० ७३२] दसविधा पडिसेवणा पण्णत्ता, तंजहादप्प-प्पमाद-ऽणाभोगे, आउरे आवतीसु त । संकिते सहसक्कारे, भय प्पयोसा य वीमंसा ॥१५४॥ दस आलोयणादोसा पण्णत्ता, तंजहाआकंपइत्ता अणुमाणइत्ता, जं दिहें बायरं व सुहुमं वा ।
छन्नं सद्दाउलगं, बहुजण अव्वत्त तस्सेवी ॥१५५॥ 15 दसहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति अत्तदोसमालोएत्तते, तंजहा
जातिसंपन्ने, कुलसंपन्ने, एवं जधा अट्ठट्ठाणे जाव खंते, दंते, अमाती, अपच्छाणुतावी ।
दसहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तते, तंजहाआयारवं, आहारवं जाव अवातदंसी, पितधम्मे, दढधम्मे । 20 [टी०] पूर्वगतादिश्रुतनिषिद्धवस्तूनां साधोर्यद्विधा प्रतिषेवा भवति तद्विधां तां
दर्शयन्नाह- दसविहेत्यादि, प्रतिषेत्रणा प्राणातिपाताद्यासेवनम् । दप्प सिलोगो, दो वल्गनादिः, दप्पो पुण होइ वग्गणाईओ [ ] इति वचनात्, तस्मादागमप्रतिषिद्धप्राणातिपाताद्यासेवा या सा दर्पप्रतिषेवणेति, एवमुत्तरपदान्यपि
नेयानि, नवरं प्रमादः परिहास-विकथादिः, कंदप्पाइ पमाओ [ ] इति वचनाद्, 25 विधेयेष्वप्रयत्नो वा, अनाभोगो विस्मृतिः, एषां समाहारद्वन्द्वस्तत्र, तथा आतुरे ग्लाने
सति तत्प्रतिजागरणार्थमिति भावः, अथवा आत्मन एवातुरत्वे सति, लुप्तभावप्रत्ययत्वात्, १. दृश्यतां तृतीयं परिशिष्टम् ॥ २. `षेवा जे१ ॥ ३. षेवेति जे१ ॥ ४. °थादि जे१ विना ॥
.
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७३२] दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८३५ अयमर्थ:- क्षुत्-पिपासा-व्याधिभिरभिभूत: सन् यां करोति, उक्तं च- पढमबीयहुओ वाहिओ व जं सेव आउरा एसा [ ] इति, तथा आपत्सु द्रव्यादिभेदेन चतुर्विधासु, तत्र द्रव्यत: प्रासुकद्रव्यं दुर्लभं क्षेत्रतोऽध्वप्रतिपन्नता कालतो दुर्भिक्षं भावतो ग्लानत्वमिति, उक्तं च- दव्वाइअलंभे पुण चउब्विहा आवया होइ [ ] इति, तथा शङ्किते एषणीयेऽप्यनेषणीयतया, जं संके तं समावजे [ ] इति वचनात्, सहसाकारे अकस्मात् 5 करणे सति, सहसाकारलक्षणं चेदम्
पुव्वं अपासिऊणं पाए छूढम्म जं पुणो पासे । न चएइ नियत्तेउं पायं सहसाकरणमेयं ॥ [निशीथभा० ९७] ति ।
भयं च भीति: नृप-चौरादिभ्य: प्रद्वेषश्च मात्सर्यं भयप्रद्वेषं तस्माच्च प्रतिषेवा भवति, यथा राजाद्यभियोगान्मार्गादि दर्शयति सिंहादिभयाद्वा वृक्षमारोहति, उक्तं च– 10 भयमभिउग्गेण सीहमाई व [ ] ति, इह प्रद्वेषग्रहणेन कषाया विवक्षिता:, आह चकोहाईओ पओसो [ ति, तथा विमर्श: शिक्षकादिपरीक्षा, आह च- वीमंसा सेहमाईणं [ ] ति, ततोऽपि प्रतिषेवा पृथिव्यादिसङ्घट्टादिरूपा भवतीति ।
प्रतिषेवायां चालोचना विधेया, तत्र च ये दोषास्ते परिहार्या इति दर्शनायाहदसेत्यादि, आकंप गाहा, आकम्प्य आवद्येत्यर्थः, यदुक्तम्
वेयावच्चाईहिं पुव्वं आगंपइत्तु आयरिए । आलोएइ कहं मे थोवं वियरिज पच्छित्तं ? ॥ [ ] ति ।
अणुमाणइत्ता अनुमानं कृत्वा, किमयं मृदुदण्ड उतोग्रदण्ड इति ज्ञात्वेत्यर्थः, अयमभिप्रायोऽस्य- यद्ययं मृदुदण्डस्ततो दास्याम्यालोचनामन्यथा नेति, उक्तं चकिं एस उग्गदंडो मिउदंडो व त्ति एवमणुमाणे।।
20 अन्ने पलिंति थोवं पच्छित्तं मज्झ देजासि ॥ [ ] त्ति । जं दिळं ति यदेव दृष्टमाचार्यादिना दोषजातं तदेवालोचयति नान्यत्, दोषश्चायम्, आचार्यरञ्जनमात्रपरत्वेनासंविग्नत्वादस्येति, उक्तं चदिट्ठा व जे परेणं दोसा वियडेइ ते च्चिय न अन्ने ।
सोहिभया जाणंतु व एसो एयावदोसो उ ॥ [ ] त्ति । १. चोरा' जे१ ॥ २. इओ जे१ पा० ॥ ३. देजाहि त्ति पा० जे२ ॥
15
25
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
८३६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे बायरं व त्ति बादरमेवातिचारजातमालोचयति न सूक्ष्ममिति, सुहुमं व त्ति सूक्ष्ममेव वाऽतिचारमालोचयति, य: किल सूक्ष्ममालोचयति स कथं बादरं सन्तं नालोचयत्येवंरूपभावसम्पादनायाऽऽचार्यस्येति, आह चबायर-वड्डवराहे जो आलोएइ सुहुम नालोए । अहवा सुहुमा लोए वर मन्नंतो उ एवं तु ॥ जो सुहुमे आलोए सो किह नालोय बायरे दोसे ? ॥ [ ] त्ति । छण्णं ति प्रच्छन्नमालोचयति यथाऽऽत्मनैव शृणोति नाचार्यः, भणितं चछण्णं तह आलोए जह नवरं अप्पणा सुणइ [ ] त्ति ।
सद्दाउलयं ति शब्देनाकुलं शब्दाकुलं बृहच्छब्दम्, तथा महता शब्देनालोचयति 10 यथाऽन्येऽप्यगीतार्थास्ते शृण्वन्तीति, अभाणि च
सद्दाउल वड्डेणं सद्देणालोय जह अगीया वि बोहेइ ॥ [ ] त्ति ।
बहुजणं ति बहवो जना आलोचनाचार्याः यस्मिन्नालोचने तद् बहुजनम्, अयमभिप्राय:
एक्कस्सालोएत्ता जो आलोए पुणो वि अन्नस्स । 15 ते चेव य अवराहे तं होइ बहुजणं नाम ॥ [ ] त्ति ।।
अव्वत्तं ति अव्यक्तस्य अगीतार्थस्य गुरोः सकाशे यदालोचनं तत् तत्सम्बन्धादव्यक्तमुच्यते, उक्तं च
जो य अगीयत्थस्सा आलोए तं तु होइ अव्वत्तं [ ति ।
तस्सेवि त्ति ये दोषा आलोचयितव्यास्तत्सेवी यो गुरुस्तस्य पुरतो यदालोचनं स 20 तत्सेविलक्षण आलोचनादोषः, तत्र चायमभिप्राय: आलोचयितु:
जह एसो मत्तुल्लो न दाही गुरुगमेव पच्छित्तं । इय जो किलिट्ठचित्तो दिन्ना आलोयणा तेणं ॥ [ ] ति ।
एतद्दोषपरिहारिणाऽपि गुणवतैवालोचना देयेति तद्गुणानाह- दसहिं ठाणेहीत्यादि, एवं ति अनेन क्रमेण यथाऽष्टस्थानके तथा इदं सूत्रं पठनीयमित्यर्थः, कियङ्करम् ? 25 यावत् खंते दंते त्ति पदे, तथाहि- विणयसंपन्ने नाणसंपन्ने दंसणसंपन्ने चरणसंपन्ने
१. अप्पणो जे१ ॥ २. एवं अनेन पा० ॥
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७३३-७३४] दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८३७ त्ति, अमायी अपच्छाणुतावीति पदद्वयमिहाधिकं प्रकटं च, नवरं ग्रन्थान्तरोक्तं तत्स्वरूपमिदम्- नो पलिउंचे अमायी अपच्छयावी न परितप्पे [ ] त्ति ।
एवंभूतगुणवताऽपि दीयमानाऽऽलोचना गुणवतैव प्रत्येष्टव्येति तद्गुणानाहदसहीत्यादि, आयारवं ति ज्ञानाद्याचारवान् १, अवहारवं ति अवधारणावान् २, जावकरणात् ववहारवं आगमादिपञ्चप्रकारव्यवहारवान् ३, उव्वीलए अपव्रीडक: 5 लज्जापनोदको यथा पर: सुखमालोचयतीति ४, पकुव्वी आलोचिते शुद्धिकरणसमर्थः ५, निजवए यस्तथा प्रायश्चित्तं दत्ते यथा परो निर्वोढुमलं भवतीति ६, अपरिस्सावी आलोचकदोषानुपश्रुत्य यो नोगिरति ७, अवायदंसी सातिचारस्य पारलौकिकापायदर्शीति पूर्वोक्तमेव ८, पियधम्मे ९, दढधम्मे १० त्ति अधिकमिह, प्रियधा धर्मप्रियः, दृढधा य आपद्यपि धान्न चलतीति ।
10 [सू० ७३३] दसविधे पायच्छित्ते पन्नत्ते, तंजहा-आलोयणारिहे जाव अणवठ्ठप्पारिहे, पारंचितारिहे ।
टी०] आलोचितदोषाय प्रायश्चित्तं देयमतस्तत्प्ररूपणसूत्रं दसविहेत्यादि, आलोचना गुरुनिवेदनम्, तयैव यच्छुद्ध्यत्यतिचारजातं तत्तदर्हत्वादालोचनार्हम्, तच्छुद्ध्यर्थं यत् प्रायश्चित्तं तदप्यालोचनाहम्, तच्चालोचनैवेत्येवं सर्वत्र, यावत्करणात् पडिक्कमणारिहे 15 प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतं तदर्हम्, तदुभयारिहे आलोचना-प्रतिक्रमणाहमित्यर्थः, विवेगारिहे परित्यागशोध्यम्, विउसग्गारिहे कायोत्सर्गार्हम्, तवारिहे निर्विकृतिकादितप:शोध्यम्, छेदारिहे पर्यायच्छेदयोग्यम्, मूलारिहे व्रतोपस्थापनार्हम्, अणवट्ठप्पारिहे यस्मिन्नासेविते कञ्चन कालं व्रतेष्वनवस्थाप्यं कृत्वा पश्चाच्चीर्णतपास्तद्दोषोपरतो व्रतेषु स्थाप्यते तदनवस्थाप्याहम्, पारंचियारिहे 20 एतदधिकमिह, तत्र यस्मिन् प्रतिषेविते लिङ्ग-क्षेत्र-काल-तपोभि: पाराञ्चिको बहिर्भूत: क्रियते तत् पाराञ्चिकम्, तदर्हमिति ।
[सू० ७३४] दसविधे मिच्छत्ते पण्णत्ते, तंजहा-अधम्मे धम्मसण्णा, धम्मे अधम्मसण्णा, उम्मग्गे मग्गसण्णा, मग्गे उम्मग्गसण्णा, अजीवेसु जीवसण्णा, जीवेसु अजीवसण्णा, असाधूसु साधुसण्णा, साधूसु असाधुसण्णा, अमुत्तेसु 25 मुत्तसण्णा, मुत्तेसु अमुत्तसण्णा ।
.
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
८३८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [टी०] पाराञ्चिको मिथ्यात्वमप्यनुभवेदतो मिथ्यात्वनिरूपणाय सूत्रम्, तत्र अधर्मे श्रुतलक्षणविहीनत्वादनागमे अपौरुषेयादौ धर्मसंज्ञा आगमबुद्धिर्मिथ्यात्वम्, विपर्यस्तत्वादिति १, धर्मे कष-च्छेदादिशुद्धे सम्यक्श्रुते आप्तवचनलक्षणेऽधर्मसंज्ञा,
सर्व एव पुरुषा रागादिमन्तोऽसर्वज्ञाश्च पुरुषत्वादहमिवेत्यादिप्रमाणतोऽनाप्तास्तदभावान्न 5 तदुपदिष्टं शास्त्रं धर्म इत्यादिकुविकल्पवशादनागमबुद्धिरिति २, तथा उन्मार्गो निर्वृतिपुरी प्रति अपन्था: वस्तुतत्त्वापेक्षया विपरीतश्रद्धान-ज्ञाना-ऽनुष्ठानरूपस्तत्र मार्गसंज्ञा कुवासनातो मार्गबुद्धि: ३, तथा मार्गेऽमार्गसंज्ञेति प्रतीतम् ४, तथा अजीवेषु आकाशपरमाण्वादिषु जीवसंज्ञा पुरुष एवेदमित्याद्यभ्युपगमादिति, तथा
क्षिति-जल-पवन-हुताशन-यजमाना-ऽऽकाश-चन्द्र-सूर्याख्या: । 10 इति मूर्तयो महेश्वरसम्बन्धिन्यो भवन्त्यष्टौ ॥ [ ] इति ५,
तथा जीवेषु पृथिव्यादिष्वजीवसंज्ञा यथा न भवन्ति पृथिव्यादयो जीवा उच्छ्वासादीनां प्राणिधर्माणामनुपलम्भाद् घटवदिति ६, तथाऽसाधुषु षड्जीवनिकायवधानिवृत्तेष्वौद्देशिकादिभोजिष्वब्रह्मचारिषु साधुसंज्ञा, यथा साधव एते सर्वपापप्रवृत्ता अपि ब्रह्ममुद्राधारित्वादित्यादिविकल्परूपेति ७, तथा साधुषु ब्रह्मचर्यादिगुणान्वितेषु 15 असाधुसंज्ञा, ‘एते हि कुमारप्रव्रजिताः, नास्त्येषां गतिरपुत्रत्वात् स्नानादिविरहितत्वाद्वा'
इत्यादिविकल्पात्मिकेति ८, तथाऽमुक्तेषु सकर्मसु लोकव्यापारप्रवृत्तेषु मुक्तसंज्ञा,
यथा
अणिमाद्यष्टविधं प्राप्यैश्वर्यं कृतिन: सदा । ___मोदन्ते निर्वृतात्मानस्तीर्णा: परमदुस्तरम् ॥ [ ] 20 इत्यादिविकल्पात्मिकेति ९, तथा मुक्तेषु सकलकर्मकृतविकारविरहितेष्वनन्तज्ञान
दर्शन-सुख-वीर्ययुक्तेषु अमुक्तसंज्ञा, न सन्त्येवेदृशा मुक्ताः, अनादिकर्मयोगस्य निवर्त्तयितुमशक्यत्वादनादित्वादेव आकाशा-ऽऽत्मयोगस्येवेति, न सन्ति वा मुक्ता: मुक्तस्य विध्यातदीपकल्पत्वादात्मन एव वा नास्तित्वादित्यादिविकल्परूपेति १० ।
[सू० ७३५] चंदप्पभे णं अरहा दस पुव्वसतसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता 25 सिद्धे जाव प्पहीणे १॥
धम्मेणमरहा दस वाससयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जाव १. दृश्यतां पृ० ७२९ पं० २ टि०१ ॥
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८३९
[सू० ७३६-७३७] प्पहीणे २॥
णमी णमरहा दस वाससहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जीव प्पहीणे ३॥
पुरिससीहे णं वासुदेवे दस वाससयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता छट्ठाते तमाए पुढवीए नेरतितत्ताते उववन्ने १।
णेमी णं अरहा दस धणूई उटुंउच्चत्तेणं दस य वाससताई सव्वाउयं 5 पालइत्ता सिद्धे जाव प्पहीणे २।।
कण्हे णं वासुदेवे दस धणूइं उटुंउच्चत्तेणं दस य वाससयाइं सव्वाउयं पालइत्ता तच्चाते वालुयप्पभाते पुढवीते नेरतितत्ताते उववन्ने ।
[टी०] अनन्तरं मिथ्यात्वविषयतया मुक्ता उक्ताः, इदानीं तदधिकारात्तीर्थकरत्रयस्य दशस्थानकानुपातेन मुक्तत्वमभिधीयते- चंदप्पभे णं इत्यादि सूत्रत्रयमपि कण्ठ्यम्, 10 नवरं सिद्धे जाव त्ति यावत्करणात्, सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतकडे सव्वदुक्खप्पहीणे त्ति सूत्रं द्रष्टव्यमिति ।
उक्ततीर्थकराश्च महापुरुषा इति तत्सम्बन्धि पुरिससीहेत्यादिसूत्रत्रयं कण्ठ्यम् । [सू० ७३६] दसविधा भवणवासी देवा पण्णत्ता, तंजहा-असुरकुमारा जाव थणितकुमारा ।
एतेसि णं दसविधाणं भवणवासीणं देवाणं दस चेतितरुक्खा पन्नत्ता, तंजहा
अस्सत्थ सत्तिवने, सामलि उंबर सिरीस दहिवन्ने । वंजुल पलास वप्पो वग्यो ?] तते त कणिताररुक्खे त २॥१५६॥ [टी०] नैरयिकतयेति प्रागुक्तम्, नारकासन्नाश्च क्षेत्रतो भवनवासिन इति तद्गतं 20 सूत्रद्वयं कण्ठ्य म्, नवरम्
असुरा १ नाग २ सुवन्ना ३ विजू ४ अग्गी ५ य दीव ६ उदही ७ य । दिसि८पवण९ थणियनामा१० दसहा एए भवणवासी ॥ [प्रज्ञापना० २।११७।१३७] इति । अनेन क्रमेणाश्वत्थादयश्चैत्यवृक्षा ये सिद्धायतनादिद्वारेषु श्रूयन्त इति । [सू० ७३७] दसविधे सोक्खे पन्नत्ते, तंजहाआरोग्ग दीहमाउं, अड्डेजं काम भोग संतोसो।। अत्थि सुहभोग निक्खम्ममेव तत्तो अणाबाधे ॥१५७॥
15
25
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
[टी०] प्राग्भवनवासिनो देवा उक्तास्तेषां च किल सुखं भवतीति सुखं सामान्यत आह– दसविहेत्यादि, आरोग गाहा, आरोग्यं नीरोगता १, दीर्घमायुः चिरं जीवितम्, शुभमितीह विशेषणं दृश्यमिति २, अड्डेज्जं ति आढ्यत्वं धनपतित्वं सुखकारणत्वात् सुखम्, अथवा आढ्यैः क्रियमाणा इज्या पूजा आढ्येज्या, प्राकृतत्वादड्डेज्जं ति ३, 5 काम त्ति कामौ शब्द-रूपे सुखकारणत्वात् सुखम् ४, एवं भोगे त्ति भोगा: गन्धरस-स्पर्शाः ५, तथा सन्तोष: अल्पेच्छता, तत् सुखमेव आनन्दरूपत्वात् सन्तोषस्य, उक्तं च
८४०
आरोगसारियं माणुसत्तणं सच्चसारिओ धम्मो ।
] ति ६ ।
विज्जा निच्छयसारा सुहाई संतोससाराई ॥ [ 10 अस्थि ति येन येन यदा यदा प्रयोजनं तत्तत्तदा तदाऽस्ति भवति जायते इति सुखमानन्दहेतुत्वादिति ७, सुहभोग त्ति शुभ: अनिन्दितो भोगो विषयेषु भोगक्रियेति,
सुखमेव सातोदयसम्पाद्यत्वात् तस्येति ८, निक्खम्ममेव त्ति निष्क्रमणं निष्क्रमः अविरतिजम्बालादिति गम्यते, प्रव्रज्येत्यर्थः, इह च द्विर्भावो नपुंसकता च प्राकृतत्वात्, एवकारोऽवधारणे, अयमर्थ:- निष्क्रमणमेव भवस्थानां सुखम्, निराबाधस्वायत्ता15 नन्दरूपत्वात्, अत एवोच्यते - दुवालसमासपरियाए समणे निग्गंथे अणुत्तराणं देवानं उल्ले वीवति [ भगवती० १४।९।१७] त्ति तथा
नैवास्ति राजराजस्य तत् सुखं नैव देवराजस्य ।
यत् सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ॥ [प्रशम० गा० १२८] इति, शेषसुखानि हि दुःखप्रतीकारमात्रत्वात् सुखाभिमानमात्रजनकत्वाच्च तत्त्वतो न सुखं भवन्तीति ९, तत्तो 20 अणाबाहे त्ति ततो निष्क्रमणसुखानन्तरम् अनाबाधं न विद्यते आबाधा जन्म-जरामरण-क्षुत्-पिपासादिका यत्र तदनाबाधं मोक्षसुखमित्यर्थः, एतदेव च सर्वोत्तमम्, यत
25
उक्तम्–
वि अत्थि माणुसणं तं सोक्खं नवि य सव्वदेवाणं ।
जं सिद्धाणं सोक्खं अव्वाबाहं उवगयाणं ॥ [ आव० नि० ९८०] ति १० । [सू० ७३८ ] दसविधे उवघाते पन्नत्ते, तंजहा - उग्गमोवघाते, उप्पायणोवघाते १. सा सुख खं० ॥ २. विइवइति पा० जे२ । वि वयइति खं० ॥ “बारसमासपरियाए सम निग्गंथे अणुत्तरोववातियाणं देवाणं तेयलेस्सं वीतीवयति ।" इति भगवत्याम् ॥
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७३९]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
जधा पंचट्ठाणे जाव परिहरणोवघाते, णाणोवघाते, दंसणोवघाते, चरित्तोवघाते, अचियत्तोवघाते, सारक्खणोवघाते ।
सविधा विसोधी पण्णत्ता, तंजहा- उग्गमविसोही, उप्पायणविसोही जाव सारक्खणविसोही ।
[टी०] निष्क्रमणसुखं चारित्रसुखमुक्तम्, तच्चानुपहतमनाबाधसुखायेत्यत - 5 श्चारित्रस्यैतत्साधनस्य भक्तादेर्ज्ञानादेश्चोपघातनिरूपणसूत्रम्, तत्र यदुद्गमेन आधाकर्म्मादिना षोडशविधेनोपहननं विराधनं चारित्रस्याकल्प्यता वा भक्तादेः स उद्गमोपघातः १, एवमुत्पादनया धात्र्यादिदोषलक्षणया य: स उत्पादनोपघातः, जहा पंचट्ठाणे ि भणनात् तत् सूत्रमिह दृश्यम्, कियत् ?, अत आह— जाव परीत्यादि, तच्चेदम्एसणोवघाए एषणया शङ्कितादिभेदया य: स एषणोपघातः, परिकम्मोवघाए परिकर्म्म 10 वस्त्र-पात्रादिसमारचनं तेनोपघातः स्वाध्यायस्य, श्रमादिना शरीरस्य संयमस्य वोपघातः परिकर्मोपघातः, परिहरणोवघाए परिहरणा अलाक्षणिकस्याकल्प्यस्य वोपकरण सेवा तया यः परिहरणोपघातः, तथा ज्ञानोपघातः श्रुतज्ञानापेक्षया प्रमादतः, दर्शनोपघातः शङ्कादिभिः, चारित्रोपघातः समितिभङ्गादिभि:, अचियत्तोवघाए अचियत्तम् अप्रीतिकं तेनोपघातो विनयादेः, सारक्खणोवघाए त्ति संरक्षणेन 15 शरीरादिविषये मूर्च्छया उपघातः परिग्रहविरतेरिति संरक्षणोपघात इति ।
उपघातविपक्षभूतविशुद्धिनिरूपणाय सूत्रम्, तत्रोद्रमादिविशुद्धिर्भक्तादेर्निरवद्यता,
८४१
किरणात् सत्यादि वाच्यमित्यर्थः, तत्र परिकर्म्मणा वसत्यादिसारवणलक्षणेन क्रियमाणेन विशुद्धिर्या संयमस्य सा परिकर्मविशुद्धिः, परिहरणया वस्त्रादेः शास्त्रीयया सेवनया विशुद्धिः परिहरणाविशुद्धिः, ज्ञानादित्रयविशुद्धयस्तदाचारपरिपालनतः, 20 अचियत्तस्य अप्रीतिकस्य विशोधिस्तन्निवर्त्तनादचियत्तविशोधिः, संरक्षणं संयमार्थम् उपध्यादेस्तेन विशुद्धिश्चारित्रस्येति संरक्षणविशुद्धिः, अथवोद्गमाद्युपाधिका दशप्रकाराऽपीयं चेतसो विशुद्धिर्विशुद्ध्यमानता भणितेति ।
[सू० ७३९] दसविधे संकिले से पन्नत्ते, तंजहा - उवहिसंकिलेसे,
१. चोप जे१ खं० ॥
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे उवस्सयसंकिलेसे, कसायसंकिलेसे, भत्तपाणसंकिलेसे, मणसंकिलेसे, वतिसंकिलेसे, कायसंकिलेसे, णाणसंकिलेसे, दंसणसंकिलेसे, चरित्तसंकिलेसे।
दसविधे असंकिलेसे पन्नत्ते, तंजहा-उवहिअसंकिलेसे जाव चरित्त5 असंकिलेसे ।
[टी०] इदानीं चित्तस्यैव विशुद्धिविपक्षभूतमुपध्याधुपाधिकं सङ्क्लेशमभिधातुमुपक्रमते, तत्र सूत्रम्- दसेत्यादि, सङ्क्ले श: असमाधि:, उपधीयते उपष्टभ्यते संयम: संयमशरीरं वा येन स उपधि: वस्त्रादिस्तद्विषय: सङ्क्ले श: उपधिसङ्क्लेश:,
एवमन्यत्रापि, नवरम् उवस्सय त्ति उपाश्रयो वसतिः, तथा कषाया एव कषायैर्वा 10 सङ्क्लेश: कषायसङ्क्लेशः, तथा भक्त-पानाश्रितः सङ्क्लेशो भक्त-पान
सङ्क्लेशः, तथा मनसो मनसि वा सङ्क्लेशः, वाचा सङ्क्लेश:, कायमाश्रित्य सङ्क्लेश इति विग्रहः, तथा ज्ञानस्य सङ्क्लेश: अविशुद्ध्यमानता स ज्ञानसङ्क्लेश:, एवं दर्शन-चारित्रयोरपीति । ___ एतद्विपक्षोऽसङ्क्लेशस्तमधुनाऽऽह- दसेत्यादि, कण्ठ्यम् । 15 [सू० ७४०] दसविधे बले पन्नत्ते, तंजहा-सोतिदितबले जाव फासिंदितबले, णाणबले, दसणबले, चरित्तबले, तवबले, वीरितबले ।
टी०] असङ्क्लेशश्च विशिष्टे जीवस्य वीर्यबले सति भवतीति सामान्यतो बलनिरूपणायाह- दसेत्यादि, श्रोत्रेन्द्रियादीनां पञ्चानां बलं स्वार्थग्रहणसामर्थ्यम्,
जाव त्ति चक्षुरिन्द्रियबलादि वाच्यमित्यर्थः, ज्ञानबलमतीतादिवस्तुपरिच्छेदसामर्थ्य 20 चारित्रसाधनतया मोक्षसामर्थ्य वा, दर्शनबलं सर्ववे दिवचनप्रामाण्याद
तीन्द्रियायुक्तिगम्यपदार्थरोचनलक्षणम्, चारित्रबलं यद् दुष्करमपि सकलसङ्गवियोगं करोत्यात्मा यच्चानन्तमनाबाधमैकान्तिकमात्यन्तिकमात्मायत्तमानन्दमाप्नोति, तपोबलं यदनेकवावर्जितमनेकदुःखकारणं निकाचितकर्मग्रन्थिं क्षपयति, वीर्यमेव बलं वीर्यबलम्, यतो गमनागमनादिकासु विचित्रासु क्रियासु वर्त्तते, यच्चापनीय १. चरित्र' जे१ खं० ॥ २. भवार्जित पासं०, एष पाठः समीचीनतरो भाति ॥
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४३
10
[सू० ७४१]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् । सकलकलुषपटलमनवरतानन्दभाजनं भवतीति । [सू० ७४१] दसविधे सच्चे पण्णत्ते, तंजहाजणवय सम्मुति ठवणा, नामे रूवे पडुच्चसच्चे य । ववहार भाव जोगे, दसमे ओवम्मसच्चे य ॥१५८॥ दसविधे मोसे पन्नत्ते, तंजहाकोधे माणे माया, लोभे पेजे तहेव दोसे य ।। हास भते अक्खातित, उवघाते निस्सिते दसमे ॥१५९॥
दसविधे सच्चामोसे पन्नत्ते, तंजहा- उप्पन्नमीसते, विगतमीसते, उप्पन्नविगतमीसते, जीवमीसए, अजीवमीसए, जीवाजीवमीसए, अणंतमीसए, परित्तमीसए, अद्धामीसते, अद्धद्धामीसते ।
[टी०] चारित्रबलयुक्तः सत्यमेव भाषत इति तन्निरूपणायाह- दसविहेत्यादि, सन्त: प्राणिन: पदार्था मुनयो वा तेभ्यो हितं सत्यं दशविधं तत् प्रज्ञप्तम्, तद्यथाजणवय गाहा, जणवय त्ति सत्यशब्दः प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयः, ततश्च जनपदेषु देशेषु यद्यदर्थवाचकतया रूढं देशान्तरेऽपि तत्तदर्थवाचकतया प्रयुज्यमानं सत्यमवितथमिति जनपदसत्यम्, यथा कोकणादिषु पयः पिच्चं नीरमुदकमित्यादि, सत्यत्वं 15 चास्यादुष्टविवक्षाहेतुत्वान्नानाजनपदेष्विष्टार्थप्रतिपत्तिजनकत्वाद् व्यवहारप्रवृत्तेः, एवं शेषेष्वपि भावना कार्येति, संमुइ त्ति संमतं च तत् सत्यं चेति सम्मतसत्यम्, तथाहिकुमुद-कुवलयोत्पल-तामरसानां समाने पङ्कसम्भवे गोपालादीनामपि सम्मतमरविन्दमेव पङ्कजमिति अतस्तत्र संमततया पङ्कजशब्दः सत्य: कुवलयादावसत्योऽसंमतत्वादिति, ठवण त्ति स्थाप्यत इति स्थापना यल्लेप्यादिकाल्दादिविकल्पेन स्थाप्यते तद्विषये सत्यं 20 स्थापनासत्यम्, यथा अजिनोऽपि जिनोऽयमनाचार्योऽप्याचार्योऽयमिति, नामे त्ति नाम अभिधानं तत् सत्यं नामसत्यम्, यथा कुलमवर्द्धयन्नपि कुलवर्द्धन उच्यते एवं धनवर्द्धन इति, रूवे त्ति रूपापेक्षया सत्यं रूपसत्यम्, यथा प्रपञ्चयति: प्रव्रजितरूपं धारयन् प्रव्रजित उच्यते न चासत्यताऽस्येति, पडुच्चसच्चे य त्ति प्रतीत्य आश्रित्य वस्त्वन्तरं सत्यं प्रतीत्यसत्यम्, यथा अनामिकाया दीर्घत्वं ह्रस्वत्वं चेति, तथाहि- 25 तस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणसन्निधाने तत्तद्रूपमभिव्यज्यत इति
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सत्यता, ववहार त्ति व्यवहारेण सत्यं व्यवहारसत्यम्, यथा दह्यते गिरिः, गलति भाजनम्, अयं च गिरिगततृणादिदाहे व्यवहार: प्रवर्त्तते, उदके च गलति सतीति, भाव त्ति भावभूयिष्ठशुक्लादिपर्यायमाश्रित्य सत्यं भावसत्यम्, यथा शुक्ला बलाकेति, सत्यपि हि पञ्चवर्णसम्भवे शुक्लवर्णोत्कटत्वात् शुक्लेति, जोगे त्ति योगत: संबन्धत: 5 सत्यं योगसत्यम्, यथा दण्डयोगाद् दण्डः छत्रयोगाच्छत्र एवोच्यत इति, दशममौपम्यसत्यमिति उपमैवौपम्यं तेन सत्यमौपम्यसत्यं यथा समुद्रवत्तडागं देवोऽयं सिंहस्त्वमिति, सर्वत्रैकार: प्रथमैकवचनार्थो द्रष्टव्य इति । ___ सत्यविपक्षं मृषाह- दसेत्यादि, मोसे त्ति प्राकृतत्वात् मृषाऽनृतमित्यर्थः, कोहे
गाहा, कोहे त्ति क्रोधे निश्रितमिति सम्बन्धात् क्रोधाश्रितं कोपाश्रितं मृषेत्यर्थः, तच्च 10 यथा क्रोधाभिभूत: अदासमपि दासमभिधत्त इति, माने निश्रितं यथा मानाध्मातः कश्चित्
केनचिदल्पधनोऽपि पृष्टः सन्नाह महाधनोऽहमिति, माय त्ति मायायां निश्रितं यथा मायाकारप्रभृतय आहुः- नष्टो गोलकः इति, लोभे त्ति लोभे निश्रितं वणिक्प्रभृतीनामन्यथाक्रीतमेवेत्थं क्रीतमित्यादि, पिज त्ति प्रेमणि निश्रितम् अतिरक्तानां दासोऽहं तवेत्यादि, तहेव दोसे य त्ति द्वेषे निश्रितम्, मत्सरिणां गुणवत्यपि 15 निर्गुणोऽयमित्यादि, हासे त्ति हासे निश्रितं यथा कन्दर्पिकाणां कस्मिंश्चित् कस्यचित् सम्बन्धिनि गृहीते पृष्टानां न दृष्टमित्यादि, भये त्ति भयनिश्रितं तस्करादिगृहीतानां तथा तथा असमञ्जसाभिधानम्, अक्खाइय त्ति आख्यायिकानिश्रितं तत्प्रतिबद्धोऽसत्प्रलाप:, उवघाये निस्सिये त्ति उपघाते प्राणिवधे निश्रितम् आश्रितं दशमं मृषा, अचौरे
चौरोऽयमित्यभ्याख्यानवचनम्, मृषाशब्दस्त्वव्यय इति । 20 सत्यासत्ययोगे मिश्रं वचनं भवतीति तदाह- दसेत्यादि, सत्यं च तन्मषा चेति प्राकृतत्वात् सच्चामोसं ति, उप्पन्नमीसए त्ति उत्पन्नविषयं मिश्रं सत्यमृषा उत्पन्नमिश्रं तदेवोत्पन्नमिश्रकम्, यथै कं नगरमधिकृत्यास्मिन्नद्य दश दारका उत्पन्ना इत्यभिदधतस्तन्न्यूनाधिकभावे व्यवहारतोऽस्य सत्यमृषात्वात्, श्वस्ते शतं
दास्यामीत्यभिधाय पञ्चाशत्यपि दत्तायां लोके मृषात्वादर्शनात्, अनुत्पन्नेष्वेवाऽदत्तेष्वेव 25 वा मृषात्वसिद्धेः, सर्वथा क्रियाऽभावेन सर्वथा व्यत्ययाद, एवं विगतादिष्वपि
भावनीयमिति, १, विगतमीसए त्ति विगतविषयं मिश्रकं विगतमिश्रकम्, यथैकं १. इहेति पा० जे२ ॥
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७४२] दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८४५ ग्राममधिकृत्यास्मिन्नद्य दश वृद्धा विगता इत्यभिदधतो न्यूनाधिकभावे मिश्रमिति २, उप्पन्नविगयमीसए त्ति उत्पन्नं च विगतं च उत्पन्नविगते, तद्विषयं मिश्रकम् उत्पन्नविगतमिश्रकम्, यथैकं पत्तनमधिकृत्यास्मिन्नद्य दश दारका जाता: दश च वृद्धा विगता इत्यभिदधतस्तन्न्यूनाधिकभाव इति ३, जीवमीसए त्ति जीवविषयं सत्यासत्यं जीवमिश्रम्, यथा जीवन्मृतकृमिराशौ जीवराशिरिति ४, अजीवमीसए त्ति अजीवानाश्रित्य 5 मिश्रमजीवमिश्रम्, यथा तस्मिन्नेव च प्रभूतमृतकृमिराशावजीवराशिरिति ५, जीवाजीवमिस्सए त्ति जीवाजीवविषयं मिश्रकं जीवाजीवमिश्रकं यथा तस्मिन्नेव जीवन्मृतकृमिराशौ प्रमाणनियमेनैतावन्तो जीवन्त्येतावन्तश्च मृता इत्यभिदधतस्तन्यूनाधिकत्वे ६, अणंतमीसए त्ति अनन्तविषयं मिश्रकमनन्तमिश्रकं यथा मूलकन्दादौ परीत्तपत्रादिमत्यनन्तकायोऽयमित्यभिदधत: ७, परित्तमिस्सए त्ति 10 परीत्तविषयं मिश्रकं परीत्तमिश्रकं यथा अनन्तकायलेशवति परीत्ते परीत्तोऽयमित्यभिदधतः ८, अद्धामिस्सए त्ति कालविषयं सत्यासत्यं यथा कश्चित् कस्मिंश्चित् प्रयोजने सहायांस्त्वरयन् परिणतप्राये वासरे एव रजनी वर्त्तत इति ब्रवीति ९, अद्धद्धामीसए त्ति अद्धा दिवसो रजनी वा, तदेकदेश: प्रहरादि: अद्धाद्धा, तद्विषयं मिश्रकं सत्यासत्यं अद्धाद्धामिश्रकम्, यथा कश्चित् कस्मिंश्चित् प्रयोजने प्रहरमात्र एव मध्याह्न इत्याह। 15
[सू० ७४२] दिट्ठिवातस्स णं दस नामधेजा पन्नत्ता, तंजहा-दिट्ठिवाते ति वा, हेउवाते ति वा, भूतवाते ति वा, तच्चावाते ति वा, सम्मावाते ति वा, धम्मावाते ति वा, भासाविजते ति वा, पुव्वगते ति वा, अणुजोगगते ति वा, सव्वपाण-भूत-जीव-सत्तसुहावहे ति वा ।
[टी०] भाषाधिकारात् सकलभाषणीयार्थव्यापकं सत्यभाषारूपं दृष्टिवादं पर्यायतो 20 दशधाऽऽह- दिट्ठीत्यादि, दृष्टयो दर्शनानि, वदनं वादः, दृष्टीनां वादो दृष्टिवाद: दृष्टीनां वा पातो यस्मिन्नसौ दृष्टिपात:, सर्वनयदृष्टय इहाख्यायन्त इत्यर्थः, तस्य दश नामधेयानि नामानीत्यर्थः, तद्यथा- दृष्टिवाद इति प्रतिपादितमेव, इतिशब्द उपप्रदर्शने, वाशब्दो विकल्पे, तथा हिनोति गमयति जिज्ञासितमर्थमिति हेतुः अनुमानोत्थापकं लिङ्गमुपचारादनुमानमेव वा, तद्वादो हेतुवादः, तथा भूता: सद्भूता: पदार्थास्तेषां वादो 25 १. परीत खं० विना ॥ २. परीत जे१, २ ॥ ३. परीत' जे१ ॥ ४. परीतो जे१ ॥
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे भूतवादः, तथा तत्त्वानि वस्तूनामैदम्पर्याणि, तेषां वादस्तत्त्ववादः, तथ्यो वा सत्यो वादस्तथ्यवादः, तथा सम्यग् अविपरीतो वादः सम्यग्वादः, तथा धर्माणां वस्तुपर्यायाणां धर्मस्य वा चारित्रस्य वादो धर्मवादः, तथा भाषा सत्यादिका तस्या विचयो निर्णयो भाषाविचयः, भाषाया वा वाचो विजयः समृद्धिर्यस्मिन् स 5 भाषाविजयः, तथा सर्वश्रुतात् पूर्वं क्रियन्त इति पूर्वाणि उत्पादपूर्वादीनि चतुर्दश, तेषु गतः अभ्यन्तरीभूतस्तत्स्वभाव इत्यर्थ इति पूर्वगतः, तथाऽनुयोगः प्रथमानुयोगस्तीर्थकरादिपूर्वभवादिव्याख्यानग्रन्थः, गण्डिकानुयोगश्च भरतनरपतिवंशजानां निर्वाणगमनानुत्तरविमानवक्तव्यताख्यानग्रन्थ इति द्विरूपेऽनुयोगे
गतोऽनुयोगगतः, एतौ च पूर्वगता-ऽनुयोगगतौ दृष्टिवादांशावपि दृष्टिवादतयोक्तौ अवयवे 10 समुदायोपचारादिति, तथा सर्वे विश्वे ते च ते प्राणाश्च द्वीन्द्रियादयो भूताश्च तरवः
जीवाश्च पञ्चेन्द्रियाः सत्त्वाश्च पृथिव्यादयः इति द्वन्द्वे सति कर्मधारयः, ततस्तेषां सुखं शुभं वा आवहतीति सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्वसुखावहः, सुखावहत्वं च संयमप्रतिपादकत्वात् सत्त्वानां निर्वाणहेतुत्वाच्चेति ।
[सू० ७४३] दसविधे सत्थे पण्णत्ते, तंजहा15 सत्थमग्गी विसं लोणं, सिणेहो खारमंबिलं ।
दुप्पउत्तो मणो वाया, कायो भावो त अविरती ॥१६०॥ [टी०] प्राणादीनां सुखावहो दृष्टिवादोऽशस्त्ररूपत्वात्, शस्त्रमेव हि दुःखावहमिति शस्त्रप्ररूपणायाह- दसेत्यादि, शस्यते हिंस्यते अनेनेति शस्त्रम् । सत्थं सिलोगो, शस्त्रं हिंसकं वस्तु, तच्च द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतस्तावदुच्यते- अग्निः अनलः, 20 स च विसदृशानलापेक्षया स्वकायशस्त्रं भवति, पृथिव्याद्यपेक्षया तु परकायशस्त्रम् १, विषं स्थावर-जङ्गमभेदम् २, लवणं प्रतीतम् ३, स्नेहः तैल-घृतादिः ४, क्षारो भस्मादिः ५, अम्लं काञ्जिकम् ६, भावो य त्ति इह द्रष्टव्यम्, तेन भावो भावरूपं शस्त्रम्, किं तदित्याह- दुष्प्रयुक्तम् अकुशलं मनो मानसम् ७, वाग् वचनं दुष्प्रयुक्ता
८, कायश्च शरीरं दुष्प्रयुक्त एव ९, इह च कायस्य हिंसाप्रवृत्तौ खड्गादेरुपकरणत्वात् 25 कायग्रहणेनैव तद्ग्रहणं द्रष्टव्यमिति, अविरतिश्च अप्रत्याख्यानमथवा अविरतिरूपो
भावः शस्त्रमिति १० । १. नन्दीसू० ११०-११२ ॥
-
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८४७
[सू० ७४४] [सू० ७४४] दसविधे दोसे पन्नत्ते, तंजहातजातदोसे मतिभंगदोसे, पसत्थारदोसे परिहरणदोसे । सलक्खण-कारण-हेउदोसे, संकामणं निगह वत्थुदोसे ॥१६१॥ १॥ दसविधे विसेसे पन्नत्ते, तंजहावत्थु-तज्जातदोसे त, दोसे एगट्टिते ति त । कारणे त पडुप्पन्ने, दोसे निच्चे [s]हिअट्ठमे ॥ अत्तणा उवणीते त, विसेसे तित ते दस ॥१६२॥ २॥ दसविधे सुद्धावाताणुओगे पन्नत्ते, तंजहा-चंकारे, मंकारे, पिंकारे, सेतंकारे, सातंकारे, एगत्ते, पुधत्ते, संजूहे, संकामिते, भिन्ने ३।
[टी०] अविरत्यादयो दोषाः शस्त्रमित्युक्तमिति दोषप्रस्तावाद्दोषविशेषनिरूपणायाह– 10 दसविहेत्यादि । तज्जायेत्यादि वृत्तम्, एते हि गुरु-शिष्ययोर्वादि-प्रतिवादिनोर्वा वादाश्रया इव लक्ष्यन्ते, तत्र तस्य गुर्वादेर्जातं जातिः प्रकारो वा जन्म-मर्मकर्मादिलक्षणः तज्जातं तदेव दूषणमिति कृत्वा दोषस्तज्जातदोषः, तथाविधकुलादिना दूषणमित्यर्थः, अथवा तस्मात् प्रतिवाद्यादेः सकाशाज्जातः क्षोभान्मुखस्तम्भादिलक्षणो दोषस्तज्जातदोषः १ । तथा स्वस्यैव मतेः बुद्धर्भङ्गो विनाशो मतिभङ्गो विस्मृत्यादिलक्षणो दोषो 15 मतिभङ्गदोषः २ । तथा प्रशास्ता अनुशासको मर्यादाकारी सभानायकः सभ्यो वा तस्माद् द्विष्टादुपेक्षकाद्वा दोषः प्रतिवादिनो जयदानलक्षणो विस्मृतप्रमेयप्रतिवादिनः प्रमेयस्मारणादिलक्षणो वा प्रशास्तृदोषः, इह त्थाशब्दो लघुश्रुतिरिति ३। तथा परिहरणम् आसेवा स्वदर्शनस्थित्या लोकरूढ्या वा अनासेव्यस्य, तदेव दोषः परिहरणदोषः, अथवा परिहरणम् अनासेवनं सभारूढ्या सेव्यस्य वस्तुनस्तदेव तस्माद्वा दोष: 20 परिहरणदोषः, अथवा वादिनोपन्यस्तस्य दूषणस्य असम्यक् परिहारो जात्युत्तरं परिहरणदोष इति, यथा बौद्धेनोक्तमनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदिति, अत्र मीमांसकः परिहारमाह- ननु घटगतं कृतकत्वं शब्दस्यानित्यत्वसाधनायोपन्यस्यते शब्दगतं वा?, यदि घटगतं तदा तच्छब्दे नास्तीत्यसिद्धता हेतोः, अथ शब्दगतं तन्नानित्यत्वेन व्याप्तमुपलब्धमित्यसाधारणानैकान्तिको हेतुरित्ययं न सम्यक् परिहारः, एवं हि 25 सर्वानुमानोच्छेदप्रसङ्गः, अनुमानं हि साधनधर्ममात्रात् साध्यधर्ममात्रनिर्णयात्मकम्,
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अन्यथा धूमादनलानुमानमपि न सिद्ध्येत् तथाहि- अग्निरत्र धूमाद्यथा महानसे, अत्र विकल्प्यते किमोतिशब्दनिर्दिष्टपर्वतैकप्रदेशादिगतधूमोऽग्निसाधनायोपात्तः उत महानसगत: ?, यदि पर्वतादिगतः सोऽग्निना न व्याप्त: सिद्ध इत्यसाधारणानैकान्तिको
हेतुः, अथ महानसगतस्तदा नासौ पर्वतैकदेशे वर्तत इत्यसिद्धो हेतुरिति अयं परिहरणदोष 5 इति ४ । तथा लक्ष्यते तदन्यव्यपोहेनावधार्यते वस्त्वनेनेति लक्षणम्, स्वं च तल्लक्षणं
च स्वलक्षणम्, यथा जीवस्योपयोगो यथा वा प्रमाणस्य स्वपरावभासकज्ञानत्वम् ५। तथा करोतीति कारणं परोक्षार्थनिर्णयनिमित्तमुपपत्तिमात्रम्, यथा निरुपमसुखः सिद्धो ज्ञानानाबाधप्रकर्षात्, नात्र किल सकललोकप्रतीतः साध्यसाधनधानुगतो
दृष्टान्तोऽस्तीत्युपपत्तिमात्रता, दृष्टान्तसद्भावेऽस्यैव हेतुव्यपदेशः स्यात् ६। तथा हिनोति 10 गमयतीति हेतुः साध्यसद्भावभाव-तदभावाभावलक्षणः, ततः स्वलक्षणादीनां
द्वन्द्वः, तेषां दोषः स्वलक्षण-कारण-हेतुदोषः, इह काशब्दः छन्दोऽर्थं द्विर्बद्धो ध्येयः, अथवा सह लक्षणेन यौ कारण-हेतू तयोर्दोष इति विग्रहः, तत्र लक्षणदोषोऽव्याप्तिरतिव्याप्तिर्वा, तत्राव्याप्तिर्यथा यस्यार्थस्य सन्निधाना-ऽसन्निधानाभ्यां
ज्ञानप्रतिभासभेदस्तत् स्वलक्षणमिति, इदं स्वलक्षणलक्षणम्, इदं चेन्द्रियप्रत्यक्षमेवाश्रित्य 15 स्यात् न योगिज्ञानम्, योगिज्ञाने हि न सन्निधाना-ऽसन्निधानाभ्यां प्रतिभासभेदो
ऽस्तीत्यतस्तदपेक्षया न किञ्चित् स्वलक्षणं स्यादिति, अतिव्याप्तिर्यथा अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणमिति प्रमाणलक्षणम्, इह चार्थोपलब्धिहेतूनां चक्षुर्दध्योदनभोजनादीनामानन्त्येन प्रमाणेयत्ता न स्यात्, अथवा दार्टान्तिकोऽर्थो लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं दृष्टान्तः, तद्दोषः
साध्यविकलत्वादिः, तत्र साध्यविकलता यथा नित्यः शब्दो मूर्त्तत्वाद् घटवद्, इह 20 घटे नित्यत्वं नास्तीति । कारणदोषः साध्यं प्रति तद्व्यभिचारो यथा अपौरुषेयो वेदो
वेदकारणस्याश्रूयमाणत्वादिति, अश्रूयमाणत्वं हि कारणान्तरादपि सम्भवतीति । हेतुदोषोऽसिद्ध-विरुद्धाऽऽनैकान्तिकत्वलक्षणः, तत्रासिद्धो यथाऽनित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वाद् घटवदिति, अत्र हि चाक्षुषत्वं शब्दे न सिद्धम्, विरुद्धो यथा नित्यः शब्दः कृतकत्वात्
घटवद्, इह घटे कृतकत्वं नित्यत्वविरुद्धमनित्यत्वमेव साधयतीति, अनैकान्तिको यथा 25 नित्यः शब्दः प्रमेयत्वादाकाशवद्, इह हि प्रमेयत्वमनित्येष्वपि वर्त्तते, ततः संशय एवेति
१. ततश्च स्वल' पा० जे२ ॥ २. . हेतुभूतानां पा० जे२ ॥
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७४४]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८४९ ७ । तथा सङ्क्रामणं प्रस्तुतप्रमेयेऽप्रस्तुतप्रमेयस्य प्रवेशनं प्रमेयान्तरगमनमित्यर्थः, अथवा प्रतिवादिमते आत्मनः सङ्क्रामणं परमताभ्यनुज्ञानमित्यर्थः, तदेव दोष इति ८। तथा निग्रहः छलादिना पराजयस्थानम्, स एव दोषो निग्रहदोष इति ९। तथा वसतः साध्यधर्म-साधनधावत्रेति वस्तु प्रकरणात् पक्षस्तस्य दोषः प्रत्यक्षनिराकृतत्वादिः, यथा अश्रावणः शब्दः, शब्दे ह्यश्रावणत्वं प्रत्यक्षनिराकृतमिति १० ।
एतेषामेव तज्जातादिदोषाणां सामान्यतोऽभिहितानां तदन्येषां चार्थानां सामान्यविशेषरूपाणां सतां विशेषाभिधानायाह- दसेत्यादि, विशेषो भेदो व्यक्तिरित्यनर्थान्तरम्, वत्थु इत्यादिः सार्द्धः श्लोकः, वस्त्विति प्राक्तनसूत्रस्यान्तोक्तो यः पक्षः, तज्जातमिति तस्यैवादावुक्तं प्रतिवाद्यादेर्जात्यादि, तद्विषयो दोषो वस्तुतजातदोषः, तत्र वस्तुदोष: पक्षदोषस्तजातदोषश्च जात्यादिहीलनमेतौ च विशेषौ 10 दोषसामान्यापेक्षक्षक्षया, अथवा वस्तुदोषे वस्तुदोषविषये विशेषो भेदः प्रत्यक्षनिराकृतत्वादिः, तत्र प्रत्यक्षनिराकृतो यथा अश्रावणः शब्दः, अनुमाननिराकृतो यथा नित्यः शब्दः, प्रतीतिनिराकृतो यथा अचन्द्रः शशी, स्ववचननिराकृतो यथा यदहं वच्मि तन्मिथ्ये ति, लोकरूढि निराकृतो यथा शुचि नरशिरःकपालमिति, तजातदोषविषयेऽपि भेदो जन्म-मर्म-कर्मादिभिः, जन्मदोषो यथा
15 कच्छुल्लयाए घोडीए जाओ जो गद्दहेण छूढेण ।
तस्स महायणमज्झे आयारा पायडा होंति ॥ [ ] इत्यादिरनेकविधः १-२, चकारः समुच्चये, तथा दोसे त्ति पूर्वोक्तसूत्रे ये शेषा मतिभङ्गादयो दोषा अष्टावुक्तास्ते दोषशब्देनेह सङ्ग्रहीताः, ते च दोषसामान्यापेक्षया विशेषा भवन्त्येवेति दोषो विशेषः, अथवा दोसे त्ति दोषेषु शेषदोषविषये विशेषो भेदः, स चानेकविधः स्वयमूह्यः ३, 20 एगट्ठिए इय त्ति एकश्चासावर्थश्च अभिधेयः एकार्थः, स यस्यास्ति स एकार्थिकः एकार्थवाचक इत्यर्थः, इतिः उपप्रदर्शने, चः समुच्चये, स च शब्दसामान्यापेक्षयैकार्थिको नाम शब्दविशेषो भवति, यथा घट इति, तथा अनेकार्थिको यथा गौः, यथोक्तम्
दिशि १ दृशि २ वाचि ३ जले ४ भुवि ५ दिवि ६ वजे ७ ऽशौ ८ पशौ ९ च गोशब्दः [ ] इति, इहैकार्थिकविशेषग्रहणेनाऽनेकार्थिकोऽपि गृहीतस्तद्विपरीतत्वात्, न चेहासौ 25 गण्यते, दशस्थानकानुरोधात्, अथवा कथञ्चिदेकार्थिके शब्दग्रामे यः कथञ्चिद्भेदः स
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
८५०
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे विशेषः स्यादिति प्रक्रमः, इय त्ति पूरणे, यथा शक्रः पुरन्दर इत्यत्रैकार्थे शब्दद्वये शकनकाल एव शक्रः पूर्वारणकाल एव पुरन्दरः एवंभूतनयादेशादिति, अथवा दोषशब्द इहापि सम्बध्यते, ततश्च न्यायोद्ग्रहणे शब्दान्तरापेक्षया एकार्थिकः शब्दो नाम यो दोष इति चायमपि च दोषः सामान्यापेक्षया विशेष इति ४, तथा कार्यकारणात्मके वस्तुसमूहे 5 कारणमिति विशेषः, कार्यमपि विशेषो भवति, न चेहोक्तः, दशस्थानकानुवृत्तेः, अथवा
कारणे कारणविषये विशेषो भेदो यथा परिणामिकारणं मृत्पिण्डः, अपेक्षाकारणं दिग्देश-काला-ऽऽकाश-पुरुष-चक्रादि, अथवोपादानकारणं मृदादि, निमित्तकारणं कुलालादि, सहकारिकारणं चक्र-चीवरादीत्यनेकधा कारणम्, अथवा दोषशब्दसम्बन्धात्
पूर्वव्याख्यातः कारणदोषो दोषसामान्यापेक्षया विशेष इति, चः समुच्चये ५, तथा 10 प्रत्युत्पन्नो वार्त्तमानिकः अभूतपूर्व इत्यर्थः, दोषः गुणेतरः, स चातीतादिदोष
सामान्यापेक्षया विशेषः, अथवा प्रत्युत्पन्ने सर्वथा वस्तुन्यभ्युपगते विशेषो यो दोषोऽकृताभ्यागमकृतविप्रणाशादिः स दोषसामान्यापेक्षया विशेष इति ६, तथा नित्यो यो दोषोऽभव्यानां मिथ्यात्वादिरनाद्यपर्यवसितत्वात् स दोषसामान्यापेक्षया विशेषः, अथवा सर्वथा नित्ये वस्तुन्यभ्युपगते यो दोषो बाल-कुमाराद्यवस्थाऽभावापत्तिलक्षण: - स दोषसामान्यापेक्षया दोषविशेष इति ७, तथा हिअट्ठम त्ति अकारप्रश्लेषादधिकं वादकाले यत् परप्रत्यायनं प्रत्यतिरिक्तं दृष्टान्त-निगमनादि तद्दोषः, तदन्तरेणैव प्रतिपाद्यप्रतीतेस्तदभिधानस्यानर्थकत्वादिति, आह चजिणवयणं सिद्धं चेव भन्नए कत्थई उदाहरणं । आसज्ज उ सोयारं हेऊ वि कहिंचि भन्नेज्जा ॥ तथा
कत्थइ पंचावयवं दसहा वा सव्वहा न पडिकुटुं । [दशवै० नि० ४९-५०] ति । 20 ततश्चाधिकदोषो दोषविशेषत्वाद्विशेष इति, अथवाऽधिके दृष्टान्तादौ सति यो दोषो
दूषणं वादिनः सोऽपि दोषविशेष एव, अयं चाष्टम आदितो गण्यमान इति ८, अत्तण त्ति आत्मना कृतमिति शेषः, तथा उपनीतं प्रापितं परेणेति शेषः, वस्तुसामान्यापेक्षयाऽऽत्मकृतं च विशेषः, परोपनीतं चापरो विशेष इति भावः ९, चकारयोर्विशेष
शब्दस्य च प्रयोगो भावनावाक्ये दर्शितः, अथवा दोषशब्दानुवृत्तेरात्मना कृतो दोषः 25 परोपनीतश्च दोष इति, दोषसामान्यापेक्षया विशेषावेतौ इति, एवं ते विशेषा दश
१. न्यायोद्ग्राहणे जे१ ॥
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७४४]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् । भवन्तीति, इहादर्शपुस्तकेषु निव्वे हिअट्टमे त्ति दृष्टम्, न च तथाऽष्टौ पूर्यन्त इति, निच्चे इति व्याख्यातम् ।
इहोक्तरूपा विशेषादयो भावा अनुयोगगम्याः, अनुयोगश्चार्थतो वचनतश्च, तत्रार्थतो यथा- अहिंसा संजमो तवो [दशवै० १।१] इत्यत्राहिंसादीनां स्वरूपभेदप्रतिपादनम्, वचनानुयोगस्त्वेषामेव शब्दाश्रितो विचार इति, तदिह वचनानुयोगं भेदत आह- 5 दसेत्यादि, शुद्धा अनपेक्षितवाक्यार्था या वाक् वचनं सूत्रमित्यर्थः तस्या अनुयोगो विचारः शुद्धवागनुयोगः, सूत्रे च अपुंवद्भावः प्राकृतत्वात्, तत्र चकारादिकायाः शुद्धवाचो योऽनुयोगः स चकारादिरेव व्यपदेश्यः, तत्र चंकारे त्ति अत्रानुस्वारोऽलाक्षणिको यथा सुंके सणिंचरे [स्थानाङ्ग० ६१३] इत्यादौ, ततश्चकार इत्यर्थः, तस्य चानुयोगो, यथा चशब्दः समाहारेतरेतरयोग-समुच्चया-ऽन्वाचया-ऽवधारण-पादपूरणा-ऽधिकवचनादिषु 10 [ ]इति, तत्र इत्थीओ सयणाणि य [दशवै० २।२] इति, इह सूत्रे चकार: समुच्चयार्थः स्त्रीणां शयनानां चापरिभोग्यतातुल्यत्वप्रतिपादनार्थः १, मंकारे त्ति माकारानुयोगो यथा समणं व माहणं वा [स्थानाङ्ग० १३३] इति सूत्रे माशब्दो निषेधे, अथवा जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव [ ] इत्यत्र सूत्रे जेणामेव इह मकार आगमिक एव, येनैवेत्यनेनैव विवक्षितप्रतीतेरिति २, पिंकारे त्ति अकारलोपदर्शनेनानुस्वारागमेन च अपिशब्द उक्तः, 15 तदनुयोगो यथा अपि: सम्भावनानिवृत्त्यपेक्षासमुच्चयगर्हाशिष्यामर्षणभूषणप्रश्नेषु[ ]इति, तत्र एवं पि एगे आसासे [स्थानाङ्ग० ३१४] इत्यत्र सूत्रे एवमपि अन्यथाऽपीति प्रकारान्तरसमुच्चयार्थोऽपिशब्द इति ३, सेयंकारे त्ति इहाप्यंकारोऽलाक्षणिकस्तेन सेकार इति, तदनुयोगो यथा से भिक्खू वा [दशवै० ४।१०] इत्यत्र सूत्रे सेशब्दोऽथार्थः, अथशब्दश्च प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेषु [ ]इत्यानन्तर्यार्थः, सेशब्द इति 20 क्वचिदसावित्यर्थः, क्वचित्तस्येत्यर्थः, अथवा सेयंकार इति श्रेय इत्येतस्य करणं श्रेयस्कारः, श्रेयस उच्चारणमित्यर्थः, तदनुयोगो यथा सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं [दशवै० ४।१] इत्यत्र सूत्रे श्रेयः अतिशयेन प्रशस्यं कल्याणमित्यर्थः, अथवा सेयकाले अकम्मं चावि भवइ १. निच्चे जे१॥ २. स्थानाङ्गसूत्रे मुद्रिते मूलपाठे 'सुंके' इति पाठो यद्यपि न लभ्यते तथापि पाठान्तरे वर्तते, दृश्यतां सू० ७५५ टि०१॥ ३. °मकारा पा० जे२ ॥ ४. जेणामेव इति पाठो भगवती० ५।८।३ इत्यादिषु बहुषु आगमग्रन्थेषूपलभ्यते, किन्तु सम्प्रति तत्र ‘समणे भगवं महावीरे' इति नोपलभ्यते, यत्र समणे भगवं महावीरे इति पाठो दृश्यते यथा भगवतीसूत्रे [१।१।४(४)] तत्र जेणामेव इति न दृश्यते । ५. दृश्यतां प्रथमविभागे प्रथमपरिशिष्टे पृ०२ पं०२७।।
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
८५२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [ ] [इ]त्यत्र सेयशब्दो भविष्यदर्थः, ४, सायंकारे त्ति सायमिति निपात: सत्यार्थस्तस्माद् 'वर्णात् कारः' इत्यनेन छान्दसत्वात् कारप्रत्यय: करणं वा कारस्तत: सायंकार इति, तदनुयोगो यथा सत्यं तथावचनसद्भावप्रश्श्रेषु[ ]इति, एते च चकारादयो निपातास्तेषा
मनुयोगभणनं शेषनिपातादिशब्दानुयोगोपलक्षणार्थमिति ५, एगत्ते त्ति एकत्वमेकवचनं 5 तदनुयोगो यथा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः [तत्त्वार्थ० १११] इत्यत्रैकवचन सम्यग्दर्शनादीनां समुदितानामेवैकमोक्षमार्गत्वख्यापनार्थम्, असमुदितत्वे त्वमोक्षमार्गतेति प्रतिपादनार्थमिति ६, पुहत्ते त्ति पृथक्त्वं भेदो द्विवचनबहुवचने इत्यर्थः, तदनुयोगो यथा धम्मत्थिकाये धम्मत्थिकायदेसे धम्मत्थिकायप्पदेसा [प्रज्ञापना० १।५] इह सूत्रे
धर्मास्तिकायप्रदेशा इत्येतद् बहुवचनं तेषामसङ्ख्यातत्वख्यापनार्थमिति ७, संजूहे त्ति 10 सङ्गतं युक्तार्थं यूथं पदानां पदयोर्वा समूहः संयूथम्, समास इत्यर्थः, तदनुयोगो यथा सम्यग्दर्शनशुद्धम् [तत्त्वार्थका० १] सम्यग्दर्शनेन सम्यग्दर्शनाय सम्यग्दर्शनाद्वा शुद्धं सम्यग्दर्शनशुद्धमित्यादिरनेकधा इति ८, संकोमियं ति सङ्क्रामितं विभक्तिवचनादि विभक्ति-वचनाद्यन्तरतया परिणामितं तदनुयोगो यथा साहूणं वंदणेणं नासति पावं असंकिया
भावा [ ] इह साधूनामित्येतस्या: षष्ठ्या: साधुभ्यः सकाशादित्येवं लक्षणं पञ्चमीत्वेन 15 विपरिणामं कृत्वा अशङ्किता भावा भवन्तीत्येतत् पदं सम्बन्धनीयम्, तथा अच्छंदा जे
न भुंजति न से चाई त्ति वुच्चइ। [दशवै० २।२] इत्यत्र सूत्रे न स त्यागी इति उच्यते इत्येकवचनस्य बहुवचनतया परिणामं कृत्वा न ते त्यागिन उच्यन्त इत्येवं पदघटना कार्येति ९, भिन्नमिति क्रम-कालभेदादिभिर्भिन्नं विसदृशं तदनुयोगो यथा- तिविहं
तिविहेणमिति सङ्ग्रहमुक्त्वा पुन: मणेणमित्यादिना तिविहेणं ति विवृतमिति 20 क्रमभिन्नम्, क्रमेण हि तिविहमित्येतन्न करोमीत्यादिना विवृत्य ततस्त्रिविधेनेति विवरणीयं
भवतीति, अस्य च क्रमभिन्नस्यानुयोगोऽयं यथा क्रमविवरणे हि यथासङ्ख्यदोषः स्यादिति तत्परिहारार्थं क्रमभेदः, तथा हि न करोमि मनसा न कारयामि वाचा कुर्वन्तं नानुजानामि कायेनेति प्रसज्यते, अनिष्टं चैतत् प्रत्येकपक्षस्यैवेष्टत्वात्, तथाहि
मन:प्रभृतिभिर्न करोमि तैरेव न कारयामि नानुजानामीति, तथा कालभेदोऽतीतादिनिर्देशे 25 प्राप्ते वर्तमानादिनिर्देशो यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादिषु ऋषभस्वामिनमाश्रित्य सक्के देविंदे
गुप्तसूरिविरचिता तत्त्वार्थकारिकाटीका द्रष्टव्या॥२. मिय त्ति पासं०॥३. विभक्तिवचनादिखं० विना नास्ति।
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७४५]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् । देवराया वंदइ नमसइ [जम्बूद्वीप० २।३५] त्ति सूत्रे, तदनुयोगश्चायं वर्तमाननिर्देशस्त्रिकालभाविष्वपि तीर्थकरेष्वेतन्न्यायप्रदर्शनार्थ इति, इदं च दोषादिसूत्रत्रयमन्यथापि विमर्शनीयम्, गम्भीरत्वादस्येति। [सू० ७४५] दसविहे दाणे पण्णत्ते, तंजहाअणुकंपा संगहे चेव, भया कालुणिते ति त । लज्जाते गारवेणं च, अहम्मे उण सत्तमे । धम्मे त अट्ठमे वुत्ते, काही ति त कतं ति त ॥१६३॥
दसविधा गती पन्नत्ता, तंजहा-निरयगती, निरयविग्गहगती, तिरियगती, तिरियविग्गहगई, एवं जाव सिद्धिगती, सिद्धिविग्गहगती ।
[टी०] वागनुयोगतस्त्वर्थानुयोग: प्रवर्त्तत इति दानलक्षणस्यार्थस्य भेदानामनुयोगमाह– 10 दसेत्यादि, अणुकंपेत्यादि श्लोक: सार्द्धः, अनुकंप त्ति दानशब्दसम्बन्धादनुकम्पया कृपया दानं दीनानाथविषयमनुकम्पादानमथवा अनुकम्पातो यद्दानं तदनुकम्पैवोपचारात्, उक्तं च वाचकमुख्यैरुमास्वातिपूज्यपादै:
कृपणेऽनाथ-दरिद्रे व्यसनप्राप्ते च रोग-शोकहते । यद्दीयते कृपार्थादनुकम्पा तद्भवेद्दानम् ॥ [ ] १ ।
सङ्ग्रहणं सङ्ग्रहः व्यसनादौ सहायकरणम्, तदर्थं दानं सङ्ग्रहदानम्, अथवा अभेदाद्दानमपि सङ्ग्रह उच्यते, आह च
अभ्युदये व्यसने वा यत् किञ्चिद्दीयते सहायार्थम् । तत् सङ्ग्रहतोऽभिमतं मुनिभिर्दानं न मोक्षाय ॥ [ ] इति २ ।
तथा भयात् यद्दानं तत् भयदानम्, भयनिमित्तत्वाद्वा दानमपि भयमुपचाराद् इति, 20 उक्तं च- राजा-ऽऽरक्ष-पुरोहित-मधुमुख-माचल्ल-दण्डपाशिषु च ।
यद्दीयते भयार्थात्तद् भयदानं बुधैर्जेयम् ॥ [ ] इति ३ । कालुणिए इ यत्ति कारुण्यं शोकः, तेन पुत्रवियोगादिजनितेन तदीयस्यैव तल्पादे: स जन्मान्तरे सुखितो भवत्विति वासनातोऽन्यस्य भोज्यस्य वा यद्दानं तत् कारुण्यदानम्, कारुण्यजन्यत्वाद्वा दानमपि कारुण्यमुक्तमुपचारादिति ४ । ___ तथा लजया हिया दानं यत्तल्लज्जादानमुच्यते, उक्तं च१. माचल्लः लुण्टाकः ॥
15
25
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
5
10
15
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
अभ्यर्थितः परेण तु यद्दानं जनसमूहमध्यगतः । परचित्तरक्षणार्थं लज्जायास्तद्भवेद्दानम् ॥ [ ] इति ५ ।
गारवेणं च त्ति गौरवेण गर्वेण यद्दीयते तद् गौरवदानमिति, उक्तं च– - नर्त्त- मुष्टिकेभ्यो दानं सम्बन्धि-बन्धु - मित्रेभ्यः ।
नट
यद्दीयते यशोऽर्थं गर्वेण तु तद्भवेद्दानम् ॥ [ ] ६ ।
अधर्मपोषकं दानमधर्मदानम्, अधर्मकारणत्वाद्वा अधर्म्म एवेति, उक्तं चहिंसा - ऽनृत- चौर्योद्यत-परदार- परिग्रहप्रसक्तेभ्यः ।
यद्दीयते हि तेषां तज्जानीयादधर्म्माय ॥ [ ] इति ७ । धर्म्मकारणं यत्तद्धर्म्मदानं धर्म्म एव वा, उक्तं चसमतृणमणि- मुक्तेभ्यो यद्दानं दीयते सुपात्रेभ्यः । अक्षयमतुलमनन्तं तद्दानं भवति धर्म्माय ॥ [ ] इति ८ ।
काही इ य त्ति करिष्यति कञ्चनोपकारं ममायमिति बुद्ध्या यद्दानं तत् करिष्यतीति दानमुच्यते ९ ।
८५४
तथा कृतं ममानेन तत् प्रयोजनमिति प्रत्युपकारार्थं यद्दानं तत् कृतमिति, उक्तं चशतशः कृतोपकारो दत्तं च सहस्रशो ममानेन ।
अहमपि ददामि किञ्चित् प्रत्युपकाराय तद्दानम् ॥ [ ] इति १० ।
उक्तलक्षणाद्दानाच्छुभाशुभा गतिर्भवतीति सामान्यतो गतिनिरूपणायाह- दसेत्यादि, निरयगति त्ति निर्गता अयात् शुभादिति निरया नारकाः, तेषां गतिर्गम्यमानत्वान्नरकः, तद्गतिनामकर्मोदयसम्पाद्यो नारकत्वलक्षणः पर्यायविशेषो वेति निरयगतिः, 20 निरयाणां नारकाणां विग्रहान् क्षेत्रविभागानतिक्रम्य गतिः गमनं निरयविग्रहगति: स्थितिनिवृत्तिलक्षणा ऋजुवक्ररूपा विहायोगतिकर्म्मापाद्या वेति, एवं तिर्यङ्-नरनाकिनामपीति, सिद्धिगइ त्ति सिध्यन्ति निष्ठितार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः, सा चासौ गम्यमानत्वाद् गतिश्चेति सिद्धिगतिः लोकाग्रलक्षणा, तथा सिद्धविग्गहगइ सिद्धस्य मुक्तस्य विंग्रहस्य आकाशविभागस्यातिक्रमणे गति: लोकान्तप्राप्ति: 25 सिद्धविग्रहगतिरिति विग्रहगतिर्वक्र गतिरप्युच्यते परं सिद्धस्य सा नास्तीति तत्साहचर्यान्नारकादीनामप्यसौ न व्याख्यातेति, अथवा द्वितीयपदैर्नारकादीनां १. अत्र तृतीये परिशिष्टे टिप्पनेषु द्रष्टव्यम् पृ० १३९ ॥ २. नास्तीति साहचर्या जे१ खं० ॥
तथा
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
८५५
[सू० ७४६-७४७]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् । वक्रगतिरुक्ता, प्रथमैस्तु निर्विशेषणतया पारिशेष्यात् ऋजुगतिः, सिद्धिगइ त्ति सिद्धौ गमनम्, निर्विशेषणत्वाच्च अनेन सामान्या सिद्धिगतिरुक्ता, सिद्धाऽविग्गहगइ त्ति सिद्धावविग्रहेण अवक्रेण गमनं सिद्ध्यविग्रहगतिः, अनेन च विशेषणापेक्षायां विशिष्टा सिद्धिगतिरुक्ता, सामान्यविशेषविवक्षया चानयोर्भेद इति ।
[सू० ७४६] दस मुंडा पन्नत्ता, तंजहा-सोतिंदितमुंडे जाव फासिंदितमुंडे, 5 कोहमुंडे जाव लोभमुंडे, सिरमुंडे ।
[टी०] सिद्धिगतिर्मुण्डानामेव भवतीति मुण्डनिरूपणायाह- दसेत्यादि, मुण्डयति अपनयतीति मुण्डः, स च श्रोत्रेन्द्रियादिभेदाद् दशधेति, शेषं सुगमम् । [सू० ७४७] दसविधे संखाणे पन्नत्ते, तंजहापरिकम्मं ववहारो, रज्जू रासी कलासवने य । जावंताव ति वग्गो, घणो त तह वग्गवग्गो वि ॥१६४॥ कप्पो त । [टी०] मुण्डा दशेति सङ्ख्यानमतस्तद्विधय उच्यन्ते, दसेत्यादि, परिकम्मं गाहा, परिकर्म संकलनाद्यनेकविधं गणितज्ञप्रसिद्धम्, तेन यत् सङ्ख्येयस्य सङ्ख्यानं परिगणनं तदपि परिकम्र्मेत्युच्यते, एवं सर्वत्रेति १, व्यवहारः श्रेणीव्यवहारादि: 15 पाटीगणितप्रसिद्धोऽनेकधा २, रज्जु त्ति, रज्ज्वा यत् सङ्ख्यानं तद्रज्जुरभिधीयते, तच्च क्षेत्रगणितम् ३, रासि त्ति धान्यादेरुत्करस्तद्विषयं सङ्ख्यानं राशि:, स च पाट्यां राशिव्यवहार इति प्रसिद्धः ४, कलासवन्ने यत्ति कलानाम् अंशानां सवर्णनं सवर्णः सदृशीकरणं यस्मिन् सङ्ख्याने तत् कलासवर्णम् ५,जावंताव इ त्ति जावं ताव त्ति वा गुणकारो त्ति वा एगटुं] इति वचनाद् गुणकारस्तेन यत् सङ्ख्यानं तत्तथैवोच्यते, 20 तच्च प्रत्युत्पन्नमिति लोकरूढम्, अथवा यावत: कुतोऽपि तावत एव गुणकाराद् यादृच्छिकादित्यर्थः, यत्र विवक्षितं सङ्कलनादिकमानीयते तद् यावत्तावत्सङ्ख्यानमिति, तत्रोदाहरणम्
गच्छो वाञ्छाभ्यस्तो वाञ्छयुतो गच्छसङ्गुण: कार्यः । द्विगुणीकृतवाञ्छहते वदन्ति सङ्कलितमाचार्याः ॥ [ ]. १. सिद्धगइ जे१ खं० ॥ २. सिद्धिवि' पा० जे२ ॥ ३. सिद्धावि जे१ ॥ ४. संकलिताद्य पा० जे२।
25
विशेषेण जिज्ञासुभिः तृतीये परिशिष्टे द्रष्टव्यम् ॥५. संकलितादि पा० जे२ ॥
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
८५६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे अत्र किल गच्छो दश १०, ते च वाञ्छया यादृच्छिकगुणकारेणाष्टकेनाभ्यस्ता: जाताऽशीति: ८०, ततो वाञ्छयुतास्ते अष्टाशीति: ८८, पुनर्गच्छेन दशभिः सङ्गुणिता अष्टौ शतान्यशीत्यधिकानि जातानि ८८०, ततो द्विगुणीकृतेन यादृच्छिकगुणकारेण षोडशभिर्भागे हृते यल्लभ्यते तद् दशानां संकलितमिति ५५, इदं च पाटीगणितं श्रूयते 5 इति ६, तथा वर्ग: संख्यानम्, यथा द्वयोर्वर्गश्चत्वारः सदृशद्विराशिघात: [त्रिशती] इति वचनात् ७, घणो य त्ति घन: सङ्ख्यानं यथा द्वयोर्घनोऽष्टौ समत्रिराशिहतिः [त्रिशती] इति वचनात् ८, वग्गवग्गो त्ति वर्गस्य वर्गो वर्गवर्ग:, स च सङ्ख्यानम्, यथा द्वयोर्वर्गश्चत्वारश्चतुर्णां वर्ग: षोडशेति, अपिशब्द: समुच्चये ९, कप्पो यत्ति गाथाधिकम्,
तत्र कल्प: छेदः, क्रकचेन काष्ठस्य, तद्विषयं सङ्ख्यानं कल्प एव यत् पाट्यां 10 क्राकचव्यवहार इति प्रसिद्धमिति, इह च परिकादीनां केषाञ्चिदुदाहरणानि मन्दबुद्धीनां दुरवगमानि भविष्यन्त्यतो न प्रदर्शितानीति १० । [सू० ७४८] दसविधे पच्चक्खाणे पण्णत्ते, तंजहाअणागतमतिक्वंतं, कोडीसहितं नियंटितं चेव ।
सागारमणागारं, परिमाणकडं निरवसेसं । 15 सएयगं चेव अद्धाए, पच्चक्खाणं दसविहं तु ॥१६५॥
[टी०] दश मुण्डा उक्तास्ते च प्रत्याख्यानतो भवन्तीति प्रत्याख्याननिरूपणायाहदसविहेत्यादि, प्रतिकूलतया आ मर्यादया ख्यानं प्रकथनं प्रत्याख्यानं निवृत्तिरित्यर्थः । अणागय गाहा सार्द्धा, अणागय त्ति अनागतकरणादनागतं पर्युषणादावाचार्यादि
वैयावृत्यकरणान्तरायसद्भावादारत एव तत्तप:करणमित्यर्थः, उक्तं च20 होही पज्जोसवणा मम य तया अंतराइयं होजा।
गुरुवेयावच्चेणं तवस्सिगेलनयाए वा ॥ सो दाइ तवोकम्मं पडिवजइ तं अणागए काले । एयं पच्चक्खाणं अणागयं होइ नायव्वं ॥ [आव० नि० १५८०-८१] ति १ ।
अइक्वंतं ति एवमेवातीते पर्युषणादौ करणादतिक्रान्तम्, आह च25 पजोसवणाए तवं जो खलु न करेइ कारणज्जाए।
१. कप्पे य पा० ॥ २. तृतीये परिशिष्टे द्रष्टव्यम् ॥
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
८५७
[सू० ७४८]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् । गुरुवेयावच्चेणं तवस्सिगेलनयाए वा ॥ सो दाइ तवोकम्मं पडिवजइ तं अइच्छिए काले । एवं पच्चक्खाणं अइक्वंतं होइ नायव्वं ॥ [आव० नि० १५८२-८३] ति २।
कोडीसहियं ति कोटीभ्याम् एकस्य चतुर्थादेरन्तविभागोऽपरस्य चतुर्थादेरेवारम्भविभाग इत्येवंलक्षणाभ्यां सहितं मिलितं युक्तं कोटीसहितं 5 मिलितोभयप्रत्याख्यानकोटेश्चतुर्थादे: करणमित्यर्थः, अभाणि चपट्ठवणओ उ दिवसो पच्चक्खाणस्स निट्ठवणओ उ । जहियं समिति दुन्नि उ तं भन्नइ कोडिसहियं तु ॥ [आव० नि० १५८४] इति ३। नियंटियं ति नितरां यन्त्रितं प्रतिज्ञातदिनादौ ग्लानत्वाद्यन्तरायभावेऽपि नियमात् कर्त्तव्यमिति हृदयम्, एतच्च प्रथमसंहननानामेवेति, अभ्यधायि च
मासे मासे य तवो अमुगो अमुगदिवसे य एवइओ । हटेण गिलाणेण व कायव्वो जाव ऊसासो ॥ एयं पच्चक्खाणं नियंटियं धीरपुरिसपन्नत्तं । जं गिण्हंतऽणगारा अणिस्सियप्पा अपडिबद्धा ॥ चोद्दसपुव्वी जिणकप्पिएसु पढमम्मि चेव संघयणे ।
15 एयं वोच्छिन्नं खलु थेरा वि तया करेसी य ॥ [आव० नि० १५८५-८७] त्ति ४।
सागारं ति आक्रियन्त इत्याकारा: प्रत्याख्यानापवादहेतवोऽनाभोगाद्यास्तैराकारैः सहेति साकारम् ५ । अणागारं ति अविद्यमाना आकारा महत्तराकारादयो निश्छिन्नप्रयोजनत्वात् प्रतिपत्तुर्यस्मिंस्तदनाकारम्, तत्रापि अनाभोग-सहसाकारावाकारौ स्याताम्, मुखेऽङ्गुल्यादिप्रक्षेपसम्भवादिति ६ । परिमाणं सङ्ख्यानं दत्ति-कवल-गृह- 20 भिक्षादीनां कृतं यस्मिंस्तत् परिमाणकृतमिति, यदाह
दत्तीहि व कवलेहिं व घरेहिं भिक्खाहिं अहव दव्वेहिं । जो भत्तपरिच्चायं करेइ परिमाणकडमेयं ॥ [आव० नि० १५९०] ति ७/ निरवसेसं ति निर्गतमवशेषमपि अल्पाल्पमप्यशनाद्याहारजातं यस्मात् तन्निरवशेषम्, निरवशेष वा सर्वमशनादि तद्विषयत्वाद् निरवशेषमिति, अभिहितं च
सव्वं असणं सव्वं च पाणगं सव्वखज्ज-पेजविहिं । __ परिहरइ सव्वभावेण एवं भणियं निरवसेसं ॥ [आव० नि० १५९१] ति ८ । १. संहनिनामेवेति जे१ ॥
25
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
5
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
१
सएययं चेव त्ति केतनं केत: चिह्नमङ्गुष्ठ - मुष्टि- ग्रन्थि - गृहादिकं स एव केतकः, सह केतकेन सकेतकं ग्रन्थ्यादिसहितमित्यर्थः, भणितं च
अंगुट्ठ- मुट्ठि- गंठी- घरसेउस्सास - थिबुग-जोइक्खे |
भणियं सकेयमेयं धीरेहिं अनंतणाणीहिं ॥ [ आव० नि० १५९२] ति ९ । अद्धाए त्ति अद्धायाः कालस्य, पौरुष्यादिकालमानमाश्रित्येत्यर्थः, न्यगादि चअद्धापच्चक्खाणं जं तं कालप्पमाणछेएणं ।
पुरिमट्टे-पोरिसीहिं मुहुत्त-मास - ऽद्धमासेहिं ॥ [ आव० नि० १५९३] ति १० । पच्चक्खाणं दसविधं तु त्ति प्रत्याख्यानशब्दः सर्वत्रानागतादौ सम्बध्यते, तुशब्द एवकारार्थः, ततो दशविधमेवेति, इहोपाधिभेदात् स्पष्ट एव भेद इति न 10 पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयमिति ।
[सू० ७४९ ] दसविधा सामायारी पण्णत्ता, तंजा
इच्छा मिच्छा तहक्कारो आवस्सिता य निसीहिता ।
८५८
15
9
आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य निमंतणा । उवसंपता य काले, सामायारी दसविधा उ ॥१६६॥
[टी०] प्रत्याख्यानं हि साधुसामाचारीति तदधिकारादन्यामपि सामाचारीं निरूपयन्नाहदसेत्यादि, समाचरणं समाचारः, तद्भावः सामाचार्यम्, तदेव सामाचारी संव्यवहार इत्यर्थः, इच्छेत्यादि सार्द्धः श्लोकः इच्छत्ति एषणमिच्छा, करणं कार:, तत्र कारशब्दः प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयः, इच्छया बलाभियोगमन्तरेण कार इच्छाकार:, इच्छाक्रियेत्यर्थः, तथा चेच्छाकारेण ममेदं कुरु, इच्छाप्रधानक्रियया न बलाभियोग20 पूर्विकयेति भावार्थ:, अस्य च प्रयोगः स्वार्थं परार्थं वा चिकीर्षन् यदा परमभ्यर्थयते,
उक्तं च
जइ अब्भत्थेन परं कारणजाए करेज्ज व से कोइ ।
तत्थ उ इच्छाकारो न कप्पड़ बलाभिओगो उ || [ आव० नि० ६६८ ]त्ति । तथा मिथ्या वितथमनृतमिति पर्यायाः, मिथ्या करणं मिथ्याकारः, मिथ्याक्रियेत्यर्थः, 25 तथा च संयमयोगे विदितजिनवचनसाराः साधवस्तत्क्रियावैतथ्यदर्शनाय मिथ्याकारं
१. संकेयं चेव जे१, २ ॥ २. पोरुसीहिं पा० जे२ ॥ ३. ओगो त्ति जे१ खं० ॥
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७४९ ]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
कुर्वते, मिथ्याक्रियेयमिति हृदयम्, भणितं चसंजमजोगे अब्भुट्ठियस्स जं किंचि वितहमायरियं ।
मिच्छा एयं ति वियाणिऊण मिच्छत्ति कायव्वं ॥ [ पञ्चा० १२ १०] ति ।
तथा करणं तथाकारः, स च सूत्रप्रश्नादिगोचरः, यथा भवद्भिरुक्तं तथैवेदमित्येवंस्वरूपः, गदितं च
वायणपडिसुणणाए उवएसे सुत्तअत्थकहणाए ।
अवितहमेयं ति तहा पडिसुणणाए तहक्कारो ॥ [ पञ्चा० १२ १५] त्ति, अयं च पुरुषविशेषविषय एव प्रयोक्तव्य इति, अगादि चकप्पाकप्पे परिनिट्ठियस्स ठाणेसु पंचसु ठियस्स ।
३
संजम - तवगस्स उ अविगप्पेणं तहक्कारो ॥ [ पञ्चा० १२।१४ ] ति । आवस्सिया यत्ति अवश्यकर्त्तव्यैर्योगैर्निष्पन्नाऽऽवश्यकी, चः समुच्चये, एतत्प्रयोग आश्रयान्निर्गच्छतः आवश्यकयोगयुक्तस्य साधोर्भवति, आह हि -
८५९
एवोग्गहप्पवेसे निसीहिया तह निसिद्धजोगस्स ।
एयस्सेसा उचिया इयरस्स अनिषिद्धयोगस्य न चेव नत्थि त्ति || [ पञ्चा० १२।२२] अन्वर्थो नास्तीति कृत्वेत्यर्थः ।
कज्जे गच्छंतस्स उ गुरुनिद्देसेण सुत्तनीईए ।
आवस्सिय त्ति नेया सुद्धा अन्नत्थजोगाओ ॥ [ पञ्चा० १२ १८] अन्वर्थयोगादित्यर्थः । तथा निषेधेन निर्वृत्ता नैषेधिकी व्यापारान्तरनिषेधरूपा, प्रयोगश्चास्या आश्रये प्रविशत 15 इति, यत आह
पडिपुच्छणा उ कज्जे पुव्वनिउत्तस्स करणकालम्मि । कज्जंतरादिहेउं निद्दिट्ठा समयकेऊहिं ॥ [ पञ्चा० १२।३०] ति ।
१. आव० नि० ६८२ ॥। २. आव० नि० ६८९ । ३. आव० नि० ६८८ ॥
5
"
तथा आप्रच्छनमापृच्छा, सा विहारभूमिगमनादिषु प्रयोजनेषु गुरोः कार्या चशब्द: 20 पूर्ववत्, इहोक्तम्- आपुच्छणा उ कज्जे गुरुणो तस्सम्मयस्स वा नियमा ।
एवं खुतयं सेयं जाय सइ निज्जराहेऊ ॥ [ पञ्चा० १२ २६] इति । तथा प्रतिपृच्छा प्रतिप्रश्नः, सा च प्राग्नियुक्तेनापि करणकाले कार्या, पूर्वनिषिद्धेन वा प्रयोजनतस्तदेव कर्त्तुकामेनेति, यदाह—
10
25
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
तथा छन्दना च प्राग्गृहीतेनाशनादिना कार्या, इहावाचि--- पुव्वगहिएण छंदण गुरुआणाए जहारिहं होइ ।
असणादिणा उ एसा णेयेह विसेसविसय त्ति || [ पञ्चा० १२।३४]
८६०
तथा निमन्त्रणा अगृहीतेनैवाशनादिना भवदर्थमहमशनादिकमानयाम्येवंभूता, इहार्थे 5 अभ्यधायि–
15
सज्झाया उव्वाओ श्रान्तः गुरुकिच्चे सेसगे असंतम्मि ।
तं पुच्छिऊण कज्जे सेसाण निमंतणं कुज्ज ॥ [ पञ्चा० १२३८] ।
तथा उवसंपय त्ति उपसंपत् इतो भवदीयोऽहमित्यभ्युपगमः, सा च ज्ञान - दर्शनचारित्रार्थत्वात् त्रिधा, तत्र ज्ञानोपसम्पत् सूत्रार्थयोः पूर्वगृहीतयोः स्थिरीकरणार्थं तथा 10 वित्रुटितसन्धानार्थं तथा प्रथमतो ग्रहणार्थमुपसम्पद्यते, दर्शनोपसम्पदप्येवम्, नवरं दर्शनप्रभावकसम्मत्यादिशास्त्रविषया, चारित्रोपसम्पच्च वैयावृत्यकरणार्थं क्षपणार्थं वोपसम्पद्यमानस्येति, भणितं हि
उवसंपया यतिविहा नाणे तह दंसणे चरित्ते य । दंसण - नाणे तिविहा दुविहा य चरित्तअट्ठाए ॥ वत्तणसंधणगहणे सुत्तत्थोभयगया उस त्ति ।
वेयावच्चे खमणे काले पुण आवकहियाइ ॥ [ पञ्चा० १२।४२-४३] त्ति ।
काले त्ति उपक्रमणकाले आवश्यकोपोद्घातनिर्युक्त्यभिहिते, सामाचारी दशविधा भवति ।
[सू० ७५० ] समणे भगवं महावीरे छउमत्थकालिताते अंतिमरातितंसि इमे 20 दस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धे, तंजहा
एगं च णं महाघोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुमिणे पराजितं पासित्ताणं डिबुद्धे १ ।
एगं च णं महं सुक्किलपक्खगं पूसकोइलगं सुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धे २ । एगं चणं महं चित्तविचित्तपक्खगं पूसकोइलं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ३ ।
१. चोप जे१ खं० ॥ २. 'याए खं० ॥ ३. आव० नि० ६९८-९९ ।। ४. तुलना - भगवतीसूत्रे षोडशे शतके षष्ठ उद्देशके । तृतीये परिशिष्टे टिप्पणं द्रष्टव्यमत्र ॥
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७५०] दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८६१ एगं च णं महं दामदुगं सव्वरतणामयं सुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ४ ।
एगं च णं महं सेतं गोवग्गं सुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ५ । __ एगं च णं महं पउमसरं सव्वतो समंता कुसुमितं सुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धे
____एगं च णं महासागरं उम्मीवीचिसहस्सकलितं भुयाहिं तिण्णं सुमिणे 5 पासित्ताणं पडिबुद्धे ७ ।
एगं च णं महं दिणकरं तेयसा जलंतं सुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ८।
एगं च णं महं हरिवेरुलितवन्नाभेणं नियतेणमंतेणं माणुसुत्तरं पव्वतं सव्वतो समंता आवेढियपरिवेढियं सुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ९ ।
एगं च णं महं मंदरे पव्वते मंदरचूलिताते उवरिं सीहासणवरगतमत्ताणं 10 सुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धे १० ।
जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसातं सुमिणे परातितं पासित्ताणं पडिबुद्धे तं णं समणेणं भगवता महावीरेणं मोहणिजे कम्मे मूलओ उग्घातिते १ ।
जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं सुक्किलपक्खगं जाव पडिबुद्धे तं 15 णं समणे भगवं महावीरे सुक्कज्झाणोवगते विहरइ २ । __जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं चित्तविचित्तपक्खगं जाव पडिबुद्धे तं णं समणे भगवं महावीरे ससमयपरसमयियं चित्तविचित्तं दुवालसंगं गणिपिडगं आघवेति पण्णवेति परूवेति दंसेति निदंसेति उवदंसेति, तंजहाआयारं जाव दिट्ठिवातं ३ । ___जं णं समणे भगवं [महावीरे एगं] महं दामदुगं सव्वरतणा जाव पडिबुद्धे तं नं समणे भगवं महावीरे दुविहं धम्मं पण्णवेति, तंजहा-अगारधम्मं च अणगारधम्मं च ४ । ___ जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं सेतं गोवग्गं सुमिणे जाव पडिबुद्धे तं णं समणस्स भगवओ महावीरस्स चाउवण्णाइण्णे संघे, तंजहा- समणा 25 समणीओ सावगा साविगाओ ५ ।
20
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं पउमसरं जाव पडिबुद्धे तं णं समणे भगवं महावीरे चउव्विहे देवे पण्णवेति, तंजहा - भवणवासी वाणमंतरे जोतिसिते मणि ६ ।
जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं उम्मीवीची जाव पडिबुद्धे तं णं 5 समणं भगवता महावीरेणं अणातीते अणवदग्गे दीहमद्धे चाउरंते संसारकंतारे तिन्ने ७ ।
जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं दिणकरं जाव पडिबुद्धे तन्नं समणस्स भगवतो महावीरस्स अणंते अणुत्तरे जाव समुप्पन्ने ८ ।
जं णं समणे भगवं महावीरे एगेणं च महं हरिवेरुलित जाव पडिबुद्धे 10 तं णं समणस्स भगवतो महावीरस्स सदेवमणुयासुरे लोगे उराला कित्तिवन्नसद्दसिलोगा परिगुवंति ' इति खलु समणे भगवं महावीरे, इति खलु समणे भगवं महावीरे' ९ ।
जं णं समणे भगवं महावीरे मंदरे पव्वते मंदरचूलिताए उवरिं जाव पडिबुद्धे तं णं समणे भगवं महावीरे सदेवमणुयासुराते परिसाते मज्झगते केवलिपन्नत्तं 15 धम्मं आघवेति पण्णवेति जाव उवदंसेति १० ।
[टी०] इयं च सामाचारी महावीरेणेह प्रज्ञापिता अतो भगवन्तमेवोररीकृत्य दशस्थानकमाह- समणेत्यादि सुगमम्, नवरं छउमत्थकालियाए त्ति प्राकृतत्वात् छद्मस्थकाले यदा किल भगवान् त्रिक-चतुष्क- चत्वर - चतुर्मुख - महापथादिषु पटुपटहप्रतिरवोद्घोषणापूर्वं यथाकाममुपहतसकलजनदारिद्र्यमनवच्छिन्नमब्दं 20 यावन्महादानं दत्त्वा सदेव - मनुजा - ऽसुरपरिषदा परिवृतः कुण्डपुरान्निर्गत्य ज्ञातखण्डवने मार्गशीर्ष कृष्णदशम्या मेककः प्रव्रज्य मनः पर्यायज्ञानमुत्पाद्याष्टौ मासान् विहृत्य मयूरकाभिधानसन्निवेशबहि: स्थानां दूयमानाभिधानानां पाषण्डिनां सम्बन्धिन्येकस्मिन्नुटजे तदनुज्ञया वर्षावासमारभ्याविधीयमानसुरक्षतया पशुभिरुपद्र्यमाणे उटजे अप्रीतिकं कुर्वाणमाकलय्य कुटीरकनायकमुनिकुमारकं ततो वर्षाणामर्धमासे गतेऽकाल 25 एव निर्गत्यास्थिग्रामाभिधानसन्निवेशाद् बहिः शूलपाणिनामयक्षायतने शेषं
१. मेकः जे१ ॥
८६२
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७५०] दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८६३ वर्षावासमारेभे, तत्र च यदा रात्रौ शूलपाणिर्भगवतः क्षोभणाय झटिति टालिताट्टालकमट्टहासं मुञ्चन् लोकमुत्रासयामास, तथा विनाश्यते स भगवान् देवेनेति भगवदालम्बनां जनस्याधृतिं जनितवान्, पुनर्हस्ति-पिशाच-नागरूपैर्भगवतः क्षोभं कर्तुमशक्नुवन् शिर:-कर्ण-नासा-दन्त-नखा-ऽक्षि-पृष्ठिवेदना: प्राकृतपुरुषस्य प्रत्येक प्राणापहारप्रवणा: सपदि सम्पादितवान्, तथापि प्रचण्डपवनप्रहतसुरगिरिशिखर- 5 मिवाविचलद्भावं वर्द्धमानस्वामिनमवलोक्य श्रान्त: सन्नसौ जिनपतिपादपद्मवन्दनपुरस्सरमाचचक्षे- क्षमस्व क्षमाश्रमण ! इति, तथा सिद्धार्थाभिधानो व्यन्तरदेवस्तन्निग्रहार्थमुद्दधाव, बभाण च- अरे! रे ! शूलपाणे! अप्रार्थितप्रार्थक ! हीनपुण्यचतुर्दशीक! श्री-ही-धृति-कीर्त्तिवर्जित ! दुरन्तप्रान्तलक्षण ! न जानासि सिद्धार्थराजपुत्रं पुत्रीयितनिखिलजगज्जीवं जीवितसममशेषसुरा-ऽसुर-नरनिकायनायकानाम्, एनं च 10 भवदपराधं यदि जानाति त्रिदशपतिस्ततस्त्वां निर्विषयं करोतीति, श्रुत्वा चासौ भीतो द्विगुणतरं क्षमयति स्म, तथा सिद्धार्थश्च तस्य धर्ममचकथत्, स चोपशान्तो भगवन्तं भक्तिभरनिर्भरमानसो गीत-नृत्तोपदर्शनपूर्वकमपुपूजत्, लोकश्च चिन्तयाञ्चकार देवार्यकं विनाश्येदानी देव: क्रीडतीति, स्वामी च देशोनांश्चतुरो यामानतीव तेन परितापित: प्रभातसमये मुहूर्तमानं निद्राप्रमादमुपगतवान् तत्रावसरे इत्यर्थः, अथवा छद्मस्थकाले 15 भवा अवस्था छाग्रस्थकालिकी तस्याम् अंतिमराइयंसि त्ति अन्तिमा अन्तिमभागरूपा अवयवे समुदायोपचारात् सा चासौ रात्रिका चान्तिमरात्रिका तस्याम्, रात्रेरवसान इत्यर्थः, महान्तः प्रशस्ता: स्वप्ना निद्राविकृतविज्ञानप्रतिभातार्थविशेषास्ते च ते ते चेति महास्वप्नास्तान् । __ स्वप्ने स्वापक्रियायाम्, एगं च त्ति चकार उत्तरस्वप्नापेक्षया समुच्चयार्थः, 20 महाघोरम् अतिरौद्र रूपम् आकारं दीप्तं ज्वलितं दृप्तं वा दर्पवद्धारयतीति महाघोररूपदीप्तधरस्तदृप्तधरो वा, प्राकृतत्वादुत्तरत्र विशेषणन्यासः, तालो वृक्षविशेषस्तदाकारो दीर्घत्वादिसाधात् पिशाचो राक्षसस्तालपिशाचस्तम्, पराजितं निराकृतमात्मना १, एगं च त्ति अन्यं च पुंसकोकिलगं ति पुमांश्चासौ कोकिलश्च परपुष्टः पुंस्कोकिलकः, स च किल कृष्णो भवतीति शुक्लपक्ष इति विशेषित: 25 १. यस्यां रात्रौ जे१ ॥ २. भगवदपराध' जे१ ॥ ३. रौद्ररूप पा० जे२ ॥ ४. पुस्सकोकिलगं जे१
खं० ॥ ५. पुंस्कोकिल: जे१ खं० ॥
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे २, चित्तविचित्तपक्खं ति चित्रेणेव चित्रकर्मणा विचित्रौ विविधवर्णविशेषवन्तौ पक्षौ यस्य स तथा ३, दामदुगं ति मालाद्वयम् ४, गोवग्गं ति गोरूपाणि ५, पउमसरं ति पद्मानि यत्रोत्पद्यन्ते सरसि तत् पद्मसर: सर्वत: सर्वासु दिक्षु समन्तात् विदिक्षु
च कुसुमानि पद्मलक्षणानि जातानि यत्र तत् कुसुमितम् ६, उम्मीवीचिसहस्सकलियं 5 ति ऊर्मय: कल्लोला:, तल्लक्षणा या वीचयस्ता ऊर्मिवीचयः, वीचिशब्दो हि
लोकेऽन्तरार्थोऽपि रूढः, अथवोर्मि-वीच्योर्विशेषो गुरुत्व-लघुत्वकृतः, क्वचिद्वीचिशब्दो न पठ्यते एवेति, ऊर्मिवीचीनां सहस्रैः कलितो युक्तो य: स तथा, तम्, भुजाभ्यां बाहुभ्यामिति ७, तथा दिनकरम् ८, एकेन च, णमित्यलङ्कारे महं ति महता
छान्दसत्वात्, एगं च णं महं ति पाठे मानुषोत्तरस्यैते विशेषणे, हरिवेरुलियवन्नाभेणं 10 ति हरिः पिङ्गो वर्ण: वैर्यं मणिविशेषस्तस्य वर्णो नीलो वैडूर्यवर्णः, ततो द्वन्द्वः
तद्वदाभाति यत्तद्धरिवैडूर्यवर्णाभम्, तेन, अथवा हरिन्नीलं तच्च तद्वैडूर्यं चेति, शेषं तथैव, निजकेन आत्मीयेनाऽन्त्रेण उदरमध्यावयवविशेषेण, आवेढियं ति सकृदावेष्टितम्, परिवेढियं ति असकृदिति ९, एगं च णं महं ति आत्मनो विशेषणं सिंहासणवरगयं
ति सिंहासनानां मध्ये यद्वरं तत् सिंहासनवरम्, तत्र गतो व्यवस्थितो यस्तमिति १० 15 एतेषामेव दशानां महास्वप्नानां फलप्रतिपादनायाह- जन्नमित्यादि सुगमम्, नवरं
मूलओ त्ति आदितः, सर्वथैवेत्यर्थः, उग्घाइए उद्घातितं विनाशितं विनाशयिष्यमाणत्वेनोपचारात्, सूत्रकारापेक्षया त्वयमतीतनिर्देश एवेत्येवमन्यत्रापि । ससमयपरसमइयं ति स्वसिद्धान्त-परसिद्धान्तौ यत्र स्त इत्यर्थः, गणिन: आचार्यस्य पिटकमिव पिटकं वणिज इव सर्वस्वस्थानं गणिपिटकम्, आघवेइ त्ति आख्यापयति 20 सामान्यविशेषरूपतः, प्रज्ञापयति सामान्यत:, प्ररूपयति प्रतिसूत्रमर्थकथनेन, दर्शयति
तदभिधेयप्रत्युपेक्षणादिक्रियादर्शनेन, इयं क्रियेभिरक्षरैरुपात्ता इत्थं क्रियत इति भावना, निदंसेइ त्ति कथञ्चिदगृह्णत: परानुकम्पया निश्चयेन पुन: पुनर्दर्शयति निदर्शयति, उवदंसेइ त्ति सकलनययुक्तिभिरिति ३, चाउव्वण्णाइण्णे त्ति चत्वारो वर्णा: श्रमणादय: समाहृता इति चतुर्वर्णम्, तदेव चातुर्वर्ण्यम्, तेनाकीर्ण: आकुलश्चातुर्वर्ण्याकीर्णः, अथवा १. वीसह खं० ॥ २. वीशब्दो खं० ॥ ३. लोकोत्तरा खं० । लोकभाषायां वीचि = वच्चे = बीच में
इति अर्थो रूढः । सोऽत्र न ग्राह्यः, किन्तु ऊर्मिलक्षणोऽर्थो ग्राह्य इति भावः॥ ४. तेषामेव जे१ खं०॥
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७५१] दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८६५ चत्वारो वर्णाः प्रकारा यस्मिन् स तथा, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, चतुर्वर्णश्चासावाकीर्णश्च ज्ञानादिभिर्महागुणैरिति चतुर्वर्णाकीर्णः, चउव्विहे देवे पन्नवेइ त्ति वन्दनकुतूहलादिप्रयोजनेनागतान् प्रज्ञापयति जीवाजीवादीन् पदार्थान् बोधयति सम्यक्त्वं ग्राहयति शिष्यीकरोतीति यावत्, लोकेभ्यो वा तान् प्रकाशयति । अणंते इत्यादौ सूत्रे यावत्करणात् निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे त्ति 5 दृश्यमिति। सदेवेत्यादि, सह देवै: वैमानिक-ज्योतिष्कैर्मनुजैः नरैरसुरैश्च भवनपतिव्यन्तरैर्वर्त्तत इति सदेवमनुजासुरस्तत्र लोके त्रिलोकरूपे उराल त्ति प्रधाना:, कीर्तिः सर्वदिग्व्यापी साधुवादः, वर्ण एकदिव्यापी, शब्दः अर्द्धदिग्व्यापी, श्लोकः तत्तत्स्थान एव श्लाघा, एषां द्वन्द्वः, तत एते परिगुवंति परिगुप्यन्ति व्याकुला भवन्ति संततं भ्रमन्तीत्यर्थः, अथवा परिगूयन्ते गुङ्धातोः शब्दार्थत्वात् संशब्द्यन्ते इत्यर्थः, पाठान्तरत: 10 परिभ्राम्यन्ति, कथमित्याह- इति खल्वित्यादि, इति: एवंप्रकारार्थः, खलुक्यालङ्कारे ततश्चैवंप्रकारो भगवान् सर्वज्ञानी सर्वदर्शी सर्वसंशयव्यवच्छेदी सर्वबोधकभाषाभाषी सर्वजगजीववत्सलः सर्वगुणिगणचक्रवर्ती सर्वनर-नाकिनायकनिकायसेवितचरणयुग इत्यर्थः, महावीर इति नाम, एतदेवावर्त्यते श्लाघाकारिणामादरख्यापनार्थमनेकत्वख्यापनार्थं चेति, आघवेईत्यादि पूर्ववत् ।
15 [सू० ७५१] दसविधे सरागसम्मइंसणे पन्नत्ते, तंजहानिसग्गुवतेसरुती आणारुती सुत्त-बीतरुतिमेव ।
अभिगम-वित्थाररुती किरिया-संखेव-धम्मरुती ॥१६७॥ [टी०] स्वप्नदर्शनकाले भगवान् सरागसम्यग्दर्शनीति सरागसम्यग्दर्शनं निरूपयन्नाहदसविहेत्यादि, सरागस्य अनुपशान्ताक्षीणमोहस्य यत् सम्यग्दर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानं 20 तत्तथा, अथवा सरागं च तत् सम्यग्दर्शनं चेति विग्रहः सरागं सम्यग्दर्शनमस्येति वेति। निसग्ग गाहा, रुचिशब्द: प्रत्येकं योज्यते, ततो निसर्गः स्वभावस्तेन रुचिः तत्त्वाभिलाषरूपाऽस्येति निसर्गरुचिनिसर्गतो वा रुचिरिति निसर्गरुचिः, यो हि १. परिगुव्वंति नास्ति जे१ खं० । 'गुप व्याकुलत्वे'- पा० धा० १२३५। है० धा० ३॥४९॥ २. सततं पा०
जे२ ॥ ३. “गुङ् अव्यक्ते शब्दे' -पा० धा० ९४९ । “गुंङ् शब्दे" - है० धा० ११५९१॥ ४. आघवेत्यादि खं० ॥
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
5
15
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
जातिस्मरण-प्रतिभादिरूपया स्वमत्याऽवगतान् सद्भूतान् जीवादीन् पदार्थान् श्रद्दधाति
स निसर्गरुचिरिति भाव:, यदाह
८६६
एए चेव उ भावे उट्ठे जो परेण सद्दह ।
छउमत्थेण जिणेण व उवएसरुई मुणेयव्वो । [ उत्तरा० २८|१९] ति ।
10 तथाऽऽज्ञा सर्वज्ञवचनात्मिका, तया रुचिर्यस्य स तथा, यो हि प्रतनुराग-द्वेषमिथ्याज्ञानतयाऽऽचार्यादीनामाज्ञयैव कुग्रहाभावाज्जीवादि तथेति रोचते माषतुषादिवत् स आज्ञारुचिरिति भावः, भणितं च
रागो दोसो मोहो अन्नाणं जस्स अवगयं होइ ।
25
जो जि
भावे चव्विहे द्रव्यादिभिः सद्दहाड़ सयमेव ।
एमेव नन्नह त्ति य निसग्गरुड़ त्ति नायव्वो । [ उत्तरा० २८|१८ ] त्ति । तथोपदेशो गुर्वादिना कथनम्, तेन रुचिर्यस्येत्युपदेशरुचिः, तत्पुरुषपक्षः स्वयमूह्यः सर्वत्रेति, यो हि जिनोक्तानेव जीवादीनर्थान् तीर्थकर - तच्छिष्यादिनोपदिष्टान् श्रद्धत्ते स उपदेशरुचिरिति भाव:, यत आह
आणाए रोयंतो सो खलु आणारुई होइ ।। [ उत्तरा० २८ २०] ति ।
सुत्तबीयरुईमेव त्ति इहापि रुचिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् सूत्रेण आगमेन रुचिर्यस्य स सूत्ररुचिः, यो हि सूत्रागममधीयानस्तेनैवाङ्गप्रविष्टादिना सम्यक्त्वं लभते गोविन्दवाचकवत् स सूत्ररुचिरिति भावः, अभिहितं च
जो सुत्तमहिज्जंतो सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं ।
अंगेण बाहिरेण व सो सुत्तरुइ त्ति नायव्वो । [ उत्तरा० २८|२१] ति ।
20 तथा बीजमिव बीजम्, यदेकमप्यनेकार्थप्रतिबोधोत्पादकं वचस्तेन रुचिर्यस्य स बीजरुचि:, यस्य होकेनापि जीवादिना पदेनावगतेनाऽनेकेषु पदार्थेषु रुचिरुपैति स बीजरुचिरिति भावः, गदितं च
एगपगाई पयाइं जो पसरई उ सम्मत्ते ।
उदए व्व तिल्लबिंदू सो बीयरुइ त्ति नायव्वो । [ उत्तरा० २८।२२] त्ति ।
एवेति समुच्चये । तथा अभिगम - वित्थाररुइ त्ति, इहापि प्रत्येकं रुचिशब्दः सम्बन्धनीयः, तत्राऽभिगमो ज्ञानं ततो रुचिर्यस्य सोऽभिगमरुचि:, येन ह्याचारादिकं १. 'रागो दोसो...' वर्जिता ईमाः सर्वा अपि गाथा: प्रज्ञापनासूत्रे १।९२१ - २९ वर्तते ॥
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८६७
[सू० ७५२] श्रुतमर्थतोऽधिगतं भवति सोऽभिगमरुचिः, अभिगमपूर्वकत्वात्तद्रुचेरिति भावः, गाथाऽत्र
सो होइ अभिगमरुई सुअनाणं जस्स अत्थओ दिटुं । एक्कारस अंगाइं पइन्नयं दिट्ठिवाओ य ॥ [उत्तरा० २८।२३] त्ति ।
तथा विस्तारो व्यासस्ततो रुचिर्यस्य स तथेति, येन हि धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां 5 सर्वपर्यायाः सर्वैर्नय-प्रमाणैर्शाता भवन्ति स विस्ताररुचिः, ज्ञानानुसारिरुचित्वादिति, न्यगादि च
दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहिं जस्स उवलद्धा । सव्वाहिं नयविहीहिं वित्थाररुई मुणेयव्वो ॥ [उत्तरा० २८।२४] त्ति ।
तथा क्रिया अनुष्ठानम्, रुचिशब्दयोगात् तत्र रुचिर्यस्य स क्रियारुचिः, इदमुक्तं 10 भवति- दर्शनाद्याचारानुष्ठाने यस्य भावतो रुचिरस्ति स क्रियारुचिरिति । उक्तं च
नाणेण दंसणेण य तवे चरित्ते य समितिगुत्तीसु । जो किरियाभावरुई सो खलु किरियारुई होइ ॥ [उत्तरा० २८।२५] त्ति ।
तथा सक्षेप: सङ्ग्रहस्तेन रुचिरस्येति सक्षेपरुचि:, यो ह्यप्रतिपन्नकपिलादिदर्शनो जिनप्रवचनानभिज्ञश्च सक्षेपेणैव चिलातिपुत्रवदुपशमादिपदत्रयेण तत्त्वरुचिमवाप्नोति 15 स सक्षेपरुचिरिति भावः, आह च -
अणभिग्गहियकुदिट्ठी संखेवरुइ त्ति होइ नायव्वो । अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ य सेसेसु ॥ [उत्तरा० २८।२६] त्ति ।। तथा धर्मे श्रुतादौ रुचिर्यस्य स तथा, यो हि धर्मास्तिकायं श्रुतधर्मं चारित्रधर्मां च जिनोक्तं श्रद्धत्ते स धर्मरुचिरिति ज्ञेय:, यदगादि
जो अत्थिकायधम्मं सुयधम्मं खलु चरित्तधम्मं च । सद्दहइ जिणाभिहियं सो धम्मरुइ त्ति नायव्वो ॥ [उत्तरा० २८।२७] त्ति । [सू०७५२] दस सण्णाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-आहारसण्णा जाव परिग्गहसण्णा ४, कोधसण्णा जाव लोभसण्णा ८, लोगसण्णा ९, ओहसण्णा १० । नेरतिताणं दस सण्णातो एवं चेव, एवं निरंतरं जाव वेमाणियाणं।
[टी०] अयं च सम्यग्दृष्टिदशानामपि संज्ञानां क्रमेण व्यवच्छेदं करोतीति ता आह१. 'दंसणनाणचरित्ते तवविणए सच्चसमिइगुत्तीसु ।' इति उत्तराध्ययनसूत्रे ॥ २. 'स्तत्र रुचि' पा० जे२ ।।
25
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे दसेत्यादि, संज्ञानं संज्ञा आभोग इत्यर्थः, मनोविज्ञानमित्यन्ये, संज्ञायते वा आहाराद्यर्थी जीवोऽनयेति संज्ञा वेदनीय-मोहनीयोदयाश्रया ज्ञान-दर्शनावरणक्षयोपशमाश्रया च विचित्रा आहारादिप्राप्तये क्रियैवेत्यर्थः, सा चोपाधिभेदाद् भिद्यमाना दशप्रकारा भवतीति, तत्र क्षुद्वेदनीयोदयात् कवलाद्याहारार्थं पुद्गलोपादानक्रियैव संज्ञायतेऽनयेत्याहारसंज्ञा, तथा 5 भयवेदनीयोदयाद् भयोद्धान्तस्य दृष्टि-वदनविकार-रोमाञ्चोझेदादिक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति भयसंज्ञा, तथा पुंवेदोदयाद् मैथुनाय स्त्र्य ङ्गालोकन-प्रसन्नवदन-संस्तम्भितोरुवेपथुप्रभृतिलक्षणा च क्रियैव संज्ञायतेऽनयेति मैथुनसंज्ञा, तथा लोभोदयात् प्रधानभवकारणाभिष्वङ्गपूर्विका सचित्तेतरद्रव्योपादानक्रिया च संज्ञायतेऽनयेति
परिग्रहसंज्ञा,तथा क्रोधोदयात्तदावेशगर्भा प्ररूक्षमुख-नयन-दन्तच्छदचेष्टैव संज्ञायतेऽनयेति 10 क्रोधसंज्ञा, तथा मानोदयादहङ्कारात्मिकोत्सेकादिपरिणतिरेव संज्ञायतेऽनयेति मानसंज्ञा, तथा मायोदयेनाशुभसंक्लेशादनृतसम्भाषणादिक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति मायासंज्ञा, तथा लोभोदयाल्लालसत्वान्वितात् सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थनैव संज्ञायतेऽनयेति लोभसंज्ञा, तथा मतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमाच्छब्दाद्यर्थगोचरा सामान्यावबोधक्रियैव संज्ञायतेऽ
नयेत्योघसंज्ञा, तथा तद्विशेषावबोधक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति लोकसंज्ञा १०, ततश्चौघसंज्ञा 15 दर्शनोपयोग: लोकसंज्ञा ज्ञानोपयोग इति, व्यत्ययमन्ये, अन्ये पुनरित्थमभिदधति
सामान्यप्रवृत्तिरोघसंज्ञा लोकदृष्टिर्लोकसंज्ञा, एताश्च सुखप्रतिपत्तये स्पष्टरूपाः पञ्चेन्द्रियानधिकृत्योक्ताः, एकेन्द्रियादीनां तु प्रायो यथोक्तक्रियानिबन्धनकर्मोदयादिपरिणामरूपा एवावगन्तव्या:, यावच्छब्दी व्याख्यातार्थो।
एता एव सर्वजीवेषु चतुर्विंशतिदण्डकेन निरूपयति- नेरइयेत्यादि, एवं चेव त्ति 20 यथा सामान्यसूत्रे एवमेव नारकसूत्रेऽपीत्यर्थः, एवं निरंतरमिति यथा नारकसूत्रे संज्ञास्तथा शेषेष्वपि वैमानिकान्तेष्वित्यर्थः ।
[सू० ७५३] नेरइया णं दसविधं वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति, तंजहासीतं, उसिणं, खुधं, पिवासं, कंडं, परझं, भयं, सोगं, जरं, वाहिं ।
अनन्तरसूत्रे वैमानिका उक्ता:, ते च सुखवेदना अनुभवन्ति, तद्विपर्यस्तास्तु नारका 25 या वेदना अनुभवन्ति ता दर्शयति- नेरइया इत्यादि कण्ठ्यम्, नवरं वेदनां पीडाम्,
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
[सू० ७५४-७५५]
८६९ तत्र शीतस्पर्शजनिता शीता, ताम्, सा च चतुर्थ्यादिनरकपृथ्वीष्विति, एवमुष्णां प्रथमादिषु, क्षुधं बुभुक्षां पिपासां तृष कण्डूं खजूं परज्झं ति परतन्त्रतां भयं भीति शोकं दैन्यं जरां वृद्धत्वं व्याधि ज्वर-कुष्ठादिकमिति ।।
[सू० ७५४] दस ठाणाई छउमत्थे णं सव्वभावेणं न जाणति ण पासति, तंजहा-धम्मत्थिगातं जाव वातं, अयं जिणे भविस्सति वा ण वा भविस्सति, 5 अयं सव्वदुक्खाणमंतं करेस्सति वा ण वा करेस्सति ।
एताणि चेव उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जाव अयं सव्वदुक्खाणमंतं करेस्सति वा ण वा करेस्सति ।
[टी०] अमुं च वेदनादिकममूर्त्तमर्थं जिन एव जानाति न छद्मस्थो यत आहदसेत्यादि गतार्थम्, नवरं छद्मस्थ इह निरतिशय एव द्रष्टव्योऽन्यथाऽवधिज्ञानी परमाण्वादि 10 जानात्येव, सव्वभावेणं ति सर्वप्रकारेण स्पर्श-रस-गन्ध-रूपज्ञानेन घटमिवेत्यर्थः, धर्मास्तिकायं यावत्करणादधर्मास्तिकायम् आकाशास्तिकायं जीवमशरीरप्रतिबद्ध परमाणुपुद्गलं शब्दं गन्धमिति, अयमित्यादि द्वयमधिक मिह, तत्रायमिति प्रत्यक्षज्ञानसाक्षात्कृतो जिन: केवली भविष्यति वा न वा भविष्यतीति नवमम्, तथाऽयं सव्वेत्यादि प्रकटं दशममिति ।
एतान्येव छद्मस्थानवबोध्यानि सातिशयज्ञानादित्वाजिनो जानातीति, आह चएयाइं इत्यादि, यावत्करणात् ‘जिणे अरहा केवली सव्वण्णू सव्वभावेण जाणइ पासइ, तंजहा- धम्मत्थिकाय'मित्यादि यावदशमं स्थानम्, तच्चोक्तमेवेति । । [सू० ७५५] दस दसाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-कम्मविवागदसाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववातियदसाओ, आयारदसाओ, 20 पण्हावागरणदसाओ, बंधदसाओ, दोगिद्धिदसाओ, दीहदसाओ, संखेवितदसाओ १।
कम्मविवागदसाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहामियापुत्ते त गोत्तासे, अंडे सगडे ति यावरे ।
माहणे णंदिसेणे त, सोरिय त्ति उदंबरे । १. 'पृथिवी' जे१ खं० ॥ २. सू० ४५०,४७८,५६७,६१० ॥
15
25
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७०
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सहस्सुद्दाहे आमलते, कुमारे लेच्छती [ति त ॥१६८॥ २॥ उवासगदसाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहाआणंदे कामदेवे त, गाहावति चुलणीपिता । सुरादेवे चुल्लसतते, गाहावति कुंडकोलिते । सद्दालपुत्ते महासतते, णंदिणीपिता लेतितापिता ॥१६९॥ ३॥ अंतकडदसाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहाणमि मातंगे सोमिले, रामगुत्ते सुंदसणे चेव । जमाली त भगाली त, किंकसेविल्लते ति त ॥
फाले अंबट्टपुत्ते त, एमेते दस आहिता ॥१७०॥ ४॥ 10 अणुत्तरोववातितदसाणं दस अज्झयणा पत्नत्ता, तंजहा
इसिदासे य धण्णे त, सुणक्खत्ते कत्तिते ति त । संठाणे सालिभद्दे त, आणंदे तेतली ति त ॥ दसन्नभद्दे अतिमुत्ते, एमेते दस आहिया ॥१७१॥ ५।
आयारदसाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहा-वीसं असमाधिट्ठाणा, एगवीसं 15 सबला, तेत्तीसं आसायणातो, अट्ठविधा गणिसंपता, दस चित्तसमाधिट्ठाणा, एगारस उवासगपडिमातो, बारस भिक्खुपडिमातो, पज्जोसवणाकप्पो, तीसं मोहणिजट्ठाणा, आजाइट्ठाणं ६।
पण्हावागरणदसाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहा-उवमा, संखा, इसिभासियाई, आयरियभासिताइं, महावीरभासिताई, खोमपसिणाई, 20 कोमलपसिणाई, अद्दागपसिणाई, अंगुट्ठपसिणाई, बाहुपसिणाई ७। __ बंधदसाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहा-बंधे य, मोक्खे य, देविड्डि, दसारमंडले ति त, आयरियविप्पडिवत्ती, उवज्झातविप्पडिवत्ती, भावणा, विमुत्ती, सातो, कम्मे ८। __दोगेहिदसाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहा-वाते, विवाते, उववाते, 25 सुखेत्ते, कसिणे, बायालीसं सुमिणा, तीसं महासुमिणा, बावत्तरिं सव्वसुमिणा,
हारे, रामगुत्ते त, एमेते दस आहिता ९।
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशममध्ययन दशस्थानकम् ।
[सू० ७५५]
८७१ दीहदसाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहा-चंदे, सूरे त, सुक्के त, सिरिदेवी, पभावती, दीवसमुद्दोववत्ती, बहुपुत्ती मंदरे ति त, थेरे संभूतविजते, थेरे पम्ह, ऊसासनीसासे १०॥
संखेवितदसाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहा-खुड्डिया विमाणपविभत्ती, महल्लिया विमाणपविभत्ती, अंगचूलिया, वग्गचूलिया, वियाहचूलिया, 5 अरुणोववाते, वरुणोववाए, गरुलोववाते, वेलंधरोववाते, वेसमणोववाते ११॥
टी०] सर्वज्ञत्वादेव यान् जिनोऽतीन्द्रियार्थप्रदर्शकान् श्रुतविशेषान् प्रणीतवांस्तान् दशस्थानकानुपातिनो दर्शयन्नाह– दस दसेत्याद्येकादश सूत्राणि, तत्र दस त्ति दशसङ्ख्या दसाओ त्ति दशाधिकाराभिधायकत्वाद्दशा इति बहवचनान्तं स्त्रीलिङ्ग शास्त्रस्याभिधानमिति, कर्मण: अशुभस्य विपाक: फलं कर्मविपाक: तत्प्रतिपादिका 10 दशाध्ययनात्मकत्वाद्दशा: कर्मविपाकदशा:, विपाकश्रुताख्यस्यैकादशाङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धः, द्वितीयश्रुतस्कन्धोऽप्यस्य दशाध्ययनात्मक एव, न चासाविहाभिमतः, उत्तरत्राविवरिष्यमाणत्वादिति ।
तथा साधून उपासते सेवन्त इत्युपासकाः श्रावकाः, तद्गतक्रियाकलापप्रतिबद्धाः दशा दशाध्ययनोपलक्षिता उपासकदशाः सप्तममङ्गमिति । तथा अन्तो 15 विनाश:, स च कर्मणस्तत्फलभूतस्य वा संसारस्य कृतो यैस्तेऽन्तकृतः, ते च तीर्थकरादयः, तेषां दशा: अन्तकृद्दशा:, इह चाष्टमाङ्गस्य प्रथमवर्गे दशाध्ययनानीति तत्सङ्ख्ययोपलक्षितत्वादन्तकृद्दशा इत्यभिधानेनाष्टममङ्गमभिहितम् । तथा उत्तरः प्रधान:, नास्योत्तरो विद्यत इत्यनुत्तर: उपपतनमुपपातो जन्मेत्यर्थः, अनुत्तरश्चासावुपपातश्चेत्यनुत्तरोपपातः, सोऽस्ति येषां तेऽनुत्तरोपपातिकाः सर्वार्थसिद्धादिविमान- 20 पञ्चकोपपातिन इत्यर्थः, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशा दशाध्ययनोपलक्षिता अनुत्तरोपपातिकदशा: नवममङ्गमिति। तथा आचरणमाचारो ज्ञानादिविषय: पञ्चधा, आचारप्रतिपादनपरा दशा दशाध्ययनात्मिका आचारदशा:, दशाश्रुतस्कन्ध इति या रूढाः । तथा प्रश्नाश्च पृच्छा: व्याकरणानि च निर्वचनानि प्रश्नव्याकरणानि, तत्प्रतिपादिका दशा: दशाध्ययनात्मिका: प्रश्नव्याकरणदशा: दशममङ्गमिति । 25 १. सुंके य क० ॥ २. दशाध्ययनात्मिका दशा: प्रश्न जे१ ॥
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
तथा बन्धदशाः द्विगृद्धिदशाः दीर्घदशाः सङ्क्षेपिकदशाश्चास्माकमप्रतीता इति ।
15
८७२
कर्म्मविपाकदशानामध्ययनविभागमाह- कम्मेत्यादि, मिगेत्यादि श्लोकः सार्द्धः, मृगा मृगग्रामाभिधाननगरराजस्य विजयनाम्नो भार्या, तस्याः पुत्रो मृगापुत्र:, तत्र 5 किल नगरे महावीरो गौतमेन समवसरणागतं जात्यन्धनरमवलोक्य पृष्टो भदन्त ! अन्योऽपीहास्ति जात्यन्धः ?, भगवांस्तं मृगापुत्रं जात्यन्धमनाकृतिमुपदिदेश, गौतमस्तु कुतूहलेन तद्दर्शनार्थं तद्गृहं जगाम, मृगादेवी च वन्दित्वाऽऽगमनकारणं पप्रच्छ, गौतमस्तु त्वत्पुत्रदर्शनार्थमित्युवाच, ततः सा भूमिगृहस्थं तदुद्घाटनतस्तं गौतमस्य दर्शितवती, गौतमस्तु तमतिघृणास्पदं दृष्ट्वाऽऽगत्य च भगवन्तं पप्रच्छ - कोऽयं 10 जन्मान्तरेऽभवत् ?, भगवानुवाच - अयं हि विजयवर्द्धमानकाभिधाने खेटे मकायीत्यभिधानो लञ्चोपचारादिभिर्लोकोपतापकारी राष्ट्रकूटो बभूव, ततः षोडशरोगाessaङ्काभिभूतो मृतो नरकं गतः, ततः पापकर्मविपाकेन मृगापुत्रो लोष्टाकारोऽव्यक्तेन्द्रियो दुर्गन्धिर्जातः, ततो मृत्वा नरकं गन्ता इत्यादि तद्वक्तव्यताप्रतिपादकं प्रथममध्ययनं मृगापुत्रमुक्तमिति १ |
गोत्तासे त्ति गोस्त्रासितवानिति गोत्रासः, अयं हि हस्तिनागपुरे भीमाभिधानकूटग्राहस्योत्पलाभिधानायाः भार्यायाः पुत्रोऽभूत्, प्रसवकाले चानेन महापापसत्त्वेनाराट्या गावस्त्रासिताः, यौवने चायं गोमांसान्यनेकधा भक्षितवान्, त नारको जात:, ततो वणिजग्रामनगरे विजयसार्थवाह-भद्राभार्ययोरुज्झितकाभिधानः पुत्रो जात:, स च कामध्वजगणिकार्थे राज्ञा तिलशो मांसच्छेदनेन तत्खादनेन च 20 चतुष्पथे विडम्ब्य व्यापादितो नरकं जगामेति गोत्रासवक्तव्यताप्रतिबद्धं द्वितीयमध्ययनं गोत्रासमुच्यते, इदमेव चोज्झितकनाम्ना विपाकश्रुते उज्झितकमुच्यते २ |
अंडे ति पुरिमतालनगरवास्तव्यस्य कुक्कुटाद्यनेकविधाण्डकभाण्डव्यवहारिणो वाणिजकस्य निन्नकाभिधानस्य पापविपाकप्रतिपादकमण्डमिति, स च निन्नको नरकं गतस्तत उद्वृत्तोऽभग्नसेननामा पल्लीपतिर्जातः, स च पुरिमतालनगरवास्तव्येन निरन्तरं 25 देशलूषणातिकोपितेन विश्वास्याऽऽनीय प्रत्येकं नगरचत्वरेषु तदग्रतः पितृव्यपितृव्यानीप्रभृतिकं स्वजनवर्गं विनाश्य तिलशो मांसच्छेदन - रुधिर - मांसभोजनादिना
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७५५ ]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
कदर्थयित्वा निपातित इति, विपाकश्रुते चाऽभग्नसेन इतीदमध्ययनमुच्यते ३ | सगडे ति यावरे, शकटमिति चापरमध्ययनम्, तत्र शाखांजन्यां नगर्यां सुभद्राख्यसार्थवाह-भद्राभिधानतद्भार्ययोः पुत्रः शकटः, स च सुसेनाभिधानामात्येन सुदर्शनाभिधानगणिकाव्यतिकरे सगणिको मांसच्छेदादिनाऽत्यन्तं कदर्थयित्वा विनाशितः, स च जन्मान्तरे छगलपुरे नगरे छन्निकाभिधानः छागलिको मांसप्रिय 5 आसीदित्येतदर्थप्रतिबद्धं चतुर्थमिति ४।
माहणे त्ति कौशाम्ब्यां बृहस्पतिदत्तनामा ब्राह्मण:, स चान्तः पुरव्यतिकरे उदयनेन राज्ञा तथैव कदर्थयित्वा मारितः, जन्मान्तरे चासावासीत् महेश्वरदत्तनामा पुरोहितः, स च जितशत्रो राज्ञः शत्रुजयार्थं ब्राह्मणादिभिर्होमं चकार तत्र प्रतिदिनमेकैकं चातुर्वर्ण्यदारकमष्टम्यादिषु द्वौ द्वौ चतुर्मास्यां चतुरश्चतुरः षण्मास्यामष्टावष्टौ संवत्सरे 10 षोडश परचक्रागमे अष्टशतमष्टशतम्, परचक्रं च जीयते, तदेवं मृत्वाऽसौ नरकं जगामेत्येवं ब्राह्मणवक्तव्यतानिबद्धं पञ्चममिति ५ ।
८७३
नन्दिसेणे यत्ति मथुरायां श्रीदामराजसुतो नन्दिषेणो युवराजो विपाकश्रुते च नन्दिवर्द्धनः श्रूयते, स च राजद्रोहव्यतिकरे राज्ञा नगरचत्वरे तप्तस्य लोहस्य द्रवेण स्नानं तद्विधसिंहासनोपवेशनं क्षार - तैलभृतकलशै राज्याभिषेकं च कारयित्वा कष्टमारेण 15 परासुतां नीतो नरकमगमत्, स च जन्मान्तरे सिंहपुरनगरराजस्य सिंहरथाभिधानस्य दुर्योधननामा गुप्तिपालो बभूव, अनेकविधयातनाभिर्जनं कदर्थयित्वा मृतः नरकं गतवानित्येवमर्थं षष्ठमिति ६ ।
सोरिय त्ति 'शौरिकनगरे शौरिकदत्तो नाम मत्स्यबन्धपुत्र:, स च मत्स्यमांसप्रियो गलविलग्नमत्स्यकण्टको महाकष्टमनुभूय मृत्वा नरकं गतः, स च जन्मान्तरे नन्दिपुर- 20 नगरराजस्य मित्राभिधानस्य श्रीको नाम महानसिकोऽभूत् जीवघातरति : मांसप्रियश्च, मृत्वा चासौ नरकं गतवानिति सप्तमम्, इदं चाध्ययनं विपाकश्रुतेऽष्टममधीतम् ७ ।
उदुम्बरे त्ति पाटलीषण्डे नगरे सागरदत्तसार्थवाहसुतः उदुम्बरदत्तो नाम्नाऽभूत्, स च षोडशभिर्रोगैरेकदाभिभूतो महाकष्टमनुभूय मृतः, स च जन्मान्तरे विजयपुरराजस्य कनकरथनाम्नो धन्वन्तरिनामा वैद्य आसीत् मांसप्रियो मांसोपदेष्टा चेति कृत्वा नरकं 25 १. सौरिक जे१ खं० ॥
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७४
गतवानित्यष्टमम् ८ ।
सहसुद्दाहे त्ति सहसा अकस्मादुद्दाहः प्रकृष्टो दाहः सहसोद्दाहः, सहस्राणां वा लोकस्योद्दाहः सहस्रोद्दाहः, आमलए त्ति रश्रुतेर्लश्रुतिरित्यामरकः सामस्त्येन मारिः, एवमर्थप्रतिबद्धं नवमम्, तत्र किल सुप्रतिष्ठे नगरे सिंहसेनो राजा 5 श्यामाभिधानदेव्यामनुरक्तः तद्वचनादेव एकोनानि पञ्च शतानि देवीनां तां मिमारयिषूणि ज्ञात्वा कुपितः सन् तन्मातॄणामेकोनपञ्चशतानि उपनिमन्त्र्य महति अगारे आवासं दत्त्वा भक्तादिभिः संपूज्य विश्रब्धानि सदेवीकानि सपरिवाराणि सर्वतो द्वारबन्धनपूर्वकमग्निप्रदानेन दग्धवान्, ततोऽसौ राजा मृत्वा षष्ठ्ट्यां च गत्वा रौंहीतके नगरे दत्तसार्थवाहस्य दुहिता देवदत्ताभिधानाऽभवत् सा च पुष्पनन्दिना राज्ञा परिणीता, स च मातुर्भक्तिपरतया 10 तत्कृत्यादि कुर्वन्नासामास, तया च भोगविघ्नकारिणीति तन्मातुर्ज्वलल्लोहदण्डस्याऽपानक्षेपात् सहसा दाहेन वधो व्यधायि राज्ञा चासौ विविधविडम्बनाभिर्विडम्ब्य विनाशितेति विपाकश्रुते देवदत्ताभिधानं नवममिति ९ ।
तथा कुमारे लेच्छई इ यत्ति कुमारा राज्यार्हाः, अथवा कुमाराः प्रथमवयस्थास्तान् लेच्छई इ यत्ति लिप्सूश्च वणिज आश्रित्य दशममध्ययनमितिशब्दश्च परिसमाप्तौ 15 भिन्नक्रमश्च, अयमत्र भावार्थ:- यदुत इन्द्रपुरे नगरे पृथिवी श्रीनामगणिकाऽभूत्, सा च बहून् राजकुमार-वणिक्पुत्रादीन् मन्त्र - चूर्णादिभिर्वशीकृत्योदारान् भोगान् भुक्तवती, षष्ठ्यां च गत्वा वर्द्धमाननगरे धनदेवसार्थवाहदुहिता अञ्जुरित्यभिधाना जाता, सा च विजयराजपरिणीता योनिशूलेन कृच्छ्रं जीवित्वा नरकं गतेति, अत एव विपाकश्रुते अञ्जू इति दशममध्ययनमुच्यत इति १० ।
20
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
उपासकदशा विवृण्वन्नाह - दसेत्यादि, आनंदे सार्धः श्लोकः, आनंदे त्ति आनन्दो वाणिजग्रामाभिधाननगरवासी महर्द्धिको गृहपतिर्महावीरेण बोधित एकादशोपासकप्रतिमाः कृत्वोत्पन्नावधिज्ञानो मासिक्या संलेखनया सौधर्ममगमदितिवक्तव्यताप्रतिबद्धं प्रथममध्ययनम् आनन्द एवोच्यत इति १ ।
कामदेवे त्ति कामदेवश्चम्पानगरीवास्तव्यस्तथैव प्रतिबुद्धः परीक्षाकारिदेवकृतो25 पसर्गाविचलितप्रतिज्ञस्तथैव दिवमगमदित्येवमर्थं द्वितीयं कामदेव इति २ । १. रोहीडके जे१ ॥ २. 'नक्षेपतः खं० ॥। ३. इत आरभ्य एकं पत्रं जे१ मध्ये नास्ति ॥
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८७५
[सू० ७५५]
गाहावइ चूलणीपिय त्ति चुलनीपितॄनामा गृहपतिर्वाराणसीनिवासी तथैव प्रतिबुद्ध: प्रतिपन्नप्रतिमो विमर्शकदेवेन मातरं त्रिखण्डीक्रियमाणां दृष्ट्वा क्षुभितश्चलितप्रतिज्ञो देवनिग्रहार्थमुद्दधाव, पुनः कृतालोचनस्तथैव दिवं गत इतिवक्तव्यताप्रतिबद्धं चुलनीपितेत्युच्यते ३ । __ सुरादेवे त्ति सुरादेवो गृहपतिर्वाराणसीनिवासी परीक्षकदेवस्य 'षोडश रोगातङ्कान् 5 भवत: शरीरे समकमुपनयामि यदि धर्मं न त्यजसि' इति वचनमुपश्रुत्य चलितप्रतिज्ञ: पुनरालोचितप्रतिक्रान्तस्तथैव दिवं गत इतिवक्तव्यताभिधायकं सुरादेव इति ४ । __चुल्लसयए त्ति महाशतकापेक्षया लघु: शतक: चुल्लशतकः, स चालम्भिकानगरवासी देवेनोपसर्गकारिणा द्रव्यमपह्रियमाणमुपलभ्य चलितप्रतिज्ञः पुनर्निरतिचार: सन् दिवमगमद् यथा तथा यत्राभिधीयते तच्चुल्लशतक इति ५ ।
10 गाहावइ कुंडकोलिए त्ति कुण्डकोलिको गृहपति: काम्पिल्यवासी धर्मध्यानस्थो यथा देवस्य गोशालकमतमुद्ग्राहयत उत्तरं ददौ दिवं च ययौ तथा यत्र अभिधीयते तत्तथेति ६।
सद्दालपुत्ते त्ति सद्दालपुत्र: पोलासपुरवासी कुम्भकारजातीयो गोशालकोपासको भगवता बोधितः पुनः स्वमतग्राहणोद्यतेन गोशालकेनाऽक्षोभितान्त:करण: 15 प्रतिपन्नप्रतिमश्च परीक्षकदेवेन भार्यामारणदर्शनतो भग्नप्रतिज्ञः पुनरपि कृतालोचनस्तथैव दिवं गत इतिवक्तव्यताप्रतिबद्धं सद्दालपुत्र इति ७ । __ महासयए त्ति महाशतकनाम्नो गृहपते राजगृहनगरनिवासिनस्त्रयोदशभार्यापतेरुपासकप्रतिमाकृतरतेरुत्पन्नावधिसंज्ञिताधिगते रेवत्यभिधानस्वभार्याकृतानुकूलोपसर्गाचलमते: संलेखनाजातदिविगतेर्वक्तव्यतानिबद्ध महाशतक इति ८ । 20
नंदिणीपिय त्ति नन्दिनीपितृनामकस्य श्रावस्तीवास्तव्यस्य भगवता बोधितस्य संलेखनादिगतस्य वक्तव्यतानिबन्धनान्नन्दिनीपितृनामकमिति ९ ।
लेईयापिय त्ति लेइकापितृनाम्नः श्रावस्तीनिवासिनो गृहमेधिनो भगवतो बोधिलाभिनोऽनन्तरं तथैव सौधर्मगामिनो वक्तव्यतानिबद्धं लेयिकापितॄनामकं दशममिति १० । १. इतः जे१ मध्ये पत्रारम्भः ॥ २. सालेइया खं० जे२ ॥ ३. लेइका पा० । शालियिका खं० । सालिइका'
जे२ ॥ ४. शालेयिका खं० । सालेयका जे२ ॥
25
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे ___ दशाप्यमी विंशतिवर्षपर्याया: सौधर्मे गताश्चतुःपल्योपमस्थितयो देवा जाता महाविदेहे च सेत्स्यन्तीति ।
अथान्तकृद्दशानामध्ययनविवरणमाह- अंतगडेत्यादि, इह चाष्टौ वर्गास्तत्र प्रथमवर्गे दशाध्ययनानि, तानि चामूनि-नमीत्यादि सार्द्ध रूपकम्, एतानि च नमीत्यादिकान्यन्त5 कृत्साधुनामानि अन्तकृद्दशाङ्गप्रथमवर्गेऽध्ययनसङ्ग्रहे नोपलभ्यन्ते, यतस्तत्राभिधीयते
गोयम १ समुद्द २ सागर ३ गंभीरे ४ चेव होइ थिमिए ५ य । अयले ६ कंपिल्ले ७ खलु अक्खोभ ८ पसेणई ९ विण्हू १० ॥ [अन्तकृदशा] इति । ततो वाचनान्तरापेक्षाणीमानीति सम्भावयामः, न च जन्मान्तरनामापेक्षयैतानि भविष्यन्तीति वाच्यम्, जन्मान्तराणां तत्रानभिधीयमानत्वादिति । 10 अधुनानुत्तरोपपातिकदशानामध्ययनविभागमाह- अणुत्तरो इत्यादि, इह च त्रयो
वर्गास्तत्र तृतीयवर्गे दृश्यमानाध्ययनैः कैश्चित् सह साम्यमस्ति न सर्वैः, यत इहोक्तम्इसिदासेत्यादि, तत्र तु दृश्यते
धन्ने य सुनक्खत्ते, इसिदासे य आहिए ।
पेल्लए रामपुत्ते य, चंदिमा पुट्टिके इय ॥ 15 पेढालपुत्ते अणगारे, अणगारे पोट्टिले इय ।
विहले दसमे वुत्ते, एमए दस आहिया ॥ [अनुत्तरोपपातिकदशा ] इति । तदेवमिहापि वाचनान्तरापेक्षयाऽध्ययनविभाग उक्तो न पुनरुपलभ्यमानवाचनापेक्षयेति, तत्र धन्यक-सुनक्षत्रकथानके एवम्- काकन्द्यां नगर्यां भद्रासार्थवाहीसुतो
धन्यको नाम महावीरसमीपे धर्ममनुश्रुत्य महाविभूत्या प्रव्रजित: षष्ठोपवासी 20 उज्झ्यमानलब्धाचाम्लपारणी विशिष्टतपसा क्षीणमांस-शोणितो राजगृहे
श्रेणिकमहाराजस्य चतुर्दशानां श्रमणसहस्राणां मध्येऽतिदुष्करकारक इति महावीरेण व्याहृतस्तेन च राज्ञा सभक्तिकं वन्दित उपबंहितश्च कालं च कृत्वा सर्वार्थसिद्धविमान उत्पन्न इति, एवं सुनक्षत्रोऽपीति । कार्तिक इति हस्तिनागपुरे श्रेष्ठी
इभ्यसहस्रप्रथमासनिकः श्रमणोपासको जितशत्रुराजस्याभियोगात् परिव्राजकस्य 25 मासक्षपणपारणके भोजनं परिवेषितवान् तमेव निर्वेदं कृत्वा मुनिसुव्रतस्वामिसमीपे
प्रव्रज्यां प्रतिपन्नवान् द्वादशाङ्गधरो भूत्वा शक्रत्वेनोत्पन्न इत्येवं यो भगवत्यां श्रूयते १. पुछिके खं० । पोट्टिके पा० जे२ ॥ २. पोट्ठिले जे१ ॥
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७५५]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
सोऽन्य एव, अयं पुनरन्योऽनुत्तरेषूपपन्न इति । शालिभद्र इति यः पूर्वभवे सङ्गमनामा वत्सपालोऽभवत्, सबहुमानं च साधवे पायसमदात्, राजगृहे गोभद्रश्रेष्ठिनः पुत्रत्वेनोत्पन्नो देवीभूतगोभद्रश्रेष्ठिसमुपनीतदिव्यभोजन - वसन - कुसुम - विलेपनभूषणादिभिर्भोगाङ्गैरङ्गनानां द्वात्रिंशता सह सप्तभूमिकरम्यहर्म्यतलगतो ललति स्म, वाणिजकोपनीतलक्षमूल्यबहुरत्नकम्बला गृहीता भद्रया शालिभद्रमात्रा वधूनां 5 पादप्रोञ्छनीकृताश्चेति श्रवणाज्जातकुतूहले दर्शनार्थं गृहमागते श्रेणिकमहाराजे जनन्याऽभिहितो यथा त्वां स्वामी द्रष्टुमिच्छतीत्यवतर प्रासादशृङ्गात् स्वामिनं पश्येतिवचनश्रवणादस्माकमप्यन्यः स्वामी भावयन् वैराग्यमुपजगाम वर्द्धमानस्वामिसमीपे च प्रवव्राज, विकृष्टतपसा क्षीणदेहः शिलातले पादपोपगमनविधिनाऽनुत्तरसुरेषूत्पन्नवानिति सोऽयमिह सम्भाव्यते, 10 केवलमनुत्तरोपपातिकाङ्गे नाधीत इति । तेतली ति यत्ति तेतलिसुत इति यो ज्ञाताध्ययनेषु श्रूयते स नायम्, तस्य सिद्धिगमनश्रवणात् ।
२
तथा दशार्णभद्रो दशार्णपुरनगरवासी विश्वंभराविभुः यो भगवन्तं महावीरं दशार्णकूटनगनिकटसमवसृतमुद्यानपालवचनादुपलभ्य यथा न केनापि वन्दितो भगवांस्तथा मया वन्दनीय इति राजसम्पदवलेपाद्भक्तितश्च चिन्तयामास, ततः प्रात: 15 सविशेषकृतस्नान-विलेपना - ऽऽभरणादिविभूषः प्रकल्पितप्रधानद्विपपतिपृष्ठाधिरूढो वल्गनादिविविधक्रियाकारिसदर्प सर्पच्चतुरङ्गसैन्यसमन्वितः पुष्यमाणवसमुद्धुष्यमाणागणितगुणगणः सामन्ता - ऽमात्य - मन्त्रि - राजदौवारिक- दूतादिपरिवृतः सान्तःपुरपौरजनपरिगत आनन्दमयमिव सम्पादयन् महीमण्डलमाखण्डल इवाऽमरावत्या नगरान्निर्जगाम निर्गत्य च समवसरणमभिगम्य यथाविधि भगवन्तं 20 भव्यजननलिनवनविबोधनाभिनवभानुमन्तं महावीरं वन्दित्वोपविवेश, अवगतदशार्णभद्रनृपाभिप्रायं च तन्मतविनोदनोद्यतं कृताष्टमुखे प्रतिमुखं विहिताष्टदन्ते प्रतिदन्तं कृताष्टपुष्करिणीके प्रतिपुष्करिणि निरूपिताष्टपुष्करे प्रतिपुष्करं विरचिताष्टदले प्रतिदलं विरचितद्वात्रिंशद्बद्धनाटके वारणेन्द्रे समारूढं स्वश्रिया निखिलं गगनमण्डलमापूरयन्तममरपतिमवलोक्य कुतोऽस्मादृशामीदृशी विभूतिः, कृतोऽनेन 25 निरवद्यो धर्म इति ततोऽहमपि तं करोमीति विभाव्य प्रवव्राज, जितोऽहमधुना त्वयेति १. पृष्ठारूढो जे१ खं० ॥ २. पुष्णमा पा० २ ॥
८७७
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे भणित्वा यमिन्द्रः प्रणिपपातेति सोऽयं दशार्णभद्रः सम्भाव्यते, परमनुत्तरोपपातिकाङ्गे नाधीत:, क्वचित् सिद्धश्च श्रूयत इति । __ तथा अतिमुक्तः एवं श्रूयते अन्तकृद्दशाङ्गे- पोलासपुरे नगरे विजयस्य राज्ञ:
श्रीनाम्न्या देव्या अतिमुक्तको नाम पुत्र: षड्वार्षिको गौतमं गोचरगतं दृष्ट्वा एवमवादीत्5 के यूयं किं वा अटथ ?, ततो गौतमोऽवादीत्– श्रमणा वयं भिक्षार्थं च पर्यटाम:, तर्हि भदन्त ! आगच्छत तुभ्यं भिक्षां दापयामीति भणित्वा अङ्गुल्या भगवन्तं गृहीत्वा स्वगृहमानैषीत्, तत: श्रीदेवी हृष्टा भगवन्तं प्रतिलम्भयामास, अतिमुक्तकः पुनरवोचत्यूयं व वसथ ? भगवानुवाच- भद्र ! मम धर्माचार्याः श्रीवर्द्धमानस्वामिन उद्याने
वसन्ति तत्र वयं परिवसामः, भदन्त ! आगच्छाम्यहं भवद्भिः सार्धं भगवतो महावीरस्य 10 पादान् वन्दितुम् ?, गौतमोऽवादीत्- यथासुखं देवानांप्रिय ! ततो गौतमेन
सहागत्याऽतिमुक्तकः कुमारो भगवन्तं वन्दते स्म, स धर्मं श्रुत्वा प्रतिबुद्धो गृहमागत्य पितरावब्रवीत्, यथा- संसारान्निविण्णोऽहं प्रव्रजामीत्यनुजानीतं युवाम्, तावूचतु:बाल ! त्वं किं जानासि ?, ततोऽतिमुक्तकोऽवादीत्- हे अम्बतात ! यदेवाहं जानामि
तदेव न जानामि, यदेव न जानामि तदेव जानामि, ततस्तौ तमवादिष्टां कथमेतत् ?, 15 सोऽब्रवीत्- अम्बतात ! जानाम्यहं यदुत जातेनावश्यं मर्त्तव्यम्, न जानामि तु कदा
वा कस्मिन् वा कथं वा कियच्चिराद्वा ?, तथा न जानामि कैः कर्मभिर्निरयादिषु जीवा उत्पद्यन्ते ? एतत् पुनर्जानामि यथा स्वयंकृतैः कर्मभिरिति, तदेवं मातापितरौ प्रतिबोध्य प्रवव्राज तप: कृत्वा च सिद्ध इति, इह त्वयमनुत्तरोपपातिकेषु दशमाध्ययनतयोक्तस्तदपर
एवायं भविष्यतीति । दस आहिय त्ति दशाध्ययनान्याख्यातानीत्यर्थः । 20 आचारदशानामध्ययनविभागमाह- आयारेत्यादि, असमाधि: ज्ञानादिभावप्रतिषेधोऽप्रशस्तो भाव इत्यर्थः तस्य स्थानानि पदानि असमाधिस्थानानि, यैरासेवितैरात्मपरोभयानामिह परत्रोभयत्र वा असमाधिरुत्पद्यते तानीति भावः, तानि च विंशतिः द्रुतचारित्वादीनि तत एवावगम्यानीति, तत्प्रतिपादकमध्ययन
मसमाधिस्थानानीति प्रथमम्, तथा एकविंशति: शबला: शबलं कर्बुरं द्रव्यत: 25 पटादि भावत: सातिचारं चारित्रम्, इह च शबलचारित्रयोगाच्छबलास्साधवस्ते च
करकर्मप्रकारान्तरमैथुनादीन्येकविंशतिपदानि तत्रैवोक्तरूपाणि सेवमाना उपाधित
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७५५]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् । एकविंशतिर्भवन्ति, तदर्थमध्ययनम् एकविंशतिशबला इत्यभिधीयते २ । तेत्तीसमासायणाउ त्ति ज्ञानादिगुणा आ सामस्त्येन शात्यन्ते अपध्वस्यन्ते यकाभिस्ता आशातना रत्नाधिकविषयाविनयरूपाः पुरतोगमनादिकास्तत्प्रसिद्धास्त्रयस्त्रिंशद्भेदा यत्राभिधीयन्ते तदध्ययनमपि तथोच्यत इति ३ । अद्वेत्यादि, अष्टविधा गणिसम्पत् आचार-श्रुत-शरीर-वचनादिका आचार्यगुणद्धिरष्टस्थानकोक्तरूपा यत्राभिधीयते 5 तदध्ययनमपि तथोच्यन इति ४ । दसेत्यादि, दश चित्तसमाधिस्थानानि येषु सत्सु चित्तस्य प्रशस्तपरिणतिर्जायते तानि तथा, असमुत्पन्नपूर्वकधर्मचिन्तोत्पादादीनि तत्रैव प्रसिद्धान्यभिधीयन्ते यत्र तत्तथैवोच्यत इति ५ । एक्कारेत्यादि, एकादशोपासकानां श्रावकाणां प्रतिमा: प्रतिपत्तिविशेषा: दर्शन-व्रत-सामायिकादिविषया: प्रतिपाद्यन्ते यत्र तत्तथैवोच्यत इति ६ । बारसेत्यादि, द्वादश भिक्षूणां प्रतिमा: अभिग्रहा मासिकी- 10 द्विमासिकीप्रभृतयो यत्राभिधीयन्ते तत्तथोच्यते ७ । पज्जो इत्यादि, पर्याया ऋतुबद्धिका: द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसम्बन्धिन उत्सृज्यन्ते उज्झ्यन्ते यस्यां सा निरुक्तविधिना पर्योसवना, अथवा परीति सर्वतः क्रोधादिभावेभ्य: उपशम्यते यस्यां सा पर्युपशमना, अथवा परि: सर्वथा एकक्षेत्रे जघन्यतः सप्ततिं दिनानि उत्कृष्टतः षण्भासान् वसनं निरुक्तादेव पर्युषणा, तस्याः कल्प आचारो मर्यादेत्यर्थः पर्योसवनाकल्प: पर्युपशमनाकल्प: पर्युषणाकल्पो 15 वेति, स च सक्कोसजोयणं विगइनवय [ मित्यादिकस्तत्रैव प्रसिद्धस्तदर्थमध्ययनं स एवोच्यत इति ८ । तीसमित्यादि, त्रिंशन्मोहनीयकर्मणो बन्धस्थानानि बन्धकारणानि वारिमझेऽवगाहित्ता, तसे पाणे विहिंसई[आव० सं० ]त्यादिकानि तत्रैव प्रसिद्धानि मोहनीयस्थानानि तत्प्रतिपादकमध्ययनं तथैवोच्यत इति ९ । आजाइट्ठाणमिति आजननमाजाति: सम्मूर्च्छन-गर्भोपपाततो जन्म तस्या: स्थानं संसारस्तत् सनिदानस्य 20 भवतीत्येवमर्थप्रतिपादनपरमाजातिस्थानमुच्यत इति १० ।
प्रश्नव्याकरणदशा इहोक्तरूपा न दृश्यन्ते, दृश्यमानास्तु पञ्चाश्रव-पञ्चसंवरात्मिका इति, इहोक्तानां तूपमादीनामध्ययनानामक्षरार्थ: प्रतीयमान एवेति, नवरं पसिणाई ति प्रश्नविद्या: यकाभि: क्षौमकादिषु देवतावतार: क्रियत इति, तत्र क्षौमं वस्त्रम्, अद्दागो आदर्शः, अङ्गुष्ठो हस्तावयवः, बाहवो भुजा इति ।
25 १. तृतीये परिशिष्टे द्रष्टव्यम् ॥ २. क्षौमकं पा० जे२ ॥
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८०
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे बन्धदशानामपि बन्धाद्यध्ययनादि श्रौतेनार्थेन व्याख्यातव्यानि । द्विगृद्धिदशाश्च स्वरूपतोऽप्यनवसिताः ।
दीर्घदशा: स्वरूपतोऽनवगता एव, तदध्ययनानि तु कानिचिन्नरकावलिकाश्रुतस्कन्धे उपलभ्यन्ते, तत्र चन्द्रवक्तव्यताप्रतिबद्धं चन्द्रमध्ययनम्, तथाहि- राजगृहे महावीरस्य 5 चन्द्रो ज्योतिष्कराजो वन्दनं कृत्वा नाट्यविधिं चोपदर्य प्रतिगतः, गौतमश्च भगवन्तं
तद्वक्तव्यतां पप्रच्छ, भगवांश्चोवाच- श्रावस्त्यामङ्गजिन्नामा अयं गृहपतिरभूत् पार्श्वनाथसमीपे च प्रव्रजितो विराध्य च मनाक् श्रामण्यं चन्द्रतयोत्पन्नो महाविदेहे च सेत्यस्यतीति । तथा सूरवक्तव्यताप्रतिबद्धं सूरम्, सूरवक्तव्यता च चन्द्रवत्, नवरं
सुप्रतिष्ठो नाम्ना बभूवेति । शुक्रो ग्रहस्तद्वक्तव्यता चैवम्- राजगृहे भगवन्तं वन्दित्वा 10 शुक्रे प्रतिगते गौतमस्य तथैव भगवानुवाच- वाराणस्यां सोमिलनामा
ब्राह्मणोऽयमभवत्, पार्श्वनाथं चापृच्छत् ते भंते ! जवणिजं ?, तथा सरिसवया मासा कुलत्था य ते भोज्जा ? तथा एगे भवं दुवे भवं [पुप्फिया] इत्यादि, भगवता चैतेषु विभक्तेष्वाक्षिप्त: श्रावको भूत्वा पुनर्विपर्यासादारामादिलौकिकधर्मस्थानानि कारयित्वा
दिक्प्रोक्षकतापसत्वेन प्रव्रज्य प्रतिषष्ठपारणकं क्रमेण पूर्वादिदिग्भ्य आनीय 15 कन्दादिकमभ्यवजहार, अन्यदाऽसौ यत्र क्वचन गर्तादौ पतिष्यामि तत्रैव
प्राणांस्त्यक्ष्यामीत्यभिग्रहमभिगृह्य काष्ठमुद्रया मुखं बद्ध्वा उत्तराभिमुख: प्रतस्थौ, तत्र प्रथमदिवसेऽपराह्नसमयेऽशोकतरोरधो होमादिकर्म कृत्वोवास, तत्र देवेन केनाप्युक्तः अहो सोमिलब्राह्मणमहर्षे ! दुष्प्रव्रजितं ते, पुनर्द्वितीयेऽहनि तथैव सप्तपर्णस्याध उषित उक्तः, तृतीयादिषु दिनेष्वश्वत्थ-वटोदुम्बराणामध उषित: भणितो देवेन, तत: 20 पञ्चमदिनेऽवादीदसौ कथं नु नाम मे दुष्प्रव्रजितम् ?, देवोऽवोचत् त्वं पार्श्वनाथस्य
भगवत: समीपेऽणुव्रतादिकं श्रावकधर्मं प्रतिपद्याधुना अन्यथा वर्त्तस इति दुष्प्रव्रजितं तव, ततोऽद्यापि तमेवाणुव्रतादिकं धर्मं प्रतिपद्यस्व येन सुप्रव्रजितं तव भवतीत्येवमुक्तस्तथैव चकार, तत: श्रावकत्वं प्रतिपाल्यानालोचितप्रतिक्रान्त: कालं
कृत्वा शुक्रावतंसके विमाने शुक्रत्वेनोत्पन्न इति । 25 तथा श्रीदेवीसमाश्रयमध्ययनं श्रीदेवीति, तथाहि- सा राजगृहे महावीरवन्दनाय
१. तु नास्ति जे१ खं० ॥ २. दृश्यतां तृतीये परिशिष्टे ॥ ३. श्रीदेवी तथाहि जे१ खं० ॥
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७५५]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
सौधर्म्मादाजगाम, नाट्यं दर्शयित्वा प्रतिजगाम च, गौतमस्तत्पूर्वभवं पप्रच्छ, भगवांस्तं जगाद - राजगृहे सुदर्शन श्रेष्ठी बभूव, प्रियाभिधाना च तद्भार्या तयोः सुता भूता नाम बृहत्कुमारिका पार्श्वनाथसमीपे प्रव्रजिता शरीरबकुशा जाता सातिचारा च मृत्वा दिवं गता महाविदेहे च सेत्स्यतीति ।
9
तथा प्रभावती चेटकदुहिता वीतभयनगरनायको दायनमहाराजभार्या यया जिनबिम्बपूजार्थस्नानानन्तरं चेट्या सितवसनार्पणेऽपि विभ्रमाद्रक्तवसनमुपनीतमनवसरमनयेति मन्यमानया मन्युना दर्पणेन चेटिका हता मृता च, ततो वैराग्यादनशनं प्रतिपद्य देवतया यया बभूवे, यया चोज्जयिनीराजं प्रति विक्षेपेण प्रस्थितस्य ग्रीष्मे मासि पिपासाभिभूतसमस्तसैन्यस्योदायनमहाराजस्य स्वच्छ शीतलजलपरिपूर्णत्रिपुष्करकरणेनोपकारोऽकारीत्येवंलक्षणप्रभावतीचरितयुक्तमध्ययनं प्रभावतीति 10 सम्भाव्यते, न चेदं निरयावलिकाश्रुतस्कन्धे दृश्यत इति पञ्चमम् ।
तथा बहुपुत्रिकादेवीप्रतिबद्धं सैवाध्ययनमुच्यते, तथाहि - राजगृहे महावीरवन्दनार्थं सौधर्माद् बहुपुत्रिकाभिधाना देवी समवततार, वन्दित्वा च प्रतिजगाम, केयमिति पृष्टे गौतमेन भगवानवादीत् - वाराणस्यां नगर्यां भद्राभिधानस्य सार्थवाहस्य सुभद्राभिधाना भार्येयं बभूव, सा च वन्ध्या पुत्रार्थिनी भिक्षार्थमागतमार्यासंघाटकं पुत्रलाभं पप्रच्छ, स च धर्म्ममचकथत् प्राव्राजीच्च, सा बहुजनापत्येषु प्रीत्याऽभ्यङ्गोद्वर्त्तनापरायणा सातिचारा मृत्वा सौधर्म्ममगमत्, ततश्च्युता च विभेले सन्निवेशे ब्राह्मणीत्वेनोत्पत्स्यते, ततः पितृभागिनेयभार्या भविष्यति युगलप्रसवा च सा षोडशभिर्वर्षे: द्वात्रिंशदपत्यानि जनयिष्यति, ततोऽसौ तन्निर्वेदादार्या: प्रक्ष्यति ताश्च धर्म्यं कथयिष्यन्ति श्रावकत्वं च सा प्रतिपत्स्यते, कालान्तरे प्रव्रजिष्यति, सौधर्मे चेन्द्रसामानिकतयोत्पद्य महाविदेहे 20 सेत्स्यतीति ।
तथा स्थविरः सम्भूतविजयो भद्रबाहुस्वामिनो गुरुभ्राता स्थूलभद्रस्य सगडालपुत्रस्य दीक्षादाता, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धमध्ययनं स एवोच्यत इति नवमम्, शेषाणि त्रीण्यप्रतीतानीति ।
संक्षेपिकदशा अप्यनवगतस्वरूपा एव, तदध्ययनानां पुनरयमर्थ:- खुड्डिएत्यादि, 25
१. वेभेले जे१ खं० ॥। २. संक्षेपिका दशा जे१ खं० ॥
८८१
5
15
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे इहावलिकाप्रविष्टेतरविमानप्रविभजनं यत्राध्ययने तद्विमानप्रविभक्तिः, तच्चैकमल्पग्रन्थार्थं तथाऽन्यन्महाग्रन्थार्थमत: क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्तिर्महतीविमानप्रविभक्तिरिति, अङ्गस्य आचारादेचूलिका यथाऽऽचारस्यानेकविधा, इहोक्तानुक्तार्थसङ्ग्राहिका चूलिका । वग्गचूलिय त्ति इह वर्ग: अध्ययनादिसमूहः, यथा अन्तकृद्दशास्वष्टौ वर्गाः, 5 तस्य चूलिका वर्गचूलिका । विवाहचूलिय त्ति व्याख्या भगवती, तस्याश्चूलिका व्याख्याचूलिका । अरुणोपपात इति इहारुणो नाम देवस्तत्समयनिबद्धो ग्रन्थस्तदुपपातहेतुररुणोपपातः, यदा तदध्ययनमुपयुक्तः सन् श्रमणः परिवर्तयति तदाऽसावरुणो देवः स्वसमयनिबद्धत्वाच्चलितासनः सम्भ्रमोद्धान्तलोचन:
प्रयुक्तावधिस्तद्विज्ञाय हृष्टप्रहृष्टश्चलचपलकुण्डलधरो दिव्यया युत्या दिव्यया विभूत्या 10 दिव्यया गत्या यत्रैवासौ भगवान् श्रमणस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च भक्तिभरावनतवदनो
विमुक्तवरकुसुमवृष्टिरवपतति, अवपत्य च तदा तस्य श्रमणस्य पुरत: स्थित्वा अन्तर्हितः कृताञ्जलिक उपयुक्त: संवेगविशुद्ध्यमानाध्यवसान: शृण्वंस्तिष्ठति, समाप्ते च भणतिसुस्वाध्यायितं सुस्वाध्यायितमिति, वरं वृण्विति । ततोऽसाविहलोकनिष्पिपास: समतृण
मणि-मुक्ता-लेष्ट-काञ्चन: सिद्धिवधूनिर्भरानुगतचित्त: श्रमण: प्रतिभणति-न मे वरेणार्थ 15 इति । ततोऽसावरुणो देवोऽधिकतरजातसंवेग: प्रदक्षिणां कृत्वा वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रतिगच्छति, एवं वरुणोपपातादिष्वपि भणितव्यमिति । [सू० ७५६] दस सागरोवमकोडोकोडीओ कालो ओसप्पिणीए । दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो उस्सप्पिणीए ।
[टी०] एवंभूतं च श्रुतं कालविशेष एव भवतीति दशस्थानकावतारि तत्स्वरूपमाह20 दसेत्यादि सूत्रद्वयं सुगमम् ।।
[सू० ७५७] दसविधा नेरइया पत्नत्ता, तंजहा-अणंतरोववन्ना, परंपरोववन्ना, अणंतरोगाढा, परंपरोगाढा, अणंतराहारगा, परंपराहारगा, अणंतरपजत्ता, परंपरपज्जत्ता, चरिमा, अचरिमा । एवं निरंतरं जाव वेमाणिया ।
चउत्थीते णं पंकप्पभाते पुढवीते दस निरतावाससतसहस्सा पन्नत्ता १ । 25 रयणप्पभाते पुढवीते जहन्नेणं णेरतिताणं दस वाससहस्साई ठिती पन्नत्ता
२ ।
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
[सू० ७५७ ].
चउत्थीते णं पंकप्पभाते पुढवीते उक्कोसेणं णेरतिताणं दस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता ३ ।
पंचमाते णं धूमप्पभाते पुढवीते जहन्त्रेणं नेरइयाणं दस सागरोवमाइं ठिती
पण्णत्ता ४ ।
असुरकुमाराणं जहन्नेणं दस वाससहस्साइं ठिती पण्णत्ता, एवं जाव थणियकुमाराणं १४ ।
८८३
बादरवणस्सतिकातिताणं उक्कोसेणं दस वाससहस्साइं ठिती पन्नत्ता १५ । वाणमंतराणं देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साइं ठिती पन्नत्ता १६ । बंभलोगे कप्पे उक्कोसेणं देवाणं दस सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता १७ । लंतते कप्पे देवाणं जहन्नेणं दस सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता १८ । 10 [टी०] यथोपाधिवशात् कालद्रव्यं भेदवत्तथा नारकादिजीवद्रव्याण्यपीत्याहदसविहेत्यादिसूत्राणि चतुर्विंशतिः, न विद्यते अन्तरं व्यवधानमस्येत्यनन्तरो वर्त्तमानः समयः तत्रोपपन्नका अनन्तरोपपन्नकाः येषामुत्पन्नानामेकोऽपि समय नातिक्रान्तस्त एत इति, येषां तूत्पन्नानां द्वयादयः समया जातास्ते परम्परोपपन्नकाः परम्परसमयेषूपपन्नत्वात् तेषामित्ययं कालविशेषोपाधिकृतो भेदः, विवक्षितप्रदेशापेक्षया अनन्तरप्रदेशेष्ववगाढा: अवस्थिता अनन्तरावगाढा:, अथवा प्रथमसमयावगाढा अनन्तरावगाढाः, एतद्विलक्षणाः परम्परावगाढाः, अयं क्षेत्रतो भेदः, तथा अनन्तरान् अव्यवहितान् जीवप्रदेशैराक्रान्ततया स्पृष्टा वा पुद्गलानाहारयन्तीत्यनन्तराहारकाः, ये तु पूर्वं व्यवहितान् सत: पुद्गलान् स्वक्षेत्रमागतानाहारयन्ति ते परम्पराहारकाः, अथवा प्रथमसमयाहारका अनन्तराहारका: 20 इतरे त्वितरे, अयं तु द्रव्यकृतो भेद इति । न विद्यते पर्याप्तत्वेऽन्तरं येषां ते अनन्तराः, ते च ते पर्याप्तकाश्चेति अनन्तरपर्याप्तकाः प्रथमसमयपर्याप्तका इत्यर्थः, इतरे तु परम्परपर्याप्तकाः, अयं भावकृतो भेदः, पर्याप्तेर्भावत्वादिति, चरमनारकभवयुक्तत्वाच्चरमाः न पुनर्नारका भविष्यन्ति ये इति भावः, तद्विपरीता अचरमा:, अयमपि भावकृत एव भेदः, चरमाचरमत्वयोर्जीवपर्यायत्वादिति । एवमित्यादि 25 १. भविष्यन्तीति ये जे१ खं० ॥
5
तथा 15
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे नारकवद्दशप्रकारत्वमिदं नैरन्तर्येण चतुर्विंशतिदण्डकोक्तानां वैमानिकान्तानामपि योजनीयमिति ।
दण्डकस्यादौ दशधा नारका उक्ताः, अथ तदाधारान् नारकादिस्थितिं च दशस्थानानुपाततो निरूपयन् चउत्थीयेत्यादिसूत्राष्टादशकमाह, सुगमं चैतदिति । 5 [सू० ७५८] दसहिं ठाणेहिं जीवा आगमेसिभद्दगत्ताए कम्मं पकरेंति, तंजहा-अणिदाणताते, दिट्ठिसंपन्नताते, जोगवाहियताते, खंतिखमणताते, जितिंदियताते, अमाइल्लताते, अपासत्थयाए, सुसामण्णताते, पवयणवच्छल्लयाते, पवयणउन्भावणताए ।
[टी०] अनन्तरं लान्तकदेवा उक्तास्ते च लब्धभद्रा इति भद्रकारिकर्मकारणान्याह10 दसहीत्यादि, आगमिष्यद् आगामिभवान्तरभावि भद्रं कल्याणं सुदेवत्वलक्षणमनन्तरं
सुमानुषत्वप्राप्त्या मोक्षप्राप्तिलक्षणं च येषां ते आगमिष्यद्भद्रास्तेषां भाव आगमिष्यद्भद्रता, तस्यै आगमिष्यद्भद्रतायै, तदर्थमित्यर्थः, आगमिष्यद्भद्रतया वा कर्म शुभप्रकृतिरूपं प्रकुर्वते बध्नन्ति, तद्यथा- निदायते लूयते ज्ञानाद्याराधनालता
आनन्दरसोपेतमोक्षफला येन पशुनेव देवेन्द्रादिगुणद्धिप्रार्थनाध्यवसानेन तन्निदानम्, 15 अविद्यमानं तद्यस्य सोऽनिदानः, तद्भावस्तत्ता, तया हेतुभूतया, निरुत्सुकतयेत्यर्थः १।
दृष्टिसम्पन्नतया सम्यग्दृष्टितया २ । योगवाहितया श्रुतोपधानकारितया योगेन वा समाधिना सर्वत्रानुत्सुकत्वलक्षणेन वहतीत्येवंशीलो योगवाही, तद्भावस्तत्ता, तया ३। क्षान्त्या क्षमत इति क्षान्तिक्षमणः, क्षान्तिग्रहणमसमर्थताव्यवच्छेदार्थं यतोऽसमर्थोऽपि
क्षमत इति, क्षान्तिक्षमणस्य भावस्तत्ता, तया ४ । जितेन्द्रियतया करणनिग्रहेण ५। 20 अमाइल्लयाए त्ति, माइल्लो मायावांस्तत्प्रतिषेधेनामायावान्, तद्भावस्तत्ता, तया ६ । पार्श्वे बहिर्ज्ञानादीनां देशत: सर्वतो वा तिष्ठतीति पार्श्वस्थः, उक्तं च
सो पासत्थो दुविहो देसे सव्वे य होइ नायव्वो । सव्वम्मि नाण-दसण-चरणाणं जो उ पासत्थो ।
देसम्मि उ पासत्थो सेजायरभिहडनीयपिंडं च । 25 नीयं च अग्गपिंडं भुंजइ निक्कारणे चेव ॥ [ ] इत्यादि ।
१. तायां वा जे१ ॥
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७५९] दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८८५ नियतपिण्डो यथा मयैतावद्दातव्यं भवता तु नित्यमेव ग्राह्यमित्येवं नियततया यो गृह्यते, नीयमिति नित्यं सदा अग्रपिण्डः अप्रवृत्ते परिवेषणे आदावेव यो गृह्यत इति। पार्श्वस्थस्य भावः पार्श्वस्थता, न साऽपार्श्वस्थता, तया ७ । तथा शोभनः पार्श्वस्थादिदोषवर्जिततया मूलोत्तरगुणसम्पन्नतया च स चासौ श्रमणश्च साधुः सुश्रमणः, तद्भावस्तत्ता, तया ८ । तथा प्रकृष्टं प्रशस्तं प्रगतं वा वचनम् आगम: प्रवचनं द्वादशाङ्गं 5 तदाधारो वा सङ्घः, तस्य वत्सलता हितकारिता प्रत्यनीकत्वादिनिरासेनेति प्रवचनवत्सलता, तया ९ । तथा प्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्योद्भावनं प्रभावनं प्रावचनिकत्वधर्मकथा-वादादिलब्धिभिर्वर्णवादजननं प्रवचनोद्भावनम्, तदेव प्रवचनोद्भावनता, तयेति १० ।
[सू० ७५९] दसविहे आससप्पओगे पन्नत्ते, तंजहा-इहलोगासंसप्पओगे, 10 परलोगासंसप्पओगे, दुहतो लोगासंसप्पओगे, जीवितासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामासंसप्पओगे, भोगासंसप्पओगे, लाभासंसप्पओगे, पूयासंसप्पओगे, सक्कारासंसप्पओगे ।
[टी०] एतानि चागमिष्यद्भद्रताकारणानि कुर्वता आशंसाप्रयोगो न विधेय इति तत्स्वरूपमाह-दसेत्यादि, आशंसनमाशंसा इच्छा, तस्याः प्रयोगो व्यापारणं करणम्, 15 आशंसैव वा प्रयोगो व्यापार: आशंसाप्रयोग:, सूत्रे च प्राकृतत्वात् आससप्पओगे त्ति भणितम्, तत्र इह अस्मिन् प्रज्ञापकमनुष्यापेक्षया मानुषत्वपर्याये वर्त्तते लोकः प्राणिवर्गः स इहलोकः, तद्व्यतिरिक्तस्तु परलोकः, तत्रेहलोकं प्रति आशंसाप्रयोगो यथा भवेयमहमितस्तपश्चरणाच्चक्रवर्त्यादिरितीहलोकाशंसाप्रयोगः, एवमन्यत्रापि विग्रह: कार्य: १, परलोकाशंसाप्रयोगो यथा भवेयमहमितस्तपश्चरणादिन्द्र इन्द्रसामानिको 20 वा २, द्विधालोकाशंसाप्रयोगो यथा भवेयमहमिन्द्रस्ततश्चक्रवर्ती अथवा इहलोके इहजन्मनि किञ्चिदाशास्ते एवं परजन्मन्युभयत्र चेति ३ । एतत् त्रयं सामान्यमतोऽन्ये तद्विशेषा एव, अस्ति च सामान्यविशेषयोर्विवक्षया भेद इत्याशंसाप्रयोगाणां दशधात्वं न विरुध्यते, तथा जीवितं प्रत्याशंसा चिरं मे जीवितं भवत्विति जीविताशंसाप्रयोग: ४ । तथा मरणं प्रत्याशंसा शीघ्रं मे मरणमस्त्विति मरणाशंसाप्रयोग: ५ । तथा कामौ 25 १. यथा नास्ति जे१ खं० ॥
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे शब्दरूपे तौ मनोज्ञौ मे भूयास्तामिति कामाशंसाप्रयोग: ६ । तथा भोगा गन्ध-रसस्पर्शास्ते मनोज्ञा मे भूयासुरिति भोगाशंसाप्रयोग: ७ । तथा कीर्ति-श्रुतादिलाभो भूयादिति लाभाशंसाप्रयोग: ८। तथा पूजा पुष्पादिपूजनं मे स्यादिति पूजाशंसाप्रयोग: ९। सत्कारः प्रवरवस्त्रादिभि: पूजनम्, तन्मे स्यादिति सत्काराशंसाप्रयोग इति १०। 5 [सू० ७६०] दसविधे धम्मे पन्नत्ते, तंजहा-गामधम्मे, नगरधम्मे, रट्ठधम्मे, पासंडधम्मे, कुलधम्मे, गणधम्मे, संघधम्मे, सुतधम्मे, चरित्तधम्मे, अत्थिकायधम्मे ।
[टी०] उक्तलक्षणादप्याशंसाप्रयोगात् केचिद् धर्ममाचरन्तीति धर्मं सामान्येन निरूपयन्नाह-दसेत्यादि, ग्रामा जनपदाश्रयाः, तेषां तेषु वा धर्म: समाचारो व्यवस्थेति 10 ग्रामधर्मः, स च प्रतिग्राम भिन्न इति, अथवा ग्राम: इन्द्रियग्रामो रूढेः, तद्धर्मो विषयाभिलाष: १, नगरधर्मो नगराचारः, सोऽपि प्रतिनगरं प्रायो भिन्न एव २, राष्टधर्मो देशाचार: ३, पाषण्डधर्मः पाषण्डिनामाचार: ४, कुलधर्मः उग्रादिकुलाचारः, अथवा कुलं चन्द्रादिकमार्हतानां गच्छसमूहात्मकम्, तस्य धर्म:
सामाचारी ५, गणधर्मो मल्लादिगणव्यवस्था, जैनानां वा कुलसमुदायो गण: 15 कोटिकादिस्तद्धर्म: तत्सामाचारी ६, सङ्घधर्मो गोष्ठीसमाचार: आर्हतानां वा
गणसमुदायरूपश्चतुर्वर्णो वा सङ्घस्तद्धर्मः तत्समाचार: ७, श्रुतमेव आचारादिकं दुर्गतिप्रपतज्जीवधारणात् धर्मः श्रुतधर्म: ८, चयरिक्तीकरणाच्चरित्रम्, तदेव धर्मश्चरित्रधर्म: ९, अस्तय: प्रदेशाः, तेषां कायो राशिरस्तिकाय:, स एव धर्मो
गतिपर्याये जीव-पुद्गलयोर्धारणादित्यस्तिकायधर्म: १० । 20 सू० ७६१] दस थेरा पन्नत्ता, तंजहा-गामथेरा, नगरथेरा, रट्ठथेरा,
पसत्थारथेरा, कुलथेरा, गणथेरा, संघथेरा, जातिथेरा, सुतथेरा, परितागथेरा। __ [टी०] अयं च ग्रामधर्मादिर्धर्मः स्थविरैः कृतो भवतीति स्थविरान्निरूपयतिदसेत्यादि, स्थापयन्ति दुर्व्यवस्थितं जनं सन्मार्गे स्थिरीकुर्वन्तीति स्थविराः, तत्र ये
ग्राम-नगर-राष्ट्रेषु व्यवस्थाकारिणो बुद्धिमन्त आदेया: प्रभविष्णवस्ते तत्तत्स्थविरा 25 इति १-२-३, प्रशासति शिक्षयन्ति ये ते प्रशास्तारः धर्मोपदेशकास्ते च ते स्थिरीकरणात्
स्थविराश्चेति प्रशास्तृस्थविरा: ४, ये कुलस्य गणस्य सङ्घस्य च लौकिकस्य लोकोत्तरस्य च व्यवस्थाकारिणस्तद्भक्तुश्च निग्राहकास्ते तथोच्यन्ते ५-६-७,
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७६२-७६३] दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८८७ जातिस्थविरा: षष्टिवर्षप्रमाणजन्मपर्याया: ८, श्रुतस्थविरा: समवायाद्यङ्गधारिण: ९,, पर्यायस्थविरा विंशतिवर्षप्रमाणप्रव्रज्यापर्यायवन्त इति १० ।
[सू० ७६२] दस पुत्ता पत्नत्ता, तंजहा-अत्तते, खेत्तते, दिन्नते, विनते, ओरसे, मोहरे, सोडीरे, संवुड्ढे, ओववातिते, धम्मंतेवासी ।
[टी०] स्थविराश्च पुत्रवदाश्रितान् परिपालयन्तीति पुत्रनिरूपणायाह- दस पुत्तेत्यादि, 5 पुनाति पितरं पाति वा पितृमर्यादामिति पुत्रः सूनुः, तत्र आत्मन: पितृशरीराज्जातः आत्मजः, यथा भरतस्यादित्ययशा: १, क्षेत्रं भार्या, तस्या जात: क्षेत्रजः, यथा पण्डो: पाण्डवाः, लोकरूढ्या तद्भार्यायाः कुन्त्या एव तेषां पुत्रत्वात् न तु पण्डो: धर्मादिभिर्जनितत्वादिति २, दिनए त्ति दत्तकः पुत्रतया वितीर्णो यथा बाहुबलिनोऽनिलवेग: श्रूयते, स च पुत्रवत् पुत्रः, एवं सर्वत्र ३, विण्णए त्ति 10 विनयित: शिक्षा ग्राहित: ४, उरसो त्ति उपगतो जातो रस: पुत्रस्नेहलक्षणो यस्मिन् पितृस्नेहलक्षणो वा यस्यासावुपरसः, उरसि वा हृदये स्नेहाद्वर्त्तते य: स: औरस: ५, मुखर एव मौखरो मुखरतया चाटुकरणतो य आत्मानं पुत्रतया अभ्युपगमयति स मौखर इति भाव: ६, शौडीरो य: शौर्यवता शूर एव रणकरणेन वशीकृत: पुत्रतया प्रतिपद्यते यथा कुवलयमालाकथायां महेन्द्रसिंहाभिधानो राजसुत: श्रूयते ७, अथवाऽऽत्मज 15 एव गुणभेदाद्भिद्यते, तत्र विन्नए त्ति विज्ञक: पण्डितोऽभयकुमारवत्, उरसे त्ति उरसा वर्तत इति औरसो बलवान् बाहुबलीव, शौडीरः शूर: वासुदेववत्, गर्वितो वा शौडीरः शौड़े गर्वे (पा० धा० २९० ] इति वचनात्, संवुड्ढे त्ति संवर्द्धितो भोजनदानादिना अनाथपुत्रक: ८, ओववाइय त्ति उपयाचिते देवताराधने भव: औपयाचितकः, अथवा अवपात: सेवा सा प्रयोजनमस्येत्यावपातिकः सेवक इति हृदयम् ९, तथा अन्ते समीपे 20 वस्तुं शीलमस्येत्यन्तेवासी, धर्मार्थमन्तेवासी धर्मान्तेवासी, शिष्य इत्यर्थ: १०।
[सू० ७६३] केवलिस्स णं दस अणुत्तरा पन्नत्ता, तंजहा-अणुत्तरे णाणे, अणुत्तरे दंसणे, अणुत्तरे चरित्ते, अणुत्तरे तवे, अणुत्तरे वीरिते, अणुत्तरा खंती, अणुत्तरा मुत्ती, अणुत्तरे अजवे, अणुत्तरे मद्दवे, अणुत्तरे लाघवे । १. कवलयमालायां महेन्द्रसिंहस्य महती कथा वर्तते । प्राकृतकुवलयमालायां पृ.९ पं.१८ त आरभ्य, संस्कृते
कुवलयमालाकथासंक्षेपे च पृ.३, पं.३३ त आरभ्य द्रष्टव्या ॥ २. शौट्ट जे१ खं० । सौंड पा० । सौंडु जे२ । “शौट गर्वे" पा० धा० २९० । “शौड गर्वे"- है। धा० २३३।
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
धर्म्मान्तेवासित्वं च छद्मस्थस्यैव न केवलिनोऽनुत्तरज्ञानादित्वात्, कानि कियन्ति च तस्यानुत्तराणीत्याह- दसेत्यादि, नास्त्युत्तरं प्रधानतरं येभ्यस्तान्यनुत्तराणि, तत्र ज्ञानावरणक्षयात् ज्ञानमनुत्तरम्, एवं दर्शनावरणक्षयाद्दर्शनमोहनीयक्षयाद्वा दर्शनम्, चारित्रमोहनीयक्षयाच्चारित्रम्, चारित्रमोहक्षयादनन्तवीर्यत्वाच्च तपः शुक्लध्यानादि5 रूपम्, वीर्यान्तरायक्षयाद् वीर्यम्, इह च तपः - क्षान्ति - मुक्त्यार्जव - मार्दव - लाघवानि चारित्रभेदा एवेति चारित्रमोहनीयक्षयादेव भवन्ति, सामान्य- विशेषयोश्च कथञ्चिद्भेदाद् भेदेनोपात्तानीति ।
[सू० ७६४] समतखेत्ते णं दस कुरातो पन्नत्ताओ, तंजहा - पंच देवकुरातो पंच उत्तरकुरातो १०।
तत्थ णं दस महतिमहालया महादुमा पन्नत्ता, तंजहा- जंबू सुंदसणा, धाततिरुक्खे, महाधाततिरुक्खे, पउमरुक्खे, महापउमरुक्खे, पंच कूडसामलीओ १०।
तत्थ णं दस देवा महिड्डिता जाव परिवसंति, तंजहा - अणाढिते जंबुद्दीवाधिपती, सुदंसणे, पियदंसणे, पोंडरीते, महापोंडरीते, पंच गरुला वेणुदेवा १० ।
[सू० ७६५ ] दसहिं ठाणेहिं ओगाढं दुस्समं जाणेज्जा, तंजहा - अकाले वरिसति, काले ण वरिसति, असाधू पुज्जंति, साधू ण पुज्जंति, गुरुसु जणो मिच्छं पडिवन्नो, अमणुण्णा सद्दा जाव फासा १०।
दसहिं ठाणेहिं ओगाढं सुसमं जाणेज्जा, तंजहा - अकाले ण वरिसति, तं चेव विवरीतं जाव मणुण्णा फासा ।
20 [सू० ७६६ ] सुसमसुसमाए णं समाए दसविधा रुक्खा उवभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, तंजहा
मत्तंगता त भिंगा, तुडितंगा दीव - जोति-चित्तंगा |
चित्तरसा मणिगंगा, गेहागारा अणितणा त ।।१७२।।
10
८८८
15
[सू० ७६७ ] जंबूदीवे दीवे भरहे वासे तीताते उसप्पिणीते दस कुलगरा 25 होत्था, तंजहा
सयज्जले सताऊ य अणंतसेणे त अजितसेणे त । कक्कसेणे भीमसेणे महाभीमसेणे त सत्तमे ॥ १७३ ॥
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७६४-७६८]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
दढरहे दसरहे सतरहे ।
जंबूदीवे दीवे भरहे वासे आगमेसाते उसप्पिणीए दस कुलगरा भविस्संति, तंजहा - सीमंकरे, सीमंधरे, खेमंकरे, खेमंधरे, विमलवाहणे, संमुती, पडिसुते, दढधणू, दसधणू, सतधणू ।
८८९
[सू० ७६८] जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं सीताते महानतीते 5 उभतो कुले दस वक्खारपव्वता पन्नत्ता, तंजहा - मालवंते, चित्तकूडे, बंभकूडे जाव सोमण ।
जंबुमंदरपच्छत्थिमेणं सीतोताते महानतीते उभतो कूले दस वक्खारपव्वता पन्नत्ता, तंजहा - विज्जुप्पभे जाव गंधमातणे । एवं धायइसंडपुरत्थिमद्धे व वक्खारा भाणियव्वा जाव पुक्खरवरदीवड्डपच्चत्थिमद्धे [वि] |
10
[ टी०] केवली च मनुष्यक्षेत्र एव भवतीति दशस्थानकानुपातिपदार्थं समयेत्यादिकं पुक्खरवरदीवड्डपच्चत्थिमद्धे वीत्येतदन्तं समयक्षेत्रप्रकरणमाह, कण्ठ्यं चैतत्, नवरं मत्तंगेत्यादि गाथा, मत्तं मदः, तस्याङ्गं कारणं मदिरा, तद् ददतीति मत्ताङ्गदाः, चः समुच्चये, भिंग त्ति भृतं भरणं पूरणम्, तत्राङ्गानि कारणानि भृताङ्गानि भाजनानि, न हि भरणक्रिया भरणीयं भाजनं विना भवतीति तत्सम्पादकत्वाद् वृक्षाः अपि 15 भृताङ्गाः, प्राकृतत्वाच्च भिंगा उच्यन्ते, त्रुटितानि तूर्याणि, तत्कारणत्वात् त्रुटिताङ्गाः तूर्यदायिन:, उक्तं च
मत्तंगेसु य मज्जं सुहपेज्जं १ भायणाणि भिंगेसु २ ।
तुडियंगे य संगततुडियाइं बहुप्पगाराई ३ ॥ [ 1
दीव - जोड़ - चित्तंगा इति इहाङ्गशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, ततो दीप: प्रकाशकं 20 वस्तु, तत्कारणत्वाद्दीपाङ्गाः, ज्योति: अग्निस्तत्र च सुषमसुषमायामग्नेरभावाज्ज्योतिरिव यद्वस्तु सोष्मप्रकाशमिति भावः, तत्कारणत्वात् ज्योतिरङ्गाः, तथा चित्रस्य अनेकविधस्य विवक्षाप्राधान्यान्माल्यस्य कारणत्वाच्चित्राङ्गाः, तथा चित्रा विविधा मनोज्ञा रसा मधुरादयो येभ्यस्ते चित्ररसा भोजनाङ्गा इति भाव:, उक्तं च
दीवसिहा- जोइसनामया य ४-५ एए करिंति उज्जयं ।
चित्तंगेसु य मल्लं ६ चित्तरसा भोयणट्ठाए ७ ॥ [
25
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
८९०
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे __मणीनां मणिमयाभरणानां कारणत्वान्मण्यङ्गा: आभरणहेतवः, गेहं गृहम्, तद्वदाकारो येषां ते गेहाकाराः, अणियण त्ति वस्त्रदायिनः, उक्तं चमणियंगेसु य भूसणवराई ८ भवणाई भवणरुक्खेसु ९ ।
आइन्नेसु य धणियं वत्थाई बहुप्पगाराई १० ॥ [ ] ति । 5 कालाधिकारादेव कालविशेषभाविकुलकरवक्तव्यतामाह- जंबूदीवेत्यादि सूत्रद्वयं
कण्ठ्यम्, नवरं तीयाए त्ति अतीतायाम् उस्सप्पिणीए त्ति उत्सर्पिण्याम्, कुलकरणशीला: कुलकरा विशिष्टबुद्धयो लोकव्यवस्थाकारिण: पुरुषविशेषाः, आगमिस्साए त्ति आगमिष्यन्त्याम्, वर्तमाना तु अवसर्पिणी, सा च नोक्ता, तत्र हि सप्तैव कुलकरा: क्वचित् पञ्चदशापि दृश्यन्त इति । 10 [सू० ७६९] दस कप्पा इंदाहिट्ठिया पन्नत्ता, तंजहा-सोहम्मे जाव सहस्सारे, पाणते, अच्चुए।
एतेसु णं दससु कप्पेसु दस इंदा पन्नत्ता, तंजहा-सक्के, ईसाणे जाव अच्चुते।
एतेसि णं दसण्हं इंदाणं दस परिजाणिता विमाणा पन्नत्ता, तंजहा-पालते, 15 पुप्फते जाव विमले, वरे, सव्वतोभद्दे ।
[टी०] पुष्करार्द्धक्षेत्रस्वरूपमभिहितं प्रागतः क्षेत्राधिकारादेव कल्पानाश्रित्य दशकमाहदसेत्यादि, सौधर्मादीनामिन्द्राधिष्ठितत्वमेतेष्विन्द्राणां निवासात्, आनतारणयोस्तु तदनधिष्ठितत्वं तनिवासाभावात्, स्वामितया तु तावप्यधिष्ठितावेवेति मन्तव्यम्,
यावत्करणात् 'ईसाणे २, सणंकुमारे ३, माहिंदे ४, बंभलोए ५, लंतगे ६, सुक्के ७' 20 त्ति दृश्यमिति, यत एवैतेषु इन्द्रा अधिष्ठिता अत एवैतेषु दशेन्द्रा भवन्तीति दर्शयितुमाहएएसु इत्यादि, शक्रः सौधर्मेन्द्रः, शेषा देवलोकसमाननामान:, शेषं सुगममिति ।
इन्द्राधिकारादेव तद्विमानान्याह- एते इत्यादि, परियानं देशान्तरगमनम्, तत् प्रयोजनं येषां तानि पारियानिकानि गमनप्रयोजनानीत्यर्थः, यानं शिबिकादि तदाकाराणि विमानानि देवाश्रया यानविमानानि, न तु शाश्वतानि, नगराकाराणीत्यर्थः, पुस्तकान्तरे 25 यानशब्दो न दृश्यते, पालए इत्यादीनि शक्रादीनां क्रमेणावगन्तव्यानि, यावत्करणात्
१. अणिय त्ति जे१ । अणियय त्ति पा० जे२ ॥ २. जाणविमाणा अटी० ॥
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७७०-७७१]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् । ‘सोमणसे ३ सिरिवच्छे ४ नंदियावत्ते ५ कामकमे ६ पीइगमे ७ मणोरमे ८' इति द्रष्टव्यमिति, आभियोगिकाश्चैते देवा विमानीभवन्तीति ।
[सू० ७७०] दसदसमिता णं भिक्खुपडिमा एगेणं रातिंदियसतेणं अद्धछट्टेहिं य भिक्खासतेहिं अधासुत्ता जाव आराधिता वि भवति ।
[टी०] एवंविधविमानयायिनश्चेन्द्रा: प्रतिमादिकात् तपसो भवन्तीति दशकानुपातिनीं 5 प्रतिमा स्वरूपत आह- दसेत्यादि, दश दशमानि दिनानि यस्यां सा दशदशमिका दशदशकनिष्पन्नेत्यर्थः, भिक्षूणां प्रतिमा प्रतिज्ञा भिक्षुप्रतिमा, एकेनेत्यादि, दशदशकानि दिनानां शतं भवतीति, प्रथमे दशके दश भिक्षा द्वितीये विंशतिरेवं दशमे शतं सर्वमीलने पञ्च शतानि पञ्चाशदधिकानि भवन्तीति, अहासुत्तमित्यादि, अहासुत्तं सूत्रानतिक्रमेण, यावत्करणात् अहाअत्थं अर्थस्य नियुक्त्यादेरनतिक्रमेण, अहातच्चं शब्दार्थानतिक्रमेण, 10 अहामग्गं क्षायोपशमिकभावानतिक्रमेण, अहाकप्पं तदाचारानतिक्रमेण, सम्यक् कायेन न मनोरथमात्रेण, फासिया विशुद्धपरिणामप्रतिपत्त्या, पालिया सीमां यावत्तत्परिणामाहान्या, शोधिता निरतिचारतया शोभिता वा तत्समाप्तावुचितानुष्ठानकरणत:, तीरिता तीरं नीता प्रतिज्ञातकालोपर्यप्यनुष्ठानात्, कीर्तिता नामत इदं चेदं च कर्तव्यमस्याम् तत् कृतं मयेत्येवमिति, आराधिता सर्वपदमीलनात् भवति जायत इति । 15
[सू० ७७१] दसविधा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता, तंजहापढमसमयएगेंदिता, अपढमसमयएगेदिता एवं जाव अपढमसमयपंचेंदिता १॥
दसविधा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकातिता जाव वणस्सतिकातिता, बेतिंदिता जाव पंचेंदिता, अणिंदिता ।
अधवा दसविधा सव्वजीवा पन्नत्ता, तंजहा-पढमसमयनेरतिता, 20 अपढमसमयनेरतिता जाव अपढमसमयदेवा, पढमसमयसिद्धा, अपढमसमयसिद्धा ३॥
[टी०] प्रतिमाभ्यास: संसारक्षयार्थं संसारिभिः क्रियत इति संसारिणो जीवान् जीवाधिकारात् सर्वजीवांश्च दसेत्यादिना सूत्रत्रयेणाह, तच्च सुगमम्, नवरं प्रथम: समयो येषामेकेन्द्रियत्वस्य ते प्रथमसमयास्ते च ते एकेन्द्रियाश्चेति विग्रहः, विपरीतास्त्वितरे, 25 १. प्रतिमा: पा० ॥ २. भवंतीति पा० जे२ ॥
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
5
पवंचा पब्भारा, मुंमुही सातणी तथा ॥१७४॥ संसारिपर्यायविशेषप्रतिपादनायैवाह - वासेत्यादि, वर्षशतमायुर्यत्र काले मनुष्याणां स वर्षशतायुष्कः कालः, तत्र यः पुरुषः सोऽप्युपचाराद् वर्षशतायुष्कः, मुख्यवृत्त्या वर्षशतायुषि पुरुषे गृह्यमाणे पूर्वकोट्यायुष्कपुरुषकाले वर्षशतायुषः पुरुषस्य कस्यचित् कुमारत्वेऽपि बालादिदशादशकसमाप्तिः स्यात्, न चैवम्, तत उपचार एव युक्त इति । 10 दशेति संख्या, दसाउ त्ति वर्षदशकप्रमाणा: कालकृता अवस्था:, इह च वर्षशतायुर्ग्रहणं विशिष्टतरदशस्थानकानुरोधात्, विशिष्टतरत्वं च दशस्थानकस्यैवम्, वर्षदशकप्रमाणा दशा दशेति, अन्यथा पूर्वकोट्यायुषोऽपि बालाद्या दशावस्था भवन्त्येव, केवलं दशवर्षप्रमाणा न भवन्ति, बहुवर्षा वा अल्पवर्षा वा स्युरिति भावः, तत्र बालस्येयमवस्था धर्म-धर्म्मिणोरभेदाद् बाला, स्वरूपं चास्या:
15
८९२
आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
एवं द्वि-त्रि- चतुः-पञ्चेन्द्रिया वाच्याः, आह च- एवं जावेत्यादि, अनिंदिय अनिन्द्रियाः सिद्धाः अपर्याप्तका उपयोगतः केवलिनश्चेति ।
20
[सू० ७७२] वाससताउयस्स णं पुरिसस्स दस दसाओ पन्नत्ताओ, तंजाबाला किड्डा मंदा, बला पन्ना य हायणी ।
जायमेत्तस्स जंतुस्स जा सा पढमिया दसा ।
४
न तत्थ सुहदुक्खाई बहु जाणंति बालया । [ तन्दुल० प्रकी० ३२] इति १ ।
तथा क्रीडाप्रधाना दशा क्रीडा, उक्तं च
बितियं च दसं पत्तो, नाणाकीडाहिं कीडई ।
न तत्थ कामभोगेहिं, तिव्वा उप्पज्जई मती । [ तन्दुल० प्रकी० ३३] २ । तथा मन्दो विशिष्टबल - बुद्धिकार्योपदर्शनासमर्थो भोगानुभूतावेव च समर्थो यस्यामवस्थायां सा मन्दा, उक्तं च
तइयं च दसं पत्तो, आणुपुव्वीए जो नरो ।
समत्थो भुंजिउं भोए, जइ से अस्थि घरे धुवा || [ तन्दुल० प्रकी० ३४] इति ३। भोगोपार्ज तुम इति भावना । तथा यस्यामवस्थायां पुरुषस्य बलं भवति सा 25 बलयोगाद् बला, उक्तं च
१. 'वृत्त्या च वर्ष जे१ विना ॥ २. युष्कपुरु' जे१ ॥ ॥ ३. 'युष्कग्रह जे१ ॥ ४. बहुं खं० पा० जे२ ॥ ५. 'जए पा० जे२ ॥
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७७२]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८९३
चउत्थी य बला नाम, जं नरो दसमस्सिओ । समत्थो बलं दरिसेउं जड़ होइ निरुवद्दवो ॥ [तन्दुल० प्रकी० ३५] त्ति ४।
तथा प्रज्ञा बुद्धिरीप्सितार्थसम्पादनविषया कुटुम्बकाभिवृद्धिविषया च, तद्योगाद्दशापि प्रज्ञा, प्रकर्षेण जानातीति वा प्रज्ञा दशा तस्या एव कर्तृत्वविवक्षयेति, उक्तं चपंचमिं च दसं पत्तो आणुपुव्वीए जो नरो ।
5 इच्छियत्थं विचिंतेइ कुटुंबं चाभिकंखइ ॥ [तन्दुल० प्रकी० ३६] त्ति ५ ।।
तथा हापयति पुरुषमिन्द्रियेष्विति इन्द्रियाणि मनाक् स्वार्थग्रहणापटूनि करोतीति हापनी प्राकृतत्वेन च हायणि त्ति, आह
छट्ठी उ हायणी नाम जं नरो दसमस्सिओ। विरजई य कामेसु इंदिएसु य हायइ ॥ [तन्दुल० प्रकी० ३७] त्ति ६ । तथा प्रपञ्चते व्यक्तीकरोति प्रपञ्चयति वा विस्तारयति खेलकासादि या सा प्रपञ्चा, प्रपञ्चयति वा संसयति आरोग्यादिति प्रपञ्चा, आह च
सत्तमिं च दसं पत्तो आणुपुव्वीए जो नरो । निच्छूहइ चिक्कणं खेलं खासई य अभिक्खणं ॥ [तन्दुल० प्रकी० ३८] ति ७ । तथा प्राग्भारमीषदवनतमुच्यते, तदेवंभूतं गात्रं यस्यां भवति सा प्रारभारा, यतः- 15 संकुचियवलीचम्मो संपत्तो अट्ठमिं दसं । नारीणमणभिप्पेओ जराए परिणामिओ ॥ [तन्दुल० प्रकी० ३९] त्ति ८ ।। तथा मोचनं मुक्, जराराक्षसीसमाक्रान्तशरीरगृहस्य जीवस्य मुचं प्रति मुखम् आभिमुख्यं यस्यां सा मुमुखीति, तत्स्वरूपं चेदम्नवमी मुंमुही नाम जं नरो दसमस्सिओ।। जराघरे विणस्संते जीवो वसइ अकामओ ॥ [तन्दुल० प्रकी० ४०] त्ति । जीवे त्ति जीविते, जीवो त्ति वा नरलक्षणो जीव इत्यर्थः ९ । तथा शाययति स्वापयति निद्रावन्तं करोति या शेते वा यस्यां सा शायनी शयनी वा, तथेति समुच्चये, तत्स्वरूपमिदम्
हीणभिन्नस्सरो दीणो विवरीओ विचित्तओ ।
दुब्बलो दुखिओ वसइ संपत्तो दस िदसं ॥ [तन्दुल० प्रकी० ४१] ति १०। १. कुटुंबं जे१ विना ॥ २. स्वार्थ खं० पा० ।। ३. °स्संतो जे२ । स्संति खं० ॥ ४. शायिनी जे२ ॥५. वसई खं० पा० ॥
00
25
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
८९४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे [सू० ७७३] दसविधा तणवणस्सतिकातिता पन्नत्ता, तंजहा-मूले, कंदे जाव पुप्फे, फले, बीये ।
[टी०] अनन्तरं पुरुषदशा उक्ताः, अथ पुरुषसमानधर्मकाणां वनस्पतीनां ताः प्रकारान्तरत आह- दसेत्यादि । तृणवद् वनस्पतयः तृणवनस्पतयः, तृणसाधर्म्य च 5 बादरत्वेन, तेन सूक्ष्माणां न दशविधत्वमिति । मूलं जटा, कन्दः स्कन्धाधोवर्ती, यावत्करणात् खंधेत्यादीनि पञ्च द्रष्टव्यानि, तत्र स्कन्धः स्थुडमिति यत् प्रतीतम्, त्वक् वल्कः, शाला शाखा, प्रवालम् अङ्कुरः, पत्रं पर्णम्, पुष्पं कुसुमम्, फलं प्रतीतम्, बीजं मिंजेति ।
[सू० ७७४] सव्वातो वि णं विजाहरसेढीओ दस दस जोयणाइं विक्खंभेणं 10 पण्णत्तातो १॥
सव्वातो वि णं अभिओगसेढीओ दस दस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्तातो।
[टी०] दशस्थानकाधिकार एव इदमपरमाह- सव्वेत्यादि सूत्रद्वयम्, सर्वाः सर्वदीर्घवैताढ्यसम्भवाः विद्याधरश्रेणयः विद्याधरनगरश्रेणयः, दीर्घवैताढ्या हि
पञ्चविंशतिर्योजनान्युच्चस्त्वेन पञ्चाशच्च मूले विष्कम्भेण, तत्र दश योजनानि 15 धरणीतलादतिक्रम्य दशयोजनविष्कम्भा दक्षिणत उत्तरतश्च श्रेणयो भवन्ति, तत्र
दक्षिणतः पञ्चाशनगराणि, उत्तरतस्तु षष्टिरिति भरतेषु, ऐरवतेषु तदेव व्यत्ययेन, विजयेषु तु पञ्चपञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशदिति ।
तथा विद्याधरश्रेणीनामुपरि दश योजनान्यतिक्रम्य दशयोजनविष्कम्भा उभयत आभियोगिकदेवश्रेणयो भवन्ति, तत्राभियोगः आज्ञा, तया चरन्तीत्याभियोगिका 20 देवाः, शक्रादिसम्बन्धिनां लोकपालानां सोम-यम-वरुण-वैश्रमणानां सम्बन्धिनो व्यन्तरा इति, तच्छ्रेणीनामुपरि पर्वतः पञ्च योजनान्युच्चतया दश विष्कम्भत इति ।
[सू० ७७५] गेवेजगविमाणा णं दस जोयणसयाई उटुंउच्चत्तेणं पण्णत्ता।
[टी०] आभियोगिकश्रेणयो हि देवावासा इत्यधुना तद्विशेषानाह- गेवेजेत्यादि कण्ठ्य म् । 25 [सू० ७७६] दसहिं ठाणेहिं सह तेतसा भासं कुजा, तंजहा
केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेजा, से य अच्चासातिते १. कम्भेन जे१ खं० ॥
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
८९५
[सू० ७७६]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् । समाणे परिकुविते तस्स तेतं निसिरेजा, से तं परितावेति, से तं परितावेत्ता तामेव सह तेतसा भासं कुज्जा १ ।
केति तधारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चासातिते समाणे देवे परिकुविए तस्स तेयं निसिरेजा, से तं परितावेति, से तं परितावेत्ता तामेव सह तेतसा भासं कुजा २ ।
केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेजा, से य अच्चासातिते समाणे परिकुविते, देवे वि त परिकुविते, दुहतो पडिण्णा तस्स तेतं निसिरेजा, ते तं परितावेत्ता तामेव सह तेतसा भासं कुजा ३ ।
केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासादेजा, से य अच्चासातिते परिकुविते तस्स तेतं निसिरेज्जा, तत्थ फोडा संमुच्छंति, ते फोडा भिज्जति, 10 ते फोडा भिन्ना समाणा तामेव सह तेतसा भासं कुजा ४ ।
केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेज्जा, से य अच्चासातिते देवे परिकुविते तस्स तेतं निसिरेजा, तत्थ फोडा तहेव जाव तामेव सह तेतसा भासं कुज्जा ५ ।
केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासाएजा, से त अच्चासातिते 15 परिकुविए देवे य परिकुविए, ते दुहतो पडिण्णा, ते तस्स तेतं निसिरेजा, तत्थ फोडा संमुच्छंति, सेसं तहेव जाव भासं कुज्जा ६ ।
केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेजा, से त अच्चासातिते परिकुविते तस्स तेतं निसिरेज्जा, तत्थ फोडा संमुच्छंति, ते फोडा भिजंति, तत्थ पुला संमुच्छंति, ते पुला भिजंति, ते पुला भिन्ना समाणा तामेव 20 सह तेयसा भासं कुज्जा ७ । एते तिण्णि आलावगा भाणितव्वा ९ ।
केति तहारूवं समणं वा माहणं वा अच्चासातेमाणे तेतं निसिरेज्जा, से त तत्थ णो कमति णो पक्कमति, अंचिंअंचिं(अंचिअंचि ?) करेति, करेत्ता आताहिणपयाहिणं करेति, करेत्ता उर्दू वेहासं उप्पतति, उप्पतेत्ता से णं ततो पडिहते पडिणियत्तति, पडिणियत्तेत्ता तमेव सरीरगमणुदहमाणे अणुदहमाणे 25 सह तेतसा भासं कुज्जा जहा वा गोसालस्म मंखलिपुत्तस्स तवे तेते १०। १. सेत्तं क० ॥
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
८९६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे
[टी०] प्राग्देवानामावासा उक्ताः, देवाश्च महर्द्धिका भवन्त्यतो देवानां मुनीनां च महर्द्धिकतोपवर्णनाय तेजोनिसर्गप्रकारप्रतिपादनायाह- दसहीत्यादि, दशभिः स्थानैः प्रकारैः सह सार्द्ध तेजसा तेजोलेश्यया वर्तमानमनार्यं भासं ति भस्मेव भस्मवत् कुर्यात् विनाशयेदित्यर्थः, श्रमण इति गम्यते, तद्यथा- केइ त्ति कश्चिदनार्यकर्मकारी पापात्मा 5 तथारूपं तेजोलब्धिप्राप्तं श्रमणं तपोयुक्तं माहनं ‘मा हन, मा विनाशय' इत्येवंप्ररूपणाकारिणम्, वाशब्दौ विशेषणसमुच्चयार्थों, अत्याशातयेद् आत्यन्तिकीमाशातनां तस्य कुर्यात्, से य त्ति स च श्रमणोऽत्याशातित: उपसर्गितः परिकुपितः सर्वथा क्रुद्धः सन् तस्स त्ति उपसर्गकर्तुरुपरि तेजः तेजोलेश्यारूपं निसृजेत् क्षिपेत्, से त्ति स श्रमणः तमित्युपसर्गकारिणं परितापयति पीडयति, तं परिताप्य 10 तामेव त्ति तमेव तेजसा परितापितम्, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, सह अपेर्गम्यमानत्वात्
तेजसापि, तेजोलेश्यायुक्तमपीत्यर्थः बलवत्त्वात् साधुतेजस इति, भासं कुज त्ति प्रसिद्धमित्येकम् । शेषाणि नवापि सुगमानि, नवरं से य अच्चासाइयं त्ति स च मुनिरत्याशातितस्तदनन्तरमेव च तत्पक्षपाती देवः परिकुपितः सन् तं भस्म कुर्यादिति द्वितीयम्, उभावपि परिकुपितौ ते दुहओ त्ति तौ द्वौ मुनि-देवौ पडिन्न त्ति उपसर्गकारिणो 15 भस्मकरणं प्रति प्रतिज्ञायोगात् प्रतिज्ञौ कृतप्रतिज्ञौ हन्तव्योऽयमित्यभ्युपगताविति यावदिति
तृतीयम्, चतुर्थे श्रमणस्तेजोनिसर्गं कुर्यात्, पञ्चमे देवः, षष्ठे उभाविति, केवलमयं विशेषः- तत्रेति उपसर्गकारिणि स्फोटाः स्फोटकाः समुत्पद्येरन् अग्निदग्धे इव, ते च स्फोटका: भिद्यन्ते स्फुटन्ति, ततस्ते भिन्नाः सन्तस्तमेवोपसर्गकारिणं सह तेजसा
तेजोलेश्यावन्तमपि श्रमण-देवतेजसोर्बलवत्त्वात् तत्तेजसोपहननीयत्वाद् भस्म कुर्युः 20 निपातयेयुरिति । सप्तमाष्टमनवमेष्वपि तथैव, नवरं तत्र स्फोटाः सम्मूर्च्छन्ति भिद्यन्ते
च, ततस्तत्र पुलाः पुलाकिका लघुतरस्फोटिकाः सम्मूर्च्छन्ति ततो भिद्यन्ते, ते च पुला: भिन्नाः सन्तस्तमेवोपसर्गकारिणं सहैव तेजसा भस्म कुर्युरित्येतानि नव स्थानानि साधु-देवकोपाश्रयाणि, दशमं तु वीतरागाश्रयम्, तत्र अच्चासाएमाणे त्ति उपसर्गं कुर्वन् गोशालकवत् तेजो निसृजेत्, से य तत्थ त्ति तच्च तेजस्तत्र श्रमणे १. 'ष्कम्भेन जे१ खं० ॥ २. पीडयति नास्ति जे१ पामू० ॥ ३. यए त्ति जे१ ॥ ४. तत्रैव जे१ ॥
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७७६] दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८९७ निसृष्टं महावीर इव नो क्रमते ईषत्, नो प्रक्रमते प्रकर्षेण न प्रभवतीत्यर्थः, केवलम्
अंचिंअंचिं इति उत्पतनिपतां पार्श्वतः करोति, ततश्चा दक्षिणतः पार्थात् प्रदक्षिणा पार्श्वभ्रमणमादक्षिणप्रदक्षिणा, तां करोति, ततश्चोर्ध्वम् उपरि दिशि वेहासं ति विहाय आकाशमित्यर्थः उत्पतति, उत्पत्य च से त्ति तत्तेजः ततः श्रमणशरीरसन्निधेस्तन्माहात्म्यप्रतिहतं सत् प्रतिनिवर्त्तते, प्रतिनिवृत्य च तदेव 5 शरीरकमुपसर्गकारिसम्बन्धि यतस्तन्निर्गतमनुदहत् निसर्गानन्तरमुपतापयत्, किंभूतं शरीरकम् ? सह तेजसा वर्तमानं तेजोलब्धिमत्, भस्म कुर्यादिति, अयमकोपस्यापि वीतरागस्य प्रभावो यत् परतेजो न प्रभवति, अत्रार्थे दृष्टान्तमाह- जहा वा यथैव गोशालकस्य भगवच्छिष्याभासस्य मङ्खल्यभिधानमङ्खपुत्रस्य, मङ्खश्च चित्रफलकप्रधानो भिक्षुकविशेषः, तवे तेए त्ति तपोजनितत्वात्तपः किं तत् ? 10 तेजस्तेजोलेश्येति। तत्र किलैकदा भगवान् महावीरः श्रावस्त्यां विहरति स्म गोशालकश्च, तत्र च गौतमो गोचरगतो बहुजनशब्दमश्रौषीत्- यथा इह श्रावस्त्यां द्वौ जिनौ सर्वज्ञौ महावीरो गोशालकश्चेति श्रुत्वा भगवदन्तिकमागम्य गोशालकोत्थानं पृष्टवान्, भगवांश्चोवाच- यथा अयं शरवणग्रामे गोबहुलब्राह्मणगोशालायां जातो मङ्खलिनाम्नो मङ्खस्य सुभद्राभिधानतद्भार्यायाश्च पुत्रः षड् वर्षाणि यावच्छद्मस्थेन मया सार्द्धं 15 विहृतोऽस्मत्त एव बहुश्रुतीभूत इति नायं जिनो न च सर्वज्ञः, इदं च भगवद्वचनमनुश्रुत्य बहुजनो नगर्याः त्रिक-चतुष्कादिषु परस्परस्य कथयामास- गोशालको मङ्खलिपुत्रो न जिनो न सर्वज्ञः, इदं च लोकवचनमनुश्रुत्य गोशालकः कुपितः, आनन्दाभिधानं च भगवदन्तेवासिनं गोचरगतमपश्यत्, तमवादीच्च- भो आनन्द ! एहि तावदेकमौपम्यं निशामय, यथा केचन वणिजोऽर्थार्थिनो विविधपण्यभृतशकटा देशान्तरं गच्छन्तो 20 महाटवीं प्रविष्टाः पिपासितास्तत्र जलं गवेषयन्तश्चत्वारि वल्मीकशिखराणि शाड्वलवृक्षस्यान्तरद्राक्षुः, क्षिप्रं चैकं विचिक्षिपुस्ततोऽतिविपुलममलजलमवापुः, तत् पयो यावत्पिपासमापीतवन्तः पयःपात्राणि च पयसा परिपूरयामासुः, अपायसम्भाविना वृद्धेन निवार्यमाणा अप्यतिलोभाद् द्वितीय-तृतीयशिखरे बिभिदुः, तयोः क्रमेण १. जेमू१ विना- अंचिं इति जेसं१ । अचिंअचिंइत्ति खं० । अंचिंअंचिइंति पा० जे२ ॥ २. मंखलपु
जेसं१ खं० । 'मंखिलंपु' जे२ ॥
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
८९८
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे सुवर्णं च रत्नानि च समासादयामासुः, पुनस्तथैव चतुर्थं भिन्दानाः घोरविषमतिकायमञ्जनपुञ्जतेजसमतिचञ्चलजिह्वायुगलमनाकलितकोपप्रसरमहीश्वरं सङ्घट्टितवन्तः, ततोऽसौ कोपाद्वल्मीकशिखरमारुह्य मार्तण्डमण्डलमवलोक्य निर्निमेषया दृष्ट्या समन्तादवलोकयंस्तान् भस्मसाच्चकार, तन्निवारकवृद्धवाणिजकं तु न्यायदर्शीत्यनुकम्पया 5 वनदेवता स्वस्थानं सञ्जहारेति, एवं त्वदीयधर्माचार्यमात्मसम्पदाऽपरितुष्टमस्मदवर्णवादविधायिनमहं स्वकीयेन तपस्तेजसाऽद्यैव भस्मसात्करिष्यामीत्येष प्रचलितोऽहम्, त्वं तु तस्येममर्थमावेदय, भवन्तं च वृद्धवणिजमिव न्यायवादित्वादक्षिष्यामीति श्रुत्वाऽसावानन्दमुनिर्भीतो भगवदन्तिकमुपगत्य तत् सर्वमावेदयत्, भगवताऽप्य
सावभिहितः- एष आगच्छति गोशालकस्ततः साधवः शीघ्रमितोऽपसरन्तु प्रेरणां च 10 तस्मै कश्चिदपि मा दादिति गौतमादीनां निवेदयेति, तथैव कृते गोशालक आगत्य
भगवन्तमभि समभिदधौ- सुष्ठ आयुष्मन् काश्यप ! साधु आयुष्मन् काश्यप ! मामेवं वदसि- गोशालको मङ्खलिपुत्रोऽयमित्यादि, योऽसौ गोशालकस्तवान्तेवासी स देवभूयं गतः अहं त्वन्य एव तच्छरीरकं परीषहसहनसमर्थमास्थाय वर्ते इत्यादिकं कल्पितं
वस्तूद्ग्राहयन् तत्प्रेरणाप्रवृत्तयोर्द्वयोः साध्वोः सर्वानुभूति-सुनक्षत्रनाम्नोस्तेजसा तेन 15 दग्धयोर्भगवताभिहितः- हे गोशालक ! कश्चिच्चौरो ग्रामेयकैः प्रारभ्यमाणस्तथाविधं
दुर्गमलभमानोऽङ्गुल्या तृणेन शूकेन वाऽऽत्मानमावृण्वन्नावृतः किं भवति ?, अनावृत एवासौ, त्वमप्येवमन्यथाजल्पनेनात्मानमाच्छादयन् किमाच्छादितो भवसि ?, स एव त्वं गोशालको यो मया बहुश्रुतीकृतस्तदेवं मा वोचः, एवं भगवतः समभावतया यथावत्
ब्रुवाणस्य तपस्तेजोऽसौ कोपान्निससर्ज, उच्चावचाक्रोशैश्चाक्रोशयामास, तत्तेजश्च 20 भगवत्यप्रभवत् तं प्रदक्षिणीकृत्य गोशालकशरीरमेव परितापयदनुप्रविवेश, तेन च दग्धशरीरोऽसौ दर्शितानेकविधविक्रियः सप्तमरात्रौ कालमकार्षीदिति । [सू० ७७७] दस अच्छेरगा पन्नत्ता, तंजहाउवसग्ग गब्भहरणं, इत्थीतित्थं अभव्विया परिसा ।
कण्हस्स अवरकंका, ओतरणं चंदसूराणं ॥१७५।। 25 हरिवंसकुलुप्पत्ती, चमरुप्पातो व अट्ठसतसिद्धा ।
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७७७] दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
८९९ अस्संजतेसु पूआ, दस वि अणंतेण कालेणं ॥१७६॥ [टी०] महावीरस्य भगवतो नमन्निखिलनर-नाकिनिकायनायकस्यापि जघन्यतोऽपि कोटीसङ्ख्यभक्तिभरनिर्भरामरषट्पदपटलजुष्टपदपद्मस्यापि विविधऋद्धिमद्वरविनेयसहस्रपरिवृतस्यापि स्वप्रभावप्रशमितयोजनशतमध्यगतवैर-मारि-विड्वरदुर्भिक्षाद्युपद्रवस्याप्यनुत्तरपुण्यसम्भारस्यापि यद् गोशालकेन मनुष्यमात्रेणापि 5 चिरपरिचितेनापि शिष्यकल्पेनाप्युपसर्गः क्रियते तदाश्चर्यमिति ।
आश्चर्याधिकारादिदमाह- दसेत्यादि, आ विस्मयतश्चर्यन्ते अवगम्यन्त इत्याश्चर्याणि अद्भुतानि, इह च सकार: कोरस्करादित्वादिति । उवसग्गेत्यादि गाथाद्वयम्, उपसृज्यते क्षिप्यते च्याव्यते प्राणी धर्मादेभिरित्युपसर्गा देवादिकृतोपद्रवाः, ते च भगवतो महावीरस्य छद्मस्थकाले केवलिकाले च नरा-ऽमर-तिर्यकृता अभूवन्, इदं च किल न कदाचिद् 10 भूतपूर्वम्, तीर्थकरा हि अनुत्तरपुण्यसम्भारतया नोपसर्गभाजनमपि तु सकलनराऽमर-तिरश्चा सत्कारादिस्थानमेवेत्यनन्तकालभाव्ययमों लोकेऽद्भुतभूत इति १ ।
तथा गर्भस्य उदरसत्त्वस्य हरणम् उदरान्तरसङ्क्रामणं गर्भहरणम्, एतदपि तीर्थकरापेक्षयाऽभूतपूर्वं सद्भगवतो महावीरस्य जातम्, पुरन्दरादिष्टेन हरिणेगमेषिदेवेन देवानन्दाभिधानब्राह्मण्युदरात् त्रिशिलाभिधानाया राजपत्न्या उदरे सङ्क्रामणाद्, 15 एतदप्यनन्तकालभावित्वादाश्चर्यमेवेति २। ___ तथा स्त्री योषित्तस्यास्तीर्थकरत्वेनोत्पन्नायाः तीर्थं द्वादशाङ्ग सङ्घो वा स्त्रीतीर्थम्, तीर्थं हि पुरुषसिंहाः पुरुषवरगन्धहस्तिनस्त्रिभुवनेऽप्यव्याहतप्रभुभावाः प्रवर्तयन्ति, इह त्ववसर्पिण्यां मिथिलानगरीपतेः कुम्भकमहाराजस्य दुहिता मल्लयभिधाना एकोनविंशतितमतीर्थकरस्थानोत्पन्ना तीर्थं प्रवर्तितवतीत्यनन्तकालजातत्वादस्य 20 भावस्याश्चर्यतेति ३ । ___ तथा अभव्या अयोग्या चारित्रधर्मस्य पर्षत् तीर्थकरसमवसरणश्रोतृलोकः, श्रूयते हि भगवतो वर्द्धमानस्य जम्भिकग्रामनगराद बहिरुत्पन्नकेवलस्य तदनन्तरं मिलित१. ताकिनायकस्यापि जे१ खं० ॥ २. “कारस्करो वृक्षः ।६।१।१५६। कारं करोतीति कारस्करो वृक्षः ।
अन्यत्र कारकरः । केचित्तु कस्कादिष्विदं पठन्ति, न सूत्रेषु । पारस्करप्रभृतीनि च संज्ञायाम् ।६।१।१५७। एतानि ससुट्कानि निपात्यन्ते ।" - पा० सिद्धान्तकौमुदी ॥ ३. संक्रम' पा० । जे२मध्ये त्रुटितमत्र पत्रम् ।। ४. कुंभिक जे१ पा०। जे२मध्ये त्रुटितं पत्रम् ॥
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
९००
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे चतुर्विधदेवनिकायविरचितसमवसरणस्य भक्तिकुतूहलाकृष्टसमायातानेकनरा-ऽमरविशिष्टतिरश्चां स्वस्वभाषानुसारिणाऽतिमनोहारिणा महाध्वनिना कल्पपरिपालनायैव धर्मकथा बभूव, यतो न केनापि तत्र विरतिः प्रतिपन्ना, न चैतत्तीर्थकृतः कस्यापि
भूतपूर्वमितीदमाश्चर्यमिति ४ । 5 तथा कृष्णस्य नवमवासुदेवस्य अवरकङ्का राजधानी गतिविषया जातेत्यप्यजातपूर्वत्वादाश्चर्यम्, श्रूयते हि पाण्डवभार्या द्रौपदी धातकीखण्डभरतक्षेत्रापरकङ्काराजधानीनिवासिपद्मराजेन देवसामर्थेनापहृता, द्वारकावतीवास्तव्यश्च कृष्णो वासुदेवो नारदादुपलब्धतद्व्यतिकरः समाराधितसुस्थिताभिधानलवणसमुद्राधिपतिदेवः पञ्चभिः
पाण्डवैः सह द्वियोजनलक्षप्रमाणं जलधिमतिक्रम्य पद्मराजं रणविमर्दैन विजित्य 10 द्रौपदीमानीतवान्, तत्र च कपिलवासुदेवो मुनिसुव्रतजिनात् कृष्णवासुदेवागमन
वार्तामुपलभ्य सबहुमानं कृष्णदर्शनार्थमागतः, कृष्णश्च तदा समुद्रमुल्लङ्घयति स्म, ततस्तेन पाञ्चजन्यः पूरितः, कृष्णेनापि तथैव, ततः परस्परशङ्खशब्दश्रवणमजायतेति
तथा भगवतो महावीरस्य वन्दनार्थमवतरणमाकाशात् समवसरणभूम्यां चन्द्र-सूर्ययोः 15 शाश्वतविमानोपेतयोर्बभूवेदमप्याश्चर्यमेवेति ६।
तथा हरेः पुरुषविशेषस्य वंशः पुत्र-पौत्रादिपरम्परा हरिवंशस्तल्लक्षणं यत् कुलं तस्योत्पत्तिः हरिवंशकुलोत्पत्तिः, कुलं ह्यनेकधा, अतो हरिवंशेन विशिष्यते, एतदप्याश्चर्यमेवेति, श्रूयते हि भरतक्षेत्रापेक्षया यत्तृतीयं हरिवर्षाख्यं मिथुनकक्षेत्रं ततः
केनापि पूर्वविरोधिना व्यन्तरसुरेण मिथुनकमेकं भरतक्षेत्रे क्षिप्तम्, तच्च पुण्यानुभावाद्राज्यं 20 प्राप्तम्, ततो हरिवर्षजातहरिनाम्नो पुरुषाद्यो वंशः स तथेति ७ ।
तथा चमरस्य असुरकुमारराजस्योत्पतनम् ऊर्ध्वगमनं चमरोत्पातः, सोऽप्याकस्मिकत्वादाश्चर्यमिति, श्रूयते हि चमरचञ्चाराजधानीनिवासी चमरेन्द्रोऽभिनवोत्पन्नः सन्नूर्ध्वमवधिनाऽऽलोकयामास, ततः स्वशीर्षोपरि सौधर्मव्यवस्थितं शक्रं ददर्श, ततो
मत्सराध्मातः शक्रतिरस्काराहितमतिरिहागत्य भगवन्तं महावीरं छद्मस्थावस्थमेकरात्रिकी 25 प्रतिमा प्रतिपन्नं सुंसुमारनगरोद्यानवर्त्तिनं सबहुमानं प्रणम्य ‘भगवंस्त्वत्पादपङ्कजवनं मे
शरणमरिपराजितस्य' इति विकल्प्य विरचितघोररूपो लक्षयोजनमानशरीर: परिघरत्नं
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
९०१
[सू० ७७८]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् । प्रहरणं परितो भ्रमयन् गर्जन्नास्फोटयन् देवांस्वासयन्नुत्पपात, सौधर्मावतंसकविमानवेदिकायां पादन्यासं कृत्वा शक्रमाक्रोशयामास, शक्रोऽपि कोपाजाज्वल्यमानस्फारस्फुरत्स्फुलिङ्गशतसमाकुलं कुलिशं तं प्रति मुमोच, स च भयात् प्रतिनिवृत्य भगवत्पादौ शरणं प्रपेदे, शक्रोऽप्यवधिज्ञानावगततद्व्यतिकरस्तीर्थकराशातनाभयात् शीर्घमागत्य वज्रमुपसंजहार, बभाण च- मुक्तोऽस्यहो भगवतः प्रसादात्, नास्ति मत्तस्ते भयमिति ८ । 5
तथाऽष्टाभिरधिकं शतमष्टशतम्, अष्टशतं च ते सिद्धाश्च निर्वृताः अष्टशतसिद्धाः, इदमप्यनन्तकालजातमित्याश्चर्यमिति ९ । .
तथा असंयताः असंयमवन्त आरम्भ-परिग्रहप्रसक्ता अब्रह्मचारिणः, तेषु पूजा सत्कारः, सर्वदा हि किल संयता एव पूजार्हाः , अस्यां त्ववसर्पिण्यां विपरीतं जातमित्याश्चर्यम्, अत एवाह- दशाप्येतानि अनन्तेन कालेन अनन्तकालात् संवृत्तानि 10 अस्यामवसर्पिण्यामिति ।
[सू० ७७८] इमीसे णं रयणप्पभाते पुढवीते रतणे कंडे दस जोयणसताइं बाहल्लेणं पन्नत्ते ।
इमीसे णं रयणप्पभाते पुढवीते वतिरे कंडे दस जोयणसताइं बाहल्लेणं पण्णत्ते ।
15 ___ एवं वेरुलिते १, लोहितक्खे २, मसारगल्ले ३, हंसगब्भे ४, पुलते ५, सोगंधिते ६, जोतिरसे ७, अंजणे ८, अंजणपुलते ९, रतते १०, जातरूवे ११, अंके १२, फलिहे १३, रिढे १४ । जहा रयणे तहा सोलसविधा वि भाणितव्वा ।
[टी०] अनन्तरसूत्रे चमरोत्पात उक्तः, स च रत्नप्रभायाः सञ्जात इति रत्नप्रभावक्त- 20 व्यतामाह- इमीसे णमित्यादि, येयं रज्जुरायामविष्कम्भाभ्यामशीतिसहस्राधिकं योजनलक्षं बाहल्यत: उपरि मध्येऽधस्ताच्च यस्याः खरकाण्ड-पङ्कबहुलकाण्डजलबहुलकाण्डाभिधाना: क्रमेण षोडशचतुरशीत्यशीतियोजनसहस्रबाहल्या विभागा: सन्ति इमीसे त्ति एतस्या: प्रत्यक्षासन्नाया: रत्नानां प्रभा यस्यां रत्नैर्वा प्रभाति शोभते या सा रत्नप्रभा तस्याः पृथिव्या भूमेर्यत्तत् खरकाण्डं तत् षोडशविधरत्नात्मकत्वात् 25
१. सर्वदा किल जे१ ।
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
९०२
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे षोडशविधम्, तत्र य: प्रथमो भागो रत्नकाण्डं नाम तद् दश योजनशतानि बाहल्येन, सहस्रमेकं स्थूलतयेत्यर्थः, एवमन्यानि पञ्चदशापि सूत्राणि वाच्यानि, नवरं प्रथम सामान्यरत्नात्मकं शेषाणि तद्विशेषमयानि, चतुर्दशानामतिदेशमाह- एवमित्यादि,
एवमिति पूर्वाभिलापेन सर्वाणि वाच्यानि, वेरुलिय त्ति वैडूर्यकाण्डम्, एवं 5 लोहिताक्षकाण्डं मसारगल्लकाण्डं हंसगर्भकाण्डमेवं सर्वाणि, नवरं रजतं रूप्यं जातरूपं सुवर्णमेते अपि रत्ने एवेति । [सू० ७७९] सव्वे वि णं दीव-समुद्दा दस जोयणसताइं उव्वेहेणं पण्णत्ता। सव्वे वि णं महादहा दस जोयणाई उव्वेहेणं पण्णत्ता २।
सव्वे वि णं सलिलकुंडा दस जोयणाई उव्वेहेणं पण्णत्ता ३। 10 सीतासीतोतातो णं महाणतीतो मुहमूले दस दस जोयणाई उव्वेहेणं पण्णत्ताओ ४॥
टी०] रत्नप्रभाप्रस्तावात् तदाधेयद्वीपादिवक्तव्यतां सूत्रचतुष्टयेनाह- सव्वेत्यादि सुगमम्, नवरमुद्वेध: उंडत्तं ति भणियं होइ, द्वीपानाम् उंडत्तणाभावे वि अधोदिशि सहस्रं
यावद् द्वीपव्यपदेशः, जम्बूद्वीपे तु पश्चिमविदेहे जगतीप्रत्यासत्तौ उंडत्तमवि अत्थि त्ति। 15 महाहदा: हिमवदादिषु पद्मादय: । सलिलकुंड त्ति सलिलानां गङ्गादिनदीनां कुण्डानि प्रपातकुण्डानि प्रभवकुण्डानि च सलिलाकुण्डानीति, मुहमूले त्ति समुद्रप्रवेशे।
[सू० ७८०] कत्तियाणक्खत्ते सव्वबहिरातो मंडलातो दसमे मंडले चारं चरति १॥
अणुराधानक्खत्ते सव्वन्भंतरातो मंडलातो दसमे मंडले चारं चरति २॥ 20 [सू० ७८१] दस णक्खत्ता णाणस्स विद्धिकरा पण्णत्ता, तंजहा
मगसिरमद्दा पुस्सो, तिनि य पुव्वाइं मूलमस्सेसा । हत्थो चित्ता य तधा, दस विढिकराई णाणस्स ॥१७७॥ ३॥ [टी०] द्वीप-समुद्राधिकारात् तद्वतिनक्षत्रसूत्रत्रयमाह- कित्तियेत्यादि, इह किल सूर्यस्य चतुरशीत्यधिकं मण्डलशतं भवति, चन्द्रस्य पञ्चदश, नक्षत्राणां त्वष्टौ, मण्डलं 25 च मार्ग उच्यते, तच्च यथास्वं सूर्यादिविमानतुल्यविष्कम्भम्, तत्र जम्बूद्वीपस्याशीत्यधिके
१. सलिलकु खं० ॥ २. कत्ति पा० जे२ ॥ ३. °धिकयोज जे१ ॥
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ७८२]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् ।
योजनशते पञ्चषष्टिः सूर्यस्य मण्डलानि भवन्ति, चन्द्रस्य पञ्च, नक्षत्राणां द्वे, तथा लवणसमुद्रं त्रीणि त्रिंशदधिकानि योजनशतान्यवगाह्य एकोनविंशत्यधिकं सूर्यस्य मण्डलशतं भवति, चन्द्रस्य दश, नक्षत्राणां च षट्, एतेषां च सर्वबाह्यं सुमेरो: पञ्चचत्वारिंशति योजनानां सहस्रेषु त्रिंशदधिकेषु च त्रिषु शतेषु भवति, सर्वाभ्यन्तरं च चतुश्चत्वारिंशति सहस्रेषु अष्टासु च विंशत्यधिकेषु शतेषु भवतीति, एवं च कृत्तिकानक्षत्रं 5 सर्वबाह्यात् मण्डलाउ त्ति चन्द्रमण्डलाद्दशमे चन्द्रमण्डले सर्वाभ्यन्तरात् षष्ठ इत्यर्थः, चारं चरति भ्रमणमाचरति, अनुराधानक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरात् चन्द्रस्य मण्डलात् दश चन्द्रमण्डले सर्वबाह्यात् षष्ठ इत्यर्थः, चारं चरतीति व्याख्यातमेवेति । विद्धिकराई ति एतन्नक्षत्रयुक्ते चन्द्रमसि सति ज्ञानस्य श्रुतज्ञानस्योद्देशादिर्यदा क्रियते तदा ज्ञानं समृद्धिमुपयाति अविघ्नेनाधीयते श्रूयते व्याख्यायते धार्यते चेति, भवति च 10 कालविशेषस्तथाविधकार्येषु कारणम्, क्षयोपशमादिहेतुत्वात्तस्य, यदाह
उदयक्खयखओवसमोवसमा जं च कम्मुणो भणिया ।
दव्वं खेत्तं कालं भवं च भावं च संपप्प ॥ [ विशेषाव० ५७५ ] इति ।
तद्यथा - मगसिर गाहा कण्ठ्या ।
[सू० ७८२] चउप्पयथलचरपंचेंदियतिरिक्खजोणिताणं दस जातिकुल - 15. कोडिजोणिपमुहसतसहस्सा पण्णत्ता १।
९०३
उरपरिसप्पथलचरपंचेंदियतिरिक्खजोणिताणं दस जातिकुलकोडिजोणिपमुहसतसहस्सा पण्णत्ता २।
[टी] द्वीप - समुद्राधिकारादेव द्वीपचारिजीवक्तव्यतां सूत्रद्वयेनाह - चउप्पयेत्यादि, चत्वारि पदानि पादा येषां ते चतुष्पदास्ते च ते स्थले चरन्तीति स्थलचराश्चेति 20 चतुष्पदस्थलचरास्ते च ते पञ्चेन्द्रियाश्चेति विग्रहः, पुनस्तिर्यग्योनिकाश्चेति कर्म्मधारयः, तेषां दशेति दशैव, जातौ पञ्चेन्द्रियजातौ यानि कुलकोटीनां जातिविशेषलक्षशतानां योनिप्रमुखाणि उत्पत्तिस्थानद्वारकाणि शतसहस्राणि लक्षाणि तानि तथा, प्रज्ञप्तानि सर्वविदा, तत्र योनिर्यथा गोमयो द्वीन्द्रियाणामुत्पत्तिस्थानम्, कुलानि तत्रैकत्रापि द्वीन्द्रियाणां कृम्याद्यनेकाकाराणि प्रतीतानीति, तथा उरसा वक्षसा 25 ९. चन्द्रस्य म जे१ पा० ॥ २. चरइ ति पा० । जे२ मध्ये पत्रं नास्ति ॥
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
९०४
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे परिसर्पन्ति सञ्चरन्तीत्युर:परिसास्ते च ते स्थलचराश्चेत्यादि तथैव ।
[सू० ७८३] जीवा णं दसठाणनिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा चिणंति वा चिणस्संति वा, तंजहा-पढमसमयएगिदियनिव्वत्तिए जाव
अपढमसमयपंचेंदियनिव्वत्तिए। एवं5 चिण उवचिण बंध उदीर वेय तह णिज्जरा चेव ।
दसपतेसिता खंधा अणंता पण्णत्ता, दसपतेसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णता, दससमतट्टितीता पोग्गला अणंता पण्णत्ता, दसगुणकालगा पोग्गला अणंता पण्णत्ता, एवं वन्नेहिं गंधेहिं रसेहिं फासेहिं, दसगुणलुक्खा पोग्गला
अणंता पण्णत्ता ॥ 10 दसट्ठाणं समत्तं ॥छ। समत्तं च ठाणमिति ॥
[टी०] जीवविषयं दशस्थानकमभिधायाधुनाऽजीवस्वरूपपुद्गलविषयं तदाह- जीवा णमित्यादि, अथवा जाति-योनि-कुलादिविशेषा जीवानां कर्मणश्चयोपचयादिभ्यो भवन्तीति त्रिकालभाविनो दशस्थानकानुपातेन कर्मणश्चयादीनाह– जीवा णमित्यादि,
जीवा जीवनधर्माणः, न सिद्धा इति भावः, णमिति वाक्यालङ्कारे, दशभिः स्थानैः 15 प्रथमसमयैकेन्द्रियत्वादिभि: पर्यायैः हेतुभिर्ये निर्वर्त्तिता बन्धयोग्यतया निष्पादितास्ते तथा, दशभि: स्थानैर्निर्वृत्तिर्वा येषां ते तथा, तान् पुद्गलान् कर्मवर्गणारूपान्, पापं घातिकर्म सर्वमेव वा कर्म तच्च तत् क्रियमाणत्वात् कर्म च पापकर्म, तद्भावस्तत्ता, तया पापकर्मतया चिणिंसु त्ति चितवन्तो गृहीतवन्त: चिन्वन्ति गृह्णन्ति चेष्यन्ति ग्रहीष्यन्त्यनेनात्मनां त्रिकालान्वयित्वमाह, सर्वथा अनन्वयित्वेऽकृताभ्यागम20 कृतविप्रणाशप्रसङ्गादिति, वाशब्दा विकल्पार्थाः, तद्यथा-प्रथमः समयो
येषामेकेन्द्रियत्वस्य ते तथा, ते च ते एकेन्द्रियाश्चेति प्रथमसमयैकेन्द्रियास्तैः सद्भिर्ये निर्वर्त्तिता: कर्मतयाऽऽपादिता अविशेषतो गृहीतास्ते तथा, तान्, एवं तद्विपरीतैरप्रथमसमयैकेन्द्रियैर्निवर्त्तिता येते तथा, तान्, एवं द्विभेदता द्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियाणां
प्रत्येकं वाच्येति, एतदेवातिदेशेनाह-जावेत्यादि, यथा चितवन्त इत्यादि कालत्रयनिर्देशेन 25 सूत्रमुक्तमेवमुपचितवन्त इत्यादीन्यपि पञ्च वक्तव्यानीत्येतदेवाह– एवं चिणेत्यादि, इह
चैवमक्षरघटना-चिण त्ति यथा चयनं कालत्रयविशेषितमुक्तमेवमुपचयो बन्ध उदीरणा
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
९०५
[सू० ७८३]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् । वेदना निर्जरा च वाच्या:, चेव त्ति समुच्चये, नवरं चयनादीनामयं विशेष:-चयनं नाम कषायादिपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्रम्, उपचयनं गृहीतानां ज्ञानावरणादिभावेन निषेचनम्, बन्धनं निकाचनम्, उदीरणा करणत उदये प्रवेशनम्, वेदनम् अनुभवनम्, निर्जरा जीवप्रदेशेभ्य परिशटनमिति ।
पुद्गलाधिकार एवेदमाह- दसेत्यादि सूत्रवृन्दं सुगमं च, नवरं दश प्रदेशा येषां ते 5 तथा, त एव दशप्रदेशिका दशाणुका: स्कन्धा: समुच्चया इति द्रव्यत: पुद्गलचिन्ता, तथा दशसु प्रदेशेष्वाकाशस्यावगाढा आश्रिता दशप्रदेशावगाढा इति क्षेत्रत:, तथा दश समयान् स्थितिर्येषां ते तथेति कालतः, तथा दशगुण: एकगुणकालापेक्षया दशाभ्यस्तः कालो वर्णविशेषो येषां ते दशगुणकालकाः, एवमन्यैश्चतुर्भिर्वर्णाभ्यां गन्धाभ्यां पञ्चभी रसैरष्टाभि: स्पर्शः विशेषिता: पुद्गला: अनन्ता वाच्याः, अत एवाह– 10 एवमित्यादि, जाव दसगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पन्नत्तेत्यनेन भावत: पुद्गलचिन्तायां विंशतितम आलापको दर्शितः । इह चाऽनन्तशब्दोपादानेन वृद्ध्यादिशब्देनेवान्तमङ्गलमभिहितम्, अयं चाऽनन्तशब्द इह सर्वाध्ययनानामन्ते पठित इति सर्वेष्वप्यन्तमङ्गलतया बोद्धव्य इति ।
तदेवं निगमितमनुगमद्वारांशभूतं सूत्रस्पर्शकनियुक्तिद्वारम्, शेषद्वाराणि तु सर्वाध्ययनेषु 15 प्रथमाध्ययनवदनुगमनीयानीति ॥
इति श्रीमदभयदेवसूरिविरचिते स्थानाख्यतृतीयाङ्गविवरणे दशस्थानकाख्यं दशममध्ययनं समाप्तम् । श्लोकाः १८१४।।
तत्समाप्तौ च समाप्तं स्थानाङ्गविवरणम् । तथा च यदादावभिहितं स्थानाङ्गस्य महानिधानस्येवोन्मुद्रणमिवानुयोग: प्रारभ्यत 20 इति तच्चन्द्रकुलीनप्रवचनप्रणीताप्रतिबद्धविहारहारिचरितश्री वर्धमानाभिधानमुनिपतिपादोपसेविन: प्रमाणादिव्युत्पादनप्रवणप्रकरणप्रबन्धप्रणायिनः प्रबुद्धप्रतिबन्धप्रवक्तृप्रवीणाप्रतिहतप्रवचनार्थप्रधानवाक्प्रसरस्य सुविहितमुनिजनमुख्यस्य १. चेव त्ति चेव समु जे१ ॥ २. च नास्ति जे१ ॥ ३. °मन्ते प्राथ: (यः?) पठित जे१ ।। ४. स्थानाख्यं
जे१ ॥ ५. समाप्तम् श्लोका: १८१४ । तत्स० जे१ । समाप्तमिति तत्स' खं० । समाप्तं तत्स पा० जे२ ॥ ६. (प्रणयिनः ?) ॥
.
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
९०६
आचार्यश्रीअभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते स्थानाङ्गसूत्रे श्रीजिनेश्वराचार्यस्य तदनुजस्य च व्याकरणादिशास्त्रकर्तुः श्रीबुद्धिसागराचार्यस्य चरणकमलचञ्चरीककल्पेन श्रीमदभयदेवसूरिनाम्ना मया महावीरजिनराजसन्तानवर्तिना महाराजवंशजन्मनेव संविग्नमुनिवर्गश्रीमदजितसिंहाचार्यान्तेवासियशोदेव
गणिनामधेयसाधोरुत्तरसाधकस्येव विद्या-क्रियाप्रधानस्य साहाय्येन समर्थितम् । 5 तदेवं सिद्धमहानिधानस्येव समापिताधिकृतानुयोगस्य मम मङ्गलार्थं पूज्यपूजा__नमो भगवते वर्तमानतीर्थनाथाय श्रीमन्महावीराय, नमः प्रतिपन्थिसार्थप्रमथनाय श्रीपार्श्वनाथाय, नम: प्रवचनप्रबोधिकायै श्रीप्रवचनदेवतायै, नमः प्रस्तुतानुयोगशोधिकायै श्रीद्रोणाचार्यप्रमुखपण्डितपर्षदे, नमश्चतुर्वर्णाय
श्रीश्रमणसङ्घभट्टारकायेति । 10 एवं च निजवंशवत्सलराजसन्तानिकस्येव ममासमानमिममायासमतिसफलतां नयन्तो
राजवंश्या इव वर्द्धमानजिनसन्तानवर्तिन: स्वीकुर्वन्तु यथोचितमितोऽर्थजातमनुतिष्ठन्तु सुष्ठूचितपुरुषार्थसिद्धिमुपयुञ्जतां च योग्येभ्य इति ॥ किञ्च
सत्सम्प्रदायहीनत्वात्, सदूहस्य वियोगतः ।
सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे ॥१॥ 15 वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धितः ।
सूत्राणामतिगाम्भीर्यान्मतभेदाच्च कुत्रचित् ॥२॥ क्षूणानि सम्भवन्तीह, केवलं सुविवेकिभिः । सिद्धान्तानुगतो योऽर्थः, सोऽस्माद् ग्राह्यो न चेतरः ॥३॥ शोध्यं चैतज्जिने भक्तैर्मामवद्मिर्दयापरैः । संसारकारणाद् घोरादपसिद्धान्तदेशनात् ॥४॥ कार्या न चाक्षमाऽस्मासु, यतोऽस्माभिरनाग्रहै: । एतद् गमनिकामात्रमुपकारीति चर्चितम् ॥५॥ तथा सम्भाव्य सिद्धान्ताबाध्यं मध्यस्थया धिया । द्रोणाचार्यादिभिः प्राज्ञैरनेकैरादृतं यत: ॥६॥ १. सिद्धांता बोध्यं पामू०, सिद्धांतात् बोध्यं पासं० । सिद्धांताद्बोध्यं जे२ ॥
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
९०७
[सू० ७८३]
दशममध्ययनं दशस्थानकम् । जैनग्रन्थविशालदुर्गमवनादुच्चित्य गाढश्रमं सद्व्याख्यानफलान्यमूनि मयका स्थानाङ्गसद्भाजने । संस्थाप्योपहितानि दुर्गतनरप्रायेण लब्ध्यर्थिना श्रीमत्सङ्घविभोरतः परमसावेव प्रमाणं कृती ॥७॥ श्रीविक्रमादित्यनरेन्द्रकालाच्छतेन विंशत्यधिकेन युक्ते । समासहस्रेऽतिगते विदृब्धा, स्थानाङ्गटीकाऽल्पधियोऽपि गम्या ॥८॥ अणहिलपाटकनगरे वसतावच्छुप्तधनपतेर्गणिना । जिनदेवाख्येनादौ लिखिता स्थानाङ्गटीकेयम् ॥ प्रत्यक्षरं निरूप्यास्या ग्रन्थमानं विनिश्चितम् । अनुष्ठभां सपादानि, सहस्राणि चतुर्दश ॥१॥ [ग्रन्थाग्रं १४२५०]
10
१. गम्याः ॥१८१४ अण' - जे१ । गम्या ॥ ८ श्लोकात्र १७१४ ॥छ।।छ।। अण' पा० । गम्या ॥८
अत्र दशमाध्ययने श्लोका: १७१४- जे२ । गम्या ॥७ ग्रंथाग्रं १४२५० ॥छ।। मंगलं महाश्री ॥छ।छ।।छ।। शुभं भवतू ॥छ।। -खं० ॥ २. इतः श्लोकद्वयं खं० मध्ये नास्ति ॥ ३. चतुर्दश ॥छ।। अङ्कतोऽपि १४२५० शिवमस्तु ॥ संवत् १४८६ वर्षे माघवदिपञ्चम्यां सोमे अद्येह श्री स्तंभतीर्थे अविचलत्रिकालज्ञाज्ञापालनपटुतरे विजयिनि श्री खरतरगच्छे श्री जिनराजसूरिपट्टे लब्धिलीलानिलयकृतपापपूरप्रलयचारुचारित्रचंदनतरुमलयश्रीमद्गच्छेशभट्टारकश्रीजिनभद्रसूरीश्वराणामुपदेशेन पं० गूर्जरसुतेन रेखाप्राप्तसुश्रावकपरीक्षधरणाकेन पुत्रसाइयासहितेन श्री सिद्धांतकोशे स्थानांगसूत्रवृत्तिपुस्तकं लिखापितं - जे२ ॥
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
नव परिशिष्टानि
१-८३
८४-८७
८८-१७६
प्रथमं परिशिष्टम् द्वितीयं परिशिष्टम् तृतीयं परेशिष्टम् चतुर्थं परिशिष्टम् पञ्चमं परिशिष्टम् षष्ठं परिशिष्टम् सप्तमं परिशिष्टम् अष्टमं परिशिष्टम् नवमं परिशिष्टम्
१७७-१८४ १८५-२१७ २१८-२२३ २२४-२२६
२२७-२२८ २२९-२४३
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशिष्टशब्दा: अइपंडुकंबलसिला
अइयार
अइरत्ता
अउअंगा
अउआ
अउज्झा
अंकावईओ
अंकावती
अंकुसा
अंके
अंग
अंगपविट्ठे
अंगबाहिरे
अंगबाहिरियो
अंगचूलिया
अंगद-कुंडल-मट्ठगंडतलकन्नपीढधारी
अंगराया
अंगारते
अंगिरसा
अंजणगपव्वत
अंजणपुल
अंजणा
प्रथमं परिशिष्टम् स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा:
२९९ अंजणागिरि
१९८ अंजणे
५२४ अंजू १०६ अंड १०६ अंडगा
१००, ६३७ अंडजा
१०० अंड
१००,२९९, अंडे
४३४,६३७ अंतकिरिया
९५, ३०७ अंतकुल
७७८ अंतगडदसा
६०८ अंतचरते
७५५ अंतचारी
अंतजीवी
अंगुणि
अंचिअंचिं
अंचिते
अंजण २५७, २९९, ६३७, ६४३ अंताहार
५९७ अंतर
६० अंतरणतीतो
६० अंतरणदी
२७७ अंतरदीवगा ५६४ अंतरदीवा
४८१, ६१३ अंतरदीविगाओ
५५१ अंतराइतं
७५५ अंतरातितं
७७६ अंतलिक्ख
३७४ | अंतलिखिते
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः ६४१ अंतेणं
३०७, ७२५ अंतिमरातितंसि ६४३, ७७८ अंतिमसारीरियाणं १००, ५४६ अंते
४३४, ७७८ अंतेवासी
३०७, ६१२ अंतोदुट्टे
६९३ अंतोवणीते
५९५ | अंतोवाहिणी
५४३ अंतोसल्ल ६१६ | अंतोहितो ७५५ अंधार
११८, २३५ अंधा
५९७ अंबट्ठपुत्त ७५५ अंबट्ठा
३९६ अंबिल
२७० अंकडू
१९९ | अकंतस्सरे १९९ अकंते
१३९,४९०, ४९१ अकक्करणता
३०१ अकज्जमाणकडं
३९६ अंबपलंबकोरव
३५०, ४५३ | अंबपलंबकोरवसमाणे
१३९ | अकट्टु
२६८ अकडा
५६६, ५९६ अकतिसंचिता
६०८ अन्नदीव
७१४ कम्
३९६ | अकम्मभूमगा
७५० अकम्मभूमया २६ अकम्मभूमियाओ २१९ | अम्मभूमी
सूत्राङ्काः
७५०
३२०
३४४
३३५
१००, १९९,५२२
३४४
४७७
१
१०६,२९१,३३८
५५३
७५५
४९७
२४२
२४२
७४३,३८
३९६
५९७
५९७
१९८८
१७५
१७५
१७५
१२९
३०१
४४५
४९०
१३९
१३९
१९९,२९९
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः अकम्मादंडे ४१८ अक्खातित
७४१ अग्गमहिसी ४०३,५०५, अकम्हाभते ५४९ अक्खागडा
३०७
५७४,६१२,६२८ अकयण्णुता ३७० अक्खेवणी २८२ अग्गिकुमारा
७२ अकरणताते १७६ अक्खममाण ४०९ अग्गिकुमारिंदा
१०५ अकरणयाए
६६ अखमाते ३९०, ४९६ अग्गिच्चा ५५१,६८४,६२५ अकरिसु १७६ अखेत्तवासी
अग्गिच्चाभ
६२५ अकलुसं ३६० अखेमरूव
अग्गिमाणव १०५, २५७ अकसायी ४५८ अखेमे
२८९ अग्गिसिह १०५,२५७, अकसिणा ४३३ अगंता
१६८
२८९, ६७२ अकामणिज्जरा ३७३ अगंधे
४४१ अग्गिल्ला
९५ अकालवासी ३४६ अगडा
१०६ अग्गी
९५,३०३,७४३ अकाले ७६५ अगणिकातेण ४७९ अग्गेया
५५१ अकिंचण ६९३ अगतिसमावन्नगा ६३ अग्गेयी
७२० अकिंचणता
अगत्थी
९५ अचक्खुदंसण ५६५ अकिच्चं १७५ |अगामितं
४१७ अचक्खुदसणावरण ६६८ अकित्ती
१७६, ५९७ अगारचरित्तधम्म ६१ अचक्खुदंसणी अकिरि
|अगारधम्म
७५० अचरिमसमयउवसंतअकिरिते ५८५ अगारया
३०३ | कसायवीतरागसंजम अकिरिया १९३ अगारवास
३२५ अचरिमसमयनियंठे अकिरियावाती ६०७ अगारसामाइए
७८ अचरिमसमयबादरअकिरियावादी ३४५ अगिज्झा
१७३ | संपरायसरागसंजम अकूअणता १८८ अगिलाते
३९७ अचरिमसमयसजोगिअक्किज्जा ६७३ अगुत्तदुवारा
२७५ भवत्थकेवलणाणे अक्कोसति ४०९ अगुत्ता
२७५ अचरिमसमयसयंबुद्धअक्ते ४४४ अगुत्तिंदिता
२७५ छउमत्थखीणकसायअक्खममाण ३२५ अगुत्ती
१३४ वीयरागसंजमे अक्खमाते
अगुत्ते
२७५ अचरिमसमयसुहुमअक्खरसंबद्धे ७३ अगुरूलहु (परिणाम)
संपरायसरागसंजमे अक्खाडगसमचउरंस
अग्गजिब्भा
५५३ अचरिमा ६९, ७५७ संठाणसंठिता ६२४. अग्गबीया २४४,४३१,४८४ अचिट्ठित्ता
१६८ अक्खातपव्वज्जा - १६५, ३५५ अग्गमहिसी १४२,२७३,३०७, अचित्ता २१४, ४४४
३६५
१९५
७१३ |
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशिष्टशब्दा:
अचियत्तोवघात
अचेल
अचेलते
अच्चासणाते
अच्चासातिते
अच्छरा
अच्छविकरे
अच्छवी
६९३ अजीवकात आरंभ
६६७ अजीवकायअसंजम ७७६ अजीवकायसंजम
अच्चासाज्जा
७७६ अजीवकाया
अच्चिमाली २७३, ३०७,६२५ अजीवकिरिया
अच्ची ६२५, ४४४ अजीवदिट्टिया अच्चुए (अच्चुते ) १०५, ७६९ अजीवनिस्सिता
अच्चुण्ह
४६० अजीवपरिणाम १०५ अजीवपाओसिया
अच्चु
अच्छत्तए
६९३ | अजीवपाडुच्चिया
अच्छा
अच्छिंदत
अच्छिन्ने
अच्छेज्ज
अच्छेरगा
अच्छिंदित्ता
अजइत्ता
प्रथमं परिशिष्टम् ।
अजाणू
अजिणाणं
अजितसेण
अजीव
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा:
७३८ | अजीव अपच्चक्खाणकिरिया ५० अज्जपन्ने
४१७, ४५५ अजीवआरंभिया
३०७, ६१२ अजीवमीसए
५८५ अजीवरासी
४४५ अजीवसण्णा ३०७ अजीवसाहत्थिया ४०९ अजीवा
१४६ अजीवाभिगम
१७३, ६९३ अजुज्झित्ता
७७७ अजुत्त
१६८ | अजुत्तपरिणत
१६८ अजुत्तरूव ४३ अजोगिकेवलिखीण
अजहन्नुक्कसगुणकालगाणं अजहन्नुक्कस्सगुणलुक्खाणं ४३ कसायवीतरागसंजमे
अजनुकस्याणं ४३ अजोगिभवत्थकेवलणाणे अजहन्नुक्कस्सपतेसियाणं ४३ अजोगी
अजहन्नुक्कसोगाहणगाणं
४३ अजोणिय
२१८ | अज्जओभासी
२३०, ३८१ अज्जघोस
७६७ अज्जजाती
४४१ अज्जदिट्टी
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः
५० अज्जपरक्कम
५७१ अज्जपरिणते
५७१ अज्जपरियाए
५७१ अज्जपरियाले
२५२ अज्जभावे
५० अज्जभासी
५० अज्जमणे
५५३ अज्जमा
७१३ अज्जरूवे
५० अज्जव
५० अज्जवट्ठाणा ७४१ अज्जववहार १०६ अज्जवित्ती
७३४ अज्ज कप्पे
५० अज्जसीलाचार
१०६, ६६५ अज्जसेवी १७१, ४९९ अज्जा
१६८ अज्जे
३१९ अज्झवसाण
३१९ | अज्झावसित्ता ३१९ | अज्झोयर
अज्झोवज्जणा
६२ अज्झोववज्जंति
६० अज्झोववन्न
३६५ अहंगा
४९ अट्टा २८० अट्टे
६१८ अट्ठ २८० अट्टकण्णि
२८० अट्टकर
३
सूत्राङ्काः
२८०
२८०
२८०
२८०
२८०
२८०
२८०
२८०
९५
२८०
२४७,३७२,३९६
४००
२८०
२८०
२८०
२८०
२८०
४३५
२८०
५६१
४७०
६९३
२१८
३९०
१८३, ३२३
१०६
१०६
२४७
१८३, ३२३
६३३
३१९
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
४
विशिष्टशब्दा:
अट्टगतिता
अट्ठगुणलुक्खा अट्ठचक्कवालपतिट्ठाण
अजाय
अमिया
अट्ठाणणिव्वत्ति
अट्ठपतेसिता
अट्ठपतेसोगाढा
अट्ठफासा
अट्ठमभत्तिय
अट्ठमी
अट्ठसतसिद्धा
असमति
असोवण्णित
अट्ठागतिता
अट्ठादंडे
अट्ठारसवंजणाउलं
अट्ठि
अभि अहि-मंस-सोणितबद्धे
अट्ठि मंस-सोणिय
हारू- छिराबद्धे
अट्ठमिंजा
अमिंजाणुसारी
अहिसेणा
अट्ठी
अडज्झा
अडविं
अड्ड
अड्डभरहप्पमाणमेत्तं
अड्डेज्जं
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः
५९५ अणंग डिसेविणी
६६० अनंत
६०२ अनंतगुणकालगाणं
४३७ | अनंतगुणलुक्खाणं ६४५ अनंतजिण
६६० अनंतते
६६०, ७२० अणंतमीसए ६६० अनंतरं
३९५, ४४१ अणंतरपज्जत्ता
१८८ अणंतरसमुदाणकिरिया ६०९ अणंतरसिद्ध केवलणाणे
७७७ अणंतराहारगा
६५२ अणंतरोगाढगा
६३३ अनंतरोगाढा
५९५ अणंतरोववन्ना
५८, ४१८ अणंतवत्तियाणुप्पेहा
१४३ अनंतसंसरिता
७१४ अणंतसमयसिद्ध २९३ अनंतसेण
६५ अाध
अणगार ३१५, ३१७,४२४, अणाउय
६५ २०९ अणगारचरित्तधम्मे
५३ अणगारधम्मं
५५१ अणगारसामाइए
२०९ अणच्चावितं
१७३ | अणज्जभावे
४१७ अणज्झोववन्न
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः
४१६ अणत्तवओ
४११ अणत्ता
४३ अणद्धा
४३ | अणधितासेमाण
४११ अणधियासेमाण
४६३ अणपन्निंदा
७४१ अणभिगहियमिच्छादंसणे
५९७ अणभिलसमाण
५९७ अणट्टादंडे ३४१ अणण्हते
७३७ | अणण्हवक
७५७ | अणवकखमाण
१९३ अणवकंखवत्तिता ६० अणवकंखवत्तिया ७५७ अणवज्झाणया
६३ अणवट्ठप्पा ७५७ अणवट्ठप्पारिह
७५७ अणवदग्गं
२४७ अणवयग्गं
६९ अणसण
४२ | अणाउत्तआइयणता ७६७ अणाउत्तं
२४९ अणाउत्तपमज्जणता
सूत्राङ्काः
४९६
७५
१७३
४०९
३२५
१०५
५९
३२५
३१४
४१९
५०
१८८
२०३
६८८, ७३३
१४४, ७५०
५३
५११
४४०,४७५,६९१ अणाज्जवयणपच्चायाते ६१ अणागंता
७५० अणागत
७८ | अणागतद्धा
५०३ अणागयवयण
२८० अणागारं
७४८
३२३ अगाढिता ८२, ७१२, ७६४ ५८, ४१८ | अणादीयं
५३
१९५ अणाणुगामितत्ताते ३९०, ४९६ ५८५ | अणाणुगामियत्ताए
१८८
५०
५८५
५०
४९
५९७
१६८
१९७, ७४८
६२०
१९८
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
४३९
४१५
४२१
६१७
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः अणाणुगामिते ५२६ अणिदाणताते ७५८ अणुपवाइत्ता
३९९ अणाणुबंधि ५०३ अणिदाणयाए
१४४ अणुपवादेत्ता अणातीते ७५० अणियट्ठी ९५, २४७ अणुपविठ्ठा
४१७ अणादीयं १४४ | अणियणा
५५६ | अणुपविसमाणे अणापुच्छितचारी ३९९, ५४४ | अणियाधिवती १४२ अणुपवेसेज्जा
४१६ अणाबाध ७३७ अणिसटे
अणुपालणासुद्धे
४६६ अणाभोगणिव्वत्तिते २४९ अणिस्सितोवस्सितं
अणुपालिता
६४५ अणाभोगवउसे ४४५ अणिस्सेसाते १८८, ३९० अणुपुव्वसुजायदीहणंगूलो २८१ अणाभोगवत्तिता ५०,४१९ अणुकंप
२०८ अणुप्पगंथे
६९३ अणाभोगे ७३२ अणुकंपा ७४५ अणुप्पन्नाणं
३३९ अणायार १९८ अणुगाह
१९४ अणुप्पवातेत्ता अणायावी ३२१ अणुग्घातिए
४३३ | अणुप्पेहा २४७,४६५ अणारंभ ५७१ अणुग्घातिता
४१४ अणुबद्धं अणाराधते ३२१ अणुग्घातिमा
२०३ अणुभावअप्पाबहुए २९६ अणारितेहिं ४१२ अणुजाते
२४० अणुभावउदीरणोवक्कम २९६ अणालावे
५८४ अणुजोगगते ७४२ अणुभावउवसामणोवक्कम २९६ अणालोतितपडिक्कते ५९७ अणुजोगी
५३४ अणुभावकम्म ७९,३६२ अणाहारगा ६९ अणुजोगे
२६२ अणुभावणामनिहत्ताउते ५३६ अणिदित्ता ६४३ अणुण्णवित्तते १९६ अणुभावणिगातित
२९६ अणिंदिय ४९, ११२, अणुत्तरा ७६३,४१०,४५१ अणुभावणिधत्त
२९६ ४८३,६९ अणुत्तरे
४११ अणुभावबंध
२९६ अणिक्कट्टप्पा
३५२ अणुत्तरोववातितसंपता ६५३ | अणुभावबंधणोवक्कम २९६ अणिक्कडे
३५२ अणुत्तरोववातिताणं ६५३ अणुभावविप्परिणामणोअणिच्चाणुप्पेहा २४७ | अणुत्तरोववातियदसाओ ७५५ | वक्कम
२९६ अणिट्ठ ७५, ५९७ अणुत्तरोववातिया ४६ अणुभावसंकम
२९६ अणिट्ठसरे ५९७ अणुत्ता ५९७ | अणुभासणासुद्धे
४६६ अणिड्डीमंता ४९१ अणदहमाण
७७६ | अणुमाण अणितणा ७६६ अणुनासं ५५३ अणुमाणइत्ता
७३२ अणिता ४०४ अणुन्नवणी
२३७ अणुराधा अणिताणता ५२९ अणुन्नवेमाणा
४७७ अणुराधनक्खत्ते ३८६, ७८० अणिताधिवती ४०४ अणुन्ना
१८० | अणुराहा ५८९, ९५
६५६
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
६
विशिष्टशब्दा:
अणुलो
अलमत्ता
अणुल्लावे
अणुवरयकायकरिया
अणुव
अणुवाहण
अणुवूत्ता
अणुव्वता
अणुट्ठी
अणुसमजुगबाहुवतणा
अणुसिट्ठी अणुसोचा अणेक्कपरंपरसिद्ध
वा
अक्कसिद्ध
अणेगगणणातगा
अणेगावाती
अणेसणिज्जेणं
अणोउया
अण्णाणियवादी
अण्हवकरे
अण्हाणते
अतधणाणे
अतहणाणे
अतिकाए (य)
अतिक्कतं
अतिक्कंतजोव्वणा
अतिक्कम
अतिजागरितेणं
अतिजा
अतिज्जादि
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा:
५३४ अतिणिद्दाए
५१२ अतिताणकहा
५८४ अतिताणगिहा
५० अतितिक्खमाण
२४९ | अतित्थसिद्धा ६९३ | अतिदुक्कर- दुक्करकारगे
५५० अतिदुक्कर- दुक्करकारते
३८९ अतिधिवणीमते
१९४ | अतिपंडुकंबलसिला ६७३ | अतिबल
३३५ अति
४५३, ३५० अतियंचिय
अतियाणिड्डी
६० अतिरत्तकंबलसिला
४२ अतिसीतो
५५३ अतिसा
६०७
१३३ (अ) तीत
४१६ | (अ) तीतवण
३४५ अत्तगवेसणता
५८५ अत्तणा उवणीते
६९३ अत्त
७२६ अत्तदोस ५३४ अत्तवतो
१०५, २७३ अत्ता
७४८ अत्ताणं
४१६ अक्
१९८ अत्थकहा
६६७ अत्थजोणी
२४० अत्थणिउरा
६९३ | अत्थणिकुरंगा
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा:
६६७ अत्थधरे २८२ | अत्थपडिणीते १०६ अत्थमितोदिते ३२५, ४०९ | अत्थमियत्थमि
४२ अत्थविणिच्छते
१८३ अत्थसुयधम्म
३२३ | अत्थि
४५४ | अत्थिकाए
१०० | अत्थिकायधम्म
६१७ | अत्थिकाया
७५५ अत्थिणत्थिप्पवातपुव्व
३९८ अत्थे
२१४ | अत्थेगइया १००,२९९ | अत्थोग्गहे
४६० अदंतवणते २८४,४३८, अदच्चा ५७०,५९७ अदसि
१९७ अदिती
१९८ | अदिन्नादाण ५८५ अदिन्ना (दाणवेरमण) ७४४ अदीण (परक्कम) ७६२ अदीणपरिणत
सूत्राङ्काः
१७७, २५६
२०८
३१५
३१५
१९४
६१
६०४, ७३२ | अदीणसत्तू ४९६ अट्ठे
१६८
५७२
९५ २६६, ३८९ ७११
२७९
२७९
५६४
२०४
७५ अद्दा
५२७, ५८९, ७८१
७५० अद्दागपसिण
७५५
३५४ अद्दागसमाण
३२२
१९४ | अद्दाणक्खते
४७
१९१ अद्धकाल
२६४
१०६ अद्धचंदसंठाणसंठित्ता ८५,३८३
१०६ | अद्धचक्कवाला
५८१
७३७
३३३
१९४, ७६०
२५२, ४४१
७३१
१९१
४१७
६०, ५२५
६९३
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
४४५
५५३
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः अद्धणारायसंघयण ४९४ अधेसत्तमा
५३५ अपढमसमयउवसंतअद्धद्धामीसते
७४१ अनिस्सितोवस्सित ६४९| कसायवीतरागसंजम ६२,६४७ अद्धपलिओवम ४९३ अनीसेसाए
४९६ अपढमसमयएगेंदिता ७७२ अद्धपलितंका ४०० | अनीहारिमे
११३ अपढसमयखीणअद्धपेडा
५१४ अन्नइलायचरए ३९६ कसायवीतरागसंजम ६४७ अद्धकुंभिक ३०७ अन्नउत्थिता
१७५ | अपढमसमयनियंठे अद्धसम
अन्नधम्मियाणं २०३ अपढमसमयपंचेदिता ७७१ अद्धाउए ७९, ११६, ७४८ अन्नपुन्न
६७६ अपढमसमयपंचेंदियअद्धाणगमण ६६७ अन्नमन्नं २०३ निव्वत्तिए
७८३ अद्धामीसते ७४१ अन्नयर
४३७ अपढमसमयबादरअद्धोवमिए(ते) ११०, ६२० अन्नाण
१९३,६७८ | संपरागसरागसंजम ६४७ अधम्म
६४९ अन्नाणकिरिया १९३ अपढमसमयबादरअधम्मत्थिका २५२,३३३, अन्नाणदोसे
२४७ __ संपरायसरायसंजम ३३४, ४४१, ४५०, अन्नाणमरणं
४१० अपढमसमयबुद्धबोधिय४७८,५६७ अन्नाणी
४८३ छउमत्थखीणकसायअधम्मत्थिगातमज्झपतेसा ६२६ अन्नातचरते
३९६ वीयरागसंजम अधम्मजुत्ते ३३५ अपएसा
१७३ अपढमसमयसंजोगीअधम्मसण्णा
७३४ अपक्खग्गाही ६४९ भवत्थकेवलणाणे अधम्मिए १९१, २१६ अपच्चक्खाणकिरिया ३६९,४१९ अपढमसमयसयंबुद्धअधम्मित
१९४ अपच्चक्खाणकोध २४९ छउमत्थखीणकसायअधा
४९९ अपच्छाणुतावी ७३२ वीयरागसंजम अधाउणिव्वत्तिकाल २६४ अपच्छिममारणंतित- | अपढमसमयसुहुमअधारायणियाते ४३९ संलेहणाझूसणाझूसितं
संपरागसरागसंजम ६४७ अधासंथडं १९६
२१०,३१४ अपढमसमयसुहुमअधिकरणिता
४१९ अपज्जत्तगा ६३,६९,१७० संपरायसरायसंजम ६२ अधिकरणिसंठित ६३३ अपडिकम्म
११३ अपतिट्टिए
२४९ अधिट्टिजा
अपडिबद्धा ३५५, ६९३ | अपत्तितमाण अधियासेज्जा
४०९ अपडिलोमता ५८५ अपराजित ९५, १००, २७३, अधियासेमाणं ३२५, ४०९ अपडिवाति
३००, ३०४, ३०७, अधेगारवपरिणाम ६८६ अपडिवाती
५२६
४५१, ६४३, ६५१, अधेलोग ७०,४५१,५४६ अपडिसलीणा
२७८
३४२
३२५
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशिष्टशब्दाः
३७६
५८५
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः ६३ | अप्पतिट्ठाणे १२३,१५६,१५८, अब्भणुन्नाताई
३९६ ३९० ३३०, ४५१ अब्भवद्दलगं
१८२ ५२८ अप्पतुमुतुमा
६४९ अब्भसंथडा ५९७ | अप्पत्तियं
३१२ अब्भासवत्तितं
३७०,५८५ ५४ अप्पभूतं
३९४ अभिंतरपरिसाते ५७५ १२८ अप्पमाद १७४ | अब्भुट्ठावेति
२५६ ५४२ अप्पमायपडिलेहा ५०३ अब्भुढेइ
२५६ ३६० अप्पवुट्ठिगाते
१८२ अब्भुटेज्जा १४२,१७६ ६०४ अप्पवुट्ठीकाए
१८२ | अब्भुढेत्ता
३९८,३९९ ४४५ अप्पसत्थाओ २२१ अब्भोवगमिता १०७ | अप्पसद्दा
६४९ | अब्भोवगमिओवक्कमियं ३२५ ५८५ | अप्पा
४५५ अभवसिद्धिय ४१, ६५ ५८५ अप्पाउया १८३, ३२३ अभब्विया
७७७ ५३१ अप्पाउयत्ताए
| अभासगा १८८ अप्पाधिकरण ४७५, ५९४ अभिई ३६० | अप्पाबहुए २९६ | अभिओगसेढी
७७४ ५८५ अप्पिए
अभिक्खणं २८४,३९८ ७५८ अप्पिताणप्पिते
अभिगच्छति
४१० ५९७ अफासुएणं
१३३ | अभिगम अफासे
४४१ अभिगमसम्मइंसणे ५२८ अफुसं
१७५ | अभिगहियमिच्छादसणे ४९ अबद्धपासपुट्ठा ७०४ अभिगिज्झ
६६ २३५ अबद्धिता
५८७ अभिचंद ५१८, ५५६ ३२१ अबीए
१५४ अभिमुंजिय १३०, २२३ ३२१ अबुतित्ता
१६८
६६४, ७२९ ६४९ अबुहे
३५२ अभिणंदिज्जमाणे ६९३ ११३ अब्भंगेत्ता १४३ अभिणते
३७४ अब्भंतरगे
६५ अभिती ५८९,६६९,६९४ ४२७ अब्भंतरते ५२२ अभितीणक्खते
२२७ २८९ अब्भंतरपरिसाते २०२, ४०५ अभितीयादिता
५८९ ४१६ | अब्भंतरपुक्खरद्ध ६३२ अभित्थुवमाणे
६९३
अपरिणता अपरिण्णाता अपरिपूरमाणे अपरिभूत अपरियाणित्ता अपरियादित्ता अपरियादितिता अपरिस्साई अपरिस्साती अपरिस्सावी अपसत्थकातविणते अपसत्थमणविणए अपसत्थवइविणते अपाणएणं अपाणगेणं अपाव अपावते अपासत्थयाए अपियस्सरे अपीतिकारतेणं अपुरिसवायं अपोग्गला अप्पकम्मपच्चायाते अप्पकम्मे अप्पकिरिते अप्पझंझा अप्पडिकुट्ठाई अप्पडिवाती अप्पडिसलीणा अप्पणो अप्पत्तजोव्वणा
९५
५९७ ७२६
७५१
५९
२४७
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः अभिन्ना ७५ अमाइल्लताते ७५८ अरहओ
५२० अभिभवइ
२२३ | अमाती ३२६, ७३२ अरहंत ३२४,३५४,५०१, अभिभवंति २२३ अमितगती
२५७
४२६, ६३८ अभिभावपुरिसे १३७ अमितवाहण १०५, २५७ अरहंतपन्नत्त १४२,३२४,३५४, अभिभूतं १४३ अमित्ते
३६६
४२६, ५०१ अभिरू
| अमियगती
१०५ अरहंतवंसा ९३, १५२ अभिलसति ३२५ अमुच्छित
३२३ अरहंता ९३, १३७, १४२, अभिलसमाण ३२५ अमूढ
२०४ १४८, १५२, २६६, अभिवढिते ४६० अमुत्त
३६६ २९९, ३१७, ४४०, अभिसंकिज्जामि ५९७ अमुत्तसण्णा ७३४
४९१ अभिसमन्नागता १८३, ३२३ अमुदग्गे
५४२ अरहतो ६२१, ६५१ अभिसमागम २१३ अमोसलि
५०३ अरहा २२०, २२८, ४११, अभिसमेच्च ५५ अमोह ३०७,६४३,६८५
४३५, ४४५, ४५०, अभिसेगसिलाओ २९९ अम्मापिउणो
१४३
४७८, ५६४, ६६४, अभिसेयसमा ४७१ अम्मापितरो १४३, ३४६
६९०, ६९३, ७२९ अभिहडे ६९३ अम्मापितिसमाण ३२२ अरसजीवी
३९६ अभीति ६६९ अम्मापितीहिं
६९३ अरसाहार अभुंजित्ता १६८ अयकरगा
९५ अरसे
४४१ अभूताभिसंकणे ५८५ अयगोलसमाणे
३५० अरहस्सभागी
६९३ अभेज्जा १७३ अयगोले
३५० अरिठ्ठनेमि ११९,३८१,४७०, अमच्छरितता ३७३ अयणा
१०६
६२१,६२८,६५१ अमज्झा १७३ अयवीही
६९९ अरिहति अमणामस्सरे ५९७ अया ९५ अरुणप्पभ
३०२ अमणामे ५९७ अयागरे
५९७ अरुणा ९५,१००,२९९ अमणुण्ण १३३,२२१,२४७, अयोमुहदीव
३०१ अरुणाभ
३२२ ५९७, ६२३ अर ४११, ७१८ अरुणोववाते
७५५ अमणुण्णसरे
५९७ अरई ७०० अरूवि
४९ अमणुन्नसंपओगसंपउत्ते २४७ अरंजरोदगसमाणा ३६४ अरूवी
४४१ अमणे १८१, ६०९ अरतिरती __३९ अरो
२३१ अमम ६९३ | अरते
५१६ अरोएमाण अमला ३०७, ६१२ अरया
९५,१०० अरोगा
३९६
४७५
३२५ ३२५
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
४७१
५
२५४
५५३
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः अलंकार ३७४, ५५३ | अवरविदेह ९४,१००,२९९, अवितथ
३८१ अलंकारितसभा
६८९, ७२४ अवितह
२३० अलंकियं ५५३ अवराजिता
१०० अवितीपडिबद्ध ३२६ अलंबुसा ६४३ अवरिल्ल
६७० अविप्पओगसतिसमण्णागते २४७ अलभित्ता
१६८ अवलंबमाण ४३७ अविप्पतोगेणं ३३९ अलमंथू
अवलिंबा १०६ अविभातिमा
१७३ अला
अवलितं ५०३ अविमुत्तयाए
३५६ अलाते अवलेहणिताकेतणते २९३ अवियारी
२४७ अलियवयण अवलेहणितासमाणा २९३ अविरतिवायं
५२८ अलेसा
अववंगा १०६ अविरती
७४३ अलोअ
अववा
१०६ अविसंवायणाजोगे अवकंतमहानिरता अवसाणे
अविसुद्धा
२२१ अवगाहणागुणे
अवहरति ४०९ अवुग्गहट्ठाणा
३९९ अवच्चलेणसारक्खणया
अवहरिंसु ७०८ अवुग्गाहिते
२०४ अवजाते
अवहसति ४०९ अवेदगा
३६५ अवाउडते अवज्झाओ
३९६ अवेयगा
अवातदंसी ६०४, ७३२ अव्वत्त अवज्झाणता
७३२ अवातणिज्जा अवट्ठिता
३२६ अव्वत्तिता १८६
५८७ अवाताण
६०९ अव्ववसितस्स अवड्डखेत्ता
२२३ अवाते
३३५ अव्वहे अवणये
अवायणिज्जा २०४ अव्वाबाधा
६८४ अवण्ण
अवायमती ३६४, ५१० अव्वाबाहा
६२५ अवतणाई
अवायविजते
२४७ अव्वोच्छित्तिणयट्ठयाते अवत्तव्वगसंचिता
१२९
अवायाणुप्पेहा २४७ असंकिलिट्ठा १४०, २२१ अवदले
३६० अविउवितेणं
७० | असंकिलेस १९८, ७३९ अवद्धंसे
३५४
अविओसवितपाहुडे २०४,३२६ असंखेजगुणकालगाणं ४३ अवनं ३५४,४२६,४४१ अविघुटुं
५५३ असंखेजपदेसोगाढाणं ४३ अवमाणित्ता
अविजमाण
४१७ असंखेजवासाउयसन्निअवयणे
१८१ अविणए १७६, १९३ | पंचेदियतिरिक्खजोणिया ५३६ अवरकंका ७७७ अविणते
५९७ असंखेजसमयट्ठितियाणं ४३ अवरदारिता ५८९ अविणीते २०४, ३२६ असंगहट्ठाणा
५४४
४९
२४७
१७६, ५९७
५२७
m
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
५७१
अस्स
९५
५५३
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः असंगिहीतपरितण
असाते ४८८ असोग
६५४ असंजता ३६५ असाधुसण्णा ७३४ असोगवण
३०७ असंजम ५७१, ७०९ असाधू
७६५ असोगा
९५, १००, २७३ असंजयमणुस्स ४२२ असारंभ असंवरे ४२७, ४८७, ७०९ | असावजे
अस्सिणि असंवसमाणी ४१६ असासया
४९ अस्संजत
ওওও असंवुडबउसे ४४५ असिद्धा
अस्सत्थ
७३६ अससारसमावन्नगा ४९ असिपत्त
३५० अस्सलेसा असच्चमोसं २३८ असिपत्तसमाणे
अस्सिणि असच्चे २४१ असिरतण
अस्सिणी २२७, ५८९ असज्झाइए ७१४ असिलेसा
अस्सिणितादिता ५८९ असज्झातिते ७१४ असिलेसाणक्खत्ते
अस्सेसा ५१७, ७८१ असणी २७३ असिलोगभते
अस्सोकंता असणे ३४० असुई
अस्सोति
६९४ असन्नि ६९ असुतनिस्सिते
अहंता
१६८ असबले
अहक्खायसंजम
४२८ ४४५ असुतित्ता
१६८
अहत्थे असमसवाह
४६७ ३९४ असुतिसामंते
७१४ अहमंती
७१० असमाधिट्ठाणा ७५५ असुद्धे
२३९ अहम्म
७४५ असमाधी ७११ असुभ
३६२
अहम्मपडिमा असमारंभ ५७१ असुभणामे
११६
अहा असमारभमाण ३६८, ४२९, असुभविवाग
अहाभूते ४३०, ५२१ असुभदीहाउयत्ताए
अहारिहं असमिते ३२१ असुभाणुप्पेहा
अहासुत्तं
५४५ असमोहतेणं ७० असुभाते १८८, ३९०, ४९६ अहासुत्ता
६४५ असम्मोहे २४७ असुर
३०७ अहासुहुमकुसील ४४५ असरणाणुप्पेहा २४७ असुरकुमार ३१६, ३१९ अहासुहुमनियंठे
४४५ असरीरपडिबद्धं ४५०, असुरकुमाररन्नो | २७३, ४०३ अहासुहुमबउसे ४४५ ४७८, ५६७ असुरकुमारिंद
अहिताते
३९०, ४९६ असरीरी ११२, ४८३ असुरदार
३०७ अहितासणाते
६६७ असहमाण ३२५, ४०९ असुरिंद १२७, २७३ अहियाते
१८८ असातावेयणिजे ११६ असुरी
३५३ अहियासिस्सइ
२९ १७१
२७
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
१८८,
१९६
२४७
३४२
२४९
१४२
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः अहियासेमाण ४०९ आगती १७, १७१, ४९९ आणाविजते
२४७ अहियासेमि ३२५ आगम
३३६, ४२१ आणुगामितत्ताए अहीणपडिपुन्नपंचेंदियसरीरं ६९३ | आगमणगिर्हसि
३९०, ४९६ अहीणस्सरे ५९७ आगमबलिया
४२१ आणुगामिते १९१, अहुणोववन्न १८३,२४५,३२३ आगमेसिभद्द
६५३ आतंक
५०० अहेलोग ३३१,३३८,४४४ आगमेसिभद्दगत्ताए ७५८ आतंकसंपओगसंपउत्ते अहेलोगवत्थव्वा ६४३ आगर
१०६, ३९४ | | आतंतम
२८७ अहेवाते ५४७ आगामिपहं ११६ | आतभर
३२७ अहेसत्तमा
६४८ आगासपतिट्टिते १७१,१९२, | आततिगिच्छते अहोधिते
७१०
२८६,४९८,६०० | आतपतिहिते अहोरत्त १०६, १९७ आगासत्थिकाय २५२,४४१, आतरक्खा अहोलोग १६१,२७३
४५०,५६७ आतवा
१०६ आइच्चा
६२५ | आगासत्थिगातमज्झपतेसा ६२६ आतवेतावच्चकर ३१९ आइन्न ३२८ आगासे
४९ आतसंचेयणिज्जा ३६१ आइमिउ
| आघवइत्ता
१४३ आयसरीरसंवेगणी आउ (काइय) ३१६,३१९, आघवेति
७५० आताण(भंडमत्त३३१ आचारसंपता
६०१ णिक्खेवणासमिती) आउक्खएणं ५९७ आजाइट्ठाणं ७५५ आताणुकंपते
३५२ आउज्जसद्दे ७३ आजाती ५९७ आताते
१८० आउते
४०७ आतावणताते आउत्तं ५८५ आडंबर ५५३ आतावते
३९६ आउपरिणाम ६८६ आढाति १८३, ३२३ आतावी
३२१ आउयं २६८, ५६६, ५९६ आणंतरिते
४६२ आताहिणपयाहिणं ७७६ आउयबंध ५३६ आणंद ४०४, ५८२, ७५५ आतिक्खंति
१७५ आउरे ३४२, ७३२ आणंदणे
५९० आतिक्खिते
६७८ आउव्वेद आणंदा ३०७, ६४३ आतिन्नत्ताते
३२८ आउसं
आणय १५९ आती
७१७ आउसोते आणवणिता ५०, ४१९ आतोवक्कम
१९४ आऊ
आणा ३९९, ४२१, ४३९ आदाणभते आकंपइत्ता
७३२ आणापाणू १०६, १९७, ५६१ आदिच्च । ४६०, ६८४ आगंता १६८ | आणारूई २४७, ७५१ आदिच्चजस
६१७
२८२
३३४. ३३१
७११
२९४ आजीवे
१८८
५९०
५४९
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
१८८
३१९
६९३ आमासन
३०१
५१५
१८०
९५
५४ १३२
२८२
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः |विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः आदिच्चतेयतविता ४६० आमरणंतदोस २४७ |
| आयामते आदियंति ४२३ आमलगमहुर
३१९ आयाम-विक्खंभआदी ४६९ आमलगमहुरफलसमाण
संठाण-परिणाह ८० आदेजवतणपच्चायाते ५९७ आमलत
७५५ | | आयार
४३२, ७५० आदेससव्वते २९७ आमिसावत्त ३८५ आयारकप्प
४३३ आघवतित्ता
३४४ आसामिवत्तसमाण ३८५ आयारक्खेवणी २८२ आधाकम्मिए
आयारगोयरं
६४९ आधारकालभावे ६०९ आयंतकर
२८७ | आयारदसा
७५५ आधारातिणियाते ३९९ | आयंदम
२८७ आयारवं
६०४, ७३२ आधिकरणिया ५० आयंबिलिते ३९६ आयास
४७८ आपुच्छणा ७४९ आयंसमुहदीव
आर आपुच्छियचारी ३९९, ५४४ आयरक्खा
आरंभ आभंकरा
आयपतिट्टित १११, १९२ | आरंभकरण आभरण ३३८ | आयभाववंकणता
आरंभकहा आभरणविही ६७३ | आयममाणी ४१६ | आरंभट्ठाण
६९३ आभरणालंकार ३७४ आयरिए १८३, ३२०, ३२३ आरंभता
५५३ आभासितदीव
३०१ आयरियउवज्झाय ३५४,३९९, | आरंभिता ५०,३६९,४१९ आभासिता
३०१
४२६,४३८,४३९, आरण आभिओग
३५४
५०१,५४४,५९७ | आरभडा ३७४, ५०३ आभिओग्गत्ताते ३५४ आयरियत्ताते
१८० आराम
१०६ आभिणिबोधियणाण ५४, आयरियपडिणीते २०८ आरामगत
४१५ ४६४, ५२५ आयरियपडिणीय ६६१ आराहणा ११८, ५९७ आभिणिबोधियणाणी ४८३,६४६ | आयरियभासित
आराहते
३२१ आभिणिबोहियआयरियविप्पडिवत्ती ७५५ आराहिया
५४५ णाणावरणिज्ज ४६४ | आयरियवेयावच्च ३९७, ७१२ | आरिए
१८४, ४८५ आभोगणिव्वत्तिते २४९ आयसरीरअणव
आरिट्ठा
५५१ आभोगबउसे ४४५ | | कंखवत्तिया ५० आरिय
१४३ आम २५३ आया २, १७६ | आरुहमाण
४३७ आमंतणी ६०९ आयाणभंड(मत्त
आरोग्ग
७३७ आममहुर २५३ | निक्खेवणासमिती) ६०३ आरोवणा
४३३ आममहुरफलसमाण २५३ आयाती
७९, १६९ | आरोवणापायच्छित्त २६३
१५९
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८५
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः आलंबणा
२४७ आसक्खंधगसरिस ८५ | आहार ७९, १७१, १८५, आलवमाण २९० | आसगंसि
१८८ २९५, ३४०, ४९९, आलाव ५८४ आसपुरा १००, ६३७
५६१, ६२३ आलिसंदगसतीण ४५९ आसम
आहारए
३३२ आलोइत्तए आसमित्त
आहारग
६९ आलोएजा १७६,५९७ आसमुहदीव
३०१ आहारगसमुग्घात
५८६ आलोचितपडिक्कते ५९७ आसरतण
५५८ आहारगसरीरी
४८३ आलोतेति ३९८ आसराता
४०४ आहारवं ६०४, ७३२ आलोतेत्ता ३९८ आसराया
४०४ | आहारसण्णा ३५६, ७५२ आलोयणादोसा ७३२ आसव ९, ४९, ६६५ आहारहेउं
३६१ आलोयणारिह १९८, ६८८, आसवदार
४१८ | आहारेजमाण
७०७ ४८९,६०५,७३३ आसवदारपडिक्कमण ४६६ आहारेति
७१ आवकधाते ३१४ आससप्पओग
७५९ आहारेयव्व आवकहिते ५३८ आसा ६४३ आहिवच्च
६७३ आवजति ३९० | आसाएमाण
३२५ | आहुणिया आवती ७३२ आसाएति ३२५ इंगाल
४४४ आवत्त १००, २५७, आसाढ
५८७ | इंगालग
९५, २७३ आसाढपाडिवत
| इंगालसहस्स
५९७ आवरण आसाढा ९५,३८६,४११ इंगालोवम
३४० आवरित्ता
आसातणा ६९३,७५५ इंद ९५, ३९३, ७२० आवलिया
५५० | इंदग्गी
९५ आवस्सअ आसासणा
| इंदट्ठाण ४७१, ५३५ आवस्सयवतिरित्ते
आसासा
३१४ इंदमहपाडिवत २८५ आवस्सिता ७४९ आसिणि ४११ इंदसेणा
४६९ आवातभद्दते
२५६ आसीविस १००,२९९,३४१, इंदा ९५, ४६९, ५०७, आवावकहा
४३४, ६३७
५०८, ७१७ आवासपव्वता
३०२ आसुर ३५३, ३५४ इंदियअपडिसलीण २७८ आवीकम्म ६९३ आसुरत्ताते
३५४ | इंदियत्थ ३३४, ४४३, आवेढियपरिवेढियं ७५० आहरण
३३५
४८६, ७०६ आस ६७३ आहरणतद्देसे
३३५ इंदियत्थविकोवणता ६६७ आसकन्नदीव ३०१ आहरणतद्दोस ३३५ | इंदियनिग्गह
४५५
९५
२८५
१९७ आसादेत्ता
९५
२८२
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
सूत्राङ्का:
७२०
६४८ ३३०, ६४८ ३६४, ५२०
२८४ ३४४
उंछ
५५१
Mur
४३७ ४३
४३
विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः इंदियपडिसंलीण २७८ इयण्हिं १८३, ३२३ ईसाणीता इंदियपरिणाम ७१३ | इरियट्ठाए
५०० | ईसि इक्खाग ४९७ | इरियावहिया
ईसिपब्भारा इक्खागराया ५६४ इरियासमिए
| ईहामती इच्छा
४३८, ७४९ इरियासमिती ४५७, ६०३ इच्छापरिमाण ३८९ इलादेवी
उंछजीविसंपन्न इच्छालोभित ५२९ इसि
| उजायणा इट्टावाते ५९७ इसिदासे
७५५ उंबर ७५, ५९७ | इसिभासिता ५५३ उक्कलिते इड्डि
१४१ इसिभासियाई ७५५ उक्कस्सगुणकालग इड्डि-रस-सायगरुएणं १८४ | इसिपब्भारा
१५६ उक्कसमाणिं २१४, ४७९ इसिवाइंदा
१०५ | उक्कस्सट्ठितियाणं इड्ढीगारव २१५ इसिवालए
१०५ | उक्कसपतेसियाणं इड्ढीमंता ४४०, ४९१ इस्सरितमत ६०६, ७१० उक्कस्सोगाहणगाणं इत्तिरिते ५३८ इस्सरे
१०५ | उक्कामुह इत्थि ५५३ इहत्थ
३२७ | उक्कामुहदीव इत्थिकहा २८२, २८४, ५६९ इहलोइए
१९१ उक्कावात इत्थिग(ठा)णाई ६६३ इहलोग
२८२ | उक्कासहस्स इत्थिणिव्वत्तिते २३३ इहलोगपडिणीए २०८ उक्खित्तए इत्थित्ताते
३७७ इहलोगपडिबद्धा १६५, उक्खित्तचरते इत्थिरतण ५५८
१८४, ३५५ उक्कुडुआसणिते इत्थिवयण १९८ इहलोगभते
५४९ / उक्कुडुती इत्थिवेद
७०० इहलोगसंवेगणी २८२ उक्कोसा इत्थिवेयग
३६५ इहलोगासंसप्पओगे ७५९ उक्कोसिया इत्थिसंसत्त इहलोगित-परलोगिते
| उग्गतव इत्थी १३९, १७०, २८९ ईरियावहिया
४१९ उग्गमविसोधी इत्थीओयसमाओग
ईसरे
३०२ | उग्गमोवघात इत्थीतित्थं
ईसा
१६२ इत्थीरयण
ईसाण १०५, २५७, २६०, उग्गहपडिमा इब्भ
२७३, २९१, ३०७, उग्गहमती इब्भजातिओ
४९७ | ४०५, ४०४, ६८२, ७६९ उग्गहिते
६३१
३०१
७१४ ५९७ ३७४
३९६
३९६, ५५४
४००
१८०
२३०
३०९
४२५, ७३८ १९८, ४२५,
७३८
५४५ ३६४, ५२० १८८, ६९३
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
उच्च
१५७ ३११
१६
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः उग्गा १३७, ४९७ उड्डलोग ७०, १६१, उत्ताणोदए
३५८ उग्घातिते ४३३, ७५०
३३१,३३८,४४४ उत्ताणोदही
३५८ ३१८ उड्डलोगवत्थव्वाओ ६४३ उत्ताणोभासी
३५८ उच्चछंद ३१८ उड्ढा
१७१, ४९९ उत्तालं उच्चत्तभयते २७१ उड्डेवाते ५४७ उदकगब्भा
३७६ उच्छन्नगोत्तागार ३९४ उड्डोववन्नगा
| उदगंसि
४३७ उच्छन्नसामियाई ३९४ | उण्णिए
४४६ उदगजोणिया
१८२ उच्छन्नसेउयाई ३९४ उत्तमपुरिसा
| उदगपोग्गलं
१८२ उच्चागोत ११६, | उत्तमा
उदगमाले
७२१ उच्चार ३१४ | उत्तरकुर
६८९ उदगरस उच्चारनिरोध
६६७ उत्तरकुरमहद्दुमवासी १०० उदगरातिसमाण उच्चारपडिक्कमण ५३८ उत्तरकुरमहद्दुमा १०० उदगराती उच्चारपासवण ४३८ उत्तरकुरा ९४, १०३, १९९, उदगा
३११, ३५८ उच्चारपासवणखेल२९९, ३०७, ५२२, उदग्गधीरो
२८१ सिंघाणगपरिट्ठावणिया
७२४, ७६४ उदतणसत्ते (ता)समिती ६०३,७११ उत्तरकुरु २९९, ५९० उदत्ताभा
५५१ उच्चावतं ३२५ | उत्तरकुरुदह
४३४ उदधिपतिट्ठिता १७१,२८६,४९८ उज्जलं
६९३ उत्तरदारिता ५८९ उदधी
२८६ उज्जाणगत उत्तरबलितस्सतगण ६८० | उदये
६९२ उजाणगिहा १०६ उत्तरमंदा ५५३ उदहिकुमारिंदा
१०५ उज्जाणा १०६ उत्तरा ३८६, ५५३ उदही
१०६ उज्जुआयता ५८१ उत्तरा आसाढा ५१७, ५८९ उदातिणा
६९१ उज्जुमति
६० उत्तरा फग्गुणी १२१,५१७,५८९ उदितत्थमिते ३१५ उज्जुसुत्त(त) | उत्तरा भद्दवता १२१,५१७,५८९ उदितोदिते
३१५ उज्जू २८९ | उत्तरायता ५५३ उदिन्न
४०९ उज्जोवेमाण ५९७ उत्तराससा ५५३ उदिन्नकम्मे
४०९ ४४६ उत्तरिते
७१० | उदीणवाते
४४४, ५४७ उद्वेत्ता १८० उत्तरित्तए
४१२ | उदीणा उडुविमाण ३३० उत्तरिल्ल ३०७, ४०४ उदीर
२३३, ३८७, उडू ५२३ उत्ताणहिदए
३५८
४७३, ५४०, उड्ढगारवपरिणाम ६८६ उत्ताणे
३५८
५९६, ७८३
४५२
उट्टिते
४९९
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
१७
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः उदीरणोवक्कम २९६ उप्पन्नमीसते
७४१ उरगजातिआसीविस ३४१ उदीरिंसु
२५० उप्पन्नविगतमीसते ७४१ उरपरिसप्पथलचरपंचेंदित(य)उदीरित्तते
५२७ उप्पल १०६, २७३ | तिरिक्खजोणिता ७२८, ७८२ उदीरेंतं ५४२ उप्पलंगा १०६ उरपरिसप्पा
१३८ उदीरेति २५६ | उप्पा
१४ उराल
२००, ३२५, उदुंबरे ७५५ | उप्पाछेदणे
४६२
३३१, ७५० उदू १०६ उप्पात ६०८, ६७८ उरूहिं
४६१ उद्दड्डे ५२५ उप्पातपव्वते ७२७ उल्लंघण
५८५ उद्दवातितगण ६८० उप्पायणंतरिते
उल्लावे
५८४ उद्दवेइ ४०९ उप्पायणविसोधी ४२५, ७३८ | उल्लुगातीर
५८७ उद्दाइत्ता
७०४ | उप्पायणोवघात १९८, उवओगा परिणाम] ७१३ उद्दायण ६२२ ४२५, ७३८ | उवओगगुण
४४१ उद्दिट्ठाओ ४१२ उप्पायपुव्व ३७८, ७३१ उवकरण
५४४ उद्देसणंतेवासी ३२० उप्फेसिं
४०८ उवकरणअकिंचणता ३१० उद्देसणायरिए
३२० उब्भिगा ५४३, ५९५ उवकरणचियात ३१० उद्देसिते ६९३ उभयंभागा
| उवकरणदुप्पणिहाण उद्देहगण ६८० उम्मग्गदेसणाए
| उवकरणपणिधाण उन्नतपरिणते उम्मग्गसण्णा
| उवकरणसंजम
३१० उन्नतमणे २३६ उम्मज्जणिमज्जियं २०० | उवकरणसंवर
७०९ उन्नतरूवे २३६ उम्मत्तगभूते
| उवकरणातिसेसे
५७० उन्नतावत्ते
३८५ | उम्मत्तजला १००, १९९ उवकरणामोयरिया १८८ उम्मत्तयला
| उवक्कम
१९४, २९६ उन्नतावत्तसमाणे ३८५ उम्माए
| उवक्कमिता
१०७ उप्पतति ७७६ | उम्माणा
| उवक्खडसंपन्न २९५ उप्पत्तिता ३६४ उम्मातपत्त
४७६ | उवक्खरसंपन्न २९५ उप्पत्तिनगरा ५८७ / उम्माय
१८८, ५०१ | उवगरणसुप्पणिहाण २५५ उप्पत्ती ६७३ उम्मायपत्त ४१७, ४३७ उवग्गहठ्ठताते
४६७ उप्पधजाती
३१९ उम्मिमालिणी १००,१९९,५२२ | उवघात ४२५, ७३८, ७४१ उप्पन्ननाणदसणधर २१२, उम्मीवीचीसहस्सकलित ७५० | उवचिण २३३, ३८७, ४७३, २६८, ४५०, उर
४६१, ५५३ ५४०, ५९६, ७०२,७८३ ४७८,६१०,७५४ उरकंठसिरपसत्थ ५५३ | उवचिणंति २५०, ३८७
५२७ ३५४
२५५ २५५
२३६
उन्नते
१०६
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
१८५
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः उवचिणिंसु २५०,३८७, उववात १७६, ५९७, ७५५ उवाते
३३५ ५९६ उववातसभा
४७१ | उवालंभ १९४, ३३५ उवचिणिस्संति २५०, ३८७ उववातिता
५९५ उवासंतरा १०६, ५४६ उवज्झाए १८३, ३२३ उवसंकमंति
१७४ | उवासगदसाओ
७५५ उवज्झातविप्पडिवत्ती ७५५
उवसंकमित्ता १७४ उवासगपडिमा
७५५ उवज्झायत्ताते १८० उवसंतकसायवीयरागसंजमे ६२ उवासमाणा
४७७ उवज्झायपडिणीत २०८, ६६१ | उवसंते
२४९ उवुज्झमाणिं उवज्झायवेयावच्च ३९७, ७१२ उवसंपज्जामितेगा २८८ उवेहमाणा
४७७ उवट्ठावणंतेवासी ३२० | उवसंपता
७४९ उव्वट्टणा
७९ उवट्ठावणायरित ३२० उवसंपदा
१८० उव्वेग उवट्ठावित्तए ६६, २०४ उवसग्ग ३६१, ५००, ७७७ उव्वेयणिताते
१८५ उवणीतं ५५३ | उवसग्गपत्त
उसभ
४३५, ६९७ उवतेसण ६०९ उवसमिते ५३७ उसभकड
६३९ उवदंसणकूड ८७,१००,५२२ उवसमेण
१०९ | उसभणारायसंघयण ४९४ उवदंसणे ६८९ | उवसामणताते ६४९ उसभपुर
५८७ उवदंसेति ७५० | उवसामणोवक्कम
२९६ उसभा उवधारणयाते ६४९ उवसामेति
२५६ उसभाणिए उवधी
उवस्सग
४३८ उसभाणिताधिपती ४०४ उवनिमंते ५९७ उवस्सय १९६, ४१७ उसप्पिणी
४९२ उवनिहिते ३९६ | उवस्सयपरिन्ना
४२०
५९९, ७५३ उवन्नासोवणते उवस्सयसंकिलेस ७३९ उसिणा
१४८, ३७६ उवमा | उवहडे
१५५ उवरिं ७२९ उवहरिंसु
७०८ | उसुगारपव्वता १०० उवरिमगेवेज्जविमाणपत्थडे २३२ उवहाणपडिमा ७७,
४३४ उवरिममज्झिमगेवेज- . उवहाणवं
२३५ उस्सक्कइत्ता
५१२ विमाणपत्थडे उवहाणसुयं
६६२ | उस्सप्पिणी ४०,१०६,१४५, उरिमहेट्ठिमगेवेज
| उवहि २४९
४९३, ६२० विमाणपत्थडे
२३२ | उवहिअसंकिलेस ७३९ उस्ससिज्जमाण उवरिल्ला ३८३ उवहिपरिन्ना ४२० उस्सा
३७६ उववज्जति १४८, १८२ | उवहिसंकिलेस
७३९ उस्सासगा उववात १८,७९,१६९. उवतिणित्तते
१९६ उस्सासा
२८१
४०४
१४६
उसिण
३३५
७५५
१८८ | उसिणवयणा
२८
उसुयारा
७०७
६९
५५३
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
।
| एगरायं
४३८
१९८ एवंभूत
४३,
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः उस्सेतिम
१८८ एगदिसिं ऊऊ
४६० एगदुक्खे ऊणाइरित्तमिच्छा
एगदुवारा दसणवत्तिया
एगनासा उसासनीसासे
७५५ एगपदेसोगाढा एइए
२०० एगरातियं एकल्लविहारपडिम २१० एक्कतीस
३०७ एगल्लविहारपडिमं एक्कपरंपरसिद्धकेवलणाण
एगवती एक्कसिद्ध
एगवयण एक्का
एगसमएणं एक्काणंतरसिद्धकेवलणाण
एगसमय एक्कारसमे
एगसमयट्ठितिया एगजीव
एगसेल एगंतसो
एगाणुप्पेहा एगखुरा
एगावाती एगगुणकालगा
एगाहियप्परूढा एगगुणलुक्खा
एगिदितनिव्वत्तिते एगचक्खू
एगिदियरतणा एगजडी
एगिदिया एगजुगे
| एगूरुता एगट्टिते
७४४
| एगूरुयदीव एगट्ठियाणुओग ७२६
एगेंदितअसंजम एगतओ
४१७ एगेंदितसंजम एगतारे
४७ एजमाणंसि एगतो खहा
एणिज्जते एगतोणंत
७३० एगतोणंतते
४६३ एरंडपरियाए एगतोवंका
५८१ एरंडपरियाल एगत्तवितक्के
२४७ एरंडमज्झयार ७४४ एरंडे
३२५, ४०९
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः ५४२ एरण्णवए
१९९ २८ | एरवत ९९, १००, १८९,
१९९, ४३४, ५२२, ६४३
५५५, ६८९, ७२४ ४३, ४८ एरवय
३०६ १८८ एरावण
४०४ एरावणदह
४३४ ५४२, ५९४ एरावती
४१२, ४६९ ७१७ एलावच्चा
५५१
५५२ ४७९ | एसज्जं
५५३ | एसणाविसोधी
४२५ | एसणासमिती
६०३, ७११ १००, २९९, | एसणिज्ज
२८४ ४३४, ६३७
एसणोवघात १९८, ४२५ ओगाढं
५५९, ७६५ ओगाढरुई ओगाहणा
२७६ ओगाहणाणामनिधत्ताउते ५३६ ओगिण्हणताते
६४९ ओगिण्हति ओतरणं
७७७ ओदतिते
५३७ ओभासइ ओभासा ओमकोट्ठताते
३५६ ओमरत्ता
५२४ ओमरातिणिते
३२१ ओमाणा
१०६ ओमोदरिता
५११ ३४९ ओमोयरिया
१८८
२४७
१८८
९५
५८१
एतंतं
एगत्ते
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
विशिष्टशब्दाः ओय
६३७,
६८९
४६७
कंत
२७०
२४३
सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः
३७७ ओहिनाणअरहा ओरसे
७६२ ओहिनाणकेवली ओराल
४४४ ककोवम ओरालिए २०७, ३३
कंखित ओरालिगे
६५ कंगु ओरालिते
७१४ कंचण ओरालियसरीरी ४८३ कंठुग्गत ओरोहमाणे
४३७ कंडओ ओलित्ताणं
१५४ कंडिल्ला ओवम्म
३३६ कंडु ओवम्मसच्च
कड ओववातिते
७६२ ओवातपव्वज्जा १६५, ३५५ कतार ओवासंतर
६२५ कतारभत्त ओवासंतरपइट्ठिता १८६ कंथगा ओवीलए
६०४ कंद ओसक्कतित्ता
कदणता ओसण्णदोस
२४७ | कंदभोयण ओसधाई
३४२ कंदिंदा ओसधीओ
कंबलं ओसप्पिणी ४०, १०६, १४५, | कंबलकडसमाण
१९७, ४९२ कंबलकड
४९३, ६२० कंपिल्लं ओहसण्णा
७५२ कंस ओहातेजा
४३७ कंसपाती ओहिणाण १८८, ४६४, | कंसवन्ना ओहिणाणजिण
कंसवन्नाभा ओहिदसण
कक्कंधा ओहिदसणावरण ६६८ कक्करणता ओहिदसणी
३६५ कक्कसेण ओहिनाणं
५४ कक्कोडए
सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः २२० कक्खड
३८, ५९९ २२० कच्चातणा
५५१ ३४० | कच्छ
१००, ५८३, ३२५ ५७२ कच्छगावती
६३७ ५९०, ६४३ कच्छावती कज्जति
१७५ ६५४ | कज्जमाणकड
१७५ ५५१ कज्जहेर्ड ३७०, ५८५ ७५३ कजोवगा
९५ ७७८ कट्ट ७५, ५९७ | कटुंतर १४३ कट्ठेतरसमाण
२७० ६९३ कट्ठक्खात
३२८ | कट्ठक्खायसमाण २४३ ६१४, ७७३ कट्ठसिला कट्ठसेज्जा -
६९३
६९३ १०५ कडकतुडितथंभितभुते ५९७ ४०९ कडजुम्म
३१६ ३५० कडा
१७५, ३५० ३५० कडुए
३८ | कडुतो ६९३ कडुयभासिणी
३६० | कणकणगा कणग
९५, २७३,
६८९, ६९३ ९५ | कणगमया १८८ कणगरहं ७६७ कणगलता ३०२ कणगविताणगा
१९६
| कडं
४६०
६७३
६२७ २७३
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशिष्टशब्दा:
संताणगा
कणते
कणा
कणिताररुक्ख
कण्ह
कहग्गमहि
७३६ कप्परुक्खा ६२८ | कत्तियाणक्खत्ते ६२८ कत्थ ४१, ६९ कप्पविमाणावासा ३०७, ६१२, ६२४ कप्पविमाणोववत्तिया कलेसा ४१, १४०, ३१९, कप्पा
कहती
पक्खिया
कण्हा
कतं
तपडिक तता
कतमालगा
कताती
कतिणो
कतियपाडिवत
कतिसंचिता
कतिसमता
कद्दमरागरत्तवत्थसमाण
कमोद
मोद
प्रथमं परिशिष्टम् ।
कंदर
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा:
९५ कन्नपाउरणदीव
६४३ कप्पट्ठिती
९५ कप्परुक्खगं
कती
२९७ कम्मए
कत्तवीर
६१७
कत्तिता
कत्तिताणखत् कत्तिते
५१७, ६५६ कम्मक्खयकरण ५३९ कम्मगसरीर
७५५ कम्मपगडी
कत्तिय ९५, ३०३, ४११ कम्मपतिट्ठिता
कद्दमरागरत्त
२९३ कम्मपरिग्गहे...
२९३ कम्मपुरिसा..
३११ कम्मभूमगा...
३११ कम्मभूमया... ३९४ | कम्मभूमियाओ...
५०४, ५६२
३०७, ६१२, कप्पित्थियाओ
६९२, ७३५ कप्पोववन्नगा
७४५ कब्बड
३७०, ५८५ कब्बडगा
६३९ | कब्बालभयते
६९३ कति
५५३ कमलप्पभा
२८५ कमला
१२९ कम्म
५५३ कम्मंसा
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा:
३०१ कम्मभूमी
२०६, ५३० कम्मया
१८५ कम्मविवाग
५५६ | कम्मविवागदसाओ ७८० कम्मसंगहिता
३७९, ६९३ कम्मा
१०६ कम्माजीवे
११८ | कम्मुम्मीसगा
१०६, ३८३, कम्मे
७४७ कम्मोही
१२४ कयमालए ६७ कयाति
१०६, ३९४ करंडगा
९५ करकरगा
२७१ करण
७७६ |करणताते
२७३ |करणाणुओग २७३ करणे
३६२ करपत्त
२२६, २६८ करिंसु
६५, २०७, करिस्सामि
३३२ करेमि
३२५ | कल
३९५, ४८३ | कलंदा २५०,५९६ कलंब
४९८, ६०० कलंबचीरितापत्तसमाण
१४६ कलमलजंबाला १३७ | कलहप्पिया
४९० कला
१३९ कलासवन्न
१३९ कलाहिया
२१
सूत्राङ्काः
१८९
३६४
७५५
७५५
६००
२८२
४०७
३३२
७५५
१४६
८६
४४१
३४८
९५
६०९
४७९
७२६
१३२, २१६
३५०
५९७
१७६, ५९७
१७६, ५९७
४५९
४९७
६५४
३५०
१८५
५५३
६७८
७४७
५५३
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
४०२
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्का: | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः कलिओए
३१६ काकणिरतण ५५८, ६३३ | कायपओग कलुणा ३५७ काकणी
७०५ | कायपओगकिरिया कलुसमय ३६० काकस्सरं
५५३ कायपडिसलीण २७८ कलुससमावन्न ३२५ काण
५५३ कायपणिधाण १४७, २५५ कलेवरा ३९५ कातित
४१९, ६७९ कायपरितारणा कल्लसरीर १८४, ३२५ काम
७३७ | कायपरियारगा
१२४ कल्लाण १३३, १८३, ३२५ कामकमे
६४४ कायपुण्ण
६७६ कल्लाणगपवरगंधकामकहा
कायवायामे मल्लाणुलेवणधरे ५९७ | कामगुणा
६९३ | कायविणए
५८५ कल्लाणगपवरवत्थपरिहिते ५९७ | कामदेव
| कायस
२१० कवाडं
६५२ कामभोग १८३, ३२३ कायसंकिलेस ७३९ कवेलुतावाते ५९७ | कामविणिच्छते १९४ कायसंजम
३१० कव्व ३७९, ६७३ कामा
३५७ कायसंवर
५९८ कसाए ३८ कामासंसप्पओगे ३५४, ७५९ | कायसमिती
६०३ कसाय
११२ कामिड्डितगण ६८० कायसुप्पणिहाण १४७ कसायकुसीले १६६ | कामे
१९१ कारण
७४४ कसायपडिक्कमण ४६६ काय
७४३ | काल १०५, १९७, २५७, कसायपमात ५०२ कायअकिंचणता
३१०
२६४, २७३, ३०२, कसायपरिणाम ७१३ कायअगुत्ती
१३४
३१५,४५१,६७३,६९३ कसायपरिन्ना ४२० कायअणुज्जुयता २५४ कालओ
४४१ कसायसंकिलेस ७३९ कायअसंवर ५९८ | कालगत
४७७ कसायसमुग्घात ३८०, ५८६ कायकरणे
१३२ कालण्णाण कसाया
२४९, ६९३ कायकिलेस __५११, ५५४ | कालधम्मुणा १८३, ३२३ कसिणा ४३३ कायगुत्ती
१३४ कालपाल कसिणे
४११, ७५५ कायचिगिच्छा ६११ काल(वाल ?)प्पभे ७२७ १९४, २८२ कायचियात
३१० कालप्पमाण
२५८ काइया
कायजोगी ३६५ कालमासे
१४३, १५८, काउज्जुयया २५४ कायजोगे
१३२
५९७, ६९३ काउलेसा ४१, १४०, ३१९ कायट्टिती
७९ कालवाल
२७३ ११२ कायदंड
१३४ कालवासी काक
९५ कायदुप्पणिहाण १४७ | कालसंजोग ७९,१७१,४९९
६७३
२५७
कहा
काए
३४६
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
५६४
६३२
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः कालससार २६१ कित्तीपुरिस ६७२ कुड्डा
७२१ काला
९५ | किन्नर ७२, १०५, २७३, कुणालाधिपती कालिते ४०४, ५८२, ६५४ कुणिमाहार
३७३ काली ४०३, ५५३ किमिरागरत्त
२९३ कुभंडिंदा
१०५ कालुणिते ७४५ किमिरागरत्तवत्थसमाण २९३ कुमारभिच्च
६११ कालोगाहणा २७६ | किरितावरण ५४२ कुमारवासं
४७० कालोत
| किरिया ___४, १७५, कुमुद १००, ३०७, ६४१ कालोद १५७, ५८०
३६९, ७५१ कुम्म
६९३ कालोभासे ६९३ किरियावरण ५४२ कुम्मुन्नता
१४८ कासवा ५५१ किरियावादी ३४५ कुरातो
७६४ कासा
किवणकुल ५९७ | कुरुराया
५६४ कासिवद्धण ६२२ किविणवणीमते ४५४ कुरुवासिणो
४९१ कासीराया ५६४ | किस, २८३ कुल
३९८ काही ७४५ किससरीर
२८३ | कुलकर ५१८, ६९३, ६९६ किंकसेविल्लते
| किसी ३५५ कुलकहा
२८२ किंनरिंद १०५, २७३ कीते
६९३ कुलगरा
७६७ किंपुरिस ७२, १०५, २७३, कीवे
२०४ कुलत्थ
४५९ ४०४, ५८२, ६५४ कुंजर
६९३ कुलथेरा
७६१ किंपुरिसरनो कंजराणिताधिपती ४०४
७६० किंपुरिसिंद १०५, २७३ कुंजराणिते ४०४, ५८२ | कुलपडिणीते
२०८ किमंग
३२५ | कुडकोलिते ३२५ | कुंडकोलिते ७५५ कुलपडिणीयं
६६१ किंमन्ने ___३२५ कुंडलवर २०५, ७२५ कुलमए
७१० किंसुकफुल्लसमाणाणि ५९७ कुंडला
१००, ६३७ | कुलमत
६०६ किड्डा
७७२ कुंथु २३१,४११,७१८ कुलवेयावच्च ३९७, ७१२ किण्हा ३८,३९०,४६९,७१७
३९४ कुलसंपन्न २८१, ३१९, कितिकम्मं ३९९, ४३९ कुंभग्गसो
३२८, ६०४, ७३२ कित्ति ५२२ कुंभा ३६० कुलाजीवे
४०७ कित्तिता ३९६, ५८९ कुंभारावाते
५९७ | कुलारिता
४९७ कित्तिवन्नसद्दसिलोगा ७५० कुंभिका
३०७ कुलिंगाले
२४० कित्ती ८८, १७६, कुक्कुड
५५३ कुसील
४४५ १९९, ५९७, ६८९ कुच्छिंसि
६९३ | कुसीलपडिसेवणया ३६१
७५५
कुलधम्म
६९३
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
५५३
४३५
५५१
केउत केऊ केतणा
३७१
केतू
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः |विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः कुसुभ ५७२ केवलिखीणकसाय
कोधुप्पत्ती २४९, ७०८ कुसुमसंभव ५५३ वीयरागसंजम ६२ कोमलपसिण
७५५ कुसुमितं ७५० | केवलिपन्नत्त १८८,४८५,७५० | | कोरवा
२४२ कूअणता १८८ केवलिपरियागं ६९३ | कोरव्वा
४९७ कूडतुलकूडमाण ३७३ केवलिमरण
४१० कोरव्वी कूडसामली ८२, ९९, १०३, केवलिसमुग्घात ५८६, ६५२ कोलपाल
२५७ ६३५, ७६४ केवली २२०,४४५,४५० कोसंबि
७१८ कूडा
१०६ केस-मंसु-रोम-नहे २०९ |कोसकोट्ठागारकहा २८२ कूडागार १०६, २७५ केसरिदह ८८,१९९,५२२ कोसलिए कूडागारसाला २७५ केसलोए ६९३ कोसलितेणं
६९७ ३०२ केसालंकार
३७४ कोसिता ६१३ केसी
५५३ कोसी
४६९, ७१७ २९३ कोउयकरण ३५४ | कोहकसाए
२४९ केतुमती २७३ कोंच
५५३ कोहनिव्वत्तिए ४८१ कोकुतिते . ५२९ कोहमुंड ४४३, ७४६ केलास ३०२ कोच्छा ५५१ | खंजणरागरत्त
२९३ केवलकप्प
| कोट्ठाउत्ताणं १५४,४५९,५७२ | खंजणरागरत्तवत्थसमाण २९३ केवलणाण १८८, ४६४ कोडितगण
६८० खंजणोदए
३११ केवलणाणजिण २२० कोडिन्ना
५५१ खंजणोदगसमाण ३११ केवलणाणावरणिज्जे ४६४ कोडीणो
५५१ | खंडग
६८९ केवलणाणी ४८३ कोडीसहितं
७४८ खंडगपवातगुहा ६३६, ६३९ केवलदंसण ५६५, ६१९ कोडंबित
६९३ | खंडगप्पवायगुहा केवलदसणावरण ६६८ कोडंबी
१५८ खंडमहुर
३१९ केवलदसणी ३६५ कोदूसग
५७२ खंडमहुरफलसमाण ३१९ केवलनाण ५४ कोद्दव ५७२ | खंतिखमणताते
७५८ केवलनाणअरहा २२० कोध
३७०, ७४१ | खंतिखमाते
१८८ केवलनाणकेवली २२० कोधकसायी
४५८ | खंतिसूर
३१७ केवलनाणी ६४६ कोधपडिसंलीण
२७८ | खंती
२४७, ३७२, ३९६ केवलवरनाणसणे ३९४, ४११ कोधविवेग
___३९ | खते
६०४, ७३२ केवलि ४१० | कोधसण्णा
७५२ खंध केवलिआराहणा ११८ कोधसीलता
३५४ | खंधबीया २४४, ४३१, ४८४
७०, २००
६१४
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
.
२५
विशिष्टशब्दाः
६३७
५८०
खुज्जे
खधार खग्ग खग्गपुराओ खग्गीतो खण खतिते खतेण खतोवसमिते खभातेज्जा खममाण खमाते खमामि खमिस्सति खमेजा खरकंटयसमाण खरावत्तसमाणे खरावते खवेंता खहचरा खहचरी खाडखडे खाणुसमाण खार खारतंते खारातणा खारोदा खारोयाओ खिंखिणीस्सरे खिंसितवयण खिंसित्ता खिजति
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः |विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः ६७३ | | खित्तचित्त ४०९,४१७,४७६ | खेमंधर
७६७ ४०८, ६९३ | खिप्पगती
२५७ | खेमपुरा १०० खीणकसायवीतरागसंजम ६२ | खेमरूव
२८९ खीणमोह
२२६ | खेमा १००, २८९, १०६, ४६० खीर २७४, ६७४ खोडा
५०३ खीरमहुर
| खोतोद
५८० १०९ | खीरवर ५८० | खोभपसिण
७५५ ५३७ खीरोदा ३८४,५२२,५८० | खोमिते
१७८ खीलितासंघयण ४९४ | खोयवर ४०९ ४९५ गंग
५८० खुड्डगपतर
७२० गंगप्पवायहहा ३२५ | खुड्डा
५१३ | गंगा ९१, १९९, ४१२, ६९३ खुड्डिया ७७,२५१,७५५
४६९, ५२२, ४०९ खुद्दपाणा
३५१ खुद्दापाताला ७२१ गंगाकुंड
६३९ ३८५ | खुद्दिमा
५५३ गंगा-सिंधु-रत्ता३८५ खुधं
७५३ | रत्तवतिदेवीणं ५४२ गंडीपदा
३५१ १३९ खुरपत्त ३५० गंता
१६८ १३९ खुलुक
३२८ गंतुं पच्चागता खुलुंकत्ताते ३२८ | गंथिमे
३७४ खेड
३९४ गंध
३८, ५६७, ६१० ७४३ २४९ गंधट्टएणं
१४३ खेत्तइत्तं
४३७ | गंध (परिणाम) २६५, ७१३ खेत्तओ ४४१ गंधमंते
३४०, ४४१ खेत्तते
७६२ गंधमातण ५९०, ७६८ १०० खेत्तप्पमाण
२५८ | गंधमादण
८५, ४३४ ७०५ खेत्तवासी
३४६ | गंधमायण १००, २९९, ५९० ५२७ | खेत्तसंसार
२६१ गंधव्वा
७२, ६५४ १३३ खेत्तोगाहणा
२७६ | गंधव्वाणिताधिपती ५८२ २२६ | खेमंकर ९५, ७६७ | गंधव्वाणिते
५८२
५५३
खुब्भंत
५१५
खेत्त
६११
१९९
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८६
५५३
विशिष्टशब्दाः गंधव्विंद गंधसंपन्न गंधार गंधारगाम गंधारी गंधावई गंधावतिवासी गंधावती गंधिल गंधिलावती
गंधिलावतीकूड
५९०
१८५
गंभीर
गंभीरमालिणी
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचि: सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः १०५, २७३ | गणधर १८३, ३२३, गतिबंधणपरिणाम ३१९ ६१८, ६९३ | गतिरतिया
६७ ५५३ गणपडिणीत २०८, ६६१ गतिसमावनगा ६३, ६७ ५५३ गणवेयावच्चं ३९७, ७१२ गतो ६२८ गणसंगहकर
३१९ गती
१७, ४४२, २९९ गणसंथिति
३१९
४९९, ७४५ १०० गणसोभकर
३१९ गद्दतोय ५७६, ६२५, ६८४ ८४, १०० गणसोहिकर
| गब्भ
४१६ १००, ६८० गणा
| गब्भत्थ १००, ६३७, गणावक्कमणे ४३९, ५४१ गब्भवक्कंतियमणुस्सा ४९० ६८९ गणावच्छेदिए १८३ गब्भवक्कंती
७९ |गणावच्छेतिते ३२३ गब्भवसहीते ८३५ गणिड्डी २१४ गब्भहरणं
७७७ १००, १९९, गणित ४१२, ६७३ गमणं
५८५ ५२२ गणितसुहुम ७१६ गमणगुणे
४४१ ३५८ गणित्ताते १८० गमणताते
४७९ ३५८ गणिपिडग
७५०
३१९, ४१५ ३५८ | गणिसंपता ६०१, ७५५ गयकन्न
३०१ ३५८ गणी १८३, ३२३ गयकन्नदीव
३०१ ६९३ गणो
| गरहा
१३५, २८८ ५५१ गतवीही ६९९ गरहित्तए
६६ ३२३ गतसूमाले
२३५ गरहित्ता १३३, १६८, ३७९ गति
२०८
१६९, ५९७ ७१४ गतिअभाव ३३४ | गरहेज्जा
१७६ १८३, ३२३ गतिणामणिधत्ताउते ५३६ | गरिहा
५१ ३९८, ४३८, गतिकल्लाण
६५३ | गरुते
५९९ ४३९, ४७५ | गतिपडिहा
४०६ गरुला
८२, ९९, ३१९ गतिपवाते
४९९
१०३, ७६४ ४६३, ७३० गतिपरिणाम ६८६, ७१३ गरुलोववाते
७५५ ७६१ गतिपरियाए
७९ | गवेसित्ता
२८४ ७६० गतिपरियाते १७१ | गहणगुणे
४४१
गंभीरहिदए गंभीरोदए गंभीरोदही गंभीरोभासी
गय
गगण
४४७
गग्गा
गच्छ गज्ज गजित गढित गण(वेयावच्च)
गणट्ठकर गणणाणत गणथेर
गणधम्म
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
हागारा
गोतं
४००
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः गहसम ५५३ गीतजसे
७६६ गहा ४०१ गीतजुत्तिण्णा
कन्नदीव
३०१ गातब्भंग ३२५ गीतरति १०५, २७३, गोकन्ना
३०१ गातुच्छोलणा ३२५ ५८२ गोघातगा
५५३ गाम १०६, ३९४, गीयजस १०५, २७३ | गोट्ठामाहिल
५८७ ४१७, ५५३ | गीयरति-गीयजसाणं १६२ | गोण्णं
६९३ गामधम्म ७६० गुण ३७०, ४४१,
२६८, ५६६, गामथेरा ७६१
५५३
५४६, ५९६ गामागर-नगर-पट्टण ६७३ गुणनिप्फण्ण
६९३ | गोतमा
१७४, ५५१ गामाणुगाम
४१३ गुत्तदुवारा २७५, ४१५ | गोतित्थविरहित ७२१ गारत्थियवयण ५२७ गुत्तबंभयारी ६९३ | गोत्तासे
७५५ गारव २१५, ७४५ गुत्ता ।
२७५ गोथूभ
३०२, ३०७ गाहणताते ६४९ गुत्तिंदिता २७५ गोदासगण
६८० गाहावतिकरंडते __ ३४८ गुत्ती
१३४, १४१, गोदोहिता गाहावतिकरंडगसमाणे ३४८
२७५, ४१५ गोधूम
१५४ गाहावतिरतण . ५५८ गुप्पेज्जा
२०० गोपुच्छसंठाणसंठिता
३०७ गाहावती १००, १९९, गुरुं ।
२०८ गोप्पतं
३५९ ४४७, ५२२, ७५५ | गुरुगती
६३० | गोमुत्तिकेतणते
२९३ गिझंति ३९० गुरुमहत्तरतेहिं ६९३ | गोमुत्तिता
५१४ गुलो
६७४ | गोमुहदीव गिद्ध
गुविते २०० गोमुही
५५३ गिद्धपढे ११३ | गूढदंत ३०१, ६९८ | गोयमा
१५४, ४५९, गिम्हे ५२३ गूढदंतदीव
५५१, ५७२ गिरि गूढावत्तसमाणा ३८५ गोयरचरिता
५१४ गिरिपडणे ११३ गूढावत्ते
३८५ | गोरसविगती गिलाणपडिणीए
३७४ गोरी
५५३, ६२८ गिलाणभत्ते
३७९ गोला
३५०, ५५१ ३९७, ७१२ गेलन्नपुट्ठा
४१६ गोलिकातणा
५५१ गिलायंति
१७४ | गेविजविमाणपत्थडा २३२ गोलियालित्था गिलायमाण १८० | गेवेजगविमाणा ७७५ | गोवगं
७५० गीत ५९७ | गेवेजविमाणपत्थडा ६८५ | गोवीही
६९९
गिण्हमाण
४३७
३०१
१८३,
२७४
२०८
६९३
५९७
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
विशिष्टशब्दाः
गोसाल गोहिया घओद घट्टतं घट्टणता घडितव्वं
३८८ चंकारे
घण
घणदंत घणदंतदीव घणवात घणवातपइठ्ठिया घणवातवलएणं घणविजुया घणोदधिपतिट्ठिया घणोदधिवलएणं घणोदधी घतोदे घम्मा
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः ७७६ चउआगइया
३६७ चउवीसादडओ ४१, ५८ ५५३ चउक्क ३९४ | चउसर्व्हि
३०७ ५८० चउगइया
३६७ चउसमयद्वितीया ३८८ ५४२ चउगुणकालगा ३८८ | चउहत्थवित्थार २४६ ३६१ चउगुणलुक्खा
७४४ ६४९ चउचलणपतिट्ठाणा ५५३ | चंडा ७३, ३७४, चउट्ठाणनिव्वत्तिते ३७१, ३८७ चंडाला
५५३ ५९७, ७४७ | चउतारे
१०५, १६२, २७३, ३०१, ६९८ | चउत्थभत्तित १८८ ३०३, ३३८, ४०१, ३०१ चउत्थी
४६०, ६१३, ६४३, २००, ५४६ | चउदंत
६९३, ७५५ १८६ चउदुवारा १८६ | चंदकंता
५५६ २२४ चउदसपुव्विसंपया
चंदगोरा ५०७,५०८ | चउदसपुव्वी
२३० | चंदजसा
५५६ १८६ चउपतिट्टिते २४९ | चंददहे
४३४ २२४ चउपदेसिया
चंदपडिमा
७७ २००, ५४६ चउपदेसोगाढा ३८८ | चंदपन्नती १६०, २७७ ३८४ | चउप्पओआरे २४७ | चंदपव्वता १००, २९९, चउप्पदोयारे २४७
४३४, ६३७ २७४ | चउप्पयथलचरपंचेंदिय- चंदप्पभ २७३, ७३५, ५८० तिरिक्खजोणिताणं ७८२
५२०, ११९ ६७५ चउप्पया
३५१ | चंदभागा ४६९, ७१७ ५२१ चउमासिए ४३३ |चंदसूराणं
७७७ ५२१ चउमुह ३९४ | चंदाणणा
३०७ ३३४ चउरंस ३८, ५४८, ६२४ | चंदाभ
६२५ २४३ | चउरासीति ३०७ चंदोवराते
७१४ ३०९ चउरासीतिवास
चंपगवणं
३०७ ७५० सहस्सद्विती ६९३ | चंपा
६५४, ७१८ १०५, १०६, चउरिंदिया
३१६ चक्कजोही
६७२ २५७, २७३ | चउवण्णा
३७५ | चक्कपुराओ
१०० ५९७ चउवीसा ५९६ चक्करतण
५५८
३८८
५४६ |
घय
घयवर घाणा घाणामतेणं घाणामातो घाणिंदियत्थ घुणा घोरतव घोररूवदित्तधरं घोस
चइत्ता
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
४४५
४४५
(३२
विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः चक्कट्ठपतिट्ठाणा ६७३ चरमसमयसुहुमसंपराय- चरिमतित्थगर चक्कवट्टिवंसा ९३, १५२ | सरागसंजमे ६२ चरिमसमयउवसंतकसायचक्कवट्टिविजया १५०, ६३७ | चरमाण
४४७ | वीतरागसंजम ६२ चक्कवट्टी १२३, १३७, १४८, चरित्त
३५,१८४ चरिमसमयनियंठे | १५२, २३१, २९९, चरित्तअसंकिलेस ७३९ चरिमसमयबादरसंपराय४४०, ४९१, ६३८ | चरित्तकुसील
सरागसंजम चक्कवालविक्खंभ ३०५, ३०७, चरित्तधम्म ६१,७६०,१९४ चरिमसमयबुद्धबोधियछउमत्थ
चरित्तधम्माराहणा ११८ खीणकसायवीयरायचक्कवाला
५८१ चरित्तट्ठताते १७६,४१३,४६७ संजम चक्खुकंता
५५६ चरित्तपडिणीए २०८ | चरिमसमयसजोगिचक्खुदंसण ५६५, ६१९ चरित्तपडिणीयं ६६१ भवत्थकेवलणाणे ६० चक्खुदंसणावरण ६६८ चरित्तपन्नवणा
१९८ | चरिमसमयसयंबुद्धछउमत्थचक्खुदसणी
३६५ | चरित्तपरिणाम ७१३ खीणकसायचक्खुम
५५६ चरित्तपायच्छित्त २०३, २६३ | | वीयरायसंजम ६२ चक्खुमतेणं ६१५ चरित्तपुरिस
१३७ चरिमा ६९, ११२, ७५७ चक्खुमातो चरित्तपुलाते ४४५ चलंतं
५४२ चक्खुलोलुते ५२९ चरित्तबल
७४० चलबहलविसमचम्मो २८१ चक्खू २१२ चरित्तबुद्धा
१६४ | चलसत्ते ३३१, ४५२ चच्चर ३९४ चरित्तबोधी
१६४ चलेजा १४१,१४६,२०० चतियव्वं
चरित्तभेदणी ५६९ चरित्तोवघात
७३८ चमर १०५, १६२, २७३, चरित्तमोहणिज्ज ११६ | चाउक्कालं
२८५ २५७, ४०४, ४०३ चरित्तविणए
५८५ चाउज्जामं २६६, ६९२ चमरचंचाते ५३५ चरित्तलोग
१६१ | चाउद्दसट्टमुद्दिट्टपुन्नमासिणी ३१४ चमरुप्पातो ७७७ चरित्तसंकिलेस १९८, ७३९ चाउम्मासिए
४३३ चम्मकडे
३५० चरित्तसंपन्न ३१९, ६०४ चाउरंत १४४, ७५५ चम्मपक्खी ३५१ चरित्तसम्मे
१९८ चाउरंतचक्कवट्टी २३५, ३१५, चम्मरयण
५५८ चरित्तायारे ७६, ४३२ ४३५, ५१९, ६१७, ५९७ चरित्तातिक्कम १९८
६३३, ६७३ चयणे १८, ७९ चरित्ताराहणा
१९८ | चाउरंतसंसारकतारं ५३ चयंति १४८, १८२, ३२३ | चरित्तिंद
१२७ चाउलधोवण
१८८ चरण ५३ चरित्तिड्डी
२१४ चाउवण्ण ३५४, ४२६, ५०१
६१५
चयं
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०
विशिष्टशब्दा:
चावण्णा
चारद्वितीया
चारणठाण
चारणा
चारत
चारोववन्नगा
चिंधपुर
चिट्ठित्त
चिण
चित्तगुत्ता चित्तरसा
चित्तविचित्तं
चिणंति
चिस्सिंति
चिणिंसु चितमंससोणिययाए चितात
चित्त
चित्तंगा
चित्तकणगा
२५९
चित्तकूड १००, २९९, ४३४, चेत्त
चित्तविचित्तपक्खगं
चित्तसमाधिट्ठाणा
चित्तपक्ख
चित्ता
४९१ चुंचुणा
५५७ |चुलणीपिता
६७ चुल्लसतते
१३७ चुल्लहिमवंत
१६८
२३३, ३८७, चुल्लहिमवंतकूड ४७३, ५४०, ५७६, चुल्लहिमवंता ७०२, ७८३ | चूतवणं
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा:
७५० चियत्तदेहे
६७ | चियत्तोवहिसातिज्जणता
६८० चीवरपडिताते
चित्ताणक्खत्ते
२५०, ३८७ चूलवत्थू
२५०, ३८७ चूलितंगा
२५०, ३८७ चूलिता ३५६ | चेइयं
३१० चेतितं
२५७ चेतिभा
५५६, ७६६ | चेतितरूक्खा
६३७, ७६८ | चेल्लुक्खेवं
२७३, ६४३ | चोद्दसपुव्वी ५५६, ७६६ छआगतिता
९५, २५९, २७३,
३९६, ४११, ५८९, छउमत्थमरणं
६५६, ६९४, ७८१ छउमत्थे ४७ छंदा
३०१,
७५० छउमत्थ ७५० छउमत्थपरियागं ७५५ छउमत्थकालिताते
२५७ |छउमत्थखीणकसायवीतरागसंजम
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः
६९३ छंदा
१८८ छक्काया
४१७ छगइया
४९७ छजीवनिकाता
७५५ छट्टभत्तित
७५५ छट्टाणनिव्वत्तिते
८३, १९९, छट्टा
५२२, ५५५ छट्ठी
१००, ५२२ छत्तं
१०० छत्तरयण
३०७ छत्तले
६२९, ७३१ छन्नं
१०६ छम्मासावसेसाउता
१०६ छलंसा
१८३ छलुए
१३३ | छल्लिक्खायसमाण
३०७ छल्लिक्खा
१४२, ३०७, छविकरे
६५४,७३६ छविच्छेतं
३७६ छविपव्वा
१४२ छविच्छेद
३८१ छवी
४८२ छवीते
६१०, ७५४ छातोवारूक्खसामाण
६९३ छाया
७५० छायो
छिंदित्तते
६२ छिंदित्ता
४१० छिद्दप्पेही
२१२, ४०९, ४५० छिन्नगंथ
७४९ छिन्नावायं
सूत्राङ्काः
७१२
४४७
४८२
६९३
१८८
५४०
७३५
६०९
४०८
५५८
६३३
७३२
५३६
६२४
५८७
२४३
२४३
५८५
४०९
७९
५५७
२४८
२४८
३१३
१०६
३१३
४७९
१६८
३९८
६९३
४१७
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
३१
७५०
१९१
७२८
१३९ १३९
११३
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः छेदणे
४६२ | जक्खावेस ५७, ५०१ जलंत छेदारिहे
६०५ जक्खिंद १०५, २७३ जलकंत १०५, २५७ छेदोवठ्ठावणितकप्पट्टिती ५३० जजरिए
३६० | जलरत
२५७ छेदोवठ्ठावणियकप्पद्विती २०६ जजरिते
७०५ | जलचरपंचेंदियछेदोवट्ठावणियसंजम ४२८ जजुवेद
तिरिक्खजोणित छेयणे २४ | जडियाइल्ला
९५ जलचर छेवट्टसंघयणे ४९४ जणतित्ता
३४६ जलचरी जइत्ता १६८ जणवतेसु
६९३ | जलणप्पवेस जउगोले ३५० जणवय
७४१ | जलप्पभ १०५, २५७ जउण ७१७ जतितव्वं ६४९ जलप्पवेस
११३ जउणा ४१२, ४६९ जतित्ता
२९२ जलवीरिते जंकिंचिमिच्छा ५३८ जत्ताभयते
२७१ | जव
१५४ जंकिंचिमिच्छामीतेगा २८८ जधावादी
५५० | जवजव
१५४ जंगिते
१७८, ४४६ | जम २५७, २७३, ३०३, | जवमज्झा ७७, २५१ जंगोली
५०५, ५७४ जवोदए
१८८ जंतवाडचुल्ली ५९७ जमप्पभ
७२७ जस १४१, १७६, ५९७ जंदि8
७३२ जमाली ५८७, ७५५ | जसमं जंबवती ६२८ जम्म
४८५ जसोकित्तीणामाए । ६५८ जंबुद्दीवाधिपती ७६४ जम्मा
७२० जसोधर
४०४, ६८५ ७६४ जयणामे ७१८ जसोहरा
६४३ जंबूदीव
५८० जयंत ३००, ३०४, जस्सीलसमायारो ६९३ जंबूदीवगआवस्सगं २९९
४५१, ६४३ जहति जंबूदीवगा
४९० | जयंती १००, २७३, जहन्नगुणकालग जंबूदीवते २०५
३०७, ६४३ जहन्नट्ठितियाणं जंबूदीवपन्नती २७७ जयति
२९२ जहन्नपतेसियाणं जक्खरनो २७३ जयसंपन्न
३२८ जहन्न जक्खा १८२, ६५४ | जर...
७५३ जहन्नपुरिसा
१३७ जक्खाइ8 ४३७ जरग्गववीही... ६९९ जहन्नोगाहणग
४३ जक्खातिट्ठ ४०९, ४१७, | जरते...
५१५ जहानामए
५९७ ४७६, ७०७ जराउजा... ५४३, ५९५ जह्नवीय
६७३ जक्खालित्तते
७१४ जलं २५७ | जाइकहा
२८२
६११
५५६
जंबू
३१९
WW
१८०
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
२३०, ३८१
७५९
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः जाइकुलकोडी ७०१ जिण २२०, ३९६, जीवमज्झपएसा
६२६ जाइकुलकोडीजोणि४४५, ४५०, ४७८, जीवमीसए
७४१ पमुहसयसहस्सा ७०१
६९३, ७५४ जीवरासी
१०६ जागर ४२२ जिणकप्पट्टिती २०६, ५३० | जीवसंगहिता
६०० जागरतित्ता २८४ जिणपडिमा
| जीवसण्णा
७३४ जाणति | जिणसंकास
जीवसाहत्थिया जाणविमाण जितसत्तू
जीवाजीवमीसए
७४१ जाणा जितिंदियता
जीवाभिगम १७१, ४९९ जाणू | जिब्भामएणं
जीवितासंसप्पओग जातरूवे
| जिब्भामयातो ३६८ जीवोगाहणा
६६६ जातिआजीवे ४०७ जिब्भामातो
५२१ | जीहा
३६० जातिणामनिधत्ताउते ५३६ | जिभिंदियत्थ
३३४ जुगंतकरभूमी २२९, ६२१ जातिथेरा १६७, ७६१ जिभिदियपडिलीणता जुगवं
२२६ जातिमत ६०६, ७१० जीत
४२१ जुगसंवच्छर
४६० जातिवंझा ४१६ जीयकप्पित
६९३ जुगा जातिसंपन्न २८१, ३१९, जीव १०६, १७५, जुग्गारिता
३१९ ___३२८,६०४,७३२ ४७८, ६६५, ६९३ | जुज्झित्ता
१६८ जातीकुलकोडीजोणी
जीवअपच्चक्खाणकिरिया पमुहसतसहस्सा ५९१, ६५९ | जीवआरंभिया ५० जुत्त १६३ जीवकिरिया
त्तपरिणत
३१९ जायतेज
३२४ जीवत्थिकाए २५२, ३३३, जुत्तरूव जायमाण
४४१ जुत्तसोभ
३१९ जायणी २३७ जीवदिट्ठिया
५० जुद्धनीती जाया १६२ जीवनिकाय
२२३, ६९३
| जुद्धसूर जारुकण्हा ५५१ जीवनिस्सिता ५५३ जुम्मा
३१६ जाला ४४४ जीवपइट्ठिया
४९८ जुवाण
४१७, ६०९ जालासहस्स ५९७ जीवपतोसिता ५८७ जुहुणामि
५४१ जावंताव ७४७ जीवपरिणाम
जूतपमाते
५०२ जावज्जीवं
१४३ जीवपाओसिया ५० जूवए (ते) ३०२, ७१४ जाव ताव
७०४ जावपाडुच्चिया ५० जेट्टा ९५, २२७, ५१७, जावते ३३६ जीवफुडा
३३२
५८९, ६५६
१०६
४७९
३१९
जामा
३१९
३२४
६७३ ३१७
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
३३
३६२
५३३
१२७
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः जोइसिय ५७९ झियायंति
५९७ ठितीकम्म जोग ११२, १३२, ७४१ पमुझुसिर ७३, ३७४ ठितीबंध
२९६ जोगपडिक्कमण ४६६ ठवणपुरिस
१३७ ठितीविप्परिणामणोवक्कम २९६ जोगपरि(णाम) ७१३ ठवणसच्च
३०८ ठितीसंकम
२६९ जोगपरिना ४२० ठवणसव्वए
२९७ डक्क जोगवाहियत्ताते ७५८ ठवणा ७४१ णउअंगा
१०६ जोगवाहियाए १४४ ठवणाकम्म ३३५ | णउआ
१०६ जोणिसंगंधे ५४३ ठवणाणंत ४६३, ७३० णंगलावत्ता
१०० जोणिसंगह ५९५ | ठवणालोग १६१ णंगोलियदीव
३०१ जोणी ४५९ ठवणिंद
गंगोलिया
३०१ जोणीवोच्छेद १५४, ४५९, ठविया
णदणवणा
१०० ५७२ ठाण
५८५ णंदा
३०७, ६४३ जोति ७६६ ठाणगुण
णंदिणीपिता
७५५ जोतिरसे ७७८ ठाणपडिमा
३३१ णंदियावत्त २५७, ६४४ जोतिसरन्नो १६२, २७३ ठाणसमवायधरे १६७ | णंदिवद्धणा ३०७, ६४३ जोतिसिंद १६२, २७३ ठाणातिते ३९६, ५५४ | णंदिसेण
३०७, ७५५ जोतिसिते ७५० ठावइत्ता
णंदिस्सरवरदीव ५८० जोतिसिया २५७, ४०१ ठावतित्ता
२८२ | णंदी जोती
३२७, ३३८ ठिइपकप्प १८३, ३९८ णंदीसरवर जोतीबल ३२७ | ठितलेस्स
| णंदुत्तरा ३०७, ५८२, ६४३ जोतीबलपलजण ३२७ ठितिअप्पाबहुए २९६ | णक्खत्तसंवच्छर जोध ६७३ ठितउवसामणोवक्कम २९६ णगर
१०६, जोयणवित्थिन्नं ११० ठितिक्खएणं
५९७
४१७ जोयणसतं ३०७ ठितिणामनिधत्ताउते ५३६ णगरणिद्धमण
३९४ जोयावइत्ता ३१९ ठितिणिगातित २९६ णग्गोहपरिमंडल
४९५ झल्लरिसंठाणसंठिता ३०७ | ठितिणिधत्त
२९६ णट्ट
५९७ झल्लरिसंठिता ७२५ ठितिपगप्प ३२३ णट्टमालगा
६३९ झल्लरी ५५३ ठितिपडिहा ४०६ णट्टाणियाधिपती
५८२ झाण २४७, ५११ ठितिपरिणाम
६८६ णत्तंभागा झाणंतरियाए ६९३ ठितिबंधणपरिणाम ६८६ | णदी
१०६ झिम्मे
३४७ ठितिबंधणोवक्कम २९६ | णपुंसकवेदगा ३६५
१४३
५५३
५१७
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
विशिष्टशब्दा:
पुंसगणिव्वत्ति
पुं
पुंसवेदे
मसामि
णमि
णमी
कंता
देव
णलागणी
लगा
लिणा
कूड
णवगुणलुक्खा णवाणनिव्वत्तिते
वणवमित्ता
णवणीत णवपएसिता
णवमिता
णवमिया
णसंतिपरलोगवाती
वसोत परिवा
नागकुमार
कुमारन
नागकुमारावसं
कुमरिंद
णागदार
नागपव्वत
1
नागवीही
णागसुवन्ना
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा:
२३३ जागा
३७७ णाण
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः
१८२ णातिगण
१९५ णाभ
७००
४४५ णामं
१८३ णाणताते १७६, ४१३, ४६७ णामणंतते
२८३ | णामधे जा
२०८ णामलोग
१९८ णामसच्च
७१३ |
२०३, २६३ णामिदे
४११, ७५५ णाणदंसण
७३५ णापडणी
८९, ५५५ णाणपन्नवणा
४०१ णाण (परिणाम) ५९७ णाणपायच्छित्त
१०६
१००, १०६ णाणफले २९९, ४३४ णाणबल
७०३ | णाणबुद्धा
७०२ णाणबोधी ६८७ णाणलोग
२७४, ६७४ णाणविणए
७०३ णाणसंकिलेस
२७३, ३०७, णाणसंपन्न
६४३ णाणातिक्कम ६१२ णाणाभिगम
६०७ णाणायार
६७५ णाणाराहणा
७२ णाणावर णिज्जं
२७३
३१४ णाणिदे
१०५, २७३ णाणिड्डी
३०७ णाणी
१००, २९९, णाणुप्पयमहिमा ४३४, ६३७ णाणुवओगाहार ६९९ णाणोवघात
२००, ७१० णाता
४४५ णार
१९५ |णारीकंतप्पवायद्दहं
७४० णारीकंता
११५, १६४ णासाते ११५, १६४ निंदिता (त्ता)
१६१ | णिज्जा
५८५ णिक्कंखित ७३९ | णिक्कंतारं
६०४ णिक्कट्ठ
१९८ णिक्कट्टप्पा १७१, ४९९ णिग्गंथी
७६, ४३२ णिग्गंथे १९८ णिगाति
२६८, ४६४, णिगामपडिसेविणी
५६६, ५९६ णिग्गुण
१२७ णिच्चुज्जोता २१४ | णिच्छोडेति ३२३ णिज्जरट्टयाते १४२, ३२४ णिज्जरा
११२
७३८ णिज्जरिज्जमाण ३३५, ४९७ णिज्जरेंति
सूत्राङ्काः
४३९
५५३
२६८
४६३
५४६
१६१
३०८
७३०
१२७
५८२
९०
५५५
५५३
१३३, ३५५
१७६
३२५
१४३
३५२
३५२
३२१
१७४, २१०
२९६
४१६
१६९
९५
४०९
४६७ २३३, ४०९, ४७३, ५९६, ७०२, ७८३
७०७
२५०
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
३५
सूत्राङ्काः
१८७
१०६ २९४ १०६
२९४
० Wo 0
mm
५०२
७२०
२८२ ३९६, ५५४
४१९
५० ६७३ ५५३
| णेसप्पे
१८१
विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः णिज्जाति
१०८ |णिव्वत्तणाधिकरणिया ५० |णेरतितद्ग्गता णिजादि
|णिव्वाण
१९५ णेरतिता णिण्हगउप्पत्तिनगर ५८७ णिव्वाघात
४११ णेरतिताउते णिताणं पगरेति
|णिव्वावकहा
२८२ | णेरतितावासा णितावाती
६०७ | णिविट्ठकप्पट्टिती २०६, ५३० | णेरतियसंसार णिदाणसल्ल १८८ | णिव्विसति
३९८ | णेरती णिद्दक्खएणं ४३६ | णिव्वेगणी
२८२ णेवत्थकहा णिद्दपमाते
| णिसग्गरुई
२४७ णेसज्जिते णिद्धण्हाओ २२१ |णिसग्गसम्मइंसण
णेसत्थिता णिधत्त
२९६ णिसढ ८३,१९९,२९९ णेसत्थिया णिप्पच्चक्खाण
णिसितित्ता ___ पोसहोववास १५८, १६९ | णिस्सरणणंदी २९२ | णेसाद णिप्फाव
४५९ | णिस्साठाणा ४४७ | णोअमणे णिप्पभाई १८५ | णिस्सील
१६९ णोअवयणे णिब्भच्छेति ४०९ हिस्सेसाते
१८८ णोआउज्जसद्द णिम्मवतित्ता ३४६ णिसुंभा
४०३ णोइंदितअसंवर णिम्मेर १६९ | णिही
| णोइंदितसंवर णियंठा ४४५ णीणेमाणा
४७७ | णोउस्सासगा णियडिल्लताते ३७३ णीतछंद
३१८ | णोतदन्नमणे णियाणमरण ११३ णीयागोते
११६ णोतदनवयणे णिरंभा ४०३ णीरते
५१६ णोतम्मणे णिरतगती
| णीललेसा
३१९ | णोतव्वयणे णिरयपाल
२४५ णीलवंत ८३,१९९, णो दुम्मणे णिरयवेयणिज्ज
२४५ णीला ३८,९५,३७५ णोऽपज्जत्तगा णिरयाउअंसि २४५ णीलोभासा
९५ णो पज्जत्तगा णिरावरण ४११ णीहारिमे
११३ णो भासासद्दे णिरूवग्गहताते ३३४ | णेउणिता
६९७ | णो सण्णोवउत्ता णिवतित्ता ३५२ णेगम
१९२ णो सुमणे णिवतेज्जा २०० |णेत्ता
६७५ तउआगरे णिवुड्डी १७१ णेमी
७३५ | तउगोले णिव्वता
१५८ | णेरइयदुग्गती १८७, २६७ | तंतिसमं
१८१ ७३
www
४८७ ४८७
४४८
१८१
or
१८१ १८१
१८१
२९९ णी दुम्म
१६८ १७०
१७०
m
१६८
५९७ ३५०
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६
विशिष्टशब्दा:
तंती
तंबोले
तंबागरे
तंस
तुंबा
तुंबुरु
तेंदिया
तेंदुओ
तक्का
तच्चाते
तच्चावाते
तज्जातदोस तज्जातसंसट्टकप्पिते
तट्ठा
तणवणस्सतिकाइया
तणवणस्सतिकातिता
तणवणस्सतिकातिया
ओ
गव
तणुतणू
यो तणुयदंत-णह-वालो
तणुया
तणुवाता
वायव
तणू
तत ततिता
तत्तजला
तत्तयला
५९७ तदट्ठोवओगेणं
३८, ५४८, ६२४ | तदद्धउच्चत्तपमाणमेत्त १६२ तदन्नमणे
५८२ तन्न
३१६ तदन्नवय
६५४ तदुभयपडिणीते
१९ तदुभयपतिि
७३५ तदुभ
७४२ तदुभयसंस
७४४ | तदुभयसमुदार्णाकरिया ३९६ तदुभयारिह
९५
१४९, तदुभयोवक्कम २४४, ४८४ तधणाणे
४३१ तधाकारी
६१४ तप्पढया
२८१ तब्भवमरणे
२८१ तब्भववेयणिज्जे
६४८ तम
२८१ तमतमा
२८१ तम्मबल
३०७ तमबलपलज्जण
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
सूत्राङ्का: | विशिष्टशब्दाः
५९७ तत्थुव्विग्गो
३५० तत्ताणि
५४६ तमा
२२४ |तमुक्कात ६४८ तमुक्काय
७३, ३७४ तम्मणे
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा:
२८१ तरगा
५९७ |तरूपडणे
३५६ तल
३०७ तलवर
१८१ तलागा
३५५ तव
६०९ तक्खा १००, १९९ तयक्खायसमाणे
५२२ तया
१८१
२०८ वणिज्ज
२४९ तवतंति
१७७ वतंसु १८५ तवतिस्संति
सूत्राङ्काः
३५९
११३
५९७
६९३
१०६
१९५, ३०९, ३९६,
४५५, ४९६, ५११
६४३
३०३
३०३
३०३
७४०
६०६
३१७
७६, ४३२
१९३ तवबल १९८, ४८९, तवमत
६०५ तवसूर १९४ तवायारे
७२६ तवारिहे
५५० तसकातित असंजम
१८५ तसकातितसंजम
११३ तसकायनिव्वत्तिते
४०९ तसा
२९१, ३२७ | तस्सीलसमायारो ५४६ तस्सेवी
३२७ तवोकम्म
७३२
६६, १७६,
३२७
१८८, ३२५
५४६, ७२०, ७३५ तव्वइरित्तमिच्छादंसणवत्तिया ५०
३३५
१८१
२०८
३९७, ७१२
२३५, ३२३
७४९
२९१ तव्वत्थु २९१ तव्वय
१८१ तवस्सिपडिणीए २४३ | तवस्सिवेयावच्च
२४३ तवस्सी
६१४ तहक्कार
४८९, ६०५
५७१
५७१
१२५
१७२, २८६
६९३
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
३७
२९३
५५३ तिण्णं
७४५
९५
१०
५९७
२२५
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः तहणाणे ५३४ तिट्ठाणणिव्वत्तिते २३३ तिरियगामी
४६१ तहारूवं
१९५ तिणिसलताथंभ २९३ | तिरियलोग ७०, १६१, २८७ तिणिसलताथंभसमाण
३३१,३३८,४४४ ताणा
७५० तिरियविग्गहगई तामेव ७७६ तिता ३९० तिरिया
१७१ तायत्तीसगा १४२ तितारे २२७ तिरीडपट्टते
४४६ तारगा २७३ तितिक्खणे
५०० तिल
९५, ४५९ तारग्गहा
४८१ तितिक्खिस्सति ६९३ तिलपुप्फवण्णा तारा
| तितिक्खेज्जा
४०९ तिलागणी तारारूव १४१, ६७० तितिक्खेमाणं ४०९ तिलोदए
१८८ ताल
तितिक्खेमि
३२५ तिसमइएणं तालपलबकोरवसमाणे २४२ तित्ते
३८ | तिसोवाणपडिरूवगा ३०७ तालपलबकोरवे २४२ तित्थं ५८७, ६९१ तिहत्थवित्थार
२४६ तालपिसायं ७५० तित्थगरणामगोत्ते। ६९१ तीतद्धा
६२० तालसद्दे तित्थगरा
(अ)तीतवयण
१९८ तालसमं ५५३ तित्थयरा २३१ तीताते
४९३ तासी २८१ तित्थसिद्धा
४२ तीरट्ठी
२३५ तितिणिते
तिदुवारा १८६ तीरा
७१७ तिकूड १००, २९९, तिपतेसिता
२३४ तीसगुत्त ।
५८७ ४३४, ६३७ तिप्पणता
२४७ | तीसतिमुहुत्ता तिक्खुत्तो ___४१२ तिमिसगुहा ८६, ६३६, | तुअट्टणं
५८५ ३९४ ६३९, ६८९ तुच्छ
३६० तिगिच्छिकूड ८७, १००, |तिरिक्खजोणितदुग्गता १८७ | तुच्छकुल ५२२, ७२७ तिरिक्खजोणियदुग्गता २६७ तुच्छरूवे
३६० तिगिच्छिदह ८८,१९९,५२२ तिरिक्खजोणियदुग्गती १३७, तुच्छोभासी
३६० तिगिच्छगा ३४२
५९७ तिगिच्छा ३४२ | तिरिक्खजोणियपुरिसा १३९ तुडितंगा
७६६ तिगिच्छिते ६७८, ६७९ |तिरिक्खजोणिया १३९, ३६१ तुडियंग १०६, ६७३ तिगुणलुक्खा २३४ | तिरितंगारवपरिणाम ६८६ | तुडिया
१०६, १६२ तिचक्खू
२१२ | तिरितमिस्सोववन्नगा ६४४ तुयावइत्ता १६५, ३५५ तिट्ठाण ३२४ तिरियगती ४४२,६३०,७४५ तुरियगती
२५७
११९, ४७० |
५२९
५१७
तिग
"तुडित
२६
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८
विशिष्टशब्दा:
तुलसी
तुलभावे
सागणी
तु
सिता
तुसिय
सोद
तुसति
अगसरीरी
कंत
उ (काइयाणं)
उपभ
तेउलेसा
उसिह
तेसोते
ऊ (काइयाणं)
तेजस
तेणं
णाणुबंधि
तेणुक्कले
तेतं
तेतवीरिते
तेतली
तेतसा
तेत्तीस
मासितं
ए
यो
तेरासिता
तेला
तेल्ल तोयधारा
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचि :
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः
६५४ तोरणा
३७७ भा
५९७ थंभा
१८०, ४७७ | थणियकुमार ६२५, ६८४ | थणियकुमारिंदा ५७६ | थणियसद्द
१८८ थलचर
३२५ थलचरी
४८३ थलताई
२५७ थालीपागसुद्धं ३१६ थावते
२५७ थावर
४१, १४०, ३१९ थावरकाताधिपती
२५७ थावरकायनिव्वत्तिते
४४९ थावरकाया
२५७, ३३४ थिरसत्त
५८६ थी गिद्धी
२०३ थुल्ल
२४७ थूभाभिमुही
४५६ थूल
७७६ थूलपण
६१७ थूलह- दंत-वालो
५८२, ७५५ र
७७६
६९३ | थेरकप्पट्ठिती १८८ थेरपडणी
२०७, ३३२ | थेरपडिणीयं
३१६ थेरभूमी
५८७ | थेर [वेयावच्च ] ५५१ थोवा
२७४, ६७४ दओघंसि ६४३ | दओभास
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः
१०६, ३०७ दंड
३६१
२९३ | दंडनीती
३१६, ३१९ दंडरतण
१०५ दंडवीरि
१४१ | दंडातिए
१३९ | दंडायति
१३९ दंडुक्कले
४६० दंत
१४३ दंतो ३३६ दंसण
१७२, २८६
३९३ | दंसणकुसील १२५ दंसणता
३९३ | दंसणपडिणी ३३९, ४५२ दंसणपडिणीयं
१८३, ३२३, दंसणबुद्धा ३९८, ७६१ दंसणबोधी
२०६, ५३० दंसणाभिगम
२०८ | दंसणभेयणी ६६१ दंसणमोहणिज्ज १६७ | दंसणलोग
३९७, ७१२ दंसणविणए १०६, १९७ दंसणसंकिलेस
४१२ दंसणसंपन्न ३०२ | दंसणसम्म
सूत्राङ्काः
३, १३४, १९१,
४१८, ६५२
६९३
५५८
६१७
६६८ दंसणपन्नवणा २८१ दंसण [परिणाम] ३०७ दंसणपायच्छित्त
३८९ | दंसणपुरस
२८१ दंसणपुला २८१ दंसणबल
५५४
३९६
४५६
६०४, ७३२
५५३
३५, १९०,
५६५, ६१९
४४५
१७६, ४१३, ४६७
२०८
६६१
१९८
७१३
२०३, २६३
१३७
४४५
७४०
११५, १६४
११५, १६४
१७१
५६९
११६
१६१
५८५
१९८, ७३९
६०४
१९८
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दा:
१९८
१४३
१०६
७२५
१०६,
३५०
दसणातिक्कम दसणाभिगम दसणायार दंसणाराहणा दसणावरणिज्ज दंसणिदे दंसणिड्डी दसणोवघात दंसेति दक्ख दगगब्भा दगपंचवन्ना दगसीम दगा दच्चा दढ दढधणू दढधम्म दढरधा दढरह दढसरीर दढाउणा दप्प दप्पणिज्जे दत्त दत्तचित्त
सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः ५६६, ५९६ दसारमंडल
७५५ ५९७ | दसारवंसा ९३, १५२
दहवती १००, १९९, २०३, २९० दहा दहि
२७४ दहिमुहपव्वत्ता दहिवन्ने
७३६ २९७ | दाण
७४५ ७२६ दाणसूर
३१७ ४४१ दामड्डी
४०४ २५८ दामदुगं
७५० १३७ दारा १६१ दारुगोले २६१ दारुते नितंठे
६९२ ३०८ | दारुथंभ ७३० | दारुपाद ४६३ दावरजुम्म
३१६ १२७ दासा
१३७ २७६ | दासावायं
५२८ | दाहिण
२८९, ४९९ ७८३ दाहिणदारिता ७८३ दाहिणवात
५४७ ७७० दाहिणावत्त
२८९ ७६७ | दाहिणिंदलोगपाल २७३
दाहिणिल्ल ३०७, ४०४
| दिलृतिते . ७८३ | दिठ्ठलाभिते ५८७ दिट्टिता
४१९ ६७२, ७६७ दिट्ठिया
५० ७८३ दिठिवात २६२, ७४२, ७५० ७५५ | दिट्ठिवातअक्खेवणी २८२
४९९ दरिद्दकुल ७६, ४३२ दरिद्दीहूते
१९८ दलयमाण २६८ दलागणी १२७ दवावेमाण २१४ | दविए एक्कते ७३८ दवितकती
७५० दवियाणुओग ४०४, ५८२ दव्वओ
३७६ दव्वपमाण ९५ दव्वपुरिस
दव्वलोग दव्वसंसार
|दव्वसच्च २८३ दव्वाणंत ७६७ | दव्वाणंतते ७३२ दव्विंदे १६२ |दव्वोगाहणा
| दसगुणकालगा दसगुणलुक्खा
दसठाणनिव्वत्तिते ७३२ दसदसमिता ५३३ | दसधणू ५५६ दसन्नभद्द
४१७ दसपतेसिता १८८, ४२४ दसपतेसोगाढा
६७४ | दसपुर ३०७ दसरह १४३ दससमतद्वितीता ११६, | दसा
२९३ १७८
३१९.
६
७८३
२
५८९
७५५ ७८३
३७४ ३९६
दत्ती
दधि दधिमुहगपव्वत दरिद्द दरिसणावरणिजे
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
३९५
२७९
| दुग्गतिंगते
३२७
.
३९०
दिव्व
विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः दिट्ठिसंपन्नत्ताते ७५८ दीणरूवे
२७९ दुखुरा
३५१ दिट्ठिसंपन्नयाए १४४ दीणववहार
२७९ दुगंधा दिट्ठी २३६ दीणवित्ती २७९ दुगुंछा
७०० दिट्ठीविप्परियासितादंडे ४१८ दीणसंकप्प
२७९ दुगुंछावत्तियं
१७९ दिणकर ७५० दीणसीलाचार
दुगुणलुक्खा १२६ दित्तइत्तं ४३७ दीणसेवी २७९ दुग्गए
३२७ दित्तचित्त ४०९, ४७६ | दीणस्सरे
५९७ दुग्गंधे
४४१, ५९७ दिन्नते ७६२ दीणोभासी २७९ दुग्गंसि
४३७ दिवड्डखेत्ता ५१७ | दीव
१०६, ७६६ दिवसभयते २७१ दीवकुमारिंदा
१०५ | दुग्गता १८७, २६७ दिवसा
दीवसमुद्द ६५७, ७७९ | दुग्गतिगमणाए दिवागर ६४३ | दीवसमुद्दोववती ७५५ दुग्गतिगामी
३२७ ३२३, ३५३, दीवसागरपन्नती १६०, २७७ | दुग्गती
१८७,२६७ ३६१, ५९७ दीवेज्जा
३७० दुच्चिन्ना
२८२ दिसा
१७१ दीह ३८, ५४८, ७०५ दुजडी दिसाकुमारिंदा १०५ | दीहं
५१ दुट्ठ २०३, २०४, ४१५ दिसाकुमारिमहत्तरिता ५०७, ६४३ दीहंगारवपरिणाम ३८६ दुट्ठाणणिव्वत्तिते १२५ दिसाकुमारिमहत्तरिया २५९ | दीहकालिए
१४३ दुतं दिसासोत्थिते ६४३ दीहकालियं
१८८ दुतारे
१२१ दिसाहत्थिकूडा ६४१ दीहदसाओ
७५५ दुतितिक्खं
३९६ दिसिदावे ७१४ दीहमद्धं ५३, १४४, ४१७ | दुन्निसण्णा
४१६ दीण
दीहमद्धे ७५० दुपएसिता
१२६ दीणजाती
दीहमाउं ७३७ दुपओआरं
४९ दीणदिट्ठी दीहवेतड्ड
दुपदेसोगाढा दीणपन्ने दीहवेयड्ड ८६, ६३९ दुपस्सं
३९६ दीणपरक्कम २७९ दीहाउयत्ताए
दुब्भिगंधाओ दीणपरिणत २७९ दुंदुभगा
९५ दुब्भिसद्दे दीणपरियाए २७९ दुआइक्खं ३९६ | दुप्पउत्त
७४३ दीणपरियाले २७९ दुक्खक्खवे
२३५ दुप्पउत्तकायकिरिया दीणभासी
दुक्खभया
१७४ | दुप्पडिताणंदे दीणमण २७९ दुक्खुत्तो ४१२ दुप्पडियारं
१४३
५५३
१२६
१३३
२२१ ३८
२७९
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
दुफासे
२९१
३०७
१९३ दुहतोणंतते
२६७ ६९३
७५९
२४८ ६२४
दुरस
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः दुप्पणिहाण १४७, २५५ दुहओलोगपडिणीए २०८ देवतं
१३३,१८३ ५९७ दुहतो खहा
५८१ देवतमस दुब्भिक्ख १४३, ४१२ दुहतोणत
७३० देवदार दुब्भिक्खभत्ते ६९३ ४६३ देवदुग्गई
२६७ दुब्भिगंध ३८, २२१ दुहतो पडिण्णा ७७६ देवदुग्गता दुब्भिसद्द
___३८ दुहतो पडिबद्धा १६५, ३५५ देवदूस ४०४, ५८२, ५८३ दुहतोलोगपडिबद्धा ३५५ देवनिकाया
६८४ दुमराया
३४९ दुहतो लोगासंसप्पओग । देवपज्जलणे दुम्मणे १६८ दुहतां वंका
५८१ देवपलिक्खोभ दुरणुचरं
३९६ दुहत्थवित्थारं २४६ देवपव्वत २९९, ४३४, दुरभिगम २१३ दुहफलविवागसंजुत्ता २८२ देवपव्वया
१०० ५९७ दुहविमोयतराए
५७ | देवपुरिसा दुरहियासं
दुहवेयतराए ५७ देवपुरोहित
२४८ दुरातं ४३८ दुहसेज्जा ३२५ देवफलिह
६२४ ६९३ दूसमदूसमा
४० देवभव
२९४ दुरूव ३८, ५९७ देवंधगार १४२, २९१, ३२४ देवरन्न
१६२, २९१ दुरोवणीत
देवकम्मुणा ४१६ | देववूह
२९१ दुल्लभबोधियत्ताए ४२६ देवकहकहए
१४२ देवसंनिवाए
१४२ दुल्लभबोधिया ६९ देवकहकहते
| देवसंनिवात ५९७ देवकिब्बिस २०१, ३५४ | देवसंसार देवकिब्बिसियत्ता ३५४ |
| देवसत्ता
५७६ दुवालसंग ७५० देवकुरमहद्दुमवासी
| देवसन्नत्ती
७१२ ६३३ देवकुरमहटुमा १०० देवसहस्स
५७६ दुवालसविघ
६९३ देवकुरा ९४, १००, १०३, | देवसिणाते दुवासपरियाते
६२१ १९९, २९९, ३०७, | देवसुग्गता दुव्वए ५२२, ६८९, ७२४,७६४ देवसुग्गती
१८७ दुविभज्ज ३९६ देवकुरु. २९९, ५९० | देवसेणाती
६९३ दुब्वियडा ४१६ देवकुरुदह ४३४ | देवसेणे
६९३ दुसन्नप्पा २०४ देवगती
देवसोग्गती
२६७ ५५९, ७६५ देवगामी
४६१ | देवा १८२, २४८, ३०७, दुस्समदुस्समा
४९२ देवजुती १८३, ३२३ ३३८,३५३,४०१,४५८
दुरूढे
३३५
३२४ दवसान
३२४ २९४
दुवन्न दुवयण
0
6
m
दुवालसंसिते
२४८ १८७
w
my
my
४४२
दुस्सम
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
२८४
देविंद
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः देवाउते
२९४ | दोधारच्छेदण ४६२ धम्मकहा - १९४, ४६५ देवाणुप्पिया १७४, ६९३ दोमणंसिता
४१६ | धम्मचिंता
६०० देवाणुभावे
| देविंद
१६२ | धम्मजागरितं देवातिदेवा ४०१ दोस
३९, ५५३, | धम्मत्थिकाए २५२, ३३३, देवासुरसंगाम २०० ७४१, ७४४
३३४, ४४१ १२७, ३२४ दोसनिव्वत्तिए
६५ धम्मत्थिकात
४५० देविड्डि ७५५ | दोसबंध
धम्मत्थिकाय ४७८, ५६६ देविड्डी १८३, २१४, ३२३ दोसबंधण
६९३ धम्मत्थिगात ६१०, ७५४ देवित्थीओ १३९ | दोसवत्तिता
| धम्मत्थिगातमज्झपतेसा ६२६ देवी ३३८, ३५३ दोसवत्तिया
| धम्मदारा
३७२ देवुक्कलिता १४२, ३२४ दोसिणा
| धम्मदेवा
४०१ देवुज्जोत १४२, ३२४ दोसिणाभा
२७३ धम्मपडिमा देसकहा २८२, २८४, ५६९ | धंते
४४४ धम्मपुरिसा
१३७ देसकालण्णता ५८५ धणणिही ४४८ | धम्मरुती
७५१ देसच्चाती १९३ धणाणि ५५३ धम्मविणिच्छते
१९४ देसच्छंदकहा २८२ धणिट्ठा ९५, ४७२, | धम्मसण्णा
७३४ देसणाणावरणिज्ज ११६ ५८९, ६६९, ६९४ | धम्मातरिता
५८७ देसण्णाण १९३ धणुद्धतं
६२७ धम्मायरिए १४३, ३२० देसनेवत्थकहा २८२ धणुसहस्स
| धम्मावात
७४२ देसमाण २९० |धण्ण
७५५ | धम्मित १९१, १९४, २१६ देसविकप्पकहा २८२ धन्न
६७३ | धम्मिताधम्मित १९४, २१६ देसवित्थाराणंत ४६३, ७३० | धन्नणिही
४४८
११८ देसविहिकहा २८२ धन्नपुंजितसमाणा ३५५ धम्मिय
१४३ देसाधिवती ३४६ धन्नविक्खित्तसमाणा ३५५ धम्मियाधम्मिते
१९१ देसावगासित
३१४ | धन्नविरल्लितसमाणा ३५५ धरण १०५, १६२, २५७, देसुक्कले ४५६ | धन्नसंकडितसमाणा ३५५
२७३, ४०४ दोकिरिता ५८७ धम्म १९१, २२८, २४७, | धरणप्पभ
७२७ दोगिद्धिदसा ७५५ ३१९, ४११, ४२६, | धाततिरूक्ख
७६४ दोग्गति ४८५, ६४९, ७३५, धाते
१०५ दोग्गतिगामिणी
७४५ धायइरूक्ख दोणमुह १०६, ३९४, ६७३ धम्मंतेवासी ३२०, ७६२ धायइसंड १८९, ५८०
४९३
३९१
२२१
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
३९६
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः धायइसंडदीवपच्चत्थिमद्धगा ४९० नट्टमालए
८६ | नामधेजा
२९१ धायइसंडदीवपच्चत्थिमद्धे ५५५ नट्टविहि
६७३ नामपुरिसे
१३७ धायइसंडदीवपुरत्थिमद्धगा ४९० नट्टाणिते
५८२ नामसव्वते
२९७ धायइसंडदीवपुरत्थिमद्धे १९९, नडखइया
३५५ नारायसंघयण
४९४ ४३४, ५५५ नपुंसगवयण
नारिकता ८९, ५२२, ६८९ धायतिरुक्ख
६४० नपुंसगा १३९, १७० नासेज्जा धायतिसंडग ७२२ नमसंति
१७४ | निंदित्तए धारण ३९९, ४२१, नमंसित्ता
| निक्खम्म
७३७ , ५१० नमोक्कारपुण्ण
निक्खित्तचरते धारणामती ३६४ नरकंतप्पवायद्दह
| निगमा
१०६ धारित्तते ४४६ नरकंता
| निग्गंथ
३२१, ३२५ धिक्कार ५५७ नलिण
निग्गंथीपव्वावियते ४१७ धिति ८८, १९९, नलिणकूड
| निग्गह
७४४ ५२२, ६८९ नलिणगुम्म
६२७ निग्गुणा
१५८ धितिम ५९४ नवआगइया ६६६ | निग्घाते
७१४ धूमकेऊ ९५ नवकोडिपरिसुद्ध ६८१ निगिज्झिय
४३८ धूमप्पभा १५५, ५४६, ७५७ नवगइया
६६६ निच्चालोगा
९५ धूमसिहाओ २८९ नागकुमारावासं ४१७ निच्चे
७४४ धूमिता ७१४ नागरुक्ख ६५४ | निच्चोउया
४१६ ५५३ नागा
३०७ | निज्जरा १०, ४९, ३२५, धोव्वाण ६७३ | नाडगविही
६७३ ३८७, ५४०, ६६५ नंदण ५८२, ६९८ नाण
३५ निजरिस्संति २५० नंदणवण २९९, ६८९ नाणदसणे
५९७ | निजरेति नंदुत्तरे ४०४ नाणपडिणीयं ६६१ निजरेंसु
२५० नक्खत्ता ४०१, ४६० नाणपुरिसे
१३७ निज्जवते
६०४ नगर ४१५ नाणसंकलिस १९८ निजाणकहा
२८२ नगरथेरा ७६१ नाणसम्मे १९८ | निजाणिड्डी
२१४ नगरधम्म ७६० नाणापेज्जदोसे १९३ | निट्ठाणकहा
२८२ नगराया ६९३ | नाभी ५५६ | निदंसेति
७५० नग्गभावे ६९३ नाम ५६६, ५९६, ७४१ निद्दड्ढे
५१५ ३७४ नामधिज्ज ६९३ | निद्दा
६६८
धेवत
७१
नट्ट
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
निद्देस
४३४
११९
१९५
१५८
५२२
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः निद्दा-निद्दा ६६८ | निवुड्डी
७९, ४९९ नीलवंतकूड ८७, १०० ६०९ निव्वट्टतित्ताणं
| नीलवंतदह निहोस ५५३ निव्वय
१६९ | नीला ३९०,४६९,७१७ निद्ध ५९९ निव्वाघाए
६९३ नीलुप्पलसामा निधत्ते ६३४ | निव्वाणफला
| नीससिऊससितसमं ५५३ निप्फत्ती ६७३ | निव्वाहिं ४७७ नीहारि
७०५ निमंतणा ७४९ निविटे
४१६ | नेगम
५५२ निमित्त ५६१,६७८,६७९ निव्वितिगिंच्छिए ३२५ नेमि
४११ निमित्ताजीववाते ३५४ निव्वितिते ३९६ नेरइयदुग्गता
२६७ निम्मल ५१६ | निव्विसमाण
नेरइया
४५८ निम्मितवाती
६०७ कप्पट्टिती २०६, ५३० नेलवंत
६८९ निम्मेरा
निव्वेगणी
२८२ | नेलवंतकूड नियंटित
७४८ | निसगुवतेसरुती ७५१ | नोअक्खरसंबद्धे नियंठा ४४५ | निसढ ५२२, ५५५ नोआगासे
४९ नियच्छति ३२५ निसढकूड ८७, १००, ५२२ नोइंदितअसाते
४८८ नियतेणं
७५० निसह १००, ६८९ नोइंदियत्थे नियल्ला
निसहदह
४३४ नोइंदियत्थोग्गहे नियाण १८३ | निसिज्जा
४०० | नोइंदियसाते
४८८ निरंतरणिचितं ११० निसिरेज्जा
नोकसायवेयणिज्जे ७०० निरतभव २९४ निसीयणं
| नोचरित्तायारे
७६ निरयंगामी
नोतहे
२८७ निरयगती ४४२, ६३०, निस्संकित
नोदसणायारे ७४५ निस्ससिज्जमाण ७०७ नोनाणायारे निरयविग्गहगती ७४५ | निस्सावयणे
| नोबद्धपासपुट्ठा निरवसेसं ७४८ | निस्सित
७४१ नोभूसणसद्दे निरवसेससव्वते २९७ निस्सील
१६८ नोभेउरधम्मा निरुवक्केसे ५८५ | निहओ
६९३ | पइल्ला निरुद्धणं २३५ नीलकंठ
३९८, ४३९, ५४४ निरालंबणता १९३ नीललेसा ४१, १४० पउंजेत्ता
३९९ निरीती
९५ नीलवंत १००, ५२२, पउतंगा
१०६ निवतिते
५५५, ६४१ पउता
४८६ ५२५
७७६
४६१
निसीहिता
laxe
३२५
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशिष्टशब्दा:
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः
पउम १०३, १०६, २७३, पंकवती २९९, ३०७, ६१२, पंचगइया ६२७, ६४३ |पंचगुणलुक्खा १०६ पंचचित्ते
६२७ | पंचट्ठाणणिव्वत्तिते
११९ पंचतारा
१९९ पंचदिसिं
८८, १००, ५२२ पंचपतेसिता
६२७ पंचपतेसोगाढा
भंगा
पउमगुम्म पउमगोरा
पउमदह
पउमद्दहा
पउमद्धतं
पउमप्पभ
पउमप्पह
पउमरुक्ख
पउमवास
पउमसरं
पउमाई
पउमावती
पउमुत्तर
पएस
पएसग्गेणं
पसच्छेद
पणिगाि
पणिधत्त
पएससंकम
सात
पओग
पओगकिरिया
पओगपरिणता
पओसा
पंकसि
पंकप्पभा
पंकप्पभाते
प्रथमं परिशिष्टम् ।
१०३, ६४०, ७६४ पंचमाते
६९३ |पंचमासियं
७५० पंचमी
६२८ पंचमूले
६४३ पंचरा
६४१ |पंचरूविता
३६ पंचवण्णा
४११ पंचम
११९ पंचमहव्वतित
३३४ पंचागतिता
४६२ पंचाणउई
५७३, ७५७ पंचेदिया
१००, १९९, ५२२ पंडए
२९६ |पंचाणुव्वति
२९६ |पंचालराया
७३०
२९६ पंचिंदियतिरिक्खजोणिया १३२, १९० पंचेंदितनिव्वत्तिते १९३, ४१९ पंचेंदियनिव्वत्तिते
१९२ पंचेंदियरतणा
सूत्राङ्का: | विशिष्टशब्दाः
३६१ |पंचेंदियवह ४३७ पंचेदितअसंजमे ५४६ पंचेंदितसंजमे
४५८ पंडगवण ४७४ पंडगसंसत्त
४११ पंडिमरण
४७३ | पंडुकंबलसिला
४७२ पंडु
५४२ पंतकुल
४७४ पंतचर
४११ |पक्कमहुर
३९५, ४४१ पक्खलमाणिं
३७६ पक्खा
३९५, ४४१, ४६८ पक्खिकातणा
४५८ क्खिजाति
३०२ पक्खिवति
६९३ |पक्खी
५६४
४७४ | पंतजीवी
५५३ पंताहार
६९३ पंथजाती
७५७ पथक
४२४ कुव्व
६०९ पक्कमति
पगडीकम्म ३१६, ३६७ |पगतिअप्पाबहुए
४७३ | पगतिउदीरणोवक्कम
७०२ | पगतिउवसामणोवक्कम
५५८ पगतिणिगातित
३७३ | पगतिणिधत्त
४३० पगतिबंध
४३० पगतिबंधणोवक्कम
४५८ | पगतिभद्दता
४५
सूत्राङ्काः
२०४
१००, २९९
६६३
२२२
१००, २९९
६७३
५९७
३९६
३९६
३९६
३१९
३२८
६०४
७७६
२५३
४३७
१०६
५५१
४३७
१८८
१३८, ३१२,
३५१, ३५२
३६२
२९६
२९६
२९६
२९६
२९६
२९६
२९६
३७३
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
G
७५०
om 39 m
m
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः पगतिविणीयता ३७३ पज्जुवासेत्ता
१३३ पडिबंध
६९३ पगतिविप्परिणामणोवक्कम २९६ |पज्जोसवणाकप्पो ७५५ पडिबुद्ध पगतिसंकम २९६ पज्जोसविताणं ४१३ पडिबुद्धी
५६४ पगतीते १५७ पट्टण
१०६, ३९४
| पडिमट्ठाती ३९६, ५५४ पग्गहिए ६९३ पट्टकिया
४३३ | पडिमा २५१, ३९२ पग्गतिहिताई ३२५ पट्टवेज्जा
४२१ पडिमापडिवन्न १९६, २३७ पच्चक्ख ६०, १९१, ३३६ पट्ठति
३९८ पडिरूव
१९५, २७३, पच्चक्खाण ५२, १३६, १९५, | पढे
५३४
३०७, ५५६ ४६६, ७४८
७१४ पडिलाभेत्ता पच्चक्खाणावरण २४९ पडागसमाण
३२२ पडिलेहणापमाए ५०२ पच्चतिते १९१ पडिकम्म ३३७ पडिलेहा
४५५ पच्चत्थाभिमुहीओ ५५५ पडिकूले
पडिलोम ३२३, ३३५ पच्चत्थिमिल्ल ३०७ पडिक्कमण ४६६ पडिलोमतित्ता
५१२ पच्चप्पिणमाणे ४१५ पडिक्कमणारिह १९८, | पडिवक्खो
२३६ पच्चापिच्चियते ४४६
४८९, ६०५ | पडिवजेज्जा १७६, ५९७ पच्चायाती ४८५ | पडिक्कमित्तए
६६ पडिवाति पच्चायाहिती ६९३ पडिक्कमेज्जा
१७६, ५९७ पडिवाती
५२६ पच्छंभागा ६९४ पडिग्गहं
पडिसलीणता
५११ पच्छन्नपडिसेवी २७२, २९२ पडिचोएत्ता
पडिसलीणा २७८, ४२७ पज्ज ३७९ पडिचोयणाते १८० पडिसंवेदेंसु
७०६ पज्जत्तगा ६३, ६९, १७० पडिच्छइ
३१९ पडिसत्तू
६७२ पज्जरते
पडिच्छति
२५६ पडिसाहरति पज्जवकती २९७ पडिणवाते
५४७ पडिसुत ३२३, ७६७ पज्जवजाए ३० पडिणीभे ३३५ पडिसेवणा
७३२ पज्जवजातलेस्स २२२ पडिणियत्तति ७७६ पडिसेवणाकुसीले १६६ पज्जवजाते ४६७ पडिणीता
२०८ पडिसेवणापायच्छित्त २६३ पज्जवे एक्कते २९७ पडिनिवेस ३७० पडिसेवियं
६९३ पज्जुन्ने ३४७ पडिपुच्छणा
२४७ पडिसेवेत्ता पज्जुवास ३२३ | पडिपुच्छा
७४९ पडिसोतचारी ३५०, ४५३ पज्जुवासमाण
४११ पडिस्सुता
७१२ पज्जुवासामि १८३ | पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिता ३८३ पडिहते
७७६
६२
६५२
w
w
w
३९८
१९५
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशिष्टशब्दा:
पsिहम्मेज्जा
पडिहा
पडीणवाते
पडीणा
पडुच्चसच्च
पडुप्पन्न
पडुप्पन्ननंदी
पडुप्पन्नवयण
पडुप्पन्नविणासि
पडुप्पन्नविणा
डुवा
पढमपाउसं
पढमसमयजिण
पढमसमयनियंठे
पढमसमयबादरसंपराय
पढमसमयबुद्धबोधिय
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा:
४४४ पढमसमयसुहुमसंपराय
४९९
सरागसंजम
७४१ |पढमा
१९७, ७४४ पणग
पढमसमयउवसंतकसाय
वीतरागसंज ६२,६४७ पणीतरसभोती पढमसमयएगिंदियनिव्वत्तिए ७८३ पणोल्लुणगती
पढसमय गेंद
पढमसमयखीणकसाय
वीतरागसंजम
छउमत्थखीणकसाय
रागसंज
पढमसमयसजोगि
संजम
पढमसमयसिद्ध
प्रथमं परिशिष्टम् ।
भवत्थकेवलणा
पढमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयराग
२११ |पढमसमयसुहुमसंपराग
४०६
सरागसंजम
२९२ | पणगसुहुम १९८ पणतपरिणते
११६ पण
३३५ पणपन्निंदा
५९७ | पणयालीसमुहुत्ता
४१३ पणिधाणे
पणिहाण
रागसंज ६२, ६४७ पतेसअप्पाबहुते
७७१ प
| पण्हावागरणदसाओ
६४७ पतइंदा
२६८ पतए
४४५ पतंगवीहिया | पतयवई
पतेसविप्परिणामणोवक्कम पतेसाणंतरिते
६२ |पतेसुवसामणोवक्कम पतोगसंपता
६० पत्त
पत्तए
६२ पत्तत्ताए
४२, २६८ पत्ताणिताधिपती
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः
पत्ताणिते
६४७ पत्तितमाण
पत्तितस्स
सूत्राङ्काः
५८२
३२५
४८५
३१२
३२५
३८४
३१३
१३७
२३६ | पत्तोव २३६ पत्तोवारुक्खसामाण १३७, ३१३
२७०
२७०
५२८
३२५
६०९
१७३
२९६
५३६
२९६
२९६
४६३
७९, ३६२
३६१
२८७
२८२
१६०, २७७
२८८
५२७
१४३
१७५
२३६, ७७२
५०३
६२ पत्तियं
६०९ | पत्तियति
४३७ पत्तेयरसा
६१६, ७१६ पत्तोव
१०५ पत्थरंतर
५२७ पत्थरंतसमाणे
१४७ पत्थारा
२५५ पत्त
६६३ पदाणम्मि
६३० पदेस
७५० पदेसउदीरणोवक्कम
७५५ पदेसणामनिधत्ताउते
१०५ पदेसबंध
१०५ पदेसबंधणोवक्कम
५१४ पदेसाणंतते
१०५ पदोसकम्म
२९६ पोसा
२९६ | पधाण ४६२ पन्नत्तिक्खेवणी
२९६ पन्नत्ती ६०१ |पन्नत्तेगा १८३, ३२३, पन्नरसमुहुत्ता
३५०, ६१४ पन्नवइत्ता
३७४ पन्नवेंति
३४४ पन्ना ५८२ पप्फोडणा
४७
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४२
१११
०
१४०
m
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः पप्फोडेमाणे ४३८ पमुहा
९५ परज्झं
७५३ पब्भारा ७७२ पम्ह
१००, ६३७, परतिगिच्छते पब्भारगती
६८९, ७५५ | परत्थ
३२७ पभकंत २५७ पम्हंतर
२७० परपइट्ठिए पभंकरा ९५, १००, पम्हंतरसमाणे २७० | परपतिट्टिए
२४९ २७३, ६२५ पम्हकूड १००, २९९, परपरिवात
३५४ पभंजण १०५, २५७, ३०२
४३४, ६३७ परपरिवाय पभावती ७५५ | पम्हगावती
१०० परभाववंकणता पभावेणं १८३ पम्हलेसा
| परमकिण्हे
६९३ पभासंति ३०३ | पम्हावई
| परमाउं
१५१, ४९३ पभासति ७१, ३०३ पम्हावती १००, २९९, | परमाणु
३६, १७३ पभासा ८४, १००, ।
४३४, ६३७ परमाणुपोग्गल ४३, २११, १५०, २९९ पयताई
३२५
४५०, ४७८, पभासिंसु ३०३ | पयला
६६८
४७९, ५६७ पभासिस्संति ३०३ पयलापयला
६६८ परलोग पभासेमाण
५९७ | पयावती ९५, ६७२ परलोगपडिणीए २०८ पभू २५७, ३४१, ४३८ परंतकर
२८७ | परलोगपडिबद्धा १६५, ३५५ पभूतधणरयणसंचय
परंतम
२८७ परलोगपरंमुह समिद्धा ६७३ परंदम २८७ परलोगभत्ते
५४९ पमज्जेमाण ४३८ परंपरपज्जत्ता
परलोगसंवेगणी पमत्ते
२०३ परंपरसमुदाणकिरिया १९३ | परलोगासंसप्पओग ७५९ पमद्द
६५६ परंपरसिद्धकेवलणाण ६० परलोगिते पमाण २५८ परंपराहारगा
७५७ | परवेतावच्चकर पमाणकाल २६४ परंपरोगाढगा
६३ परसमयं पमाणसवच्छर ४६० परंपरोगाढा
७५७ परसरीरअणवकंखवत्तिया पमातेतव्व ६४९ परंपरोववन्ना
७५७ परसरीरसंवेगणी पमाद १७४ | परंभर
३२७ परस्स पमायपडिलेहा ५०३ परक्कम २३६, ४७९ परहत्थपारियावणिया
५० पमारं ४०९ परक्कमितव्वं ६४९ पराघात
५६१ पमिलायति १५४, ४५९, ५७२ | परघरपवेस
६९३ पराजिणति पमुंचमाण
५९७ परच्छंदाणुवत्तितं ३७०, ५८५ | पराजिणित्ता १६८, २९२
२८२
१८४
२८२
१९१
३१९
२८२
२८२
२८९
२९२
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
to
३५२
२२३
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः पराजित ७५० परितारण ४०२ परियारणिड्डी
२१४ पराणुकंपते
३५२ परितारिजमाण ७०७ परियारेति परिकम्म २६२, ७४७ परिताले
४९६ परियारेमाणे
१४१ परिकम्मविसोधी ४२५ | परितावेति
७७६ परियावज्जणा
२१८ परिकम्मोवघाते . ४२५ परितावेत्ता
७७६ परिवतित्ता परिकुविते ७७६ परित्तमीसए ७४१ परिवाविया
३५५ परिगुवंति ७५० परित्तसंसारिता ६९ परिसडंति
७४ परिग्गह ३९, ५४, १४६ परित्ता
१७० | परिसा
५९७ परिग्गह(वेरमण) ३९, ७११ परिदेवणता
२४७ परिसाते
३८२ परिग्गहसण्णा ७५२ परिन्नातकम्म ३२७ परिसोववन्नगा
१४२ परिग्गहसन्ना ३५६ | परिन्नातगिहावास ३२७ परिस्साई
३६० परिग्गहिता ३६९ परिन्नातसन्न
३२७ | परिस्सहा परिचत्तकामभोगा १५८ परिनिव्वाणमहिमा ३२४ परिस्सहोवसग्गे ४०९ परिचारते ३४२ परिनिव्वाणे ३७ परिहरणदोस
७४४ परिजाणिता १८६, ७६९ परिनिव्वुडे
३७ | परिहरणविसोधी ४२५ परिजुन्ना ७१२ परिपंडित
६७९ परिहरणोवघात ४२५, ७३८ परिजुसितकामभोग- | परिपडंति
७४ परिहरित्तते ___ संपओगसंपउत्त २४७ | परिपुयावइत्ता ३५५ परिहातिस्सति परिजुसितसंपन्न २९५ परिभावतित्ता ३४४ | परिहातेमाणा
३०७ परिट्ठवेति ३१४ परिभास
५५७ | परिहायमाणिं परिट्ठावणियासमिती ६०३ | परिमंडले ३८, ५४८ परिहायिस्सति
१७६ परिणत ६३, १८२, २३९ परिमद्दण
३२५ | परिहारविसुद्धितसंजम ४२८ परिणमंति ४६० परिमाणकडं ७४८ परिसहवत्तियं
१७९ परिणामेजमाण ७०७ परिमितपिंडवातिते ७९६ परूवइत्ता
१४३ परिणामेति ७१ परियट्टणा २४७, ४६५ परूवेति
७५० परिणिंदिता ३५५ परियागं
| परूवेंति
१७५ परिणिव्वाति
२३५ परियाणाति १८३, ३२३, ५९७ परोक्खे परिणिव्वुते ४११ परियाणिया ६४४ परोवक्कम
१९४ परितागथेरा ७६१ परियातिता
१२८ पलंब
९५, ६४३ परितात २३५, ४९६ परियायथेरे
१६७ पलंबवणमालधरे परितादितिता ५४२ परियारणा १३० पलावे
५८४
५९७
६०
५९७
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
६७५
m
-
४
११
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दा: पलास
६४१, ७३६ पव्वता पलिउंचणापायच्छित्त २६३ | पव्वतिणो पलिओवमा
१०६ | पव्वतित्ता पलितंका
४०० | पव्वयमाण पलितोवम
६२० पव्वयराती पलिमंथग
४५९ पव्वयाहिति पलिमंथू
५२९ पव्वरातिसमाण पल्लंघणं
५८५ पव्वहेज पल्लगसंठाणसंठिता ३०७ पव्वा पल्लगसंठिता ७२३, ७२५ पव्वावणंतेवासी पल्लाउत्ताणं १५४, ५७२ पव्वावणायरित पवंचा
७७२ पव्वाविता पवडमाणिं
४३७ पव्वावेस्सति पवडणता
३६१ पसत्थ पवतणनिण्हगा
५८७ पवत्ती
१८३ | पसत्थकातविणए पवयणउन्भावणताए ७५८ | पसत्थमणविणए पवयणवच्छल्लयाते ७५८ पसत्थवइविणए पवातद्दहा
९१ पसत्थारथेरा
६१४ पसत्थारदोस पवालत्ताए
३४४ | पसत्थारो पवालियो
४६० पसप्पगा पविक्खिरमाण
५९७ पसाधेमाणे पवित्ती
३२३ पसिणाततणाई पविद्धंसति
१५४ पसुजातिए पविसंति
६७१ पसुसंसत्त पविसिंसु
६७१ पसेणती पविसिस्संति
६७१ पहरण पविस्सति
७०४ पहीणगोत्तागाराई पव्वज्जा १६५, ३५५, ७१२ पहीणसामिताई पव्वतं तेणं
४३४ पहीणसेतुकाई
५०
सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः २०५ पाईणवाते
४४४ ५५१ पाउब्भवामि १८३ पाउसे
५२३ | पाऊ ३११ पाओवगत ६६, २१०, ३१४ | पाओवगमण
११३ पाओसिया ५०, (४१९) | पागडेमाणे
२१० पागता
५५३ | पागारपरिक्खित्ता १८६ पाजावच्चे
३९३ पाडंसुते
३७४ पाडिक्क
पाडिहारितं १६९,
४१५ पाडुच्चिया पाडोच्चिता
४१९ पाणग
१८८, ४२४ पाणत १०५, १५९, ७६९
६७६ पाणवत्तियाए
५०० | पाणमंसोवमे
३४० पाणसुहुम ६१६,७१६ ३३९
पाणा १७५,२८६,५१३
पाणातिपातकिरिया ४१९ ३९८ पाणातिवात २६६, ३८९ ४३७ पाणातिवाय ६६३ पाणातिवायवेरमण ३९, ७११ ५५६ | पाणिदयातवहेउं ५०० ६७३ पाणीपाणविसोहणी
५०३ ३९४ पाणे ३९४ पाणेसणातो
५४५ ३९४ पातीणवाते
५४७
३९६, ४५५
पाणपुण्णे
पवाल
१५८
__mum
६९३
० mm
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
३१९ ७५
३१४
२७३
विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः पातीणा ४९९ पावसुयपसंग ६७८ पित्तसोणिते
४१६ पातेहिं ४६१ पावस्सायतणा ६७७ पित्तिते
३४२ पातोसिता (५०) ४१९ पास ११९, ४११, ४७०, | पियंगुसमा पादसमं
५५३ ५२०, ६१८, ६९० | पियट्टे
३६० पादसमता ५५३ पासंडधम्म
७६० पियदंसणे ९९, ७६४ पामिच्चे
६९३ पासंतु १८३, ३२३ पियधम्म पायच्छित्त ६६, १७६, |पासति
४१० पिया १९८, २०३, २६३, पासवणं
| पिवइत्ता
१६८ ४८९, ५११, पासवणनिरोध ६६७ | पिवासं
७५३ ६८८, ७३३ पासवणपडिक्कमणे ५३८ पिसाइंदा १०५, १६२ पायत्ताणिताधिवती ४०४ पासावच्चिज्जा
६९२ | पिसातिंद पायत्ताणिते ४०४ पासेत्ता २६९ पिसायरण्णो
१६२ पायपुंछणं ४०९ पाहणाओ
| पिसायरन्नो
२७३ पारंचित २०३, ३९८ पाहुडसीलताते ३५४ पिहजण
१४८ पारंचितारिह ७३३ पाहुणगभत्ते
| पिहिताणं १५४, ५७२ पारासरा ५५१ पाहुणिया
९५ पिहुले
३८, ५४८ पारिग्गहिता ४१९ पिउसुक्कं
१८५ पीढफलगसेज्जासंथारगं ४१५ पारिग्गहिया
पिंकारे
७४४ | पीढाणिते ४०४, ५८२ पारिट्ठावणियासमिती ४५७ पिंगलगनिहि
६७३ पीढाणियाधिवती
४०४ पारिणामिते ५३७ पिंगलते
६७३ पीणणिज्ज पारिणामिया
३६४ पिंगला ९५, ५५३ पीतिकारएणं पारितावणिता ४१९ पिंगायणा
पीतिमण
६४४ पारियावणिया ५० | पिंडलगपिहुलसंठाण
पीती पारिहत्थित ६७९ संठिताओ ५४६ पीलिते
४४४ पालते ३३०, ६४४, ७६९ पिंडिमे
पीहेज्जा
१८४ पाव ८, ४९, ६६५ पिंडेसणा
५४५ पीहेति
३२५ पावंसे ३४४ पिज्जवत्तिया
डरिगिणी १००, ६३७ पावकम्मत्ताए
पिट्ठिवडेंसियाए १४३ पुंडरीए पावकम्मिणो ५५३ पितदरिसण
६८५ | पुंडरीयद्दह ८८,१००,५२२ पावते ५८५ पितधम्मे
हरीयद्दहवासिणी १०० पावयण ३२५ पितियंगा २०९ | पुंडेसु
६९३
५०
५३३
९५
०००
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
९५
४६०
३११
१३७
३४७
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिता १८६ | पुढविकातितअसंजम ४२९, पुप्फकेतू पुक्खरणी १०६ ५७१ पुप्फताए
३४४ पुक्खरपत्त ६९३ पुढविकातितआरंभ ५७१ | पुप्फते
६४४, ७६९ पुक्खरवरदीवडगा ७२२ पुढविकातितसंजम ४२९, ५७१ पुप्फदंत ११९, ४०४, ४११ पुक्खरवरदीवड्ड
पुढविपइट्ठिया १९२, पुप्फफलं पच्चत्थिमद्धे १८९, १९९,
२८६, ४९८ पुप्फमाला
६४३ ४३४ | पुढविपतिट्ठिता
पुप्फवती
२७३ पुक्खरवरदीवड्डपुढविरातिसमाण ३११ पुप्फसुहुम
६१६ पच्चत्थिमद्धगा ४९० पुढविराती
पुप्फा
३१९ पुक्खरवरदीवड्ड
पुढविसिला । पुप्फोवए
३१३ पुरत्थिमद्धगा ४९० पुढविसोते
४४९ पुप्फोवते पुक्खरोद १५७, ५८० | पुढवी १०६, २७३, पुप्फोवारुक्खसामाण १३७,३१३ पुक्खलसंवट्टते
२८६, ५५३, पुमत्ताए
६९३ पुक्खला १०० ६४३, ६४८ पुमत्ताते
५९७ पुक्खलावती ___ १००, ६३७ पुढोवेमाता
३६१ पुमवयण
१९८ पुच्छंति १७५ पुणव्वसू ९५, ४७२, | पुमे
५९७ पुच्छणा
४६५ ५१७, ५८९, ६५६ पुयावइत्ता १६५, ३५५ पुच्छणी
२३७ पुण्ण ८, ४९, ३६०, पुरओ पडिबद्धा ३५५ २५६
५५३, ६६५, ६८९ पुरतो पडिबद्धा पुच्छमाण २९० पुण्णणाम
६८९ पुरत्थाभिमुहीओ पुच्छा ३३५ पुण्णभद्द
२७३ पुरत्थिमद्धे पुट्टिल ६९२ पुण्णोभासी
३६० पुरित्थिमिल्ल पुट्ठलाभिते ३९६ पुत्तणिही ४४८ पुरिमंतरंजि
५८७ पुट्ठस्स वागरणी २३७ पुत्तफले
४१६ पुरिमड्डिते ३३४ पुत्तमंसोवमे
३४० पुरिमपच्छिमगा ३९६ पुट्ठिता
४१९ पुत्ता २७३, ७६२ | पुरिमपच्छिमवजा २६६ पुट्ठिया ५० पुधत्ते ७४४ पुरिमा
५०३ पुढविं
३९४ पुन्न १०५, २५७, ६७६ पुरिसक्कारपरक्कम २०० पुढविकाइयनिव्वत्तिते ७०२ | पुन्नभद्दे १०५, ६९३ पुरिसगारपरक्कम पुढविकाइया ३१६, ३१९, पुन्नरूवे
३६० | पुरिसजाते
५९४ ३३१, ३३४ पुप्फ
६१४, ७७३ पुरिसजुग २२९, ६२१
पुच्छति
१६५
५५५
१८९
३०७
३९६
पुट्ठा
१४१
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
६९३
६९१
पुला
विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः पुरिसजुगाई ६१७ पुव्वा भद्दवया ५१७ पोक्खरणीओ
३०७ पुरिसणिव्वत्तिते २३३ पुव्वाभद्दवयाणक्खत्ते १२१ पोक्खरवर
५८० पुरिसत्ताते ३७७ पुव्वुप्पन्न __ ३३९, ५४४ पोक्खलावति
६८९ पुरिसवेद ७०० पुस्सा
९५ | पोग्गल १४६, २०० पुरिसवेदगा ३६५ पुस्सादिता ५८९ पोग्गलकायं
५४२ पुरिसवेयणिज्ज ६५८ पुस्सो
७८१ पोग्गलत्थिकाए २५२, पुरिससीह ७३५ पुहत्तवितक्के
२४७
३३३, ४४१ पुरिसा १३९, १७० पुहुत्ते
७०५ पोग्गलपडिघाते
२११ पुरिसादाणिए ६९० | पूएइ
२५६ पोग्गलपरिणाम २६५ पुरिसादाणित ६१८ पूतासक्कार ४९६, ५५० | पोग्गलपरियट्ट १९७, ६२० पुरिसादाणिय ५२० पूतिए
| पोट्टिल पुरोहितरयण ५५८ पूयासंसप्पओग ७५९ | पोतगा
५९५ पुलते ७७८ पूरिमा ३७४, ५५३ पोतजा
५४३ ७७६ | पूरेति ६५२ | पोत्तिते
४४६ पुलाते ४४५ पूसमाणगा
| पोयए
६९३ पुव्वंग १०६, १९७ पूसे
पोरबीया २४४, ३९४, पुव्वंभागा
५१७ पूसो ९५, ४११,
४३१, ४८४, ६७९ १९७ पेएण २८१ पोसए
६७५ पुव्वकीलितं
६६३ | पेच्छाघरमंडव ३०७ पोसह पुव्वगए २६२ पेज ३९, ७४१ | फंदंतं
५४२ पुव्वगते १४२, ३२४, ७४२ पेजबंध
१०७ | फग्गुण पुव्वदारिता ५८९ पेजबंधण
| फग्गुणीओ पुव्वरतं
६६३ पेज्जवत्तिता ११७, ४१९ | फरुसवयण पुव्वरत्तावरत्तकालसमय २८४ पेडा
५१४ फल
२५३, ७७३ पुव्वविदेह ९४, १००,
६९२ फलगसेज्जा
६९३ २९९, ७२४ पेमे
३२३ फलत्ताए
३४४ पुव्वा १०६, ३८६, ४११ पेम्मे
१८३ फलभोयण
६९३ पुव्वा आसाढा ५१७, ५८९ पोंडरिगिणी
३०७ | फलिओवहडे पुव्वा फग्गुणी १२१, पोंडरिगी
६४३ फलिह
५९०, ७७८ _ ५१७, ५८९ पोंडरीते
७६४ फलोवए पुव्वा भद्दवता ५८९ पोंडरीयदह
१९९ फलोवते
१३७
पुव्व
३१४
लपत्त
१८८
३१३
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
४३५
फोडा
बउसे
बंध
बल
६७२
६९३
२८२
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः फलोवारुक्खसामाण १३७,३१३ फेणमालिणी १००, १९९, बंभसोते
४४९ फाले ७५५
५२२ | बंभी फासणता
७७६ बद्धपासपुट्ठा फासपरिणाम ___ २६५,
१६६, ४४५ बम्हा फासपरितारणा ४०२ २३३, २९६,
१४१, ७४० फासपरियारगा
१२४ ३८७, ४७३, ५४०, बलकूड
६८९ फासमंते ३४०, ४४१ ५९६, ६६५, ७४९, बलदेव ९३, १४८, १५२, फासामतेणं ५२१,६१५
७५५, ७८३ २९९, ४४०, ४९१, फासामयातो ३६८ बंधंति
४६८
६३८, ६७२, ६९२ फासामातो ___ ५२१, ६१५ | बंधट्टिती
६५८ बलदेवमायरो फासिंदितअसंवर ४८७ | बंधण
बलमत
६०६ फासिंदितबल ७४० बंधणच्छेयण
४६२ बलवाहणकहा फासिंदितमुंड ७४६ बंधणपडिहा
४०६ | बल-वाहण-कोसफासिंदितसंजम ___४३० बंधणपरिणाम ७१३ कोट्ठागारिड्डी २१४ फासिंदियअप्पडिसलीण ४२७ | बंधणोवक्कम
२९६ | बल-वीरित-पुरिसयारफासिंदियअसंजम ४३० |बंधति
परक्कमपडिहा ४०६ फासिंदियअसंवर
बंधदसा
७५५ बलसंपन्न २८१, ३१९, ३२८ फासिंदियत्थ ३३४, ४४३, बंधिंसु
२५० | बलसा
४१५ ४८६ बंधिस्संति
४६८ बला फासिंदियपडिसलीण ४१७ बंधेसु
४६८ बलाहगा
६४३ फासिंदियमुंड ४४३ | बंभ १०५, ३९३, ६७२ बलि । १०५, २५७, फासिंदियसंवर ४२७, बंभकूड
७६८
२७३, ४०३, ४०४ ४८७, ५९८ बंभचारी
६१८ बलिया
३२५ फासिते १८४ बंभचेर
६६२ बहस्सति ९५, ४८१, ६१३ फासुतेसणिज्जेणं १३३ बंभचेरगुत्ती ५००, ६६३, बहिता फासुय
६९३ बहिद्धादाणातो
२६६ ५४२ बंभचेरवास ३९६,६९३ | बहिल्लेसे
४३९ फुडा
२७३ बंभदत्त १२३, ३१५, ५६३ बहुजण ५९७, ७३२ फुडित्ताणं १०८ बंभलोए
२०५ बहुदोसे १०८ बंभलोग १५९, ४६८, | बहुपडिपुण्णा
६९३ १०८ ५७७, ५७८ बहुपुत्तिता
२७३
४२७
७७२
३०६
२८४
२४७
फुरित्ताणं फुसिताणं
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
५८
१४६
बहुरूवा
on
३१६
३०२
बोंदी
७८८
बाहुबली
४३५
३७७
WW
WW
विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः बहुपुत्ती ७५५ बाहिरपुक्खरद्ध ६३२ बुद्ध
१६४ बहुमच्छकच्छभाइण्णा १५७ | बाहिरब्भंतरए ___ ५४२ बुद्धि ८८, १९९, ३६४, बहुमज्झदेसभाग ३०७ बाहिरब्भंतरिया
५९७
५२२, ६४३ बहुरता ५८७ बाहिरभंडमत्तपरिग्गह
बुह
३५२, ४८१ २७३ बाहिरभंडमत्तोवही
बेइंदिया
४५८ बहुवयण १९८ बाहिराबाहिरे
७२६ बेंदिताणं बहुसमरमणिज ३०७, ६७० बाहिरिल्लाओ
बोंदि
३४१ बहुस्सुत ४७५, ५९४ बाहीहितो
६७५ बहूदतो ४६० बाहुपसिण
बोधी
१६४ बातालीसं ३०२
भइत्ता
५१२ बादरआउकाइया ५७३ बिंब
भंगसुहुम
७१६ बादरकातेहिं | बिंबत्ताते
| भंगिते १७८, ४४६ बादरतेउकाइया ४४४ बिहणिजे
५३३ भंते
५७२ बादरबोंदिधरा बिचक्खू
भक्खरामा
५५१ बादरवणस्सतिकातिताणं ७२८ | बिलोवमे
भक्खे
६८१ बादरसंपरायसरागसंजम ६२ बिसरीरा
भगवं १, ४५, १८३, बादर ४४४ | बीए
१५४ ३२२, ३२३, ३९६, बायरं ६३, ७३२ बीतिया
५६८, ५८७, ६२२, बारसाहे
बीभच्छा
३५७ ६५३, ६८०, ६८१,६९२ बालतवोकम्म ३७३ बीय ६७३, ७७३ भगा
९५ बालपडियमरण २२२ बीयभोयणे
भगाली
७५५ बालमरण २२२ | बीयरुहा ४३१, ४८४ भट्टिस्स
१४३ बाला ७७२ ६१६ | भडखइया
३५५ बावट्ठ
१६५ भणितीओ बावीस
२६६ बुज्झति २३५, ४१० भता बाहाते ४१५ बुतिताई ३९६ भते
७४१ बाहिंदुढे ३४४ बुतित्ता
| भत्त
२८२ बाहिंसल्ले ३४४ | बुध ९५, ६१३ भत्तकह
२८२,२८४, बाहिरगे ६५ बुधहियए ३५२
५६९ बाहिरते ५११ बुद्धबोधियखीणकसाय
भत्तपच्चक्खाणे
११३ बाहिरपरिसाते
२०२ वीयरागसंजम ६२ भत्तपाणपडितातिक्खिते ३१४
६०९
६९३
६९३
बीयसुहुम ३०७ बुआवता
५५३
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६
४६६
२५४
२७६
१८८
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः भत्तपाणपडियाइक्खित्त ६६, भवक्खएणं
५९७ | भावपडिक्कमण
४६६ २१० भवद्विती
७९ भावप्पमाण
२५८ भत्तपाणपडियातिक्खियं
भवणगिह ३९४ | भावसंसार
२६१ भत्तपाणपरिन्ना ४२० भवणवासी २५७, ५७९, भावसच्च
३०८ भत्तपाणसंकिलेस ७३९
७३६, ७५० | भावसुद्धे भत्तपाणातिसेसे ५७० भवत्थकेवलनाणे ६० | भाविताभाविते
७२६ भत्तपाणोमोदरिता १८८ | भवधारणिज्जगा ५३२ | भावियप्पाणो
४४० भद्द
७७, २५१, भवधारणिज्जसरीरगा १५९, ४६८ भावुजुयता २८१, ३०७, ३९२, भवधारणिज्जा ३७५, ५७९ भावोगाहणा ६४३, ६८५, ६९३ | भवपच्चइए
६० भावोमोदरिता भद्दजस ६१८ भवसिद्धिए ४१, ६५ भासअणुज्जुयता
२५४ भद्दमणे २८१ | भवाउए ७९, ११६ भासं
७७६ भद्दवया ९५ भवितदव्वदेवा ४०१ भासंति
१७५ भद्दसालवण १००, २९९, ६४१ | भविया
१७० भासग
६९, ११२ भद्दसेणे
४८५ | भासज्जातं
२३८ भद्दुत्तरपडिमा ३९२ भव्वपुर
६७३ भासति भय ४१२, ७००, भसोले
३७४ भासरबोंदी ७३२, ७४५, ७५३ | भातिल्लगा
| भासरासी भयगा १३७ भातिसमाण ३२२ भासा
२३७ भयट्ठाणा ५४९, ६९३ | भारं
भासाजाता
२३८ भयवेयणिज्ज ३५६ भारग्गसो ६९३ भासातो
४७९ भयसन्ना ३५६ | भारद्दा ५५१ | भासाविजते
७४२ भरणी ९५, २२७, ३०३, भारियाए
भासासद्दे ४११, ५२७, ५८९,६६९ | भारुड
६९३ भासासमिए
६९३ भरह ९९, १००, १८९, | भाव २०८, ७४१, ७४३ | भासासमिती ४५७, ६०३, ७११ १९९,२३५, ३१५, भासअणुज्जुयता २५४ भासित्ता
१६८ ४३४, ४३५, ५१९, भावओ
४४१ भासेत्ता
२६९ ५२२, ५५५, ६१७, भावकेउ ९५, २७३, ३०३ भासुज्जुयया
२५४ ६२७, ६८९, ७१८,७२४ भावणा ६९३, ७५५ | भिंगा
५५६, ७६६ भरहेरवतेसु २६६, ४९३ भावण्णाण
१९३ | भिंदति
४०९ भव २९४ | भावदेवा ४०१ भिंदित्तते
४७९
४०४ भवे
५९७
९५
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
भिक्खु
भिक्खुप
विशिष्टशब्दा:
भिंभिसारे
भिन्ने
भिक्ख
५९७ भुविं
भिक्खागा २४३, ३५२, ४५३ | भुसागणी
भिक्खातरिता
भिक्खासतेणं
भिज्जंता
भिजंति
भिज्जादार
भिज्झानियाणकरण
भिन्नपिंडवाति
५४५, ६४५,६८७, ७५५, ७७०
भिन्ना
भिन्ने
भीत
भीम
भीमसेण
भीमाते
भीरू
भुंजतिणो
भुंजमाण
भुंजित्ता
भुजपरिसप्पा
भुत्त
भुयंग
भुयगवती
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दा:
६९३ | भुयगा
३६० भुयाहिं
५११ भूइंदा
५४५ भूतवडेंसा
१८८ भूतरन्नो
१८८, ४२४,
भुयगपरिसप्पथलचर
पंचेदियतिरिक्ख जोणियाणं
प्रथमं परिशिष्टम् ।
भूतवाइंदा
भूतवात
७३ भूतवेज्जा
७७६ भूता
५२९ भूताणंद
३५४ भूतामिसंक ३९६ |भूतिंद
७५ भूतिकम्म
७०५, ७४४ भूमिभागा
५५३ भूमिसेज्जा
१०५, २७३ भूया
७६७ भूयाणंद
१८५ भूसणस २८१ भेउरधम्मा
५५१ भेद
४१४, ५९७ | भेद (परिणाम) १६८ भेदाते
१३८ भेयणे
५३३, ६९३ भेयसमावन्न
६५४ भेलतित्ता
२७३ भोग
| भोगंकरा भोगपडिहा ७०१ | भोगपुरा
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा:
२७३ भोगभोगाई
७५० भोगमालिणी
४४१ भोगव
५९७ भोगा
१०५ | भोगासंसगिद्धेणं ३०७ भोगासंसप्पओगे
२७३ भोम
१०५ भोय
७४२ | भोयणपडिकूलता ६११ भोयणपरिणाम
१८२, ३०७, ६५४ मउअरिभितपदबद्धं २५७, २७३ मते
५८५ मऊरो २७३ मंकारे
३५४, ६७९ | मंखलिपुत्त
१७५, ६५४ | मंगलावतीकूड
१०५, ४०४ मंगल्लाहिं
७३ मंगी
४२४
६६७
४३६, ५३३
५५३
५९९
५५३
७४४
७७६
३०७ मंगल १३३, १८३ ६९३ मंगलावती १००, ६३७, ६८९
५९०
६९३
५५३
३४९
३४९
१५४
६७३
१००
५५७
५५१
१५८, २०५
५५१
५९७
३४१
७५ मंगल
१९१ मंगुली
७१३ |मंचाउत्ताणं
३९८ | मंजू संठिता २५ मंजूसाओ
३२५ मंडलबंध
५१२ मंडलो
७३७ मंडलिया
६४३ मंडवा
९ ४०६ मंडितालित्थाणि
१३७ | मंडुक्कजाइआसीवि
५७
सूत्राङ्काः
५९७
६४३
६४३
१३७, ४९७
१८४
७५९
६०८
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
मंथं
३७४
१४७ ४०२
२१०
०
०
५९८
३१०
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः मंते
६७८ | मज्झत्थभावभूत ६४९ मणपजवनाण ५४,१८८,४६४ मंतसोते ४४९ मज्झिम १८०, २६६, ५५३ | मणपज्जवनाणअरहा
२२० ६५२ | मज्झिमउवरिमगेवेज्ज
मणपज्जवनाणकेवली २२० मंदए
विमाणपत्थडे २३२ मणपडिसलीण २७८ मंदमणे २८१ मज्झिमगा ३९६ मणपणिधाण
२५५ मंदर १००, २०५, ३०६, मज्झिमगाम
५५३ | मणपणिहाण ४३४, ५५५, ६४३, मज्झिमगेवेजविमाणपत्थडे २३२ मणपरितारणा ६८९, ६९३, ७५५ मज्झिमपरिसा २६०, ५०६ मणपरियारगा
१२४ मंदरचूलिआओ ३०६ | मज्झिमपुरिसा
१३७ मणपुन्न
६७६ मंदरचूलिता ४३४, ७५० मज्झिममज्झिमगेवेज- | मणविणए
५८५ मंदरचूलिया २९९, ६३९, ६४० विमाणपत्थडे २३२ मणस मंदा २८१, ७७२ मज्झिमहेट्ठिमगेवेज
मणसंकिलेस मंस २०९,२७४,६७४,७१४ विमाणपत्थडे २३२ मणसंवर मंसाणुसारी ५३३ मज्झिल्ला
३८३ | मणसंजम मक्का ५०७, ५०८ मट्टियागोले
३५० | मणसमिती
६०३ मक्कार ५५७ मट्टियापादे
१७८ मणसवयसकाइए ६९३ मगसिर
९५, २२७ मडंब १०६, ३९४, ६७३ मणसुप्पणिहाण १४७, २५५ मग्गंतराएणं
३५४ मण १३,३१,३२५,७४३ मणामस्सरे मग्गओ ३५५ मणअकिंचणता ३१० मणाम
७५, ५९७ मग्गतो पडिबद्धा १६५ मणअगुत्ती
१३४ मणिकंचण
६४३ मग्गसण्णा
७३४ मणअपडिसंलीण २७८ मणिकंचणकूड ८७, १००, मघवं
७१८ मणकरणे मघा ५४६, ५८९, ६२४ | मणगुत्ती
१३४ मणिपेढिता
३०७ मच्छबंधा ५५३ मणचियात
३१० मणि-मोत्ति-सिल-प्पवाल ६७३ मच्छा ४५३ मणजोगी
३६५ मणियंगा ५५६, ७६६ मज्ज ६७४ मणजोगे
मणरियण
५५८ मज्जति २८१ मणदंड १३४ मणी
३३८ मज्जपमाते
५०२ मणदुप्पणिहाण १४७, २५५ मणुण्ण(न) ७५, १३३, २२१, मज्झगार ५५३ मणपओग
१३२
५३३, ६२३ मज्झचारी ___ ३५०, ४५३ मणपओगकिरिया १९३ | मणुन्नसंपओगसंपउत्ते . २४७ मज्झजिब्भाते ५५३ मणपजवणाणजिण २२० मणुयगती
४४२
५९७
१३२
५२२
०
०
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
३५०
५९७
७९.
५४९
विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः मणुयगामी
४६१ मद्दव २४७, ३७२, ३९६ महतिमहालता ३०२, मणुयसोग्गती २६७ मधुगुलियपिंगलक्खो २८१
३९४, ४५१ मणुस्स ३१६, ४४० | मधुरं
५५३ महतिमहालया
२०५, मणुस्सजातिआसीविस ३४१ मधुरभासिणी
३६०
३९४, ७६४ मणुस्सदुग्गई १८७, २६७ मधुरा
३९० महद्दुम ४०४, ५८२ मणुस्सदुग्गता १८७, २६७ मधुसित्थगोल
| महपउम
६७३ मणुस्सपुरिसा १३९ मधुसित्थगोलसमाणे ३५० महपरिण्णा
६६२ मणुस्ससुग्गता १८७ मनोरम
६६३ | महयाहत मणुस्ससुग्गती १८७ | मन्ना
२१ | महल्लिया ७७, २५१, ७५५ मणुस्सिदे १२७ मयणा
२७३ महव्वत २२३, ३८९, ६९३ मणुस्सित्थी १३९ मयणिज्जे ५३३ महसीह
६७२ मणुस्सीए ३५३ मरण
२२२ | महा ९५, ५१७, ६५६ मणुस्सीगब्भा ३७७ |मरणकाल
२६४ | महाकंदिंदा १०५ मणोदंड ६९३ मरणभते
| महाकच्छ १००, २७३, ६३७ मणोदुहता ५५९ मरणासंसप्पओग ७५९ | महाकम्म
३२१ मणोमाणसियं ६९३ मरुदेवा
| महाकम्मपच्चायाते २३५ मणोरमा ३०७ मरुया
७२ | महाकाए
१०५ मणोसुहता ५५९, ५८८ | मलय
६९३ महाकाय
२७३ मणोसिलाते
३७४ | महाकाल १०५, २५७, २७३, मणोहर ६६३ मल्लालंकार
३०२, ४५१, ६७३ मण्णत्ति ३४४ | मल्ली ११९, २२९, | महाकालगा
९५ मतिअण्णाणी ६४६
४७०, ५६४ महाकिण्हा ४६९, ७१७ मतिअन्नाणकिरिया १९३ मसारगल्ले
७७८ महाकिरिए मतिभंगदोस ७४४ मसूर
४५९ | महाघोस १०५, २५७, मतिसंपता ६०१ महं ४१७, ७५०
२७३, ५५६ मतीते
३५६ | महंतमलयमंदर ६९३ महाघोररूवदित्तधरं ७५० मत्तंगता ५५६, ७६६ महंधगार
२९१ महाजस
६१७ मत्तजला १९९ | महग्गह २७३, ६१३ महाणंदियावत्त
२५७ मत्तयला ५२२ महच्चे १४३ महाणक्खत्ते
५८९ मत्थुलुंगे २०९ महज्झयणा
५४५ महाणदी १९९, ४१२, ४३४ मदणा ४०३ महण्णवातो
४१२|
३२१
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०४
३०७ २००
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः महाणिरया ४५१ महापुरिस १०५, २७३ महासतते
७५५ महाणुभागाई ३२५ महापोंडरीते ७६४ महासागर
७५० महातीरा
४६९, ७१७ | महापोंडरीयदह १९९, ५२२ महासुक्क १०५, ३७५ महादहा ७७९ महाबल
६१७ | महासुमिण ७५०,७५५ महादामड्डी ४०४ | महाभद्दा ७७, २५१, ३९२ महासेए
१०५ महादुमा ७६४ महाभीम १०५, २७३ महासेते
५८२ महाधाततिरुक्ख ६४०, ७६४ | महाभीमसेण ६७२, ७६७ महासोक्खा
८२ महाधायईरुक्ख ९९ महाभेरी ५५३ महासोतासे
४०४ महानदी
४६९ महाभोगा ४६९, ७१७ महाहिमवंत ८३, १००, १९९, महानिजरे २१०, ३९७ महामाढरे
५२२, ५५५, ६४३ महानिधी ६०२, ६७३ महामेहे
३४७ | महाहिमवंतकूड ८७, १००, महानिमित्त ६०८ महारंभताते
५२२ महानिहाण ३९४ महारंभा
१५८ महिंदज्झया महानीला ४६९, ७१७ महाराया
५१९ हिड्डीए महापउम ६२७, ६७३, महारिट्ठ
५८२ | महिड्डिय ८२, ३९४, ६९३ ६९३, ७१८ महारोरुते
महिता
७१४ महापउमरूक्ख १०३, ६४०, महालंजरसंठाणसंठिता ३०२ | महिया
३७६ ७६४ | महालोहियक्ख
| महिला
६७३ महापउमाती ५९३ महावच्छा
१०० | महिसाणिताधिपती ४०४ महापउमद्दह
महावप्पा
१०० महिसाणिते ४०४, ५८२ १९९, ५२२ महावाऊ
४०४ महिस्सरे
१०५ महापउमद्दहवासिणी १०० महाविगती
२७४ | मही ४१२, ४६९, ७१७ महापज्जवसमाणे २१०, ३९३ | महाविदेह १८९, २६६, ५५५ | महु
२७४, ६७४ महापम्हा १०० महाविमाण १५६, ३३०, ४५१ महुकुंभ
३६० महापरिग्गहताते ३७३ महावीर ४५, ११३, १७४, | महुर
३८, ७१८ महापहपह
३९४ २२९, ३२२, ३८२,३९६, महेसक्खा २००, ३९४, महापाडिवत २८५ ___ ४११, ५६८,५८७,६२२, महोरगसरीरं
३९४ महापाताला ६५३, ६८०, ६८१, ६९१, महोरगा
६५४ महापायाला ३०२
६९३, ७५० | महोरगिंद १०५, २७३ महापुंडरीयद्दहे ८८ महावीरभासिता ७५५ महोरते
२०० महापुराओ १०० महावुट्ठीकाते १८२ | माइल्लताते
३७३
४०४
८८, १००,
६९३
७२१
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
माई
४१ १९०
४१९
मारे
१८७
विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः ५९७ मायं
५९७ मिच्छत्तकिरिया माउए एक्कते २९७ मायंजण ६३७ | मिच्छत्तपडिक्कमणे
४६६ माउयंगा २०९ माया
७४१ मिच्छत्ताभिनिवेस ३७० माउयकती २९७ मायाकसाए
२४९ मिच्छदंसण १९०, ५६५, माउयाणुओग ७२६ मायापडिसलीण २७८ मिच्छदिट्ठी मागध ६३४ मायामुंडे
४४३ | मिच्छदिट्ठीयाणं मागह १५० मायामोस
३९ | मिच्छपओग माघवती ५४६, ६२४ मायावत्तिया
५० मिच्छरुती
१९० मातंजण १००, २९९, ४३४ | मायासल्ल
१८८ | मिच्छा
७४९ माता १८३, ३२३ मायी
१७६, ३२६ | मिच्छादसणवत्तिता माताते
३०७ मारणंतियसमुग्घात ३८०, ५८६ | मिच्छादसणवत्तिया मातावत्तिता ४१९
५१५ मिच्छादसणसल्ल ३९, १८८ मातावत्तिया ३६९ मालंकारे
४०४ | मिच्छादसणसल्लविवेग ३९ मातुओयं
१८५ मालवंत ८५, १००, २९९, माडंबित ६९३ ४३४, ६८९, ७६८ मिच्छापावतण
६७८ माढरे ४०४, ५८२ मालवंतदह
४३४ मिच्छावातं
२८२ माण
७४१ मालवंतपरिताते २९९ मित माणकर ३१९ मालवंतपरियाए
८४ मितं
५५३ माणकसाए
२४९ मालवंतपरियागवासी १०० मितवाती माणपडिसंलीण २७८ मालवंतपरियागा १०० | मितवीही
६९९ माणमुंडे ४४३ मालाउत्ताणं १५४ | मित्तगा
२७३ माणवग ९५, ६७३ मास १०६, ४५९ मित्तणिही
४४८ माणवगण
मासिते ४३३ | मित्तदाम
५५६ ५८२ माह
३७६ | मित्तरूवे माणिभद्द १०५, २७३, ६९३ माहणं १३३, ७७५, ७७६ मित्तवाहण
५५६ माणी ६८९ माहणवणीमते
| मित्तसमाण
३२२ माणुम्माण
६७३ माहिंद १०५, २९१, | मित्ता माणुस
३५३, ३६१ ३७५, ५३२, ५७७ मित्ते ३२३, ३६६, ४३९ माणुसुत्तर २०५, २९८, मिउकालुणिता ५६५ मित्तेया ७२५, ७५० | मिगसिर ५८९, ६९४, ७८१ | मियमणे
२८१ माणुस्सए ___३२३, ४८५ | मिच्छत्त १९३, ७३४ | मियापुत्ते
७५५
२८१
६०७
६८०
माणसे
३६६
४५४
९५
५५१
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
४७५,
मुइंगो
३५६
मुक्कतोए मुग्ग मुंडभावे
४५९
६७५ मोयपडिमा
६६
मुहुत्त २०४
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः मिलायमाणं १८५ मुदग्गे ५४२ मेहराती
६२४ मिहिल ५८७, ७१८ मुद्दितामहुर
३१९ मेहवती
६४३ मिस्सकेसी ६४३ मुद्दियाणं
१५४ | मेहा ३४६, ३४७, ४०३ मीसजाए ६९३ मुद्धाण
५५३ | मेहावी ४७५, ५९४ मीसापरिणता १९२ मुम्मुरे
४४४ मेहुण (वेरमण) मीसिता
२१४ | मुम्मुरोवमे ३४०
२०३, ७११ ५५३ मुसं
६३३ | मेहुणसन्ना मुंमुही ७७२ मुसावादाओ
२६६ मोक्ख ६६५, ७४९, ६९३ मुसावाय ३८९,५२८ | मोग्गलायणा
५५१ मुसावायवेरमण ७११ | मोणचरते
३९६ ६९३ मुहं
७७, २५१ मुंडा २१०, ४४३, ७४६ | मुहमंडवा
३०७ मोयावइत्ता
३५५ मुंडावित्तए
१०६, १८३, मोस
२३८, ७४१ मुंडावेत्तए
१९७, ३२३ | मोसली
५०३ २३५ मूढ १६४, २०४ | मोसाणुबंधि मुच्छंति
४११, ६१४, मोह
१६४ मुच्छणा
७७३, ७८१ | मोहरे
७६२ मुच्छा ११७ | मूलगबीयाणं
५७२ | मोहणिज्ज २६८, ३५६, मुच्छिते १८३, ३२३ मूलबीया २४४, ४३१, ४८४
५९६, ७५० मुंजापिच्चिते ४४६ मूलभोयण
६९३ मोहणिज्जट्ठाणा ७५५ मुट्ठिया ५५३ मूलारिहे ६०५, ६८८ | मोहरिते
५२९ मुणिसुव्वत्त ११९, ४११ | मूलो
९५, ४११, | रंग
६७३ मुणेतव्वे
५१७, ५८९ | रंगमज्झम्मि
५५३ मुतिंग ५९७ मेंढमुहदीव
३०१ रंभा ३६६ मेंढविसाणकेतणते २९३ | रक्खसरन्नो
२७३ मुत्तसण्णा ७३४ मेंढविसाणकोरव २४२ | रक्खसा
६५४ मुत्तादामा
३०७ मेंढविसाणकोरवविसाणे २४२ रक्खसिंद १०५, मुत्तालते ६४८ मेघमालिणी ६४३ | रक्खसीए
३५३ मुत्तिमग्ग ५२९ मेहंकरा ६४३ | रक्खसे
३५३ मेहमुह ६३१ रजति
३९० ३७२, ३९६, ६४८ | मेहमुहदीव
३०१ रज्जुक्कले
४५६
मुच्चति
२४७
५५३
३४९
m
3
४०३
मुत्तरूवे
करा
मुत्ती
३७२, २०, २६६.
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
रज्जू
६९३
६५
४७१
३२१
रतणे
रतते
७५५
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः ३३७, ७४७ रम्मगकूड
६८९ रहाणिते ४०४, ५८२ रट्टथेरा
७६१ रम्मगवस्स २९९, ५२२ रहोकम्म रठ्ठधम्म ७६० रम्मगवस्सगा ४९१ राइड्ढी
२१४ रतं ४२३ | रम्मगवास १००, १९९, ५५५ राइणिते
३२१ रतणप्पभा २७३, ५४६, ६४८, रम्मगा
१०० राइन्ना
१३७, ४९७ ६५५, ६७०, ६९३ रम्मा
१०० रागनिव्वत्तिए रतणसंचया २९८, ३०७, ६३७ रमणिज्जा .
१०० | राजधाणीते रतणी ३७५, ४०३, ५३२ रयण
२९८, ३०७, रातककुधा
४०८ रतणुच्चत २९८, ३०७, ६४३
६४३, ६७३ रातिणिया ७७८ रयणगोले
३५० राती २७३, ३११, ४०३ ७७८ रयणप्पभा
७५७ रातीभोयणं २०३, ४१४ रति
रयणवास ६९३ रातीसर
६९३ रतिकरगपव्वता ३०७, ७२५ रयणसंचते
६४३ | रामगुत्त रतिप्पभा २७३ रयणसंचया १०० | रामरक्खिता
६१२ रतिसेणा
२७३ रयणी २७३, ४६८, ५५३ रामरक्खिया ५८२ रयत
रामा ३०७, ६१२, ६९२ __ ४६९, ५५३ रयुग्घाते
७१४ रायंतेउरं
४१५ रत्तकंबलसिला १००, २९९ रव
५९७ रायंतेउरजणो ४१५ रत्तप्पवायद्दहे
रसगारव
२१५ रायकरंडगसमाणे ३४८ रत्तवती ९१, १९९, ५२२ रसजा
५४३ रायकरंडते
३४८ रत्तसुक्काण
__ ३७७ रसणिज्जूहणता ३०९ | रायकहा २८२, २८४, ५६९ रत्ता ९१, १९९, ५२२, रसपरिच्चाते
रायग्गला
९५ ५५५, ६३९ रसपरिणाम २६५, ७१३ रायगिहं रत्ताकुंडा ६३९ रसमंते ३४०, ७१३ रायणित
३२१ रत्तावइप्पवातद्दहे ९० रसा
३९० रायपिंड
६९३ रत्तावति ४६९ रसातणे
६११ रायरिसी रत्तावतिकुंडा ६३९ रसिते.
५३३ रायवन्नतो
६९३ रत्तावतिप्पवातद्दहा
३८ रायवुग्गह
७१४ रत्तावती ५५५, ६३९ रहस्स
३८, ५१, रायहाणिं
४१७ रधाणिताधिपती ४०४, ५८२
५५३, ७०५ रायहाणी १०६, ३०७, रम्मग ६४३ रहस्संगारवपरिणाम ६८६
५३५, ६३७
३०७
रती
६८९
५११
७१८
६२२
१००
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४
४५५
रिट्ठा
९०
३२५
१८८
७१२
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः राया १५८, ३४६, ४४७ रुप्प
६७३ रूवमंत
६०६ रायाभिसेएणं ६९३ रुप्पि ६२८ रूववती
२७३ रालग ५७२ रुप्पागरे
५९७ | रूवसंपन्न २८१, ३१९, ३२८ रासी ३३७, ७४७ रुप्पी ८३, ९५, १००, रूवाणुवाती
६६३ राहू १९९, ५२२, ५५५, रूवी
४४१ रिट्ठ २५७, ५८२, ६४३
५६४, ६४३ रूवे रिट्ठपुराओ १०० रुप्पिकूडा ८७, १००, रेवति
४११, ६९४ रिट्ठविमाणपत्थडे ६२४
५२२, ६४३ रेवती
९५, ४११, १००, ५४६, रुप्पकूलप्पवायद्दह
५८९, ६९१ ६८४, ७७८ रुप्पकूला ८९, ५२२, ५५५ रोइतस्स
४८५ रितासमिती ७११ रुप्पकूलातो
१०० | रोएइ रिभित्त ३७४, ५५३ रुप्पाभासा
९५ रोगातंक रिव्वेदे १९१ रुयए
६८९ रोगिणिता रिसम ३०७, ५५३ रुयग
७२० रोगुप्पत्ती
६६७ रुंभति ४०९ रुयगकूडा ८७, १००, ५२२ रोतेमाण
३२५ रुक्खा १३७, २३६, | रुयगवर
२०५, ७ ७२५ | रोतेमि
५४२ ३१३, ३४९ रुयगिंदे
७२७ | रोद्दे
२४७, ३५७ रुक्खमूलगिहसि १९६ रूतंसा
यणागिरी रुक्खविगुव्वणा ३४४ | रूतकंता
५०८ रोरुते
४५१, ५१५ २५७ रूतप्पभा ५०८
५१५ रुतंस
५०८ | रोविंदए
३७४ रुतग ६४३, ६८९ रूतावती
५०८ रोसा रुतकंत २५७ रूयंसा
२५९ रोहिणि रुतगुत्तम ६४३ रूयकता
५०७ रोहिणी २७३, ३०७, ४७२, रुतप्पभ २५७ रूया
२५९ ५१७, ५८९, ६१२, रुतसंपन्न ३१२ रूयावती २५९, ५०७
६५६ ३८, २३९, रोहितंसा १९९, ५२२, ५५३ ६७२
३१९, ७४१ रोहिता ५२२, ५५५, ६४५ रुद्दसेण ५८२ रूवकहा
२८२ | रोहिय ९५ रूवपरियारगा १२४ रोहियंसप्पवातद्दहे रुन्नजोणीतं ५५३ रूवपरितारणा
४०२ | रोहियप्पवातद्दहे
६४१
रुत
५०७,
२५७ रूता
५०७
७१२ ९५
रुती
रूवं
रुद्दा
९०
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशिष्टशब्दा:
रोहिया
लंछियाणं
लंतए
लंतत
लक्खणवंजण
लक्खणसंवच्छरे
लगंडाती
लच्छी
लच्छी देवी
लच्छीवती
लज्जाते
१०५, १५९ लिंगपुलाते
४६८, ५७८ लिंगाजीवे
लक्खण २४७, ६०८, ६२८ लित्ताणं
दंत
लदीव
लत्तियासद
लद्धा
लद्धावलद्धवित्ती
लभित्ता
लयसमं
लव
लवण
लवतसमुद्द
लवणोदे
हु
लहुपरक्कम
लहुभूते लाउयपादे
लाघव
लाघविते
लाभ
लाभमत
प्रथमं परिशिष्टम् ।
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा:
१०० लाभासंसप्पओग १५४ लिंगकुसीले
६९३ | लुक्ख ४६० लुक्खताते ३९६, ५५४ लुक्खत्ताते
१९९, ५२२ लूसते
१०० लूहचर
६४३ लूहजीवी ७४५ लूहे
३०१, ६९८ लेच्छती
३०१
पुण
७३ ले सुम
१८३, ३२३ लेतितापिता
६९३ |लेसणता
१६८ सा
५५३ लेसा (परिणाम) १०६, १९७, ४६० लोउज्जोते ९७, ९८, ५८० लोगंता
४०४,५८२,५८३ लोगंतिया
६९३ लोगंधगार
१७८ लोगंधयार
३९६ लोगट्टिती ४५५
३२५, ४९६ लोगतमस ६०६ लोगदव्व
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः
७५९ लोगपमाणमेत्ते
४४५ लोगपाला ४४५ लोगमज्झावसिते
४०७ | लोगविजओ १५४ लोगण्णा
३८, ५९९, ७०५ लोगागास
३३४ लोगाणुभाव
२११ लोगाभिगम
३३६ | लोगालोगपमाणमेत्ते
३९६ लोगिते
३९६ लोगुज्ज
२३५ लोगोवतारविणते
७५५ लोगोवयारविणए
६७६ लोणं
३०१
३८४ | लोगंतितविमाणा ५९९ लोगंतिता
११२ | लोभव्वितिए
७१३ लोभपडिसंलीण ३२४ लोभमुंड
२११, २१९, ३३४, लोभवेयणिज्ज
६१६ लोभ
७५५ | लोभकसाए
३६१ लोभकसायी
४७९, ७०४ लोभसण्णा
६२५ लोमपक्खी
३२४, ६९३ लोलुए १४२ लोले
२९१, ३२४ लोह
१४२ लोहंतर १७१, २८६, लोहंतरसमाणे ४९८, ७०४ लोहारंबरिसाणि
२९१ लोहिच्चा
४४१ लोहितक्खा
६५
सूत्राङ्काः
४४१
१४२, २५७
३७४
६६२
७५२
३३४
३३४
५४२
४४१
१९१
१४२
५८५
५८५
७४३
७४१
२४९
४५८
३७१
२७८
४४३, ७४६
३५६
७५२
३५१
५१५
५१५
६७३
२७०
२७०
५९७
५५१
९५, ४०४,
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
TA
१३४
३५०
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः ५९०, ७७८ वक्कंती १७१, ४९९ वड्डमाणते
५२६ लोहिता ३८, ३७५, ३९० वक्कमति १४८, १८२ वणकर
३४३ वइअगुत्ती १३४ वक्खारपव्वत ८५, २९९, | वणपरिमासी
३४३ वइजोगी
३६५ ४३४, ५९०, ६३७, वणसंडा १०६, २८९, ३०७ वइदंडे
६८९, ७६८ | वणसारक्खी
३४३ वइदुप्पणिहाण १४७ | वक्खारपव्वय ४३४ वणसारोही
३४३ वइपओगकिरिया १९३ वक्खित्ता
५०३ वणस्सइकाइयाणं ३१६, ३१९, वइपणिधाण २५५ वग्गचूलिया
७५५
३३१, ३३४ वइपणिहाण १४७ वग्गणा
४१ वणस्सतिकातितअसंजम ४२९ वइर ६८९ वग्गवग्गो
७४७ वणस्सतिकातितसंजम ४२९ वइरगोलसमाणे
वग्गुरिता ५५३ वणा
१०६, ३४४ वइरमज्झा ७७, २५१ वग्गू
१००,६९३ वणीमगा
४५४ वइरामता वग्गो
वणीमते
४५४ वइरामया ३०७ वग्घमुहदीव ३०१ वण्ण
३९० वइरोयणरण्णो
वग्यावच्चा
५५१ वण्ण (परिणाम) ७१३ वइरोयणिंद
|वच्छगावती १०० | वण्ही
६२५, ६८४ वइरोसभणारातसंघयणे ५६८ वच्छमित्ता
६४३ वतणसंपत्ता
६०१ वइसुप्पणिहाणे १४७ | वच्छा १००, ५५१, वतिअकिंचणता २३६, २८९ ६३७, ६८९ वतिकरणे
१३२ वंजण
६०८ वच्छाणुबंधिता ७१२ वतिक्कम वंजणोग्गहे
| वज्ज
२५६, ३७४ वतिगुत्ती वंजुल ७३६ वज्जरिसभणारातसंघयण ६९० वतिचियात
३१० वंदंति १७४ वज्जवित्ती ५५३ वतिजोगे
१३२ वंदति
वट्टमाणंसि
२०० वतिदुहता ५५९, ५८८ वंदामि १८३, ३२३ वट्टवेयड्डपव्वता ८४, २९९, वतिपओग
१३२ वंदावेति २५६
वतिपडिसलीण
२७८ वंदित्ता
३८, ५४८ वतिपुण्ण
६७६ १५२, ५४६ वडेंसा
२७३ वतिरे
७७८ वंसीमूलकेतणते २९३ वडेंसे ६४१ वतिरोतणरन्नो
४०३ वंसीमूलकेतणासमाणा २९३ वड्थति
३२७ वतिरोतणिंद
४०३ वंसीवत्तिया १४८ वड्डतिरयण ५५८ वतिरोयण
६२५
५८२
३१०
वंक
१९८ १३४
२५६
वंसा
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
६०९ / वसंत ३५० / वसते
वतिसाहे
३७६
| वसा
६
वत्तं
विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः वतिरोयणरन्नो २७३ वप्पो (वग्घो?) ७३६ ववहारक्खेवणी २८२ वतिरोयणिंद २७३ वमंति ४२३ ववहारवं
६०४ वतिरोसभणारातसंघयणे __ ४९४ वयणविकप्प
५८४ वसट्टमरणे वतिविणए ५८५ वयणविभत्ती
२८१, ५२३ वतिसंकिलेस ७३९ वयरगोले
३३६ वतिसंजम
वयस २१० | वसभ
६९३ वतिसंवर ५९८ वया १६३ वसभवीही
६९९ वतिसमिती .
वयी १३ वसमाण
४३८ | वरदामे १५०
२७४ वतिसुहता ५५९, ५८८ वरा
५७२ वसिट्ठ १०५, ६१८ वतिस्संति
वरिसकण्हा ५५१ वसियव्वं
१८५ वती __ ३२ वरिसारत्ते
५२३ वसुंधरा २७३, ३०७, ६१२, वते १६३ | वरुण ९५, २५७, २७३,
६४३, ६९३ ५५३ | ५७४, ६२५, ६८२,६८४ वसुगुत्ता ३०७, ६१२ वत्थ २३९, ४०९, ६७३ | वरुणवर ___५८० वसुदेव वत्थगंधं
५५३ वरुणोद ३८४, ५८० वसुमती वत्थपडिमा ३३१ वरुणोववाए
७५५ वसुमित्ता ३०७, ६१२ वत्थपुन्न ६७६ वरे
७६९ वसू ९५, ३०७, वत्थालंकार ३७४ वलएहिं २२४ वहमाण
३१४ वत्थु २४९,६२९,६७९,७४४ वलतमरणे
| वाउआते
१८२ वत्थुदोस ७४४ | वलता
वाउ(काइयाणं) ३१६ वदमाण ३५४, ४२६ | वलतामुह
३०२ | वाउकुमारा वदलिताभत्ते ६९३ वल्लिपलबकोरव २४२ वाऊ
९५, ४०४ वद्धमाण ३०७ वल्लिपलबकोरवसमाणे २४२ वाएइ
२५६ वद्धमाणगा ९५ ववसाते
वागरमाण २३०, ३८१ वनपरिणाम २६५ ववसातसभा ४७१ वागरेति
२५६ वनमंते ३४०, ४४१ ववसियस्स
२२३ वाणमंतर २५७, ३१९, ३९६ ववहरमाणे
४२१
५७९, ७५० वप्पगावती
१०० ववहार १९२, २३६, वाणमंतरजोइसिया वप्पा १०० ३३७, ४२१, ५५२, वाणमंतरदेवा
६५४ वप्पे ६३७, ६८९ ७४१, ७४७ वाणारसी
७१८
६७२ २७३
२५७
वन्निता
३१६
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८
६६
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः वात २८६, ६१०, वाया
वासित्ता
३४६ ६९३, ७५४ वायुकातेणं
५४२ वासुदेव ९३, १३७, १४८, वातकुमारिंदा १०५ वायुकुमारा
८२ १५२, २९९, ३१७, वातखंधा १०६ वारिसेणा ३०७, ४६९, ६४३
४४०, ४९१, ६२८, वातणासंपता ६०१ वारुणी
६४३, ७२० ६३८, ६९२, ७३५ वातणिज्जा ३२६ वारे ५१५ वासुदेवपितर
६७२ वातपतिट्ठिए १७१,२८६,४९८ वासग्गकोडी ११० | वासुपुज्ज ११९, ४७०, ५२० वातपतिट्ठिते ६०० वालवीयणिं ४०८ वाहिं
७५३ वातपरिगते ७०७ वाला ५५१ वाही
३४२ वातपलिक्खोभ ६२४ वालुओदए
३११ विउक्कमंति १४८, १८२ वातफलिह २९१, ६२४ वालुओदगसमाण ३११ विउट्टित्तए वातफलिहखोभ २९१ वालुयप्पभा १५५, ५४६ विउडेजा
१७६ वातिए २०४ वालुयप्पभात ५७३ | विउल
३२५ वातित
५९७ वालुयरातिसमाण ३११ विउलभोगसमितिसमन्नागते १४३ वाते ७५५ वालुयराती ३११ | विउव्विजमाण
७०७ वाति ६७९ वावत्ती
२१८ विउव्वित वातिते ३४२ वावन्नसोया
४१६ विउसवितं वादिसंपता ६५१ वाविता ३५५ विउसग्ग
२८४ वादिसंपया ३८२ वाविद्धसोया ४१६ | विउसग्गपडिमा
७७ वादिसमोसरणा ३४५ वावी
१०६ विउस्सग्ग वादी ३८२ वासकोडी
१०६ | विउस्सग्गपडिमा २५१ वाम
वासधरपव्वत
६४३ विउस्सग्गारिहे ४८९, ६०५ वामणे
वाससतसहस्स १०६, १९७ | विउस्सग्गो वामा २८९ वाससता
१०६ विओसवियपाहुडे २०४ वामावत्त
| वाससहस्सा
१०६ विकहा २८२, ५६९ वामावत्ता २८९ | वासहरपव्वत २९९, विकुव्वणा
१२८ वायणंतेवासी
६८९ विकुब्वति वायणा
२४७, ४६५ वासा १०६, १९९ | विकुव्वमाण वायणायरिए ३२० | वासावासं
४१३ विक्खेवणी वायमंडलिया २८९ वासिट्ठा
५५१ विगतमीसते वायव्वा ७२० वासितुकामं
१८२ विगतसोगा
७०
५२७
Mmm
२४७
१०६,
२८९ ४९५ /वास
५११
३२०
७१ १४१
२८२ ७४१
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
५४१
५४७ ६८९
७८१ विदेश
७४
१०५
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विगतीतो ६७४ विज्जुता
२७३ वितिगिच्छामि विगतीपडिबद्ध २०४ | विज्जुतारं १४१ वितिमिरे
५१६ विगयसोग १०० | विज्जुते
७१४ | वितोसवितपाहुड ३२६ विगिचणता ६४९ विज्जुदंतदीव ३०१, ६३१ | वित्त
५५३ विगिंचमाण ४३८ | विज्जुप्पभ ८५, १००, २९९, | वित्तप्पयार
५५३ विगुव्वणा १२, ७९, ४१९ ४३४, ६८९, ७६८ वित्थाररूती
७५१ विगुव्वणिड्डी २१४ विजुप्पभद्दह ४३४ वित्थिन्ना
३०७ विग्गहगतिसमावन्नगा ६५ | विज्जुमुह
६३१ विदलकडे
३५० विग्गहा १०६ विज्जुमुहदीव ३०१ विदिसंवाते
४४४ विग्गहेणं २२५ विजुयाइत्ता
३४६ विदिसि वाते विचित्त २५७, ६४३ | विजू २७३, ४०३ | विदेह विचित्तमालामउली ५९७ विड्डिकराई
| विदेहरायवरकन्नगा विचित्तवत्थाभरणे ५९७ विणए
५८५ विद्धंसंति विचित्तहत्थाभरणे ५९७ विणओ
| विद्धिकरा
७८१ विच्छिंदति ४०९ | विणयसंपन्न
६०४ विधाते विच्छुतजाइआसीविसे ३४१ विणयसुद्ध
| विनते
७६२ विजय ३००, ६४३ | विणिघात
| विन्नाण विजयदूसा ३०७ | विणिघायं
३९० विन्नू विजयपुर १०० विणिच्छते
१९४ विप्पओगसतिसमण्णागते २४७ विजया १००, १०६, २७३, विणिम्मुतमाण ५९७ | विप्पजहमाणे
३०४, ३०७, ४५१, विणीत २०४, ३२६ विप्परिणामणोवक्कम
६३७, ६४३ विण्णाणफले १९५ विप्परिणामाणुप्पेहा २४७ विजहणा १८० विण्हू ९५ | विप्पलावे
५८४ विजोयावइत्ता
वितंजितातो ४१२ विबुज्झेजा
४३६ विजा
वितत
७३, ३७४ विभंगअन्नाणकिरिया १९३ विज्जाधरा ४९१ विततपक्खी ३५१ विभंगणाणी
६४६ विजाहरसेढी ७७४ | वितत्ता
विभंगणाणे
५४२ विज्जुकुमारिंदा १०५ वितत्था ९५, ४६९, ७१७ | विभासा ४६९, ७१७ विज्जुकुमारिमहत्तरिया २५९ वितिगिच्छा
२१८ विमल ९५, २७३, ४११, विजुजिब्भ
३०२ वितिगिच्छामित्तेगा २८८ ५९०,६४४,७२०,७६९ विजुणाम ६८९ | वितिगिच्छित ३२५ विमलघोस
५५६
३२५
१९५
२२
६८
२९६
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
०
०
वियच्चा
G
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विमलवाहण ५५६, ६९३, विवक्कतवबंभचेर ४२६ विसिट्ठ
२५७ ६९६, ७६७ विवागविजते
२४७ विसिट्ठकूड
५९० विमलवाहणाती ६९३ विवात
७५५ विसीतति
३५९ विमाणपत्थडा ५१६ विवाद
५१२ विसुज्झमाणते
६२ विमाणपविभत्ती ७५५ विवित्ता
६६३ विसुद्ध १८४, २२१, ५१६ विमाणवासी २५७ विविद्धी
९५ | विसेसे
७४४ विमाणा १८६,३३८,३७५,४६८ | विविधरतणपडिपुण्णा ६७३ विसोधी
७३८ विमाणाभरणा १८५ | विवेग २४७, २८४ विसोधेमाण
४३८ विमाणिड्डी २१४ विवेगपडिमा ७७, २५१ विसोहणताते
६४९ विमाणोववन्नगा ६७ | विवेगारिहे ४८९, ६०५ विसोहित्तए
६६ विमुत्ती ७५५ विसए ३४१ | विसोहेजा
१७६ विमुहा ९५ विसं ७४३ | विस्संदति
३६० विचित्तपक्ख २५७ | विसंधी
९५ विस्सवातितगण ६८० १६ विसंभोगियं
१८० | विस्सा वियच्छेयणे ४६२ विसंभोतितं ३९८, ६६१ विहग
६९३ वियडगिहसि
१९६ | विसंवादणा जोगे २५४ विहगगइपव्वज्जा ३५५ वियडदत्तीओ १८० विसकुंभ
| विहरति वियडा १४८ विसट्टमाणिं
वीईपडिबद्ध
३२६ वियडावई २९९ विसट्ठताए
वीतसोगा वियडावतिवासी १०० विसपरिणतं
३४१ | वीतीवतेज्जा
१४४ वियडावती | विसपरिणाम
| वीमंसा
३६१, ७३२ वियति १५ विसप्पिहाण
३६० वीयकण्हा वियत्तकिच्चे २६३ विसभक्खण ११३ वीयरागसंजम
६२ वियरोदगसमाणा ३६४ विसम ४३७, ५५३ | वीरगय
६२२ वियाणंतरिते ४६२ विसमचारिणक्खत्ते ४६० वीरजस
६२२ वियालगा ९५ विसयतिसितेणं १८४ वीरासणिए
३९६ वियावत २५७ विसयपमाते ५०२ वीरासणिते
५५४ वियाहचूलिया ७५५ विसाखा
५१७ | वीरित
६१८ विरते ५१६ विसाला ९५, १०५, ३०७ वीरितपुव्व
६२९ विरसजीवी ३९६ विसाहा ९५, ४११, ४७२, वीरितबल
७४० विरसाहार
५८९, ६५६ वीरितसंपन्न
५९४
३६०
३१४
my
६३७
८४,
५५१
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
वीरे
४११ वतारा
६४३,
वुग्गहपट्टे
४६७
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः वीरियं १४१ वेत
३८७ वेयणिज्ज ५६६, ५९६ वीरियायार ७६, ४३२ वेततं
५४२ वेयारणिया
४१९ ४७० वेत (परिणाम) ७१३ वेयावच्च १९४, ५२२, ६००, वीरो वेतारणिया
६४९, ७१२ वीसवासपरियाए १६७ वेतिता १०६, १९१ वेयावडियं
४३८ वीससापरिणता १९२ वेतितापरिक्खित्ता १८६ वेरुलित वीसुंभेज्जा ४१३ वेतिया ५०३ वेरुलितकूड
५२२ वीहीणं १५४ वेद
२३३, ४७३ वेरुलियकूड ८७, १०० वुग्गहठ्ठाणा ३९९ वेदणं
६९३ वेरुलियमणिकवाडा ६७३ ५३४ वेदणासमुग्धात ५८६ वेलंधरनागराईणं ३०२ वुग्गहविमोतणट्ठयाते
वेदणिज २६८ वेलंधरोववाते
७५५ वुग्गाहिते २०४ वेदपुरिसे
१३७ वेलंब १०५, २५७, ३०२ वुड्डी ७९, १७१, ४९९ वेदिगातिता
४९७ वेला
१०६ वेउब्विए ६५, २०७, ३३२ वेदियंतातो
३०२ | वेसमण २५७, २७३, ३१७, १८६ वेदे
६४३, ६८९ वेउब्वियसमुग्घात ३८०, ५८६ वेदेंसु
२५० वेसमणकूड १००, २९९, वेउब्वियसरीरी ४८३ वेदेज्जमाण
७०७
४३४, ५२२, ६३७ वेकुंथू
४०४ वेदेति
७१ | वेसमणोववाते वेजयंत ३००, ३०४, ६४३ वेदेमि
४७९ वेसाणरवीही
६९९ वेयजंती १००, २७३, ३०७, वेदेहा
४९७ वेसाणित
३०१ ६३७, ६४३ वेमाणिते
वेसाणितदीव
३०१ वेजयंते वेमाणिया १०६, ३१६ वेसासिते
४५५ वेजो ३४२ वेमाणियावासा
वेसिताकरंडगसमाणे ३४८ वेढिमे ३७४ वेय ५४०, ५९६, ७८३ वेसिताकरंडते
३४८ वेणइयं ४३९ वेयड्ड
६८९ वेहाणसे वेणइयवादी ३४५ वेयड्ढगिरिपायमूले ६९३ वेहासं
७७६ वेणतित ३६४, ३९९ वेयंते
२१९ | वोच्छिज्जमाण
३२४ वेणुदालि ४०४, २५७ वेयणा १०, २३, ४९, वोच्छिज्जिस्संति
७०४ वेणुदाली १०५ ५६१, ६०० वोच्छिन्ने
३२३ वेणुदेव ८२, ९९, १०३, वेयणाभते
५४९ | वोदाणे १०४,२५७,४०४,७६४ | वेयणासमुग्घात ३८० वोसट्ठकाए
६९३
वेउव्विता
७५५
७५० वेसापित
११३
१९५
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२
२३५
२९७
५० २६३
२८५
२२२
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचि विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्का: सइंदिया ४९, ६९, ११२ संगहकती
२९७ | संजम .. १९५, ३१०, ३९६, सएणं ३२५ संगहकत्तार
५५३ ४२८, ५७१, ६४७, सएयगं ७४८ संगहट्ठयाते ४६७
७०९ संकंते १८३, ३२३ संगहट्ठाणा
५४४ संजमट्ठाए
५०० संकप्प
२३६ संगहपरिण्णा ६०१ | संजमबहुले संकम २९६ संगहे एक्कए
संजमासंजम
३७३ संकममाण १४१ संगहोवग्गहट्ठयाते ४३९ |संजय
६२२ संकामणं ७४४ संगामंसि २०० संजलण
२४९ संकामिते ७४४ संगामिता ४०४ संजूहे
७४४ संकित ३२५, ७३२ संगार
३२३ संजोयणाधिकरणिया संकिन्न
२८१ संगारपव्वजा १६५, ३५५ संजोयणापायच्छित्त संकिन्नमणे २८१ संगिण्हणता
६४९ संझा संकिलिट्ठ १४०, २२१ संगोवित्ता
५४४ संठाण ४९५,५४८,७५५ संकिलिट्ठलेस्स संघ ३६३, ४२६, ५०१ | संठाणपरिणाम
७१३ संकिलेस १९८, ७३९ संघथेरा
७६१ संठाणविजते
२४७ संकिलेसमाणते ६२ संघधम्म
७६० संडिल्ला ६९३ संघपडिणीते २०८ | संतरित्तए
४१२ संखवन्ना ९५ संघपडिणीयं
६६१ संती २२८,२३१,४११,७१८ संखवन्नाभा ९५ संघयण ४९४ | संतोस
७३७ संखवाल २५७, २७३ | संघवेयावच्च ३९७, ७१२ संनिक्खित्त
३९४ संखा ९५, १००, ३०२, संघाडीओ
२४६ संनिवातिते
३४२ ५५३, ५६४, ६२२, संघातिमे
३७४ | संनिवेसा ६७३, ६९१, ७५५ संचाएंति
४१५ संनिहिए
१०५ संखाण ३३७, ६७९, ७४७ संचातेंति
३३४ | संपओगसंपउत्ते संखादत्तिते संचातेति २४५, ३२३ संपत्तीए
३४१ संखावत्ता १४८ संचायंति
संपदावण
६०९ संखित्तविउलतेउलेस्स १८८ संचारसमा
५५३ | संपन्न
४७५ सखित्ता ३०७ संचिट्ठति
१५४ संपराइगा संखेव ७५१ संजतमणुस्स ४२२ संपरिक्खित्ता
३०७ संखेवितदसा ७५५ संजता
३६५ | संपलिवंकणिसन्ना ३०७ संगह १९२, ५५२, ७४५ संजतासंजता
३६५ संपव्वयमाणा
४७७
संख
१०६
२४७
M
७०४ संपदा
m
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
m
प्रथमं परिशिष्टम् ।
७३ विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः संपागडपडिसेवी २९२ संवास
२४८,३५३ सक्करप्पभा
१५५ संबाहा १०६ | संवासभद्दते
२५६ | सक्कराभा संबुक्क २८९ संवासित्तते
२०४ | सक्कारासंसप्पओग ७५९ संबुक्कवट्टा ५१४ संवाहण ३२५ सक्कारेति
२५६ संबोहेतव्व ३२३ संवुड
१४८ | सक्कारेमि संभरेत्ता २६९ संवुडबउसे
४४५ सक्कारेत्ता संभव ७२९ संवुडवियडा
१४८ सक्कुलिकन्न संभुंजित्तए ६६ संवुड्ढ ७६२ | सक्कुलिकन्नदीव
३०१ संभुजेत्तए २०४ संवेगणी २८२ सगडे
७५५ संभूतविजते ७५५ संसट्ठकप्पिते ३९६ सगति
३२३ संभोगियं १८० संसट्ठोवहडे १८८ | सगर
७१८ संभोतित ३९८,६६१ संसत्ततवोकम्म
३५४ | सगलपुण्णमासी
४६० संभद्दा ५०३ संसयपढे
५३४ सगुण
१५८,१६९ संमुइस्स ६९३ संसार २६१,२९४ सचक्केहि
६७२ संमुच्छंति ७७६ |संसारकंतार १४४,७५० सचित्ता
२१४ संमुच्छिमा ४४४,४८४ | संसारसमावन्नगा ४९,११२, | सचेलियाहिं
४१७ संमुता
५५१
१७०,३६५,४५८, सच्च २३८,२४१,२५४, संमुती
७६७ ५६०,६४६,६६६,७७१
३०८,३९६,४७५, संमोह ३५४ | संसाराणुप्पेहा
२४७
५९४,७४१ सरभकरण १३२ | संसुद्ध
२७ | सच्चती
६९२ संलवमाण
२९० संसुद्धणाणदसणधरे ४४५ सच्चप्पवायपुव्व १२० संलाव ५८४ संसेतिम १८८ सच्चभामा
६२८ संवच्छर १०६,१५४, |संसेदगा
५४३ सच्चमोसं
२३८ ४६०,५७२,६५८ | सकिरित
५८५ | सच्चसंजमतवगुणसुचरियसंवट्टतित्ताणं १०८ सकिरितट्ठाणं
३९८ सोचवियफलपरि९,४९,४२७, सक्क १०५,१६२,२५७, निव्वाणमग्ग
६९३ ४८७,६६५,७०९ २६०,२७३,३०७, सच्चामोस
७४१ संवरदारा
४१८
४०४,४०५,६४४, | सजोगिकेवलिखीणसंवरबहुल २३५
७६९ | कसायवीतरागसंजमे ६२ संवसमाणी ४१६,४१७ सक्कता
५५३ सजोगिभवत्थकेवलणाण ६० संवसित्तए ६६ सक्कप्पभ
७२७ सजोणिय
संवर
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४
सूत्राङ्काः
३२५
४८५ ७३२
७५५
२९९ ८४,१००
३०६ ७३
सड्ढ
३९४
२० ६९,१७०
५३७
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सज्ज ५५३ सत्तगुणलुक्खा
५९३ सद्दहमाण सज्जति
३९० सत्तट्ठाणनिव्वत्तिते ५९२ सद्दहित सज्जगाम ५५३ सत्ततारे
५८९ सद्दाउलगं सज्झाए ४६५ | सत्ततेणं
६९१ सद्दाणुवाती सज्झाओ ५११ सत्तपदेसिता
५९३ सद्दालपुत्ते सज्झाय
२८५ सत्तपदेसोगाढा ५९३ सद्दावई सज्झायं समुद्दिसित्तए ६६ सत्तमी
६०९ | सदावती सज्झायमणुजाणित्तए .६६ | सत्तवण्णवणं
३०७ सद्दावेहिति सज्झायमुद्दिसित्तए ६६ सत्तसत्तमिया
५४५ सदुद्देसते सट्ठिवासजाए १६७ | सत्तसरसीभरं
५५३ सदुप्पाते १८० सत्तसिक्खावतिते ६९३ सन्ति सड्डी ४७५,५९४ सत्ता
१७५ | सन्ना सणकुमार १०५,२३५, सत्तागतिता
५४३ सन्नि २९१,३७५,५३२, सत्तिक्कया
५४५ | सन्निवाइए ५७७,७१८ सतिमं
४७५,५९४ सन्निवेस सणंकुमारमाहिंदाणं ६२४ सत्तिवन्ने
७३६ | सन्निहाणत्थ सणप्फदा ३५१ सत्थ
७४३ सन्नी सणसरिसव ५७२ सत्थपरिणा
६६२ सपक्खिं सणिंचर ९५,६१३ सत्थपारगा
५५३ सपच्चक्खाणपोसहोसणिंचरसंवच्छर ४६० सत्थवाह
६९३ ववास सणिच्छरे ४८१ सत्थोवाडणे
११३ | सपडिक्कमणे सणिप्पवाता १०६ | सदारसंतोस
३८९ सपडिकम्मे सतते गाहावती ६९२ सदेवमणुयासुर ३८२,७५० | सपडिदिसिं सतदुवारे
६९३ | सदेवमणुयासुरलोग ६९३ | सपागडपडिसेवी सतद्दू
४६९,७१७ सद्द ३८,४७८,५५२,५६७ सपायच्छित्तं ७६७ सद्दणय
१९२ | सपोग्गला सतभिसता ५१७,५८९ सद्दपरिणाम
७१३ सप्पि सतरह ७६७ सद्दपरितारणा
४०२ सप्पिं सताऊ ७६७ सद्दपरियारगा
१२४ सप्पी सतेरा २५९,५०७,५०८
४६६ सप्पुरिस सत्तगतिता ५४३ | सद्दहति
३२५ सबला
३९४ ६०९
५५१ १५६,३३०
१५८,१६९
६९३
१५६,३३०
२७२
४३७
सतधणू
६७४ २७४
९५ १०५,२७३
७५५
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
१७
सम
२४५ ५५३
७११
७०
४७७ समोडते
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः सब्भावपयत्था
६६५ समपायपुता ___ ४०० समुदाणकिरिया १९३,४१९ सभातो ४७१ समप्पेंति
४६९ समुद्द १०६,२०५,३५९ सभावणाई ६९३ समभिरूढ
५५२ समुप्पज्जिउकाम २८४,३९४ सभावसंपन्न २९५ समय १०६,१७३ समुप्पज्जिहिति
६९३ समए ३६,१९७ समयंते
२१९ समुप्पज्जेज्जा
५९७ ५५३ समयखेत्त १५६,३३०,४३४ | समुन्भूयं समंता ३०७ समयाणंतरित
४६२ समुव्वहंता समखेत्ता ५१७ समाए ६७२ समूह
२०८ समगं ४६० समाओ
समेरा
१५८,१६९ समचउरंस ४९५ समाते
समोदहित्तते
४७९ समचउरंससंठाणसंठित ५६८, समाधी
समोहतासमोहतेणं ६९० समायरमाणा
७० समजोतिभूतानि ५९७ समारंभ
सम्मतकिरिया समण ४५,१३३,१७४, समारंभकरणे
१३२ सम्मदंसण १९०,५६५,६१९ २१०,३०७,३२२, समारभमाण ३६८,४२९, सम्मदिट्ठीयाणं ४१,१७० ३६३,३९६,५६८, ४३०,५२१ सम्मपओग
१९० ५८७,६२२,६५३, समाहारा
६४३ सम्ममाराहिता
१८२ ६८०,६८१,६९१, समाहिपडिमा ७७,२५१ सम्ममिच्छदिट्ठीयाणं ४१ ६९४,७५०,७७६ समाहिबहुले
२३५ सम्मरूती समणधम्म ६९३,७१२ समितं
६७ सम्माणेति
२५६ समणमाहण
४१५ समिता १६२ सम्माणेत्ता
१३३ समणवणीमते
४५४ समिते ३२१ सम्मामि
१८३ समणाउसो १४३,१७४, |समुक्कसेज्जा
१४३ | सम्मादिट्ठी
१८७ १९५,२१३ समुग्घात
७९,१७१, सम्मामिच्छदिट्ठी १७०,१८७ समणी ३२१,३६३,७५०
३८०,४९९ सम्मामिच्छदसण १९०,५६५, समणुन्ना १८० समुग्घाय
५८६ समणोवासगा
३२१ समुच्छिन्नकिरिए २४७ सम्मामिच्छपओग १९० समणोवासते
२१० समुच्छिममणुस्सा ४९० सम्मामिच्छरुती १९० समणोवासियाओ ३२१ समुच्छिमा
५४३ सम्मावात २८२,७४२ समतखेत्त ७६४ समुच्छेदवाती ६०७ | सम्मुती
३९३,७४१ समतालपडुक्खेवं ५५३ समुट्टितं
१८२ सम्मोहत्ताते
३५४
१९०
orm
m
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
विशिष्टशब्दा:
सयं भा
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः
९५,५५६ सरीरोवही
सयंबुद्धछउमत्थखीणकसाय- सरुवि
वीरागसंजमे
भुरण
सयजले
सयज्जले
सयण
सयणपुन्न
सयणासण
सयपागसहस्सपागेहिं
सयभिसया
सर
सरऊ
सरए
सरद्वाणा
सरते
सरपंतिता
सरमंडल
सरलक्खणा
सरस्सती
सरा
सरागसंजम
सरागसम्मद्दंसण
सरिणामगा
सरीरसंपता
सरीराणुगते
सरूप्पत्ती
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचि :
सरीरं
सरीरगा सरीरपरिग्गह
सरीरवोच्छेयणट्ठाए
६२ सत्ता १५७,२०५ सरोदगसमाणा
६८९ सलक्खण-क्कारण
७६७ सलिल
५५३ सलिलकुंडा
६७६ सलिलावती
६६३ सल्ल
१४३ सल्लहत्ता
९५ ससील
६०८ सवण
४१२,४६९, ७१७ सवणता २८१,५२३ सवणताते
५५३ सवणफला
६९३ |सवणे
१०६ सवणो
५५३ सवत्तिसमाण
५५३ सविता
२७३ |सवियारी
१०६,५५३ सवेयगा
६२,३७३ सव्वअंजणमया
७५१ सव्वंगसमाधितो ६८९ सव्वंगेहिं
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः
१४६ सव्वट्टसिद्ध
४९
५०० सव्वचारी ६०१ सव्वजीवा
४४४
६५, ३७१
६६३ सव्वण्णाण
३६४ सव्वणाणावरणिज्ज
७४४ सव्वता
६९३ | सव्वतो
७७९ सव्वतोभद्द
१००,६३७,६८९
९५ सव्वधम्मा
४८५ सव्वपाण भूत- जीव
१०९
१८८ सव्व
६११ सव्वदुक्खप्पहीण ४५, ६१७,६२८
१६९ सव्वद्धा
६२०
५४१
सत्तसुहावह
१९५ | सव्वपाणभूयजीवसत्ता १९५, २२७ सव्वभत्ती
४११,५८९,६६९ सव्वभाव
९५ सव्वय
२४७ सव्वरतण
४९ सव्वरतणामईतो
३०७ सव्वरतणामयं
२८१ सव्वरयण ४६१ सव्वरयणामता
२८१ सव्ववइरामता
२४९,४४७ सव्वकाल २०७, ३३२, ३९५ सव्वक्खरसन्निवातीणं २३०, ३८१ सव्ववासी
१४६ |सव्वगा
६४३ सव्ववित्थाराणंत
३२२
४५३ सव्वसुमिणा
११२,३६५,४५८, सव्वसोयचारी
४७९, ६४६, सव्वा
६६६,७७१ | सव्वाधिवती
सूत्राङ्काः
१५६,१५८,
३३०, ४५१
१९३
११६
१५८
३०७
७७, २५१,
३९२, ७६९ ५८५
७४२
४३०
६७३
४५०, ४७८,
६१०, ७५४
१६९
३०७,६७३
३०७
७५०
२९८,६४३,६७३
३०७
७२१
३४६
४६३, ७३०
७५५
४५३
२९७
३४६
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
७७
सूत्राङ्काः
| सामनपरिताते
१८४ ७३६ ५५१ १९१
५५३
२०६
१४२ १६२ १०५ ३१४ ५३० ४२८ ७४९
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सव्वालंकारविभूसियं १४३ सागरोवमा १०६,६२० सामतिते सव्विंदियजोगजुंजणता ५८५ सागारं
७४८ सव्वुक्कले ४५६ सागारितपिंड
४१४ सामलि ससमय २८२ साणते
४४६ सामलिणो ससमयारसमयियं ७५० साणवणीमते
४५४ सामवेद ससरीरी ११२ साणुक्कोसता
३७३ | सामा ससि ४६०,६४३ सातंकारे
७४४ सामाइयकप्पद्विती ससिसूरचक्कलक्खण ६७३ सातगारव
२१५ सामाणिय ससीला १५८ सातणी
७७२ | सामाणियअग्गमहिसी सस्सामिवायण
६०९ सातावेयणिज्ज ११६,५८८ सामाणे सस्सिरीयाहिं
६९३ सातासोक्खपडिबद्ध ६६३ सामातितं सहत्थपारियावणिया ५० साति
५८९ | सामातितकप्पट्टिती सहमाण ३२५,४०९ सातितातिया
५८९ सामातितसंजमे सहसक्कार ७३२ सातिमे
३४० | सामायारी सहसा
४१५ सातिरेगअट्ठवासजातगं ६९३ | सामुग्गपक्खी सहस्स
५४८ साती ८४,९५,२९९, सामुच्छेइता सहस्सार १०५,३७५,
४९५,५१७ | सामुदाणिय ६४४,७६९ सातीणक्खते
४७ | सायवाती सहस्सुद्दाहे ७५५
४८८ सारए सहा
सातेतं
७१८ | सारंभ सहामि ३२५ सातो
७५५ सारकंता सहिया
| साधम्मियवेयावच्च ७१२ सारक्खणविसोही सहिस्सति
४००
| सारक्खणाणुबंधि सही ३२३ साधुखंती
| सारक्खणोवघात सहेज्जा ४०९ साधुमद्दवं
४०० सारक्खात साउणिता ५५३ साधुमुत्ती
४०० सारक्खातसमाणे साउय ४९ साधुलाघवं
४०० सारक्खित्ता सागर ६८९,६९३ | साधुसण्णा
७३४ सारणिता सागरचित्ते ६८९ सामं
१९१ सारथी सागरोदगसमाणा ३६४ | सामंतोवणिवाइया ५०,४१९ | सारवंतं सागरोवमकोडाकोडी २९९,७५६ सामंतोवातणिते ३७४ | सारस
३५१
५८७
२८४
साते
६०७ ६९३ ५७१ ५५३ ७३८
६९३
| साधुअज्जवं
२४७
४००
७३८ २४३
२४३
५४४ ७१२ ३१९
५५३
५५३
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
विशिष्टशब्दा:
सारसय
सारसी
सारस्तं
सारस्सयमाइच्चाणं
साल
सालंकातणा
सालदुममज्झायारे
सालपरियाते
सालपरियाले
साला
सालाती
सालभ
सालिसए
सालिणं
सा
सावगधम्म
सावगा
सावज्ज
सावत्थी
साविगा
सावितबुद्धे
साविया
सासतासास
सासतात
सासते
सासया
सासयात
साहत्थिता
साहत्थिया
साहन्नताण
साहम्मितं
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा:
६८४ साहम्मियं ५५३ साहम्मियवेयावच्चं
६२५ | साहरति
५७६ साहा
६१४ साहिकरणं
५५१ साहिगरणं
३४९ सिंगारा
३४९ सिंघाडग
३४९ |सिंघाडगसंठाणसंठिता
९५ सिंधु
६११ सिंधुकुंडा
७५५ सिंधू
३४४
१५४ सिंभिते
३४९ सिक्खावित्त
६९३ | सिक्खावेत्तए
३६३, ७५० सिज्झति
५८५ सिणा ५८७,७१८ | सिणेह
३६३, ७५० सिणेहविगती
६९२ |सिणेहसुहु ६९२ सिता
७२६ सिद्ध
७३०
४४१ | सिद्धकेवलणा
४९,११४ | सिद्धसुग्गता
४६३ सिद्धसुग्गी
४१९ सिद्धसोग्गता
५० सिद्धसोग्गती
७३ सिद्धा
४७७ | सिद्धाययणा
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा:
१८०,२०३ सिद्धालते
३९७ | सिद्धिगइगमणपज्ज
वाणफले
६०९ सिद्धिगतिपज्जवसाणे
४७६ सिद्धिगती
१८८, ३१४
४३७
३५७ | सिद्धिविग्गहगती
३९४ सिद्धी
१८६ | सिप्पणिही
४६९ सिप्पसतं
६३९ सिप्पाजीवे
९१,१९९,५२२, सिप्पे
५५५,६३९ सियालखइया
३४२ सियालत्ताए
६६ सिरमुंड
२०४ सिरि
२३५ | सिरिकंता
४४५ सिरिदेवी
७४३ सिरिधर
२७४ सिरिवच्छ
६१६,७१६ सिरी
५५५ | सिरीदेवी ३७,५९०,६१७, सिरीस ६२८,६४३,६८९ सिरेणं
६० सिलोगाणुवाती १८७ सिव
१८७ सिव
२६७ सिवा
२६७ | सिहरिकूड
११२, ४५८ सिहरी
३०७
सूत्राङ्काः
६४८
१९५
४६१
४४२, ५३५,
६३०, ७४५
७४५
३७, ६४८
४४८
६७३
४०७
३९३
३५५
३२९
४४३, ७४६
५२२
५५६
७५५
६१८
६४४
१९९,६४३
१००
७३६
४६१
६६३
६२२,६७२
३०२ ३०७,६१२
८७,१००, ५२२ ८३,१००,१९९,
३०१,५२२,५५५
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशिष्टशब्दा:
सीओदगवियडेण
सीओए
सीओताते
सीओसणा
सीत
सीतल
सीतलुक्खाओ
सीता
सीता सीतोतच्चेव
सीतोता
सीतोदा
सीतोसिणा
सीमंकर
सीमंत
सीमंत
सीमंधर
सीया-सीओयाओ
सालिस
सीलवंत
सील - व्वत गुणव्वत
सीलसंपन्न
सीलाचार
सीसगोल
२२१ सीहमुहदीव
८९,१४८,२९९,३७६, सीहविक्कमगती
६३७, ६४३,६८९ | सीहासणवरगतं
सीसगोलमा
सीसपहेलियंगा
सीसपहेलिया सागरे
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दा:
४१६ सीह
२९९ सीहखइया
४३४ सीहगती
प्रथमं परिशिष्टम् ।
१४८ सीहणातं
५९९,७५३ सीहत्ताते
३४०,४११ |सीहपुर
वेरमण पच्चक्खाण पोसहोववासनई
४३४ सीहासणा
८९ सीहसोता
६३७ सीहसोया
५५५,६८९ अधिज्जि
३७६ सुआतिक्खं
७६७ सुंठकडमाणे
१५६,३३० सुंठकडे
६९३ सुंदर
७६७ सुंदरी
४३४ सुंदरी
३४४ भा
१६८ सुकच्छा सुकुमारं
३५०
१०६ सुक्कज्झाणोवगत
१०६ सुक्कपक्खिया
५९७ | सुक्कपोल
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः
| सुकुमालपाणिपात
३१४ सुकुल ३१९ सुकुलपच्चायाति २३६ सुकुलपच्चायाया
३५० सुक्क
६९३ | सुक्कपोग्गलसंसिट्ठ
३५५ सुक्का २५७ | सुक्कसोणितसंभवा
१४२ सुक्किला
३२९
१०० सुख
३०१ सुगंध
२५७ सुगतिं ग
७५० सुगतिगमणाए ३०७ गत
१००,५२२ सुगिम्हपाडिवत
१९९ सुग्गा
२१७ गत
३९६ सुग्ग
३५० ग
३५० घोसा
३४९ सुचिन्ना
३४९ | सुचिभू
४३५ सुजात
४०३ सुजाता
१००,६३७,६८९ सुज्झातिते
५५३ |सुट्टुत्तरमायामा
६९३ सुनंदा
४८५ सुक्ख
१८४,२६७ सुता
२६७ सुत्ता
९५, २४७, ३७७, सुहा ४८१,६१३, ७५५ सुत
सूत्राङ्काः
४१६
१४०, ५०४, ५६२
७९
७५० सुतअण्णाणी ४१,६९ | सुतअन्नाणकिरिया ४१६ | सुक्खा
७९
३८, १०५,
३७५, ३९०
७५५
५९७
३२७
३९०
३२७
२८५
१८७
१८७
३२७
४०४, ६७२
२७३,५५६
२८२
६९३
६८५
२७३
२१७
५५३
२७३
७५५
६४९
२६९
१८३,३२३
२०८, ४२१
६४६
१९३
२१७
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४३
१६८
७५५ ६४३
सुमेघा
सुत्तधरे
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः सुतथेरा १६७,७६१ सुद्धवाताणुओग ७४४ सुभाओ
१०० सुतधम्म ७६० सुद्धे २३९ सुभाते
३९० सुतधम्माराहणा ११८ सुद्धसेणिते
३९६ सुभिक्खं सुतनिस्सित ६० सुद्धोवहडे १८८ | सुभूम
१२३ सुतपज्जवजाते ३९९ सुधम्मा ४७१ सुभोगा
६४३ सुतमत ६०६ सुन्नागार ३९४ | सुभोम
५५६ सुतवस्सिते २१७ सुपइट्ठाभ ६२५ सुमणा
२७३ सुता २४० सुपम्हा
१०० | सुमणे सुतितिक्खं ३९६ सुपरिन्नाता ३९० सुमती
६६४ सुतित्ता १६८ सुपस्सं
३३४,३९६ सुमिणा सुती
२४१,३०७ सुपास ५५६,६९१,६९२ | ___४९६ सुप्पडिताणंदे ३२७ | सुयणाण
४६४ १७७,२५६ सुप्पडितारं
१४३ | सुयधम्म
६१,१९४ सुत्तपडिणीते २०८ सुप्पणिधाण
१४७ सुयनाण सुत्त-बीतरुति ७५१ सुप्पणिहाण २५५ सुयपज्जवजाते
४३९ सुत्तरुई २४७ सुप्पतिण्णा
सुयसंपता
६०१ सुत्तसुयधम्म
६१ सुप्पबुद्ध ६४३,६८५ सुयसंपन्न सुत्ता २६२,४२२ सुप्पभ २५७,५५६ सुरणुचरं
३९६ सुप्पभकंत
२५७ सुरस सुदंसण ६४३,६८५,७५५ सुप्पभा
२७३ | सुरादेव
७५५ सुदंसणा ८२,२७३,३०७, सुफास
५९७ | सुरादेवी
६४३ ६३५,७६४ सुबंधू
५५६ सुरूता
५०८ सुदंसणे ९९,४०४,७६४
३८,२२१ सुरूवा ३८,१०५,२५९,२७३, ५५६ सुब्भिसद्द
३८
५०७,५५६,५९७ सुद्धगंधारा ५५३ सुभ
३६२,६१८ सुलभबोधियत्ताए ६९८ सुभगा
२७३ सुलभबोधिया सुद्धदंतदीव ३०१ सुभणामे ११६ सुलभाई
४८५ सुद्धदंता ३०१ सुभदीहाउअत्ताए १३३ सुलसदहे
४३४ २३९ सुभद्दा ७७,२५१,२७३, सुलसाते
६९२ सुद्धवियडे १८८ ३९२,६८५ सुवग्गू
१०० सुद्धसज्जा ५५३ सुभविवाग
३६२ सुवच्छ १००,१०५,६३७,६४३
सुत्ते
सुदाम
४२६
सुद्धदंत
0
0
सुद्धमणे
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथमं परिशिष्टम् ।
७१४
सुवन्न
५८१
५५३
१५८
४०४
५५८
विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः सुवण्ण ३०७ सुसेणा ४६९ सूराभ
६२५ सुवण्णकुमारावासं ४१७ सुस्सरा २७३ सूरिता
३०३ सुवण्णकूला ५५५ सुहत्थि
६४१ सूरोवराते ५९७,६७३ सुहफलविवागसंजुत्ता २८२ सेए
१०५ सुवनकुमार ७२ सुहभोग ७३७ सेजंसे
३४४ सुवन्नकुमाररन्नो ४०४ | सुहविमोयतराए ५७ सेज्जपडिमा
३३१ सुवन्नकुमारावासं ३१४ सुहवेयतराए
५७ सेज्जातरपिंड
६९३ सुवन्नकुमारिंदा १०५ |सुहसेज्जा
३२५ | सेट्ठि
६९३ सुवन्नकूला १९९,५२२ सुहाते
१८८ सेढि सुवन्नकूलप्पवायद्दहे सुहावह १००,२९९, सेणा
२९२ सुवन्नगोले ३५०
४३४,६३७ | सेणावच्चं सुवन्नदार ३०७ सुही ३२३ सेणावति
६९३ सुवन्नागर
५९७ सुहुम ६३,१७०,५५६, सेणावती सुवनिंद
६१६,७१६,७३२ सेणावतीरतण सुवप्पा १००,६३७ सुहुमकिरिए
२४७ | सेणिए
६९३ सुवयणं
१४३ सुहुमसंपरायसंजम ४२८ सेणितेणं ४०४ सुहुसंपरायसरागसंजम
६२ सेतं
७५० सुविण ६०८,७१२ सुहुयहुते
६९३ सेतंकारे
७४४ सुविणदसण ४३६,६१९ सुहुयहुयासण ६९३ सेतंसि
४३७ सुविभज ३९६ सूचीकुसग्गअसंवर ७०९ सेतविता
५८७ सुव्वता
९५ सूचीकुसग्गसंवर ७०९ सेतसंखतलविमलसन्निकासे ६९३ ३२७ | सूती
६१२ सेते सुसन्नप्पा
२०४
१०५,१६२,२७३, सेय ५५९,७६५ ३१७,३३८,४०१, सेयंकरा
९५ सुसमसुसमा ४०,१४५, ५५३,६१३,६९३,७५५
सेयंसे ४९२,७६६ सूरदह
४३४ | सेयकंठे
४०४ सुसाण
३९४ सूरपन्नती १६०,२७७ | सेलतता सुसाणसामंत ७१४ सूरपव्वत १००,२९९, सेलथंभ
२९३ सुसामण्णताते ७५८ ४३४,६३७ सेलथंभसमाण
२९३ सुसिक्खितो ५५३ सूरप्पभा २७३ | सेलवाल
२५७ सुसीमा १००,६२८,६३७ सूरविमाण
६५५ | सेला
५४६
६९१
सुविक्कमे
सुव्वते
५८२ ६२२
सुसम
३४४
५५१
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
my
my
w
३२५ ४१५
७७८
८२
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतविशिष्टशब्दसूचिः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दा: सूत्राङ्काः विशिष्टशब्दाः सूत्राङ्काः सेलोदए ३११ सोतिंदियअसंवर ४२७, सोवयारं
५५३ सेलोदगसमाण ३११
५९८,४८७ सोवागकरंडगसमाण ३४८ सेलोवट्ठाण ३९४ | सोतिंदियत्थ ३३४,४४३, | सोवागकरंडते
३४८ सेसवती ६४३ ४८६ सोवीरते
१८८ सेहपडिणीए २०८ सोतिंदियपडिसंलीण ४२७ | सोवीरा
५५३ सेहभूमी सोतिदियसंवर ४२७,४८७, सोहम्म
६४४,७६९ सेहवेयावच्च ३९७,७१२
५९८ सोहम्मीसाण ४६८,५७९ सोइंदियत्थोग्गहे ५२५ | सोतिदियसाते ४८८ हंदि
६०९ सोंडितालित्थाणि ५९७ सोते
४४९ हंसगब्भे
७७८ सोक्ख ७३७ सोत्ता ६७५ हक्कार
५५७ सोग ७००,७५३ सोत्थिते
६४३ हट्ठा सोगंधिते
सोत्थिया
९५ हत सोगति ३९१ सोधम्म २९१,३२२ हत्थकम्म
२०२ सोगतिगामिणी २२१ सोदासे
४०४ हत्थाकम्म
४१४ सोग्गई
२६७ सोम
२५७,२७३,५०५, हत्थातालं सोग्गता
२६७ ५७४,६१८,६७२, | हत्थिकन्नदीव
३०१ सोच्च
७२०,७२७ | हत्थिणुर
७१८ सोडीरे ७६२ सोमणंतिते __ ५३८ हत्थिमुहदीव
३०१ २०९,७१४ सोमणस ८५,१००,२९९, हत्थिरतण सोणिताणुसारी ३०७,४३४,५९०, हत्थिरयण
५५८ सोतणता
२४७ ६४४,६८५,७६८ हत्थिराता
४०४ सोतामणी २५९,५०७,५०८ सोमणसवण १००,२९९ हत्थिराया
४०४ सोतामताओ ७१५ सोमप्पभ
७२७ हत्थी
२८१,६७३ सोतामतेणं ७१५ सोमभी ५५१ हत्थुत्तरे
४११ सोतिदितअसाते ४८८ | सोमा
९५,२७३ हत्थो ९५,४७२,५८९, सोतिदितबल ७४० सोमिल
७५५
६९४,७८१ सोतिंदितमुंड
सोयरिए ३१५ हम्मीहंती
६७२ सोतिदितसंजमे ४३० सोयरिया
५५३ हयकन्नदीव
३०१ सोतिंदियमुंड ४४३ सोरिय
७५५ हयकन्ना सोतिंदियअप्पडिसंलीण ४२७ सोवत्थिया
९५ हयवीही
६९९ सोतिंदियअसंजम ४३० सोवत्थी २८७,६८९ हया
२०३
सोणित
६९३
५३३ |
३०१
३१९
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशिष्टशब्दा:
हरि
हरिकं
हरिकंतपवातद्दह
हरिकूड
हरिणेगमेसी
हरितसुहु
हरिता
हरि सबल
हरिपवातद्दह
हरिपिंगललोयणो
हरभो
हरिवंसकुलुप्पत्ती
हरिवस्स
हरिवरसगा
हरिवास
हरिवेरुलितवन्नाभेणं
हरिसह
हरिसेण
हरिस्सकूड
हरी
हव्वमागच्छित्तए
हव्वमागच्छित्तते
हव्विं
हस्सरती
हलिद्दरागरत्तवत्थसमाण
हलिद्दारारत्त
हव्व
८९,९५,१०५, हस्से
सूत्राङ्काः | विशिष्टशब्दाः
प्रथमं परिशिष्टम् ।
२५७,६८९ हाडहडा
८९,५२२, हायणी
५५५,६४३ | हायति
९० हायमाण
६४३,६८९ |हारविरातितवच्छे
४०४,५८२ हारिता
६१६ हारे
४९७ हालिद्दा
३१५ हास
९० हासुप्पत्ती
२८१ हिअ
६९३ हिंसप्पेही
७७७ हिंसाध २९९,५२२, | हिंसादंड ६८९,७२४ हितकर ४९१ हिताते
१००, १९९, हिमवं ५५५,६४३ हिमसीतले
७५० हिययं १०५,२५७ हिरण्णगोल
५२२,५५३ हिरिच्चेव
२९३ | हिरिमणसत्ते २९३ |हिरिवत्तियं
२४५ हिरिसते १८३ हिरी
३२३
७१८ | हिरण्णगोलसमाणे ६८९ हिरि
२०१,६२४ | हीणसत्तताते
१०५ हीणस्सरे
सूत्राङ्का: विशिष्टशब्दाः
१०५ हीलित्ता
४३३ हीलियवयणे
७७२ हुंडे ३२७ हूहूयंगा
५२६ |हूहूया
५९७ उजु
५५१ उदो
७५५ उवात
३८,१०५,३७५,३९० हेऊ
३६१,७००,७४१ | हेट्ठिमउवरिमगेवेज्ज
२६९
विमाणपत्थडे ७४४ हेट्ठिमगेवेज्जविमाणपत्थडे
३९८ हेट्ठिममज्झिमगेवेज्ज
विमाणपत्
२४७
४९८ हेट्टिमहेट्ठिमगेवेज्ज
६७३
विमाणपत्थडे
१८८,३९०,४९६ | हेट्ठिल्ला
६४३ हेतू
३४० हेमंत
३६० हेमगा
३५० हेमव
३५० हेमवत
५२२
८८
३३१,४५२ हेमवतगा
१७९ |हेरण्णवते ३३१, ४५२ हेरन्नवए
१००,१९९,२७३, हेरन्नवत
५५५, ६४३
३५६ हेरन्नवतगा
५९७
८३
सूत्राङ्काः
१३३
५२७
४९५
१०६
१०६
५५३
७४४
७४२
३३६,४१०
२३२
२३२
२३२
२३२
३८३
३३५
२८१,५२३
३७६
१९९
९४,१००,१९९, २९९,५२२,५५५,
६४३,६८९,७२४
४९१ ५२२,६४३ ५२२
९४,१००,१९९,
२९९,५५५,७२४
४९१
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४
गाथार्धम्
अंजणे अंजणपुलते अंबट्ठा य कलंदा
अज्झवसाण-निमित्ते
द्वितीयं परिशिष्टम् स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतानां गाथार्थानामकारादिक्रमः
सूत्राङ्कः | गाथार्धम्
सूत्राङ्कः | गाथार्धम्
७३२ उवसग्ग गब्भहरणं
६४३ आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता ४९७ आडंबरो रेवततं ५६१ आणंदे कामदेवे त ५०३ आतंक उवसग्गे
| एगनासा णवमिता
७५५ एगा से गब्भवसही
५०० | एते खलु पडिसत्तू
१९५ आदिच्चतेयतविता
४६० एते ते नव निहओ ७४९ एतेसिं पल्लाणं ६०९ एतेसिं हत्थिणं थोवं थोवं ५०३ एरंडमज्झयारे एरंडे
७३७ एरंडमज्झयारे जह ६७२ एरवते वेसमणे ९
७४८ पुच्छणा पडिपुच्छा ७४५ आमंतणी भवे अट्ठमी उ ७४४ आरभडा, संमद्दा ७३७ आरोग्ग दीहमाउं ३७७ आसाण य हत्थीण य ३७७ आसा सव्वगा चेव ४६० इंदा अग्गेयी जम्मा त ९५ इच्छा मिच्छा तहक्कारो ७५१ इत्थीओयसमाओगे ६९४ | इय मंगल आयरिए ६०९ इय मंगल आयरिए ६४३ | इय सुंदर आयरिए ६८९ इय सुंदर आयरिए ६८९ इलादेवी सुरादेवी ३०७ इसिदासे य धण्णे त
६४३ | कंठुग्गतेण गंधारं ७२० कंसे संखे जीवे ७४९ कक्कसेणे भीमसेणे ३७७ कच्छे वेसमणे या ९ ३४९ कडुतो बहूदतो वा ३४९ कणते कंचणे पउमे ३४९ कस्स अवरकंका ३४९ कतिसमता उस्सासा ? ६४३ कत्तिय रोहिणि मगसिर ७५५ कलंबो उ पिसायाणं ५९० कला आवरणे अन्नाणे ५५३ काकस्सरमणुनासंच ५५३ कारणे त पडुपण्णे ६७२ काले कालण्णाणं
५५३ उत्तरकुरु फलिहे ६५४ उत्तरगंधारा वित ७७७ उत्तरमंदा रयणी ७३६ उप्पज्जंति एगेंदियाई ५५३ उप्पाते निमित्ते मंते ५५३ उर-कंठ - सिरपसत्थं च ५५३ उवणीतं सोवयारं च ५५३ उवसंपता य काले
६७८ काले य महाकाले
अणच्चावितं, अवलितं
अण्हते तवे व
अणागतमतिक्कंतं
अणुकंपा संग चे
अत्तणा उवणीत अत्थि सुभोग निक्खम्म अप्पं अयं बहु सुक्कं अप्पं सुक्कं बहु ओयं अप्पेण वि वासेणं अभिई, सवण, धणिट्ठा अभिगम - वित्थाररुती अभिती समणो धणिट्ठा अणे हि तत्तो अलंबुसा मिस्सकेसी अ अवरविदेहे रम्मगकूडे अवरविदेहे रुतगे ९ अवरेण चंपगवणं
अवसाणे य खवेंता
असोगो किन्नराणं च अस्संजतेसु पूआ अस्सत्थ सत्तिवन्ने अस्सोकंता य सोवीरा अह उत्तरायता कोडीमा असंभवे का आइमिउ आरभंता
५५३ कुंजर वस सी
५५३ कुंथुस्स कत्तियाओ ७४९ | कुमुदे य पलासे य
सूत्राङ्कः
७७७
६४३
६७२
६७२
६७३
११०
२८१
३४९
३४९
६८९
५५३
६९३
७३७
६८९
४६०
६४३
७७७
५५३
९५
६५४
६७८
५५३
७४४
६७३
६७३
६९३
४११
६४१
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयं परिशिष्टम् ।
९५
५००
५५३ |
गाथार्धम् सूत्राङ्कः | गाथार्धम् सूत्राङ्कः गाथार्धम्
सूत्राङ्कः केसी गातति मधुरं ५५३ जइत्ता अजइत्ता य । १६८ तणुओ तणुतग्गीवो २८१ केसी गायती चउरं ५५३ जं जोयणवित्थिन्नं ११० ततिता करणम्मि कता ६०९ कोधे माणे माया ७४१ जंबवती सच्चभामा ६२८ ततिता करणम्मि कता ६०९ खायती पीयती देती ५५३ जंबूदीवगआवस्सगं तु २९९ | तत्तो पसेणती पुण
५५६ गंता य अगता य १६८ जं हिययं कलुसमयं जीहा ३६० तत्तो वि अस्सलेसा गंधारे गीतजुत्तिण्णा
जं हिययं । जीहा ३६० तत्थ पढमा विभती
६०९ गंधिलावति वेसमण ६८९ | जणवय सम्मुति ठवणा ७४१ तस्सीलसमायारो ६९३ गणितस्स य बीयाणं | जमाली त भगाली त ७५५ तह पाणवत्तियाए गावो मित्ता य पुत्ता य ५५३ जम्मि पुरिसम्मि विज्जति ३६० ताणा एकूणपण्णासा
५५३ गोघातगा य जे चोरा ५५३ जम्मि पुरिसम्मि विज्जति ३६० तिन्नि वित्तप्पयाराई गोरी गातति चउरं ५५३ जम्मि पुरिसम्मि विज्जति ३६० तुलसी भूयाण भवे ६५४ चंडाला मुट्ठिया मेता ५५३ जम्मि पुरिसम्मि विज्जति ३६० तुसिता अव्वाबाधा ६८४ चंदजसा चंदकंता ५५६ | जस्सीलसमायारो ६९३ | तुसिता अव्वाबाहा ६२५ चंदे सूरे कणगे ६९३ जाणाहिति सो गाहिति तोयधारा विचित्ता य ६४३ चंपा महुरा वाणारसी __७१८ जावंताव ति वग्गो ७४७ थूलणह-दंत-वालो २८१ चउचलणपतिट्ठाणा ५५३ जेठ्ठा मूलो पुव्वा य ९५ | दच्चा य अदच्चा य चउरासीति असीति ५८३ जे वसमुवगच्छंती ६७३ दत्ते सुहुमे सुबंधू य ५५६ चक्कट्ठपतिट्ठाणा ६७३ जेसिं ते आवासा ६७३ दप्प प्पमादऽणाभोगे ७३२ चलबहलविसमचम्मो २८१ जोधाण य उप्पत्ती । दसन्नभद्दे अतिमुत्ते
७५५ चिट्ठित्तमचिट्ठित्ता १६८ | णंदणे मंदरे चेव ६८९ | दीहे रहस्से पुहुत्ते त ७०५ चिण उवचिण बंध उदीर २३३, णंदी त खुद्दिमा पूरिमा ५५३ | दुप्पउत्तो मणो वाया ७४३
३८७,४७३,५४०,५९२, |णंदुत्तरा य गंदा ६४३ | देवकुरु विमल कंचण । ५९०
५९६,७०२,७८३ णच्चुण्ह णातिसीतो ४६० दोणमुह-मडंबाणं ६७३ चित्तरसा मणियंगा ७६६ णमि मातंगे सोमिले ७५५ दोण्हं पि रत्तसुक्काणं ३७७ छंदा रोसा परिजुन्ना ७१२ णाणुवओगाहारे ११२ धन्नस्स य बीयाणं । ६७३ छटुं च सारसा कोंचा ५५३ णासाते पंचमं बूया ५५३ | धम्मे त अट्ठमे वुत्ते छट्ठी तस्स इमस्स व ६०९ णेसप्पम्मि निवेसा ६७३ | धायइसंडे पुक्खरवरे य २९९ छट्ठी य सारसी णाम ५५३ | णेसप्पे पंडुयए ६७३ धेवते चेव, णेसादे ५५३ छ दोसे अट्ठ गुणे ५५३ | तंतिसमं तालसमं ५५३ नट्टविहि नाडगविही
६७३ छन्नं सद्दाउलगं ७३२ तं सागरोवमस्स उ ११० नागरुक्खो भुयंगाणं ६५४ छप्पुरिमा नव खोडा ५०३ तज्जातदोसे मतिभंगदोसे ७४४ निद्देसे पढमा होति ६०९
१६८
७४५
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्रान्तर्गतानां गाथाङनामकारादि
६४३
५५३ ६४३
गाथार्धम् सूत्राङ्कः | गाथार्धम् सूत्राङ्कः गाथार्धम्
सूत्राङ्कः निद्दोसं सारवंतं च ५५३ बारस दीहा मंजूससंठिता ६७३ रयणे रतणुच्चते ता ६४३ निसगुवतेसरुती आणारुती ७५१ बाला किड्डा मंदा ७७२ रयणाई सव्वरतणे ६७३ निस्सीलस्स गरहिता १६८ बितीता उण उवतेसे ६०९ रिट्ठ तवणिज कंचण नीससिऊससितसम ५५३ बुत्तिता अबुतित्ता १६८ | रिसभेणं तु एसज्जं नीहारि पिंडिमे लुक्खे ७०५ भद्दे सुभद्दे सुजाते ६८५ रुतगे रुतगुत्तमे चंदे पउमप्पभस्स चित्ता ४११ भद्दो मज्जति सरए २८१ रुप्पस्स सुवन्नस्स य ६७३ पउमावई य गोरी ६२८ भरहे वेसमणे या ६८९ रूवेण व सीलेण व २८१ पउमुत्तरे नीलवंते ६४१ भवंति कतिणो पण्णा ५५३ रेवतसरसंपन्ना ५५३ पंचमसरसंपन्ना ५५३ भीतं दुतं रहस्सं ५५३ रेवति, अस्सिणि, भरणी ९५ पंचमी त अवाताणे ६०९ भीरू तत्थुव्विग्गो २८१ रेवतित अणंतजिणो
४११ पढमित्थ विमलवाहण ५५६ | भोगंकरा भोगवती ६४३ लच्छीवती सेसवती ६४३ पन्ना चत्तालीसा ५८३ मंगी कोरव्वी या ५५३ लजाते गारवेणं च ।
७४५ पप्फोडणा चउत्थी ५०३ मज्झिमसरसंपन्ना ५५३ लभित्ता अलभित्ता य । पयावती त बंभे ६७२ मणियंगा त अणियणा ५५६ लोहस्स य उप्पत्ती ६७३ परपंडितते वाति ६७९ मत्तंगता त भिंगा ५५६ | वंजुल पलास वप्पो परिकम्मं ववहारो ७४७ मत्तंगता त भिंगा ७६६ | वत्थगंधमलंकारं
५५३ पलिओवमट्टितीता मधुगुलियपिंगलक्खो २८१ वत्थाण य उप्पत्ती
६७३ पवंचा पब्भारा
७७२ मधुरं सम सुकुमारं ५५३ वत्थु-तज्जातदोसे त ७४४ पाणिदयातवहेडं
महसीह अग्गिसीहे ६७२ | ववहार भाव जोगे ७४१ पादसमता उस्सासा ५५३ महाभीमसेणे सुगीवे य ६७२ वासं ण सम्म वासति पासस्स विसाहाओ ४११ माहणे णंदिसेणे त ७५५ वाससते वाससते पुक्खरपत्ते कुम्मे ६९३ माहे तु हेमगा गब्भा ३७६ | विजया य वेजयंती पुढविदगाणं तु रसं ४६० मिओ मज्जति हेमंते २८१ विजये वेजयंते पुण्णं रत्तं च अलंकियं ५५३ | मिगसिरमद्दा पुस्सो ___७८१ विमलघोसे सुघोसे पुरओ उदग्गधीरो २८१ मित्तदामे सुदामे ५५६ | विसमं पवालिणो ४६० पुरिमंतरंजि दसपुर ५८७ मित्तवाहणे सुभोमे ५५६ विस्सरं पुण केरिसी ? ५५३ पुव्वा य आसाढा ४११ मियापुत्ते त गोत्तासे ७५५ विस्सरं पुण पिंगला पुव्वेणं असोगवणं ३०७ मुणिसुव्वतस्स सवणो ४११ वीरंगय वीरजसे संजय ६२२ पूरेति य थलताई ४६० मुद्धाणेण य णेसातं ५५३ वेयण वेयावच्चे ५०० फाले अंबट्टपुत्ते त ७५५ मेहंकरा मेहवती ६४३ वेरुलियमणिकवाडा ६७३ फासे आणापाणू ५६१ रंगाण य धोव्वाण ६७३ वेसमणे वेरुलिते ६४३
६७३
४६० ११० ६४३ ६४३ ५५६
५५३
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयं परिशिष्टम् ।
६८५
६२२
१६८
गाथार्धम् संकिते सहसक्कारे संखाणे निमित्ते कातिते संखे महानिहिम्मी संखो णदति गंधारं संठाणे सालिभद्दे त सएयगं चेव अद्धाए सक्कता पागता चेव सजं तु अग्गजिब्भाते सज्जं रवति मऊरो सजं रवति मुइंगो सज्जेण लभति वित्तिं सज्जे, रिसभे, गंधारे सत्तमी सन्निहाणत्थे सत्त सरा णाभीतो सत्त सरा ततो गामा सत्त स्सरा कतो सत्थमग्गी विसं लोणं सद्दा, रूवा, गंधा सद्दालपुत्ते महासतते समगं नक्खत्ता जोगं समताल-पडुक्खेवं सममद्धसमं चेव समाहारा सुप्पतिण्णा सम्मदिट्ठि परित्ता सयज्जले सताऊ य सरमंडलंमि गिज्जते सलक्खण-क्कारण सवणे णाणे य विन्नाणे सव्वा आभरणविही सव्वा य जुद्धनीति सव्वे य चक्कजोही
सूत्राङ्कः गाथार्धम् ७३२ ससि सगलपुण्णमासी ६७९ ससिसूरचक्कलक्खण ६७३ सहस्सुद्दाहे आमलते ५५३ साउणिता वगुरिता ७५५ | सागरचित्ते वइरे ७४८ सागरमणागारं ५५३ सामा गायति मधुरं ५५३ | सारणिता रोगिणिता ५५३ सारस्सतमाइच्चा ५५३ सारस्सयमादिच्चा ५५३ सालदुममज्झारे एरंडे ५५३ सालदुममज्झयारे जह ६०९ सावत्थी उसभपुरं ५५३ | सिद्ध महाहिमवंते ५५३ सिद्ध सइंदिय-काए ५५३ | सिद्ध सुकच्छे खंडग ७४३ सिद्धे कच्छे खंडग १६८ सिद्धे गंधिल खंडग ७५५ सिद्धे त गंधमातण ४६० सिद्धे निसहे हरिवस्स ५५३ सिद्धे नेलवंत विदेहे ५५३ | सिद्धे पम्हे खंडग ६४३ सिद्धे भरहे खंडग १७० | सिद्धे य मालवंते ७६७ सिद्धे य विज्जुणामे ५५३ सिद्धेश्वए खंडग ७४४ सिद्धे रुप्पी रम्मग १९५ सिद्धे सोमणसे ता ६७३ सिप्पसतं कम्माणि य ६७३ सिरिकता मरुदेवा ६७२ सीता त पुण्णणामे
सूत्राङ्कः गाथार्धम्
सूत्राङ्कः ४६० | सीतोदा य सयजले
६८९ ६७३ सीतोसिणा उ चेत्ते । ३७६ ७५५ सुकच्छे वेसमणे ता ६८९ ५५३ | सुद्दुत्तरमायामा सा छट्ठी ५५३ ६८९ सुत्तित्ता असुत्तित्ता य १६८ ७४८ | सुदंसणे अमोहे य ५५३ सुरादेवे चुल्लसतते ७५५ ७१२ सुवच्छा वच्छमित्ता ६४३ ६२५ सूरा संगहकत्तारो ५५३ ६८४ सेय सिवे उद्दायणे ३४९ | सो कालो बोधव्वो ११० ३४९ सोत्थिते त अमोहे ६४३ ५८७ | सोमा ईसाणीता ७२० ६४३ हंता य अहंता य ११२ हंदि णमो साहाते ६०९ ६८९ | हंसो णदति गंधारं ५५३ ६८९ हत्थिणउर कंपिल्लं मिहिला ७१८ ६८९ हत्थो चित्ता य तथा दस ७८१ ५९० हत्थो चित्ता य तथा ६९४ ६८९ हत्थो चित्ता साती । __ ९५ ६८९ हरिकंता हरिवासे ६८९ हरिता चुंचुणा चेव ४९७ ६८९ हरिवंसकुलुप्पत्ती ওওও ६८९ हवति पुण सत्तमी तं ६०९ ६८९ हास भते अक्खातित ७४१ ६८९ हिययमपावमकलुसं ३६० ६४३ | हिययमपावमकलुसं ३६० ५९० हेरण्णवते मणिकंचणे ६४३ ६७३ होज निरंतरणिचितं
११० ५५६ ६८९
६४३
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि ।
[पृ०५९७ पं०११] तुलना- “विणएण तहणुभासा हवदि य अणुपालणाय परिणामे। एदं पच्चक्खाणं चदुविधं होदि णादव्वं ॥१३८॥ विनयेन शुद्धं तथाऽनुभाषयाऽनुपालनेन परिणामेन च यच्छुद्धं भवति तदेतत्प्रत्याख्यानं चतुर्विधं भवति ज्ञातव्यमिति यस्मिन् प्रत्याख्याने विनयेन सार्द्धमनुभाषाप्रतिपालनेन सह परिणामशुद्धिस्तत्प्रत्याख्यानं चतुर्विधं भवति ज्ञातव्यमिति ॥१३८॥
विनयप्रत्याख्यानं तावदाह- किदियम्मं उवचारिय-विणओ तह णाणदंसणचरित्ते । पंचविधविणयजुत्तं विणयसुद्धं हवदि तं तु ॥१३९॥ कृतिकर्म सिद्धभक्तियोगभक्तिगुरुभक्तिपूर्वकं कायोत्सर्गकरणम्, पूर्वोक्तः औपचारिकविनयः कृतकरमुकुलललाटपट्टविनतोत्तमांगः प्रशांततनुः पिच्छिकया विभूषितवक्ष इत्याधुपचारविनयः, तथा ज्ञानदर्शनचारित्रविषयो विनयः, एवं क्रियाकर्मादिपंचप्रकारेण विनयेन युक्तं विनयशुद्धं तत्प्रत्याख्यानं भवत्येवेति ॥१३९॥ ____ अनुभाषायुक्तं प्रत्याख्यानमाह- अणुभासदि गुरुवयणं अक्खरपदवंजणं कमविसुद्धं । घोसविसुद्धी सुद्धं एवं अणुभासणासुद्धं ॥१४०॥ अणुभासदि अनुभाषते अनुवदति गुरुवचनं गुरुणा यथोच्चारिता प्रत्याख्यानाक्षरपद्धतिस्तथैव तामुच्चरतीति, अक्षरमेकस्वरयुक्तं व्यंजनम्, इच्छामीत्यादिकं पदं सुबन्तं मिङतं चाक्षरसमुदायरूपम्, व्यंजनमनक्षरवर्णरूपं खंडाक्षरानुस्वारविसर्जनीयादिकं क्रमविशुद्धं येनैव क्रमेण स्थितानि वर्णपदव्यंजनवाक्यादीनि ग्रंथार्थोभयशुद्धानि तेनैव पाठः, घोषविशुद्ध्या च शुद्धं गुर्वादिकवर्णविषयोच्चारणसहितं मुख्यमध्योच्चारणरहितं महाकलकलेन विहीनं स्वरविशुद्धमिति, एवमेतत्प्रत्याख्यानमनुभाषणशुद्धं वेदितव्यमिति ॥१४०॥ ।
अनुपालनसहितं प्रत्याख्यानस्य स्वरूपमाह- आदंके उवसग्गे समे य दुन्भिक्खवुत्ति - कंतारे। जं पालिदं ण भग्गं एवं अणुपालणासुद्धं ॥१४१॥ आतंकः सहसोत्थितो व्याधिः, उपसर्गो देवमनुष्यतिर्यकृतपीडा, श्रम उपवासालाभमार्गादिकृतः परिश्रमः ज्वररोगादिकृतश्च, दुर्भिक्षवृत्तिर्वर्षाकालराज्यभंगविड्वरचौराद्युपद्रवभयेन शस्याद्यभावेन भिक्षायाः प्राप्त्यभावः, कान्तारं महाटवीविंध्यारण्यादिकभयानकप्रदेशः, एतेषूपस्थितेष्वातंकोपसर्गदुर्भिक्षवृत्तिकान्तारेषु यत्प्रतिपालितं रक्षितं न भग्नं न मनागपि विपरिणामरूपं जातं तदेतत्प्रत्याख्यानमनुपालनविशुद्धं नाम ॥१४१॥
परिणामविशुद्धप्रत्याख्यानस्य स्वरूपमाह- रागेण व दोसेण व मणपरिणामेण दूसिदं जं तु। तं पुण पच्चक्खाणं भावविसुद्धं तु णादव्वं ॥१४२॥ रागपरिणामेन द्वेषपरिणामेन च न दूषितं न प्रतिहतं विपरिणामेन यत्प्रत्याख्यानं तत्पुनः प्रत्याख्यानं भावविशुद्धं तु ज्ञातव्यमिति। सम्यग्दर्शनादियुक्तस्य निःकांक्षस्य वीतरागस्य समभावयुक्तस्याहिंसादिव्रतसहितस्य शुद्धभावस्य प्रत्याख्यानं परिणामशुद्धं भवेदिति ॥१४२॥" - इतिआचार्य वसुनन्दिविरचितटीकासहिते मूलाचारे सप्तमे षडावश्यकाधिकारे ॥
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि [पृ०६५२] "कारणे पुण करेज ते य इमे कारणा- णाणट्ठ दसणट्ठा, चरितट्ठा एवमाइसंकमणं। संभोगट्ठा व पुणो, आयरियट्ठा व णातव्वं ॥५४५८॥
णाणट्ठ त्ति, अस्य व्याख्या- सुत्तस्स व अत्थस्स व, उभयस्स व कारणा तु संकमणं। वीसजियस्स गमणं, भीओ य णियत्तई कोई ॥५४५९॥ पुव्वद्धं कंठं । तेण अप्पणो आयरियाणं जं सुत्तं अत्थि तं गहियं, अत्थि य से सत्ती अण्णं पि घेत्तुं, ताहे जत्थ अत्थि अधिगसुत्तं संविग्गेसु तत्थ संकमइ विसज्जितो आयरिएणं, अविसज्जिएण ण गंतव्वं । अह गच्छति तो चउलहुगा । विसज्जितो य इमे पदे आयरेज्जा- जइ तेसिं आयरियाणं कक्खडचरियं सोउं कोति भीओ णियत्तेज तो पणगं ॥५४५९॥” - निशीथ० चूर्णिः । ___“अथ चारित्रार्थमाह- चरित्तट्ट देसे दुविहा, एसणदोसा य इत्थिदोसा य । गच्छम्मि य सीयंते, आयसमुत्थेहिं दोसेहिं ॥५४४०॥ चारित्रार्थं गमनं द्विधा-देशदोषैरात्मसमुत्थदोषैश्च । देशदोषा द्विविधाः- एषणादोषाः स्त्रीदोषाश्च । आत्मसमुत्था अपि द्विधा-गुरुदोषा गच्छदोषाश्च । तत्र गच्छो यदि आत्मसमुत्थैः चक्रवालसामाचारीवितथकरणलक्षणैर्दोषैः सीदेत् तत्र पक्षमापृच्छन्नास्ते, तत ऊर्ध्वं गच्छति ॥५४४०॥" - बृहत्कल्पटीका ।।
“इदाणिं चरित्तट्ठा- चरितट्ठ देस दुविहा, एसणदोसा य इत्थिदोसा य । गच्छम्मि विसीयंते, आतसमुत्थेहि दोसेहिं ॥५५३९॥ चरित्तठ्ठगमणं दुविहं- देसदोसेहिं आयसमुत्थदोसेहिं य । देसदोसा दुविधा- एसणदोसा, इत्थिदोसा य । आयसमुत्था दुविहा- गुरुदोसा, गच्छदोसा य ।
तत्थ गच्छे जति आयसमुत्थेहिं चक्कवालसमायारिवितहकरणेहिं सीएज्ज तत्थ पक्खं आपुच्छंतो अच्छति, परतो गच्छइ ।।५५३९॥” - निशीथ० चूर्णिः ।
[पृ० ६५३] “गच्छे पुण वसंतस्स इमे गुणा- भीतावासो रती धम्मे, अणायतणवजणं। णिग्गहो य कसायाणं, एयं धीराण सासणं ॥५४५४॥ भीतावासो त्ति अस्य व्याख्याआयरियादीण भया, पच्छित्तभया ण सेवति अकजं । वेयावच्चऽज्झयणेसु सजते तदुवयोगेणं ॥५४५५।। कंठा । पुव्वद्धं कंठं । रती धम्मे, अस्य व्याख्या- 'वेयावच्च' पच्छद्धं । आयरियादीणं वेयावच्चं करेति । अज्झयणं ति सज्झायं करेति । तदुवओगो सुत्तत्थोवओगो, तेण सुत्तत्थोवओगेण वेयावच्चज्झयणेसु रज्जति- रतिं करेइ त्ति वुत्तं भवइ ।
अहवा- तदुवओगो अप्पणो आयरियादीहिं य भण्णमाणो वेयावच्चज्झयणादिसु रज्जति ॥५४५५।।
अणायतणवजण त्ति, अस्य व्याख्या- एगो इत्थीगम्मो, तेणादिभया य अल्लिययगारे। कोहादी व उदिण्णे, परिणिव्वावेति से अण्णे ॥५४५६॥ कंठा ।
कसायणिग्गहो, अस्य व्याख्या- कोहादी पच्छद्धं । गच्छवासे वसंतस्स अण्णे य आयरियादी परिणिव्वावेंति सकसाए । गच्छवासे वसंतेण एयं वीरसासणे धीरसासणे वा जं भणियं तं आराहियं भवति ॥५४५६॥” - निशीथ० चूर्णिः ।
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
२
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि [पृ०६५९] "जहिँ नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छम्मि । सो उ अगच्छो गच्छो, संजमकामीण मोत्तव्वो ॥४४६४॥ विस्मृते क्वचित् कर्त्तव्ये ‘भवतेदं न कृतम्' इत्येवंरूपा स्मारणा सारणा, अकर्त्तव्यनिषेधो वारणा, उपलक्षणत्वाद् अन्यथा कर्त्तव्यमनाभोगादिना अन्यथा कुर्वतः सम्यक् प्रवर्त्तना प्रेरणा, निवारितस्यापि पुनः पुनः प्रवर्त्तमानस्य खर-परुषोक्तिभिः शिक्षणं प्रतिनोदना । एताः सारणादयो यत्र गच्छे न सन्ति स गच्छो गच्छकार्याकरणादगच्छो मन्तव्यः, अत एव संयमकामिना संयमाभिमुखेन साधुना मोक्तव्योऽसौ, नाश्रयणीय इति भावः । गाथायां प्राकृतत्वाद् इकारस्य दीर्घत्वम् ॥४४६४॥" - बृहत्कल्पटीका ॥
[पृ०६६०] “यदि पुनर्न सर्वमपि गणमामन्त्रयते तत एते दोषा:- सीसे जइ आमंते, पडिच्छगा तेण बाहिरं भावं । जइ इअरे तो सीसा, ते वि समत्तम्मि गच्छंति ।।१४५७।। तरुणा बाहिरभावं, न य पडिलेहोवहिं न किइकम्मं । मूलगपत्तसरिसगा, परिभूया वच्चिमो थेरा ॥१४५८॥ यद्याचार्यः शिष्यान् केवलानामन्त्रयति ‘कस्यां दिशि क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः प्रेषयितुमुचिताः ?' इति, ततो मासलघु, आज्ञादयश्च दोषाः । प्रतीच्छकाश्च तेन कारणेन बाह्यं भावं गच्छेयुः- अहो ! स्वशिष्या एवामीषां सर्वकार्येषु प्रमाणं न वयमिति, अतो राग-द्वेषदूषितत्वात् को नामामीषामुपकण्ठे स्थास्यति ? इति । यदि इतरान् प्रतीच्छकानामन्त्रयते ततः शिष्या बहिर्भावं गच्छेयु:- प्रतीच्छका एव तावदमीषां प्रसादपात्रम्, अतः किमर्थं वयमेव वैयावृत्यादिप्रयासं कुर्मः ? इति । तेऽपि प्रतीच्छकाः समाप्ते सूत्रार्थग्रहणे स्वगच्छं गच्छन्ति । ततश्चाचार्य उभयैरपि प्रतीच्छक-शिष्यैः परित्यक्तः सन्नेकाकी सञ्जायेत ॥१४५७॥
__अथ वृद्धानामन्त्रयते ततस्तरुणा बहिर्भावं मन्यन्ते, न च नैव गुरूणां क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाणां वा उपकरणं प्रत्युपेक्षन्ते, न वा स्थविरादीनामुपधिं वहन्ति, न च कृतिकर्म-भक्तपानानयन-विश्रामणादिकं कुर्वते, 'वृद्धा एव सर्वमपि विधास्यन्ति, केऽत्र वयमस्थापितमहत्तराः ?' इति । अथैतद्दोषभयात् तरुणानेव पृच्छति ततः स्थविराश्चिन्तयेयु:- मौलकपत्रसदृशाः, मौलम् आद्यं यत् पर्णं परिपक्वप्रायं यदि वा मूलकः कन्दविशेषस्तस्य यत् पत्रं निस्सारं तत्सदृशा वयम्, अत एव च परिभूताः परिभवपदमायाता इत्यतो व्रजामो वयं गणान्तरमिति ॥१४५८॥" - बृहत्कल्पटीका ।
पृ०६६४] “साम्प्रतं धर्मादिपृथिवीनामुच्चस्त्वमाह- पढमा असीइसहस्सा १ बत्तीसा २ अट्ठवीस ३ वीसा य ४ । अट्ठार ५ सोल ६ अट्ठ य ७ सहस्स लक्खोवरिं कुज्जा ॥ ....॥२४१॥ व्या० अत्र प्राकृतत्वात् प्रथमाशब्दात् परत्र विभक्तेर्लोपः, प्रथमायां धर्माभिधायां पृथिव्यामुच्चस्त्वपरिमाणं परिभावयन्नशीतिसहस्राणि लक्षस्योपरि कुर्यात् । किमुक्तं भवति ? प्रथमाया रत्नप्रभायाः पृथिव्या अशीतियोजनसहस्राधिको योजनलक्षो बाहल्यमिति । एवं द्वितीयादिष्वपि पृथिवीषु बाहल्यपरिभावने द्वात्रिंशदादीनि योजनसहस्राणि लक्षस्योपरि कुर्यात् । अत्राप्ययं भावार्थ:- द्वितीयस्यां पृथिव्यां बाहल्यमानं द्वात्रिंशद्योजनसहस्राधिको लक्षः । तृतीयस्यां पृथिव्यामष्टाविंशतियोजनसहस्राधिकः ।
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि चतुर्थ्यां पृथिव्यां विंशतियोजनसहस्राधिकः । पञ्चम्यामष्टादशयोजनसहस्राधिकः । षष्ठयां षोडशयोजनसहस्राधिकः । सप्तम्यामष्टयोजनसहस्राधिक इति । योजनं चेह प्रमाणाङ्गलनिष्पन्नं द्रष्टव्यम्। रत्नप्रभायां च पृथिव्यामशीतियोजनसहस्राधिको लक्षः एवम्- षोडशसहस्रप्रमाणं प्रथमं खरकाण्डम्, द्वितीयं पङ्कबहुलं काण्डं चतुरशीतियोजनसहस्रमानम्, तृतीयमशीतियोजनसहस्रप्रमाणं जलबहुलं काण्डमिति । शेषास्तु पृथिव्यः सर्वा अपि पृथिवीस्वरूपाः, केवलं शर्कराप्रभा शर्कराबहुला वालुकाप्रभा वालुकाबहुलेत्येवं नामानुसारतो विशेषप्त्वरूपं परिभावनीयम् । उक्तं च- तत्थ सहस्सा सोलस, खरकंडं पंकबहुलकंडं तु । चुलसीइ सहस्साइं, असीइ जलबहुलकंडं तु ॥१॥ एवं असीइ लक्खो, खरकंडाईहि घम्मपुढवीए । सेसा पुढविसरूवा, पुढवीओ हुंति बाहल्ले ॥२॥ [ ] ॥२४१।।
__ अधुना सर्वासु पृथिवीषु घनोदध्यादीनामुच्चस्त्वमानमाह- सव्वे वीस सहस्सा, बाहल्लेणं घणोदही नेया । सेसाणं तु असंखा, अहो अहो जाव सत्तमिया ॥२४२॥ व्या० सर्वासु पृथिवीष्वनन्तरमधो ये वर्तन्ते घनोदधयस्ते सर्वेऽपि मध्यभागे बाहल्येनोच्चस्त्वेन विज्ञेयाः प्रत्येक विंशतिर्योजनसहस्राणि, विंशतियोजनसहस्रप्रमाणं सर्वेषामपि घनोदधीनां मध्यभागे बाहल्यमिति भावः। शेषाणां तु घनवाततनुवाताकाशानामसङ्ख्येयानि योजनसहस्राण्युच्चस्त्वेन मध्यभागे विज्ञेयानि । नवरं घनवातासङ्ख्येयकादसङ्ख्येयगुणं तनुवातासङ्ख्येयकम्, तनुवातासङ्ख्येयकादसङ्ख्येयगुणमाकाशासङ्ख्येयकम् । एतच्च घनवातादीनामसङ्ख्येययोजनात्मकं बाहल्यपरिमाणमधोऽधस्तावदवगन्तव्यं यावत्सप्तमी तमस्तमाभिधाना पृथिवीति ॥२४२॥" - बृहत्संग्रहणी० मलय० ।
[पृ०६६७] “एक्किक्को य सयविहो सत्त नयसया हवंति एमेव । अन्नो वि य आएसो पंचेव सया नयाणं तु ॥२२६४॥ एतेषां मूलजातिभेदतः सप्तानां नैगमादिनयानामेकैकः प्रभेदतः शतविधः शतभेदः । एवं च सर्वैरपि प्रभेदैः सप्त नयशतानि भवन्ति । अन्योऽपि चादेशः प्रकारस्तेन पञ्च नयशतानि भवन्ति । शब्दादिभिस्त्रिभिरपि नयैर्यदैक एव शब्दनयो विवक्ष्यते तदा पञ्चैव मूलनया भवन्ति, एकैकस्य च शतविधत्वात् पञ्चशतविधत्वं नयानाम् । अन्नो वि य त्ति अपिशब्दात् षट्, चत्वारि, द्वे वा शते नयानाम्। तत्र यदा सामान्यग्राहिणो नैगमस्य संग्रहे, विशेषग्राहिणस्तु व्यवहारेऽन्तर्भावो विवक्ष्यते तदा मूलनयानां षड्विधत्वादेकैकस्य च शतभेदत्वात् षट् शतानि नयानाम् । यदा तु संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्रलक्षणास्त्रयोऽर्थनया विवक्ष्यन्ते, एकस्तु शब्दनयः पर्यायास्तिकस्तदा चत्वारो मूलनया भवन्ति, प्रत्येकं च शतभेदत्वाच्चत्वारि नयशतानि । यदा तु नैगमादयश्चत्वारोऽप्येको द्रव्यास्तिकः, शब्दनयास्तु त्रयोऽप्येक एव पर्यायास्तिक इत्येवं द्वावेव नयौ विवक्ष्येते तदाऽनयोः प्रत्येकं शतभेदत्वाद् द्वे नयशते भवतः ॥ इति नियुक्तिगाथार्थः ॥२२६४॥” - विशेषाव० मलधारि०॥
[पृ०६६८] “अपरिशुद्धश्च नयवादः परसमय: स कियढ्दो भवति ? इत्याह- जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया । जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
।।३।४७।। अनेकान्तात्मकस्य वस्तुन एकदेशस्य यद् अन्यनिरपेक्षस्याऽवधारणम् अपरिशुद्धो नयः, तावन्मात्रार्थस्य वाचकानां शब्दानां यावन्तो मार्गा:- हेतवो नया:- तावन्त एव भवन्ति नयवादास्तत्प्रतिपादकाः शब्दाः । यावन्तो नयवादास्तावन्त एव परसमया भवन्ति स्वेच्छाप्रकल्पितविकल्पनिबन्धनत्वात् परसमयानां परिमितिर्न विद्यते । ननु यद्यपरिमिताः परसमयाः कथं तन्निबन्धनभूतानां नयानां संख्यानियमः ' नैगम-संग्रह-व्यवहारर्जुसूत्र - शब्द- समभिरूढैवंभूता नयाः' [तत्त्वार्थसू० १।३३] इति श्रूयते ? न; स्थूलतस्तच्छ्रुतेः, अवान्तरभेदेन तु तेषामपरिमितत्वमेव स्वकल्पनाशिल्पिघटितविकल्पानामनियतत्वात् तदुत्थप्रवादानामपि तत्संख्यापरिमाणत्वात् ||३|४७||” इति अभयदेवसूरिविरचितटीकासहिते संमतितर्कप्रकरणे ।
" एताः पञ्च निर्युक्तिगाथाः क्रमेण व्याचिख्यासुर्भाष्यकारो नैगमनयशब्दार्थं तावदाह - गाई माणाइं सामन्नो-भय-विसेसनाणाइं । जं तेहिं मिणइ तो णेगमो णओ णेगमाणो त्ति ।। २१८६॥ न एकं नैकं प्रभूतानीत्यर्थः, नैकानि किन्तु प्रभूतानि यानि मानानि सामान्यो-भय-विशेषज्ञानानि। तत्र समानानां भावः सामान्यं सत्तालक्षणम्, उभयं सामान्यविशेषोभयरूपमपान्तरालसामान्यं वृक्षत्वगोत्व-गजत्वादिकम्, विशेषास्तु नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्यस्वरूपा व्यावृत्त्याकारबुद्धिहेतवः, तेषां सामान्योभय-विशेषाणां ग्राहकाणि ज्ञानानि सामान्यो - भय - विशेषज्ञानानि, तैर्यस्माद् मिनोति मिमीते वा, ततो नैगमः, अत एव नैकमानो नैकपरिच्छेदः किन्तु विचित्रपरिच्छेद इति ॥२१८६|| नैगमनयस्यैव व्युत्पत्त्यन्तरमाह- लोगत्थनिबोहा वा निगमा तेसु कुसलो भवो वाऽयं । अहवा जं नेगगमोऽणेगपहो
गमो तेणं ।। २१८७।। वा इत्यथवा निगमा भण्यन्ते । के ? | लोकार्थनिबोधा: - अर्था जीवादयस्तेषु नितरामनेकप्रकारा बोधा निबोधा लोकस्यार्थनिबोधा लोकार्थनिबोधाः । तेष्वेवंविधेषु निगमेषु भवः कुशलो वाऽयमिति नैगमः । अथवा अन्यथा व्युत्पत्तिः - गम्यतेऽनेनेति गमः पन्था नैके गमाः पन्थानो यस्यासौ नैकगमः, वक्ष्यमाणनीत्या बहुविधाभ्युपगमपरत्वाद् नैकमार्गः, निरुक्तविधिना च ककारलोपाद् नैगम इति ॥ २१८७
जं सामन्नविसेसे परोप्परं वत्थुओ यसो भने | मन्नइ अच्वंतमओ मिच्छद्दिट्ठी कणादो व्व ॥२१९४।। दोहिं वि नएहिं नीयं सत्थमुलूएण तह वि मिच्छत्तं । जं सविसयप्पहाणत्तण अन्नोन्ननिरवेक्खा ॥ २१९५ ॥ यद् यस्मात् सामान्य - विशेषौ नैगमनयः परस्परमत्यन्तभिन्नौ मन्यते, वस्तुनोऽप्याधारभूताद् द्रव्य-गुण-कर्म-परमाणुरूपादत्यन्तभिन्नौ स ताविच्छति ; जैनसाधवस्तु परस्परं स्वाधाराच्च कथञ्चिदेव तौ भिन्नाविच्छन्ति; अतो मिथ्यादृष्टिरेवाऽयम्, कणादवदिति; तथाहिद्वाभ्यामपि द्रव्य-पर्यायास्तिकनयाभ्यां सर्वमपि निजं शास्त्रं नीतं समर्थितमुलूकेन तथापि तद् मिथ्यात्वमेव, यद् यस्मात् स्वस्वविषयप्राधान्याभ्युपगमेनोलूकाभिमतौ द्रव्य - पर्यायास्तिकनयावन्योन्यनिरपेक्षौ, जैनाभ्युपगतौ पुनस्तौ परस्परसापेक्षौ, स्याच्छब्दलाञ्छितत्वादिति ॥ २१९४-२१९५।।
९२
-
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि अथ संग्रहनयं व्याचिख्यासुराह- संगहणं संगिण्हइ संगिझंते व तेण जं भेया । तो संगहो त्ति संगहियपिंडियत्थं वओ जस्स ॥२२०३॥ संग्रहणं सामान्यरूपतया सर्ववस्तूनामाक्रोडनं संग्रहः, अथवा सामान्यरूपतया सर्वं संगृह्णातीति संग्रहः । अथवा, यद् यस्मात् सर्वेऽपि भेदाः सामान्यरूपतया संगृह्यन्तेऽनेनेति संग्रहः । संगृहीतं च तत् पिण्डितं च संगृहीतपिण्डितं तदेवार्थोऽभिधेयं यस्य तत् संगृहीतपिण्डितार्थम्, एवंभूतं वचो वचनं यस्य संग्रहस्येति ॥२२०३॥” - विशेषाव० मलधारि०।
[पृ०६६९] “सदिति भणियम्मि जम्हा सव्वत्थाणुप्पवत्तए बुद्धी । तो सव्वं तम्मत्तं नत्थि तदत्थंतरं किंचि ॥२२०७॥ यस्मात् ‘सत्' इत्येवं भणिते सर्वत्र भुवनत्रयान्तर्गते वस्तुनि बुद्धिरनुप्रवर्तते प्रधावति । न हि तत् किमपि वस्त्वस्ति यत् ‘सत्' इत्युक्ते झगिति बुद्धौ न प्रतिभासते । ततस्तस्मात् सर्वं तन्मात्रमेव सत्तामात्रमेव, न तदर्थान्तरं किञ्चिदस्ति यद् विशेषतया कल्पेतेति ॥२२०७||
कुंभो भावाणन्नो जड़ तो भावो अहन्नहाऽभावो । एवं पडादओ वि हु भावाणन्न त्ति तम्मत्तं ॥२२०८॥ कुम्भो घटः स भावात् सत्तातोऽन्यः, अनन्यो वा ?। यद्यनन्योऽभिन्नः, तर्हि भावः सत्तामात्रमेवासौ। अहन्नह त्ति अथान्यथा, भावाद् भिन्नोऽभ्युपगम्यत इत्यर्थः, तभावोऽसन्नेवासौ, भावादन्यत्वात्, खरविषाणवदिति । एवं पटादयोऽपि प्रत्येकं वाच्याः । ततस्तेऽपि द्वितीयपक्षेऽसत्त्वप्रसङ्गाद् भावादनन्येऽभ्युपगन्तव्याः, इति सर्वमेव घट-पटादिकं वस्तु तन्मात्रं सत्तामात्रमेवेति ॥२२०८॥
ववहरणं ववहरए स तेण व वहीरए व सामन्नं । ववहारपरो व जओ विसेसओ तेण ववहारो ॥२२१२॥ व्यवहरणं व्यवहारः, व्यवहरति स इति वा व्यवहारः, विशेषतोऽवह्रियते निराक्रियते सामान्यं तेनेति व्यवहारः, लोको व्यवहारपरो वा विशेषतो यस्मात् तेन व्यवहार इति। अयं च न यदुक्तसूक्तिकां प्रतिपद्यते ॥२२१२॥
उवलंभव्ववहाराभावाओ निव्विसेसभावाओ । तं नत्थि खपुप्फ पिव संति विसेसा सपच्चक्खं ॥२२१४॥ नास्ति सामान्यम्, उपलम्भव्यवहाराभावात्, उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेरित्यर्थः, तथा निर्विशेषभावात्, विशेषव्यतिरिक्तत्वात्, खपुष्पवत् । विशेषास्तु सन्ति, स्वप्रत्यक्षत्वात्, घटादिवदिति ॥२२१४॥
। भमराइपंचवण्णाई निच्छए जत्थ वा जणवयस्स । अत्थे विणिच्छओ सो विणिच्छयत्थो त्ति सो गज्झो ॥२२२०।। बहुतरउ त्ति य तं चिय गमेइ संते वि सेसए मुयए । संववहारपरतया ववहारो लोगमिच्छंतो ॥२२२१॥ वा अथवा, निश्चये निश्चयनयमते विचिन्त्यमाने भ्रमरादेः पञ्चवर्णद्विगन्ध-पञ्चरसा-ऽष्टस्पर्शत्वे सत्यपि यत्र कृष्णवर्णादावर्थे जनपदस्य निश्चयो भवति स विनिश्चयार्थस्तं व्रजति ‘व्यवहारनयः' इति प्रकृतम् । कोऽर्थः ? सत्स्वपि बहुषु वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शेषु यो यत्र जनपदस्य ग्राह्यः, तमेव व्यवहारनयो गमयति, मन्यते, प्ररूपयति च, सतोऽपि शेषान् वर्णादीन् मुञ्चति । कुतः? स एव बहुतरः स्पष्ट इति कृत्वा । किं कुर्वन् ? लोकव्यवहारमिच्छन्। कया?
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि व्यवहारपरतया व्यवहारप्रधानतयेति । तदेवमभिहितो व्यवहारनयः ॥२२२०-२२२१॥ उज्जं रुजु सुयं नाणमुजुसुयमस्स सोऽयमुजुसुओ। सुत्तयइ वा जमुखं वत्थु तेणुजुसुत्तो त्ति ॥२२२२॥ उजं इति ऋजु, श्रुतम् इति ज्ञानं बोधरूपम्, ततश्च ऋजु अवक्रं श्रुतमस्य सोऽयमृजुश्रुतः । वा अथवा, ऋजु अवकं वस्तु सूत्रयतीति ऋजुसूत्र इति ॥२२२२॥” - विशेषाव० मलधारि०॥
[पृ०६७०] “तम्हा निययं संपइकालीणं लिंग-वयणभिन्नं पि । नामाइभेयविहियं पडिवज्जइ वत्थुमुजुसुओ॥२२२६॥ तस्मादृजुसूत्रनयः प्रतिपादितयुक्तितो वस्तु प्रतिपद्यते । कथंभूतम् ? निजकमात्मीयम्, न परकीयम्, तदपि सांप्रतकालीनं वर्तमानम्, न त्वतीतानागतरूपम् । तच्च निजं वर्तमानं च वस्तु लिङ्ग-वचनभिन्नमपि प्रतिपद्यते । तत्रैकमपि त्रिलिङ्गम्, यथा तटः, तटी, तटमित्यादि । तथैकमप्येकवचन-बहुवचनवाच्यम्, यथा गुरुर्गुरवः, आपो जलम्, दारा: कलत्रमित्यादि। तथा, नामादिभेदविहितमप्यसौ वस्त्वभ्युपगच्छति, नाम- स्थापना-द्रव्य भावरूपांश्चतुरोऽपि निक्षेपानसौ मन्यत इत्यर्थः । तदिह लिंग-वयण इत्यादिनाऽभ्युपगमद्वयोपन्यासेन वक्ष्यमाणशब्दनयेन सहास्याभ्युपगमभेदो दर्शितः । शब्दनयो हि लिङ्गभेदाद् वचनभेदाच्च वस्तुनो भेदमेव प्रतिपत्स्यते, न पुनरेकत्वम्; तथा, नामादिनिक्षेपेऽप्येकमेव भावनिक्षेपं मंस्यते, न तु शेषनिक्षेपत्रयमिति । तदेवमुक्त ऋजुसूत्रनयः ॥२२२६॥
अथ शब्दनयमाह- सवणं सपइ स तेणं व सप्पए वत्थु जं तओ सद्दो। तस्सत्थपरिग्गहओ नओ वि सद्दो त्ति हेउ व्व ॥२२२७॥ शप आक्रोशे [पा०धा० १०००], शपनमाह्वानमिति शब्दः, शपतीति वाऽऽह्वयतीति शब्दः, शप्यते वाऽऽहूयते वस्त्वनेनेति शब्दः । तस्य शब्दस्य यो वाच्योऽर्थस्तत्परिग्रहात् तत्प्रधानत्वाद् नयोऽपि शब्दः, यथा कृतकत्वादित्यादिकः पञ्चम्यन्तः शब्दोऽपि हेतुः । अर्थरूपं हि कृतकत्वमनित्यगमकत्वाद् मुख्यतया हेतुरुच्यते, उपचारतस्तु तद्वाचकः कृतकत्वशब्दोऽपि हेतुरभिधीयते, एवमिहापि शब्दवाच्यार्थपरिग्रहादुपचारेण नयोऽपि शब्दो व्यपदिश्यत इति भावः ॥२२२७||
तं चिय रिउसुत्तमयं पच्चुप्पन्नं विसेसिययरं सो । इच्छइ भावघडं चिय जं न उ नामादए तिन्नि ॥२२२८॥ तदेव ऋजुसूत्रनयस्य मतमभीष्टं प्रत्युत्पन्नं वर्तमानं वस्त्विच्छत्यसौ शब्दनयः । कथंभूतं तदित्याह- विशेषिततरम् । कुत इदं ज्ञायते ? इत्याह- यद् यस्मात् पृथुबुध्नोदराद्याकारकलितं मृन्मयं जलाहरणादिक्रियाक्षमं प्रसिद्धघटरूपं भावघटमेवेच्छत्यसौ, न तु शेषान् नाम-स्थापनाद्रव्यरूपांस्त्रीन् घटानिति । शब्दप्रधानो ह्येष नयः, चेष्टालक्षणश्च घटशब्दस्यार्थः, घट चेष्टायाम् [पा०धा०७६३] ‘घटत इति घटः' इति व्युत्पत्तेः । ततश्च य एव जलाहरणादिक्रियार्थमाचष्टे प्रसिद्धो घटस्तमेव भावरूपं घटमिच्छत्यसौ, शब्दार्थोपपत्तेः, न तु नामादिघटान्, घटशब्दार्थानुपपत्तेः । अतश्चतुरोऽपि नामादिघटानिच्छत ऋजुसूत्राद् विशेषिततरं वस्त्विच्छ त्यसौ, एकस्यैव भावघटस्यानेनाभ्युपगमादिति ॥२२२८॥
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि अथ समभिरूढमाह- जं जं सण्णं भासइ तं तं चिय समभिरोहए जम्हा। सण्णंतरत्थविमुहो तओ तओ समभिरूढो त्ति ॥२२३६॥ यां यां संज्ञां घटादिलक्षणां भाषते वदति तां तामेव यस्मात् संज्ञान्तरार्थविमुखः कुट-कुम्भादिशब्दवाच्यार्थनिरपेक्षः समभिरोहति समध्यास्ते तत्तद्वाच्यार्थविषयत्वेन प्रमाणीकरोति, ततस्तस्माद् नानार्थसमभिरोहणात् समभिरूढो नयः । यो घटशब्दवाच्योऽर्थस्तं कुट-कुम्भादिपर्यायशब्दवाच्यं नेच्छत्यसावित्यर्थ इति ॥२२३६॥
अथैवंभूतमाह- एवं जह सद्दत्थो संतो भूओ तदन्नहाऽभूओ । तेणेवंभूयनओ सद्दत्थपरो विसेसेणं ॥२२५१॥ एवं यथा ‘घट चेष्टायाम्' [पा०धा० ७६३] इत्यादिरूपेण शब्दार्थो व्यवस्थितः, तह ति तथैव यो वर्तते घटादिकोऽर्थः, स एव सन् भूतो विद्यमानः । तदनहाऽभूउ त्ति यस्तु तदन्यथा शब्दार्थोल्लङ्घनेन वर्तते स तत्त्वतो घटाद्यर्थोऽपि न भवति किन्त्वभूतोऽविद्यमानः । येनैवं मन्यते, तेन कारणेन शब्द-समभिरूढनयाभ्यां सकाशादेवंभूतनयो विशेषेण शब्दार्थतत्परः । अयं हि योषिन्मस्तकारूढं जलाहरणादिक्रियानिमित्तं घटमानमेव चेष्टमानमेव घटं मन्यते, न तु गृहकोणादिव्यवस्थितम्, अचेष्टनात्, इत्येवं विशेषतः शब्दार्थतत्परोऽयमिति ॥२२५१॥" - विशेषाव० मलधारि०।
[पृ०६७१ पं०१९] ['जैन विश्वभारती, लाडनूं' (राजस्थान) इत्यतः प्रकाशितात् ठाणं ग्रन्थात् मुनिनथमलजीलिखितात् हिन्दीभाषात्मकात् टिप्पनादुद्धृत्य अत्र टिप्पनमुपन्यस्यते ।]
__ “स्वर का सामान्य अर्थ है-ध्वनि, नाद । संगीत में प्रयुक्त स्वर का कुछ विशेष अर्थ होता है। संगीतरत्नाकर में स्वर की व्याख्या करते हुए लिखा है-जो ध्वनि अपनी-अपनी श्रुतियों के अनुसार मर्यादित अन्तरों पर स्थित हो, जो स्निग्ध हो, जिसमें मर्यादित कम्पन हो और अनायास ही श्रोताओं को आकृष्ट कर लेती हो, उसे स्वर कहते हैं । इसकी चार अवस्थाएं हैं- (१) स्थानभेद (Pitch) (२) रूप भेद या परिणाम भेद (Intensity) (३) जातिभेद (Quality) (४) स्थिति (Duration)
स्वर सात हैं-षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद । इन्हें संक्षेप मेंस, रि, ग, म, प, ध, नी कहा जाता है । अंग्रेजी में क्रमशः Do, Re, Mi, Fa, So, Ka, Si, कहते हैं और इनके सांकेतिक चिन्ह क्रमशः C,D,E,F,G,A,B हैं । सात स्वरों की २२ श्रुतियां [स्वरों के अतिरिक्त छोटी-छोटी सुरीली ध्वनियां) है-षड्ज, मध्यम और पञ्चम की चार-चार, निषाद और गान्धार की दो-दो और ऋषभ और धैवत की तीन-तीन श्रुतियां हैं। ___ अनुयोगद्वार सूत्र [२६८-३०७] में भी पूरा स्वर-मंडल मिलता है। अनुयोगद्वार तथा स्थानांगदोनों में प्रकरण की समानता है । कहीं-कहीं शब्द-भेद है ।
सात स्वरों की व्याख्या इस प्रकार है
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
९६
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
(४) मध्य
(१) षड्ज-नासा, कंठ, छाती, तालु, जिह्वा और दन्त-इन छह स्थानों से उत्पन्न होने वाले
स्वर को षड्ज कहा जाता है । (२) ऋषभ-नाभि से उठा हुआ वायु कंठ और शिर से आहत होकर वृषभ की तरह गर्जन
करता है, उसे ऋषभ कहा जाता है । गान्धार-नाभि से उठा हुआ वायु कण्ठ और शिर से आहत होकर व्यक्त होता है और इसमें एक विशेष प्रकार की गन्ध होती है, इसलिए इसे गान्धार कहा जाता है । मध्यम-नाभि से उठा हुआ वायु वक्ष और हृदय में आहत होकर फिर नाभि में जाता है।
यह काया के मध्य-भाग में उत्पन्न होता है, इसलिए इसे मध्यम स्वर कहा जाता है । (५) पंचम-नाभि से उठा हुआ वायु वक्ष, हृदय, कंठ और सिर से आहत होकर व्यक्त होता
है । यह पांच स्थानों से उत्पन्न होता है, इसलिए इसे पंचम स्वर कहा जाता है । (६) धैवत-यह पूर्वोत्थित स्वरों का अनुसन्धान करता है, इसलिए इसे धैवत कहा जाता है। (७) निषाद-इसमें सब स्वर निषण्ण होते हैं-इससे सब अभिभूत होते हैं, इसलिए इसे निषाद
कहा जाता है । बौद्ध परम्परा में सात स्वरों के नाम ये हैंसहर्घ्य, ऋषभ, गान्धार, धैवत, निषाद, मध्यम तथा कैशिक ।२ कई विद्वान् सहर्ण्य को षड्ज के पर्याय स्वरूप तथा कैशिक को पंचम स्थान पर मानते है ।
११.स्वर स्थान (सू.४०) स्वर के उपकारी-विशेषता प्रदान करने वाले स्थान को स्वर स्थान कहा जाता है । षड्जस्वर का स्थान जिह्वाग्र है। यद्यपि उसकी उत्पत्ति में दूसरे स्थान भी व्याप्त होते हैं और जिह्वाग्र भी दूसरे स्वरों की उत्पत्ति में व्याप्त होता है, फिर भी जिस स्वर की उत्पत्ति में जिस स्थान का व्यापार प्रधान होता है, उसे उसी स्वर का स्थान कहा जाता हैं।
प्रस्तुत सूत्र में सात स्वरों के सात स्वर स्थान बतलाए गए हैं । नारदी शिक्षा में ये स्वर स्थान कुछ भिन्न प्रकार से उल्लिखित हुए हैं
षड्ज कंठ से उत्पन्न होता है, ऋषभ सिर से, गांधार नासिका से, मध्यम उर से, पंचम उर, सिर तथा कंठ से, धैवत ललाट से तथा निषाद शरीर की संधियों से उत्पन्न से होता है ।
इन सात स्वरों के नामों की सार्थकता बताते हुए नारदीशिक्षा में कहा गया है कि- ‘षड्ज'संज्ञा १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७४ । २. लंकावतारसूत्र- अथ रावणो......सहयॆ-ऋषभ-गान्धार-धैवत-निषाद-मध्यमकैशिक-गीतस्वरग्राम-मूर्च्छनादियुक्तेन....... गाथाभिर्गीतैरनुगायति स्म ॥ ३. जरनल ऑफ म्यूजिक एकेडमी, मद्रास, सन १९४५, खंड १६, पृष्ठ ३७ ॥ ४. नारदीशिक्षा १।५।६,७ : कण्ठादुत्तिष्ठते षड्ज:, शिरसस्त्वृषभ: स्मृतः । गान्धारस्त्वनुनासिक्य, उरसो मध्यम: स्वरः ॥ उरस: शिरस: कण्ठादुत्थित: पंचम: स्वर: । ललाटाढैवतं विद्यान्निषादं सर्वसन्धिजम् ।।
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि की सार्थकता इसमें है कि वह नासा, कण्ठ, उर, तालु, जिह्वा तथा दन्त इन छह स्थानों से उद्भूत होता है । 'ऋषभ' की सार्थकता इसमें है कि वह ऋषभ अर्थात् बैल के समान नाद करने वाला है । 'गांधार' नासिका के लिए गन्धावह होने के कारण अन्वर्थक बताया गया है । 'मध्यम' की अन्वर्थकता इसमें है कि वह उरस् जैसे मध्यवर्ती स्थान में आहत होता है । ‘पंचम' संज्ञा इसलिए सार्थक है कि इसका उच्चारण नाभि, उर, हृदय, कण्ठ तथा सिरइन पांच स्थानों में सम्मिलित रूप से होता है ।
१२. (सू.४१) नारदीशिक्षा में प्राणियों की ध्वनि के साथ सप्त स्वरों का उल्लेख नितान्त भिन्न प्रकार से मिलता है'- षड्ज स्वर-मयूर । ऋषभ स्वर-गाय । गांधार स्वर-बकरी । मध्यम स्वर - क्रौंच । पंचम स्वर-कोयल । धैवत स्वर-अश्व । निषाद स्वर-कुंजर ।
१५. नरसिंघा (सू.४२) एक प्रकार का बड़ा बाजा जो तुरही के समान होता है । यह फूंक से बजाया जाता है । जिस स्थान से फूंका जाता है वह संकडा और आगे का भाग क्रमश: चौडा होता चला जाता है ।
१६.ग्राम (सू.४४) यह शब्द समूहवाची है । संवादी स्वरों का वह समूह ग्राम है जिसमें श्रुतियां व्यवस्थित रूप में विद्यमान हों और जो मूर्च्छना, तान, वर्ण, क्रम, अलंकार इत्यादि का आश्रय हो । ग्राम तीन हैं
षड्जग्राम, मध्यमग्राम और गान्धारग्राम ।
षड्जग्राम-इसमें षड्ज स्वर चतुःश्रुति, ऋषभ त्रिश्रुति, गान्धार द्विश्रुति, मध्यम चतुःश्रुति, पञ्चम चतुःश्रुति, धैवत त्रिश्रुति और निषाद द्विश्रुति होता है। इसमें ‘षड्ज-पञ्चम', 'ऋषभधैवत', 'गान्धार-निषाद' और ‘षड्ज-मध्यम'-ये परस्पर संवादी हैं। जिन दो स्वरों में नौ अथवा तेरह श्रुतियों का अन्तर हो, वे परस्पर संवादी हैं। ___ शार्ङ्गदेव कहते हैं- षड्जग्राम नामक राग षड्जमध्यमा जाति से उत्पन्न सम्पूर्ण राग है । इसका ग्रह एवं अंशस्वर तार षड्ज है, न्यासस्वर मध्यम है, अपन्यासस्वर षड्ज है, अवरोही
और प्रसन्नान्त अलंकार इसमें प्रयोज्य हैं। इसकी मूर्च्छना षड्जादि(उत्तरमन्द्रा) है। इसमें काकलीनिषाद एवं अन्तर-गान्धार का प्रयोग होता है; वीर, रौद्र, अद्भुत रसों में नाटक की सन्धि में इसका विनियोग है । इस राग का देवता बृहस्पति है और वर्षाऋतु में, दिन के प्रथम प्रहर में, यह गेय है। यह शुद्ध राग है । १. भारतीय संगीत का इतिहास, पृष्ठ १२१। २. नारदीशिक्षा १।५।४,५: षड्जं मयूरो वदति, गावो रंभन्ति चर्षभम्। अजा वदति तु गान्धारम्, क्रौंचो वदति मध्यमम् ॥ पुष्पसाधारणे काले, पिको वक्ति च पंचमम् । अश्वस्तु धैवतं वक्ति, निषादं कुञ्जरः ॥ ३. मतङ्ग : भरतकोश, पूष्ठ १८६ ॥ ४. भरत : (बम्बई संस्करण) अध्याय २८ पृष्ठ ४३४ ॥ ५. संगीतरत्नाकर (अड्यार संस्करण) राग, पृष्ठ २६-२७ ॥
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
२
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि ___ मध्यमग्राम-इसमें 'ऋषभ-पञ्चम', 'ऋषभ-धैवत', 'गान्धार-निषाद' और 'षड्ज-मध्यम' परस्पर संवादी हैं । शार्ङ्गदेव का विधान है कि- मध्यमग्राम राग का विनियोग हास्य एवं श्रृंगार में है । यह राग गान्धारी, मध्यमा और पञ्चमी जातियों से मिलकर उत्पन्न हुआ है ।
काकली-निषाद का प्रयोग इसमें विहित है। इस राग का अंश-ग्रह-स्वर मन्द्र षड्ज, न्यायस्वर मध्यम और मूर्च्छना ‘सौवीरी' है । प्रसन्नादि और अवरोही के द्धारा मुखसन्धि में इसका विनियोग है । यह राग ग्रीष्म ऋतु के प्रथम प्रहर में गाया जाता है । महर्षि भरत ने सात शुद्ध रागों में इसे गिना है । इसमें षड्जस्वर चतुःश्रुति, ऋषभ त्रिश्रुति, गान्धार द्विश्रुति, मध्यम चतुःश्रुति, पञ्चम त्रिश्रुति, धैवत चतु:श्रुति और निषाद द्विश्रुति होता है ।।
गान्धार ग्राम-महर्षि भरत ने इसकी कोई चर्चा नहीं की है। उन्होंने केवल दो ग्रामों को ही माना है । कुछ आचार्यों ने गान्धार ग्राम और तज्जन्य रागों का वर्णन करके लौकिक विनोद के लिए भी उनके प्रयोग का विधान किया है ।
परन्तु अन्य आचार्यों ने लौकिक विनोद के लिए ग्रामजन्य रागों का प्रयोग निषिद्ध बतलाया है । नारद की सम्मति के अनुसार गान्धारग्राम का प्रयोग स्वर्ग में ही होता है। इसमें षड्ज स्वर त्रिश्रुति, ऋषभ द्विश्रुति, गान्धार चतुःश्रुति, मध्यम-पञ्चम और धैवत त्रि-त्रिश्रुति और निषाद चतुःश्रुति होता है । गान्धार ग्राम का वर्णन केवल संगीतरत्नाकर या उसके आधार पर लिखे गए ग्रन्थों में है। ___ इस ग्राम के स्वर बहुत टेढ़े-मेढ़े हैं अत:गाने में बहुत कठिनाइयां आती हैं। इसी दुरूहता के कारण इसका प्रयोग स्वर्ग में होता है'-ऐसा कह दिया गया है ।
वृत्तिकार के अनुसार ‘मंगी' आदि इक्कीस प्रकार की मूर्च्छनाओं के स्वरों की विशद व्याख्या पूर्वगत के स्वर-प्राभृत में थी । वह अब लुप्त हो चुका है। इस समय इनकी जानकारी उसके आधार पर निर्मित भरतनाट्य, वैशाखिल आदि ग्रन्थों से जाननी चाहिए ।
१७-१९. मूर्च्छना (सू.४५-४७) इसका अर्थ है-सात स्वरों का क्रमपूर्वक आरोह और अवरोह । महर्षि भरत ने इसका अर्थ सात स्वरों का क्रमपूर्वक प्रयोग किया है । मूर्च्छना समस्त रागों की जन्मभूमि है । यह चार प्रकार की होती है ।
१. पूर्णा, २. षाडवा, ३. औडुविता, ४. साधारणा ।६।। अथवा-१. शुद्धा, २. अंतरसंहिता, ३. काकलीसंहिता, ४. अन्तरकाकलीसंहिता । तीन सूत्रों (४५, ४६, ४७) में षड्ज आदि तीन ग्रामों की सात-सात मूर्च्छनाएं उल्लिखित हैं।
१. संगीतरत्नाकर (अड्यार संस्करण) राग, पृष्ठ ५६ ॥ २. प्रो.रामकृष्णकवि, भरतकोश, पृष्ठ ५४२ । ३. प्रो.रामकृष्ण कवि, भरतकोश, पृष्ठ ५४२ ॥ ४. वही, पृष्ठ ५४२॥ ५. संगीतरत्नाकर, स्वर प्रकरण, पृष्ठ १०३, १०४ ।। ६. वही, पृष्ठ ११४ ॥ ७. भरत अध्याय २८, पृष्ठ ४३५ ॥
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
भरतनाट्य, संगीतदामोदर, नारदीशिक्षा आदि ग्रंथों में भी मूर्च्छनाओं का उल्लेख हैं । वे भिन्न-भिन्न प्रकार से हैं । भरतनाट्य में गांधार ग्राम को मान्यता नहीं दी गई है । प्रस्तुत चार्ट से मूर्च्छनाओं के नामों में कितना भेद हैं, यह स्पष्ट हो जाता है ।
मूलसूत्र
भरतनाट्य
संगीतदामोदर
नारदी शिक्षा
मंगी
कौरवीया
हरित्
रजनी. सारकान्ता
सारसी
शुद्धषड्जा
उत्तरमंद्रा
रजनी
उत्तरा
उत्तरायता
अश्वक्रान्ता
सौवीरा
अभद्
नंदी
क्षुद्रिका
पूरका
शुद्धगांध
उत्तरगांधारा
सुष्ठुतर आयामा उत्तरायता कोटिमा
षड्जग्राम की मूर्च्छनाएं
ललिता
उत्तरमंद्रा
रजनी
उत्तरायता
शुद्धषड्जा
मत्सरीकृता
अश्वक्रान्ता
अभिरुद्गता
षण्मध्या
मध्यमग्राम की मूर्च्छनाएं
पंचमा
मत्सरी
सौवीरी
हरिणाश्वा
कलोपनता
-शुद्धमध्या
मार्गी
परवी
कृष्यका
मध्यमा
चित्रा
रोहिणी
मतंगजा
सौवीरी
गान्धार ग्राम का अस्तित्व नहीं माना है ।
मृदुमध्यमा
शुद्धा
अन्द्रा
कलावती
तीव्रा
गन्धारग्राम की मूर्च्छनाएं
सौद्री
ब्राह्मी
वैष्णवी
खेदरी
सुरा
नादावती
विशाला
उत्तरमंद्रा
अभरिद्गता
अश्वक्रान्ता
सौवीरा
हृष्यका
उत्तरायता
रजनी
नंदी
विशाला
मुख
चित्रा
चित्रवती
सुखा
बला
आप्यायनी
विश्वचूला
चन्द्रा
हैमा
कपर्दिनी
मैत्री
बार्हती
१. भरतनाट्य २८।२७-३० : आद्या ह्युत्तरमन्द्रा स्याद्, रजनी चोत्तरायता । चतुर्थी शुद्धषड्जा तु, पंचमी मत्सरीकृता ॥ अश्वक्रान्ता तु षष्ठी स्यात् सप्तमी चाभिरुद्गता । षड्जग्रामाश्रिता एता, विज्ञेयाः सप्त मूर्च्छनाः । सौवीरी हरिणाश्वा च, स्यात् कलोपनता तथा ॥ चतुर्थी शुद्धमध्यमा तु मार्गवी पौरवी तथा ॥ हृष्यका चैव विज्ञेया, सप्तमी द्विजसत्तमाः । मध्यमग्रामजा ह्येता, विज्ञेयाः सप्त मूर्च्छनाः || २. नारदीशिक्षा १।२।१३,१४ ॥
९९
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
नारदीशिक्षा में जो २१ मूर्छनाएं बताई गई हैं उनमें सात का सम्बन्ध देवताओं से, सात का पितरों से और सात का ऋषियों में है। शिक्षाकार के अनुसार मध्यमग्रामीय मूर्च्छनाओं का प्रयोग यक्षों द्वारा, षड्जग्रामीय मूर्च्छनाओं का ऋषियों तथा लौकिक गायकों द्वारा तथा गान्धारग्रामीय मूर्च्छनाओं का प्रयोग गन्धर्यों द्वारा होता है ।
इस आधार पर मूर्च्छनाओं के तीन प्रकार होते हैं-देवमूर्च्छनाएं, पितृमूर्च्छनाएं और ऋषिमूर्च्छनाएं।
२०.गीत (सू.४८) दशांशलक्षणों से लक्षित स्वरसन्निवेश, पद, ताल एवं मार्ग-इन चार अंगों से युक्त गान 'गीत' कहलाता है ।
२१, २२. गीत के छह दोष, गीत के आठ गुण (सूत्र ४८) नारदीशिक्षा में गीत के दोषों और गुणों का सुन्दर विवेचन प्राप्त होता है। उसके अनुसार दोष चौदह और गुण दस हैं । वे इस प्रकार हैं- चौदह दोष- शंकित, भीत, उद्धृष्ट, अव्यक्त, अनुनासिक, काकस्वर, शिरोगत, स्थानवर्जित, विस्वर, विरस, विश्लिष्ट, विषमाहत, व्याकुल तथा तालहीन ।
प्रस्तुत सूत्रगत छह दोषों का समावेश इनमें हो जोता है- भीत-भीत, ताल-वर्जित-तालहीन, द्रुत-विषमाहत, काकस्वर-काकस्वर, ह्रस्व-अव्यक्त, अनुनास-अनुनासिक, दस गुण - रक्त, पूर्ण, अलंकृत, प्रसन्न, व्यक्त, विकृष्ट, श्लक्ष्ण, सम, सुकुमार और मधुर। ___नारदीशिक्षा के अनुसार इन दस गुणों की व्याख्या इस प्रकार है१. रक्त-जिसमें वेणु तथा वीणा के स्वरों का गानस्वर के साथ सम्पूर्ण सामंजस्य हो । २. पूर्ण-जो स्वर और श्रुति से पूरित हो तथा छन्द, पाद और अक्षरों के संयोग से सहित हो। ३. अलंकृत-जिसमें उर, सिर और कण्ठ-तीनों का उचित प्रयोग हो । ४. प्रसन्न-जिसमें गद्गद् आदि कण्ठ दोष न हो तथा जो नि:शंकतायुक्त हो । ५. व्यक्त-जिसमें गीत के पदों का स्पष्ट उच्चारण हो, जिससे कि श्रोता स्वर, लिंग, वृत्ति,
वार्तिक, वचन, विभक्ति आदि अंगों को स्पष्ट समझ सके । ६. विकृष्ट-जिसमें पद उच्चस्वर से गाए जाते हों । ७. श्लक्ष्ण-जिसमें ताल की लय आद्योपान्त समान हो । ८. सम-जिसमें लय की समरसता विद्यमान हो । ९. सुकुमार-जिसमें स्वरों का उच्चारण मृदु हो । १०. मधुर-जिसमें सहजकण्ठ से ललित पद, वर्ण और स्वर का उच्चारण हो ।
प्रस्तुत सूत्र में आठ गुणों का उल्लेख हैं । उपर्युक्त दस गुणों में से सात गुणो के नाम प्रस्तुत सूत्रगत नामों के समान हैं । अविघुष्ट नामक गुण का नारदीशिक्षा में उल्लेख नहीं हैं।
१. नारदीशिक्षा १।२।१३,१४ ॥ २. संगीतरत्नाकर, कल्लीनायकृत टीका, पृष्ठ ३३ ॥ ३. नारदीशिक्षा १।३।१२,१३। ४. वही, १।३।१ ।। ५. नारदीशिक्षा १।३।१-११ ॥
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
१०१
अभयदेवकृत वृत्ति की व्याख्या का उल्लेख हम अनुवाद में दे चुके हैं । यह अन्वेषणीय हैं कि वृत्तिकार ने ये व्याख्याएं कहाँ से ली थीं ।
२३. सम (सूत्र. ४८ ) जहाँ स्वर - ध्वनि को गुरु अथवा लघु न कर आद्योपान्त एक ही ध्वनि में उच्चारित किया जाता हैं, वह 'सम' कहलाता हैं' ।
२४. पदबद्ध (सू.४८) इसे निबद्धपद भी कहा जाता है। पद दो प्रकार का हैं - निबद्ध और अनिबद्ध । अक्षरों की नियत संख्या, छन्द तथा यति के नियमों से नियन्त्रित पदसमूह 'निबद्धपद' कहलाता है।
२५. छन्द ( सूत्र. ४८ ) तीन प्रकार के छन्द की दूसरी व्याख्या इस प्रकार हैसम - जिसमें चारों चरणों के अक्षर समान हों ।
अर्द्धसम-जिसमें पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे चरण के अक्षर समान हों । सर्वविषम - जिसमें सभी चरणों के अक्षर विषम हों ।
२७. तालसम (सू.४८) दाहिने हाथ से ताली बजाना 'काम्या' है । बाएं हाथ से ताली बजाना 'ताल' और दोनों हाथों से ताली बजाना 'संनिपात' है ।"
२८. पादसम (सू. ४८) अनुयोगद्वार में इसके स्थान पर ' पदसम' हैं 14
२९. लयसम (सू.४८) तालक्रिया के अनन्तर ( अगली तालक्रिया से पूर्व तक ) किया जाने वाला विश्राम लय कहलाता है ।
३०. ग्रहसम (सू. ४८) इसे समग्रह भी कहा जाता है । ताल में सम, अतीत और अनागतये तीन ग्रह हैं । गीत, वाद्य और नृत्य के साथ होने वाला ताल का आरम्भ अवपाणि या समग्रह, गीत आदि के पश्चात् होने वाला ताल आरम्भ अवपाणि या अतीतग्रह तथा गीत आदि से पूर्व होने वाला ताल का प्रारम्भ उपरिपाणि या अनागतग्रह कहलाता है । सम, अतीत और अनागत ग्रहों में क्रमशः मध्य, द्रुत और विलंबित लय होता है । ७
३१. तानों (सू. ४८) इसका अर्थ है - स्वर - विस्तार, एक प्रकार की भाषाजनक राग । ग्राम रागों के आलाप-प्रकार भाषा कहलाते हैं ।"
[पृ०६७९ पं०१६] “अलियमुवघायजणयं निरत्थयमवत्थयं छलं दुहिलं । निस्सारमधियमूणं पुणरुत्तं वाहयमजुत्तं ॥ ८८१ ॥ कमभिण्णवयणभिण्णं विभत्तिभिन्नं च लिंगभिन्नं च । १. भरत का नाट्यशास्त्र २९|४७ : सर्वसाम्यात् समो ज्ञेयः, स्थिरस्त्वेकस्वरोऽपि यः ॥ २. भरत का नाट्यशास्त्र ३२।३९ : नियताक्षरसंबंधम्, छन्दोयतिसमन्वितम् । निबद्धं तु पदं ज्ञेयम्, नानाछन्दः समुद्भवम् ॥। ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७६: अन्ये तु व्याचक्षते समं यत्र चतुर्ष्वपि पादेषु समान्यक्षराणि, अर्द्धसमं यत्र प्रथमतृतीययो द्वितीयचतुर्थयोश्च समत्वम्, तथा सर्वत्र - सर्वपादेषु विषमं च विषमाक्षरम् । ४. भरत का संगीत सिद्धान्त, पृष्ठ २३५ ॥ ५. अनुयोगद्वार ३०७/८ ॥ ६. भरत का संगीतसिद्धान्त, पृष्ठ २४२ ॥ ७ संगीतरत्नाकर, ताल, पृष्ठ २६ ।। ८. भरत का संगीतसिद्धान्त, पृष्ठ २२६॥
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
अणभिहियमपयमेव य सभावहीणं ववहियं च ॥८८२॥ कालजतिच्छविदोसा समयविरुद्धं च वयणमित्तं च । अत्थावत्तदोसो य होइ असमासदोसो य ॥ ८८३ || उवमारूवगदोसाऽनिस पदत्थसंधिदोसो य । एए उ सुत्तदोसा बत्तीसं होंति णायव्वा ॥ ८८४।। व्या० तत्र अनृतम् अभूतोद्भावनं भूतनिह्नवश्च, अभूतोद्भावनं 'प्रधानं कारणम्' इत्यादि, भूतनिह्नवः 'नास्त्यात्मे' त्यादि १, उपघातजनकं सत्त्वोपघातजनकम्, यथा 'वेदविहिता हिंसा धर्माय' इत्यादि २, वर्णक्रमनिर्देशवत् निरर्थकमारादेसादिवत्, आर् आत् एस् इत्येते आदेशाः, एतेषु वर्णानां क्रमनिदर्शनमात्रं विद्यते, न पुनरभिधेयतया कश्चिदर्थः प्रतीयते, इत्येवंभूतं निरर्थकमभिधीयते, डित्थादिवद्वा ३, पौर्वापर्यायोगादप्रतिसम्बन्धार्थमपार्थकम्, तथा 'दश दाडिमानि षडपूपाः कुण्डमजाजिनं पललपिण्डः त्वर कीटके ! दिशमुदीचीम्, स्पर्शनकस्य पिता प्रतिसीन' इत्यादि ४, वचनविघातोऽर्थविकल्पोपपत्त्या छलं वाक्छलादि, यथा नवकम्बलो देवदत्त इत्यादि ५, द्रोहस्वभावं हिलम्, यथा 'यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, हत्वा सर्वमिदं जगत् । आकाशमिव पङ्केन, नासौ पापेन युज्यते ॥ १॥ [ ] कलुषं वा द्रुहिलम्, येन पुण्यपापयोः समताऽऽपाद्यते, यथा 'एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः' [ ] इत्यादि ६, निःसारं परिफल्गु वेदवचनवत् ७, वर्णादिभिरभ्यधिकम् अधिकम् ८,
तैरेव हीनम् ऊनम् ९, अथवा हेतूदाहरणाधिकमधिकम्, यथाऽनित्यः शब्दः
कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वाभ्यां घटपटवदित्यादि, एताभ्यामेव हीनम् ऊनं यथा - अनित्यः शब्दो घटवत्, अनित्यः शब्द कृतकत्वादित्यादि ८- ९, शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तम् अन्यत्रानुवादात्, अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनम् । तत्र शब्दपुनरुक्तम् - इन्द्र इन्द्र इति, अर्थपुनरुक्तम् इन्द्रः शक्र इति, अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनम्, यथा- पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते बलवान् पद्विन्द्रियश्च, अर्थादापन्नं रात्रौ भुङ्क्त इति, तत्र यो ब्रूयात्- दिवा न भुङ्क्ते रात्रौ भुङ्क्त इति स पुनरुक्तमाह १०, व्याहतं यत्र पूर्वेण परं विहन्यते, यथा- 'कर्म चास्ति फलं चास्ति, कर्ता नास्ति च कर्मणाम्' [ ] इत्यादि ११, अयुक्तम् अनुपपत्तिक्षमम्, यथा- तेषां कटतटभ्रष्टैर्गजानां मदबिन्दुभिः । प्रावर्तत नदी घोरा हस्त्यश्वरथवाहिनी || १ || [ ] इत्यादि, १२ क्रमभिन्नं यत्र यथासङ्ख्यमनुदेशो न क्रियते, यथा स्पर्शन - रसन-प्राण- चक्षुः - श्रोत्राणामर्थाः स्पर्श-रस- गन्ध-वर्ण-शब्दा इति वक्तव्ये स्पर्श-रूप-शब्द-गन्ध-रसा इति ब्रूयात् इत्यादि १३, वचनभिन्नं वचनव्यत्ययः, यथा वृक्षावेतौ पुष्पिताः इत्यादि १४, विभक्तिभिन्नं विभक्तिव्यत्ययः, यथैष वृक्ष इति वक्तव्ये एष वृक्षमित्याह १५, लिङ्गभिन्नं लिङ्गव्यत्ययः, यथेयं स्त्रीति वक्तव्येऽयं स्त्रीत्याह १६, अनभिहितम् अनुपदिष्टं स्वसिद्धान्ते, यथा सप्तमः पदार्थो दशमं द्रव्यं वा वैशेषिकस्य, प्रधानपुरुषाभ्यामभ्यधिकं साङ्ख्यस्य, चतुःसत्यातिरिक्तं शाक्यस्येत्यादि १७, अपदं पद्यविधौ पद्ये विधातव्येऽन्यच्छन्दोऽभिधानम्, यथाऽऽर्याप वैतालीयपदाभिधानम् १८, स्वभावहीनं यद्वस्तुनः स्वभवितोऽन्यथावचनम्, शीतोऽग्निर्मूर्तिमदाकाशमित्यादि १९, व्यवहितम् अन्तर्हितम्, यत्र प्रकृतमुत्सृज्याप्रकृतं व्यासतोऽभिधाय
यथा
१०२
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०३
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि पुनः प्रकृतमभिधीयते, यथा हेतुकथनमधिकृत्य सुप्तिङन्तपदलक्षणप्रपञ्चमर्थशास्त्रं वाऽभिधाय पुनर्हेतुवचनमित्यादि २०, कालदोष: अतीतादिकालव्यत्ययः, यथा रामो वनं प्राविशदिति वक्तव्ये विशतीत्याह २१, यतिदोषः अस्थानविच्छेदः तदकरणं वा २२, छवि: अलङ्कारविशेषस्तेन शून्यमिति २३, समयविरुद्धं च स्वसिद्धान्तविरुद्धं यथा साङ्ख्यस्यासत् कारणे कार्यम्, सद् वैशेषिकस्येत्यादि २४, वचनमानं निर्हेतुकं यथेष्टभूदेशे लोकमध्याभिधानवत् २५, अर्थापत्तिदोषः यत्रार्थादनिष्टापत्तिः, यथा 'ब्राह्मणो न हन्तव्यः' इति अर्थादब्राह्मणघातापत्तिः २६, असमासदोष: समासव्यत्ययः यत्र वा समासविधौ सत्यसमासवचनम्, यथा राजपुरुषोऽयमित्यत्र तत्पुरुष समासे कर्त्तव्ये विशेषणसमासकरणं बहुव्रीहिसमासकरणम्, यदिवा असमासकरणं राज्ञः पुरुषोऽयमित्यादि २७, उपमादोष: हीनाधिकोपमानाभिधानं यथा मेरुः सर्षपोपमः सर्षपो मेरुसमो बिन्दुः समुद्रोपम इत्यादि २८, रूपकदोष: स्वरूपावयवव्यत्ययः, यथा पर्वतरूंपावयवानां पर्वतेनानभिधानम्, समुद्रावयवानां चाभिधानमित्यादि २९, अनिर्देशदोषः यत्रोद्देश्यपदानामेकवाक्यभावो न क्रियते, यथेह देवदत्तः स्थाल्यामोदनं पचतीति वक्तव्ये पचतिशब्दानभिधानम्, ३०, पदार्थदोष: यत्र वस्तुपर्यायवाचिनः पदस्यार्थान्तरपरिकल्पनाऽऽश्रीयते, यथेह द्रव्यपर्यायवाचिनां सत्तादीनां द्रव्यादर्थान्तरपरिकल्पनमुलूकस्य ३१, सन्धिदोष: विश्लिष्टसंहितत्वं व्यत्ययो वेति ३२ । एभिर्विमुक्तं द्वात्रिंशद्दोषरहितं लक्षणयुक्तं सूत्रं तदिति वाक्यशेषः, द्वात्रिंशद्दोषरहितं यच्च इति वचनात्तच्छब्दनिर्देशो गम्यते ।" - आव० हारि० ।
[पृ०६८४] “पढमबीयाण पढमा तइयचउत्थाण अभिनवा बीया । पंचमछट्ठस्स य सत्तमस्स तइया अभिनवा उ ॥१६८॥ गमनिका- प्रथमद्वितीययोः कुलकरयोः प्रथमा दण्डनीतिः हक्काराख्या, तृतीयचतुर्थयोरभिनवा द्वितीया, एतदुक्तं भवति- स्वल्पापराधिनः प्रथमया दण्डः क्रियते, महदपराधिनो द्वितीययेत्यतोऽभिनवा सेति, सा च मकाराख्या, तथा पञ्चमषष्ठयोः सप्तमस्य तृतीयैव अभिनवा धिक्काराख्या, एताश्च तिम्रो लघुमध्यमोत्कृष्टापराधगोचराः खल्ववसेया इति गाथार्थः ॥१६८।।
इयं मूलनियुक्तिगाथा, एनामेव भाष्यकृद् व्याख्यानयन्नाह- परिभासणा उ पढमा मंडलिबंधम्मि होइ बीया उ । चारग-छविछेआई भरहस्स चउव्विहा नीई ॥३॥ गमनिका- यदुक्तं ‘शेषा तु दण्डनीतिर्माणवकनिधेर्भवति भरतस्य' सेयम्- परिभाषणा तु प्रथमा, मण्डलीबन्धश्च भवति द्वितीया तु, चारकः छविच्छेदश्च भरतस्य चतुर्विधा नीतिः, तत्र परिभाषणं परिभाषा कोपाविष्करणेन मा यास्यसीत्यपराधिनोऽभिधानम्, तथा मण्डलीबन्धः नास्मात्प्रदेशाद् गन्तव्यम्, चारको बन्धनगृहम्, छविच्छेदः हस्तपादनासिकादिच्छेद इति, इयं भरतस्य चतुर्विधा दण्डनीतिरिति । अन्ये त्वेवं प्रतिपादयन्ति- किल परिभाषणामण्डलिबन्धौ ऋषभनाथेनैवोत्पादिताविति, चारकच्छविच्छेदौ तु माणवकनिधेरुत्पन्नौ इति, भरतस्य चक्रवर्त्तिन एवं चतुर्विधा नीतिरिति गाथार्थः ॥३॥” - आव० हारि० ।
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि “सम्प्रति प्रसङ्गतश्चक्रादीनां रत्नानां प्रमाणमाह- चक्कं छत्तं दंडं, तिन्नि वि एयाई वाममित्ताई। चम्मं दुहत्थदीहं, बत्तीसं अंगुलाई असि ॥३०१॥ व्या० चक्रं छत्रं दण्डमित्येतानि त्रीण्यपि रत्नानि ‘वाम मात्राणि, 'वाम' नाम प्रसारितोभयबाहोः पुरुषस्योभयकरामुल्यपान्तरालम्। चर्मरत्नं द्विहस्तदैर्घ्यम्, द्वात्रिंशदङ्गुलान्यसिः खड्गरत्नम् ॥३०१॥
चउरंगुलो मणी पुण, तस्सद्धं चेव होइ वित्थिण्णो। चउरंगुलप्पमाणा, सुवण्णवरकागिणी नेया ॥३०२॥ व्या० दैर्घ्यमधिकृत्य मणिः पुनश्चतुरङ्गुलप्रमाणः, तस्यार्धं दीर्घस्या) द्वे अङ्गुले इत्यर्थः, विस्तीर्णो विस्तृतः । तथा चतुरङ्गुलप्रमाणा सुवर्णवरकाकिनी जात्यसुवर्णमयी काकिनी, काकिनी नाम रत्नं ज्ञेया । इहाङ्गुलं प्रमाणाङ्गुलमवगन्तव्यम् । सर्वचक्रवर्तिनामपि काकिन्यादिरत्नानां तुल्यप्रमाणत्वात् ॥३०२॥" - बृहत्संग्रहणी० मलय० ।
[पृ०६८६] “अथ प्रेरकः आह- कम्मोवक्कामिज्जइ अपत्तकालं पि जड़ तओ पत्ता । अकयागम-कयनासा मोक्खाणासासया दोसा ॥२०४७।। ननु यद्यप्राप्तकालमपि बहुकालवेद्यं कर्मेत्थमुपक्रम्यते- इदानीमपि क्षिप्रमेव वेद्यते, ततस्तकृतागम-कृतनाशौ, मोक्षानाश्वासता चेत्येते दोषाः प्राप्ताः तथाहि- यदिदानीमेवोपक्रमात् कृताल्पस्थित्यादिरूपं कर्म वेद्यते तत् पूर्वमकृतमेवागतम्, इत्याकृताभ्यागमः । यत् तु पूर्वं दीर्घस्थित्यादिरूपतया कृतं बद्धं तस्यापर्वतनाकरणोपक्रमेण नाशितत्वात् कृतनाशः । ततो मोक्षेऽप्येवमनाश्वासः, सिद्धानामप्येवमकृतकर्माभ्यागमेन प्रतिपातप्रसङ्गादिति ॥२०४७।।
__ अत्रोत्तरमाह- न हि दीहकालियस्स विनासो तस्साणुभूइओ खिप्पं । बहुकालाहारस्स व दुयमग्गियरोगिणो भोगो ॥२०४८॥ न कृतनाशादयो दोषाः' इति प्रकरणाद् गम्यते । कुतः? इत्याह- न यस्मात् तस्यायुष्कादेः कर्मणो दीर्घकालिकस्यापि दीर्घस्थित्यादिरूपतया बद्धस्याप्युपक्रमेण नाशः क्रियते । कुतः ? इत्याह- क्षिप्रं शीघ्रमेव सर्वस्यापि तस्याध्यवसायवशादनुभूतेर्वेदनात् । यदि हि तद् बहुकालवेद्यं कर्मावेदितमेव नश्येत्, यच्चाल्पस्थित्यादिविशिष्टं वेद्यते तत् ततोऽन्यदेव भवेत्, तदा कृतनाशा-ऽकृताभ्यागमौ भवेताम्; यदा तु तदेव दीर्घकालवेद्यमध्यवसायविशेषादुपक्रम्य स्वल्पेनैव कालेन वेद्यते तदा कथं कृतनाशादिदोषः। यथा हि बहुकालभोगयोग्यस्याहारस्य धान्यमूढकदशकादेरग्निरोगिणो भस्मकवातव्याधिमतो द्रुतं स्वल्पकालेनैव भोगो भवति, न च तत्र कृतनाशः, नाप्यकृताभ्यागम इति; एवमिहापि भावनीयमिति। अत्राह- ननु यद् बद्धं तद्यदि स्वल्पकालेन सर्वमपि वेद्यते, तर्हि प्रसन्नचन्द्रादिभिः सप्तमनरकपृथ्वीयोग्यमसातवेदनीयादिकं कर्म बद्धं श्रूयते, तद्यदि सर्वमपि तैर्वेदितम्, तर्हि सप्तमनरकपृथ्वीसम्भविदुःखोदयप्रसङ्गः, अथ न सर्वमपि वेदितम्, तर्हि कथं न कृतनाशादिदोषः ?। सत्यमुक्तम्, किन्तु प्रदेशापेक्षयैव तस्य सर्वस्यापि शीघ्रमनुभवनमुच्यते, अनुभागवेदनं तु न भवत्यपीति ॥२०४८॥
एतदेवाह- सव्वं च पएसतया भुजइ कम्ममणुभावओ भइयं । तेणावस्साणुभवे के कयनासादओ तस्स ? ॥२०४९॥ सर्वमष्टप्रकारमपि कर्म सोत्तरभेदं प्रदेशतया प्रदेशानुभवद्वारेण
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०५
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि भुज्यते वेद्यत एव, इत्येष तावद् नियमः; अनुभागतस्तु- स्वानुभवमाश्रित्येत्यर्थः, भजनीयं विकल्पनीयम्अनुभागः कोऽपि वेद्यते, कोऽपि पुनरध्यवसायविशेषेण हतत्वाद् न वेद्यत इत्यर्थः । तदुक्तमागमेतत्थ णं जं तं अणुभागकम्मं तं अत्थेगइयं वेएइ, अत्थेगइयं नो वेएइ; तत्थ णं जं तं पएसकम्मं तं नियमा वेएइ [ ] इति । अतः प्रसन्नचन्द्रादिभिस्तस्य नरकयोग्यकर्मणः प्रदेशा एव नीरसा इह वेदिताः, न त्वनुभागः, तस्य शुभाध्यवसायेन हतत्वात् । अत एव न तेषां नरकसम्भविदुःखोदयः, कर्मणां विपाकानुभव एव सुख-दुःखयोर्वेदनात् । येनैवम्, तेन बद्धस्य कर्मणः सर्वेषामपि प्रदेशानामवश्यं वेदनात् के किल तस्य कर्मोपक्रमकर्तुः कृतनाशादयो दोषाः ? न केचिदित्यर्थः । ___ आह- नन्वेवमप्यनुभागो यथा बद्धस्तथैव प्रसन्नचन्द्रादिभिर्न वेदित इति कथं न कृतनाशः ?। अस्त्वेवं कृतनाशः, न नः काचिद् बाधा, यदि ह्यध्यवसायविशेषेणोपहतत्वाद् नश्यति रसः, तदा किमनिष्टम् ?। सर्वस्यापि ह्यष्टप्रकारकर्मणो मूलोच्छेदाय यतन्त एव साधव इत्यभीष्ट एवेत्थं तेषां कृतनाशः । यदा बहुरसं बहुस्थितिकं च सत् कर्माल्परसमल्पस्थितिकं च कृत्वा वेदयति, तदा तस्याल्परसस्याल्पस्थितिकस्य च कर्मणः पूर्वमकृतस्यागमः, ततश्च मोक्षेऽप्यनाश्वासः, सिद्धानामप्यकृतकर्मानुगमेन पुनरावृत्तिप्रसङ्गात्, इति चेत् । तदयुक्तम्, यदि ह्यल्परसत्वमल्पस्थितिकत्वं च कर्मणोऽत्र निर्हेतुकं स्यात् तदा स्यादेवम्, तच्च नास्ति, अल्परसत्वस्याध्यवसायविशेषकृतत्वेनाकृताभ्यागमत्वायोगात्, अल्पस्थितिकत्वमप्यायुष्कादीनां न निर्हेतुकमेव जायते, अध्यवसाननिमित्तादिहेतूनां दर्शितत्वात्, अतस्तस्यापि कथमकृतागमत्वम् ?। अत एव न सिद्धानां कर्मसमागमः, तदागमहेतूनां तेष्वभावात्, इत्यलं प्रसङ्गेन, भाष्यकारेणाप्यस्यार्थस्य प्रपञ्चयिष्यमाणत्वादिति ॥२०४९।।
अथ कर्मण: सोपक्रमत्वसिद्धावुपपत्त्यन्तराण्याह- किंचिदकाले वि फलं पाइजइ पच्चए य कालेणं । तह कम्मं पाइजइ कालेण विपच्चए वण्णं ॥२०५८॥ भिण्णो जहेह कालो तुल्ले वि पहम्मि गइविसेसाओ । सत्थे व गहणकालो मइ-मेहाभेयओ भिन्नो ॥२०५९॥ तह तुल्लम्मि वि कम्मे परिणामाइकिरियाविसेसाओ । भिण्णोऽणुभवणकालो जेट्ठो मज्झो जहन्नो य ॥२०६०॥ जह वा दीहा रजू डज्झइ कालेण पुंजिया खिप्पं । वियओ पडो व सुस्सइ पिंडीभूओ य कालेणं ॥२०६१॥ अथवा, यथा किञ्चिदाम्र-राजादनादिफलं यावता कालेन वृक्षस्थं क्रमेण पच्यते तदपेक्षयाऽर्वाक्कालेऽपि गर्ताप्रक्षेप-पलालस्थगनाद्युपायेन पाच्यते, अन्यत्तु वृक्षस्थमेवोपायाभावतः क्रमशः स्वपाककालेन पच्यते, तथा कर्माप्यायुष्कादिकं किमप्यध्यवसानादिहेतुभिर्बन्धकालनिर्वर्तितवर्षशतादिरूपस्थितिकालापेक्षयाऽकालेनाप्यन्तर्मुहूर्तादिना पाच्यते वेद्यते, अनुभूय पर्यन्तं नीयत इति तात्पर्यम्, अन्यत्तु बन्धकालनिर्वर्तितवर्षशतादिलक्षणस्थितिकालेनैव संपूर्णेन विपच्यते अनुभूयत इति । अथवा, यथेह तुल्येऽपि त्रियोजनादिके पथि त्रयाणां पुरुषाणां गच्छतां प्रहरैक-द्वि-त्र्यादिलक्षणो गतिविशेषाद् भिन्नो गतिकालो दृश्यते, एवं कर्मणस्तुल्यस्थितिकस्यापि तीव्र-मन्द-मध्यमाध्यवसायविशेषाज्जघन्य-मध्यमो-त्कृष्टलक्षणस्त्रिविधोऽ
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि नुभवकालो भवति । यदिवा, यथा तुल्येऽपि शास्त्रेऽध्येतृणां मतिर्ग्रहणबुद्धिः, मेधा पुनरिहावधारणास्वरूपा गृह्यते, तद्भेदात् त्रिविधो ग्रहणस्य पठनस्य कालो भिन्नोऽनेकरूपो विलोक्यते, एवमायुषोऽपि परिणामविशेषात् तुल्यस्थितिकस्याप्यनेकरूपोऽनुभवनकाल इति ।
पथि-शास्त्रदृष्टान्तयोः प्रकृतयोजनामाह- तह तुल्लम्मि वीत्यादि गतार्थेव, नवरं परिणामाइकिरियाविसेसाउ त्ति परिणामोऽध्यवसानम्, आदिशब्दाद् बाह्या दण्ड-कशा-शस्त्रादयो गृह्यन्ते, क्रिया चारित्रलक्षणा, परिणामादयश्च क्रिया च परिणामादिक्रियास्तद्विशेषात् तद्भेदाद् बहुभिस्तुल्यस्थितिके बद्धेऽपि कर्मणि भिन्न एवानुभवनकाल इति । यथा दीर्घा प्रसारिता रज्जुरेकस्मात् पक्षात् क्रमेण ज्वलन्ती प्रभूतेनैव कालेन दह्यते, पुञ्जीकृता तु पिण्डीकृता तु ज्वलन्ती क्षिप्रं शीघ्रमेव भस्मीभवति, एवं कर्माप्यायुष्कादिकं दीर्घकालस्थितिकं प्रतिसमयं क्रमेण वेद्यमानं चिरकालेन वेद्यते, अपवर्त्य पुनर्वेद्यमानमल्पेनैव कालेन वेद्यत इति । यथा वा जलार्द्रः पिण्डीभूतः पटश्चिरकालेन शुष्यति, विततः प्रसारितः पुनरल्पेनैव कालेन शुष्यति, एवं कर्मापि, इत्युपनयस्तथैव ॥२०५८-२०६१॥" - विशेषाव० मलधारि०॥
[पृ० ६८७ पं०१७] “एगो भगवं वीरो पासो मल्ली अ तिहि तिहि सएहिं । भयवं च वासुपुजो छहि पुरिससएहि निक्खंतो ॥२२४॥ व्या० एको भगवान् वीरः चरमतीर्थकरः प्रव्रजितः, तथा पार्यो मल्लिश्च त्रिभिस्त्रिभिः सह, तथा भगवांश्च वासुपूज्यः षड्भिः पुरुषशतैः सह निष्क्रान्तः प्रव्रजितः ॥२२४॥” - आव० हारि० ।
पृ० ६९०] “किं थ तयं पम्हुटुं जं थ तया भो जयंतपवरम्मि । वुत्था समयनिबद्धं देवा ! तं संभरह जातिं ॥१८॥ टीका- किं थ तयं गाहा किमिति प्रश्ने, थ इति वाक्यालङ्कारे, तकत् तत् पम्हुटुं ति विस्मृतं जं ति यत् थ इति वाक्यालङ्कारे तदा तस्मिन् काले भो इत्यामन्त्रणे जयंतप्रवरे जयन्ताभिधाने प्रवरेऽनुत्तरविमाने वुत्थ त्ति उषिता निवासं कृतवन्तः समयनिबद्धं मनसा निबद्धसङ्केतं यथा प्रतिबोधनीया वयं परस्परेणेति, समयनिबद्धां वा सहितैर्या उपात्ता जातिस्तां देवा: अनुत्तरसुराः सन्तः, तं ति त एव तां वा देवसम्बन्धिनी स्मरत जाति जन्म यूयमिति ॥१८॥" - इति ज्ञाता० अभयदेव० टीका० ।
[पृ०६९३] “आयरियगिलाणाण मइला मइला पुणो वि धोवंति । मा हु गुरूण अवन्नो लोगम्मि अजीरणं इयरे ॥५६८॥ वृ० सुगमा ॥ नवरम् अजीरणं इयरे त्ति इतरेषां ग्लानानां चीवराणि प्रक्षालनीयानि, यदि न प्रक्षाल्यन्ते ततोऽजीर्णं भवति ॥५६८।।
इदानीं भाष्यकृद् व्याख्यानयति, तत्र द्रव्ये उत्कृष्टतां प्रदर्शयन्नाह- कलमोतणो उ पयसा उक्कोसो हाणि कोद्दवुब्भज्जी । तत्थ वि मिउ तुप्पतरयं जत्थ व जं अच्चियं दोसु ॥९४६।। वृ० कलमशाल्योदनः पयसा सह द्रव्यमुत्कृष्टं ग्राह्यम्, तदलाभे हान्या तावत् गृह्यते यावत् कोद्दवोभज्झी कोद्दवजाउलयम्, तत्राप्ययं विशेषः क्रियते यदुत तदेव जाउलयं मृदु गृह्यते, तथा
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१०७ तुप्पतरयं ति स्निग्धतरं तदेव जाउलयं गृह्यते, उक्तं द्रव्योत्कृष्टम्, इदानी क्षेत्रकालोत्कृष्टप्रतिपादनायाहजत्थ व जं अच्चियं दोसु द्वयोरिति क्षेत्रकालयोर्यद्वस्तु यत्र पूजितं तत्तत्र गृह्यते, एतदुक्तं भवतियद्यत्र क्षेत्रे बहुमतं द्रव्यं तत्तस्मिन् क्षेत्रे उत्कृष्टमुच्यते, तच्च ग्राह्यम्, तथा यद्वस्तु यस्मिन् काले बहुमतं तत्तस्मिन् काले उत्कृष्टमुच्यते, भावोत्कृष्टं पुनर्नियुक्तिकारेणैव व्याख्यातम् ॥९४६।।
सुत्तत्थथिरीकरणं विणओ गुरुपूय सेहबहुमायो । दानवतिसद्धवुड्डी बुद्धिबलवद्धणं चेव ॥९४३॥ वृ० आचार्यस्य प्रायोग्यग्रहणे क्रियमाणे सूत्रार्थयोः स्थिरीकरणं कृतं भवति, यतो मनोज्ञाहारेण सूत्रार्थों सुखेनैव चिन्तयति, अत आचार्यस्य प्रायोग्यग्रहणं कर्त्तव्यम्, तथा विनयश्चानेन प्रकारेण प्रदर्शितो भवति, गुरुपूजा च कृता भवति, सेहस्य चाचार्यं प्रति बहुमानः प्रदर्शितो भवति, अन्यथा सेह इदं चिन्तयति, यदुत न कश्चिदत्र गुरुर्नापि लघुरिति, अतो विपरिणामो भवति, तथा प्रायोग्यदानपतेश्च श्रद्धावृद्धिः कृता भवति, तथा बुद्धेर्बलस्य चाचार्यसत्कस्य वर्धनं भवति । तत्र च महती निर्जरा भवति ॥९४३॥" - ओघनि० द्रोणा० ॥
[पृ०६९४ पं०१०] “आरंभो उद्दवओ, परितावकारो भवे समारंभो । संरंभो संकप्पो, सुद्धनयाणं तु सव्वेसिं ॥ व्या० संयमः पृथिव्यादिविषयेभ्यः संघट्ट-परितापो-पद्रवणेभ्य उपरमः, असंयमस्तु अनुपरमः । आरम्भादयोऽसंयमभेदाः । तल्लक्षणमिदं प्रागभिहतम्- आरम्भ उपद्रव: जीवानां य उपद्रवः स आरम्भः, परितापकरः समारम्भः जीवानां परितापो यः स समारम्भः, संरम्भः संकल्पः, जीवानां संकल्पः संरम्भ उच्यते शुद्धनयानां सर्वेषां मतेनेति ॥" - इति गाथाविवरणे ॥
(पृ०७०० पं०३] “अथ ज्ञानविनयं वक्ति- भत्ती तह बहुमाणो तद्दिद्रुत्थाण सम्मभावणया। विधिगहणब्भासो वि अ एसो विणओ जिणाभिहिओ ॥ व्या० विनीयतेऽष्टप्रकारं कर्मानेनेति विनयः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- ज्ञानमाभिनिबोधिकादि पञ्चधा, तदेव विनयः, ज्ञानस्य वा विनयो भक्त्यादिकरणं ज्ञानविनयः, तदेवाह- भक्तिर्ज्ञानस्य १, तथा बहुमान आदराधिक्यता २, तद्दृष्टार्थानां ज्ञानदृष्टार्थानां सम्यग् भावना ३, विधिग्रहणं विधिना शिक्षणम् ४, अभ्यासः वारंवारमभ्यसनम् ५ एषोऽयं विनयः पञ्चधा जिनाभिहितो जिनैरुक्त इति ।
पूर्वं पञ्चधा ज्ञानविनय उक्तः, अथ दर्शनविनयं द्विधा दर्शयति- सुस्सूसणा अणासायणा य विणओ अ दंसणे दुविहो । दसणगुणाहिएK कज्जइ सुस्सूसणाविणओ ॥ दर्शनं सम्यक्त्वम्, तदेव विनयो दर्शनस्य वा, तदव्यतिरेकाद् दर्शनगुणाधिकानां शुश्रूषणा-ऽनाशातनारूपो विनयः दर्शनविषयः । तदेवाह- शुश्रूषा, दंसणे दर्शनविषये द्विविधो विनयः, अपरोऽनाशातनाविषयः । तत्र शुश्रूषणाविषयो दर्शनगुणाधिकेषु सम्यक्त्वधारिषु प्राणिषु क्रियते । स च दशधा___ सक्कार१ब्भुट्ठाणंरसम्माणा३सणअभिग्गहो४ तहय । आसणमणुप्पयाणं५ कीकम्मं ६ अंजलिगहो य ७ ॥ इंतस्सऽणुगच्छणया ८ ठिअस्स तह पजुवासणा भणिया ९ । गच्छंताणुव्वयणं १० एसो सुस्सूसणाविणओ ॥ एष दशधा शुश्रूषणाविनय इति द्वितीयगाथान्ते
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि योगः । इह च सत्कारः स्तवनवन्दनादिः १, अभ्युत्थानं विनयाहस्य दर्शनादेवाऽऽसनत्यजनम् २, सन्मानता वस्त्र-पात्रादिभिः पूजनम् ३, आसनाभिग्रहः पुनस्तिष्ठतः आदरेण आसनानयनपूर्वकम् 'उपविशतात्र' इति भणनम् ४, आसनानुप्रदानं तु आसनस्य स्थानात्स्थानान्तरसञ्चारणं ५, कृतिकर्म द्वादशावर्तवन्दनकदानम् ६, अञ्जलिप्रग्रहः दर्शनाधिकदर्शने हस्ताञ्जलियोजनमिति ७ ॥
इन्तस्याऽऽगच्छतोऽनुगमनं सन्मुखगमनं कर्त्तव्यमिति शेषः ८, स्थितस्य दर्शनाधिकस्य पर्युपासना विशेषेण सेवा ९ गच्छतः सम्यक्त्व धारिणोऽनुव्रजनं पश्चाद्गमनमित्यर्थः क्रियाकरणरूपोऽयं दर्शने शुश्रूषाविनयः उचितः ॥ __ अनाशातनाविनयस्तु अनुचितक्रियानिवृत्तिरूपः पश्चदशविधः, तत्र गाथाद्वयम्- तित्थगर १ धम्म २ आयरिय ३ वायगे ४ थेर ५ कुल ६ गणे ७ संघे ८ । संभोगिय ९ किरियाए १०, मणनाणाईण १५ य तहेव ॥ [ ] व्या० तीर्थकर १ धर्माचार्य ३ वाचक ४ स्थविर ५ कुल ६ गण७ सङ्घाः ८ प्रसिद्धाः, साम्भोगिका एकसामाचारिका: ९, क्रिया आस्तिकता १०, ज्ञानानि मतिज्ञानादीनि पञ्च, एवं पञ्चदश स्थानानि तीर्थकराणामनाशातनायां तीर्थकरप्रणीतधर्मस्यानाशातनायां वर्तितव्यमिति, एवं सर्वत्र द्रष्टव्यमिति ॥
तेषां किं कर्त्तव्यमित्याह- कायव्वा पुण भत्ती, बहुमाणो तह य वण्णवाओ अ । अरिहंतमाइआणं, केवलनाणावसाणाणं ॥ [ ] व्या० कर्त्तव्या पुनर्भक्तिः, बहुमानो देयः, तथा वर्णवादः यशोऽभिधानम्, केषामित्याह- अरिहंतमाइआणं ति अर्हन् आदिर्येषां तेषाम्, कथम्भूतानाम् ? केवलज्ञानावसानानाम्, अर्हद्धर्माचार्यवाचकस्थविर कुल-गण-सङ्घ-मतिज्ञान[श्रुत]ज्ञाना-ऽवधिज्ञान-मनःपर्याय[ज्ञान]-केवलज्ञानानाम्, तीर्थकराणामनाशातनायां तीर्थकरप्रज्ञप्तधर्मस्यानाशातनायां वर्तितव्यमिति, एवं सर्वत्र द्रष्टव्यमिति ॥ ___ इत्युक्तोऽनाशातना विनयः पञ्चदशप्रकारः, अथ चारित्रविनय उच्यते, तत्र चारित्रमेव विनयश्चारित्रस्य वा श्रद्धानादिरूपो विनयश्चारित्रविनयः- सामाइआदि चरणस्स, सद्दहणया १ तहेव काएणं। संफासणं २ परूवण ३ मह पुरओ भव्वसत्ताणं ॥ [ ] व्या० सामायिकादि, सामायिकमादौ यस्य तत्, आदिशब्दाच्छेदोपस्थापन-परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसम्पराय-यथाख्यातपरिग्रहः । तद्गुणसंविज्ञानो बहुव्रीहिः । सामायिकादि च तच्चरणं च सामायिकादिचरणम्, तस्य श्रद्धानं तथा कायेन स्पर्शनं शरीरेण करणम्, अथ भव्यसत्त्वानां भव्यप्राणिनां पुरतोऽग्रतः प्ररूपणं सभाप्रबन्धेन विस्तरव्याख्यानमिति॥
मनोवाक्कायविनयमाह- मणवयकाइअविणओ, आयरिआईणं च सव्वकालं पि । अकुसलाण निरोहो, कुसलाणमुदीरणं तह य ॥ [ ] व्या० मनोवचनकायविनय आचार्यादीनां सर्वकालम् अकुशलानामशुभानां तेषां निरोधः, कुशलानामुदीरणमिति ॥" - इति गाथाविवरणे ॥
[पृ०७०३] “पुव्वकदकम्मसडणं तु णिजरा सा पुणो हवे दुविहा । पढमा विवागजादा
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१०९ विदिया अविवागजादा य ॥४४५॥ अथ का निर्जरा ? पूर्वकृतकर्मसटनं गलनं निर्जरेत्युच्यते सा पुनर्निर्जरा द्विविधा द्विप्रकारा भवेत् । प्रथमा विपाकजाता उदयस्वरूपेण कर्मानुभवनम् । द्वितीया निर्जरा भवेदविपाकजाताऽनुभवमन्तरेणैकहेलया कारणवशात् कर्मविनाशः ॥४४५॥" - मूलाचार० वसुनन्दिटीका ॥
[पृ०७०५] “अथ भाष्यकारो येन विप्रतिपत्त्यभिप्रायेण जमालिर्निह्नवो जातस्तं प्रकटयन्नाहसक्खं चिय संथारो न कज्जमाणो कउ त्ति मे जम्हा । बेइ जमाली सव्वं न कज्जमाणं कयं तम्हा ॥२३०८॥ मे जम्ह त्ति यस्माद् मम साक्षात् प्रत्यक्षमेवेदं वृत्तं यदुत- कम्बलास्तरणरूपः संस्तारकः क्रियमाणो न कृतः संस्तीर्यमाणो न संस्तृतः । तस्माजमालिब्रवीति- सर्वमपि वस्तु क्रियमाणं कृतं न भवति, किन्तु कृतमेव कृतमुच्यते । ततो भगवत्यादिषु यदुक्तम्- चलमाणे चलिए, उईरिजमाणे उईरिए, वेइजमाणे वेइए [१।१।५] इत्यादि, तत् सर्वं मिथ्येत्यभिप्राय इति ॥२३०८।।
तदेवं सामान्येन प्रतिपाद्य प्रस्तुते जमालिसंस्तारके ऽमुं सकलमपि स्थविरोक्तं युक्तिकलापमायोजयन्नाह- जं जत्थ नभोदेसे अत्थुव्वइ जत्थ समयम्मि । तं तत्थ तत्थमत्थुयमत्थुव्वंतं पि तं चेव ॥२३२१॥ आस्तीर्यमाणसंस्तारकस्य यद् यावन्मानं नभोदेशे यत्र यत्र समये अत्थुव्वइ आस्तीर्यते तत् तावन्मानं तस्मिन् नभोदेशे तत्र तत्र समय आस्तीर्णमेव भवति, आस्तीर्यमाणमपि च तदेवोच्यते । इदमुक्तं भवति- सर्वोऽपि संस्तारक आस्तीर्यमाणो नास्तीर्ण इति 'क्रियमाणं कृतम्' इत्यादि महावीरवचनं व्यलीकमेव जमालिर्मन्यते । एतच्चायुक्तम्, भगवद्वचनाभिप्रायापरिज्ञानात् । सर्वनयात्मकं हि भगवद्वचनम् । ततश्च ‘क्रियमाणमकृतम्' इत्यपि भगवान् कथञ्चिद् व्यवहारनयमतेन मन्यत एव, परं चलमाणे चलिए, उईरिजमाणे उईरिए [भगवती० १।१।५] इत्यादिसूत्राणि निश्चयनयमतेनैव प्रवृत्तानि । तन्मतेन च क्रियमाणं संस्तृतम्, इत्यादि सर्वमुपपद्यत एव । निश्चयो हि मन्यते- प्रथमसमयादेव घटः कर्तुं नारब्धः, किन्तु मृदानयन-मर्दनादीनि प्रतिसमयं परापरकार्याण्यारभ्यन्ते, तेषां च मध्ये यद् यत्र समये प्रारभ्यते तत् तत्रैव निष्पद्यते, कार्यकाल-निष्ठाकालयोरेकत्वात्, अन्यथा पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात् । ततः क्रियमाणं कृतमेव भवति । एवं प्रस्तुतः संस्तारकोऽपि नाद्यसमयात् सर्वोऽपि संस्तरीतुमारभ्यते, किन्त्वपरापरे तदवयवाः प्रतिसमयमास्तीर्यन्ते, तेषां च मध्ये यो यत्र समयेऽवयवः संस्तरीतुमारभ्यते, स तत्रैवास्तीर्यते, परिपूर्णस्तु संस्तारकश्चरमसमय एव संस्तरीतुमारभ्यते तत्रैव च निष्पद्यत इति संस्तीर्यमाणं संस्तीर्णमेव भवतीति ॥२३२१।।" - विशेषाव० मलधारि०॥
[पृ०७०६] “एगादओ पएसा नो जीवो नो पएसहीणो वि । जं तो स जेण पुण्णो स एव जीवो पएसो त्ति ॥२३३६॥ यद् यस्मादेकादयः प्रदेशास्तावज्जीवो न भवति, ‘एगे भंते! जीवपएसे' [ ] इत्याद्यालापके निषिद्धत्वात्; एवं यावदेकेनापि प्रदेशेन हीनो जीवो न भवति, अत्रैवालापके निवारितत्वात् । ततस्तस्माद् येन केनापि चरमप्रदेशेन स जीवः परिपूर्णः क्रियते स
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
११०
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि एव प्रदेशो जीवो न शेषप्रदेशाः, एतत्सूत्रालापकप्रामाण्यादिति । एवं विप्रतिपन्नोऽसाविति ॥२३३६।।
ततः किम् ? इत्याह- गुरुणाऽभिहिओ जइ ते पढमपएसो न संमओ जीवो । तो तप्परिणामो च्चिय जीवो कहमंतिमपएसो ? ॥२३३७।। ‘एकोऽन्त्यप्रदेशो जीवः, तद्भावभावित्वाज्जीवत्वस्य' इत्यादि ब्रुवाणस्तिष्यगुप्तो गुरुणा वसुसूरिणाऽभिहितः- हन्त ! यदि ते तव प्रथमो जीवप्रदेशो जीवो न संमतः, ततस्तन्तिमो जीवप्रदेशः कथं केन प्रकारेण जीवः ? न घटत एव सोऽपि जीव इत्यर्थः। कुतः ? तत्परिणाम इति कृत्वा । इदमुक्तं भवतिभवदभिमतोऽन्त्यप्रदेशोऽपि न जीवः, अन्यप्रदेशैस्तुल्यपरिणामत्वात्, प्रथमाद्यन्यप्रदेशवदिति ॥२३३७।।
को जाणइ किं साहू देवो वा तो न वंदणिज्जो त्ति । होजाऽसंजयनमणं होज मुसावायममुगो त्ति ॥२३५९॥ को जानाति- किमयं साधुवेषधारी साधुर्देवो वा ?- नास्त्येवात्र निश्चय इत्यर्थः । न च वक्तव्यम्- साधुरेवायम्, तद्वेष-समाचारदर्शनात्, भवानिव; आर्याषाढदेवेऽपि साधुवेष-समाचारदर्शनेनानैकान्तिकत्वात् । तस्माद् न कोऽपि वन्दनीयः, संशयविषयत्वात् । यदि पुनर्वन्द्यते तदाऽऽर्याषाढदेववन्दन इवासंयतवन्दनं स्यात् । तदमुको ब्रवीति- भाषणे च मृषावादः स्यादिति ॥२३५९॥ - विशेषाव० मलधारि० ।
[पृ०७०६ पं०२३] स्थविरवचनं यदि परे सन्देहः किं सुर इति साधुरिति ? । देवे कथं न शङ्का किं स देवो न देव इति ? ॥२३६०॥ तेन कथितमिति वा मतिर्देवोऽहं रूपदर्शनाच्च। साधुरिति कथं कथिते समानरूपे का शङ्का ? ॥२३६१॥ देवस्य वा किं वचनं सत्यमिति न साधुरूपधारिणः । न परस्परमपीह वन्दध्वे यज्जानन्तोऽपि यतय इति ॥२३६२॥ - इति संस्कृते छाया ॥
[पृ०७०७] “न हि सव्वहा विणासोऽद्धापज्जायमेत्तनासम्मि । स-परपज्जायाणंतधम्मणो वत्थुणो जुत्तो ॥२३९३॥ न हि सर्वथैव वस्तुनो विनाशो युक्तः । क्व सति ? इत्याह - अद्धापर्यायमात्रनाशे । तत्रेहाद्धा नारकादीनामुत्पत्तिप्रथमादिसमयः, स एव पर्यायमानं तस्य नाशोऽपगमस्तस्मिन् सति । कथंभूतस्य वस्तुनः ? इत्याह- स्व-परपर्यायानन्तधर्मकस्य। इदमुक्तं भवति- यस्मिन्नैव समये तद् नारकवस्तु प्रथमसमयनारकत्वेन समुच्छिद्यते तस्मिन्नेव समये द्वितीयसमयनारकत्वेनोत्पद्यते, जीवद्रव्यतया त्ववतिष्ठते । अतो यदि नामाद्धापर्यायमात्रमुच्छिन्नम्, ततः सर्वस्यापि वस्तुनः समुच्छेदे किमायातम्, अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुन एकपर्यायमात्रोच्छेदे सर्वोच्छेदस्य दूरविरुद्धत्वात् ? इति ॥२३९३॥ ___ अत्र पराभिप्रायमाशङ्कय परिहरति- अह सुत्ताउ त्ति मई सुत्ते नणु सासयं पि निद्दिटुं। वत्थु दव्वट्ठाए असासयं पज्जयट्ठाए ॥२३९४॥ अथ पूर्वोक्तालापकरूपात् सूत्रात् सूत्रप्रामाण्यात् प्रतिसमयं सर्वथा वस्तूच्छेदः प्रतिपाद्यत इति तव मतिः । ननु यदि सूत्रं तव प्रमाणम्, तर्हि सूत्रे द्रव्यार्थतया शाश्वतमपि वस्त्वन्यत्रोक्तमेव, पर्यायार्थतयैव चाशाश्वतम्; तथा च सूत्रम्- ‘नेरइया णं
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१११
भंते ! किं सासया, असासया ?। गोयमा ! सिय सासया, सिय असासया । से केणटेणं ? गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासया, भावट्ठयाए असासया [ ] इति ॥२३९४॥
एत्थ वि न सव्वनासो समयाइविसेसणं जओऽभिहियं । इहरा न सव्वनासे समयाइविसेसणं जुत्तं ॥२३९५॥ अत्रापि- ‘प्रथमसमयनारका व्यवच्छेदं यास्यन्ति' इति सूत्रे न सर्वनाशः सर्वात्मना नाशो गम्यते । कुतः ? इत्याह- यतो यस्मात् समयादिविशेषणमभिहितम्, ततो न सर्वथा नाशोऽत्र गम्यते, किन्तु प्रथमसमयनारका व्यवच्छेत्स्यन्ति। कोऽर्थः ? प्रथमसमयनारकत्वेन विनक्ष्यन्ति । एवं द्वितीयादिसमयनारका अपि द्वितीयादिसमयनारकत्वेनैव विनक्ष्यन्ति न तु सर्वथा, द्रव्यार्थतया शाश्वतत्वात् । इतरथा सर्वनाशेऽभिप्रेते प्रथमसमयादिविशेषणं न युक्तं स्यादिति ॥२३९५॥" - विशेषाव० मलधारि०॥
[पृ०७०९] “सोउं भणइ सदोसं वक्खाणमिणं ति पावइ जओ भे । मोक्खाभावो जीवप्पएसकम्माविभागाओ ॥२५१५॥ तदत्र व्याख्याने क्षीरनीरन्यायेन वह्नितप्तायोगोलकन्यायेन वा जीवप्रदेशैः सह कर्म संबद्धमिति पर्यवसितं विन्ध्यसमीपे श्रुत्वा तथाविधकर्मोदयादभिनिवेशेन विप्रतिपन्नो गोष्ठामाहिलः प्रतिपादयति- ननु सदोषमिदं व्याख्यानम्, यस्मादेवं व्याख्यायमाने भवतां मोक्षाभावः प्राप्नोति, जीवप्रदेशैः सह कर्मणामविभागेन तादात्म्येनावस्थानादिति ॥२५१५।।
नहि कम्मं जीवाओ अवेइ अविभागओ पएसो व्व । तदणवगमादमुक्खो जुत्तमिणं तेण वक्खाणं ॥२५१६॥ 'न हि- नैव कर्म जीवादपैति' इति प्रतिज्ञा । अविभागात्वढ्ययोगोलकन्यायेन जीवेन सह तादात्म्यादित्यर्थः, एष हेतुः । पएसो व्व त्ति जीवप्रदेशराशिवदित्यर्थः, एष दृष्टान्तः । इह यद् येन सहाविभागेन व्यवस्थितं न तत् ततो वियुज्यते, यथा जीवात् तत्प्रदेशनिकुरम्बम्, इष्यते चाविभागो जीव-कर्मणोर्भवद्भिः, इति न तत् तस्माद् वियुज्यते । ततस्तदनपगमात् तस्य कर्मणो जीवादनपगमादवियोगात् सर्वदैव जीवानां सकर्मकत्वाद् मोक्षाभावः। तेन तस्मादिदमिह मदीयं व्याख्यानं कर्तुं युक्तमिति ॥२५१६॥” - विशेषाव० मलधारि०॥
पृ०७१३] “सम्प्रति प्रशस्तभावना अभिधित्सुराह- तवेण सत्तेण सुत्तेण, एगत्तेण बलेण य। तुलणा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं पडिवजओ ॥१३२८॥ तपसा सत्त्वेन सूत्रेण एकत्वेन बलेन च एवं तुलना भावना पञ्चधा प्रोक्ता जिनकल्पं प्रतिपद्यमानस्येति नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥१३२८॥" - बृहत्कल्पटीका।
पृ० ७१८] “अन्यच्चासाविहैव यदनुभवति तदाह- भीओव्विग्ग निलुक्को, पागडपच्छन्नदोससयकारी । अप्पच्चयं जणंतो, जणस्स धीजीवियं जियइ ॥४७८॥ व्या० भीतश्चासौ, कः किं मां भणिष्यतीत्युत्त्रासात्, उद्विग्नश्च क्वचिदपि धृतेरभावादीतोद्विग्नः,स चासौ निलुक्कश्च संघपुरुषादिभयेनात्मगोपनादिति समासः, किमित्येवंविध इत्याह- प्रकटप्रच्छन्नानि जनेन विदिताविदितानि दोषशतानि कर्तुं शीलमस्यासौ प्रकटप्रच्छन्नदोषशतकारी, अत एवाप्रत्ययं धर्मस्योपर्यविश्वासं जनयन्
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
जनस्योत्पादयन् लोकस्य नूनमेषां धर्मः शास्त्रकारेणैवंविध एव प्रतिपादित इति बुद्ध्युत्पत्तेः, किम् ? धिग्जीवितमिति क्रियाविशेषणम्, धिक्कारार्हप्राणधारणेनेत्यर्थः, जीवति किल प्राणान् धारयतीति ॥४७८॥" - इति उपदेशमाला० सिद्धर्षिगणि० ।
"तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे अ जे नरे । आयारभावतेणे अ, कुव्वई देवकिविसं ॥५।२।४६॥ स्तेनाधिकार एवेदमाह- तव त्ति सूत्रम्, तपस्तेनो वास्तेनो रूपस्तेनस्तु यो नरः कश्चित् आचारभावस्तेनश्च, पालयन्नपि क्रियां तथाभावदोषाद्देवकिल्बिषं करोति किल्बिषिकं कर्म निर्वर्त्तयतीत्यर्थः, तपस्तेनो नाम क्षपकरूपकल्पः कश्चित् केनचित् पृष्टस्त्वमसौ क्षपक इति, स पूजाद्यर्थमाह- अहम्, अथवा वक्ति-साधव एव क्षपकाः, तूष्णीं वाऽऽस्ते, एवं वास्तेनो धर्मकथकादितुल्यरूपः कश्चित्केनचित् पृष्ट इति, एवं रूपस्तेनो राजपुत्रादितुल्यरूपः, एवमाचारस्तेनो विशिष्टाचारवत्तुल्यरूप इति, भावस्तेनस्तु परोत्प्रेक्षितं कथञ्चित् किञ्चित् श्रुत्वा स्वयमनुत्प्रेक्षितमपि मयैतत्प्रपञ्चेन चर्चितमित्याहेति सूत्रार्थः ॥४६॥
__तत्तो वि से चइत्ताणं, लब्भिही एलमूअयं । नरगं तिरिक्खजोणिं वा, बोही जत्थ सुदुल्लहा ॥५॥२॥४८॥ अत्रैव दोषान्तरमाह- तत्तो वि त्ति सूत्रम्, ततोऽपि देवलोकादसौ च्युत्वा लप्स्यते एलमूकताम् अजाभाषानुकारित्वं मानुषत्वे, तथा नरकं तिर्यग्योनि वा पारम्पर्येण लप्स्यते, बोधिर्यत्र सुदुर्लभः सकलसंपनिबन्धना यत्र जिनधर्मप्राप्तिर्दुरापा । इह च प्राप्नोत्येलमूकतामिति वाच्ये असकृद्भावप्राप्तिख्यापनाय लप्स्यत इति भविष्यत्कालनिर्देश इति सूत्रार्थः ॥४८॥" - दशवै० हारि०॥
“लजाइ गारवेण य बहुस्सुयमएण वाऽवि दुच्चरिअं । जे न कहंति गुरूणं न हु ते आराहगा हुंति ॥२१८॥ वृ० तत्र लजया अनुचितानुष्ठानसंवरणात्मिकया गौरवेण च सातर्द्धिरसगौरवात्मकेन, मा भून्ममालोचनाईमाचार्यमुपसर्पतस्तद्वन्दनादिना तदुक्ततपोऽनुष्ठानासेवनेन च ऋद्धिरससाताभावसम्भवः इति, बहुश्रुतमदेन वा बहुश्रुतोऽहं तत्कथमल्पश्रुतोऽयं मम शल्यमुद्धरिष्यति ?, कथं चाहमस्मै वन्दनादिकं दास्यामि ? अपभ्राजना हि इयं मम इत्यभिमानेन, अपिः पूरणे, ये गुरुकाणो न कथयन्ति नालोचयन्ति, केषाम् ?, गुरूणाम् आलोचनार्हाणामाचार्यादीनाम्, किं तद् ?- दुश्चरितं दुरनुष्ठितम् इति सम्बन्धः, न हु नैव ते अनन्तरमुक्तरूपा आराधयन्ति अविकलतया निष्पादयन्ति सम्यग्दर्शनादीनि इत्याराधका भवन्ति ॥२१८॥" - उत्तरा० पाईय० अ० ५।१०॥ ___ "न वि तं सत्थं व विसं व दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो । जंतं व दुप्पउत्तं सप्पो व पमाइणो कुद्धो ॥११५७॥ जं कुणइ भावसल्लं अनुद्धियं उत्तमट्ठकालंमि । दुल्लभबोहीयत्तं अनंतसंसारियत्तं च ॥११५८॥ वृ० इलश्चालोचयितव्यम्- न तत्करोति दुःखं शस्त्रं नापि विषं नापि दुष्प्रयुक्तः दुःसाधितो वेतालः, यन्त्रं वा दुष्प्रयुक्तं सर्पो वा क्रुद्धः प्रमादिनः पुरुषस्य दुःखं करोति यत्करोति भावशल्यमनुद्धृतम् उत्तमार्थकाले अनशनकाले, किं करोतीत्यत आहदुर्लभबोधिकत्वम् अनन्तसंसारित्वं चेति, एतन्महादुःखं करोति भावशल्यम् अनुद्धृतम्, शस्त्रादिदुःखानि
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि पुनरेकभव एव भवन्ति, अतः संयतेन सर्वमालोचयितव्यम् ।।११५७-११५८॥'- ओघनि० द्रोणा०॥
[पृ०७१९] “उद्धरियसव्वसल्लो आलोइयनिंदिओ गुरुसगासे । होइ अतिरेगलहुओ ओहरियभरो व्व भारवहो ॥११६०॥ वृ० सुगमा, नवरम्- अतिरेकम् अत्यर्थं लघुर्भवति, ओहरितभारो उत्तारितभारः भारवहः गर्दभादिः स यथा लघुर्भवति एवमालोचिते सति कर्मलघुत्वं भवतीति ॥११६०॥" - ओघनि० द्रोणा० ॥
[पृ० ७२०] “निच्चं संकियभीओ गम्मो सव्वस्स खलियचारित्तो । साहुजणस्स अयओ, मओऽवि पुण दुग्गइं जाइ ॥२२६॥ व्या० नित्यं सदा शकितश्चासौ जल्पान्तरेऽपि मदीयमिदं जल्पत इत्युत्त्रासात्, भीतश्च गच्छतो निःश्वसनादेः शकितभीतः, गम्योऽभिभवनीयः सर्वस्य बालादेरपि, स्खलितचारित्रः साधुजनस्यावमतोऽनभिमत इह लोके, मृतोऽपि पुनर्दुर्गतिं नरकादिकां याति, पुनःशब्दादनन्तसंसारी च संपद्यत इति ॥२२६॥" - इति उपदेशमाला० सिद्धर्षिगणि० ।
[पृ० ७२२] “लहुया ल्हादीजणणं अप्पपरनियत्ति अजवं सोही । दुक्करकरणं विणओ निसल्लत्तं व सोहिगुणा ॥१॥३१७॥ लघो वो लघुता, यथा भारवाही अपहृतभारो लघुर्भवति तथा आलोचकोऽप्युद्धृतशल्यो लघुर्भवति इति लघुता । तथा ल्हादनं ल्हादिरौणादिक इप्रत्ययः, प्रल्हत्तिः, तस्य जननमुत्पत्तिादिजननं प्रमोदोत्पाद इति यावत्, तथाहि अतिचारघर्मतप्तस्य चित्तस्य मलयगिरिपवनसंपर्केणेव आलोचनाप्रदानेनातिचारघापगमतो भवति संविग्नानां परममुनीनां महान् प्रमोद इति, तथा अप्पपरनियत्ति त्ति आलोचनाप्रदानतः स्वयमात्मनो दोषेभ्यो निवृत्तिः कृता, तं च दृष्ट्वा अन्येऽप्यालोचनाभिमुखा भवन्ति इति अन्येषामपि दोषेभ्यो निवर्त्तनमिति, तथा यदतिचारजातं प्रतिसेवितं तत् परस्मै प्रकटयता आत्मन आर्जवं सम्यग्विभावितं भवति, आर्जवं नाम अमायाविता, तथा अतिचारपङ्कमलिनस्यात्मनश्चरणस्य वा प्रायश्चित्तजलेन अतिचारपङ्कप्रक्षालनतो निर्मलता शोधिः, तथा दुष्करकरणं दुष्करकारिता, तथाहि- यत् प्रतिसेवनं तन्न दुष्करम्, अनादिभवाभ्यस्तत्वात्, यत् पुनरालोचयति तत् दुष्करं प्रबलमोक्षानुयायिवीर्योल्लासविशेषेणैव तस्य कर्तुं शक्यत्वात्, तथा विणओ इति आलोचयता चारित्रविनयः सम्यगुपपादितो भवति, निस्सल्लत्तमिति सशल्य आत्मा निःशल्यः कृतो भवतीति निःशल्यता, एते शोधिगुणा: आलोचनागुणा आलोचना शोधिरित्यनर्थान्तरत्वात्।" - व्यवहार० मलय० ॥
[पृ० ७२८] "जात्यादिमदोन्मत्तः पिशाचवद् भवति दुःखितश्चेह । जात्यादिहीनतां परभवे च नि:संशयं लभते ॥९८॥ टीका- जात्यादिनाऽष्टप्रकारेण मदेनोन्मत्तो हृत्पूरकभक्षणपित्तोदयाद्व्याकुलीकृतकरणपुरुषवत् पिशाचवद्वा भवति दुःखितश्चेह कश्चिच्छुचिपिशाचकोदृकः जनाकीर्णं देशमृत्सृज्य समुद्रमध्यवर्तिनं द्वीपमनुप्रविष्टः । तत्र चैको वणिग्विभिन्नपोतः प्रथमतरं गतः । तत्र चेक्षुवाटाः प्रभूतास्तद्रसपानात् केवलाद्गुडशकलानीव गुदमुखेन विसृष्टानि । पुरीषपरिणामान्तराणि तानि तथाऽवलोक्य स चोक्तपिशाचकश्चखाद स्वादूनि, तृप्तश्चास्ते प्रतिदिवसम् । दृष्टश्च कालान्तरेण हिण्डमानो वणिक् ।
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
११४
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि ततश्चोद्विग्नस्तस्मादपि स्थानान्निर्गतोऽन्यं द्वीपं तत्रापि वल्गुल्यादिदूषितानि फलानि भुक्तवानेव यत्र यत्र याति तत्र तत्र दुःखभाक् । एवंविधश्च परभवेऽपि हीनजात्यादित्वेनोत्पद्यते इति न युक्तो जातिमदः ।।९८॥" प्रशम० ।
[पृ० ७२९] “अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥११॥ सर्वपरिकल्पातीततत्त्वं भेदसंसर्गसमतिक्रमेण समाविष्टं सर्वाभिः शक्तिभिर्विद्याविद्याप्रविभागरूपमप्रविभागं कालभेददर्शनाभ्यासेन मूर्त्तिविभागभावनया च व्यवहारानुपातिभिर्धर्माधर्मैः सर्वास्ववस्थास्वनाश्रितादिनिधनं ब्रह्मेति प्रतिज्ञायते । ___ नहि कार्यकारणात्मकस्य विभक्ताविभक्तस्यैकस्य ब्रह्मणः सर्वप्रवादेष्वपूर्वापरे प्रवृत्ति-निवृत्तिकोटी परिसंख्यायेते । न चास्योर्ध्वमधस्तिर्यग्वा मूर्तपरिवर्तप्रत्यङ्गानां क्वचिदवच्छेदोऽभ्युपगम्यते । तत्तु भिन्नरूपाभिमतानामपि विकाराणां प्रकृत्यन्वयित्वाच्छब्दोपग्राह्यतया शब्दोपग्राहितया च शब्दतत्त्वमित्यभिधीयते । स्थितिप्रवृत्तिनिवृत्तिविभागा हि शब्देन क्रियन्ते । तच्चाक्षरनिमित्तत्वादक्षरमित्युच्यते। प्रत्यक्चैतन्येऽन्तःसन्निवेशितस्य परसम्बोधनार्थो व्यक्तिरभिष्यन्दते। एवं हि आह- सूक्ष्मामर्थेनाप्रविभक्ततत्त्वामेकां वाचमनभिष्यन्दमानाम् । उतान्ये विदुरन्यामिव च एनां नानारूपामात्मनि सन्निविष्टाम् ॥ [ ] इति ॥
विवर्ततेऽर्थभावेन । एकस्य तत्त्वादप्रच्युतस्य भेदानुकारेणासत्यविभक्तान्यरूपोपग्राहिता विवर्तः । स्वप्नविषयप्रतिभासवत् । उक्तं च- “मूर्तिक्रियाविवर्ती अविद्याशक्तिप्रवृत्तिमात्रम्, तौ विद्यात्मनि तत्त्वान्यत्वाभ्यामनाख्येयौ । एतद्धि अविद्याया अविद्यात्वम् [ ] इति ।
प्रक्रिया जगतो यतः । तत एव हि शब्दाख्यादुपसंहृतक्रमाद् ब्रह्मणः सर्वविकारप्रत्यस्तमये संवर्तादनाकृतात्पूर्वं विकारग्रन्थिरूपत्वेनाव्यपदेश्याज्जगदाख्या विकाराः प्रक्रियन्ते ॥११॥"
__ - इति स्वोपज्ञवृत्तिसहिते भर्तृहरिप्रणीते वाक्यपदीये । पृ० ७३०] “आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतय॑मविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥१५॥ आसीदिदं जगत्तमोभूतं तम इव । .......अप्रज्ञातम् । विशेषाणां स्वभावानां विकाराणां प्रकृतावुपलयनादतः प्रत्यक्षेणाज्ञातम् । अनुमानात्तर्हि ज्ञायेत, तदपि नाऽलक्षणम् । लक्षणं लिङ्गं चिह्नम्, तदपि तस्यामवस्थायां प्रलीनमेव, सर्वविकाराणां विशेषात्मना विनष्टत्वात् । अप्रतय॑म् । यद्रूपमासीत्तर्कयितुमपि न तद्रूपतया शक्यम् । सर्वप्रकारमनुमानं निषेधति । न सामान्यतो दृष्टमनुमानमस्ति तद्रूपकावेदकं न विशेषतो दृष्टमतश्चाविज्ञेयम् । नैव तासीदसदेवाजायतेति प्राप्तमेतन्निषेधति प्रसुप्तमिव सर्वतः ।" - इति मनुस्मृतौ० मेघातिथिटीका० ॥
[पृ०७३५ पं०१७] तुलना- “इह खल्वायुर्वेदं नामोपाङ्गमथर्ववेदस्य...कृतवान् स्वयम्भूः, ततोऽल्पायुष्ट्वमल्पमेधत्वं चालोक्य नराणां भूयोऽष्टधा प्रणीतवान् ।।६।। तद्यथा- शल्यम्, शालाक्यम्, कायचिकित्सा, भूतविद्या, कौमारभृत्यम्, अगदतन्त्रम्, रसायनतन्त्रम्, वाजीकरणतन्त्रमिति ॥७॥
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
११५ अथास्य प्रत्यङ्गलक्षणसमासः । - तत्र, शल्यं नाम विविधतृणकाष्ठपाषाणपांशुलोहलोष्टास्थिबालनखपूयास्रावदुष्टवणान्तर्गर्भशल्योद्धरणार्थम्, यन्त्रशस्त्रक्षाराग्निप्रणिधानव्रणविनिश्चयार्थं च ॥१॥ शालाक्यं नामोर्ध्वजत्रुगतानां श्रवणनयनवदनघ्राणादिसंश्रितानां व्याधीनामुपशमनार्थम् ॥२॥ कायचिकित्सा नाम सर्वाङ्गसंश्रितानां व्याधीनां ज्वररक्तपित्तशोषोन्मादापस्मारकुष्ठमेहातिसारादीनामुपशमनार्थम् ॥३।। भूतविद्या नाम देवासुरगन्धर्वयक्षरक्षःपितृपिशाचनागग्रहाद्युपसृष्टचेतसां शान्तिकर्मबलिहरणादिग्रहोपशमनार्थम् ॥४॥ कौमारभृत्यं नाम कुमारभरणधात्रीक्षीरदोषसंशोधनार्थं दुष्टस्तन्यग्रहसमुत्थानां च व्याधीनामुपशमनार्थम् ॥५॥ अगदतन्त्रं नाम सर्पकीटलूतामूषकादिदष्टविषव्यञ्जनार्थं विविधविषसंयोगोपशमनार्थं च ॥६॥ रसायनतन्त्रं नाम वयःस्थापनमायुर्मेधाबलकरं रोगापहरणसमर्थं च ॥७॥ वाजीकरणतन्त्रं नामाल्पदुष्टक्षीणविशुष्करेतसामाप्यायनप्रसादोपचयजनननिमित्तं प्रहर्षजननार्थं च ॥८॥” इति सुश्रुतसंहितायां प्रथमेऽध्याये । “शालाक्यं कायचिकित्सा भूततन्त्रं शल्यमगदतन्त्रं रसायनतन्त्रं बालरक्षा बीजवर्धनमिति आयुर्वेदस्य अष्टाङ्गानि" -कसायपाहुड जयधवलाटीका, भाग १, पृ.१४७ ॥
[पृ०७४० पं०३] “पत्तो पोयणपुरं तहिं च संख-वीर-सिवभद्दपमुहा नरिंदा दिक्खा गाहिया" - महावीरचरियं पृ० ३३७ ॥
[पृ०७४४ पं०५] “प्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञान्तरं प्रतिज्ञाविरोधः प्रतिज्ञासंन्यासो हेत्वन्तरमऽर्थान्तरं निरर्थकमऽविज्ञातार्थमऽपार्थकमऽप्राप्तकालं न्यूनमऽधिकं पुनरुक्तमऽननुभाषणमऽज्ञानमऽप्रतिभाविक्षेपो मतानुज्ञा पर्यनुयोज्योपेक्षणं निरनुयोज्यानुयोगोऽपसिद्धान्तो हेत्वाभासाश्च निग्रहस्थानानि ॥१॥ प्रतिदृष्टान्तधर्माभ्यनुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः ॥२॥ प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्मविकल्पात्तदर्थनिर्देशः प्रतिज्ञान्तरम् ॥३॥ प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोधः प्रतिज्ञाविरोधः ॥४॥ पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञातार्थापनयनं प्रतिज्ञासंन्यासः ॥५॥ अविशेषोक्ते हेतौ प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो हेत्वन्तरम् ॥६॥ प्रकृतादादप्रतिसंबद्धार्थमर्थान्तरम् ॥७॥ वर्णक्रमनिर्देशवद् निरर्थकम् ।।८।। परिषत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरभिहितमप्यविज्ञातमविज्ञातार्थम् ॥९॥ पौर्वापर्यायोगादप्रतिसंबद्धार्थमपार्थकम् ॥१०॥ अवयवविपर्यासवचनमप्राप्तकालम् ॥११॥ हीनमन्यतमेनाप्यवयवेन न्यूनम् ॥१२॥ हेतूदाहरणाधिकमधिकम् ॥१३॥ शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमन्यत्रानुवादात् ॥१४।। अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनम् ।।१५।। विज्ञातस्य परिषदा त्रिरभिहितस्याप्यऽप्रत्युच्चारणमननुभाषणम् ॥१६॥ अविज्ञातं चाऽज्ञानम् ॥१७॥ उत्तरस्याप्रतिपत्तिरप्रतिभा ॥१८॥ कार्यव्यासङ्गात् कथाविच्छेदो विक्षेपः ॥१९॥ स्वपक्षे दोषाभ्युपगमात् परपक्षे दोषप्रसङ्गो मतानुज्ञा ॥२०॥ निग्रहस्थानप्राप्तस्याऽनिग्रहः पर्यनुयोज्योपेक्षणम् ॥२१॥ अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानाभियोगो निरनुयोज्यानुयोगः ॥२२॥ सिद्धान्तमभ्युपेत्याऽनियमात् कथाप्रसङ्गोऽपसिद्धान्तः ॥२३॥ हेत्वाभासाच्च यथोक्ताः ॥२४॥" - इति न्यायभाष्ये ५।२ ।।
[पृ०७४८] “रयणमया पुप्फफला विक्खंभो अट्ठ अट्ठ उच्चत्तं । कोसदुगं उव्वेहो खंधो दो जोयणुविद्धिो ॥२८६॥ दो कोसे वित्थिन्नो, विडिमा छ जोयणाणि जंबूए । चाउद्दिसिं
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि पि सालो, पुव्विल्ले तत्थ सालम्मि ॥२८७॥ भवणं कोसपमाणं, सयणिज्जं तत्थऽणाढियसुरस्स। तिसु पासाया सेसेसु, तेसु सीहासणा रम्मा ॥२८८॥ व्या० तस्या जम्ब्वाः पुष्पाणि फलानि च रत्नमयानि नानारत्नात्मकानि, तस्याः सशाखाकाया जम्ब्वाः पृथुत्वमष्टौ योजनानि, अष्टावेव योजनान्युच्चत्वम्, क्रोशद्विकमुद्वेधः भूतलमध्ये प्रवेशः, अत एव सर्वाग्रेण सा जम्बूः सातिरेकाण्यष्टौ योजनान्युच्चस्त्वेन भवति । तथा तस्या जम्ब्वाः स्कन्धः कन्दादुपरितनः शाखाप्रभवपर्यन्तो विभागो द्वे योजने उद्विद्ध उच्चः, द्वौ क्रौशौ विस्तीर्णः, या तु दिक्प्रसृतशाखामध्यभागप्रभवा ऊर्ध्वं गता शाखा विडिमापरपर्याया सा षड् योजनान्युच्चस्त्वेन, अत एव कन्दादारभ्य सर्वाग्रेण सा जम्बूरष्टौ योजनान्युच्चस्त्वेन प्रागुक्ता, स्कन्धगताभ्यां द्वाभ्यां योजनाभ्यां विडिमागतैः षड्भिर्योजनैर्योजनाष्टकभावात् । तस्याश्च जम्ब्वाश्चतसृष्वपि दिक्षु शाखाः, किमुक्तं भवति ? चतसृषु पूर्वादिषु दिक्षु प्रत्येकमेकैका शाखा, ताश्च शाखाः प्रत्येकं क्रोशोनानि चत्वारि योजनानि दीर्घाः, तथाहि- तस्या जम्ब्वा विष्कम्भोऽष्टौ योजनानि, तत्र स्कन्धगतस्योपरितनभागस्य द्वौ क्रोशौ, तत एकैकस्याः शाखायाः पृथुत्वं क्रोशोनानि चत्वारि योजनानि भवति । तत्र तासु चतसृषु शाखासु मध्ये पूर्वस्यां शाखायां बहुमध्यदेशभागेऽनादृतस्यानादृताभिधानस्य देवस्य योग्यं महदेकं भवनं भवति, तच्च सर्वरत्नमयम् अनेकमणिमयस्तम्भशतसन्निविष्टम्, क्रोशप्रमाणमायामतः, विष्कम्भतोऽर्धक्रोशम्, देशोनं क्रोशमुच्चस्त्वेन, तस्य च भवनस्य त्रीणि द्वाराणि, तद्यथा- एकं द्वारं पूर्वस्यामेकमुत्तरत एकं दक्षिणतः, तानि च द्वाराणि प्रत्येकं पञ्च धनुःशतान्युच्चस्त्वेन, अर्धतृतीयानि धनुःशतानि विष्कम्भतः । तत्र च भवने बहुमध्यदेशभागे महत्येका मणिमयी पीठिका, सा च पञ्चधनुःशतायामविष्कम्भा अर्धतृतीयधनु:शतबाहल्या, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि महदेकं शयनीयम्, शेषासु च तिसृषु शाखासु प्रासादाः प्रासादावतंसका एकैकस्यां शाखायामेकैकः प्रासादावतंसक इत्यर्थः, तेऽपि च प्रासादावतंसकाः सर्वरत्नमयाः, तेषु च प्रासादेषु मध्ये सिंहासनानि रम्याणि नानामणिमयतया रमणीयानि, किमुक्तं भवति ? एकैकस्य प्रासादावतंसकस्य मध्ये पञ्चधनुःशतायामविष्कम्भाऽर्धतृतीयधनुःशतबाहल्या मणिमयपीठिका, तासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकमनादृतदेवयोग्यं सर्वरत्नमयं सिंहासनमिति ॥२८६-२८८॥
सम्प्रति प्रासादानां परिमाणमाह- ते पासाया कोसं, समूसिया कोसमद्धवित्थिन्ना । विडिमोवरि जिणभवणं, कोसद्ध होइ वित्थिनं ॥२८९॥ देसूणकोसमुच्चं, जंबू अट्ठस्सएण जंबूणं । परिवारिया विरायइ, तत्तो अद्धप्पमाणेणं ॥२९०॥ व्या० तेऽनन्तरोदिताः प्रासादाः क्रोशमेकं देशोनमिति शेषः समुच्छ्रिता उच्चाः, क्रोशमर्धमर्धक्रोशं विस्तीर्णाः, परिपूर्णमेकं क्रोशं दीर्घाः। तथा विडिमा दिक्प्रसृतशाखामध्यभागविनिर्गता ऊर्ध्वशाखा तस्या उपरि बहुमध्यदेशभागे महदेकं जिनभवनं सिद्धायतनम्, तच्च क्रोशमेकमायामतः, अर्धक्रोशं भवति विस्तीर्णम्, देशोनं क्रोशमेकमुच्चम्, नानामणिस्तम्भशतसंनिविष्टम्, तस्य च त्रीणि द्वाराणि, तानि च प्रागनन्तरव्यावर्णितभवनस्येव वेदितव्यानि,
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
११७
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि तस्य च सिद्धायतनस्य मध्ये महत्येका मणिमयी पीठिका, सा च पञ्च धनुःशतानि आयामविष्कम्भाभ्याम्, अर्धतृतीयानि धनुःशतानि बाहल्यतः, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि महानेकः सर्वरत्नमयो देवच्छन्दकः, स च पञ्चधनुःशतायामविष्कम्भः, सातिरेकपञ्चधनु:शतप्रमाणोच्चस्त्वः, तत्र पञ्चधनुःशतप्रमाणानां जिनप्रतिमानामष्टाधिकं शतम्, जिनप्रतिमावर्णकः समस्तोऽपि कूटगतसिद्धायतनवद्वेदितव्यः ॥ ___सा जम्बूरनन्तरव्यावर्णितस्वरूपाऽन्येन जम्बूनामष्टशतेनाष्टाधिकेन शतेन, ततस्तस्या मूलभूताया जम्ब्वा अपेक्षया अर्धप्रमाणमात्रेण यत्प्रमाणं मूलजम्ब्वा उक्तमादित आरभ्य तदपेक्षयाऽर्धप्रमाणेन, तथाहि- ता अष्टाधिकशतसङ्ख्या जम्ब्वः प्रत्येकं चत्वारि योजनान्युच्चस्त्वेन क्रोशमेकमवगाहेन, एकं योजनमुच्चः स्कन्धः, त्रीणि योजनानि विडिमा, सर्वाग्रेणोच्चस्त्वेन चत्वारि योजनानि, विष्कम्भतोऽपि चत्वारि योजनानि, तत्रैकैका शाखाऽर्धगव्यूतहीने द्वे द्वे योजने दीर्घा, क्रोशपृथुत्वः स्कन्धः इति भवन्ति सर्वसङ्ख्यया विष्कम्भतश्चत्वारि योजनानि । ताश्च जम्ब्वः सर्वा अपि प्रत्येकं षड्भिः षड्भिः पद्मवरवेदिकाभिः परिक्षिप्ताः एवंभूतेनार्धप्रमाणेन जम्बूनामष्टशतेन परिवारिता विराजन्ते । तासां चाष्टाधिकशतसङ्ख्यानां जम्बूनां वर्णविभागो मूलजम्ब्वा इव द्रष्टव्यः, यथा- वज्ररत्नमयानि मूलानि, रिष्टरत्नमयः कन्द इत्यादि ॥२८९-२९०॥ ___ जंबूओ पन्नासं, दिसि विदिसि गंतु पढमवणसंडे । चउरो दिसासु भवणा, विदिसासु य होंति पासाया ॥२९३॥ व्या० प्रथमे वनखण्डे दिक्षु विदिक्षु च प्रत्येकं सपरिवाराया जम्बूतः पञ्चाशत्पञ्चाशद्योजनानि गत्वाऽत्रान्तरे चतसृषु पूर्वादिषु प्रत्येकमेकैकभवनभावेन चत्वारि भवनानि, चतसृषु विदिक्षु प्रत्येकमेकैकप्रासादभावेन चत्वारः प्रासादाः प्रासादावतंसकाः ॥२९३॥
__ भवनानां प्रासादावतंसकानां च प्रमाणमाह- कोसपमाणा भवणा, चउवाविपरिग्गया य पासाया । कोसद्धवित्थडा कोसमूसियाणाढियसुरस्स ॥२९४॥ व्या० क्रोशप्रमाणानि भवनानि दीर्घत्वेन, विष्कम्भतः क्रोशार्धम्, उच्चस्त्वेन देशोनक्रोशमित्युपलक्षणव्याख्यानादवसेयम् । तथा विदिक्षु ये वर्तन्ते प्रासादास्ते प्रत्येकं चतुर्वापीपरिगताः प्रत्येकं च क्रोशार्धं विस्तृताः, देशोनं क्रोशमुच्छ्रिताः, क्रोशमायताः । एतानि भवनानि प्रासादावतंसकाश्चानादृताभिधानस्य देवस्य संबन्धिनो वेदितव्याः ॥२९४।।
सम्प्रति वापीनामुद्वेधादिप्रमाणमाह- पंचेव धणुसयाई, उव्वेहेणं हवंति वावीओ । कोसद्धवित्थडाओ, कोसायामाओ सव्वाओ ॥२९५।। सर्वा अपि वाप्य उद्वेधेन पञ्च धनुःशतानि भवन्ति, तथा क्रोशार्धं विस्तृताः, क्रोशमायामतः ॥२९५।।
सम्प्रति तेषां परिमाणमाह- अट्ठसहकूडसरिसा, सव्वे जंबूनयामया भणिया । तेसुवरिं जिणभवणा, कोसपमाणा परमरम्मा ॥२९९॥ व्या० प्रासादभवनापान्तरालभाविनः सर्वसङ्ख्ययाऽष्टौ कूटाः, ते च सर्वेऽपि जाम्बूनदमया वृषभकूटसदृशा वृषभकूटवत्परिमाणतो भणिताः, तेषां च कूटानामुपरि जिनभवनानि प्रत्येकमेकैकं तेषामुपरि जिनभवनमित्यर्थः, तानि च जिनभवनानि दीर्घत्वेन
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
क्रोशप्रमाणानि । उपलक्षणमेतत् [तेन] क्रोशार्धं विस्तृतानि, देशोनं क्रोशमुच्छ्रितानि, विविधरत्नमयतया परमरम्याणि । तथा तस्या जम्ब्वा द्वादश नामधेयानि तद्यथा - सुदर्शना १, अमोघा २, सुप्रबुद्धा ३, यशोधरा ४, भद्रा ५, विशाला ६, सुजाता ७, सुमनाः ८, विदेहजम्बूः ९, सौमनसा १०, नियता ११, नित्यमण्डिता १२। उक्तं च- 'सुदंसणा १ अमोहा २ य, सुप्पबुद्धा ३ जसोधरा ४ । भद्दा ५ य विसाला ६ य, सुजाया ७ सुमणा ८ वि य || १ || विदेहजंबू ९ सोमणसा १०, नियया ११ निच्चमंडिया १५ । सुंदसणाए जंबूए, नाम विज्ज दुवालस ॥२॥” [ ], तस्या अधिपतिरनादृतनामा देवः, स च पल्योपमस्थितिकश्चतुर्णामिन्द्रसामानिकसहस्राणां चतसृणामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिसृणां पर्षदां सप्तानामनीकानां सप्तानामनीकाधिपतीनां षोडशानामारक्षकदेवसहस्राणामन्येषां चानादृताभिधानराजधानीवास्तव्यानां बहूनां वानमन्तराणां देवानां देवीनां च स्वामी । सा चानादृतस्य देवस्य संबन्धिनी राजधानी अनादृताऽभिधाना मेरोरुत्तरतस्तिर्यगसङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रानतिक्रम्यापरस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वादशयोजनसहस्रेभ्यः परतो यथास्थानमवसेया । देवकुरवोऽपि शीतोदया महानद्या द्विधा विभक्ताः, तद्यथा- एकं पूर्वार्धमपरमपरार्धम्, तत्र यत् शीतोदायाः पूर्वस्मिन् भागे तत्पूर्वार्धमपरदिग्भागेऽपरार्धम् । तत्रापरार्धबहुमध्यदेशभागे शाल्मली नाम वृक्षः, स च जम्बूवृक्षवदविशेषेण वक्तव्यः, नवरमत्र शाल्मलीपीठं कूटानि च रजतमयानि, तस्य शाल्मलीवृक्षस्याधिपतिर्गरुडवेगो नाम देवः, तस्य च राजधानी मेरोर्दक्षिणतः, शेषं तथैव ॥ २९९ ॥
११८
एतदेवाह - देवकुरुपच्छिमद्धे, गरुडावासस्स सामलिदुमस्स । एसेव कमो नवरं, पेढं कूडा य रययमया ॥ ३००॥ व्या० देवकुरूणां पश्चिमेऽर्धे गरुडावासस्य गरुडवेगनाम्नो देवस्यावासभूतस्य शाल्मलीद्रुमस्य एष एवानन्तरोदितो जम्बूवृक्षविषयः क्रमो वेदितव्यः । नवरं शाल्मलीवृक्षस्य पीठं कूटानि प्रासादभवनापान्तरालवर्तीनि रजतमयानि । अपि चायं शाल्मलीवृक्षो यदा तदा वा सुवर्णकुमाराधिपतिवेणुदेववेणुदालिक्रीडास्थानम्, तथा चाह सूत्रकृताङ्गचूर्णिकृत् शाल्मलीवृक्षस्य वक्तव्यताऽवसरे- 'तत्थ वेणुदेवे वेणुदाली य वसई' तयोर्हि तत् क्रीडास्थानमिति ॥३००||” बृहत्क्षेत्र० मलय० ।
[पृ०७५२] “सम्प्रति वृषभकूटवक्तव्यतामाह- सव्वेऽवि उसभकूडा, उव्विद्धा अट्ठ जोयणा होंति । बारस अट्ठ य चउरो, मूले मज्झुवरि वित्थिन्ना || १९३ ।। व्या० सर्वेऽपि भरतैरावतविजयभाविनश्चतुस्त्रिंशत्सङ्ख्याः, तथाहि एको वृषभकूटो भरतक्षेत्रे, स च गङ्गाकुण्डस्य पश्चिमदिशि सिन्धुकुण्डस्य पूर्वतः क्षुल्लहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षिणात्ये नितम्बे । द्वितीय ऐरावतक्षेत्रे शिखरिणो वर्षधरस्योत्तराहे नितम्बे रक्तारक्तवतीकुण्डयोर्मध्यभागे । द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशत्सङ्ख्येषु विजयेषु । सर्वेऽपि सर्वसङ्ख्यया जम्बूद्वीपे चतुस्त्रिंशद्वृषभकूटा भवन्ति, ते च प्रत्येकमष्टौ योजनानि उद्विद्धाः उच्चाः, द्वे योजने भूमाववगाढाः, तथा मूले द्वादशयोजनानि आयामविष्कम्भाभ्याम्, मध्येऽष्टौ, उपरि चत्वारि, मूले विस्तीर्णाः, मध्ये संक्षिप्ताः उपरि तनुकाः, अत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः सर्वेऽपि च
"
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
जाम्बूनदमयाः। मूले विस्तीर्णा इत्युपलक्षणम्, तेन दीर्घा इत्यपि द्रष्टव्यम्, समवृत्तत्वात्तेषामिति॥१९३।।
सम्प्रति धातकीवृक्षवक्तव्यतामतिदेशेनाह- जो भणिओ जंबूए, विही उ सो चेव होइ एएसिं। देवकुराए संवलिरुक्खा जह जंबूदीवम्मि ॥३॥५५॥ व्या० य एव जम्बूद्वीपे जम्ब्वा वृक्षस्य पीठादिगतो विधिर्भणितः स एवैतयोरपि धातकीमहाधातकीनाम्नोवृक्षयोरविशेषेण ज्ञातव्यः । तथा पूर्वार्धेऽपरार्धे च प्रत्येकं देवकुरुषु पृथक् निषधवर्षधरसमीपे एकैकः शाल्मलीवृक्षः, तावपि जम्बूद्वीपगतशाल्मलीवृक्षवदविशेषेण प्रतिपत्तव्यौ ॥३॥५५॥" - बृहत्क्षेत्र० मलय० । __ [पृ०७५३] “सम्प्रति भद्रशालवने सिद्धायतनादिवक्तव्यतामाह- मेरूओ पन्नासं, दिसि विदिसि गंतु भद्दसालवणे । चउरो सिद्धाययणा,दिसासु विदिसासु पासाया ॥३२१॥ व्या० मेरोरारभ्य चतसृषु दिक्षु चतसृषु विदिक्षु च] प्रत्येकं भद्रशालवनं पञ्चाशत्पञ्चाशद्योजनान्यवगाह्यात्रान्तरे चतुसृषु दिक्षु प्रत्येकमेकैकसिद्धायतनभावेन चत्वारि सिद्धायतनानि, चतसृषु विदिक्षु [च] प्रत्येकमेकैकप्रासादभावेन चत्वारः प्रासादाः । इयमत्र भावना- मेरोरुत्तरपूर्वत उत्तरकुरुमध्ये शीताया महानद्या उत्तरदिग्भागे पञ्चाशद्योजनेभ्यः परः प्रासादः, मेरोः पूर्वस्यां दिशि शीताया महानद्याः पञ्चाशद्योजनेभ्यः परं सिद्धायतनम्, मेरोर्दक्षिणपूर्वस्यां पञ्चाशद्योजनान्यवगाह्यात्रान्तरे देवकुरूणां बहि: शीताया महानद्या दक्षिणत एव प्रासादः, मेरोदक्षिणतो देवकुरूणां मध्ये शीतोदाया महानद्याः पूर्वतो मेरुमधिकृत्य पञ्चाशद्योजनातिक्रमेण सिद्धायतनम्, मेरोरपरदक्षिणतः पञ्चाशद्योजनान्यवगाह्य देवकुरूणां मध्ये शीतोदाया महानद्या दक्षिणतः प्रासादः, मेरोः पश्चिमायां दिशि पञ्चाशद्योजनान्यतिवाह्य शीतोदाया महानद्या दक्षिणतः सिद्धायतनम्, मेरोरपरोत्तरस्यां दिशि पञ्चाशद्योजनान्यवगाह्यात्रान्तरे उत्तरकुरूणां बहिः शीतोदाया महानद्या उत्तरत एव प्रासादः, मेरोरुत्तरत उत्तरकुरूणां मध्ये शीताया महानद्याः पश्चिमतो मेरुमधिकृत्य पञ्चाशद्योजनातिक्रमे सिद्धायतनम् ॥३२१॥
सम्प्रति सिद्धायतनादीनामुच्चत्वादिमानमाह- छत्तीसुच्चा पणुवीसवित्थडा दुगुणमाययाऽऽययणे। चउवाविपरिक्खित्ता, पासाया पंचसयमुच्चा ॥३२२॥ व्या० सर्वाण्यपि सिद्धायतनानि प्रत्येकं षट्त्रिंशद्योजनान्युच्चानि, पञ्चविंशतियोजनानि विस्तृतानि, द्विगुणमायतानि पञ्चाशद्योजनान्यायतानीत्यर्थः, तानि च सर्वाण्यपि अनेकमणिमयस्तम्भशतसन्निविष्टानि, एकैकस्य च सिद्धायतनस्य पूर्वोत्तरदक्षिणरूपासु तिसृषु दिक्षु प्रत्येकमेकैकद्वारभावेन त्रीणि त्रीणि द्वाराणि, तानि च द्वाराणि प्रत्येकमष्टावष्टौ योजनान्युच्चानि, चत्वारि चत्वारि योजनानि विष्कम्भतः। एकैकस्य च सिद्धायतनस्य बहुमध्यदेशभागे महत्येकैका मणिमयी पीठिका, ताश्च मणिपीठिकाः प्रत्येकमष्टावष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्याम्, चत्वारि चत्वारि योजनानि बाहल्यतः, तासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकमेकैको देवछन्दकः, ते च प्रत्येकमष्टावष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्याम्, सातिरेकाण्यष्टावष्टौ योजनान्युच्चस्त्वेन, एकैकस्मिंश्च देवछन्दकेऽष्टोत्तरमष्टोत्तरं शतं जिनप्रतिमानाम्, ताश्च जिनप्रतिमाः प्रमाणतो वर्णतश्च प्राग्व्यावर्णितसिद्धायतनवद् द्रष्टव्याः । ये तु प्रासादास्ते प्रत्येकं पञ्च पञ्च योजनशतान्युच्चाः,
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२०
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
अर्धतृतीयान्यर्धतृतीयानि योननशतानि दीर्घाः, अर्धतृतीयान्यर्धतृतीयानि योजनशतानि विस्तीर्णाः । तथा प्रत्येकं चतुर्वापीपरिक्षिप्ताः चतसृभिश्चतसृभिर्वापीभिः समन्ततः परिक्षिप्ताः ॥३२२॥
ईसाणस्सुत्तरिया, पासाया दाहिणा य सक्कस्स । अट्ठदिसि हत्थिकूडा, सीयासीओयाउभयकूले ॥३२४॥ व्या० उत्तरीयौ उत्तरपूर्वोत्तरापरदिग्भाविनौ प्रासादावीशानस्य ईशानदेवलोकाधिपतेराभजतः, अत एव तयोः प्रासादयोर्मध्ये प्रत्येकमीशानदेवलोकाधिपतेर्योग्यं सपरिवार सिंहासनम् । दाक्षिणात्यौ दक्षिणपूर्वापरदक्षिणदिग्भाविनौ प्रासादौ शक्रस्य सौधर्मदेवलोकाधिपतेः, अत एव तयोर्मध्ये प्रत्येकं शक्रेन्द्रयोग्यं सपरिवारं सिंहासनम्॥
सम्प्रति दिग्गजकूटवक्तव्यतामाह- अष्टौ दिग्रहस्तिकूटाः, ते च शीताशीतोदयोरुभयकूले प्रासादसिद्धायतनानामपान्तराले वेदितव्याः ॥३२४॥
एतदेव वक्तव्यतामा(व्यक्ततया)ह- दो दो चउद्दिसिं मंदरस्स हिमवंतकूडसमकप्पा। पउमोत्तरोऽत्थ पढमो, सीयापुव्वुत्तरे कूले ॥३२५।। तत्तो य नीलवंतो, सुहत्थि तह अंजणागिरी कुमुए । तह य पलास वडिंसे, अट्ठमए रोयणगिरी य ॥३२६।। व्या० मन्दरस्य मेरोश्चतसृषु दिक्षु विदिग्रूपासु द्वौ द्वौ दिगृहस्तिकूटौ, ततः सर्वसङ्ख्ययाऽष्टौ भवन्ति, ते च हिमवत्कूटसमकल्पाः हिमवत्कूटसदृशस्थितयः । किमुक्तं भवति ? यादृशी स्थितिर्हिमवत्कूटेषु प्रागभिहिता प्रमाणादिविषया तादृश्येतेषामपि द्रष्टव्या । तद्यथा- एते सर्वेऽपि कूटाः प्रत्येकं पञ्चपञ्चयोजनशतान्युच्चस्त्वेन, पञ्चविंशं पञ्चविंशं योजनशतमवगाहेन, मूले पञ्चपञ्चयोजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्याम्, मध्ये त्रीणि त्रीणि योजनशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि ३७५, उपर्यर्धतृतीयान्यर्धतृतीयानि योजनशतानि २५०, मूले प्रत्येकमेतेषां परिधिः पञ्चदश योजनशतानि एकाशीत्यधिकानि १५८१, मध्ये एकादश योजनशतानि षडशीत्यधिकानि किञ्चिदूनानि ११८६, उपरि सप्त शतानि एकनवत्यधिकानि किञ्चिद्भूनानि ७९१, मूले विस्तीर्णा मध्ये संक्षिप्ता उपरि तनुका गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः सर्वरत्नमयाः प्रत्येकमेकैकया पद्मवरवेदिकया एकैकेन च वनखण्डेन परिक्षिप्ताः । एकैकस्य च दिग्घस्तिकूटस्योपरि बहुमध्यदेशभागे एकैकः प्रासादावतंसकः, ते च प्रासादावतंसकाः प्रत्येकं सार्धानि द्वाषष्टियोजनान्यायामविष्कम्भाभ्याम्, सक्रोशान्येकत्रिंशद्योजनान्युच्चस्त्वेन सर्वरत्नमया नानामणिमयस्तम्भशतसन्निविष्टाः । तेषु मध्ये स्वस्वाधिपतिदेवयोग्य सपरिवारं सिंहासनम् । सम्प्रत्यमीषां दिग्घस्तिकूटानां नामान्याह-पउमोत्तर इत्यादि, अत्र एतेषु दिग्घस्तिकूटेषु मध्ये प्रथमो दिग्घस्तिकूटः पद्मोत्तरनामा, स च मन्दरपर्वतस्योत्तरपूर्वस्यां दिशि पूर्वाभिमुखं गच्छन्त्याः शीताया महानद्या उत्तरतः तस्याधिपतिः पद्मोत्तरनामा देवः स पल्योपमस्थितिको विजयदेव इव महर्द्धिकः, तस्य राजधानी मेरोरुत्तरपूर्वस्यां दिशि तिर्यगसङ्ख्यातान् द्वीपसमुद्रानतिक्रम्यापरस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वादशयोजनसहस्राण्यवगाह्य परतो यथास्थानं वेदितव्या। ततस्तदनन्तरं प्रदक्षिणाक्रमेण द्वितीयो नीलवन्नामा दिग्घस्तिकूटः, स च मेरोदक्षिणपूर्वस्यां पूर्वाभिमुखं गच्छन्त्याः शीताया महानद्या दक्षिणतः, तस्याधिपतिर्नीलवन्नामा देवः, स च पद्मोत्तर इव महर्द्धिको
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१२१ वेदितव्यः, नवरमेतस्य राजधानी मेरोदक्षिणपूर्वस्यामपरस्मिन् जम्बूद्वीपे । तृतीयः सुहस्तिनामा दिग्घस्तिकूटः, स च मन्दरपर्वतस्य दक्षिणपूर्वस्यां शीतोदाया महानद्याः पूर्वतः, तस्याधिपतिः सुहस्तिनामा देवः, सोऽपि पद्मोत्तर इव महर्द्धिकः, अस्यापि राजधानी मेरोर्दक्षिणपूर्वतोऽपरस्मिन् जम्बूद्वीपे । चतुर्थो दिग्घस्तिकूटोऽञ्जनगिरिः, स च मेरोदक्षिणापरस्यां दिशि शीतोदाया महानद्या अपरतः तस्याधिपतिरञ्जननामा देवः, सोऽपि पद्मोत्तरदेव इव महाविभूतिसंपन्नः, तस्य राजधानी मेरोरपरदक्षिणतोऽपरस्मिन् जम्बूद्वीपे । पञ्चमः कुमुदनामा दिग्घस्तिकूटः, सोऽपि मेरोदक्षिणापरस्यां दिशि पश्चिमाभिमुखं गच्छन्त्याः शीतोदाया दक्षिणतः, तस्याधिपतिः कुमुदनामा देवः, सोऽपि पद्मोत्तर इव महर्द्धिकः, राजधानी तस्यापि मेरोदक्षिणापरतोऽपरस्मिन् जम्बूद्वीपे । षष्ठः पलाशनामा दिग्घस्तिकूटः, स च मेरोरुत्तरापरस्यां दिशि पश्चिमाभिमुखं गच्छन्त्याः शीतोदाया उत्तरतः, तस्याधिपतिः पलाशनामा देवः, सोऽपि पद्मोत्तरदेववन्महर्द्धिकः, तस्य राजधानी मेरोरपरोत्तरतोऽपरस्मिन् जम्बूद्वीपे । सप्तमोऽवतंसकनामा दिग्घस्तिकूटः, सोऽपि मन्दरपर्वतस्योत्तरापरदिशि शीताया महानद्या अपरतः, तस्याधिपतिरवतंसकनामा देवः, राजधानी तस्यापि मेरोरुत्तरापरतोऽपरस्मिन् जम्बूद्वीपे । अष्टमो रोचनगिरिनामा दिग्घस्तिकूटः, स च मन्दरपर्वतस्योत्तरपूर्वस्यां दक्षिणाभिमुखं गच्छन्त्याः शीताया महानद्याः पूर्वतः, तस्याधिपतिर्देवो रोचनगिरिनामा, सोऽपि पद्मोत्तरदेव इव महर्द्धिकः, राजधानी तस्य मेरोरुत्तरपूर्वतोऽपरस्मिन् जम्बूद्वीपे ॥३२५-३२६॥"- बृहत्क्षेत्र० मलय०।
[पृ०७६०] “अथ कस्मिन्समये को योगः समुद्घातकाले भवतीत्याह- औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥२७६॥ टीका- प्रथमेऽष्टमे च समये औदारिक एव योगो भवति शरीरस्थत्वात् । कपाटोपसंहरणे सप्तमः । मन्थसंहरणे षष्ठः । कपाटकरणे द्वितीयः । एतेषु त्रिष्वपि समयेषु कार्मणव्यतिमिश्र औदारिकयोगो भवति ।। कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥२७७।। मन्थान्तरपूरणसमयश्चतुर्थः । मन्थान्तरसंहरणसमयः पञ्चमः । मन्थानकरणसमयस्तृतीयः । समयत्रयेऽप्यस्मिन् कार्मणशरीरयोगः । तत्र च नियमेनैव जीवो भवत्यनाहारकः ॥२७६-२७७॥" - प्रशम० ।
[पृ०७६२] “सम्प्रत्येषामेव पिशाचादिनिकायानां चिह्नान्याह- चिंधाई कलंब ज्झए सुलसवडे तहय होइ खटुंगे । असोय चंपए वि य नागे तह तुंबरू चेव ॥६१॥ व्या० क्रमेणामूनि पिशाचादीनां चिह्नानि, तद्यथा- पिशाचानां ध्वजे कदम्बः कदम्बवृक्षचिह्नम् । भूतानां सुलसो वनस्पतिविशेषः । यक्षाणां वटवृक्षः । राक्षसानां खट्वाङ्गः । किन्नराणामशोकवृक्षः। किंपुरुषाणां चम्पकतरुः । महोरगाणां नागवृक्षः । गन्धर्वाणां तुम्बरुनामा तरुरिति ॥६१॥"- बृहत्सं० मलय०।
[पृ० ७६६] “साम्प्रतं मितं व्याख्यानयति- अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुजा दवस्स दो भागे । वाऊपरियारणट्ठा छन्भायं ऊणयं कुज्जा ॥६५०।। इह किल सर्वमुदरं षड्भिर्भागैर्विभज्यते, तत्र चार्ट्स भागत्रयरूपमशनस्य सव्यञ्जनस्य, तत्र शाकादिसहितस्याधारं कुर्यात्, तथा द्वौ भागौ द्रवस्यपानीयस्य, षष्ठं तु भागं वायुप्रविचारणार्थम् ऊनं कुर्यात् ॥६५०॥" - पिण्डनि० क्षमारत्न० ॥
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२३
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
[पृ०७७५] "सेसा उ दंडनीई माणवगनिहीओ होति भरहस्स । उसभस्स गिहावासे असक्कओ आसि आहारो ॥१६९॥ गमनिका- शेषा तु दण्डनीतिः माणवकनिधेर्भवति भरतस्य, वर्तमानक्रियाभिधानम् इह क्षेत्रे सर्वावसर्पिणीस्थितिप्रदर्शनार्थम्, अन्यास्वप्यतीतासु एष्यासु चावसर्पिणीषु अयमेव न्यायः प्रायो नीत्युत्पाद इति, तस्य च भरतस्य पिता ऋषभनाथः, तस्य च ऋषभस्य गृहवासे असंस्कृत आसीदाहार:- स्वभावसंपन्न एवेति, तस्य हि देवेन्द्रादेशाद्देवाः देवकुरूत्तरकुरुक्षेत्रयोः स्वादूनि फलानि क्षीरोदाच्चोदकमुपनीतवन्त इति गाथार्थः ॥१६९॥" - आव० हारि० ।
[पृ०७७६] “एगेण चेव तवओ पूरिजइ पूअएण जो ताओ । बीओ वि स पुण कप्पड़ निव्विगइअ लेवडो नवरं ॥३७७॥ व्या० एकेनैव तवकः पूर्यते पूपकेन यत् तत: पूपकाद् द्वितीयोऽपि निर्विकृतिकस्य कल्पते, असौ लेवाटको नवरमिति गाथार्थः ॥३७७॥" - पञ्चवस्तुकटीका।
[पृ०७७९] “ननु यदि साधुराधाकर्म न करोति न कारयति नानुमोदते तस्य को दोषः ? इति चेदाह- कामं सयं न कुव्वइ जाणतो पुण तहावि तग्गाही । वड्ढेइ तप्पसंग अगिण्हमाणो उ वारेइ ॥१११॥ कामं सम्मतमेतत्, यद्यपि स्वयं न करोति उपलक्षणत्वान्न कारयति नानुमोदते, तथापि पुनर्जानन् तद्ग्राही आधाकर्मग्राही तत्प्रसङ्गमाधाकर्मग्रहणप्रसङ्गं वर्धयति, यथाऽन्ये साधवो जानन्ति यदनेन साधुना जानताप्याधाकर्म आददे ततो न कोऽपीति(पि) दोष इति प्रसङ्गः, तुः पुनरगृह्णन् प्रसङ्ग निवारयति ॥१११॥" - पिण्डनियुक्ति० क्षमारत्न० ॥
“सा नवहा दुह कीरइ उग्गमकोडी विसोहिकोडी अ । छसु पढमा ओयरइ कीयतियम्मी विसोही उ ॥२४१॥ व्या० सा नवधा स्थिता पिण्डैषणा द्विविधा क्रियते- उद्गमकोटी विशोधिकोटी च, तत्र षट्सु हननघातनानुमोदनपचनपाचनानुमोदनेषु प्रथमा उद्गमकोटी अविशोधिकोट्यवतरति, क्रीतत्रितये क्रयणक्रापणानुमतिरूपे विशोधिस्तु विशोधिकोटी द्वितीयेति गाथार्थः ॥"- दशवै० हारि०॥
[पृ०७८०] “सम्प्रति वैमानिकदेवीनां जघन्योत्कृष्टस्थितिप्रतिपादनार्थमाह- सपरिग्गहेयराणं सोहम्मीसाण पलिय साहीयं । उक्कोस सत्त पन्ना नव पणपन्ना य देवीणं ॥१७॥ व्या० इह वैमानिकदेवीनामुत्पत्तिः सौधर्मकल्पे ईशानकल्पे च । ताश्च द्विधा परिगृहीता अपरिगृहीताश्च । परिगृहीताः कुलभार्याकल्पाः, अपरिगृहीता गणिकासमानाः । तत्र सपरिग्रहाणां परिगृहीतानामितरासामपरिगृहीतानां जघन्या स्थितिः सौधर्मे कल्पे ईशाने कल्पे च यथासङ्ख्यं पल्यं पल्योपमं साधिकं च । किमुक्तं भवति ? सौधर्मे कल्पे परिगृहीतानामपरिगृहीतानां च देवीनां जघन्यमायुः पल्योपमम्, ईशाने कल्पे परिगृहीतानामपरिगृहीतानां च देवीनां साधिकं पल्योपममिति। तथा सौधर्मे कल्पे परिगृहीतानामपरिगृहीतानां चोत्कृष्टमायुर्यथाक्रमं सप्त पञ्चाशच्च पल्योपमानि, ईशाने कल्पे परिगृहीतानामपरिगृहीतानां च नव पञ्चपञ्चाशच्च, इयमत्र भावना- सौधर्मे कल्पे परिगृहीतानामुत्कृष्टमायुः सप्त पल्योपमानि, अपरिगृहीतानां पञ्चाशत्पल्योपमानि, ईशाने कल्पे परिगृहीतानामुत्कृष्टमायुः नव पल्योपमानि, अपरिगृहीतानां पञ्चपञ्चाशदिति ॥१७॥" - बृहत्संग्रहणी० मलय० ।
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१२३ [पृ०७८५ पं०१२] 'श्रूयते च वज्रान्तं गणितमिति ।' गणितग्रन्थेषु वज्रशब्दो नोपलभ्यते, अतोऽत्र टीकाकृतां वज्रशब्देन किमभिप्रेतमिति न ज्ञायते ।'
[पृ०८०३] ‘अथैतद्विवरणायाह- सच्चित्तं जमचित्तं साहूणट्ठाए कीरए जं च । अचित्तमेव पच्चति आहाकम्मं तयं भणियं ॥१३/७॥ व्या० सचित्तं विद्यमानचैतन्यं सत् फलबीजादि । यदचित्तमचेतनम् । साधूनामर्थाय हेतवे । क्रियते विधीयते । तथा यत् । चशब्दो लक्षणान्तरसमुच्चयार्थः। अचित्तमेवाचेतनमपि सत्तण्डुलादि । पच्यते राध्यते । साधूनामर्थायेति प्रकृतम्। आधाकर्मोक्तनिर्वचनम् । तकत् तत् । भणितमुक्तं जिनादिभिः । यद्यपि सचित्तस्य पृथिव्यादेरचित्तीकरणेन यत् क्रियते गृह-वस्त्रादि, तदपि आधाकर्मोच्यते, तथापीह तन्नोक्तं पिण्डस्यैवाधिकृतत्वात् । इति गाथार्थः ॥१३/७||
उद्देसिय साहुमाई ओमच्चए भिक्खवियरणं जं च । उव्वरीयं मीसेउं तविउ उद्देसियं तं तु ॥१३/८॥ व्या० उद्दिश्य वचनेनोच्चार्य । साध्वादीन् निर्ग्रन्थशाक्यादीन् । अवमात्यये दुर्भिक्षापगमे। उपलक्षणमात्रमेतत्, तेन कालान्तरेऽपि । भिक्षावितरणं प्राभृतिकादानं क्रियते । यत् । तदौदेशिकमिति संबन्धः । इदं पुनरुद्देशमात्रविशेषितत्वेनोद्दिष्टौद्देशिकमुच्यते। इह च यद्यपि भिक्षावितरणमौद्देशिकमित्युक्तम्, तथापि भिक्षातद्वितरणयोरभेदात् भिक्षाप्यौद्देशिकमुच्यते । एवमुत्तरभेदद्वयेऽपीति । उद्देशने च गृहस्थस्येयं प्रक्रिया- जीयामु किह वि ओमे निययं भिक्खा वि ता कइवि देमो । हंदि हु नत्थि अदिन्नं भुंज(भुज)इ अकयं न य फलेइ ॥१॥ [ ] जीयामो त्ति जीविताः स्मः । निययं ति नित्यम् । कइ त्ति पञ्चषाः। सा उ अविसेसिए च्चिय नियंमि भत्तंमि तंडुले बुहइ । पासंडीण गिहीण व जो एही तस्स भिक्खट्ठा ॥१॥ [ ] सा उ त्ति गृहस्थिका। अविसेसिए च्चिय त्ति एते स्वस्मै एते चार्थिभ्य इत्येवमविशिष्येति। एतावतैव चास्य मिश्राद्भेदः । इह च विवक्षितभिक्षासु दत्तासूद्धृतासु वा शेषं कल्पत इति । एतच्च पिण्डनियुक्त्याम् ओघौद्देशिकमुक्तम् । उद्दिष्टौद्देशिकं पुनरेवम्- महईए संखडीए उव्वरियं कूरवञ्जणाईयं । पउरं दद्दूण गिही भणइ इमं देह पुन्नट्ठा ॥१॥ [ ] एतस्य चाकल्पता साध्वाद्यर्थतया व्यवस्थापिते तत्र जीवघातसंभवात् । न चेदमेवं स्थापनान्तर्भावि ‘साहोहासियखीराइठावणे' त्यादिलक्षणत्वात्तस्या इति । आचार्येण चास्य स्थापनायाश्च न महान्विशेष इति विवक्षया ओघौद्देशिकमुद्दिष्टौद्देशिकतयाऽधीतमिति। तथा यच्चोद्वरितं प्रकरणोपयुक्तावशिष्टमोदनादि मिश्रयित्वा संयोज्य दध्यादिना व्यञ्जनेन तस्यैव वितरणं क्रियते तदौद्देशिकं केवलं पर्यायान्तरेण कृतं सद्दीयत इति कृत्वा कृतौदेशिकमिदमुच्यत इति । तथा यच्चेत्यनुवर्तते। तविउं ति अग्नौ तापयित्वा मोदकचूर्णादिगुडादिना मोदकबन्धनादितो यत्तस्यैव वितरणं क्रियते तदौद्देशिकं केवलम् । 'अचित्तमेव पच्चई' इत्येतल्लक्षणेनाधाकर्मणोद्देशतो युक्तमिति कृत्वा कर्मोद्देशिकमिदमुच्यत इति । एवंभूतं च विशेषं विहाय सामान्येनोपसंहरन्नाह- औद्देशिकं तदिति। तुशब्दः स्वगतभेदोपसंग्रहार्थः । भेदाश्चैवम्- उद्दिष्टौदेशिक-कृतौदेशिक-कर्मोद्देशिकानि प्रत्येक
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि चतुर्विधानि। आह च- उद्देसियं समुद्देसियं च आएसियं समाएसं । एवं कडे य कम्मे एक्कक्के चउब्विहो भेओ ॥१॥ जावंतियमुद्देसं पासंडीणं भवे समुद्देसं । समणाणं आएसं निग्गंथाणं समाएसं ॥२॥ [ ] इति गाथार्थः ॥१३/८॥" - पञ्चाश० अभय० टीका ।
[पृ०८०४] “कम्मावयवसमेयं संभाविजति जयं तु तं पूयं । पढम चिय गिहिसंजयमीसोवक्खडाइ मीसं तु ॥१३/९॥ व्या० कर्मेत्याधाकर्म । उपलक्षणं चैतत् । तेनाधाकर्मादिकोद्गमकोटी गृह्यते । सा चेयम्- 'आहाकम्मुद्देसिय चरिमतियं पुई मीसजाए य । बायर पाहुडिया वि य अज्झोयरए य चरिमदुए ॥१॥' अतः कर्मावयवसमेतमुद्गमकाद्यंशसमन्वितम् । संभाव्यते संभवतीत्येवमवसीयते । यकत्तु यत्पुनः भक्तादि । तत् पूति भवतीति । तच्चोपकरणपूति भक्तपानपूति चेति द्विधा । तत्रोपकरणपूति यदाधाकर्मादिना चुल्ली-स्थाली-दादिना संपृक्तम्, इतरत्तु प्रतीतमिति । तथा प्रथमत एवादित एवारभ्य गृहिसंयतयोर्मिश्रं साधारणमुपसंस्कृतं साधितं यत्तत्तथा, तदादिर्यस्य तद् गृहिसंयतमिश्रोपस्कृतादि । आदिशब्दाद् गृहियावदर्थिकमिश्र-गृहिपाखंडिमिश्रग्रहः । मिश्रं तु मिश्रजातं पुनः । इति गाथार्थः ॥९॥
णीयदुवारत्ताए (रन्धयारे) गवक्खकरणाइ पाउकरणं तु । दव्वाइएहिं किणणं साहूणट्ठाएँ कीयं तु ॥१३/११॥ व्या० नीचद्वारं निम्नमुखं सद्यदन्धकारमन्धकारोपेतत्वात्तत्तथा, तत्र नीचद्वारान्धकारे। उपलक्षणत्वादस्य प्रकारान्तरेणाप्यन्धकारवति गृह इति गम्यम् । यद् गवाक्षकरणादि वातायनरचनप्रभृतिकम् । साधवो हि भिक्षामचक्षुर्विषये न गृह्णन्तीति तेषां भिक्षाग्रहणाय प्रकाशार्थम् ।
आदिशब्दाद्दीप-मणिधरणादिपरिग्रहः । प्रादुष्करणं तु प्रादुष्करणं पुनस्तदुच्यते । इदं च द्विविधम्प्रकटकरणप्रकाशकरणभेदात् । तत्राद्यं गवाक्षादिना, द्वितीयं तु दीपादिनेति। तथा द्रव्यादिभिर्द्रव्यभावैः । किणणं ति क्रयणम् । साधूनां यतीनाम् । अर्थाय प्रयोजनाय । यत्तत्। क्रीतं तु पुनरुच्यते । क्रयणक्रीतयोरभेदात् । इदं च स्वपरद्रव्यस्वपरभावभेदाच्चतुर्धा । तत्र स्वद्रव्यं निर्माल्यगन्धगुटिकादि। परद्रव्यं च प्रतीतम् । स्वकीयभावो धर्मकथादिः । परभावश्च स एव अन्येन साधुभक्तेन मंखादिना प्रयुज्यमानः । इति गाथार्थः ॥१३/११॥
पामिच्चं जं साहूणट्ठा उच्छिंदिउं दियावेइ । पल्लट्टिउं च गोरवमाई परियट्टियं भणियं ॥१३/१२॥ व्या० अपमित्यकं तद्यत्साधूनां संयतानाम् अर्थानिमित्तात् । उच्छिद्य अन्यत उद्यतकं गृहीत्वा। दियावेइ त्ति ददातीति । तथा पल्लटिङ ति परिवर्त्य स्वकीयकोद्रवौदनादिसमर्पणेन परकीयशाल्योदनादि गृहीत्वा । च: समुच्चये । गोरवमाइ त्ति साधूनां गौरवम् । विधातुमिति शेषः । आदिशब्दात्स्वस्य लाघवं परिहर्तुम् । यद्ददातीत्यनुवर्तते। तत् परिवर्तितं नाम । भणितमुक्तं जिनैः । इति गाथार्थः ॥१३/१२॥
सग्गामपरग्गामा जमाणिउं आहडं तु तं होइ । छगणाइणोवलित्तं उब्भिंदिय जं तमुब्भिण्णं ॥१३/१३॥ व्या० स्वग्रामपरग्रामादिति समाहारद्वन्द्वः । उपलक्षणत्वाच्चास्य
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१२५ स्वदेशपाटकगृहादिपरिग्रहः । यदशनादि । आनीय साधुस्थानं प्राप्य । ददातीत्यनुवर्तते । आहडं तु तं होइ त्ति तत्पुनराहृतमभ्याहृतं भवति स्यादिति । तथा छगणादिना गोमयमृत्तिकाप्रभृतिनोपलिप्तम्। कोष्ठकादीति गम्यते । कपाटपिहिताश्चेदमुपलक्षणम् । उद्भिद्योद्घाट्य । यद् भक्तादि । ददातीति वर्तते। तद् भक्तादि । उद्भिन्नमित्युच्यते। कोष्ठिकाद्युद्भिन्नभाजनसंबन्धात् इति गाथार्थः ॥१३/१३॥ ____ मालोहडं तु भणियं जं मालादीहि देति घेत्तूणं । अच्छेजं चाछिंदिय जं सामी भिच्चमादीणं ॥१३/१४॥ व्या० मालापहृतं दोषविशेषः । तुः पुनरर्थः। भणितमुक्तमाप्तेन तत्। यद्भक्तादि । मालादिभ्यः, मालो मञ्चो गृहोपरिभागो वा । आदिशब्दात् सीककनागदन्तकादीनामूर्ध्वगतानाम्, गर्तादीनामधोगतानाम्, कुशूलकुम्भ्यादीनामुभयाश्रितव्यापाराणां करेण कष्टप्राप्यानां च तिर्यगाश्रितानां परिग्रहः । ददाति प्रयच्छति । गृहीत्वा आदायेति । तथा आच्छेद्यं चाच्छेद्याख्यः पुनर्दोषः । आच्छिद्यापहत्य। यद्भक्तादि । स्वामी प्रभुः । भृत्यादीनां कर्मकरादीनां सत्कं ददाति तदिति । इदं च नायकनृपचौरभेदात्रिविधम्। इति गाथार्थः ॥१३/१४॥ ___ अणिसिटुं सामण्णं गोट्ठिगभत्तादि ददउ एगस्स । सट्ठा मूलद्दहणे अज्झोयर होइ पक्खेवो ॥१३/१५॥ व्या० अनिसृष्टमनिसृष्टसंज्ञो दोषो भवति । सामान्यमनेकस्वामिसाधारणम् । गोष्ठिकभक्तादि समुदायभोजनादि । आदिशब्दात् श्रेणिभक्तादिग्रहः । ददतो यच्छतः । एकस्य गोष्ठिकादेः, शेषैरननुज्ञातस्येति। तथा स्वार्थमात्मार्थं गृहिनिमित्तमित्यर्थः। मूलाद्रहणे प्रसिद्धे कृते सति । प्रक्षेपः स्थाल्यां साध्वाद्यर्थमधिककणक्षेपणम् । अध्यवपूरकोऽध्यवपूरकाख्यो दोषो भवतीति गाथार्थः ॥१३/१५॥" - पञ्चाश० अभय० ।
[पृ०८०५] “अथ प्रतिक्रमणद्वारमाह- सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स इ पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं ॥६४२५।। सप्रतिक्रमण: उभयकालं षड्विधावश्यककरणयुक्तो धर्मः पूर्वस्य पश्चिमस्य च जिनस्य तीर्थे भवति, तत्तीर्थसाधूनां प्रमादबहुलत्वात् शठत्वाच्च । मध्यमानां तु जिनानां तीर्थे कारणजाते तथाविधेऽपराधे उत्पन्ने सति प्रतिक्रमणं भवति, तत्तीर्थसाधूनामशठत्वात् प्रमादरहितत्वाच्च ॥६४२५॥" - बृहत्कल्पटीका । ___ “इत्थं चालोचनादिप्रकारेणोभयकालं नियमत एव प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थे सातिचारेण निरतिचारेण वा साधुना शुद्धिः कर्तव्या, मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु पुन:वम्, किन्त्वतिचारवत एव शुद्धिः क्रियत इति, आह च- सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिक्कमणं ॥१२४४।। व्या० सप्रतिक्रमणो धर्मः पुरिमस्य च पश्चिमस्य च जिनस्य, तत्तीर्थसाधुना ईर्यापथागतेनोच्चारादिविवेके उभयकालं चापराधो भवतु मा वा नियमतः प्रतिक्रान्तव्यम्, शठत्वात्प्रमादबहुलत्वाच्च, एतेष्वेव स्थानेषु मध्यमानां जिनानाम् अजितादीनां पार्श्वपर्यन्तानां कारणजाते अपराध एवोत्पन्ने सति प्रतिक्रमणं भवति, अशठत्वात्प्रमादरहितत्वाच्चेति गाथार्थः ।।१२४४।।" - आव० हारि० ।
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२६
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि पं०६] यथा जलमवगाहमानो बहुचेलोऽपि शिरोवेष्टितकटिकः भण्यते नरोऽचेलस्तथा मुनयः सचेला अपि ॥२६००॥ - इति संस्कृते छाया ।
“इदमेवौपचारिकमचेलत्वं भावयति- परिसुद्ध जुण्ण कुच्छिय थोवाऽनिययन्नभोगभोगेहिं। मुणओ मुच्छारहिया संतेहिं अचेलया होंति ॥२५९९॥ मुनयः साधवो मूर्छारहिताः सद्भिरपि चेलैरुपचारतोऽचेलका भवन्ति । कथंभूतैश्चेलैः ? इत्याह- परिसुद्ध त्ति लुप्तविभक्तिदर्शनात् परिशुद्धैरेषणीयैः, तथा जीर्णैर्बहुदिवसैः, कुत्सितैरसारैः, स्तोकैर्गणनाप्रमाणतो हीनैस्तुच्छै;; अनिययनभोगभोगेहिं ति अनियतभोगेन कादाचित्कासेवनेन भोग: परिभोगो येषां तानि तथा तैः। एवंभूतैश्चेलैः सद्भिरप्युपचारतोऽचेलका मुनयो भण्यन्ते । तथा, अन्नभोगभोगेहिं ति एवमपि योज्यते। ततश्च लोकरूढप्रकारान्यप्रकारेण भोग आसेवनम्, प्रकारलक्षणस्य मध्यपदस्य लोपात्, अन्यभोगस्तेनान्यभोगेन भोगः परिभोगो येषां तानि तथा तैरप्येवंभूतैश्चेलैरचेलकत्वं लोके प्रसिद्धमेव, यथा कटीवस्त्रेण वेष्टितशिरसो जलावगाढपुरुषस्य । साधोरपि कच्छाबन्धाभावात्, कूर्पराभ्यामग्रभाग एव चोलपट्टकस्य धरणात्, मस्तकस्योपरि प्रावरणाद्यभावाच्च लोकरूढप्रकारादन्यप्रकारेण चेलभोगो द्रष्टव्यः । तदेवं परिसुद्ध-जुण्ण-कुच्छिय इत्यादिविशेषणविशिष्टैः सद्भिरपि चेलैस्तथाविधवस्त्रकार्याकरणात् तेषु मूर्छाऽभावाच्च मुनयोऽचेलका व्यपदिश्यन्त इतीह तात्पर्यम् ॥२५९९॥
तदेवं कषायहेतुत्वादग्राह्यं वस्त्रादिकमित्येतद् निराकृतम् । अथ मूर्छाहेतुत्वेन तत् परिहरणीयमित्येतदपाकर्तुमाह- अह कुणसि थुलवत्थाइएसु मुच्छ धुवं सरीरे वि। अक्केजदुल्लभयरे काहिसि मुच्छं विसेसेणं ॥२५६४।। वत्थाइगंथरहिया देहा-ऽऽहाराइमित्तमुच्छाए। तिरियसबरादओ नणु हवंति निरओवगा बहुसो ॥२५६५॥ अपरिग्गहा वि परसंतिएसु मुच्छाकसाय-दोसेहिं । अविणिग्गहियप्पाणो कम्ममलमणंतमजंति ॥२५६६॥ देहत्थवत्थ-मल्लाऽणुलेवणा-ऽऽभरणधारिणो केइ । उवसग्गाइसु मुणओ निस्संगा केवलमुविंति ॥२५६७।। अथ स्थूलेषु बाह्यत्वात्, क्षणमात्रेणैवाग्नि-तस्करायुपद्रवगम्यत्वात्, सुलभत्वात्, कतिपयदिनान्ते स्वयमेव विनाशधर्मकत्वात् शरीराद् नितरां निःसारेषु वस्त्रादिषु मूर्छा करोषि त्वम्, तर्हि ध्रुवं निश्चितं शरीरेऽपि विशेषतो मूर्छा करिष्यसि। कुतो विशेषेण तत्र तत्करणमित्याह- अक्केजदुल्लभयरे त्ति विभक्तिव्यत्ययात् शरीरस्याक्रय्यत्वात् क्रयेणालभ्यत्वात् । न हि वस्त्रादिवत् शरीरं क्रयेण क्वापि लभ्यते । अत एव वस्त्राद्यपेक्षया दुर्लभतरत्वात्, तथा, तदपेक्षयैवान्तरङ्गत्वात्, बहुतरदिनावस्थायित्वात्, विशिष्टतरकार्यसाधकत्वाच्च विशेषेण शरीरे मूर्छा करिष्यसीति । अथ देहादिमात्रे या मूर्छा सा स्वल्पैव, वस्त्रादिग्रन्थमूर्छा तु बह्वी, ततो देहादिमात्रमूर्छासंभवेऽपि नग्नश्रमणकाः सेत्स्यन्ति, न भवन्तः, बहुपरिग्रहत्वादित्याह- वत्थाइ इत्यादि गाथात्रयम् । अयमिह संक्षेपार्थः- तिर्यक्शबरादयोऽल्पपरिग्रहा अपि, तथा शेषमनुष्या अपि महादारिद्र्योपहताः क्लिष्टमनसोऽविद्यमानतथाविधपरिग्रहा अप्यनिविगृहीतात्मानो लोभादिकषायवर्गवशीकृताः परसत्केष्वपि विभवेषु
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१२७ मूर्छाकषायादिदोषैः कमलमनन्तमर्जयन्ति, तद् बहुशो निरयोपगा भवन्ति, न मोक्षप्रापकाः। अन्ये तु महामुनयः केनचिदुपसर्गादिबुद्ध्या शरीरासञ्जितमहामूल्यवस्त्रा-ऽऽभरण-माल्य-विलेपनादिसंयुक्ता अपि सर्वसङ्गविनिर्मुक्ता निगृहीतात्मानो जितलोभादिकषायरिपवः समासादितविमलकेवलालोकाः सिद्धिमुपगच्छन्ति । तस्मादवश्यात्मनां क्लिष्टमनसां नाग्न्यमात्रमिदमकिञ्चित्करमेवेति ॥२५६२-२५६७।।
किञ्च, यदि तीर्थकरवेष-चरितानुष्ठानवर्ती भवान्, तर्हि किं सर्वथा तैः सह वेष-चरिताभ्यां साधर्म्यं भवतः, उत देशतः ?। यद्याद्यः पक्षः, तर्हि यत् ते कुर्वन्ति, तत् सर्वमपि भवता कर्तव्यं प्राप्नोति; किं पुनस्तत् ? इत्याह- ‘न परोवएसवसया न य छउमत्था परोवएस पि । दिति, न य सीसवग्गं दिक्खंति जिणा जहा सव्वे ॥ तह सेसेहि वि सव्वं कज्जं जइ तेहिं सव्वसाहम्म। एवं च कओ तित्थं न चेदचेलो त्ति को गाहो ? ॥२५८८-८९॥ यदि तैर्जिनैस्तीर्थकरैः सह लिङ्ग-चरिताभ्यां सर्वसाधर्म्यम्, तर्हि यथा ते स्वयंबुद्धत्वाद् न परोपदेशवशगा:न परोपदेशेन वर्तन्ते, न च च्छद्मस्थावस्थायां प्रतिबोधार्थं परस्याप्युपदेशं ददति, न च शिष्यवर्ग दीक्षन्ते; तथा शेषैरपि तच्छिष्य-प्रशिष्यैः सर्वमेतत् त्वदभिप्रायेण कार्यं करणीयं प्राप्नोति । भवत्वेवं तर्हि, को दोषः ? इति चेत् । इत्याह- एवं च सति कुतस्तीर्थम्, कस्यापि प्रतिबोधाभावाद् दीक्षाद्यभावाच्च ?। न चेदिति अथ न तैः सह सर्वसाधर्म्यमित्युच्यते, तर्हि 'अचेलो भवाम्यहम्' इति कस्तव ग्रहः?, अचिन्त्यत्वात् तच्चरितस्येति ॥२५८८-८९॥” - विशेषाव० मलधारि०॥
पृ०८०६] “तणगहणानलसेवानिवारणा धम्मसुक्कझाणट्ठा । दिहें कप्पग्गहणं गिलाणमरणट्ठया चेव ॥८१३॥ तृणग्रहणानलसेवानिवारणार्थं तथाविधसंहननिनाम्, तथा धर्मशुक्लध्यानार्थं समाध्यापादनेन, दृष्टं कल्पग्रहणं जिनैः, ग्लानमरणार्थं चैव ग्लानमृतप्रच्छादनार्थमिति गाथार्थः ॥१३॥" - पञ्चवस्तुकटीका।
“इदानीं तत्प्रयोजनप्रतिपादनायाह- तणगहणानलसेवानिवारणा धम्मसुक्कझाणट्ठा। दिटुं कप्पग्गहणं गिलाणमरणट्ठया चेव ॥१०५९॥ वृ० तृणग्रहणनिवारणार्थं गृह्यन्ते, अनलःअग्निस्तत्सेवानिवारणार्थं च, एतदुक्तं भवति कल्पाग्रहणे तृणग्रहणमग्निसेवनं च भवति, तन्निवारणार्थं कल्पग्रहणं क्रियते, तथा धर्मशुक्लध्यानार्थं कल्पग्रहणं भवति, एतदुक्तं भवति-शीतादिना बाध्यमानो धर्मशुक्ले ध्याने ध्यातुमसमर्थो भवति यदि कल्पान्न गृह्णाति, अत एवमर्थं दृष्टं कल्पग्रहणम्, तथा ग्लानसंरक्षणार्थं मरणार्थं मृतस्योपरि दीयते कल्पः, एतदर्थं च ग्रहणमिति ॥१०५९।।" - ओघनि० द्रोणा० ॥
“अथ शय्यातरपिण्डद्वारमाह- तित्थंकरपडिकुट्ठो, आणा अण्णात उग्गमो ण सुज्झे । अविमुत्ति अलाघवता, दुल्लभ सेज्जा विउच्छेदो ॥६३७८॥ आद्यन्तवजैर्मध्यमैर्विदेहजैश्च तीर्थकरैराधाकर्म कथञ्चिद् भोक्तुमनुज्ञातं न पुनः शय्यातरपिण्डः अतस्तैः प्रतिक्रुष्ट इति कृत्वा वर्जनीयोऽयम् । आण त्ति तं गृह्णता तीर्थकृतामाज्ञा कृता न भवति । अण्णाय त्ति यत्र स्थितस्तत्रैव
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
भिक्षां गृह्णता अज्ञातोञ्छं सेवितं न स्यात् । उग्गमो न सुज्झे त्ति आसन्नादिभावतः पुनः पुनस्तत्रैव भिक्षा-पानकादिनिमित्तं प्रविशत उद्गमदोषा न शुध्येयुः । स्वाध्यायश्रवणादिना च प्रीतः शय्यातरः क्षीरादि स्निग्धद्रव्यं ददाति, तच्च गृह्णता अविमुक्तिः गााभावो न कृतः स्यात् । शय्यातरतत्पुत्र-भ्रातृव्यादिभ्यो बहूपकरणं स्निग्धाहारं च गृह्णत उपकरण-शरीरयोर्लाघवं न स्यात् । तत्रैव चाहारादि गृह्णतः शय्यातरवैमनस्यादिकरणात् शय्या दुर्लभा स्यात्, सर्वथा तद्व्यवच्छेदो वा स्यात् । अतस्तत्पिण्डो वर्जनीयः ॥६३७८।। ___ अथ के दोषाः ?' इति द्वारमाह- तित्थंकरपडिकुट्ठो, आणा अण्णाय उग्गमो ण सुज्झे। अविमुत्ति अलाघवता, दुल्लभ सेजा य वोच्छेदो ॥३५४०॥ तीर्थकरैः प्रतिक्रुष्टः निषिद्धः शय्यातरपिण्डोऽतस्तं गृह्णता तेषामाज्ञा न कृता भवति । अन्नाय त्ति अज्ञातोञ्छम् आसन्ननिवासवशाद् ज्ञातस्वरूपतया न शुध्यति । प्रत्यासन्नतया तत्रैव पुनः पुनः भैक्ष-पानादिनिमित्तं प्रविशत उद्गमोऽपि न शुध्यति । अविमुक्तिर्नाम स्वाध्यायश्रवणादिना आवर्जितः शय्यातरो दुग्ध-दध्यादि प्रणीतद्रव्यं ददाति, तद्ग्रहणलोलुपतया तद्गृहं न विमुञ्चति । 'अलाघवता तु' विशिष्टाहारलाभेन उपचितगलकपोलतया शरीरलाघवं प्रचुरवस्त्रादिलाभेन उपकरणलाघवं च न भवेत् । दुर्लभा च शय्या भवति, येन किल शय्या दत्ता तेनाहाराद्यपि देयमिति भयाद् भूयः शय्यामगारिणो न प्रयच्छन्तीति भावः। व्यवच्छेदश्च विनाशः शय्यायाः क्रियेत, अथवा भक्त-पानादिप्रतिषेध इह व्यवच्छेदशब्देनोच्यते। एष नियुक्तिगाथासमासार्थः ॥३५४०॥" - बृहत्कल्पटीका ।
[पृ०८१६ पं०१२] गोविन्दवाचकस्य कथा- “गोविंदवायगोऽवि य जह परपक्खं नियत्तेइ ॥८२॥ गोविंदेत्यादि गाथादलम्, अनेन चरणकरणानुयोगमप्यधिकृत्य सूचितमवगन्तव्यम्, आद्यन्तग्रहेण तन्मध्यपतितस्य तद्ग्रहणेनैव ग्रहणात्, तत्र चरणकरणे ‘णो किंचि य पडिलोमं कायव्वं भवभएण मण्णेसिं । अविणीयसिक्खगाण उ जयणाइ जहोचिअं कुज्जा ॥१॥' द्रव्यानुयोगे तु गोपेन्द्रवाचकोऽपि च यथा परपक्षं निवर्तयतीत्यर्थः। सो य किर तच्चण्णिओ आसि, विणासणणिमित्तं पव्वइओ, पच्छा भावो जाओ, महावादी जात इत्यर्थः ।" - दशवै० हारि० ।
[पं० १२] गोविन्दवाचकस्य कथा- “गोविंदऽजो णाणे, दंसणसत्थट्ठहेतुगट्ठा वा । पावादिय उव्वरगा, उदायिवहगातिया चरणे ॥३६५६ ॥ गोविंदो णाम भिक्खू । सो एगेणायरिएण वादे जितो अट्ठारस वारा । ततो तेण चिंतियं सिद्धंतसरूवं जाव एतेसिं ण लब्भति ताहे ते जेतुं न सक्रेतो, ताहे सो णाणावरणहरणट्ठा तस्सेवायरियस्स अंते णिक्खंतो । तस्स य सामाइयादि पढेंतस्स सुद्धं सम्मत्तं। ___ ततो गुरु वंदित्ता भणति-देहि मे वते । णणु दत्ताणि ते वताणि । तेण सब्भावो कहितो । ताहे गुरुणा दत्ताणि से वयाणि । पच्छा तेण एगिदियजीवसाहणं गोविंदणिज्जुत्ती कया । एस णाणतेणो।
एवं दंसणपभावगसत्थट्ठा कक्कडगमादिहेतुगट्ठा वा जो णिक्खमति सो दंसणतेणो ।
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१२९
जो एवं च करणट्ठा चरणट्ठा चरणं गेण्हति, भंडिओ वा गंतुकामो, जहा वा रण्णो वहणट्ठा उदायिमारगेण चरणं गहियं । आदिसद्दातो “मधुरकोण्डइला” एते सव्वे चरित्ततेणा ॥३६५६॥ - निशीथ० चूर्णिः ।
बाहिरठवणावलिओ, परपच्चयकारणाओ आयारे । महुराहरणं तु तहिं, भावे गोविंदपव्वजा ॥६२५५॥ आयारतेणे मथुरा कोंडयइल्ला उदाहरणं ते भावसुण्णा । परप्पईतिणिमित्तं बाहिरकिरियासु सुट्ठ उज्जता जे ते आयारतेणा । भावतेणो जहा गोविंदवायगो वादे णिज्जिओ सिद्धतहरणट्टयाए पव्वजमब्भुवगतो, पच्छा सम्मत्तं पडिवण्णो । - निशीथ० चूर्णिः । - [पं० १३] सुन्दरीनन्दस्य कथा- “नासिक्कसुंदरीनंदि त्ति, नासिक्कं नगरं, नंदो वाणियगो, सुंदरी से भज्जा, सा तस्स अतीव वल्लहा, खणमवि तस्स पासं न मुंचइ त्ति लोगेण सुंदरीनंदो त्ति तस्स नामं कयं, तस्स भाया पव्वइतो, सो सुणेइ, जहा सो तीए अतीव अज्झोववन्नो, मा नरगं जाइ त्ति तस्स पडिबोहणनिमित्तं पाहुणो आगतो, पडिलाभितो, भाणं तेण गाहियं, अप्पणा समं चालितो, सो जाणइ-एत्थ विसज्जेहि एत्थ विसज्जेहि इति, उज्जाणं नीतो, लोगेण य भायणहत्थो दिट्ठो, ततो णं उवहसंति- पव्वइतो सुंदरीनंदो, तस्स उज्जाणं गयस्स साहुणा देसणा कया, उक्कडरागो त्ति न तीरइ मग्गे लाएउं, वेउब्वियलद्धिमं च भयवं साहू, ततोऽणेण चिंतियं-न अण्णो उवाओ त्ति अहिगतरेण उवलोभेमि, पच्छा मेरुं पयट्टावितो, न इच्छइ अ विओगतो, मुहुत्तेण आणामि, पडिस्सुयं, पयट्टा, मक्कडजुयलं विउव्वियं, अन्ने भणंति-सच्चगं चेव दिटुं, साहुणा भणितो-सुंदरीए वानरीए य का लट्ठयरी ?, सो भणइ-भयवं ! अघडती सरिसव-मेरूवम त्ति, पच्छा विज्जाहरमिहुणगं दिटुं, तत्थ वि पुच्छितो, भणइ-तुल्ला दो वि, पच्छा देवमिहुणगं दिटुं, तत्थवि पुच्छितो, भणतिभयवं ! एतीए अग्गतो वाणरी सुंदरित्ति, साहुणा भणियं-थोवेण धम्मेण एसा पाविज्जइ, ततो से उवगयं, पच्छा पव्वइतो, साहुस्स पारिणामिगा बुद्धी ।...- आवश्यक० मलय० पृ०५३३-४ ।
[पं० १३] भवदत्तस्य कथा- आचख्यौ प्रभुरप्येवं जम्बूद्वीपस्य भारते । मगधाख्ये जनपदे ग्रामे सुग्रामनामनि ॥२८७।। आर्यवान्राष्ट्रकूटोऽभूत्तस्य पत्नी तु रेवती । भवदत्तो भवदेवश्चाभूतां तनयौ तयोः ॥२८८।। [युग्मम्] भवदत्तो भवाम्भोधेरुत्तारणतरी दृढाम् । यौवनेऽप्याददे दीक्षां सुस्थिताचार्यसन्निधौ ॥२८९॥ स व्रतं पालयन् खड्गधारोग्रं श्रुतपारगः । व्यहरद् गुरुणा सार्धं द्वैतीयकीव तत्तनुः ॥२९०॥ तस्मिन्गच्छे साधुरेकोऽन्यदाऽऽचार्यान् व्यजिज्ञपत् । अनुजानीत मां यामि यत्र बन्धुजनोऽस्ति मे ।।२९१।। तत्रास्ति मे लघुभ्राता स भृशं स्नेहलो मयि । प्रव्रजिष्यति मां दृष्ट्वा प्रकृत्याऽग्रेऽपि भद्रकः ॥२९२।। ततस्तं श्रुतभृत्साधुसमेतं गुरुरादिशत् । परनिस्तारणपरे गुरुः शिष्ये हि मोदते ॥२९३॥ स जगाम पितुर्धाम गतमात्रो ददर्श च । भ्रातुरुद्वाहमारब्धं मन्मथद्रुमदोहदम् ।।२९४॥ विवाहकौतुकव्यग्रः स भ्राता कन्यसो मुनेः । विस्मृतान्यकरणीयो मुद्वातुलस्तदाऽभवत् ।।२९५|| विवाहसमये प्राप्तमजानन्निव सोऽग्रजम् । नाकार्षीत्स्वागतमपि व्रतादानकथाऽपि का ।।२९६।। विलक्षः स मुनिर्भूयोऽप्यागमत्सन्निधौ
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३०
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
गुरोः । आलोच्याकथयत्सर्वामनुजस्य कथां तथा ॥ २९७॥ भवदत्तोऽवददहो ! काठिन्यमनुजन्मनः । ज्यायांसं यदवाज्ञासीदृषिमभ्यागतं गृहे ॥२९८॥ गुरुभक्तेरपि श्रेयः किं नामोद्वाहकौतुकम् ? । तत्परित्यज्य सानन्दः स ज्येष्ठं नान्वियाय यत् ॥ २९९॥ कश्चिदूचे तदा साधुर्भवदत्तासि पण्डितः । यदि त्वमनुजन्मानं निजं प्रव्राजयिष्यसि ॥३०० || भवदत्तोऽब्रवीद् देशे मगधाख्ये गुरुर्यदि । विहरिष्यति तददः कौतुकं दर्शयिष्यते ॥३०१|| विहरन्तोऽन्यदा जग्मुर्मगधानेव सूरयः । समीरणवदेकत्र श्रमणानां स्थितिर्न हि ||३०२|| आचार्यपादान् वन्दित्वा भवदत्तो व्यजिज्ञपत् । स्वजनानित आसन्नान्दिदृक्षे युष्मदाज्ञया ॥३०३॥ भवदत्तं ततश्चैकमपि तत्राऽऽदिशद् गुरुः । एकाकिनोऽप्यर्हति हि विहारो वशिनो मुनेः ||| ३०४ ॥ भवदत्तो जगामाथ स्वेषां संसारिणां गृहे । प्रव्रज्याग्राहणेनानुग्रहीतुमनुजं निजम् ||३०५ || नागदत्तस्य तनयां वासुकीकुक्षिसम्भवाम् । उपयेमे भवदेवो भवदत्तानुजस्तदा ॥ ३०६ ॥ कृतोद्वाहोत्सवाः सर्वे बन्धवस्तं मुदाऽभ्ययुः । मन्यमाना उत्सवोपर्युत्सवं तत्समागमम् ||३०७ || सद्यः पाद्येन तत्पादौ प्रक्षाल्य प्रासुकेन ते । पादोदकमवन्दन्त मत्वा तीर्थोदकाधिकम् ||३०८|| भवाब्धिमज्जनभयादवलम्बमिवेच्छवः। लगित्वा पादयोः सर्वे बन्धवस्तं ववन्दिरे ॥ ३०९ ॥ मुनिरप्यभ्यधाद् बन्धून् विवाहव्याकुलाः स्थ भोः ! । यामो विहर्तुमन्यत्र धर्मलाभोऽस्तु वोऽनघाः ! || ३१० ॥ तमृषिं बन्धवः सर्वे भक्तपानादिभिर्मुदा । एषणीयकल्पनीयप्रासुकैः प्रत्यलाभयन् ||३११|| तदानीं भवदेवोऽपि कुलाचारं प्रपालयन् । सेव्यमानां वयस्याभिर्नवोढां मण्डयन्नभूत् ।। ३१२ ॥ चक्रेऽङ्गरागं प्रेयस्या श्रीचन्दनरसेन सः । चन्द्रातपरसेनेवाकृष्टेन शशिमण्डलात् ॥३१३॥ तस्या मूर्ध्नि च धम्मिल्लं सुमनोदामगर्भितम् । बबन्ध ग्रस्तशशिनः स्वर्भाणोः श्रीमलिम्लुचम् ||३१४॥ तत्कपोलफलकयोः कस्तूर्या पत्रवल्लरीम् । मीनकेतोरिव जयप्रशस्तिमलिखत्स्वयम् ॥३१५॥ कुचयोर्मण्डनं यावन्नवोढः स प्रचक्रमे । तावदागममश्रौषीद्भवदत्तमहामुनेः || ३१६ || स भ्रातृदर्शनोत्तालः कितवो जयवानिव । द्रागुदस्थाद्विहायार्धमण्डितामपि वल्लभाम् ॥ ३१७|| हित्वाऽर्धमण्डितां कान्तां न गन्तुमुचितं तव । तस्याः सखीनामित्युक्तिं स एड इव नाशृणोत् ॥ ३१८॥ साग्रहं वारयन्तीनां तासां चेत्युत्तरं ददौ । कृत्वा गुरुप्रणिपातं पुनरेष्यामि बालिकाः ! ॥३१९॥ भवदत्तस्ततः स्थानात्प्लवमानः प्लवङ्गवत्। अभ्येत्य भवदत्तर्षिं तत्र स्थितमवन्द || ३२०|| वन्दित्वोत्थितमात्रस्यानुजस्य घृतभाजनम् । मुनिः श्रामण्यदानाय सत्यंकारमिवार्पयत् ॥ ३२९॥ भवदत्तस्ततोऽगारादनगारशिरोमणिः । निर्जगाम धियां धाम मनाग्भ्रातरि दत्तदृक् ॥ ३२२ ॥ भवदेवोऽपि तत्सर्पिर्भाजनं धारयन्करे । अन्वगाद्भवदत्तर्षिं तत्पदाम्भोजषट्पदः ॥३२३ || अन्येऽपि बहवो नार्यो नराश्च भवदेववत् । अन्वयुर्भवदत्तर्षिमुदूर्मिप्रमदह्रदाः ॥ ३२४ ॥ मुनिर्न कञ्चिद्व्यसृजत् मुनीनामुचितं ह्यदः । अविसृष्टाश्च मुनिना न व्याववृतिरे जनाः || ३२५ ।। दूरं गत्वा च निर्विण्णास्तं वन्दित्वा महामुनिम् । स्वयमेव व्याजुघुटुरादौ नार्यो नरास्ततः ॥ ३२६|| भवदेवस्तु भद्रात्मा चिन्तयामासिवानिदम् । अप्यविसृष्टा व्याघुटन्त्वेते नैते हि सोदराः || ३२७|| अहं तु सोदरोऽमुष्य द्वावावां स्नेहलौ मिथः । तदनेनाविसृष्टस्य न्याय्यं व्याघुटनं न मे ॥ ३२८ ॥ भक्तपानादिभारेणाक्रान्तोऽयं नूनमग्रजः । ततो ममार्पयद्वोढुं प्रसीदन्घृतभाजनम् ॥ ३२९|| चिरादभ्यागतं
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१३१ श्रान्तं ज्यायांसं भ्रातरं मुनिम् । अमुक्त्वा तदमुं स्थाने न निवर्तितुमुत्सहे ।।३३०॥ माऽसौ वलेदिति मनोव्याक्षेपार्थं कनीयसः । गार्हस्थ्यवार्ता प्राक्रस्त भवदत्तो महामुनिः ॥३३१॥ एते ते ग्रामपर्यन्तपादपाः पान्थमण्डपाः । भ्रातरावां वानरवद्येषु स्वैरमरस्वहि ॥३३२।। सरोवराणि तान्येतान्यावाभ्यां यत्र शैशवे। अकारि नलिनीनालैहरिश्रीः कण्ठयोर्मिथः ॥३३३। एताश्च ग्रामपर्यन्तभूमयो भूरिवालुकाः । यत्रावां वालुकाचैत्यक्रीडां प्रावृष्यकृष्वहि ॥३३४।। भवदत्तोऽनुजन्मानमेवमध्वनि वार्तयन् । जगाम ग्राममाचार्यपादपद्मः पवित्रितम् ॥३३५।। सानुजं भवदत्तर्षि वसतिद्वारमागतम् । निरीक्ष्य क्षुल्लकाः प्रोचुः कृतवक्रोष्ठिका मिथः ॥३३६॥ दिव्यवेषधरो नूनमनुजो मुनिनाऽमुना । प्रव्राजयितुमानीतः स्वं सत्यापयितुं वचः ॥३३७।। सूरिरूचे भवदत्त ! तरुणः कोऽयमागतः । सोऽवदद्भगवन्दीक्षां जिघृक्षुर्मेऽनुजो ह्यसौ ॥३३८॥ सूरिणा भवदेवोऽपि पप्रच्छे किं व्रतार्थ्यसि ? । मा भूद् भ्राता मृषावादीत्येवमित्यवदत्स तु ॥३३९॥ भवदेवस्तदैवाथ पर्यव्राज्यत सूरिभिः । साधुभ्यां सहितोऽन्यत्र विहर्तुं च न्ययोज्यत ॥३४०॥ - परिशिष्टपर्वणि प्रथमसर्गे ।
[पं० १४] शविभूतेः कथा- “रहवीरपुर नगरं दीवगमुजाणमजकण्हे य । सिवभूइस्सुवहिम्मि पुच्छा थेराण कहणा य ॥२५५१॥ बोडियसिवभूईओ बोडियलिंगस्स होइ उप्पत्ती । कोडिन्नकोट्टवीरा परंपराफासमुप्पन्ना ॥२५५२॥ एतद्भावार्थः कथानकगम्यः, तच्चेदम्-रथवीरपुरं नाम नगरम् । तद्बहिश्च दीपकाभिधानमुद्यानम्। तत्र चार्यकृष्णनामानः सूरयः समागताः । तस्मिंश्च नगरे सहस्रमल्लः शिवभूतिर्नाम राजसेवकः समस्ति। स च राजप्रसादाद् विलासान् कुर्वन् नगरमध्ये पर्यटति। रात्रेश्च प्रहरद्वयेऽतिक्रान्ते गृहमागच्छति। तत एतदीयभार्या तन्मातरं भणति-'निर्वेदिताऽहं त्वत्पुत्रेण, न खल्वेष रात्रौ वेलायां कदाचिदप्यागच्छति। तत उज्जागरकेण बुभुक्षया च बाध्यमाना प्रत्यहं तिष्ठामि' । ततस्तया प्रोक्तम्-‘वत्से ! यद्येवम्, तर्हि त्वमद्य स्वपिहि, स्वयमेवाहं जागरिष्यामि' । ततः कृतं वध्वा तथैव, इतरस्यास्तु जाग्रत्या रात्रिप्रहरद्वयेऽतिक्रान्ते समागत्य शिवभूतिना प्रोक्तम्'द्वारमुद्घाटयत' । ततः प्रकुपितया मात्रा प्रोक्तम्-'दुर्नयविधे ! यत्रैतस्यां वेलायां द्वाराण्युद्घाटितानि भवन्ति तत्र गच्छ, न पुनरेवं तव पृष्ठलग्नः कोऽप्यत्र मरिष्यति' । ततः कोपा-ऽहङ्काराभ्यां प्रेर्यमाणोऽसौ निर्गतः । पर्यटता चोद्घाटितद्वारः साधूपाश्रयो दृष्टः । तत्र च साधवः कालग्रहणं कुर्वन्ति । तेषां च पार्श्वे तेन वन्दित्वा व्रतं याचितम्। तैश्च ‘राजवल्लभः, मात्रादिभिरमुत्कलितश्च' इति न दत्तम् । ततः खेलमल्लकाद् रक्षां गृहीत्वा स्वयमेव लोचः कृतः । साधुभिर्लिङ्ग समर्पितम् । विहृताश्च सर्वेऽप्यन्यत्र ।” - विशेषाव० मलधारि० ।।।
पं०१४] काष्ठहारकस्य कथा- एगो पुरिसो सुधम्मसामिणो सयासे कट्ठहारओ पव्वइओ, सो भिक्खं हिंडतो लोएण भण्णइ-एसो कट्ठहारओ पव्वइओ, सो सेहत्तेण आयरियं भणइ-ममं अण्णत्थ णेह, अहं न सक्केमि अहियासेत्तए, आयरिएहिं अभओ आपुच्छिओ वच्चामो त्ति, अभओ भणइमासकप्पपाउग्गं खित्तं किं एयं न भवइ? जेण अत्थक्के अण्णत्थ वच्चह? आयरिएहिं भणियं-जहा
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३२
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
सेहनिमित्तं, अभओ भणइ-अच्छह वीसत्था, अहमेयं लोगं उवाएण निवारेमि, ठिओ आयरिओ। बिइए दिवसे तिण्णि रयणकोडीओ ठवियाओ, उग्घोसावियं नगरे-जहा अभओ दाणं देइ, लोगो आगओ, भणियं चऽणेण-तस्साहं एयाओ तिण्णि कोडिओ देमि जो एयाइं तिण्णि परिहरइ-अग्गिं पाणियं महिलियं च, लोगो भणइ-एएहिं विणा किं सुवन्नकोडिहिं ?, अभओ भणइ-ता किं भणहदमओ त्ति पव्वइओ, जोऽवि णिरत्थओ पव्वइओ तेणवि एयाओ तिण्णि सुवन्नकोडीओ परिच्चत्ताओ, सच्चं सामि ! ठिओ लोगो पत्तीओ। - दशवै० हारि० २॥३॥ [पं०१६] पुष्यचूलाया: कथा- दृश्यतां द्वितीये विभागे प्रथमपरिशिष्टे पृ०७ पं०७ ॥
पं०२०] नन्दिषेणस्य कथा- नंदिषेणस्तयोः सूनुर्बालस्यापि हि तस्य तु । पितरौ तौ विपेदाते मंदभाग्यशिरोमणे: ॥१६|| तुंदिलो दंतुरश्चुल्लश्चतुरस्रशिरास्तथा । कुरूपोऽन्येषु चांगेषु सोऽत्याजि स्वजनैरपि ॥१७॥ जीवन्मूल्येनापरेधुर्जगृहे मातुलेन सः । मातुलस्य तु तस्यासनद्वाह्याः सप्त कन्यकाः ॥१८॥ एकां दास्यामि ते कन्यामित्यूचे मातुलश्च तम् । तद्वेश्मकर्म तल्लोभादशेषं च चकार सः ॥१९॥ तत्राद्या यौवना कन्या तज्ज्ञात्वोवाच मां यदि । प्रदास्यति पितामुष्मै तन्मरिष्यामि निश्चितम् ॥२०॥ शुश्राव नंदिषेणस्तद्विषण्णो मातुलेन तु । ऊचे सुतां द्वितीयां ते दास्ये मा खेदमुबह ॥२१|| श्रुत्वा द्वितीयपुत्र्यापि तद्वच्चक्रे प्रतिश्रवः । अन्यपुत्रीभिरप्येवं प्रतिषिद्धः क्रमेण सः ॥२२॥ ततस्तं मातुलोऽवोचत् पुत्रीमन्यस्य कस्यचित् । याचित्वा ते प्रदास्यामि वत्स मा भूस्त्वमाकुलः ॥२३॥ नंदिषेणस्ततो दध्यौ निजा नेप्संति माममू: । ईप्सिष्यंति कथं त्वन्यकन्या मां रूपदूषितम् ॥२४॥ इति निःसृत्य वैराग्याद्ययौ रत्नपुरे पुरे। दंपतीन् क्रीडतस्तत्र निरीक्ष्य स्वं निनिंद सः ॥२५।। मुमूर्षुः सोऽथ वैराग्याद्ययावुपवनान्तरे। सुस्थितं नाम तत्रर्षि ददर्श प्रणनाम च ॥२६।। ज्ञात्वा ज्ञानेन तद्भावं स साधुस्तमवोचत। मा मृत्युसाहसं कार्षीरधर्मस्य फलं ह्यदः ॥२७॥ कार्यः सुखार्थिना धर्म आत्मघातात्सुखं न हि। स तु प्रव्रज्यया धर्मः सुखहेतुर्भवे भवे ।।२८।। श्रुत्वैवं च प्रतिबुद्धस्तत्पादांतेऽग्रहीद् व्रतम्। गीतार्थश्चाभिजग्राह वैयावृत्यं स साधुषु ॥२९॥" - त्रिषष्टि० ८।२ ।
[पृ०८१८] “समनिद्धयाए बंधो न होति समलुक्खयाए वि न होति । वेमायणिद्धलुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं ॥१३॥४१०॥ वृ० समनिद्धयाए इत्यादि, परस्परं समस्निग्धतायां-समगुणस्निग्धतायां तथा परस्परं समरूक्षतायां समगुणरूक्षतायां बन्धो न भवति, किन्तु यदि परस्परं स्निग्धत्वस्य रूक्षत्वस्य च विषममात्रा भवति तदा बन्धः स्कन्धानामुपजायते, इयमत्र भावना- समगुणस्निग्धस्य परमाण्वादेः समगुणस्निग्धेन परमाण्वादीना सह सम्बन्धो न भवति, तथा समगुणरूक्षस्यापि परमाण्वादेः समगुणरूक्षेण परमाण्वादिना सह सम्बन्धो न भवति, किन्तु यदि स्निग्धः स्निग्धेन रूक्षः रूक्षेण सह विषमगुणो भवति तदा विषममात्रत्वात् भवति तेषां परस्परं सम्बन्धः । ___ निद्धस्स निद्धेण दुयाहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं । निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधो, जहन्नवज्जो विसमो समो वा ॥१३॥४११॥ वृ० विषममात्रया बन्धो भवतीत्युक्तं ततो
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
विषममात्रानिरूपणार्थमाह- 'निद्धस्स निद्धेण दुयाहिएणे' त्यादि, यदि स्निग्धस्य परमाण्वादेः स्निग्धगुणेनैव सह परमाण्वादिना बन्धो भवितुमर्हति तदा नियमात् द्व्यादिकाधिकगुणेनैव परमाण्वादिनेति भावः, रूक्षगुणस्यापि परमाण्वादेः रूक्षगुणेन परमाण्वादिना सह यदि बन्धो भवति तदा तस्यापि तेन द्व्याद्यधिकादिगुणेनैव नान्यथा, यदा पुनः स्निग्धरूक्षयोर्बन्धस्तदा कथमिति चेत् ?, अत आह'निद्धस्स लुक्खेणेत्यादि, स्निग्धस्य रूक्षेण सह बन्ध उपैति - उपपद्यते जघन्यवर्जो विषमः समो वा, किमुक्तं भवति ?- एकगुणस्निग्धं एकगुणरूक्षं च मुक्त्वा शेषतुल्यद्विगुणस्निग्धादिद्विगुणरूक्षादिना सर्वेण बन्धो भवतीति । "
प्रज्ञापना - १३।४१०-११ ॥
[पृ०८१९] “गुरुयं लहुयं उभयं नोभयमिति वावहारियनयस्स । दव्वं, लेडुं दीवो वाऊ वोमं जहासंखं ।।६५९।। निच्छयओ सव्वगुरुं सव्वलहुं वा न विज्जए दव्वं । बायरमिह गुरुल हुयं अगुरुलहुँ सयं सव्वं ॥ ६६०॥ इह यदूर्ध्वं तिर्यग् वा प्रक्षिप्तमपि पुनर्निसर्गादधो निपतति तद् गुरु द्रव्यम्, यथा लेष्ट्वादि । यत्तु निसर्गत एवोर्ध्वगतिस्वभावं द्रव्यं तल्लघु, यथा दीपकलिकादि । यत्तु नोर्ध्वगतिस्वभावं नाप्यधोगतिस्वभावम्, किं तर्हि ?, स्वभावेनैव तिर्यग्गतिधर्मकं तद् द्रव्यं गुरुलघु, यथा वाय्वादि। यत्पुनरूर्ध्वा ऽधस्तिर्यग्गतिस्वभावानामेकतरस्वभावमपि न भवति, सर्वत्र वा गच्छति तद् गुरुलघु, यथा व्योम - परमाण्वादि । इति व्यावहारिकनयमतम् ।
निश्चयतस्तु-निश्चयनयमतेन, सर्वगुरु - एकान्तेन गुरुस्वभावं किमपि वस्तु नास्ति, गुरोरपि लेष्ट्वादेः परप्रयोगादूर्ध्वादिगमनदर्शनात् । एकान्तेन लघ्वपि नास्ति, अतिलघोरपि बाष्पादेः करताडनादिनाऽधोगमनादिदर्शनात् । तस्माद् नैकान्तेन गुरु लघु वा किमपि वस्त्वस्ति । अतो निश्चयनयस्येयं परिभाषा-यत् किमप्यत्र लोके औदारिकवर्गणादिकं भू-भूधरादिकं वा बादरं वस्तु तत् सर्वं गुरुलघु, शेषं तु भाषा-ऽऽना-ऽपानमनोवर्गणादिकं परमाणु - द्व्यणुक - व्योमादिकं च सर्व वस्त्वगुरुव ॥६५९-६६०॥” विशेषाव० मलधारि० ॥
-
[पृ०८२०] दिसिदाह छिन्नमूलो उक्त सरेहा पगासजुत्ता वा । संझाछेयावरण उजू सुक्क दिण तिनि ॥ १३३५ || व्या० अन्यतमदिगन्तरविभागे महानगरप्रदीप्तमिवोद्योतः किन्तूपरि प्रकाशोऽधस्तादन्धकारः ईदृक् छिन्नमूलो दिग्दाहः, उक्कालक्खणं सदेहवण्णं रेहं करेंती जा पडइ सा उक्का, रेहविरहिया वा उज्जोयं करेंती पडइ सावि उक्का । जूवगो त्ति संझप्पहा चंदप्पहा य
जुगवं भवंति तेण वगो, सा य संझप्पहा चंदप्पभावरिया णिप्फिडंती न नज्जइ सुक्कपक्खपडिवगादिसु दिणेसु, संझाछेयए अणज्जमाणे कालवेलं न मुणंति तओ तिन्नि दिणे पाउसियं कालं न गेण्हंति, तिसु दिणेसु पाउसियसुत्तपोरिसिं न करेंति त्ति गाथार्थः ॥१३३५||
१३३
कतिपोरस व भावे सुत्तं तु नंदिमाईयं । सोणिय मंसं चम्मं अट्ठी विय हुंति चत्तारि ।। १३५१ ।। व्या० तिरियमसज्झायं संभवकालाओ जाव तइया पोरुसी ताव असज्झाइयं, परओ सुज्झइ, अहवा अट्ठ जामा असज्झाइयं ति, ते जत्थाघायणट्ठाणं तत्थ भवंति । भावओ
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि पुण परिहरंति सुत्तं, तं च नंदिमणुओगदारं तंदुलवेयालियं चंदगविज्झयं पोरुसिमंडलमादी, अहवा असज्झायं चउव्विहं इमं- मंसं सोणियं चम्मं अट्ठि य त्ति गाथार्थः ॥१३५१॥
पट्ठवियंमि सिलोगे छीए पडिलेह तिन्नि अन्नत्थ । सोणिय मुत्तपुरीसे घाणालोअं परिहरिजा ॥१४००।। व्या० जदा पट्ठवणाए तिन्नि अज्झयणा समत्ता, तदा उवरिमेगो सिलोगो कड्डियव्वो, तंमि समत्ते पट्ठवणं समप्पइ, बितियपादो गयत्थो ‘सोणिय'त्ति अस्य व्याख्या___ आलोअंमि चिलमिणी गंधे अन्नत्थ गंतु पकरंति । वाघाइयकालंमी दंडग मरुआ नवरि नत्थि ॥१४०१॥ व्या० जत्थ सज्झायं करेंतेहिं सोणियवच्चिगा दीसंति तत्थ न करेंति सज्झायं, कडगं चिलिमिलिं वा अंतरे दातुं करेंति, जत्थ पुण सज्झायं चेव करेन्ताण मुत्तपुरीसकलेवरादीयाण गंधे अण्णंमि वा असुभगंधे आगच्छंते तत्थ सज्झायं न करेंति, अण्णंपि बंधणसेहणादिआलोयं परिहरेज्जा, एयं सव्वं निव्वाघाए काले भणियं ।। वाघाइमकालोऽपि एवं चेव, नवरं गंडगमरुगदिठ्ठता न संभवंति ॥१४०१॥ ___ चंदिमसूरुवरागे निग्याए गुंजिए अहोरत्तं । संझा चउ पाडिएया जं जहि सुगिम्हए नियमा ॥१३३७॥ व्या० चंदसूरूवरागो गहणं भन्नइ-एयं वक्खमाणं, साभ्रे निरभ्रे वा गगने व्यन्तरकृतो महागर्जितसमो ध्वनिर्निर्घातः, तस्यैव वा विकारो गुञ्जावद् गुञ्जितो महाध्वनिर्गुञ्जितम् । सामण्णओ एएसु चउसु वि अहोरत्तं सज्झाओ न कीरइ, निग्घायगुंजिएसु विसेसो-बितियदिणे जाव सा वेला णो अहोरत्तछेएण छिज्जइ जहा अन्नेसु असज्झाएसु, संझा चउ त्ति अणुदिए सूरिए मज्झण्हे अत्थमणे अड्ढरत्ते य, एयासु चउसु सज्झायं न करेंति पुव्वुत्तं, पाडिवए त्ति चउण्हं महामहाणं चउसु पाडिवएसु सज्झायं न करेंति त्ति, एवं अन्नपि जं ति महं जाणेज्जा जहिं ति गामनगरादिसु तं पि तत्थ वजेज्जा, सुगिम्हए पुण सव्वत्थ नियमा असज्झाओ भवति, एत्थ अणागाढजोगा निक्खिवंति नियमा आगाढा न निक्खिवंति, न पढंति त्ति गाथार्थः ॥१३३७।। - आव० हारि० ।
[पृ०८२१] “सग्गहनिब्बुड एवं सूराई जेण हुंतिऽहोरत्ता । आइन्नं दिणमुक्के सुच्चिय दिवसो अ राई य ॥१३४३॥ व्या० सग्गहनिब्बुडे एग अहोरत्तं उवहयं, कहं ?, उच्यते, सूरादी जेण होतिऽहोरत्ता, सूरउदयकालाओ जेण अहोरत्तस्स आदी भवति तं परिहरित्तुं संदूसिअं अण्णंपि अहोरत्तं परिहरियव्वं । इमं पुण आइन्नं-चंदो रातीए गहिओ राई चेव मुक्को तीसे राईइ सेसं वजणीयं, जम्हा आगामिसूरुदए अहोरत्तसमत्ती, सूरस्स वि दिया गहिओ दिया चेव मुक्को तस्सेव दिवसस्स मुक्कसेसं राई य वजणिज्जा । अहवा सग्गहनिब्बुडे एवं विही भणिओ, तओ सीसो पुच्छइ-कहं चंदे दुवालस सूरे सोलस जामा ?, आचार्य आह-सूरादी जेण होंतिऽहोरत्ता, चंदस्स नियमा अहोरत्तद्धे गए गहणसंभवो, अण्णं च अहोरत्तं, एवं दुवालस, सूरस्स पुण अहोरत्तादीए संदूसिएयरं अहोरत्तं परिहरिजइ एए सोलस त्ति गाथार्थः ॥१३४३।।
मयहरपगए बहुपक्खिए य सत्तघर अंतरमए वा । निढुक्खत्ति य गरिहा न पढंति सणीयगं
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१३५
वावि ॥१३४७॥ इमीण दोण्हवि वक्खाणं-गामभोइए कालगए तद्दिवसं ति अहोरत्तं परिहरंति, आदिसद्दाओ गामरट्ठमयहरो अहिगारनिउत्तो बहुसम्मओ य पगओ बहुपक्खिउ त्ति बहुसयणो, वाडगरहिए अहिवे सेज्जायरे अण्णंमि वा अण्णयरघराओ आरब्भ जाव सत्तघरंतरं एएसु मएसु अहोरत्तं सज्झाओ न कीरइ, अह करेंति निढुक्ख त्ति काउं जणो गरहति अक्कोसेज वा निच्छुब्भेज वा, अप्पसद्देण वा सणियं करेंति अणुपेहंति वा, जो पुण अणाहो मरति तं जइ उब्भिण्णं हत्थसयं वजेयव्वं, अणुब्भिन्नं असज्झायं न हवइ तहवि कुच्छियं ति काउं आयरणाओऽवट्ठियं हत्थसयं वजिज्जइ । विवित्तंमि परट्ठिवियंमि ‘सुद्धं तु' तं ठाणं सुद्धं भवइ, तत्थ सज्झाओ कीरइ, जइ य तस्स न कोइ परिठवेंतओ ताहे ॥१३४७।।
सेणाहिवई भोइय मयहरपुंसित्थिमल्लजुद्धे य । लोट्टाइभंडणे वा गुज्झग उड्डाहमचियत्तं ॥१३४५॥ इमाण दोण्ह वि वक्खाणं-दंडियस्स वुगहो, आदिसद्दाओ सेणाहिवस्स, दोण्हं भोइयाणं दोण्हं मयहराणं दोण्हं पुरिसाणं दोण्हं इत्थियाणं दोण्हं मल्लाणं वा जुद्धं, पिट्ठायगलोट्टभंडणे वा, आदिसद्दाओ विसयप्पसिद्धासु भंसलासु । विग्रहाः प्रायो व्यन्तरबहुलाः । तत्थ पमत्तं देवया छलेज्जा, उड्डाहो निढुक्ख त्ति, जणो भणेजा-अम्हं आवइपत्ताणं इमे सज्झायं करेंति, अचियत्तं हवेज्जा, विसहसंखोहो परचक्कागमे, दंडिओ कालगओ भवति, 'अणरायए' त्ति रण्णा कालगए निब्भएवि जाव अन्नो राया न ठविज्जइ, ‘सभए'त्ति जीवंतस्स वि रण्णो बोहिगेहिं समंतओ अभिदुयं, जच्चिरं भयं तत्तियं कालं सज्झायं न करेंति, जद्दिवसं सुयं निद्दोच्चं तस्स परओ अहोरत्तं परिहरइ । एस दंडिए कालगए विहि त्ति गाथार्थः ॥१३४५॥" - आव० हारि० । __ [पृ०८२५] “दसहिं य रायहाणी सेसाणं सूयणा कया होइ । मासस्संतो दुग-तिग तओ अतितम्मि आणादि ॥२५८८॥ व्या० अन्नाओ वि णयरीओ बहुजणसंपगाढाओ णो पविसियव्वं ॥२५८८|| तरुणा वेसित्थि विवाहा रायमादीसु होति सतिकरणं । आउज-गीयसदे, इत्थीसद्दे य सवियारे ॥२५६२॥ तरुणे ण्हातविलित्ते थीगुम्मपरिवुडे दठूण, वेसित्थीओ उत्तरवेउव्वियाओ, वीवाहे य विवाहरिद्धिसमिद्धे आहिंडमाणो, रायाऽणेयविविहरिद्धिजुत्ते णिताणिते दळु, भुत्तभोगीणं सतिकरणं, अभुत्ताणं कोउयं पडिगमणादी दोसा । आदिसद्दातो बहुनडनट्टादि आओज्जाणि वा ततविततादीणि गीयसद्दाणि वा ललिय-विलास-हसिय-भणियाणि, मंजुलाणि य इत्थीसद्दाणि, सविगारग्गहणातो मोहोदीरगा ॥२५६२॥" - निशीथ० चूर्णिः ।।
[पृ०८२६] “चंपामहुरा वाणारसी य सावत्थिमेव साएतं । हत्थिणपुर कंपिल्लं महिला कोसंबि रायगिइं ॥२५९०॥ व्या० बारसचक्कीण एया रायहाणी ॥२५९०॥ संती कुंथू य अरो तिण्णि वि जिणचक्की एक्कहिं जाया । तेण दस होंति जत्थ व केसवजाया जाणाइण्णा ॥२५९१॥ जासु वा नगरीसु केसवा अण्णा वि जा जणाइण्णा सा वि वजणिज्जा ॥२५९१॥" - निशीथ० चूर्णिः ।
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
[पृ० ८२७] " धायइसंडे मेरू, चुलसीइ सहस्स ऊसिया दोऽवि । ओगाढा य सहस्सं, तं चि सिहरम्मि वित्थिन्ना ||३|५७ || व्या० धातकीखण्डे द्वौ मेरू, तद्यथा - एकः पूर्वार्ध, एकोऽपरार्धे, तौ च द्वावपि उच्छ्रितौ तदेव चैकं सहस्रं शिखर उपरितले विस्तीर्णौ १००० || ३|५७॥ मूले पणनउय सया चउणउय सया य हाइ धरणियले । विक्खंभो चत्तारि य वणाइ जह जंबूदीवम्मि ||३|५८ ॥ व्या० मूले भूमिमध्ये विष्कंभो द्वयोरपि मेर्वोः प्रत्येकं पञ्चनवतियोजनशतानि ९५००, धरणितले चतुर्नवति योजनशतानि ९४०० । यथा च जम्बूद्वीपे मेरौ चत्वारि वनानि तथा एतयोरपि मेर्वोः प्रत्येकं चत्वारि चत्वारि वनानि द्रष्टव्यानि । तद्यथा - भूमौ भद्रशालवनम्, प्रथममेखलायां नन्दनवनम्, द्वितीयमेखलायां सौमनसम्, शिरसि पण्डकवनमिति || ३ | ५८ ||" - बृहत्क्षेत्र० मलय० ।
[पृ०८३३ पं०६] “आयंगुलेण वत्थं, उस्सेहपमाणओ मिणसु देहं । नगपुढविविमाणाई, मिणसु पमाणंगलेणं तु || ३४९ ।। व्या० आत्माङ्गुलेन मिमीष्व वास्तु, तच्च त्रिविधम्, तद्यथाखातमुच्छ्रितमुभयं च । तत्र खातं कूप - तडाग - भूमिगृहादि, उच्छ्रितं धवलगृहादि, उभयं भूमिगृहयुक्तधवलगृहादि । उत्सेधप्रमाणेनाङ्गुलेन मिमीष्व देहं सुरादीनां शरीरम् । प्रमाणाङ्गुलेन पुनर्मिमीष्व नगपृथिवीविमानानि, तत्र नगाः पर्वता मेर्वादयः, पृथिव्यो घर्मादयः, विमानानि सौधर्मावतंसकादीनि, विमानग्रहणं भवननरकावासाद्युपलक्षणम्, तेन तान्यपि प्रमाणाङ्गुलेन मिमीष्व ॥
[पं०९] जोयणसहस्समहियं, ओहेण एगिंदिए तरुगणेसु । मच्छजुअले सहस्सं, उरगेसु य भजाई || ३०७ || व्या० ओघेन सामान्यरूपेणैकेन्द्रियसामान्यचिन्तायामेकेन्द्रियाणमित्यर्थः, विशेषचिन्तायां तरुगणेषु योजनसहस्रमधिकं किञ्चित्समधिकम्, तच्च समुद्रादिगतं पद्मनालमवसेयम्। तथा मत्स्ययुगलेगर्भव्युत्क्रान्तिकसंमूर्च्छिमलक्षणे उरगेषु च सर्पजातीयेषु गर्भजातिषु गर्भजन्मसु देहप्रमाणं प्रत्येकं योजनसहस्रं परिपूर्णमुक्तम् ॥” - बृहत्सं० मलय० ।
[पृ०८३४ पं०१२] “आलोचनादोषान् प्रतिपादयन्नाह - आकंपिय अणुमणिय जं दिट्ठ वादरं च सुहुमं च । छण्णं सद्दाकुलियं बहुजणमव्वत्त तस्सेवी ||१५|| आकंपिय आकम्पितदोष भक्तपानोपकरणादिनाऽऽचार्यमाकम्प्यात्मीयं कृत्वा यो दोषमालोचयति तस्याकंपितदोषो भवति । अणुमणिय अनुमानितं शरीराहारतुच्छबलदर्शनेन दीनवचनेनाचार्यमनुमान्यात्मनि करुणापरमाचार्यं कृत्वा यो दोषमात्मीयं निवेदयति तस्य द्वितीयोऽनुमानितदोषः । जं दिट्टं यद् दृष्टं अन्यैर्यदवलोकितं दोषजातं तदालोचयत्यदृष्टमगृहयति यस्तस्य तृतीयो दृष्टनामाऽऽलोचनादोषः । बादरं च - स्थूलं च व्रतेष्वहिंसादिकेषु य उत्पद्यते दोषस्तमालोचयति सूक्ष्म नालोचयति यस्तस्य चतुर्थो बादरनामालोचनादोषः स्यात् । सुहुमं च सूक्ष्मं च सार्द्रहस्तपरामर्शादिकं सूक्ष्मदोषं प्रतिपादयति महाव्रतादिभंगं स्थूलं तु नाचष्टे यस्तस्य पंचमं सूक्ष्मं नामालोचनदोषजातं भवेत् । छण्णं प्रच्छन्नं व्याजेन दोषकथनं कृत्वा स्वतः प्रायश्चित्तं य करोति तस्य षष्ठं प्रच्छन्नं नामालोचनदोषजातं भवति । सद्दाकुलियं शब्दाकुलितं पाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकादिप्रतिक्रमणकाले बहुजनशब्दसमाकुले आत्मीयापराधं निवेदयति तस्य
१३६
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
सप्तमं शब्दाकुलं नामालोचनादोषजातम् । बहुजणं बहुजनं एकस्मै आचार्यायात्मदोषनिवेदनं कृत्वा प्रायश्चित्तं प्रगृह्य पुनरश्रद्दधानोऽपरस्मै आचार्याय निवेदयति यस्तस्य बहुजनं नामाष्टममालोचनादोषजातं स्यात् । अव्वत्त अव्यक्तः प्रायश्चित्ताद्यकुलो यस्तस्यामीयं दोषं कथयति यो लघुप्रायश्चित्तनिमित्तं तस्याव्यक्तनाम नवममालोचनादोषजातं भवेत् । तस्सेवी तत्सेवी य आत्मना दोषैः सम्पूर्णस्तस्य यो महाप्रायश्चित्तभयादात्मीयं दोषं प्रकटयति तस्य तत्सेवी नामा दशम आलोचनादोषो भवेत् । एवमेतैर्दशभिश्चतुरशीतिसहस्राणिगुणितान्यष्टलक्षाभ्यधिकानि चत्वारिंशत्सहस्राणि भवन्तीति ॥१५॥” इति वसुनन्दिविरचितटीकासहिते मूलाचारे एकादशे शीलगुणाधिकारे ॥
" उपकरणेषु दत्तेषु प्रायश्चित्तं मे लघु कुर्वन्तीति विचिन्त्य दानं प्रथममालोचनदोषः | १| प्रकृत्या दुर्बलो ग्लानोऽहम् उपवासादि न कर्तुमलं यदि लघु दीयेत ततो दोषनिवेदनं करिष्ये इति वचनं द्वितीयो दोषः ।२। अन्यादृष्टदोषगूहनं कृत्वा प्रकाशदोषनिवेदनं मायाचारस्तृतीयो दोषः | ३| आलस्यात् प्रमादाद्वा अल्पापराधावबोधनिरुत्सुकस्य स्थूलदोषप्रतिपादनं चतुर्थः |४| महादुश्चरप्रायश्चित्तभयान्महादोषसंवरणं कृत्वा तनुप्रमादाचारनिबोधनं पञ्चमः | ५ | पाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकेषु कर्मसु महति यतिसमवाये आलोचनशब्दाकूले पूर्वदोषकथनं सप्तमः | ७| गुरूपपादितं प्रायश्चित्तं किमिदं युक्तम् आगमे स्यान्नवेति शङ्कमानस्यान्यसाधुपरिप्रश्नोऽष्टमः | ८ | यत्किञ्चित्प्रयोजनमुद्दिश्यात्मना समानायैव प्रमादाचरितमावेद्य महदपि गृहीतं प्रायश्चित्तं न फलकरमिति नवमः | ९| अस्यापराधेन ममातिचारः समानः तमयमेव वेत्ति अस्मै यद्दत्तं तदेव मे युक्तं लघूकर्त्तव्यमिति स्वदुश्चरितसंवरणं दशमो दोषः |१०|” इति तत्त्वार्थराजवार्तिके ९२२ ॥
[पृ०८३५] “पुव्वं अपासिऊणं, छूढे पादंमि जं पुणो पासे । ण य तरति णित्तेउं पादं सहसाकरणमेतं । ९७ ।। पुव्वमिति पढमं चक्खुणा थंडिले पाणी पडिलेहेयव्वा, जति दिट्ठा तो वज्जणं । अपासिऊणं ति जति ण दिट्ठा तंमि थंडिले पाणी । छूढे पायम्मीति पुव्वणसियथंडिलाओ उक्खित्ते पादे, चक्खुपडिलेहियथंडिलं असंपत्ते अंतरा वट्टमाणे पादे । जं पुणो पासे त्ति मिति पुव्वमदिट्ठे पाणिणं पुणो पच्छा पस्सेज्ज चक्खुणा । ण तरति ण सक्केति णसणकिरियव्वावारपवियट्टं पायं णियत्तेउं । पच्छा दिट्ठपाणिणो उवरिं णिसितो पाओ । तस्स य संघट्टणपरितावणाकिलावणोद्दवणादीया पीडा कता । एसा जा सहस्सकारपडिसेवा । सहस्साकरणमेयं ति सहसाकरणं सहसक्करणं जाणमाणस्स परायत्तस्सेत्यर्थः । एतमिति एयं सरूवं सहसक्कारस्स।” निशीथ० चूर्णिः ।
-
[पृ०८३९] “असुरा १ नाग २ सुवन्ना ३...[ प्रज्ञापनासू० २।१७७।१३७] अस्य टीका प्रथमविभागे गाथाविवरणे द्रष्टव्या पृ०३१ पं०१६ ।”
१३७
[पृ०८४०] “नवि अत्थि माणुसाणं तं सुक्खं नेव सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं सुक्खं अव्वावाहं उवगयाणं ।। ९८० ।। व्या० नैवास्ति मानुषाणां चक्रवर्त्यादीनामपि तत् सौख्यम्, नैव सर्वदेवानाम् अनुत्तरसुरपर्यन्तानामपि यत् सिद्धानां सौख्यम्, अव्याबाधामुपगतानामिति तत्र विविधा आबाधा व्याबाधा न व्याबाधा अव्याबाधा तामुप सामीप्येन गतानां प्राप्तानामिति गाथार्थः
"
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
॥९८०॥" - आव० हारि० ।
"नैवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ॥१२८॥ टीका- राजराजश्चक्रवर्तीवासुदेवादिर्वा । पूर्वः सकलभरतक्षेत्राधिपतिः। उत्तरोऽर्धभरताधिपतिः । मनुष्यभवजन्मसुखस्य प्रकर्षवर्तिनावेतौ । वासुदेवचक्रवर्तिनोरपि नास्ति तादृशं सुखम्, यादृशं प्रशमस्थितस्येति । तद्धि चक्रवर्त्यादिसुखं शब्दादिसमृद्धिजनितं तस्य चानित्यत्वं प्राक् प्रतिपादितम् । न चैकान्तेन सुखहेतुत्वं शब्दादीनाम्, विपरिणतिधर्मत्वात् । देवेन्द्रस्य सुखं प्रकृष्टं स्यादिति, तदपि चोपरितनेन्द्रसुखप्रकर्षदर्शनात्तदाकांक्षिणः च्युतिचिन्तनाच्च दुःखव्यतिकीर्णमेव । अथवा देवराजः सर्वदेवोत्तमत्वादनुत्तरविमानवासी । तस्यापि यत् सुखं तदपि स्थितिक्षयं मनुष्ययोषिदुदरगर्तनिमज्जनं च दुःखमनुचिन्तयतस्तस्यापि न तादृक् सुखमस्ति दुःखलेशकलंकितम् । यदिहैव सुखं साधोर्मनुष्यजन्मनि प्रशमस्थितस्य विनिवृत्तसकलाकांक्षस्यात्महितगवेषिणो विशिष्टज्ञानसमन्वितस्य लोकव्यापाररहितस्य। लोकव्यापारः कृष्यादिप्रवृत्तिः कामभोगसाधनोपादित्सा । एवंविधेन व्यापारेण रहितस्य। प्रशमसुख एव व्यवस्थापितचेतोवृत्तेर्यत्सुखं न तद्राजराजे न देवराजे इति॥१२८॥" - प्रशम० ।
पृ०८५०] "जिणवयणं सिद्धं चेव भण्णए कत्थई उदाहरणं । आसज्ज उ सोयारं हेऊऽवि कहिंचि भण्णेज्जा ॥४९॥ व्या० जिना: प्राग्निरूपितस्वरूपाः तेषां वचनं तदाज्ञया सिद्धमेव सत्यमेव प्रतिष्ठितमेव अविचार्यमेवेत्यर्थः, कुतः ?, जिनानां रागादिरहितत्वात्, रागादिमतश्च सत्यवचनासम्भवात्, उक्तं च-रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं किं स्यात् ?॥१॥ इत्यादि, तथापि तथाविधश्रोत्रपेक्षया तत्रापि भण्यते क्वचिदुदाहरणम्, तथा आश्रित्य तु श्रोतारं हेतुरपि क्वचिद्भण्यते, न तु नियोगतः, तुशब्दः श्रोतृविशेषणार्थः, किंविशिष्टं श्रोतारम् ?-पटुधियं मध्यमधियं च, न तु मन्दधियम् इति, तथाहि-पटुधियो हेतुमात्रोपन्यासादेव प्रभूतार्थाय गतिर्भवति, मध्यमधीस्तु तेनैव बोध्यते, न त्वितर इत्यर्थः । तत्र साध्यसाधनान्वयव्यतिरेकप्रदर्शनमुदाहरणमुच्यते, दृष्टान्त इत्यर्थः, साध्यधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणश्च हेतुः ।
कत्थइ पंचावयवं दसहा वा सव्वहा न पडिसिद्धं । न य पुण सव्वं भण्णइ हंदी सविआरमक्खायं ॥५०॥ व्या० श्रोतारमेवाङ्गीकृत्य क्वचित्पञ्चावयवं दशधा वेति क्वचिद्दशावयवम्, सर्वथा गुरु-श्रोत्रपेक्षया न प्रतिषिद्धमुदाहरणाद्यभिधानमिति वाक्यशेषः, यद्यपि च न प्रतिषिद्धं तथाप्यविशेषेणैव, न च पुनः सर्वं भण्यते उदाहरणादि, किमित्यत आह-हंदी सविआरमक्खायं हन्दीत्युपप्रदर्शने, किमुपप्रदर्शयति?, यस्मादिहान्यत्र च शास्त्रान्तरे सविचारं सप्रतिपक्षमाख्यातं साकल्यत उदाहरणाद्यभिधानमिति गम्यते, पञ्चावयवाश्च प्रतिज्ञादयः, यथोक्तम्-प्रतिज्ञाहेतूदाहरणो-पनयनिगमनान्यवयवाः [न्यायद०१-१-३२]। दश पुनः प्रतिज्ञाविभक्त्यादयः, वक्ष्यति च-ते उ पइण्णविहत्ती इत्यादि । प्रयोगाश्चैतेषां लाघवार्थमिहैव स्वस्थाने दर्शयिष्याम इति गाथार्थः ।" - दशवै० हारि० ॥
[पृ०८५१ पं०४] “धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति जस्स
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
धम्मे सया मणो ॥११॥ व्या० धर्मः मङ्गलम् उत्कृष्टम् अहिंसा संयमः तपः देवाः अपि तं नमस्यन्ति यस्य धर्मे सदा मनः।" - दशवै० हारि० ।
[पृ०८५२ पं०१६] “वत्थगंधमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य। अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्चइ ॥२॥२॥ व्या०-वस्त्रगन्धालङ्कारानिति, अत्र वस्त्राणि चीनांशुकादीनि, गन्धाः कोष्ठपुटादयः, अलङ्काराः कटकादयः, अनुस्वारोऽलाक्षणिकः, स्त्रियोऽनेकप्रकाराः, शयनानि पर्यङ्कादीनि, चशब्द आसनाद्यनुक्तसमुच्चयार्थः, एतानि वस्त्रादीनि किम् ?, अच्छन्दाः अस्ववशा ये केचन न भुञ्जते नासेवन्ते, किं बहुवचनोद्देशेऽप्येकवचननिर्देशः ? विचित्रत्वात्सूत्रगतेर्विपर्ययश्च भवत्येवेतिकृत्वा, आह-नासौ त्यागीत्युच्यते, सुबन्धुवन्नासौ श्रमण इति सूत्रार्थः ।।"- दशवै० हारि० ।
[पृ० ८५४ पं०२४] “गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा । ... उज्जुआयताए सेढीए उववज्जमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा [भगवती० ३४।१।५५] एगसमइएण व त्ति एकः समयो यत्रास्त्यसावेकसमयिकः तेन विग्गहेणं ति ... गतिरेव विग्रहः विशिष्टो वा ग्रहः विशिष्टस्थानप्राप्तिहेतुभूता गतिर्विग्रहः तेन'' - भगवती० अभयदेव० ३४।१।५५ ॥ “एवं सूत्रं व्याख्येयम्- एकसमयेन वा विग्रहेणोत्पद्येतेति, विग्रहशब्दोऽत्रावच्छेदवचनः, न वक्रताभिधायी, इत्यतोऽयमर्थः- एकसमयेन वा अवच्छेदेन विरामेण । कस्यावच्छेदेन इति चेत् ? सामर्थ्याद् गतेरेव । एकसमयपरिमाणगतिकालोत्तरभाविना अवच्छेदेनोत्पद्येत''- तत्त्वार्थ० सिद्धसेन० २।२९॥
[पृ०८५५ पं०१४] [अत्र ठाणं इत्यस्मिन् ग्रन्थे हिन्दीभाषायां तेरापंथीआचार्यश्री नथमलजीलिखितं टिप्पनमुद्धियते]
"प्रस्तुत सूत्र में गणित के दस प्रकार निर्दिष्ट हैं
१. परिकर्म - यह गणित की एक सामान्य प्रणाली है। भारतीय प्रणाली में मौलिक परिकर्म आठ माने जाते हैं- (१) संकलन [जोड़] (२) व्यवकलन [बाकी], (३) गुणन [गुणन करना], (४) भाग [भाग करना], (५) वर्ग [वर्ग करना] (६) वर्गमूल [वर्गमूल निकालना] (७) घन घन करना] (८) घनमूल [घनमूल निकालना] । परन्तु इन परिकर्मों में से अधिकांश का वर्णन सिद्धान्त ग्रन्थों में नहीं मिलता । __ ब्रह्मगुप्त के अनुसार पाटी गणित में बीस परिकर्म हैं- (१) संकलित (२) व्यवकलित अथवा व्युत्कलिक (३) गुणन (४) भागहर (५) वर्ग (६) वर्गमूल (७) घन (८) घनमूल [९-१३] पांच जातियां' [अर्थात् पांच प्रकार के भिन्नों को सरल करने के नियम] (१४) त्रैराशिक (१५) व्यस्तत्रैराशिक (१६) पंचराशिक (१७) सप्तराशिक (१८) नवराशिक (१९) एकदसराशिक (२०) भाण्ड-प्रति-भाण्ड ।
प्राचीन काल से ही हिन्दू गणितज्ञ इस बात को मानते रहे हैं कि गणित के सब परिकर्म १. पांच जातियां ये हैं - (१) भाग जाति, (२) प्रभाग जाति, (३) भागानुबन्ध जाति, (४) भागापवाद जाति, (५) भाग-भाग जाति ।। २. बाह्यस्फुटसिद्धान्त, अध्याय १२, श्लोक १ ॥
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४०
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
मूलतः दो परिकर्मों- संकलित और व्यवकलित - पर आश्रित हैं । द्विगुणीकरण और अर्धीकरण के परिकर्म जिन्हें मिस्र, यूनान और अरब वालों ने मौलिक माना है। ये परिकर्म हिन्दू ग्रन्थों में नहीं मिलते । ये परिकर्म उन लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण थे जो दशमलव पद्धति से अनभिज्ञ थे ।'
२. व्यवहार - ब्रह्मदत्त के अनुसार पाटीगणित में आठ व्यवहार हैं
(१) मिश्रक-व्यवहार (२) श्रेढी-व्यवहार (३) क्षेत्र-व्यवहार (४) खात-व्यवहार (५) चितिव्यवहार (६) क्राकचिक व्यवहार (७) राशि-व्यवहार (८) छाया-व्यवहार ।।
पाटीगणित - यह दो शब्दों से मिलकर बना है। (१) पाटी और (२) गणित । अतएव इसका अर्थ है । वह गणित जिसको करने में पाटी की आवश्यकता पड़ती है । उन्नीसवीं शताब्दी के अन्ततक कागज की कमी के कारण प्रायः पाटी का ही प्रयोग होता था और आज भी गांवो में इसकी अधिकता देखी जाती है । लोगों की धारणा है कि यह शब्द भारतवर्ष के संस्कृतेतर साहित्य से निकलता है, जो कि उत्तरी भारतवर्ष की एक प्रान्तीय भाषा थी। ‘लिखने की पाटी' के प्राचीनतम संस्कृत पर्याय ‘पलक' और ‘पट्ट' हैं, न कि पाटी ।३ ‘पाटी', शब्द का प्रयोग संस्कृत साहित्य में प्रायः ५ वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ । गणित-कर्म को कभीकभी धूली कर्म भी कहते थे, क्योंकि पाटी पर धूल बिछा कर अंक लिखे जाते थे । बाद के कुछ लेखकों ने ‘पाटी गणित' के अर्थ में व्यक्त गणित' का प्रयोग किया है, जिसमें कि बीजगणित से, जिसे वे अव्यक्त गणित कहते थे पृथक् समझा जाए । जब संस्कृत ग्रन्थों का अरबी में अनुवाद हुआ तब पाटीगणित और धूली कर्म शब्दों का भी अरबी में अनुवाद कर लिया गया । अरबी के संगत शब्द क्रमशः ‘इल्म-हिसाब-अलतख्त' और 'हिसाब-अलगुबार'
__पाटीगणित के कुछ उल्लेखनीय ग्रन्थ- (१) वक्षाली हस्तलिपि (लगभग ३०० ई०), (२) श्रीधरकृत पाटीगणित और त्रिशतिका (लगभग ७५० ई०), (३) गणितसारसंग्रह (लगभग ८५० ई०), (४) गणिततिलक (१०३९ ई०), (५) लीलावती (११५० ई०) (६) गणितकौमुदी (१३५६ ई०) और मुनीश्वर कृत पाटीसार (१६५८ ई०) -इन ग्रन्थों में उपर्युक्त बीस परिकर्मों
और आठ व्यवहारों का वर्णन है। सूत्रों के साथ-साथ अपने प्रयोग को समझाने के लिए उदाहरण भी दिए गए हैं भास्कर द्वितीय ने लिखा है कि लल्ल ने पाटीगणित पर एक अलग ग्रन्थ लिखा है। ___ यहां श्रेणी व्यवहार का एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है । सीढ़ी की तरह गणित होने १. हिंदूगणित, पृष्ठ ११८ ॥ २. बाह्यस्फुटसिद्धान्त, अध्याय १२, श्लोक १ ॥ ३. अमेरिकन मैथेमेटिकल मंथली, जिल्द ३५, पृष्ठ ५२६ ॥ ४. हिन्दूगणितशास्त्र का इतिहास भाग १ : पृष्ठ ११७, ११९ ॥
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१४१ से इसे सेढी-व्यवहार या श्रेणी-व्यवहार कहते हैं । जैसे-एक व्यक्ति किसी दूसरे को चार रुपये देता है, दूसरे दिन पांच रुपये अधिक, तीसरे दिन उससे पांच रुपये अधिक । इस प्रकार पन्द्रह दिन तक वह हेता है । तो कुल कितने रुपये दिये ?
प्रथम दिन देता है उसे ‘आदि धन' कहते है । प्रतिदिन जितने रुपये बढ़ाता है उसे 'चय' कहते हैं । जितने दिनों तक देता है उसे 'गच्छ' कहते हैं । कुल धन को श्रेणी-व्यवहार या संवर्धन कहते है । अन्तिम दिन जितना देता है उसे 'अन्त्यधन' कहते है । मध्य में जितना देता है उसे 'मध्यधन' कहते हैं ।
विधि- जैसे गच्छ १५ हैं । इनमें एक घटाया १५-१ = १४ रहे । इसको चय से १४ x ५ गुणा किया = ७० आये । इसमें आदि धन मिलाया ७० + ४ = ७४ । यह अन्त्यधन हुआ । ७४ + ४ आदि धन = ७८ का आधा ३९ मध्यधन हुआ ।
३९ x १५ गच्छ = ५८५ संवर्धन हुआ।
इसी प्रकार विजातीय अंक एक से नौ या उससे अधिक संख्या की जोड़, उस जोड़ की जोड़ वर्गफल और घनफल की जोड़, इसी गणित के विषय हैं ।
३. रज्जु- इसे क्षेत्र-गणित कहते हैं । इससे तालाब की गहराई, वृक्ष की ऊंचाई आदि नापी जाती है।
भुज, कोटि, कर्ण, जात्यतिम्र, व्यास, वृत्तक्षेत्र और परिधि आदि इसके अंग हैं।
४. राशि- इसे राशि- व्यवहार कहते हैं । पाटीगणित में आए हुए आठ व्यवहारों में यह एक है । इससे अन्त की ढेरी की परिधि से उसका ‘घनहस्तफल' निकाला जाता है ।
अन्न के ढेर में बीच की ऊंचाई को वेध कहते हैं । मोटे अन्न चना आदि में परिधि का १/१० भाग वेध होता है । छोटे अन्न में परिधि का १/११ भाग वेध होता है । शूर धान्य में परिधि का १/९ भाग वेध होता है । परिधि का १/६ करके उसका वर्ग करने के बाद परिधि से गुणन करने से घनहस्तफल निकलता है । जैसे-एक स्थान पर मोटे अन्न की परिधि ६० हाथ की है । उसका घनहस्तफल क्या होगा ?
६० : १० = ६ वेध हुआ ।
परिधि ६० : ६ = १० इसका वर्ग १० x १० = १०० हुआ । १०० x ६ वेध = ६०० घनहस्तफल होगा ।
५. कलासवर्ण- जो संख्या पूर्ण न हो, अंशों में हो - उसे समान करना ‘कलासवर्ण' कहलाता है । इसे समच्छेदीकरण, सवर्णन और समच्छेदविधि भी कहते हैं (हिन्दू गणितशास्त्र का इतिहास, पृष्ठ १७९) । संख्या के ऊपर के भाग को 'अंश' और नीचे के भाग को ‘हर' कहते हैं।
.
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
जैसे - १/२ और १/३ है । इसका अर्थ कलासवर्ण ३/६ २ / ६ होगा ।
६. यावत् तावत् - इसे गुणकार भी कहते हैं ।
पहले जो कोई संख्या सोची जाती है उसे गच्छ कहते हैं । इच्छानुसार गुणन करने वाली संख्या को वाञ्छ या इष्टसंख्या कहते हैं ।
१४२
कहते
I
गच्छ संख्या को इष्ट - संख्या से गुणन करते हैं । उसमें फिर इष्ट मिलाते हैं । उस संख्या को पुनः गच्छ से गुणा करते हैं । तदनन्तर गुणनफल में इष्ट के दुगुने का भाग देने पर गच्छ का योग आता है । इस प्रक्रिया को 'यावत् तावत्' जैसे कल्पना करो कि इष्ट १६ है, इसको इष्ट गुणा किया १६ x १० = १६० । इसमें पुनः इष्ट १० मिलाया ( १६० + १० = १७० ) । इसको गच्छ से गुणा किया ( १७० x १६ = २७२०) इसमें इष्ट की दुगुनी संख्या से भाग दिया २७२० : २० = १३६, यह गच्छ का योगफल है । इस वर्ग को पाटीगणित भी कहा जाता है ।
१० से
७. वर्ग - वर्ग शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'पंक्ति' अथवा 'समुदाय' । परन्तु गणित में इसका अर्थ 'वर्गघात' तथा 'वर्गक्षेत्र' अथवा उसका क्षेत्रफल होता है । पूर्ववर्ती आचार्यों ने इसकी व्यापक परिभाषा करते हुए लिखा है कि 'समचतुरस्र' (अर्थात् वर्गाकार क्षेत्र) और उसका क्षेत्रफल वर्ग कहलाता है । दो समान संख्याओं का गुणन भी वर्ग है । परन्तु परवर्ती लेखकों ने इसके अर्थ को सीमित करते हुए लिखा है- “ दो समान संख्याओं का गुणनफल वर्ग है । वर्ग के अर्थ में कृति शब्द का प्रयोग भी मिलता है, परन्तु बहुत कम । इसे समद्विराशिघात भी कहा जाता है । भिन्न-भिन्न विद्वानों ने इसकी भिन्न-भिन्न विधियों का निरूपण किया है।
-
८. घन- इसका प्रयोग ज्यामितीय और गणितीय- दोनों अर्थों में अर्थात् ठोस घन तथा तीन समान संख्याओं के गुणनफल को सूचित करने में किया गया है । आर्यभट्ट प्रथम मत है- तीन समान संख्याओं का गुणनफल तथा बारह बराबर कोणों (और भुजाओं) वाला ठोस भी घन है । श्रीधर', महावीर और भाष्कर द्वितीय का कथन है कि तीन समान संख्याओं का गुणनफल घन है । घन के अर्थ में 'वृन्द' शब्द का भी यत्र कुत्र प्रयोग मिलता है । इसे 'समत्रिराशिघात' भी कहा जाता है । घन निकालने की विधियों में भी भिन्नता है।
९. वर्ग-वर्ग- वर्ग को वर्ग से गुणा करना । इसे 'समचतुर्घात' भी कहते हैं । पहले मूल संख्या को उसी संख्या से गुणा करना । फिर गुणनफल की संख्या को गुणनफल की संख्या से गुणा करना । जो संख्या आती है उसे वर्ग वर्ग फल कहते हैं । जैसे - ४ x ४ x १६ = २५६ | यह वर्ग वर्ग फल है ।
= १६
-
१. आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक ३ ।। २. त्रिशतिका, पृष्ठ ५ ॥ ३. हिन्दूगणितशास्त्र का इतिहास, पृष्ठ १४७ । ४. आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक ३ ॥ ५. त्रिशतिका, पृष्ठ ६ ।। ६. गणित - सारसंग्रह, पृष्ठ १४ ।। ७. लीलावती, पृष्ठ ५ ॥
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१४३
१०. कला गणित में इसे 'क्रकच-व्यवहार' कहते हैं । यह पाटीगणित का एक भेद है। इससे लकड़ी की चिराई और पत्थरों की चिनाई आदि का ज्ञान होता है । जैसे-एक काष्ठ मूल में २० अंगुल मोटा है और ऊपर में १६ अंगुल मोटा है । वह १०० अंगुल लम्बा है। उसको चार स्थानों में चीरा तो उसकी हस्तात्मक चिराई क्या होगी ? मूल मोटाई और ऊपर की मोटाई का योग किया- २० + १६ = ३६ । इसमें २ का भाग दिया ३६ , २ = १८। इसको लम्बाई से गुणा किया- १०० x १८ = १८०० । फिर इसे चीरने की संख्या से गुणा किया १८०० x ४ = ७२०० । इसमें ५७६ का भाग दिया ७२०० : ५७६ = १२ १/२। यह हस्तात्मक चिराई है ।
सूत्रकृतांग २।१ की व्याख्या के प्रारंभ में 'पौंडरीक' शब्द के निक्षेप के अवसर पर वृत्तिकार ने एक गाथा उद्धृत की है, उसमें गणित के दस प्रकारों का उल्लेख किया है। वहां नौ प्रकार स्थानांग के समान ही हैं । केवल एक प्रकार भिन्न रूप से उल्लिखित है । स्थानांग का कल्प शब्द उसमें नहीं है । वहां ‘पुद्गल' शब्द का उल्लेख है, जो स्थानांग में प्राप्त नहीं है ।"
स्थानाङ्गसूत्रे दशमेऽध्ययने ७४० तमे सूत्रे गणितविषयक एक उल्लेखः प्राप्यते । एतस्मिन् विषये आधुनिकैः विद्वद्भिः यथा विचार्यते तदुपदर्शनार्थं पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोधसंस्थानेन [P.V. Research Institute, I.T.I. Road, B.H.U. VARANASI-5 U.P.) 1987 A.D. aof yonifera जैन विद्या के आयाम ग्रन्थाङ्क १ Aspects of Jainology Vol.I मध्ये एको विस्तृतो निबन्धः प्रकाशितो वर्तते सोऽत्र यथायोगं संस्कार्य यथावदेवोपन्यस्यस्तेऽस्माभिः । अत्र पाठकैः क्षीरनीरविवेकन्यायेन स्वधिया विचार्यैव तत्त्वं ग्राह्यं त्याज्यं वा । किञ्च, लेखकैरशुद्धान् पाठानवलम्ब्य यच्चर्चितं तदस्मान्निबन्धादपसारितमस्माभिरित्यवश्यं विज्ञेयम्- सम्पादकः ।] ___ "जैन आगमों में निहित गणितीय अध्ययन के विषय
- अनुपम जैन एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल' जैन परम्परा में तीर्थंकरों के उपदेशों एवं उन उपदेशों की उनके प्रधान शिष्यों [गणधरों) द्वारा की गई व्याख्या को समाहित करने वाले समस्त शास्त्र आगम की संज्ञा से अभिहित किये जाते हैं । वर्तमान में उपलब्ध समस्त आगमों की रचना ५वीं शती ई० पू० से ५ वीं शती ई० के मध्य जैन परम्परा के वरिष्ठ आचार्यो द्वारा भगवान् महावीर के उपदेशों के आधार पर की गयी है । जैनधर्म की दोनों धाराएँ [दिगम्बर एवं श्वेताम्बर] आगमों की नामावली के सन्दर्भ में एकमत नहीं हैं । जहाँ दिगम्बर परम्परा षड्खंडागम, कषायप्राभृति एवं आचार्य कुन्दकुन्द
के साहित्य को आगम के रूप में मान्यता देती है, वहीं श्वेताम्बर परम्परा देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण . १. व्याख्याता (गणित) शासकीय महाविद्यालय, थ्यावरा (राजगढ) म० प्र० ४६५६७४). २. रीडर, गणित विभाग,
उच्चशिक्षा संस्थान, मेरठ, वि० वि० मेरठ (उ० प्र०)
.
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि [४५३-४५६ ई०] की अध्यक्षता में सम्पन्न वल्लभी वाचना में स्खलित एवं विलुप्त होते हुए परम्परागत ज्ञान को आधार बनाकर लिखे गये अंग, उपांग साहित्य को आगम की मान्यता देती है । ये अंग, उपांग अर्द्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं । यहाँ पर हम इन्ही आगमों को आगम के रूप में चर्चा करेंगे । ___ जैन आगम ग्रन्थों में स्थानांग [ठाणं] का महत्त्वपूर्ण स्थान है । अंग साहित्य में यह तृतीय स्थान पर आता है। मूल रूप से लगभग ३०० ई० पू० में सृजित एवं ५ वीं शती ई० में अपने वर्तमान रूप में संकलित इस अंग के दसवें अध्याय में निहित ६४वीं गाथा गणितज्ञों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । ७४७ दसविधे संखाणे पन्नत्ते- परिकम्मं ववहारो एजू वासी कलासवन्ने य । जावंताव ति वग्गो घणो त तह वग्गवग्गो वि ॥१६४॥ कप्पो त ।
इस गाथा से हमें गणित के अन्तर्गत अध्ययन के विषयों की जानकारी मिलती है । तीर्थंकर महावीर को संख्याज्ञान का विशेषज्ञ माना गया है एवं आगम ग्रन्थ उनके परंपरागत ज्ञान के संकलन मात्र हैं।
स्थानांग की इस गाथा की वर्तमान में उपलब्ध सर्वप्रथम व्याख्या अभयदेव सूरि [१०वीं शती ई०] द्वारा की गई । स्थानांग की टीका में उपर्युक्त गाथा में आये विषयों का अर्थ स्पष्ट करते हुये उन्होंने निर्धारित किया किः
१. परिकम्मं = संकलन आदि । २. ववहारो = श्रेणी व्यवहार या पाटी गणित । ३. रज्जु = समतल ज्यामिति । ४. रासी = अन्नों की ढेरी । ५. कलासवण्णे = प्राकृतिक संख्याओ का गुणन या संकलन । ६. जावंताव [यावत् तावत्] ७. वग्गो = वर्ग । ८. घणो = घन । ९. वगवग्गो = चतुर्थघात । १०. कप्पो = क्रकचिका व्यवहार ।
दत्त' [१९२९] ने लगभग ९०० वर्षों के उपरान्त उपर्युक्त व्याख्या को अपूर्ण एवं एकांगी घोषित करते हुए अपनी व्याख्या प्रस्तुत की । दत्त के समय में भी जैन गणित का ज्ञान अत्यन्त प्रारंभिक था एवं गणितीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण, वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थ उस समय तक अप्रकाशित एवं अज्ञात थे तथापि उनकी व्याख्या अभयदेवसूरि की व्याख्या की अपेक्षा तर्कसंगत प्रतीत
१. गणितसारसंग्रह-मंगलाचरण १/१, पृ० १ । २. देखें सं० । ३, पृ० ११९-१२२ ।
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१४५
होती है । उन्होंने उपर्युक्त दस शब्दों की व्याख्या निम्न प्रकार दी ।
१. अंक गणित के परिकर्म [Fundamental Operation] २. अंक गणित के व्यवहार [Subject to Treatment] ३. रेखागणित [Geometry] ४. राशियों का आयतन आदि निकालना [Mensuration of Solid bodies] ५. भिन्न [Fraction] ६. सरल समीकरण [Simple Equation] ७. वर्ग समीकरण [Quadratic Equation] ८. घन समीकरण [Cubic Equation] ९. चतुर्थ घात समीकरण [Biquadratic Equation] १०. विकल्प गणित या क्रमचय-संचय [Combination & Permutation]
दत्त द्वारा विषय की व्यापक रूप से समीक्षा किये जाने के उपरांत सर्वप्रथम कापडिया [१९३७ ई०] ने इस विषय का स्पर्श किया किन्तु निर्णय हेतु अतिरिक सामग्री प्राचीन जैन गणितीय ग्रन्थों आदि के अभाव में आपने अपना निर्णय सुरक्षित रखा । आपने लिखा किः
It is extremely difficult to reconcile these two views especially when we have at present neither any acess to a commentary prior to the one mentioned above nor to any mathematical works of Jaina authorship which is earlier to Ganita Sara Samgraha. So under these circumstances I shall be excused if I reserve this matter for further research.' __ आयंगर [१९६७ ई०] उपाध्याय [१९७१ ई०] अग्रवाल [१९७२ ई०] जैन लक्ष्मीचंद] [१९८० ई०] ने अपनी कृतियों/लेखों में इस विषय का ऊहापोह किया है । स्थानांगसूत्र के विगत २-३ दशकों में प्रकाशित अनेक सटीक संस्करणों में अभयदेवसूरि की ही मान्यता का पोषण किया गया है। जैन विश्व भारती, लाडनूं से प्रकाशित संस्करण में ३ पृष्ठीय विस्तृत परिशिष्ट में इस विषय की विवेचना की गई है किन्तु वह भी परंपरानुरूप ही है । हम यहाँ क्रमिक रूप से परिकर्म, व्यवहार आदि शब्दों की अद्यावधि प्रकाशित व्याख्याओं की समीक्षा कर निष्कर्ष निकालने का प्रयास करेंगे । परिकम्म [परिकर्म]
परिक्रियते अस्मिन् इति परिकर्म । अर्थात् जिसमें गणित की मूल क्रिया सम्पन्न की जाये उसे परिकर्म कहते हैं। परिकर्म शब्द जैन वाङ्मय के लिये नया नहीं है | अंग साहित्य के
१. देखें सं०-१०, पृ० १३ । २. देखें सं०-१३, पृ० २५-२७ । ३. देखें सं०-११, पृ० २६ । ४. देखें सं०-१, पृ० ३०-५७ । ५. देखें सं०-८, पृ० ३७-४१, ४२ । ६. देखें सं०-१, पृ० ३२ ।
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४६
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
अन्तर्गत दृष्टिवाद अंग [१२वां अंग] का एक भेद परिकर्म है। आ० कुन्दकुन्द [द्वितीय-तृतीय शती ई०] ने षट्खण्डागम के प्रथम तीन अध्यायों पर १२००० श्लोक प्रमाण परिकर्म नामक टीका लिखी थी । वीरसेन (८२६ ई०) कृत धवला में परियम्म सुत्तं' नामक ग्रन्थ का गणित ग्रन्थ के रूप में अनेकशः उल्लेख हुआ है । महावीराचार्य (८५० ई०) कृत गणितसारसंग्रह का एक अध्याय भी परिकर्म व्यवहार है जिसमें स्पष्ट परिकर्मों की चर्चा है ।' यद्यपि ब्रह्मगुप्त (६२८ ई०) ने २० परिकर्मों का उल्लेख किया है । तथापि भारतीय गणितज्ञों ने मौलिक परिकर्म ८ ही माने हैं जो कि ब्रह्मगुप्त के निम्नांकित २० परिकर्मों में से प्रथम ८ हैं । १. संकलन (जोड)
९-१३. पाँच जातियाँ (भिन्न संबंधी) २. व्यवकलन (घटाना)
१४. त्रैराशिक ३. गुणन
१५. व्यस्त त्रैराशिक ४. भाग
१६. पंच राशिक ५. वर्ग
१७. सप्त राशिक ६. वर्गमूल
१८. नव राशिक ७. घन
१९. एकादश राशिक ८. घनमूल
२०. भाण्डप्रतिभाण्ड वस्तुतः मूलपरिकर्म तो संकलन एवं व्यकलन ही है । अन्य तो उनसे विकसित किये जा सकते हैं । मिस्र, यूनान एवं अरबवासियों ने द्विगुणीकरण एवं अर्धीकरण को भी मौलिक परिकर्म माना है; किन्तु भारतवासियों ने नहीं माना है, क्योंकि दाशमिक स्थान मान पद्धति से भिज्ञ लोगों के लिए इन परिकर्मों का कोई महत्त्व नहीं है । अभिधान राजेन्द्र कोश में चूर्णि को उद्धृत करते हुए लिखा गया है कि परिकर्म गणित की वह मूलभूत क्रिया है जो कि विद्यार्थी को विज्ञान के शेष एवं वास्तविक भाग में प्रवेश के योग्य बनाती है । इनकी संख्या १६ है । भारतीय गणितज्ञों के लिये ये परिकर्म इतने सरल एवं सहज थे कि उच्चस्तरीय ग्रन्थों में इनका कोई विशेष विवरण नहीं मिलता । इसी तथ्य के आधार पर दत्त महोदय ने लिखा है कि इन साधारण परिकर्मों में से अधिकांश का उल्लेख सिद्धांत ग्रन्थों में नहीं मिलता । ___ अग्रवाल ने लिखा है कि- “इससे यह प्रतीत होता है कि गणित की मूल प्रक्रियायें चार ही मानी गई है-संकलन, व्यवकलन, गणन एवं भजन । इन चारों क्रियाओं के आधार पर ही परिकर्माष्टक का गणित विकसित हुआ है ।। ____ उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है परिकम्म का अर्थ गणित की मूलभूत प्रक्रियायें ही हैं एवं परिकम्म शब्द का आशय अंकगणित के परिकर्म से ही है । १. आपने अत्यंत सरल होने के कारण संकलन एवं व्यवकलन की विधियों की चर्चा नहीं की है। २. देखें सं०४, पृ०११८ । ३. देखें सं०-३, पृ०२४ । ४. देखें सं०-१, पृ०३३ ।
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
१४७
२. ववहारो (व्यवहार) :___ इस शब्द की व्याख्या अभयदेवसूरि ने श्रेणी व्यवहार आदि पाटीगणित के रूप में तथा दत्त महोदय ने अंकगणित के व्यवहार रूप में की है । ब्रह्मगुप्त ने व्यवहार के ८ प्रकार बताये
१. मिश्रक व्यवहार,
५. चिति व्यवहार, २. श्रेणी व्यवहार,
६. क्रकचिका व्यवहार, ३. क्षेत्र व्यवहार,
७. राशि व्यवहार, ४. खात व्यवहार,
८. छाया व्यवहार महावीराचार्य के गणितसारसंग्रह में भी सभी प्रकरण उपलब्ध हैं उससे इनकी विषयवस्तु का सुगमता से निर्धारण किया जा सकता है । श्रेणी व्यवहार गणितके क्षेत्र में जैन-मतावलम्बियों का लाघव श्लाघनीय है, तिलोयपण्णत्ति एवं धवला के साथ ही त्रिलोकसार के अन्तःसाक्ष्य' के अनुसार प्राचीन काल में मात्र धाराओं पर ही एक विस्तृत ग्रन्थ उपलब्ध था । फलतः विभिन्न व्यवहारों में श्रेणी व्यवहार के प्रमुख होने के कारण शब्द के स्पष्टीकरण में उसको प्रमुखता देते हुए लिखना स्वाभाविक प्रतीत होता है। पाटीगणित शब्द तो जैन गणित सहित सम्पूर्ण भारतीय गणित में प्रचलित है। श्रीधर (७५० ई०) कृत पाटीगणित, गणितसार, गणिततिलक; भास्कर (११५० ई०) कृत लीलावती, नारायण (१३५६ ई०) कृत गणितकौमुदी; मुनीश्वर (१६५८ ई०) कृत पाटीसार इस विषय के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों में बीस परिकर्म एवं आठ व्यवहारों का वर्णन है । अतः कहा जा सकता है कि गणितसारसंग्रह की सम्पूर्ण सामग्री परिकर्म एवं व्यवहार इन दोनों में ही समाहित है। ___ वर्तमान में व्यवहारगणित शब्द का प्रयोग पाटीगणित की उस प्रक्रिया के लिए होता है जिसमें गुणक संख्या के योगात्मक खण्ड करके गुण्य से गुणा किया जाये । जिस समय बडी संख्याओं की गुणनविधि का प्रचलन नहीं हुआ था उस समय गुणक संख्या को कई समतुल्य खण्डों में विभाजित कर पृथक्-पृथक् गुणा करके उस गुणनफल को जोड दिया जाता था, किन्तु जैनों की गुणन क्रिया में दक्षता एवं गणितीय ज्ञान की परिपक्वता को दृष्टिगत करते यह अनुमान करना निरर्थक ही है कि व्यवहार गणित गुणन के इस सन्दर्भ में आया हो सकता है । उपाध्याय, व्यवहार गणित का अर्थ Practical Arithmatics करते हैं । जब कि Srinivas lengar ने लिखा है कि "Vyavahar means applications of arithmatics to concrete problems (Applied Mathematics)' संक्षेप में ववहारो का अर्थ पाटीगणित के व्यवहार करना उपयुक्त है ।
१. त्रिलोकसार, गाथा-९१ । २. धारा का अर्थ Sequence है । ३. देखें सं०-१३, पृ०३२ ।
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४८
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
३. रज्जुः- इस पारिभाषिक शब्द का विषय-सूची में उपयोग अत्यन्त महत्वपूर्ण है । अभयदेवसूरि ने इसका अर्थ रस्सी द्वारा की जाने वाली गणनाओं से सम्बन्धित अर्थात् समतल ज्यामिति से किया था । दत्त ने इसको किंचित् विस्तृत करते हुए इसकी परिधि में सम्पूर्ण
ज्यामिति को समाहित कर लिया । अग्रवाल ने लिखा है कि
"रज्जुगणित का अभिप्राय क्षेत्रगणित में पल्य सागर आदि का ज्ञान अपेक्षित है। आरम्भ में इस गणित की सीमा केवल क्षेत्र परिभाषाओं तक ही सीमित थी पर विकसित होते-होते यह समतल ज्यामिति के रूप में वृद्धिगत हो गई है ।"१
आयंगर के अनुसार :Rajju is the ancient Hindu name for geometry which was called Sulva in the Vedic literature.
अर्थात् रज्जु रेखागणित की प्राचीन हिन्दू संज्ञा है जो कि वैदिक काल में शुल्व नाम से जानी जाती थी ।
कात्यायन शुल्वसूत्र में ज्यामिति को रज्जु समास कहा गया है ।
प्रो० लक्ष्मीचन्द जैन ने रज्जु के संदर्भ में लिखा है :- “इस प्रकार रज्जु के उपयोग का अभिप्राय जैन साहित्य में शुल्व ग्रन्थों से बिल्कुल भिन्न है । रज्जु का जैन साहित्य में मान राशिपरक सिद्धान्तों से निकाला गया है और उससे न केवल लोक के आयाम निरूपित किये गये हैं किन्तु यह माप भी दिया गया है कि उक्त रैखिक माप में कितने प्रदेशों की राशि समाई हुई है । उसका सम्बन्ध जगश्रेणी से जगप्रतर एवं घनलोक से भी है ।"
आपने संदर्भित गाथा के विषयों की व्याख्या करते हुए रज्जु का अर्थ विश्व माप की इकाई लिखा है।
वस्तुतः उस स्थिति में जबकि व्यवहार के ८ भेदों में से एक भेद क्षेत्र-व्यवहार भी है और उसमें ज्यामिति का विषय समाहित हो जाता है एवं खात, चिति, राशि एवं क्राकचिक, व्यवहार के अन्तर्गत मेन्शुरेशन (Mensuration.) का विषय भी आ जाता है । तब क्षेत्रगणित के लिये स्वतन्त्र अध्याय की इतनी आवश्यकता नहीं रह गई जितनी लोक के प्रमाण विस्तार आदि से सम्बद्ध जटिलताओं, असंख्यात विषयक राशियों के गणित से सम्बन्धित विषय की। इन विषयों का व्यापक एवं व्यवस्थित विवेचन जैन ग्रन्थों में मिलता है । जबकि यह अन्य किसी समकालीन ग्रन्थ में नहीं मिलता । विविध धार्मिक-अर्द्धधार्मिक जैन विषयों के स्पष्टी करण में इनकी अपरिहार्य आवश्यकता करणानुयोग अथवा द्रव्यानुयोग के किसी भी ग्रन्थ में देखी जा सकती है । एतद्विषयक गणित की जैन जगत् में प्रतिष्ठा का आकलन इस बात से १. देखें सं०-१, पृ० ३६ । २. देखें सं०-१३, पृ० २६ । ३. रजुसमासं वक्ष्याम, कात्यायन शुल्वसूत्र १.१ । ४. देखें सं०-८, पृ० ४५ ।
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
भी किया जा सकता है कि हेमराज ने संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त विषयक गणित पर १७वीं शताब्दी में गणितसार नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की । असंख्यात एवं अनन्त के जटिल विषयों को परिकर्म के अन्तर्गत मानना किंचित् भी उचित नहीं, क्योंकि परिकर्म में तो गणित ( लौकिक गणित ) की मूलभूत क्रियायें आती हैं ।
रज्जु, पल्य आदि की गणना सामान्य परिकर्मो से असंभव है ।
घनांगुल, जगश्रेणी एवं पल्य को अपने सामान्य अर्थ में प्रयुक्त करने पर - पल्योपम के अर्हच्छेद
असंख्यात
श्रेणी = ७ राजू =
घनांगुल
यदि पल्योपम P हो तो log2p/ असंख्यात
", घनांगुल
स्पष्टतः राजू (रज्जु) एक असंख्यात राशि हुई । असंख्यात संकेन्द्री वलयाकार वृत्तों की शृंखला में अन्तिम स्वयंभूरमण द्वीप का व्यास रज्जु बताया गया है । फलतः इस विधि से भी इसका मान असंख्यात ही मिलता है ।
राजू =
प्रो० घासीराम जैन ने आइंस्टीन के विवादास्पद संख्यात फैलने वाले लोक की त्रिज्या के आधार से प्राप्त घनफल की लोक के आयतन से तुलना करके रज्जु (राजू) का मान प्राप्त किया ।
यह मान
१.४५ x १०२१ मील एवं
१.६३ x १०२१ मील है । एक अन्य रीति से यह मान
१.१५ x १०२१ मील प्राप्त होता है
१४९
किन्तु घासीराम जैन द्वारा उद्धृत मान अपूर्ण है, क्योंकि ये सभी कल्पनाओं एवं अभिधारणाओं पर आश्रित हैं । रज्जु को तो असंख्यात रूप में ही स्वीकार करना उपयुक्त है । यह स्वीकार करने में किंचित् भी संकोच नहीं होना चाहिये कि रज्जु शुल्व काल के तुरन्त बाद से भारतीय गणित में क्षेत्रगणित के सन्दर्भ में आया है । भले ही वह मापने वाली रस्सी रहा हो या मापन क्रिया । यह शब्द रेखागणित तथा त्रिभुज, चतुर्भुज की चारों भुजाओं के योग के रूप में भी प्रयुक्त हुआ है। तथापि यह आवश्यक नहीं है कि यह इस गाथा या सिद्धान्त ग्रन्थों में भी इसी अर्थ में आया हो । इस विषय के विस्तार में न जाकर हम यहाँ इतना कहना उचित समझते हैं कि प्रस्तुत गाथा में रज्जु शीर्षक हमें उस विषय की ओर इंगित करता है जिसमें लोक के विस्तार, लोक संरचना, जघन्य परीत एवं जघन्य युक्त एवं जघन्य असंख्यात १. देखें सं०-६, पृ० २२-२३ । २. देखें सं०-५, पृ० ९२ । ३. देखें सं०-११ पृ० २१५, २१६ ।
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि का गणित समाहित है । यदि हम यह कहें कि रज्जु का प्रमाण लोकोत्तर प्रमाण की ओर इंगित करता है तो अनुपयुक्त न होगा । शब्दों के अर्थ काल परिवर्तन, विषय परिवर्तन, सन्दर्भ परिवर्तन से कितने बदल जाते हैं । यह विषय भाषाविज्ञान के वेत्ताओं हेतु नया नहीं है । हमारे विचार से रज्जु की व्याख्या में अभयदेव एवं दत्त दोनों ही असफल रहे हैं एवं लक्ष्मीचन्द जैन ने सही दिशा की ओर संकेत किया है । रासी (राशि) :
इस शब्द की व्याख्या में अभयदेव एवं दत्त में गम्भीर मतभेद है । अभयदेव ने रासी का अर्थ अन्नों की ढेरी किया है जबकि दत्त ने उनकी व्याख्या को पूर्णतः निरस्त करते हुए लिखा
"The term răsi appears in later Hindu works, except this last mentioned one (G.S.S.) and means measurement of mounds of grains. But I do not think that it has been used in the same sense in the cononical works for measurement of heaps of grain has never been given any prominence in later mathematical works and indeed it does not deserves any prominance. ___अर्थात् राशि शब्द गणितसार संग्रह के बाद के सभी ग्रन्थों में अन्नों की ढेरी के मापन के सन्दर्भ में आया है किन्तु मैं नहीं समझता कि यह प्राचीन सिद्धान्त-ग्रन्थों में भी इसी सन्दर्भ में प्रयुक्त हुआ होगा । अन्नों की ढेरी के मापन को बाद के ग्रन्थों में भी कोई महत्त्व नहीं दिया गया और न यह दिया जाने योग्य है ।
उन्होंने आगे लिखा है कि राशि का अर्थ अन्नों की ढेरी संकुचित है एवं यह शब्द व्यापक रूप से ज्यामिति की ओर इंगित करता है | परवर्ती हिन्दू गणित ग्रन्थों में यह प्रकरण खात व्यवहार के अन्तर्गत आया है एवं राशि इसका एक छोटा भाग है ।
प्रो० 'लक्ष्मीचन्द जैन ने एक स्थान पर रासी का अर्थ समुच्चय/अन्नों की ढेरी लिखा है। हमारे विचार में सूरि एवं दत्त दोनों के अर्थ समीचीन नहीं हैं । समुच्चय अर्थ अनेक कारणों से ज्यादा उपयुक्त लगता है ।
राशि शब्द की व्याख्या करते हुए जैन ने लिखा है कि इस पारिभाषिक शब्द पर गणित इतिहासज्ञों ने ध्यान नहीं दिया। राशि के अभिवृत्त-सेट (Set) जैसे ही हैं। राशि के पर्यायवाची शब्द समूह, ओघ, पुंज, वृन्द, सम्पात, समुदाय, पिण्ड, अवशेष तथा सामान्य हैं । जैन कर्म एवं दर्शन सम्बन्धी साहित्य में वीरसेन (८२८ ई० लगभग) तक इसका उपयोग अत्यधिक होने लगा था । इसका उपयोग परवर्ती हिन्दू गणित ग्रन्थों में त्रैराशिक पंचराशि के रूप में भी हुआ १. देखें सं०-३, पृ० १२० । २. देखें सं०-१, पृ० ३५ । ३. देखें सं०-८, पृ० ४३ ।
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१५१ है । अभिधान राजेन्द्रकोष में राशि का प्रयोग समूह, ओघ, पुंज, सामान्य वस्तुओं का संग्रह, शालि, धान्यराशि, जीव, अजीव राशि, संख्यान राशि के रूप में बतलाया गया है। तिलोयपण्णत्ति (४७३-६०९ ई०) में सृष्टि विज्ञान के सन्दर्भ में प्रयुक्त समुच्चयों हेतु राशि का अनेकशः उपयोग हुआ है।
किसी भी राशि के अवयव का उसी राशि के सदस्यता विषयक सम्बन्ध होता है । राशि की संरचना करने वाले ६ द्रव्य निम्न हैं : १. जीव,
२. पुद्गल परमाणु, ३. धर्म ४. अधर्म, ५. आकाश
६. कालाणु राशि रचने वाली इकाइयाँ समय, प्रदेश, अविभागी, प्रतिच्छेद, वर्ग एवं सम्प्रदायबद्ध हैं।
अपने लेख में जैन ने जैनागमों एवं उसकी टीकाओं में पाये जाने वाले समुच्चयों के प्रकार, उदाहरण लिखने की विधि संकेतात्मक विधि, पद्धति, उन पर सम्पादित की जाने वाली विविध संक्रियाओं का विवरण दिया है । इससे स्पष्ट है कि प्राचीन जैनगणित में आधुनिक समुच्चय गणित के बीज विद्यमान थे किन्तु समुचित पारिभाषिक शब्दावली (Terminology) के अभाव में आधुनिक चिन्तक उसे हृदयंगम नहीं कर पा रहे हैं । प्राचीन शब्दावली एवं एतद्विषयक वर्तमान शब्दावली में अत्यधिक मतभेद है ।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि राशि शब्द सन्दर्भित गाथा में समुच्चय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इस तथ्य को अस्वीकार करने पर जैन गणित का एक अतिविशिष्ट एवं अद्वितीय क्षेत्र, कर्म सिद्धान्त का गणित, उपेक्षित रह जाता है । यह तथ्य भी हमारी विचारधारा को पुष्ट करता है।
५. कलासवन्ने (कलासवर्ण)-भिन्नों से सम्बद्ध गणित को व्यक्त करने वाला यह शब्द निर्विवाद है क्योंकि वक्षाली हस्तलिपि से महावीराचार्य (८५० ई०) पर्यन्त यह शब्द मात्र इसी अर्थ में प्रत्युक्त हुआ है । जो संख्या पूर्ण न हो अंशों में हो उसे समान करना कला सवर्ण कहलाता है । इसे समच्छेदीकरण, सवर्णन और समच्छेद विधि भी कहते हैं । कला शब्द का प्रयोग तिलोयपण्णत्ति में भिन्न के अर्थ में हुआ है। जैसे एक बटे तीन को “एक्कला तिविहत्ता'२ से व्यक्त किया गया है, अतः कला सवर्ण विषय के अन्तर्गत भिन्नों पर अष्ट परिकर्म, भिन्नात्मक श्रेणियों का संकलन प्रहसन एवं विविध जातियों का विवेचन आ जाता है।
६. जावंताव (यावत् तावत्)-इसे गुणाकार भी कहा जाता है । अभयदेवसूरि ने इसकी व्याख्या प्राकृतिक संख्याओं का गुणन या संकलन के रूप में की । इसका निर्वचन व्यवहार १. देखें सं०-९, पृ० १ । २. तिलोयपण्णत्ति-२।११२ । ३. 'जावं तावति वा गुणकारो त्ति वा एगटुं' स्थानांगवृत्तिपत्र ४७१ ।
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि रूप में करते हुए बताया गया कि यदि पहले जो संख्या सोची जाती है उसे गच्छ, इच्छानुसार गुणन करने वाली संख्या वाञ्च्छ या इष्ट संख्या कहें तो पहले गच्छ संख्या को इष्ट संख्या से गुणा करते हैं, उसमें फिर इष्ट को मिलाते हैं, उस संख्या को पुनः गच्छ से गुणा करते हैं । तदनन्तर गुणनफल में इष्ट के दुगुने से भाग देने पर गच्छ का योग आ जाता है । अर्थात् यदि गच्छ = n, इष्ट = x तो प्राकृतिक संख्याओं का योग । S = n(nx + x)
2x इसी को विविच्छित, यादृच्छा, वाञ्च्छा, यावत्-तावत् राशि कहते हैं । इस सम्पूर्ण क्रिया को यावत्-तावत् कहते हैं । ___ जैन ने लिखा है कि इस शब्द का प्रयोग उन सीमाओं को व्यक्त करता है जिन परिणामों को विस्तृत करना होता है; अथवा सरल समीकरण की रचना करनी होती है । इसका अर्थ जहाँ तक वहाँ तक भी होता है ।'' ....हिन्दू बीजगणित में इस पारिभाषिक शब्द का बडा महत्व है, इस शब्द का उद्भव या तो यदृच्छा अर्थात् विवक्षित राशि से अथवा वाच्छा (अर्थात् इच्छित) राशि से हुआ है । वक्षाली हस्तलिपि में इसका प्रयोग कूटस्थिति नियम को ध्वनित करने हेतु हुआ है। यह भी सुझाव प्राप्त हुआ है कि इसका सम्बन्ध अनिर्धत (Indeterminate) अथवा अपरिभाषित अथवा अपरिभाषित इकाइयों की राशि से भी है । इस प्रकार जावं तावं से एक यह अर्थ भी ध्वनित होता प्रतीत होता है कि कोई भी संख्या को परिमित सीमा से लेकर उत्कृष्ट संख्येय तक ले जाते हैं तो जघन्य परीत असंख्येय के केवल एक कम होता
___आयंगर (१९६७ ई०) भी इस शब्द की व्याख्या करते समय जटिलता का अनुभव करते हैं, वे लिखते हैं कि
The Word Yavat Tavat is the word for the unknown quantity in ancient Hindu Mathematics and provides the algebric symbol Ya (IT). It is difficult to account for this except by saying that it means the Science of Algebra in however redimentom form it may have existed. Besides the problem on indices in a general form. This subject may have included solutions of the problems of Arithmetics by assuming unknown quantities simple Summations."
अग्रवाल ने अपने शोध-प्रबंध में इस गाथा के ९ विषयों की विवेचना तो की है किन्तु यावत् तावत् को स्पर्श भी नहीं किया । आखिर क्यों ?
१. देखें सं० ८, पृ० ३७ । २. वहीं पृ० ४६ । ३. देखें सं०-१३, पृ० २६ । ४. देखें सं०-१०, पृ० ४८,४९।
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१५३ दत्त महोदय ने इस गाथा के प्रथम ५ शब्दों की अभयदेवसूरि द्वारा दी गई व्याख्यायें कतिपय संशोधनों सहित स्वीकार कर ली किन्तु बाद के पाँच शब्दों जावतावति वग्गो, घणोवग्ग वग्गो एवं विकप्पोत की व्याख्याओं को पूर्णत: निरस्त करते हुए लिखा है कि
In the identification of the remaining terms (last five). The commentator is not only of no help but is, on the other hand, positively misleading.'
दत्त महोदय ने इस शब्द की व्याख्या करते हुए आगे लिखा है कि:
I venture to presume that the term Yavat-Tavat is connected with the rule of False position which in the early stage of Science of Algebra in every country, was the only method of solving linear equations. It is interesting to find that this method was once given so much importance in Hindu Algebra that the section dealing with it was named after it. ___ इस प्रकार आपने यावत् तावत् को सरल समीकरण से सम्बद्ध किया । जो उचित ही है। क्योंकि
S = n(x+x)
2x में से x कामन लेकर अंश एवं हर में से काट देने पर यह बनता है जो कि प्राकृतिक संख्याओं के योग का सूत्र है । S = (n) (n+i) यह विषय तो परिकर्म के अन्तर्गत आ
ही जाता है । अतः दत्त की व्याख्या विचार अधिक तर्कसंगत है । ७-८-९ वग्गो, घणो, वग्गवग्गो (वर्ग, घन एवं चतुर्थ घात) :
अभिधान राजेन्द्र में इन तीनों शब्दों की व्याख्या आगमिक उद्धरणों सहित दी गई है जहाँ इनके अर्थ क्रमश: वर्ग करना, घन करना एवं वर्ग का वर्ग करना है । अग्रवाल ने भी अपने शोधप्रबंध में वर्ग के उल्लेखों को संकलित किया है। उन सबसे स्वाभाविक रूप में यह प्रतीत होता है कि ये शब्द निश्चित रूप से वर्तमान में प्रचलित अर्थो (ज्यामितीय अर्थ नहीं) में ही प्रयुक्त हुये हैं। किन्तु यहाँ भी हम अपने पूर्व तर्क को उद्धृत करते हैं जब वर्ग एवं घन करना ये दोनों क्रियायें मूल परिकर्मों में आ जाती हैं तब उन्हें नवीन विषय के रूप में प्रतिष्ठित करने का क्या औचित्य ? पुनः अनुयोगद्वार सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र आदि प्राचीन ग्रन्थों में जब घातांको के सिद्धान्त उपलब्ध हैं एवं उनमें १२वीं घात तक के प्रयोग निर्दिष्ट है - तब चतुर्थ घात को ही क्यों विशेष महत्त्व दिया गया ? धवला में निहित वर्गित संवर्गित की प्रक्रिया में २५६ तक की घात आ जाती है । चतुर्थ घात निकालने की क्रिया वर्ग करने की १. देखें सं०-३, पृ० १२२ । २. देखें सं०-३, पृ० १२२ । ३. अनुयोगद्वार सूत्र-१४२ । ४. धवला, पुस्तक-३ । ५. देखें सं०-३, पृ० १७२ ।
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
क्रिया की पुनरावृत्ति के समतुल्य है । जैनाचार्य वर्ग एवं घन करने की अपेक्षा अधिक जटिल क्रियाओं वर्गमूल एवं घनमूल निकालने में विशेष सिद्धहस्त थे । यदि वर्ग एवं घन को स्वतंत्र विषय की मान्यता दी गई तो उन्हें भी दी जानी चाहिये । लेकिन ऐसा नहीं किया गया । आखिर क्यों ?
संभवतः उपर्युक्त प्रश्नों एवं अन्य कारणों को ही दृष्टिगत करते हुए दत्त ने भी लिखा कि
"I have no doubt in my mind that "Varga' refers to quadratic equation "Ghan' refers to cubic equation and "Vargavarga' to biquadratic equation'.
यद्यपि आज के उपलब्ध आगमों में हमें घन समीकरण एवं चतुर्थघात समीकरण के स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलते किन्तु वर्तमान में अनुपलब्ध ग्रन्थों में उनका पाया जाना अस्वाभाविक नहीं है । आगमिक ज्ञान के आधार पर रचित गणितसार संग्रह में तो ऐसे उल्लेख प्रचुर हैं अतः दत्त का कथन असत्य नहीं कहा जा सकता है । आयंगर एवं जैन ने भी उनका समर्थन किया
१०. कप्पो (कल्प)-पाठ को स्वीकार करते हुए अभयदेवसूरि ने इसकी व्याख्या में लिखा है कि इससे लकडी की चिराई एवं पत्थरों की चिनाई का ज्ञान होता है । पाटीगणित में इसे क्रकचिका व्यवहार कहते हैं । अभयदेव ने इसको उदाहरण से भी समझाया है ।
स्थानांगसूत्र के सभी उपलब्ध संस्करणों में हमें यही पाठ एवं अर्थ मिलता है किन्तु दत्त, कापडिया, उपाध्याय, अग्रवाल एवं जैन आदि सभी ने इसे विकप्पो रूप में उद्धृत किया है एवं इसका अर्थ विकल्प (गणित) किया है । विकल्प एवं भंग जैन साहित्य में क्रमचय एवं संचय के लिये आये हैं । जैन ग्रन्थों में इस विषय को विशुद्धता एवं विशिष्टता के साथ प्रतिपादित किया गया है।
क्रकचिका व्यवहार, व्यवहारों का ही एक भेद होने तथा विकल्प (अथवा भंग) गणित के विषय का दार्शनिक विषयों की व्याख्या में प्रचुरता एवं अत्यन्त स्वाभाविक रूप से प्रयोग, यह मानने को विवश करता है कि विकल्पगणित जैनाचार्यो में ही नहीं अपितु प्रबुद्ध श्रावकों के जीवन में भी रच-पच गया था, तभी तो विषय के उलझते ही वे विकल्पगणित के माध्यम से उसे समझाने लगते थे । ऐसी स्थिति में विकल्पगणित को गणित विषयों की सूची में भी समाहित न करना समीचीन नहीं कहा जा सकता। उल्लेखनीय है कि विकल्प गणित कोई सरल विषय नहीं था तभी तो अन्य समकालीन लोगों ने इसका इतना उपयोग नहीं किया । जैन ही इसमें लाघव को प्राप्त थे । अतः विकप्पो त का अर्थ विकल्प (गणित) ही है ।
विषय के समापन से पूर्व विषय से सम्बद्ध कतिपय अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख भी १. देखें सं० १३, पृ०२८ ।
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५५
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि आवश्यक है । आगम ग्रन्थों में चर्चित गणितीय विषयों की जानकारी देने वाली एक अन्य गाथा शीलांक (९वीं श० ई०) ने सूत्रकृतांग की टीका में पुण्डरीक शब्द के निक्षेप के अवसर पर उद्धृत की है । गाथा निम्नवत् है
परिकम्म रज्जु रासी ववहारे तह कलासवण्णे य ॥५॥
पुग्गल जावं तावं घणे य घणवग्ग वग्गे य । इससे स्पष्ट है कि इस गाथा में भी विषयों की संख्या १० ही है किन्तु उसमें स्थानांग में आई गाथा के विकप्पो त के स्थान पर पुग्गल शब्द आया है । अर्थात् यहाँ पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय माना गया है, विकल्प को नहीं । शेष नौ प्रकार स्थानांग के समान ही हैं ।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय माना जाये ? इस संदर्भ में दत्त महोदय ने तो स्पष्ट लिखा है कि
Pudgala as a topic for discussion in mathematics is meaningless. अर्थात् पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय स्वीकार करना निरर्थक है । किन्तु विचारणीय यह है कि यह निष्कर्ष आप के द्वारा तब दिया गया था जब कर्म सिद्धान्त का गणित प्रकाश में नहीं आया था । उस समय तक Relativity के संदर्भ में जैनाचार्यों के प्रयास भी प्रकाशित नहीं हुये थे । आज परिवर्तित स्थिति में यह निष्कर्ष इतनी सुगमता से गले नहीं उतरता । क्योंकि असंख्यात विषयक गणित, राशि गणित (Set theory) आदि का मूल तो पुद्गल ही है । मापन की पद्धतियाँ तो यहीं से प्रारम्भ होती हैं । एक तथ्य यह भी है कि शीलांक ने भी तो इसे किसी प्राचीन ग्रन्थ से ही उद्धृत किया होगा। लेकिन समस्या यह है कि पुद्गल को गणित का विषय स्वीकार करने पर विकल्प छूट जाता है । जबकि विकल्प तो अत्यधिक एवं निर्विकल्प रूप से जैन ग्रन्थों में आता है । यहाँ हमें बृहत्कल्प भाष्य की एक पंक्ति कुछ मदद करती है ।
“भंग गणिताइ गमिकं"५ मलयगिरि ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि भंग (विकल्प) एवं गणित अलगअलग हैं ।
संक्षेप में यह विषय विचारणीय है एवं अभी यह निर्णय करना उपयुक्त नहीं है कि पुद्गल को गणितीय अध्ययन का विषय स्वीकार किया जाये अथवा नहीं । ___ इस विषय पर अभी और व्यापक विचार विमर्श अपेक्षित है । 1. Agrawal, N.B. - ‘गणित एवं ज्योतिष के विकास में जैनाचार्यों का योगदान' आगरा Lal
वि० वि० में प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध १९७२ । १. सूत्रकृतांग-श्रुतस्कन्ध-२, अध्याय-१, सूत्र-१५४ । २. देखें सं०-३, पृ० १२० । ३. ठाणं, पृ० ९९४ । ४. देखें सं०-३, पृ० १२० । ५. बृहत्कल्पभाष्य, १४३ । ६. देखें सं० १०, पृ० XIII ।
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५६
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
Bose, D.M. &
Sen, S N
Dutt, B.B.
14.
Dutt, B. B. & -
Singh_A.N.
Jain G.R. -
15.
16.
17.
Jain, L.C.
Jain L.C. -
Jain L. C. -
Jain, L. C. -
10. Kapadia, H.R.
11. Upadhyaya, B.L. - 'प्राचीन भारतीय गणित' विज्ञान भारती, दिल्ली १९७१
12. Shah, A.L. -
13. Srinivas, -
C.P. Iengar
-
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
"A Concise History of Sciencess in India'
I.N.S.A.
New Delhi. 1971
"The Jaina School of Mathematics' B.C.M.S. (Calcatta). 21 pp. 115-143,1929
'हिन्दू गणित शास्त्र का इतिहास' (हिन्दी संस्करण) अनु० डा० कृपाशंकर शुक्ल - उ० प्र० हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, (लखनऊ, १९६७। "Cosmology Old & New' (Hindi Ed) Bhartiya Jnanpitha, New Delhi 1974.
‘तिलोयपण्णत्ति का गणित' अन्तर्गत जम्बुद्दीवपण्णत्तिरागते, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर १९५० ।
"Set Theory in Jaina School of Mathematics
I.J.H.S. (Calcutta) 8-1, pp. 1-27, 1973
'आगमों में निहित गणितीय सामग्री एवं उसका मूल्यांकन' 'तुलसी पूज्य' लाडनूं' पृ० ३५-७४, १९८०
Exact Sciences from Jaina Sciences,
-
-
Vol.I Rajasthan Prakrita Bharati, Jaipur 1983.
Introduction of Gamita Tilak' Gaekwad Oriental Series, Baroda 1937.
'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास - भाग ५ पा० वि० शोध संस्थान, वाराणसी १९६९ ।
The History of Ancient Indian Mathematics National World Press Calcutta 1967.
अंगसुत्ताणि - भाग १, जैन विश्व भारती, लाडनूं १९७५
ठाणं (स्थानांग सुत्त) सटीक, जैन विश्व भारती, लाडनूं १९८० तिलोयपण्णत्ति-सटीक जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर १९४४ 'गणितसार संग्रह ( हिन्दी संस्करण) जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर १९६२ "
[पृ०८५५ पं०१४] संकलन- व्यवकलनादयोऽनेके भेदा: गणिततिलकादिषु पाटीगणितादिग्रन्थेषु विस्तरेण वर्णिताः सन्ति ॥
[पृ०८५५ पं०१९] “वर्गः समचतुरश्रः फलं च सदृशद्वयस्य संवर्गः । वर्गः करणी कृतिः वर्गणा यावकरणमिति पर्यायाः " - इति भास्करविरचितटीकासहिते आर्यभटीये गणितपादे ॥
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१५७ [पृ०८५६] “होही पजोसवणा मम य तया अंतराइयं हुजा । गुरुवेयावच्चेणं तवस्सिगेलन्नयाए वा ॥१५६६॥ सो दाइ तवोकम्मं पडिवज्जे तं अणागए काले । एयं पच्चक्खाणं अणागयं होइ नायव्वं ॥१५६७॥ भविष्यति पर्युषणा मम च तदा अन्तरायं भवेत्, केन हेतुनेत्यत आह-गुरुवैयावृत्येन तपस्विग्लानतया वेत्युपलक्षणमिदमिति गाथासमासार्थः ॥१५६६॥ स इदानीं तपःकर्म प्रतिपद्येत तदनागतकाले तत्प्रत्याख्यानमेवम्भूतमनागतकरणादनागतं ज्ञातव्यं भवतीति गाथार्थः ॥१५६७॥” - आव० हारि० ।
[पं०५,६] तुलना- “तुल्यद्विसमाहतिर्वा ॥२१॥... समत्रिराशिप्रहतिर्घनो वा ॥२६॥” इति श्रीपतिविरचिते गणिततिलके ॥
[पं०१३] “दश भेदान् प्रतिपादयन्नाह- अणागदमदिकंतं कोडीसहिदं णिखंडिदं चेव । सागारमणागारं परिमाणगदं अपरिसेसं ॥१३६॥ अणागदं अनागतं भविष्यत्कालविषयोपवासादिकरणं चतुर्दश्यादिषु यत्कर्त्तव्यं तत्त्रयोदश्यादिषु यत् क्रियते तदनागतं प्रत्याख्यानम्, अदिकंतं अतिक्रान्तम् अतीतकालविषयोपवासादिकरणं चतुर्दश्यादिषु यत्कर्त्तव्यमुपवासादिकं तत्प्रतिपदादिषु क्रियतेऽतिक्रान्तं प्रत्याख्यानम् । कोडीसहिदं कोटिसहितं संकल्पसमन्वितं शक्त्यपेक्षयोपवासादिकं श्वस्तने दिने स्वाध्यायवेलायामतिक्रान्तायां यदि शक्तिर्भविष्यत्युपवासादिकं करिष्यामि नो चेन्न करिष्यामीत्येवं यत् क्रियते प्रत्याख्यानं तत्कोटिसहितमिति, णिक्खंडिदं निखंडितं अवश्यकर्त्तव्यं पाक्षिकादिषूपवासकरणं निखंडितं प्रत्याख्यानम्, साकारं सभेदं सर्वतोभद्रकनकावल्याद्युपवासविधिर्नक्षत्रादिभेदेन करणं तत्साकारप्रत्याख्यानम्, अनाकारं स्वेच्छयोपवासविधिर्नक्षत्रादिकमंतरेणोपवासादिकरणमनाकारं प्रत्याख्यानम्, परिमाणगतं प्रमाणसहितं षष्ठाष्टमदशमद्वादशपक्षार्द्धपक्षमासादिकालादिपरिमाणेनोपवासादिकरणं परिमाणगतं प्रत्याख्यानम्, अपरिशेषं यावज्जीवं चतुर्विधाऽऽहारादित्यागोऽपरिशेषं प्रत्याख्यानम् ॥१३६।।
तथा- अद्धाणगदं णवमं दसमं तु सहेदुगं वियाणाहि । पच्चक्खाणवियप्पा णिरुत्तिजुत्ता जिणमदह्मि ॥१३७॥ अद्धाणगदं अध्वानं गतमध्वगतं मार्गविषयाटवीनद्यादिनिष्क्रमणद्वारेणोपवासादिकरणम्। अध्वगतं नाम प्रत्याख्यानं नवमम्, सहहेतुना वर्त्तत इति सहेतुकमुपसर्गादिनिमित्तापेक्षमुपवासादिकरणं सहेतुकं नाम प्रत्याख्यानं दशमं विजानीहि, एवमेतान्प्रत्याख्यानकरणविकल्पान्विभक्तियुक्तान्तथानुगतान् परमार्थरूपाञ्जिनमते विजानीहीति ॥१३७॥ - इति मूलाचारे वसुनन्दिश्रमणविरचितटीकासहिते ॥
[पृ०८५७] “पजोसवणाइ तवं जो खलु न करेइ कारणज्जाए । गुरुवेयावच्चेणं तवस्सिगेलन्नयाए वा ॥१५६८॥ सो दाइ तवोकम्मं पडिवज्जइ तं अइच्छिए काले । एयं पच्चक्खाणं अइकंतं होइ नायव्वं ॥१५६९।। पट्ठवणओ अ दिवसो पच्चक्खाणस्स निट्ठवणओ अ । जहियं समिति दुन्निवि तं भन्नइ कोडिसहियं तु ॥१५७०॥ मासे मासे अ तवो अमुगो
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि अमुगे दिणंमि एवइओ । हटेण गिलाणेण व कायव्वो जाव ऊसासो ॥१५७१॥ एवं पच्चक्खाणं नियंटियं धीरपुरिसपन्नत्तं । जं गिण्हंतऽणगारा अणिस्सि(ब्भि)अप्पा अपडिबद्धा ॥१५७२॥ चउदसपुव्वी जिणकप्पिएसु पढमंमि चेव संघयणे । एयं विच्छिन्नं खलु थेरा वि तया करेसी य ॥१५७३॥ पर्युषणायां तपो यः खलु न करोति कारणजाते सति, तदेव दर्शयति गुरुवैयावृत्येन तपस्विग्लानतया वेति गाथासमासार्थः ।।१५६८॥ स इदानीं तपःकर्म प्रतिपद्यते तदतिक्रान्ते काले एतत् प्रत्याख्यानम्-एवंविधमतिक्रान्तकरणादतिक्रान्तं भवति ज्ञातव्यमिति गाथासमासार्थः ॥१५६९।। भावत्थो पुण पज्जोसवणाए तवं तेहिं चेव कारणेहिं न करेइ, जो वा न समत्थो उववासस्स गुरुतवस्सिगिलाणकारणेहिं सो अतिक्कते करेति, तथैव विभासा । व्याख्यातमतिक्रान्तद्वारम्, अधुना कोटीसहितद्वारं विवृण्वन्नाह-प्रस्थापकश्च प्रारम्भकश्च दिवसः प्रत्याख्यानस्य निष्ठापकश्च समाप्तिदिवसश्च यत्र प्रत्याख्याने समिति त्ति मिलतः द्वावपि पर्यन्तौ तद् भण्यते कोटीसहितमिति गाथासमासार्थः ॥१५७०॥ भावत्थो पुण जत्थ पच्चक्खाणस्स कोणो कोणो य मिलति, कथं ?- गोसे आवस्सए अभत्तट्ठो गहितो अहोरत्तं अच्छिऊण पच्छा पुणरवि अभत्तहँ करेति, बितियस्स पट्ठवणा पढमस्स निट्ठवणा, एते दोऽवि कोणा एगट्ठा मिलिता, अट्ठमादिसु दुहतो कोडिसहितं जो चरिमदिवसे तस्सवि एगा कोडी, एवं आयंबिलनिव्वीतियएगासणा एगट्ठाणगाणि वि, अथवा इमो अण्णो विही-अभत्तटुं कतं आयंबिलेण पारितं, पुणरवि अभत्तहँ करेति आयंबिलं च, एवं एगासणगादीहि वि संजोगो कातव्वो, णिव्वीतिगादिसु सव्वेसु सरिसेसु विसरिसेसु य । गतं कोटिसहितद्वारम्, इदानीं नियन्त्रितद्वारं न्यक्षेण निरूपयन्नाह-मासे मासे च तपः अमुकं अमुके अमुकदिवसे एतावत् षष्ठादि हृष्टेन नीरुजेन ग्लानेन वा अनीरुजेन कर्त्तव्यं यावदुच्छ्वासो यावदायुरिति गाथासमासार्थः ॥१५७१॥ एतत् प्रत्याख्यानमुक्तस्वरूपं नियन्त्रितं धीरपुरुषप्रज्ञप्त-तीर्थकरगणधरप्ररूपितं यद् गृह्णन्ति प्रतिपद्यन्ते अनगारा साधवः अनिभृतात्मानः अनिदाना अप्रतिबद्धाः क्षेत्रादिष्विति गाथासमासार्थः ॥१५७२॥ इदं चाधिकृतप्रत्याख्यानं न सर्वकालमेव क्रियते, किं तर्हि ?, चतुर्दशपूर्विजिनकल्पिकेषु प्रथम एव वज्रऋषभनाराचसंहनने, [अधुना तु] एतद् व्यवछिन्नमेव, आह-तदा पुनः किं सर्व एव स्थविरादयः कृतवन्तः आहोश्विजिनकल्पिकादय एवेति ? उच्यते, सर्व एव, तथा चाह-स्थविरा अपि तथा(दा) चतुर्दशपूर्व्यादिकाले, अपिशब्दादन्ये च कृतवन्त इति गाथासमासार्थः ॥१५७३।। __ अधुना कृतपरिमाणद्वारमधिकृत्याह- दत्तीहि उ कवलेहि व घरेहिं भिक्खाहिं अहव दव्वेहिं। जो भत्तपरिच्चायं करेइ परिमाणकडमेयं ॥१५७६॥ दत्तीभिर्वा कवलैर्वा गृहैर्भिक्षाभिरथवा द्रव्यैः ओदनादिभिराहारायामितमानैर्यो भक्तपरित्यागं करोति परिमाणकडमेतं ति कृतपरिमाणमेतदिति गाथासमासार्थः ॥१५७६।।
अधुना निरवशेषद्वारावयवार्थम् अभिधातुकाम आह- सव्वं असणं सव्वं पाणगं सव्वखजभुजविहं। वोसिरइ सव्वभावेण एवं भणियं निरवसेसं ॥१५७७।। सर्वमशनं सर्वं
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि वा पानकं सर्वखाद्यभोज्यं विविधं खाद्यप्रकारं भोज्यप्रकारं च व्युत्सृजति परित्यजति सर्वभावेन सर्वप्रकारेण भणितमेतन्निरवशेष तीर्थकरगणधरैरिति गाथासमासार्थः ॥१५७७।। वित्थरत्थो पुण जो भोअणस्स सत्तरविधस्स वोसिरति पाणगस्स अणेगविधस्स खंडपाणमादियस्स खाइमस्स अंबाइयस्स सादिमं अणेगविधं मधुमादि एतं सव्वं जाव वोसिरति एतं णिरवसेसं । गतं निरवशेषद्वारम् ।" - आव० हारि० ।
[पृ०८५८] “इदानीं सङ्केतद्वारविस्तरार्थप्रतिपादनायाह- अंगुट्ठमुढिगंठीघरसेउस्सासथिवुगजोइक्खे। भणियं सकेयमेयं धीरेहिं अणंतनाणीहिं ॥१५७८॥ अङ्गुष्ठश्च मुष्टिश्चेत्यादिद्वन्द्वः अङ्गुष्ठमुष्टिग्रन्थिगृहस्वेदोच्छ्वासस्तिबुकज्योतिष्कान् तान् चिन्हं कृत्वा यत् क्रियते प्रत्याख्यानं तत् भणितम्-उक्तं सङ्केतमेतत्, कैः ?- धीरैः अनन्तज्ञानिभिरिति गाथासमासार्थः ॥१५७८।। अवयवत्थो पुण केतं नाम चिंधं, सह केतेन सङ्केतं, सचिह्नमित्यर्थः, 'साधू सावगो वा पुण्णे वि पच्चक्खाणे किंचि चिण्हं अभिगिण्हति, जाव एवं तावाधं ण जिमेमि त्ति, ताणिमाणि चिह्नानि, अंगुट्ठमुट्ठिगंठिघरसेऊसासथिबुगदीवताणि, तत्थ ताव सावगो पोरुसीपच्चक्खाइतो ताथे छेत्तं गतो, घरे वा ठितो ण ताव जेमेति, ताथे ण किर वट्टति अपच्चक्खाणस्स अच्छितुं, तदा अंगुट्ठचिंधं करेति, जाव ण मुयामि ताव न जेमेमि त्ति, जाव वा गंठिं ण मुयामि, जाव घरं ण पविसामि, जाव सेओ ण णस्सति जाव वा एवतिया उस्सासा पाणियमंचिताए वा जाव एत्तिया थिबुगा उस्साबिंदूथिबुगा वा, जाव एस दीवगो जलति ताव अहं ण भुंजामि त्ति, न केवलं भत्ते अण्णेसु वि अभिग्गहविसेसेसु संकेतं भवति, एवं ताव सावयस्स, साधुस्स वि पुण्णे पच्चक्खाणे किं अपच्चक्खाणी अच्छउ ? तम्हा तेण वि कातव्वं सङ्केतमिति । व्याख्यातं सङ्केतद्वारम्, साम्प्रतमद्धाद्वारप्रतिपिपादयिषयाह
अद्धा पच्चक्खाणं जंतं कालप्पमाणछेएणं । पुरिमड्डपोरिसीए मुहुत्तमासद्धमासेहिं ॥१५७९॥ अद्धा काले प्रत्याख्यानं यत् कालप्रमाणच्छेदेन भवति, पुरिमार्द्धपौरुषीभ्यां मुहूर्तमासार्द्धमासैरिति गाथासक्षेपार्थः ।।१५७९।। अवयवत्थो पुण अद्धा णाम कालो, कालो जस्स परिमाणं तं कालेणावबद्धं कालियपच्चक्खाणं, तंजथा- णमोक्कार पोरिसि पुरिमड्ड एकासणग अद्धमास मासं, चशब्देन दोण्णि दिवसा मासा वा जाव छम्मासि त्ति पच्चक्खाणं, एतं अद्धापच्चक्खाणं । गतमद्धाप्रत्याख्यानम् ।
जइ अब्भत्थेज परं कारणजाए करेज से कोई । तत्थवि इच्छाकारो न कप्पई बलाभिओगो उ ॥६६८॥ व्या० यदीत्यभ्युपगमे, अन्यथा साधूनामकारणेऽभ्यर्थना नैव कल्पते, ततश्च यद्यभ्यर्थयेत् परम् अन्यं साधु ग्लानादौ कारणजाते कुर्यात् वा, से तस्य कर्तुकामस्य कश्चिद् अन्यसाधुः, तत्र कारणजातग्रहणमुभयथाऽपि सम्बध्यते, तत्रापि तेनान्येन वा साधुना तत्तस्य चिकीर्षितं कर्तुकामेन इच्छाकारः, कार्य इति क्रियाध्याहारः, अपि: चशब्दार्थे, अथवाऽपीत्यादिना न्यक्षेण वक्ष्यति, किमित्येवमत आह-- न कल्पत एव बलाभियोग इति गाथार्थः ॥” - आव० हारि०॥
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि [पृ०८५९] “उक्तमिच्छाकारद्वारमथ मिथ्याकारद्वारनिरूपणायाह- संजमजोगे अब्भुट्टियस्स जं किंचि वितहमायरियं । मिच्छा एतं ति वियाणिऊण तं दुक्कडं देयं ॥१२॥१०॥ व्या० संयमयोगे चरणव्यापारे समितिगुप्त्यादौ । अभ्युत्थितस्य प्रवृत्तस्य सतः । यत्किंचिद् यत्किमपि सामान्यतोऽल्पमनल्पं वेत्यर्थः । वितथमन्यथाभूतं संयमाननुकूलमित्यर्थः । आचरितमनुष्ठानम् आपन्नमिति शेषः । मिथ्या संयमविपरीतम् । एतदिदम् । इत्येवम् । विज्ञायावबुद्ध्य । तत् दुष्कृतं मिथ्यादुष्कृतम्, यदिदं मिथ्या मिथ्याचरितं मदीयं तत् दुष्कृतं मिथ्यादुष्कृतं दुष्टानुष्ठानं पापमित्येवमर्थम्, अथवा मिथ्येदं दुष्कृतमित्येकार्थशब्दद्वयरूपं सदोषप्रतिपत्तिपूर्वकपश्चात्तापप्रकर्षप्रकाशनगर्भं वाक्यम् । देयं प्रयोक्तव्यम् । इति गाथार्थः ॥१०॥
अथ तथाकारस्यैव विषयाभिधानायाह- वायणपडिसुणणाए उवएसे सुत्तअट्ठकहणाए । अवितहमेयं ति तहा अविगप्पेणं तहक्कारो ॥१२॥१५॥ व्या० वाचनायाः सूत्रदानस्य प्रतिश्रवणा श्रवणं वाचनाप्रतिश्रवणा, तस्याम् । तथाकारः प्रयोक्तव्य इति योगः । इदमुक्तं भवति- वाचनां प्रयच्छति सति गुरौ सूत्रग्राहिणा तथाकार: कार्यः । तथोपदेशे सामान्येन सामाचारीप्रतिबद्धे । तथा सूत्रार्थकथनायां व्याख्यान इत्यर्थः । अवितथं सत्यम् । एतत् यद्यूयं ब्रूथेति ख्यापनपरः । तथेति समुच्चयार्थः 'सूत्रार्थकथना'पदस्यादौ द्रष्टव्यः । अविकल्पेन निःसंदेहेन सता । तथाकारः तथेतिशब्दप्रयोगः । कार्यों भवतीति शेषः । इति गाथार्थः ॥१५॥ ____ अथ तथाकारो यं प्रति युज्यते तद्दर्शनार्थमाह- कप्पाकप्पे परिणिट्ठियस्स ठाणेसु पंचसु ठियस्स। संयमतवड्ढगस्स उ अविगप्पेणं तहक्कारो ॥१२॥१४॥ व्या० कल्पो विधिः, आचार इत्यर्थः । अकल्पश्चाविधिः । अथवा कल्पो जिनकल्पस्थविरकल्पादिः, अकल्पस्तु चरकादिदीक्षा । अथवा कल्प्यं ग्राह्यम्, अकल्प्यमितरत् । ततः समाहारद्वन्द्वात् कल्पाकल्पं कल्प्याकल्प्यं वा । तत्र परिनिष्ठितस्य ज्ञाननिष्ठां प्राप्तस्य । अनेन च ज्ञानसंपदुक्ता । तथा तिष्ठन्ति मुमुक्षवो येषु तानि स्थानानि महाव्रतानि तेषु । पञ्चस्विति स्वरूपविशेषणम् । यतो न तान्येकादीनि भवन्ति । यत्रापि चत्वारि तान्युच्यन्ते, तत्रापि वस्तुतः पञ्चैवेति । स्थितस्याश्रितस्य । अनेन च मूलगुणसंपत्तिरुक्ता । तथा संयमः प्रत्युपेक्षोपेक्षादिः, तथा तपश्चानशनादि, ताभ्यामाढ्यः परिपूर्णः, स एव संयमतपआढ्यकस्तस्य। अनेन चोत्तरगुणसंपत्तिरुक्ता । तुशब्द एवकारार्थः । तस्य किमित्याहअविकल्पेन निर्विकल्पं तदीयवचनेऽवितथत्वात् शङ्कामकुर्वाणेनेत्यर्थः । तथाकारो यथा यूयं वदथ तथैवैतदित्यर्थसंसूचकस्तथेति शब्दप्रयोगः । कार्य इति गम्यम् इति गाथार्थः ॥१४॥ ___ उक्तस्तथाकारोऽथावश्यिकी स्वरूपत आह- कज्जेणं गच्छंतस्स गुरुणिओएण सुत्तणीईए । आवस्सियत्ति णेया सुद्धा अण्णत्थजोगाओ ॥१२॥१८॥ व्या० कार्येण ज्ञानादिप्रयोजनेन । अनेन निष्कारणगमननिषेध उक्तः । गच्छतो वसतेर्निर्गच्छतः साधोः, किं स्वच्छन्देन ? नेत्याह- गुरुनियोगेन गुर्वनुज्ञया । तत्रापि सूत्रनीत्याऽऽगमन्यायेन ईर्यासमित्यादिलक्षणेन । किमित्याह- आवश्यिकी
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१६१ अवश्यंकृत्यनिर्वृत्ता निर्गमक्रिया, तत्सूचिका वाक् । इत्येवमुक्तन्यायेन । ज्ञेयाऽवसेया । किंभूता ? शुद्धाऽनवद्या । कुत इत्याह- अन्वर्थयोगादनुगतशब्दार्थसंबन्धात् । अन्वर्थश्चोक्त एव, प्रकारान्तरेण पुनरशुद्धा । इति गाथार्थः ॥१८॥
उक्तावश्यिकी सांप्रतं नैषेधिकीमाह- एवोग्गहप्पवेसे णिसीहिया तह णिसिद्धजोगस्स । एयस्सेसो उचिओ इयरस्स ण चेव नत्थि त्ति ॥१२॥२२॥ व्या० एवमुक्तेनावश्यिकीन्यायेन ज्ञानादिकार्यलक्षणेन । अवग्रहप्रवेशे शय्यादिप्रवेशने । नैषेधिकी सामाचारीविशेषो भवति । तथेत्यवग्रहप्रवेशापेक्षया विशेषणान्तरसमुच्चयार्थः, तच्चेदम्- निषिद्धयोगस्येति । अथवा तथाऽऽगमन्यायेन। निषिद्धयोगस्य निरुद्धासद्व्यापारस्य । कस्मादियमस्येत्याह- एतस्य निषिद्धयोगस्य। एष नैषेधिकीशब्दस्यान्वर्थयोगः, नैषेधिकीशब्दोच्चार इत्यन्ये । उचित: संगतः । विपर्ययमाहइतरस्यानिषिद्धयोगस्य पुनः । नैव । उचित एष इति प्रकृतम् । चशब्दः पुनरर्थः स च संबन्धित एव । कस्मान्नोचित इत्याह- नास्तीति न विद्यतेऽन्वर्थ इति कृत्वा । इति गाथार्थः ॥२२॥ ___ उक्ता नैषेधिकी, अथाप्रच्छनामाह- आउच्छणा उ कजे गुरुणो गुरुसम्मयस्स वा णियमा। एवं खु तयं सेयं जायति सति णिजराहेउ ॥१२॥२६॥ व्या० आपृच्छायाः करणं आप्रच्छना। तुशब्दः पुनरर्थः । तत आप्रच्छना पुनः । कार्ये ज्ञानादिसाधने प्रयोजने सति । कार्येति शेषः, कस्येत्याह- गुरो रत्नाधिकस्य । तत्संमतस्य वा गुरुबहुमतस्य वा स्थविरादेः । वाशब्दो विकल्पार्थः । नियमादवश्यंभावेन । अथ कस्मादेषा विधेयेत्याह- एवं खु एवमेव गुर्वाद्यापृच्छापूर्वकमित्यर्थः । तत्कार्यम् । श्रेयोऽतिशयेन प्रशस्यम् । जायते भवति । सकृत्सदा । निर्जराहेतु कर्मक्षयकारणमिति कृत्वा। इति गाथार्थः ॥२६॥ ___ उक्ता प्रच्छनाऽथ प्रतिपृच्छामाह- पडिपुच्छणा उ कजे पुव्वणिउत्तस्स करणकालम्मि । कजंतरादिहेउं णिहिट्रा समयकेऊहिं ॥१२॥३०॥ व्या० प्रतिपच्छायाः करणं प्रतिप्रच्छना पुनः। तुशब्दः पुनरर्थः । कार्ये प्रयोजने । पूर्वनियुक्तस्य पूर्वकाले गुरुभिर्व्यापारितस्य सतः । निर्दिष्टेति योगः । कदेत्याह- करणकाले विधानावसरे । कस्मादेतदेवमित्याह- कार्यान्तरं प्रागुपदिष्टकार्यादन्यत्कार्यं तदादिर्यस्य तनिषेधादेः स तथा, स एव हेतुर्निमित्तं कार्यान्तरादिहेतुस्तस्मात्कार्यान्तरादिहेतोः । द्वितीयायाः पञ्चम्यर्थत्वात् । निर्दिष्टोपदिष्टा । समयकेतुभिः प्रकाशकतया प्रवचनचिह्नभूतैः इति गाथार्थः ॥३०॥" - पंचाशक० ।।
[पृ० ८६०] उक्ता प्रतिपृच्छा अथ च्छन्दनामाह- पुव्वगहिएण छंदण गुरुआणाए जहारिहं होति । असणादिणा उ एसा णेयेह विसेसविसउ त्ति ॥१२॥३४॥ व्या० पूर्वगृहीतेन च्छन्दनावसरापेक्षया प्राक्कालोपात्तेन । अशनादिनेति योग: । या निमंत्रणा सेति गम्यम् । छन्दना भवतीति योगः । कथम् ? गुर्वाज्ञया, न रत्नाधिकादेशेन, स्वातन्त्र्येण । तत्रापि यथार्ह बालग्लानादितद्योग्यानतिक्रमेण। यदाह- ‘इयरो संदिसह त्ति य पाहुणखमए गिलाणसेहे य । अह
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
राइणियं सव्वे उ चियत्तेणं निमंतेज्जा || १ || ' ' इयरो त्ति' मण्डल्यनुपजीवी । 'चियत्तेणं ति' प्रीत्या । भवति स्यात् । अशनादिनाऽशनपानकप्रभृतिना । तुशब्दः पुनरर्थः, स च भिन्नक्रमः । ननु किं सर्वेषां साधूनामियं विधेयेत्याशंक्याह - एषा तु इयं पुनः छन्दना । ज्ञेया ज्ञातव्या । इह सामाचारीविषये । विशेषविषया साधुविशेषगोचरा, न तु सामान्यतः । इतिशब्दो वाक्यार्थसमाप्तौ । इति गाथार्थः
I
॥३४॥
I
उक्ता च्छन्दनाऽथ निमन्त्रणमाह- सज्झायादुव्वाओ गुरुकिच्चे सेस असंतम्मि । तं पुच्छिउण कने सेसाण णिमन्तणं कुजा || १२|३८|| व्या० सब्भायादुव्वाउ त्ति स्वाध्यायध्यानादिकरणपरिश्रान्तः सन् । गुरुकृत्ये रत्नाधिककार्ये विश्रामणा वस्त्रपरिकर्मादौ । शेषके कृतावशेषे । असति अविद्यमाने । किमत आह- तं गुरुम् । पृष्ट्वा यदुताहं साधुनिमित्तं भक्ताद्यानयामीत्यापृच्छ्य । कार्ये भक्तपानकादिप्रयोजने । तद्विषयमित्यर्थः । शेषाणां गुरुव्यतिरिक्तानाम् । निमन्त्रणमामन्त्रणं भवदर्थं भक्ताद्यानयामीत्येवंलक्षणम् । कुर्याद्विदध्यादिति गाथार्थः ||३८||
अथोपसंपदमाह- उवसंपया य तिविहा णाणे तह दंसणे चरित्ते य । दंसणणाणे तिविहा दुविहा य चरित्तमट्ठा || १२|४२ ।। व्या० उपसंपदात्मनिवेदनारूपा । चशब्दः पुनरर्थः । त्रिविधा त्रिभिः प्रकारैः । भवतीति गम्यम् । ज्ञाने श्रुतज्ञाने विषयभूते । तथेति समुच्चये । दर्शने सम्यक्त्वे । चरित्रे चरणे । चशब्दः समुच्चये । तत्र दंसणनाणे त्ति सम्यक्त्वज्ञानयोर्विषये । त्रिविधा त्रिप्रकारा । द्विधा च द्विप्रकारा पुनः । चरित्रार्थाय चारित्रप्रयोजनाय । इति गाथार्थः ॥ ४२ ॥
एतद्विवरणायाह- वत्तणसंधणगहणे सुत्तत्थोभयगया उ एस त्ति । वेयावच्चे खमणे काले पुण आवकहियादी | १२|४३|| व्या० वर्तनं परावर्तनम्, संधानं विस्मृतस्य पुनरनुसन्धानम्, ग्रहणमुपादानमित्येषां समाहारद्वन्द्वोऽतस्तस्मिन् (तो) वर्तनसंधानग्रहणे विषयभूते, एतदर्थमित्यर्थः । एवं ज्ञानदर्शनविषयोपसंपत् त्रिविधा । किंगतेयमित्याह- सूत्रमर्थसूचकं वाक्यम्, अर्थस्तद्व्याख्यानम्, उभयमेतदेव द्वयम्, एतानि गताश्रिता सूत्रार्थोभयगता । तुशब्द एवकारार्थः, पुनरर्थो वा । एषेत्युपसंपत् । इतिशब्दः समाप्तौ । एवमियं त्रिविधापि त्रिविधेति नवधा जाता । अनेन च दंसणनाणे तिविहे त्ति विवृतम् । इह च दर्शनविषयायामुपसंपदि दर्शनप्रभावकसम्मत्यादिग्रन्थापेक्षया सूत्रार्थतदुभयान्यवगन्तव्यानि । तथा वैयावृत्ये भक्तादिदानरूपव्यावृत्तभावविषया क्षपणे चतुर्थादिरूपक्षपणविषया चोपसंपदिति प्रकृतम्। अनेन च दुविहा य चरित्तअट्ठाए त्ति व्याख्यातम् । काले पुनः कालपरिमाणमाश्रित्य पुनरियं चरणोपसंपत् । यावत्कथिक्यादिः यावत्कथिकी यावज्जीविकी, आदिशब्दादित्वरकालिका च भवतीति । एतदुक्तं भवति - चारित्रार्थमाचार्याय कश्चिद्वैयावृत्यकरत्वं प्रतिपद्यते । स च कालतो यावत्कथिक इत्वरश्च भवतीत्येवं क्षपकत्वेऽपि । इति गाथार्थः ||४३|| " पंचाशक ।
[पृ०८६० पं०१९] “२०. समणे भगवं महावीरे छउमत्थकालियाए अंतिमराइयंसि इमे दस
-
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
महासुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे, तंजहा- एगं च णं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजियं पासित्ताणं पडिबुद्धे १ । एगं च णं महं सुक्किलपक्खगं पूसकोइलं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे २ । एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं पूसकोइलगं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ३ । एगं च णं महं दामदुगं सव्वरयणामयं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ४ । एगं च णं महं सेयं गोवग्गं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ५ । एगं च णं महं पउमसरं सव्वतो समंता कुसुमियं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ६ । एगं च णं महं सागरं उम्मी- वीयीसहस्सकलियं भुयाहिं तिण्णं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ७ । एगं चणं महं दिणकरं तेयसा जलतं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ८ । एगं च णं महं हरिवेरुलियवण्णाभेणं नियगेणं अंतेणं माणुसुत्तरं पव्वयं सव्वतो समंता आवेढियं परिवेढियं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ९। एगं च णं महं मंदरे पव्वए मंदरचूलियाए उवरिं सीहासणवरगयं अप्पाणं सुविणे पासित्ताणं बुद्धे १० ।
२१. जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजियं पा० जाव पडिबुद्धे तं णं समणेणं भगवता महावीरेणं मोहणिजे कम्मे मूलओ उग्घातिए १ । जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं सुक्किल जाव पडिबुद्धे तं णं समणे भगवं महावीरे सुक्कज्झाणोवगए विहरति २ । जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं चित्तविचित्त जाव पडिबुद्धे तं णं समणे भगवं महावीरे विचित्तं ससमय - परसमइयं दुवालसंगं गणिपिडगं आघवेति पन्नवेति परूवेति दंसेति निदंसेति उवदंसेति, तंजहा- आयारं सूयगडं जाव दिट्ठिवायं ३ । जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं दामदुर्गं सव्वरयणामयं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे तं णं समणे भगवं महावीरे दुविहं धम्मं पन्नवेति, तंजहा- अगारधम्मं वा अणगारधम्मं वा ४ । जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं सेयं गोवग्गं जव पडिबुद्धे तं णं समणस्स भगवतो महावीरस्स चाउव्वण्णाइण्णे समणसंघे, तंजहा- समणा समणीओ सावगा सावियाओ ५ । जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं पउमसरं जाव पडिबुद्धे तं णं समणे जाव वीरे चउव्विहे देवे पण्णवेति, तंजहा- भवणवासी वाणमंतरे जोतिसिए वेमाणिए ६ । जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं सागरं जाव पडिबुद्धे तं णं समणेणं भगवता महावीरेणं अणादीए अणवदग्गे जाव संसारकंतारे तिण्णे ७ । जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं दिणकरं जाव पडबुद्धे तं णं समणस्स भगवतो महावीरस्स अणते अणुत्तरे जाव केवलवरनाण- दंसणे समुप्पन्ने ८ । जं णं समणे जाव वीरे एगं महं हरिवेरुलिय जाव पडिबुद्धे तं णं समणस्स भगवतो महावीरस्स ओराला कित्तिवण्णसद्दसिलोया सदेवमणुयासुरे लोगे परितुवंति - ' इति खलु समणे भगवं महावीरे, इति खलु समणे भगवं महावीरे' ९ । जं णं समणे भगवं महावीरे मंदरे पव्वते मंदरचूलियाए जाव पडिबुद्धे तं णं समणे भगवं महावीरे सदेवमणुयासुराए परिसाए मज्झगए केवली धम्मं आघवेति जाव उवदंसेति १० ।" भगवती० १६।६।२०-२१ ॥
[पृ०८६६-८६७] “जो जिणदिट्ठे भावे चउव्विहे सद्दहाइ सयमेव । एमेव नन्नह त्ति य
-
१६३
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि निस्सग्गरुइ त्ति नायव्वो ॥ एए चेव उ भावे उवइढे जो परेण सहहइ । छउमत्थेण जिणे व उवएसरुइ त्ति नायव्वो ॥ रागो दोसो मोहो अन्नाणं जस्स अवगयं होइ । आणाए रोयंतो सो खलु आणारुई नाम ॥ जो सुत्तमहिजंतो सुएण ओगाहई उ संमत्तं । अंगेण बाहिरेण व सो सुत्तरुइ त्ति नायव्वो ॥ एगेण अणेगाइं पयाइं जो पसरई उ सम्मत्तं ॥ उदयव्व तिल्लबिंदू सो बीयरुइ त्ति नायव्वो ॥ सो होइ अभिगमरुई सुअनाणं जस्स अत्थओ दिटुं। इक्कारस अंगाई पइण्णगं दिट्ठिवाओ य ॥ दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहिं जस्स उवलद्धा। सव्वाइं नयविहीहि य वित्थाररुइ त्ति नायव्वो ॥ दंसणनाणचरित्ते तवविणए सच्चसमिइगुत्तीसु। जो किरियाभावरुई सो खलु किरियारुई नाम ॥ अणभिग्गहिय कुदिट्ठी संखेवरुइ त्ति होइ नायव्वो । अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ अ सेसेसु ॥ जो अत्थिकायधम्मं सुयधम्मं खलु चरित्तधम्मं च । सद्दहइ जिणाभिहियं सो धम्मरुइ त्ति नायव्वो ॥२८॥१८-२७॥ ___ यः जिनदृष्टान् तीर्थकरोपलब्धान् भावान् जीवादिपदार्थान् चतुर्विधान् द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदतो नामादिभेदतो वा चतुष्प्रकारान् श्रद्दधाति तथेति प्रतिपद्यते स्वयमेव परोपदेशं विना, श्रद्धानोल्लेखमाहएमेय त्ति एवमेतद्यथा जिनैदृष्टं जीवादि, नान्यथेति नैतद्विपरीतम्, च: समुच्चये, स ईदृग्निसर्गरुचिरिति ज्ञातव्यः, निसर्गेण रुचिरस्येतिकृत्वा, उपदेशरुचिमाह- एतांश्चैवानन्तरोक्तान् भावान् जीवादीन् पदार्थान् उपदिष्टान् कथितान् परेण अन्येन श्रद्दधाति, कीदृशा परेण ?- छादयतीति छद्म घातिकर्मचतुष्टयं तत्र तिष्ठति छद्मस्थः अनुत्पन्नकेवलस्तेन, जयति रागादीनिति जिनः, औणादिको नक् तेन चोत्पन्नकेवलज्ञानेन तीर्थकृदादिना, छद्मस्थस्य तु प्रागुपन्यासस्तत्पूर्वकत्वाज्जिनस्य प्राचुर्येण वा तथाविधोपदेष्ट्टणाम्, स ईदृक् किमित्याह-उपदेशरुचिरिति ज्ञातव्यः उपदेशेन रुचिरस्येति हेतोः ।
आज्ञारुचिमाह- रागः अभिष्वङ्गः द्वेषः अप्रीतिः मोहः शेषमोहनीयप्रकृतयः अज्ञानं मिथ्याज्ञानरूपं यस्य अपगतं नष्टं भवति, सर्वथा चास्यैतदपगमासम्भवाद्देशत इति गम्यते, अपगतशब्दश्च लिङ्गविपरिणामतो रागादिभिः प्रत्येकमभिसंबध्यते, एतदपगमाच्च आणाए त्ति अवधारणफलत्वाद्वाक्यस्य आज्ञयैव आचार्यादिसम्बन्धिन्या रोचमानः क्वचित्कुग्रहाभावाज्जीवादि तथेति प्रतिपद्यमानो माषतुषादिवत् सः खलु निश्चितमाज्ञारुचिर्नामेत्यभ्युपगमे, ततश्चाज्ञारुचिरित्यभ्युपगन्तव्यः, आज्ञया रुचिरस्य यतः। ___ सूत्ररुचिमाह-यः सूत्रम् आगमम् । अधीयानः पठन् श्रुतेन इति सूत्रेणाधीयमानेन अवगाहते प्राप्नोति तुः पूरणे सम्यक्त्वम्, कीदृशा श्रुतेन ?- अङ्गेन आचारादिना बाह्येन अनङ्गप्रविष्टेनोत्तराध्ययनादिना वा, वा विकल्पे, सः उक्तलक्षणो गोविन्दवाचकवत्, सूत्ररुचिरिति ज्ञातव्यः, सूत्रहेतुकत्वादस्य रूचेः ।।
बीजरुचिमाह-एकेन प्रक्रमात् पदेन जीवादिना अणेगाइं पयाई ति सुब्व्यत्ययाद् अनेकेषु बहुषु पदेषु जीवादिषु यः प्रसरति व्यापितया गच्छति तुः एवकारार्थः, प्रसरत्येव, सम्यक्त्वमित्यनेन
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१६५
रुचिरत्रोपलक्षिता, तदभेदोपचारादात्माऽपि सम्यक्त्वमुच्यते, उपचारनिमित्तं च रुचिरूपेणैवात्मना प्रसरणम्, क्वेव कः पसरति ?- उदक इव तैलबिन्दुः यथोदकैकदेशगतोऽपि तैलबिन्दुः समस्तमुदकमाक्रामति तथा तत्त्वैकदेशोत्पन्नरुचिरप्यात्मा तथाविधक्षयोपशमवशादशेषतत्त्वेषु रुचिमान् भवति, स एवंविधो बीजरुचितिव्यः, यथा हि बीजं क्रमेणानेकबीजानां जनकमेवमस्यापि रुचिर्विषयभेदतो भिन्नानां रुच्यन्तराणामिति ।
अभिगमरुचिमाह- स भवत्यभिगमरुचिः श्रुतज्ञानं येनार्थ्यत इत्यर्थः अभिधेयस्तमाश्रित्य दृष्टम् उपलब्धम्, किमुक्तं भवति ? येन श्रुतज्ञानस्यार्थोऽधिगतो भवति, किं पुनस्तत् श्रुतज्ञानमित्याहएकादशाङ्गानि आचारादीनि, प्रकीर्णकमिति जातावेकवचनम्, ततः प्रकीर्णकानि उत्तराध्ययनादीनि, दृष्टिवादः परिकर्मसूत्रादि, अङ्गत्वेऽपि पृथगुपादानमस्य प्राधान्यख्यापनार्थम्, चशब्दादुपाङ्गान्यौपपातिकादीनि, अभिगमान्वितत्वादस्य रुचेः ।।
विस्ताररुचिमाह- द्रव्याणां धर्मास्तिकायादीनां सर्वभावा: एकत्वपृथक्त्वाद्यशेषपर्यायाः सर्वप्रमाणैः अशेषैः प्रत्यक्षादिभिर्यस्योपलब्धाः, यस्य तत्र व्यापारस्तेनैव प्रमाणेन प्रतीताः, सव्वाहिं ति सर्वैः समस्तैः नयविधिभिः नैगमादिभेदैरमुं भावमयममुं वाऽयं नयभेद इच्छतीति, च: समुच्चये स ईदृग् विस्ताररुचिरिति ज्ञातव्यः, विस्तारविषयत्वेन ज्ञानस्य रुचेरपि तद्विषयत्वादस्य ज्ञानपूर्विका हि रुचिः, यत उक्तम्- सद्दहइ जाणति जतो ।
. क्रियारुचिमाह- दर्शनं च ज्ञानं च चरित्रं च दर्शनज्ञानचरित्रं तस्मिन् प्रागुक्तरूपे तथा तपोविनये सत्याः निरुपचरितास्ताश्च ताः समितिगुप्तयश्च, यदिवा सत्यं च अविसंवादनयोगाद्यात्मकं समितिगुप्तयश्च सत्यसमितिगुप्तयस्तासु यः क्रियाभावरुचिः, किमुक्तं भवति ? दर्शनाद्याचारानुष्ठाने यस्य भावतो रुचिरस्ति सः खलु निश्चितं क्रियारुचिः, नामेति प्रकाशम्, भण्यत इति शेषः, इह च चारित्रान्तर्गतत्वेऽपि तपःप्रभृतीनां पुनरुपादानं विशेषत एषां मुक्त्यङ्गत्वख्यापनार्थम् ।
सङ्क्षपरुचिमाह-अनभिगृहीता अनङ्गीकृता कुदृष्टिः सौगतमतादिरूपा येन स तथा सक्षेपरुचिरिति भवति ज्ञातव्यः, अविशारदः अकुशलः प्रवचने सर्वज्ञशासने अणभिग्गहिओ य सेसेसु त्ति अविद्यमानमभीति आभिमुख्येन गृहीतं ग्रहणं-ज्ञानमस्येत्यनभिगृहीत: अनभिज्ञ इत्यर्थः, चः समुच्चये, अनभिगृहीतश्च क्वे त्याह-शेषेषु कपिलादिप्रणीतप्रवचनेषु, संभवति हि जिनप्रवचनानभिज्ञोऽपि शेषप्रवचनानभिज्ञ इति तद्व्यवच्छेदार्थमेतत्, अयमाशयः- य उक्तविशेषणः सक्षेपेणैव चिलातीपुत्रवत्प्रशमादिपदत्रयेण तत्त्वरूचिमवाप्नोति स सङ्क्षपरुचिरुच्यते ।
धर्मरुचिमाह- योऽस्तिकायानां धर्मादीनां धर्मो गत्युपष्टम्भादिरस्तिकायधर्मस्तं जातावेकवचनम्, श्रुतधर्मम् अङ्गप्रविष्टाद्यागमस्वरूपं खलुः वाक्यालङ्कारे चरित्रधर्मं वा सामायिकादि, वस्य चार्थत्वात्, श्रद्दधाति तथेति प्रतिपद्यते जिनाभिहितं तीर्थकृदुक्तं स धर्मरुचिरिति ज्ञातव्यः, धर्मेषु पर्यायेषु धर्मे वा श्रुतधर्मादौ रुचिरस्येतिकृत्वा, शिष्यमतिव्युत्पादनार्थं चेत्थमुपाधिभेदेन सम्यक्त्वभेदाभिधानम्,
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६६
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि अन्यथा हि निसर्गोपदेशयोरधिगमादौ वा क्वचित्केषाञ्चिदन्तर्भाव इति भावनीयमिति ॥" - उत्तरा० पाईय० -२८।१८-२७ ॥
[पृ०८७९ पं०१६] सम्प्रति उपलभ्यमाने दशाश्रुतस्कन्धस्याष्टमे पर्युषणाकल्पाख्ये अष्टमेऽध्ययने निर्युक्तौ “उभओ वि अद्धजोयण सअद्धकोसं च तं हवति खेतं । होइ सकोसं जोयण मोत्तूण कारणज्जाए।' इति पाठ उपलभ्यते ॥ ___ दशाश्रुतस्कन्धचूर्णी- इदानिं विगतिट्ठवणा- संचइय असंचइये दव्वविवड्डी पसत्था, विगती दुविधा-संचइया असंचइया य । तत्थ असंचइया- खीर-दधि-मंस-णवणीय ओगाहिमगा य, सेसातो धयगुल-मधु-मज्ज खजगविधानातो संचइयातो” इति पाठ उपलभ्यते ॥
[पृ०८७९ पं०१८] दशाश्रुतस्कन्धे नवम्यां दशायां 'जे केइ तसे पाणे वारिमझे विगाहिया। उदएणक्कम्म मारेति महामोहं पकुव्वति ॥” इत्यादयो गाथा उपलभ्यन्ते । किन्तु आवश्यकस्य हारिभद्र्यां वृत्तौ चतुर्थेऽध्ययने “मोहनीयस्थानानि.... अभिधित्सुराह संग्रहणिकार:- ‘वारिमज्झे वगाहित्ता तसे पाणे विहिंसई....” इति पाठेन मोहनीयस्थानगाथा उपलभ्यन्ते ॥
[पृ०८८० पं०३] अत्रेदं ध्येयम्- निरयावलिकाश्रुतस्कन्धे पञ्च विभागा वर्तन्ते- निरयावलिया १, कप्पवडिंसया २, पुप्फिया ३, पुप्फचूलिया ४, वण्हिदसा ५ । तत्र तृतीये पुप्फियाविभागे इयं शुक्रवक्तव्यता विद्यते । अयं निरयावलिका श्रुतस्कन्धः Australiya देशनिवासिना विदुषा Royce
Wiles महोदयेन श्रीचन्द्रसूरिविरचितया टीकया विविधैः पाठान्तरैः परिशिष्टादिभिश्च सह संस्कारितो महता परिश्रमेण सम्पादितो वर्तते, प्रायः तदनुसारेण पाठोऽत्रोपन्यस्यतेऽस्माभिः ।। _[१] जइ णं भंते समणेणं भगवता जाव संपत्तेणं उक्खेवओ भाणियव्वो। रायगिहे नयरे । सेणिए राया । गुणसिलए चेइए । सामी समोसढे । परिसा निग्गया । तेणं कालेणं २ सुक्के महग्गहे, सुक्कवदिसए विमाणे सुक्कंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं । जहेव चंदो तहेव आगओ नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगओ । भंते त्ति । कूडागारसाला । _[२] पुव्वभवपुच्छा, एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नामं नयरी होत्था । तत्थ णं वाणारसीए नयरीए सोमिले नामं माहणे परिवसइ अड्ढे जाव अपरिभूए रिउव्वेय जाव सुपरिणिट्ठिए । पासे समोसढे । परिसा पज्जुवासइ । तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लद्धट्ठस्स समाणस्स इमे एयारूवे अज्झत्थिए ० । एवं पासे अरहा पुरिसादाणीए पुव्वाणुपुव्विं जाव अंबसालवणे विहरइ । तं गच्छामि णं पासस्स अरहओ अंतिए पाउब्भवामि । इमाइं च णं एयारूवाइं अट्ठाई हेउई जहा पन्नत्तीए । सोमिलो निग्गओ खंडियविहूणो । जाव एवं वयासी। जत्ता ते भंते, जवणिजं, पुच्छा, सरिसवया, मासा, कुलत्था, एगे भवं, दुवे भवं, जाव सावगधम्म पडिवजित्ता पडिगए ।
[३] तए णं पासे अरहा अन्नया कयाइ वाणारसीओ नयरीओ अंबसालवणाओ चेइयाओ
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६७
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि पडिनिक्खमइ । पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ । तए णं से सोमिले माहणे अन्नया कयाइ असाहुदंसणेण य, अपज्जुवासणयाए य, मिच्छत्तपज्जवेहिं परिवड्डमाणेहिं २ सम्मत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं मिच्छं विपडिवन्ने । तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था। एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए सोमिले नामं माहणे अच्चंतमाहणकुलप्पसूए । तए णं मए वयाई चिण्णाई वेया य अहीया दारा आहूया, पुत्ता जणिया, इड्डीओ समाणीयाओ, पसुवंधा कया, जन्ना जे(ज)ट्ठा, दक्खिणा दिन्ना, अइही पूइया, अग्गी हूया, जूवा निक्खित्ता । तं सेयं खलु मम इयाणि कल्लं जाव जलंते, वाणारसीए नयरीए बहिया बहवे अंबारामा रोवावित्तए एवं माउलिंगि बिल्ला कविट्ठा चिंचा पुप्फारामा रोवावित्तए । एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं जाव जलंते, वाणारसीए नयरीए बहिया अंबारामे य जाव पुप्फारामे य रोवावेइ । तए णं बहवे अंबारामा य जाव पुप्फारामा य, अणुपुव्वेणं सारक्खिजमाणा संगोविजमाणा संवड्डिजमाणा आरामा जाया किण्हा किण्होभासा जाव रम्मा महामेहनिउरंबभूया पत्तिया पुप्फिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणा सिरीया अईव उवसोभेमाणा २ चिट्ठति ।
[४] तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकाल०कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था । एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए सोमिले नामं माहणे अच्चंतमाहणकुलप्पसूए तए णं मए वयाई चिण्णाई, जाव जूवा निक्खित्ता । तए णं मए वाणारसीए नयरीए बहिया बहवे अंबारामा, जाव पुप्फारामा य रोवाविया । तं सेयं खलु ममं इयाणिं कल्लं जाव जलंते, सुबहु लोहकडाह कडुच्छुयं तंबियं तावसभंडं घडावेत्ता विउलं असणपाणखाइमसाइमं मित्त-नाइ० आमंतेत्ता । तं मित्त-नाइ-नियग० विउलेणं असण जाव सम्माणेत्ता तस्सेव मित्त जाव जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेत्ता। तं मित्त-नाइ जाव आपुच्छित्ता, सुबहुं लोहकडाह कडुच्छुयं तंबियं तावसभंडं गहाय जे इमे गंगाकूला वाणपत्था तावसा भवंति । तंजहा- होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया नई सड्ढई थालई हुंबउट्ठा दंतुक्खलिया उंमज्जगा संमज्जगा संपक्खालगा दक्खिणकूला उत्तरकूला संखधमा कूलधमा मियलुद्धा हत्थितावसा उदंडा दिसापोक्खिणो अंबुवासिणो वायवासिणो बिलवासिणो जलवासिणो रुक्खमूलिया अंबुभक्खिणो वायुभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा पुप्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडियकंदमूलतयपत्तपुप्फफलाहारा जलाभिसेयकढिणगायभूया
आयावणाहिं पंचग्गीतावेहिं इंगालसोल्लियं कंदुसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा विहरंति । ___ तत्थ णं जे ते दिसापोक्खिया तावसा तेसिं अंतिए दिसापोक्खियत्ताए पव्वइत्तए, पव्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हित्ता कप्पइ मे जावज्जीवाए छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं, दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं उड्ढे बाहाओ पगिज्झिय २ सूराभिमुहस्स आयावणभूमिए आयावेमाणस्स विहरित्तए त्ति कट्ट । इमं एयारूवं अभिग्गहं जाव अभिगिण्हित्ता पढम छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
विहरइ । तए णं सोमिले माहणे रिसी पढमछट्ठक्खमणपारणसि, आयावणभूमीए पच्चोरुहइ २ वागलवत्थनियत्थे । जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, २ कढिणसंकाइयं गेण्हइ, २ पुरच्छिमं दिसं पुक्खे, पुरत्थिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिल - माहण - रिसिं अभिरक्खउ, जाणि य तत्थ कंदाणि य, मूलाणि य, तयाणि य, पत्ताणि य, पुप्फाणि य, फलाणि य, बीयाणि य, हरियाणि य, ताणि अणुजाणउ त्ति कट्टु । पुरत्थिमं दिसं पसरइ, २ जाणि य तत्थ कंदाणि य, जाव हरियाणि य, ताई गेण्हइ । किढिणसंकाइयं भरेइ २ । दब्भे य, कु य, पत्तामोडं च, समिहा कट्ठाणि य, गेण्हइ । जेणेव सए उडए, तेणेव उवागच्छइ २ किढिणसंकाइयगं ठवेइ २ । वेइं वड्डइ, २ उवलेवणसंमज्जणं करेइ । दब्भकलसाहत्थगए, जेणेव गंगा महानदई तेणेव उवागच्छइ, २ गंगं महानदई ओगाहइ, २ जलमज्जणं करेइ, २ जलाभिसेयं करेइ २ जलकिड्डुं करेइ २ आयंते चोक्खे परमसुइभूए देवपिउकयकज्जे । दब्भसगब्भकलसाहत्थगए गंगाओ महाणईओ पच्चुत्तर । जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ २ दब्भे य कुसे य वालुयाए य वेडं रएइ २ । सरयं करेइ २ अरणिं करेइ २ । सरएणं अरणिं महेइ, २ अग्गिं पाडे, २ अग्गिं संधुक्कर, २ समिहा कट्ठाणि पक्खिवइ, २ अग्गिं उज्जालेइ २ ।
अग्गिस्स दाहिणे पासे, सत्तंगाई समादहे । तंजहासकहं वक्कलं ठाणं सिज्झभंडं कमंडलुं । दंडदारुं तहऽप्पाणं, अहे ताई समिए समादहे ||१||
महुणा य घएण य, तंदुलेहि य, अग्गिं हुई । चरुं साहेइ । २ बलिवइस्सदेवं करे । २ अतिहिपूयं करेइ, २ तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ । तए णं सोमिले माहणरिसी दोच्चं छट्ठक्खमणपारणं तओ उवसंपज्जित्ताणं विहरइ । तए णं सोमिले माहणरिसी दोच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि, तं चैव सव्वं भाणियव्वं, जाव आहारमाहारे । नवरं इमं नाणत्तं दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलं माहणरिसिं, जाणि य तत्थ कंदाणि य, जाव अणुजाणउ त्ति दाहिणं दिसिं पसरइ । पच्चत्थिमे णं वरुणे महाराया जाव पच्चत्थिमं दिसं पसर । उत्तरेणं वेसणे महाराया जाव उत्तरं दिसिं पसरइ । पुव्वदिसागमेणं चत्तारि वि दिसाओ भाणियव्वाओ, जाव आहारं आहारेइ ।
१६८
[५] तए णं तस्स सोमिलस्स माहणरिसिस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था । एवं खलु वाणारसीए नयरीए सोमिले नामं माहणरिसी अच्छंतमाहणकुलप्पसूए । तए णं मए वयाइं चिण्णाई, जाव जूवा निक्खित्ता । तए णं मम वाणारसीए जाव पुप्फारामा य जाव रोवाविया । तए णं मए सुबहु लोह जाव घडावेत्ता, जाव जेट्ठपुत्तं ठावेत्ता जाव जेट्ठपुत्तं आपुच्छिता सुबहु लोह जाव गहाय मुंडे जाव पव्वइए । पव्वइए वि य णं समाणे छट्ठछट्टेणं जाव विहरामि । तं सेयं खलु ममं इयाणिं कल्लं
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
१६९ पाउ जाव जलते बहवे तावसे दिट्ठाभट्टे य पुव्वसंगइए य, परियायसंगइए य आपुच्छित्ता आसमसंसियाणि य बहूई सत्तसयाई अणुमाणइत्ता । वागलवत्थनियत्थस्स कढिणसंकाइयगहियसभंडोवगरणस्स कट्ठमुद्दाए मुहं बंधित्ता उत्तर-दिसाए उत्तराभिमुहस्स महपत्थाणं पत्थावेत्तए। एवं संपेहेइ, २ कल्लं जाव जलंते बहवे तावसे य दिट्टाभट्टे य पुव्वसंगइए य, तं चेव जाव कठ्ठमुद्दाए मुहं बंधइ बंधित्ता अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ । जत्थेव णं अहं जलंसि वा, एवं थलंसि वा दुगंसि वा निन्नंसि वा पव्वयंसि वा विसमंसि वा, गड्डाए वा, दरीए वा, पक्खलिज वा, पवडिज्ज वा, नो खलु मे कप्पइ, पच्चुट्टित्तए त्ति कट्ट । अयमेयारूवं अभिग्गह अभिगिण्हइ । उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे पत्थाणं पत्थिए । से सोमिले माहणरिसी पुव्वावरण्हकालसमयंसि, जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागए। असोगवरपायवस्स अहे कढिणसंकाइयं ठावेइ २, वेइं वड्डेइ, २ उवलेवण-संमज्जणं करेइ, २ दब्भकलसहत्थगए, जेणेव गंगा महाणई जहा सिवो जाव गंगाओ महानईओ पच्चुत्तरइ । जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, २ दब्भेहि य कुसेहि य वालुयाए वेइं रएइ, रएत्ता सरगं करेइ, २ जाव बलिं वइस्सदेवं करेइ, २ कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, तुसिणीए संचिट्ठइ। __[६] तए णं तस्स सोमिलरिसिस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि, एगे देवे अंतियं पाउब्भूए । तए णं से देबे सोमिलं माहणं एवं वयासी । हं भो सोमिलमाहणा पव्वइया दुप्पव्वइयं ते । तए णं से सोमिले तस्स देवस्स दोच्चं पि तच्चं पि एयमद्वं नो आढाइ, नो परिजाणइ, जाव तुसिणीए संचिट्ठइ । तए णं से देवे सोमिलेणं माहणरिसिणा अणाढाइज्जमाणे जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव जाव पडिगए । तए णं से सोमिले कलं जाव जलंते, वागल-वत्थ-नियत्थे कढिणसंकाइयगहियग्निहोत्तसभंडोवगरणे कठ्ठमुद्दाए मुहं बंधेति, २ उत्तराभिमुहे संपत्थिते । तए णं से सोमिले बितियदिवसम्मि पुव्वावरण्हकालसमयंसि जेणेव सत्तिवन्ने अहे कढिणसंकाइयं ठवेइ २ वेइं वड्डेइ, २ जहा असोगवरपायवे जाव अग्गिं हुणइ । कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ तुसिणीए संचिट्ठइ, २ । तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स पुव्वरत्तावरत्तकाल एगे देवे अंतियं पाउब्भूए । तए णं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने, जहा असोगवरपायवे जाव पडिगए । तए णं से सोमिले कल्लं जाव जलंते वागलवत्थनियत्थे कढिणसंकाइय गेण्हइ, २ कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, २ उत्तरदिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए । तए णं से सोमिले तइयदिवसंमि पुव्वावरण्हकालसमयंसि, जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, २ असोगवरपायवस्स अहे कढिणसंकाइयं ठवेइ, वेइं वड्डेति, जाव गंगं तरइ । महाण पच्चुत्तरइ, २ जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, २ वेइं रएइ, २ कठ्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, २ तुसिणीए संचिट्ठइ, २ तए णं तस्स सोमिलस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं तं चेव भणइ, जाव पडिगए । तए णं से सोमिले जाव जलते वागलवत्थनियत्थे किढिणसंकाइयं जाव अग्निहोत्तं भंडोवगरणं कट्ठमुद्दाए बंधइ, २ उत्तराए दिसाए उत्तराए संपत्थिए । तए णं से सोमिले चउत्थदिवसपुव्वावरण्हकालसमयमि जेणेव वडपायवे तेणेव उवागए। वडपायवस्स अहे कढिण०संठवइ,
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि २ वेइं वड्डइ, उवलेवणसंमज्जणं करेइ । कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ । तुसिणीए संचिट्ठइ । तए णं तस्स किढिणसंकाइयं कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिते ।
[७] तए णं सोमिले पंचमदिवसम्मि पुव्वावरण्हकालसमयंसि, जेणेव उंबरपायवे । उंबरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, २ वेई वड्डेइ । कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, जाव तुसिणीए संचिट्ठइ । तए णं तस्स सोमिलमाहणस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे जाव एवं वयासि । हं भो सोमिला पव्वइया दुप्पव्वइयं ते । पढम भणइ । तहेव तुसिणीए संचिट्ठइ। देवो दोच्चं पि तच्चं पि वयइ । सोमिला पव्वइया, दुप्पव्वइयं ते । तए णं से सोमिले तेणं देवेणं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ते वयासी। कहं णं देवाणुप्पिया मम दुप्पव्वइयं । तए णं से देवे सोमिलं माहणं एवं वयासी । एवं खलु देवाणुप्पिया, तुमे पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियं पंचाणुव्वतिते, सत्तसिक्खावतिए दुवालसविहे सावगधम्मे पडिवन्ने। तए णं तव अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंब-जागरियं जाव पुव्वचिंतियं देवो उच्चारेइ, जाव जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, २ कढिणसंकाइयं जाव तुसिणीए चिट्ठसि । तए णं पुव्वरत्तावरत्तकाले, तव अंतियं पाउब्भवामि । हं भो सोमिला पव्वइया, दुप्पव्वइयं ते तह चेव देवो नियवयणं भणइ, जाव पंचमदिवसम्मि पुव्वावरण्हकालसमयंसि, जेणेव उंबरवरपायवे तेणेव उवागए, किढिणसंकाइयं ठवेसि उवलेवणं संमजणं करेसि, २ कट्ठमुद्दाए मुहं बंधसि, २ तुसिणीए संचिट्ठसि । तं एवं खलु देवाणुप्पिया तव दुप्पव्वइयं । तए णं से सोमिले तं देवं वयासी -कहं णं देवाणुप्पिया मम सुप्पव्वइयं । तए णं से देवे सोमिलं एवं वयासी। - जइ णं तुम देवाणुप्पिया इयाणिं पुव्वपडिवन्नाइं पंच अणुव्वयाइं सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरसि। तो णं तुज्झ इयाणिं सुप्पव्वइयं भविज्जा । तए णं से देवे सोमिलं वंदइ नमसइ, जामेव दिसिं पाउब्भूए जाव पडिगए ।
[८] तए णं सोमिले माहणरिसी तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे पुव्वपडिवन्नाइं पंच अणुव्वयाई सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरइ । तए णं से सोमिले बहूहिं चउत्थ-छट्ठ-ऽट्ठम-जाव मासऽद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोवहाणेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूहिं वासाई समणोवासगपरियागं पाउणइ, २ अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, २ तीसं भत्ताई अणसणाए छेएइ, २ तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते विराहियसम्मत्ते कालमासे कालं किच्चा । सुक्कवडिसए विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि जाव ओगाहणाए सुक्क-महग्गहत्ताए उववन्ने । तए णं से सुक्के महग्गहे अहुणोववन्ने, समाणे जाव भासा-मणपजत्तीए । एवं खलु गोयमा, सुक्केणं महग्गहेणं सा दिव्वा जाव अभिसमन्नागए।" - निरयावलिकाश्रुतस्कन्धे ।।
सोमलिब्राह्मणवक्तव्यता भगवतीसूत्रेऽपि । तुलनार्थं तत्पाठोऽत्रोपन्यस्यते- “१४. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नाम नगरे होत्था । वण्णओ। दूतिपलासए चेतिए। वण्णओ ।
१५. तत्थ णं वाणियग्गामे नगरे सोमिले नामं माहणे परिवसति अड्डे जाव अपरिभूए रिव्वेद
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१७१
जाव सुपरिनिट्ठिए पंचण्हं खंडियसयाणं सायस्स य कुटुंबस्स आहेवच्चं जाव विहरइ ।
१६. तए णं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे । जाव परिसा पज्जुवासइ ।
१७. तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लद्धट्ठस्स समाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-‘एवं खलु समणे णायपुत्ते पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं जाव इहमागए जाव दूतिपलासए चेतिए अहापडिरूवं जाव विहरति । तं गच्छामि णं समणस्स नायपुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामि, इमाइं च णं एयारूवाई अट्ठाई जाव वागरणाई पुच्छिस्सामि, तं जइ मे से इमाइं एयारूवाइं अट्ठाई जाव वागरणाई वागरेहिति तो णं वंदीहामि नमसीहामि जाव पज्जुवासीहामि । अह मे से इमाइं अट्ठाई जाव वागरणाइं नो वागरेहिति तो णं एतेहिं चेव अटेहि य जाव वागरणेहि य निप्पट्ठपसिणवागरणं करिस्सामि' त्ति कटु एवं संपेहेइ, ए० सं० २ ण्हाए जाव सरीरे साओ गिहाओ पडिनिक्खमति, पडि०२ पादविहारचारेणं एगेणं खंडियसएणं सद्धिं संपरिवुडे वाणियग्गामं नगरं मझमझेणं निग्गच्छइ, नि०२ जेणेव दूतिपलासए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवा०२ समणस्स भगवतो महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वदासि-जत्ता ते भंते ! जवणिजं अव्वाबाहं फासुयविहारं ? सोमिला! जत्ता वि मे, जवणिज पि मे, अव्वाबाहं पि मे, फासुयविहारं पि मे ।
१८. किं ते भंते ! जत्ता ? सोमिला ! जं मे तव-नियम-संजम-सज्झाय-झाणावस्सगमादीएसु जोएसु जयणा सेत्तं जत्ता ।
१९. किं ते भंते ! जवणिज ? सोमिला ! जवणिज्जे दुविहे पन्नते, तं जहा-इंदियजवणिजे य नोइंदियजवणिजे य ।
२०. से किं तं इंदियजवणिजे ? इंदियजवणिजे-जं मे सोतिदियचक्खिंदिय-घाणिंदिय-जिभिंदियफासिंदियाई निरुवहयाई वसे वटुंति, सेत्तं इंदियजवणिज्जे ।
२१. से किं तं नोइंदियजवणिज्जे ? नोइंदियजवणिजे- जं मे कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिन्ना, नो उदीरेंति, सेत्तं नोइंदियजवणिजे । से तं जवणिजे ।
२२. किं ते भंते ! अव्वाबाहं ? सोमिला ! जं मे वातिय-पित्तिय-सेंभिय-सन्निवातिया विविहा रोगायंका सरीरगया दोसा उवसंता, नो उदीरेंति, सेत्तं अव्वाबाहं ।
२३. किं ते भंते ! फासुयविहारं ? सोमिला ! जं णं आरामेसु उज्जाणेसु देवकुलेसु सभासु पवासु इत्थी-पसु-पंडगविवज्जियासु वसहीसु फासुएसणिज्जं पीढ-फलग-सेजा-संथारगं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि, सेत्तं फासुयविहारं ।
२४. [१] सरिसवा ते भंते ! किं भक्खेया, अभक्खेया ? सोमिला ! सरिसवा मे भक्खेया वि, अभक्खेया वि ।
[२] से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ सरिसवा मे भक्खेया वि, अभक्खेया वि ? से नूणं
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि सोमिला ! बंभण्णएसु नएसु दुविहा सरिसवा पण्णत्ता, तंजहा- मित्तसरिसवा य धन्नसरिसवा य। तत्थ णं जे ते मित्तसरिसवा ते तिविहा पन्नता, तंजहा- सहजायए सहवड्डियए सहपंसुकीलियए; ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जे ते धन्नसरिसवा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहासत्थपरिणया य असत्थपरिणया य । तत्थ णं जे ते असत्थपरिणया ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा- एसणिज्जा य अणेसणिज्जा य । तत्थ णं जे ते अणेसणिज्जा ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पन्नता, तंजहा जाइता य अजाइया य । तत्थ णं जे ते अजाइता ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते जायिया ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा- लद्धा य अलद्धा य । तत्थ णं जे ते अलद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जे ते लद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं भक्खेया। से तेणटेणं सोमिला ! एवं वुच्चइ जाव अभक्खेया वि ।
२५. [१] मासा ते भंते ! किं भक्खेया, अभक्खेया ? सोमिला ! मासा मे भक्खेया वि, अभक्खेया वि ।
[२] से केणढेणं जाव अभक्खेया वि ? से नूणं सोमिला ! बंभण्णएसु नएसु दुविहा मासा पन्नत्ता, तंजहा- दव्वमासा य कालमासा य । तत्थ णं जे ते कालमासा ते णं सावणादीया आसाढपज्जवसाणा दुवालस, तंजहा- सावणे भद्दवए आसोए कत्तिए मग्गसिरे पोसे माहे फग्गुणे चेत्ते वइसाहे जेट्ठामूले आसाढे, ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जे ते दव्वमासा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा- अत्थमासा य धण्णमासा य । तत्थ णं जे ते अत्थमासा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा- सुवण्णमासा य रुप्पमासा य; ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते धन्नमासा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा- सत्थपरिणया य असत्थपरिणया य । एवं जहा धन्नसरिसवा जाव से तेणटेणं जाव अभक्खेया वि । ___ २६. [१] कुलत्था ते भंते ! किं भक्खेया, अभक्खेया ? सोमिला ! कुलत्था मे भक्खेया वि, अभक्खेया वि । ___ [२] से केणटेणं जाव अभक्खेया वि ? से नूणं सोमिला ! बंभण्णएसु नएसु दुविहा कुलत्था पन्नत्ता, तंजहा- इत्थिकुलत्था य धनकुलत्था य । तत्थ णं जे ते इत्थिकुलत्था ते तिविहा पन्नत्ता, तंजहा- कुलवधू ति वा कुलमाउया ति वा कुलधूया ति वा; ते णं समणाणं निगंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते धन्नकुलत्था एवं जहा धन्नसरिसवा जाव से तेणटेणं जाव अभक्खेया वि ।
२७. [१] एगे भवं, दुवे भवं, अक्खए भवं, अव्वए भवं, अवट्ठिए भवं, अणेगभूयभावभविए भवं ? सोमिला ! एगे वि अहं जाव अणेगभूयभावभविए वि अहं ।
[२] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव भविए वि अहं ? सोमिला ! दव्वट्ठयाए एगे अहं, नाण-दसणट्ठयाए दुविहे अहं, पएसट्ठयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं;
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि
उवयोगट्टयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं । से तेणट्टेणं जाव भविए वि अहं ।
२८. एत्थ णं से सोमिले माहणे संबुद्धे समणं भगवं महावीरं जहा खंदओ [स०२ उ०१ सु०३२-३४] जाव से जहेयं तुब्भे वदह जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतियं बहवे राईसर एवं जहा रायप्पसेणइज्जे चित्तो जाव दुवालसविहं सावगधम्मं पडिवज्जइ, प०२ समणं भगवं महावीरं वदति नम॑सति, वं०२ जाव पडिगए । तए णं से सोमिले माहणे समणोवासए जाए अभिगय ० जाव विहरइ ।
२९. 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, वं०२ एवं वदासि - भूणं भंते ! सोमिले माहणे देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता जहेव संखे [स०१२ उ०१ सु०३१] तहेव निरवसेसं जाव अंतं काहिति ।
सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति ।"
१७३
भगवती० १८।१०।१४-२९ ।
शुक्रपरिव्राजकवक्तव्यतायां ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रेऽपि ईदृश एवार्थाधिकारो वर्तते, सोऽप्यत्र तुलनार्थमुपन्यस्यते- “तते णं से सुए परिव्वायगसहस्सेणं सुदंसणेण य सेट्ठिणा सद्धिं जेणेव नीलासोए उज्जाणे जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छति, २ त्ता थावच्चापुत्तं एवं वदासी - जत्ता ते भंते! जवणिज्जं, अव्वाबाहं, फासुयविहारं च ?, तते णं से थावच्चापुत्ते अणगारे सुएणं परिव्वायगेणं एवं वृत्ते समाणे सुयं परिव्वायगं एवं वदासी- सुया ! जत्ता वि मे, जवणिज्जं पि मे, अव्वाबाहं पि मे, फासुयविहारं पि मे ।
तते णं से सुए थावच्चापुत्तं एवं वदासी - किं भंते ! जत्ता ?, सुया ! जण्णं मम णाणदंसण-चरित्त-तव-संजममातिएहिं जोएहिं जयणा, सेतं जत्ता ।
से किं तं भंते ! जवणिज्जं ? सुया जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- इंदिय-जवणिज्जे य नोइंदियजवणिज्जे य । से किं तं इंदियजवणिज्जं ?, इंदियजवणिज्जं सुया ! जण्णं ममं सोतिंदियचक्खिंदिय- घाणिदिय जिब्भिंदिय - फासिंदियाइं निरुवहयाई वसे वट्टंति, सेतं इंदियजवणिज्जे । से किं तं नोइंदियजवणिज्जे ?, सुया ! जण्णं कोह- माण- माया लोभा खीणा उवसंता, नो उदयंति, सेतं नोइंदियजवणिज्जे ।
से किं तं भंते ! अव्वाबाहं ?, सुया ! जण्णं मम वातिय - पित्तिय- सिंभिय-सन्निवाइय विविहा रोगातंकादी णो उदीरेंति, सेतं अव्वाबाहं ।
से किं तं भंते ! फासुयविहारं ? सुया ! जण्णं आरामेसु उज्जाणेसु देवउलेसु सभासु पवा इत्थि-पसु-पंडगविवज्जियासु वसहीसु पाडिहारियं पीढ - फलग - सेज्जा - संथारयं ओगिण्हित्ताणं विहरामि, तं फायविहारं ।
सरिसवया ते भंते ! किं भक्खेया अभक्खेया ? सुया ! सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि । के भंते ! एवं वच्चइ - सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि ?, सुया ! सरिसवया
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- मित्तसरिसवया धनसरिसवया । तत्थ णं जेते मित्तसरिसवया ते तिविहा पण्णत्ता, तंजहा- सहजायया सहवड्डियया सुहपंसुकीलियया । ते णं समणाणं णिग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जेते धन्नसरिसवा ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- सत्थपरिणया य असत्थपरिणया य । तत्थ णं जेते असत्थपरिणया ते समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जेते सत्थपरिणया ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- फासुगा य अफासुगा य । अफासुया णं सुया ! नो भक्खेया । तत्थ णं जेते फासुया ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- जातिया य अजातिया य । तत्थ णं जेते अजातिया ते अभक्खेया। तत्थ णं जेते जातिया ते दविहा पण्णत्ता. तंजहा- एसणिज्जा य अणेसणिज्जा य । तत्थ णं जेते अणेसणिज्जा ते णं अभक्खेया । तत्थ णं जेते एसणिज्जा ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- लद्धा य अलद्धा य । तत्थ णं जेते अलद्धा ते अभक्खेया । तत्थ णं जेते लद्धा (ते) निग्गंथाणं भक्खेया। एएणं अटेणं सुया ! एवं वुच्चति सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि ।
एवं कुलत्था वि भाणियव्वा, नवरि इमं णाणत्तं- इत्थिकुलत्था य धन्नकुलत्था य । इत्थिकुलत्था तिविहा पण्णत्ता, तंजहा- कुलवधुया य कुलमाउया इ य कुलधूया इ य । धन्नकुलत्था तहेव।
एवं मासा वि, नवरि इमं नाणत्तं- मासा तिविहा पण्णत्ता, तंजहा- कालमासा य, अत्थमासा य, धन्नमासा य । तत्थ णं जेते कालमासा ते णं दुवालस, तंजहा- सावणे जाव आसाढे, ते णं अभक्खेया । अत्थमासा दुविहा- हिरण्णमासा य सुवण्णमासा य, ते णं अभक्खेया । धन्नमासा तहेव । ___ एगे भवं, दुवे भवं, अक्खए भवं, अव्वए भवं, अवट्ठिए भवं, अणेगभूयभावभविए भवं? सुया ! एगे वि अहं, दुवे वि अहं, जाव अणेगभूयभावभविए वि अहं । से केणटेणं भंते ! एगे वि अहं जाव सुया ! दव्वट्ठयाए एगे अहं, नाणदसणट्ठयाए दुवे वि अहं, पएसट्ठयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं, उवओगट्ठयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं । ___ एत्थ णं से सुए संबुद्धे थावच्चापुत्तं वंदति नमसति, २ ता एवं वदासी- इच्छामि णं भंते! तुब्भं अंतिए केवलिपण्णत्तं धम्मं निसामित्तए । धम्मकहा भाणियव्वा । तए णं से सुए परिव्वायए थावच्चापुत्तस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्मा एवं वदासी-इच्छामि णं भंते ! परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता पव्वइत्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया ! जाव उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे तिडंडं जाव धाउरत्ताओ य एगते एडेति, सयमेव सिहं उप्पाडेति, २ जेणेव थावच्चापुत्ते जाव मुंडे भवित्ता पव्वतिए । सामाइयमातियाइं चोद्दस पुव्वाति अहिज्जति । तते णं थावच्चापुत्ते सुयस्स अणगारसहस्सं सीसत्ताए वियरति ।" - इति ज्ञाताधर्म० १।५।५५ ॥
पृ०८९२] “जायमित्तस्स जंतुस्स जा सा पढमिया दसा । न तत्थ सुहं दुक्खं वा नहु जाणंति बालया । वृ० अथ सूत्रेणैव दश दशा दर्शयन्नाह-जायमि० श्लोकः, जातमात्रस्य जन्तोः
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि
१७५ जीवस्य या सा प्रथमिका दशा दशवर्षप्रमाणावस्था तत्थ त्ति तस्यां प्रथमदशायां प्रायेण सुखं दुःखं वा नेति नास्ति, तथाऽऽत्मपरेषां सुखदुःखं नैव जानन्ति बालका: जातिस्मरणादिज्ञानविकला इति। ___ बीईयं च दसं पत्तो, नाणाकीलाहिं कीडइ । न य से कामभोगेसु, तिव्वा उप्पजई रई ॥ वृ० बीईयं च द्वितीयां दशां प्राप्तो जीवो नानाक्रीडाभिः क्रीडति क्रीडां करोतीत्यर्थः, से तस्य द्वितीयाऽवस्थावर्त्तिनो जीवस्य कामौ च शब्दरूपे भोगाश्च गन्धरसस्पर्शाः कामभोगास्तेषु तीव्रा प्रबला रति मन्मथवाञ्छा नोत्पद्यते न प्रकटीभवतीत्यर्थः ।
तइयं च दसं पत्तो, पंचकामगुणे नरो । समत्थो भुंजिउं भोए, जइ से अत्थि घरे धुवा॥ वृ० तइयं च तृतीयां दशां प्राप्तः पंचकामगुणे शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शलक्षणे नरो मनुष्यः आसक्तो भवति, तथा तदा भोगान् भोक्तुं समर्थो भवति यदि से तस्य जीवस्य अस्तीति सत्तारूपतया वर्त्तते गृहे स्वावासे धुवेति राजाद्युपद्रवाभावेन निश्चला समृद्धिरिति शेषः ।।
चउत्थी उ बला नाम, जं नरो दसमस्सिओ । समत्थो बलं दरिसेउं, जइ भवे निरुवद्दवो। वृ० चउ० चतुर्थी बलानाम्नी दशा वर्तते, यां बलानाम्नी दशामाश्रितो नरः समर्थो भवति बलं स्ववीर्यं द्रष्टुं [दर्शयितुं] फलिह(फलहि?)मल्लवत्, यदि भवेत् निरुपद्रवो रोगादिक्लेशरहितः, अन्यथा मात्स्यिकमल्लवत् विनाशं यातीति ।
पंचमी उ दसं पत्तो, आणुपुव्वीए जो नरो । समत्थोऽत्थं विचिंतेउं, कुडुंबं चाभिगच्छइ॥ वृ० पंचमी उ पञ्चमी दशां प्राप्तः आनुपूर्व्या परिपाट्या यो नरः स समर्थो भवति अर्थं विचिन्तयितुं द्रव्यचिन्तां कर्तुं च पुनः कुटुम्बं प्रति अभिगच्छति कुटुंबचिन्तायां प्रवर्तते इत्यर्थः ।
छट्ठीओ हायणी नामा, जं नरो दसमस्सिओ। विरजइ उ कामेसुं, इंदिएसु य हायइ॥ वृ० छट्ठी उ षष्ठी हापनीनाम्नी दशा वर्त्तते, यां हापनी दशां नर आश्रितः विरजइ त्ति प्रवाहेण विरक्तो भवति, केभ्यः ?- काम्यन्त इति कामा: कन्दर्पाभिलाषास्तेभ्यः इन्द्रियेषु श्रवण-घ्राणचक्षु-र्जिह्वा-स्पर्शनलक्षणेषु हीयते हानिं गच्छतीत्यर्थः ।।
सत्तमी य पवंचाओ, जं नरो दसमस्सिओ। निच्छुहइ चिक्कणं खेलं, खासई य खणे खणे ॥ वृ० सत्तमी० सप्तमी प्रपञ्चा दशा, यां दशाम् आश्रितः निच्छुभइ त्ति बहिर्निक्षिपति यत्र कुत्रापि बहिर्निस्सारयति चिक्कणं पिच्छिलं चेपकतुल्यमित्यर्थः खेलं श्लेष्माणं च पुनः क्षणं वारं वारं खासइ त्ति खासितं करोतीत्यर्थः ।। __ संकुइयवलीचम्मो, संपत्तो अट्ठमीदसं । नारीणं च अणिट्ठो य, जराए परिणामिओ ॥ वृ० संकुइ० अष्टमी दशां प्राप्तो जीवः सङ्कुचितवलिचर्मा भवति, च पुनः जरया परिणमितो व्याप्तः स्यात्, नारीणां स्व-परस्त्रीणाम् अनिष्टो भवति, श्रावस्तीपुरीवास्तव्यजिनदत्तश्राद्धवदिति ।
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६
तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि - नवमी मुम्मुही नाम, जं नरो दसमस्सिओ । जराघरे विणस्संते, जीवो वसइ अकामओ। वृ० नवमी मुन्मुखी नाम्नी वर्तते, यां मुन्मुखी दशां नरः आश्रितः जराघरे जरागृहे शरीरे विनश्यति सति जीवोऽकामको विषयादिवाञ्छारहितो वसति । ____ हीनभिन्नसरो दीनो, विवरीओ विचित्तओ । दुब्बलो दुक्खिओ सुयई, संपत्तो दसमी दसं ॥ वृ० हीण हीनस्वरः लघुध्वनिः भिन्नस्वरः स्वभावस्वरादन्यस्वरः दीन: दीनत्वं गतः विपरीत: पूर्वावस्थातः विचित्तः विचित्रो वा नानास्वरूपः दुर्बल: कृशाङ्गः दुःखितो रोगादिपीडालक्षव्याप्तः एवंविधो जीवः स्वपिति स्वशरीरे स्वगृहे वा संप्राप्तः दशमी दशाम् ।" - तन्दुल० प्रकी० ३२-४१ । ___ [पृ०९०३] "उदयक्खयखओवसमोवसमा... [विशेषाव० ५७५] दृश्यताम् प्रथमविभागे गाथाविवरणे पृ०४६ पं० १६ ॥
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थं परिशिष्टम् ।
श्रीस्थानाङ्गसूत्रटीकायाः तृतीयविभागे ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानां पृष्ठक्रमेण सूचिः ।
पृष्ठाङ्कः
गाथा
नाण दंसणट्ठा चरणट्ठा......
[निशीथ० ५४५८]
सुत्तस्स व अत्थस्स व ...... [निशीथ० ५४५९ ] चरितट्ठ देसि दुविहा......
६५२
[विशेषाव० २१९५]
[बृहत्कल्प ० ५४४०, निशीथ० ५५३९ ] आयरियाईण भया..... [ निशीथ० ५४५५ ] एगो इत्थीगम्मो ..... [ निशीथ० ५४५६ ] जहिं नत्थि सारणा... [बृहत्कल्प० ४४६४] सीसे जइ आमंते....[बृहत्कल्प० १४५७] तरुणा बाहिरभावं......[बृहत्कल्प० १४५८ ] ६६० कुंभो भावाणन्नो जइ.......
६५३ |संगहणं संगिण्हइ संगिज्झते ६५३ [विशेषाव० २२०३ ] ६५९ सदिति भणियम्मि जम्हा....... [विशेषाव० २२०७]
६६०
६६०
[विशेषाव० २२०८ ]
६६२
ववहरणं ववहरए स......
[विशेषाव० २२१२]
६६२
उवलंभव्ववहाराभावाओ
६६२
]
६६३
संस १ मसंसट्टा २......[ 1 पडमासु सत्तगा सत्त.. एवमेक्केक्कियं भिक्खं..[ अहवा एक्केक्कियं दत्तिं......[ उचिए काले विहिणा......[ गुरुदासेसभोयणसेवणयाए ......[ भोयणकाले अमुगं......[ पढमा असीइसहस्सा. [बृहत्सं० २४१] सव्वे वीससहस्सा...... [ बृहत्सं० २४२ ] कोच्छं सिवभूई......[कल्पसू०] एक्वेक्को य... [आव० नि० ५४२,
६६३ | बहुतरओ त्तिय तं
]
विशेषाव० २२६४ ]
1
जावइया वयणपहा
[सम्मति० ३।४७ ] गाई माणाई. . [विशेषाव० २१८६]
पृष्ठाङ्कः | गाथा
६५२
६५२
६६७
लोगत्थनिबोहा वा...... [विशेषाव० २१८७]
जं सामन्नविसेसे परोप्परं......
६६८
६६८
[विशेषाव० २१९४]
दोहिं वि नएहिं नीयं
[विशेषाव० २२२१]
६६३
६६४ |उज्जुं रिडं सुयं नाणमुज्जु
६६४
६६७
[विशेषाव० २२१४]
[विशेषाव० २२२२] तम्हा निजगं संपयकालीयं...
[विशेषाव० २२२६]
सवणं सवइ स तेणं... [विशेषाव० २२२७]
तं चिरिउत्तमयं
******
[विशेषाव० २२२८]
जं जं सन्नं भासइ....... [विशेषाव० २२३६]
६६८
६६८
६६८
६६८
६६९
६६९
६६९
६६९
६६९
६६९
६७०
६७०
६७०
६७०
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७८ स्थानाङ्गसूत्रटीकायाः तृतीयविभागे ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानां पृष्ठक्रमेण सूचि:
गाथा
पृष्ठाङ्कः गाथा
पृष्ठाङ्कः कुट कौटिल्ये... [पा०धा० १३६७] ६७० परिभासणा उ पढमा ....[आव० भा० ३] ६८४ एवं जहसद्दत्थो संतो.
रत्नं निगद्यते तत् जातौ......[ ] ६८४ विशेषाव० २२५१]
६७० चक्कं छत्तं दंडो तिन्नि......[बृहत्सं० ३०१] ६८४ शुद्धं द्रव्यं समाश्रित्य ......[ ] ६७१ | चउरंगुलो मणी पुण ......[बृहत्सं० ३०२] ६८४ अन्यदेव हि सामान्य......[ ] ६७१ कम्मोवक्कामिज्जइ अपत्तकालं...... सद्रूपतानतिक्रान्तस्वस्वभावमिदं......
विशेषाव० २०४७]
६७१ न हि दीहकालियस्स वि...... व्यवहारस्तु तामेव......[ ] ६७१] [विशेषाव० २०४८] तत्रर्जुसूत्रनीति: स्यात् ......[ ] ६७१ सव्वं च पएसतया भुजइ..... अतीता-ऽनागता-ऽऽकार-......[ ] ६७१ [विशेषाव० २०४९] विरोधिलिङ्ग-सङ्ख्यादिभेदात्......[ ] ६७१ किंचिदकाले वि फलं...... तथाविधस्य तस्यापि ...... 1 ६७१] विशेषाव० २०५८] एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं ......[ ] ६७१ जह वा दीहा रजू......[विशेषाव० २०६१] ६८६ नासां कण्ठमुरस्तालु जिह्वां ......[ ] ६७४ पासो मल्ली य तिहिं... [आव०नि०२२४] ६८७ वायु: समुत्थितो नाभेः ......[ ] ६७४ किं थ तयं पम्हुटुं......[ज्ञाताधर्म० १।८] ६९० वायुः समुत्थितो नाभे.......[ ] ६७५ हा पुत्त पुत्त हा वच्छ !......[ ] ६९२ वायु: समुत्थितो नाभेरुरोहृदि......[ ] ६७५ सूक्ष्मयुक्तिशतोपेतं ......[ ] ६९२ वायु: समुत्थितो ......[ ] ६७५ | सोही य नत्थि न वि......[ ] ६९२
अभिसन्धयते यस्मादेतान् ......[ ] ६७५ आयरियगिलाणाणं मइला...... निषीदन्ति स्वरा ......[ ] ६७५/ [ओघनि० ३५१]
६९३ कजं करणायत्तं जीहा य......[ ] ६७५ कलमोयणो उ पयसा...... सत्त य सुत्तनिबद्धा कह ......[ ]
[ओघनि० भा० ३०७]
६९३ विषमाक्षरपादं वा ......[ ] ६७६ सुत्तत्थथिरीकरणं विणओ.... सज्जाइ तिहा गामो स ...... ६७७ ओघनि० ६०९]
६९३ अननसरविसेसे उप्पायंतस्स......[ ] ६७७ आरंभो उद्दवओ ......[ ] ६९४ अक्खरसमं १ पयसमं २ ......
काक्वा वर्णनमुल्लापः [अमरको० ? ] __ [अनुयोग० सू० २६० (१०)] ६७९ अनुलापो मुहुर्भाषा (अमरको० १६] । ६९९ अलियमुवघायजणयं [आव०नि० ८८१, संलापो भाषणं मिथ: [अमरको० १६] ६९९ बृहत्कल्प० २७८]
६७९ प्रलापोऽनर्थकं वचः [अमरको० १५] ६९९ पढम-बीयाण पढमा ......
भत्ती १ तह बहुमाणो......[ ]
७०० [आव० नि० १६८]
६८४ | सुस्सूसणा अणासायणा......[ ] ७००
६९९
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थं परिशिष्टम् ।
पृष्ठाङ्कः गाथा
७०० नहि कम्मं जीवाओ [विशेषाव० २५१६]
७००
७०९
1
७११
७११
७११
७११
७११
७११
७०० | तत्थ खलु इमाओ... ...... [ चन्द्रप्र० १०।२१] ७०० वयं पुण एवं... [ चन्द्रप्र० १० | २१] ७०१ | दहनाद्यमृक्षसप्तकमैन्द्र्यां तु ...... [ ७०१ भवति गमने नराणाम्...... [ ७०२ |पूर्वायामौदीच्यं प्रातीच्यं...... [ ७०३ | येऽतीत्य यान्ति मूढाः ...... [ ७०३ तवेण सत्तेण सुत्तेण.... [ बृहत्कल्प० १३२८] ७१३ | भीउव्विग्गनिलुको .[ उपदेशमाला० ४७८ ] ७१८ ७०५ तवतेणे वइतेणे रूवतेणे.... [ दशवै० ५/२/४६] ७१८ जं जत्थ नभोदेसे अत्थुव्वइ. तत्तो वि से चइत्ताणं .... [ दशवै० ५।२।४८ ] ७१८ [विशेषाव० २३२१] ७०५ लज्जाए गारवेण य ....[ उत्तरा० नि० २१७] ७१८ एगे भंते ! जीवप्पएसे ......[ ७०५ नवि तं सत्थं व विसं.... [ ओघनि० ८०३] ७१८ एगादओ पएसा न ......[विशेषाव० २३३६ ] ७०६ जं कुणइ भावसल्लं .. [ ओघनि० ८०४ ] गुरुणाऽभिहिओ जइ .....[ .. [विशेषाव० २३३७] ७०६ उद्धरियसव्वसल्लो[ ओघनि० ८०७ ] किं साहू | गोलियसोंडियभंडिय - [ ] [विशेषाव० २३५९] ७०६ निच्चं संकियभीओ.... [ उपदेशंमाला० २२६] ७२० थेरवयणं जइ परे मद्दलसाराई तूराई [ 1 ते कहियं वि देवस्स व किं वयणं
]
७१८
७१९
७१९
....
७२२ लहुया ल्हाईजणणं ... [व्यवहारभा० १।३१७] ७२२ नवजोयणवित्थिन्ना......[ ७०७ आयरवमायारं पंचविह.. ७०७ ववहारव ववहारं
]
७२५
७२६
७२७
७२७
७२७
७२७
७२७
७०७ आलोइयम्मि सोहिं जो.. ७०७ जो अन्नस्स उ दोसे न...... [ निज्जवओ तह कुणई......[ ७०७ दुब्भिक्खदुब्बलाई इहलोए...... [ जाई - कुलसंपन्नो पायमकिच्चं ......[ ७०७ नाणेण उ संपन्नो [ ] ७०७ सुद्धो तह त्ति सम्मं ......[ ७०९ खंतो आयरिएहिं फरुसं ......[
] ७२७
७२७
]
७२८
७२८
गाथा
सक्कार १ ब्भुट्ठाणे २......[
1
इंतस्सऽणुगच्छणया ८......[ तित्थगर १ धम्म २ आयरिय..... [
कायव्वा पुण भत्ती [
]
[
सामाइयादिचरणस्स मणवइकाइयविणओ ......[ स्नु प्रश्रवणे [पा० धा० १०३८ ] पुव्यकम्म
वेउव्वियसमुग्घाएणं......[कल्पसू० ]
सक्ख चिय संथारो ण...... [विशेषाव० २३०८]
.. [मूलाचारे ४४५]
[विशेषाव० २३६२] पडुप्पन्नसमयनेरइया... [ एवं च कओ कम्माण. एगनयममिदं तं न हि सव्वहा विणासो...
[विशेषाव० २३९३] अह सुताउति मई
.. [ विशेषाव० २३६०] ७०६ . [ विशेषाव० २३६१] ७०६
1
......
[
1
1
[विशेषाव० २३९४]
तत्थ वि न सव्वनासो... [विशेषाव० २३९५] सोउं भइ सदो .. [विशेषाव० २५१५]
1
1
1
1
]
1
]
1
१७९
पृष्ठाङ्कः
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८० स्थानाङ्गसूत्रटीकायाः तृतीयविभागे ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानां पृष्ठक्रमेण सूचिः
गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा
पृष्ठाङ्कः दंतो समत्थो वोढुं पच्छित्तं......[ ] ७२८ जावइया जस्स गणा......[आव० नि० २६९]७३९ जात्यादिमदोन्मत्तः ......प्रशम० ९८] ७२८ चउरंगुलप्पमाणा ......[बृहत्सं० ३०२] ७४६ एक एव हि भूतात्मा......[ ] ७२८ | परमाणू तसरेणू रहरेणू ...... पुरुष एवेदं ग्निं ......शुक्लयजु० ३१।२] ७२९/ [अनुयोगद्वार० सू० ३३९]
७४७ यदेजति यन्नैजति......ईशावस्य० ५] ७२९ भवणं कोसपमाणं ......[बृहत्क्षेत्र० २८८] ७४८ नित्यज्ञानविवर्तोऽयं ......[ ] ७२९ ते पासाया कोसं ......[बृहत्क्षेत्र० २८९] ७४८ अनादिनिधनं ब्रह्म ......[वाक्यप० १।१] ७२९ | देसूणकोसमुच्चं जंबू......[बृहत्क्षेत्र० २९०] ७४८ आसीदिदं तमोभूत-......[मनुस्मृ० १।५] ७३० | जंबूओ पन्नासं दिसि......[बृहत्क्षेत्र० २९३] ७४८ तस्मिन्नेकार्णवीभूते ......[ ] ७३० | कोसपमाणा भवणा ......[बृहत्क्षेत्र० २९४] ७४८ केवलं गह्वरीभूते ......[ ] ७३० | पंचेव धणुसयाइं ......[बृहत्क्षेत्र० २९५] ७४८ तत्र तस्य शयानस्य ......[ ] ७३० पासायाण चउण्हं ......[बृहत्क्षेत्र० २९८] ७४८ तस्मिन् पद्धे तु भगवान्......[ ] ७३० अट्ठसभकूडतुल्ला सव्वे ...... अदिति: सुरसङ्घानां ......[ ] ७३० बृहत्क्षेत्र० २९९]
७४८ कट्ठः सरीसृपाणां सुलसा......[ ] ७३० | देवकुरुपच्छिमद्धे......[बृहत्क्षेत्र० ३००] ७४८ न कदाचिदनीदृशं जगत् [ ] ७३० | सव्वे वि उसभकूडा ......[बृहत्क्षेत्र० १९३] ७५२ मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय......[ ] ७३१ | जो भणिओ जंबूए ......[बृहत्क्षेत्र० ३।५५] ७५२ शब्देन महता भूमिर्यदा......[ ] ७३२ मेरुओ पन्नासं.....[बृहत्क्षेत्र० ३२१] ७५३ मूत्रं वा कुरुते स्वप्ने......[ ] ७३२ छत्तीसुच्चा पणुवीसवित्थडा...... कपिलं सस्यघाताय......[ ] ७३२ बृहत्क्षेत्र० ३२२]
७५३ गन्धर्वनगरं स्निग्धं ......[ ] ७३२ ईसाणस्सुत्तरिमा पासाया.... दक्षिणपार्श्वे स्पन्दमभिधास्ये ......[ ] ७३३ | बृहत्क्षेत्र० ३२४]
७५३ सज्जेण लब्भई वित्तिं ......
दो दो चउद्दिसिं मंदरस्स.. [स्थानाङ्ग० ५५३।५४] ७३३ | बृहत्क्षेत्र० ३२५]
७५३ चिविचिविसद्दो पुन्नो......[ ] ७३३ | तत्तो य नेलवंते सुहत्थि...... अस्थिष्वर्थाः सुखं मासे......[ ] ७३३ [बृहत्क्षेत्र० ३२६]
७५३ ललाटकेश: प्रभुत्वाय [ ] ७३३ | सोमणसगंधमायणविजुप्पभ-......[ ] ७५६ सु औ जस् [पा० ४।१।२]
७३४ | नंदणवणकूडेसु एयाओ......[ ] ७५६ कृत्यल्युटो बहुलम् [पा० धा० ३।३।११३] ७३४ औदारिकप्रयोक्ता......[प्रशम० २७६] ७६० दो अवखण्डने [पा० धा० ११४८] ७३४ कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके....प्रशम० २७७] ७६१ राया आइच्चजसे ......[आव० नि० ३६३] ७३८ | चिंधाई कलंबझए सुलस......[बृहत्सं० ६१] ७६२ दस नवगं गणाण......[आव० नि० २६८] ७३९ | पुणव्वसु-रोहिणि-चित्ता......[ ] ७६२
m m 9999
mmm
9 9 9 m mmmm
9 9
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थं परिशिष्टम् ।
१८१
गाथा पृष्ठाङ्कः गाथा
पृष्ठाङ्कः एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि...[लोकश्रीटीका] ७६२ पढमं चिय गिहि-संजयमीसं..... एतेषामुत्तरगा ग्रहा: सुभिक्षाय......[ ] ७६२ | [पञ्चा० १३।९]
८०४ कर्णाटी सुरतोपचारकुशला......[ ] ७६६ | सट्टा मूलद्दहणे अज्झोयर...... अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स...[पिण्डनि०६५०] ७६६[पञ्चा० १३।१५]
८०४ साजीणे भुज्यते यत्तु......[ ] ७६९ कम्मावयवसमेयं संभाविज्जइ...... आदावभिलाष: १ स्याच्चिन्ता......
[पञ्चा० १३।९]
८०४ [रुद्रटकाव्यालं० १४।४।]
७६९ | दव्वाइएहिं किणणं ......[पञ्चा० १३।११] ८०४ उन्मादस्तदनु ७ ततो व्याधि.
पामिच्चं साहूणं अट्ठा......[पञ्चा० १३।१२] ८०४ [रुद्रटकाव्यालं० १४।५।]
७६९ |अच्छेज्जं चाच्छिंदिय जं....[पञ्चा० १३।१४] ८०४ द्रा कुत्सायां गतौ [पा० धा० १०५४] ७६९ / अणिसर्ट सामन्नं......[पञ्चा० १३।१५] ८०४ अटुंतकडा रामा एगो......
सग्गामपरग्गामा.....[पञ्चा० १३।१३] ८०४ [समवायाङ्गे सू० १५८ गा० १४०] ७७२ |सपडिक्कमणो धम्मो......[आव० नि० १२५८, नेसप्पे १ पंडुए २ पिंगले......[ ] ७७३ | बृहत्क० ६४२५] ।
८०५ सेसा उ दंडनीई [आव०नि० १६९] ७७५ |जह जलमवगाहंतो ......[विशेषाव० २६००] ८०५ एक्केण चेव तवओ पूरिज्जइ......
परिसुद्धजुन्नकुच्छिय-......[विशेषाव० २५९९] ८०५ [पञ्चवस्तु० ३७७]
७७६ | अह कुणसि थुल्लवत्थाइएसु...... अन्नं पानं च वस्त्रं ......[ ] ७७७ | [विशेषाव० २५६४] अप्रतिषिद्धमनुमतम् [ ]
७७९ | अपरिग्गहा वि परसतिएस...... कामं सयं न कुव्वइ......[पिण्डनि० १११] ७७९ । विशेषाव० २५६६] सा नवहा दुह कीरइ ......
न परोवएसवसया न य..... [दशवै० नि० २४१]
७७९] [विशेषाव० २५८८] सपरिग्गहेयराण सोहम्मीसाण.....
|तह सेसेहि य सव्वं ...... [बृहत्सं० १७]
७८० [विशेषाव० २५८९] भवसिद्धिओ उ भयवं ......[ ] ७८९ तणगहणानलसेवानिवारणा.. अस्थिष्वर्थाः सुखं मांसे [ ] ७९५ | [ओघनि० ७०६, पञ्चव० ८१३]
८०६ माणुम्माणपमाणादि......[ ] ७९५ |तित्थंकरपडिकुट्ठो अन्नायं...... जलदोण १ मद्धभारं २......[ ] ७९५] [पञ्चा० १७/१८]
८०६ सव्वो पमत्तजोगो समणस्स......[ ] ८०३ | अस्सिणि भरणी समणो......[ ] सच्चित्तं जमचित्तं ......[पञ्चा० १३।७] ८०३ | भरणी स्वात्याग्नेयं ३......[ ] ८०७ उद्दिसिय साहुमाई ओमच्चय......
वृषभाख्या ४ पैत्रादि: ३......[ ] ८०७ [पञ्चा० १३।८]
८०३ अजवीथी ७ हस्तादिः ४......[ ] ८०७
८०६
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२ स्थानाङ्गसूत्रटीकायाः तृतीयविभागे ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानां पृष्ठक्रमेण सूचिः
८२६
८२७
Wwww WWWW
गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा
पृष्ठाङ्कः एतासु भृगुर्विचरति......[ ] ८०८ |संती कुंथू य अरो तिन्नि.. पशुसंज्ञासु च ३......[ ] ८०८/ निशीथभा० २५९१] परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं......[ ] ८१७ |धायइसंडे मेरू चुलसीइ ...... सत्पर्ययेण नाश:......[ ] ८१७ | [बृहत्क्षेत्र० ३।५७] मुहत्तद्धं तु जहन्ना......[ ] ८१७ | मूले पणनउइ सया चउणउइ...... समनिद्धयाए बंधो न...... प्रज्ञापना० १९९] ८१८ | बृहत्क्षेत्र० ३।५८]
८२७ निद्धस्स निद्धेण दुयाहिएणं......
दस चेव जोयणसए ......[द्वीपसागर० ७४] ८२७ [प्रज्ञापना० २००]
८१८ | सत्तरस एक्कवीसाइं ......द्वीपसागर० १६६] ८३१ निच्छयओ सव्वगुरुं ......[विशेषाव० ६६०] ८१९ चत्तारि जोयणसए ......द्वीपसागर० १६७] ८३१ गुरुयं लहुयं उभयं ......विशेषाव० ६५९] ८१९ अरुणस्स उत्तरेणं ......[द्वीपसागर० २११] ८३१ दिसिदाहो छिन्नमूलो ......
|असुराणं नागाणं ......(द्वीपसागर० २२०] ८३२ [आव० नि० १३४९]
८२० | दीवदिसाअग्गीणं ......[द्वीपसागर० २२१] ८३२ सोणिय मंसं चम्मं ......
उस्सेहपमाणउ मिणे...[बृहत्सं० ३४९] । [आव० नि० १३६५]
८२० | मच्छजुयले सहस्सं [बृहत्सं० ३०७] सोणियमुत्तपुरीसे ......[आव० नि० १४१४] ८२० उरगेसु य गब्भजाईसु [बृहत्सं० ३०७] । ८३३ चंदिमसूरुवरागे निग्घाए......
दप्पो पुण होइ......[ ]
८३४ [आव० नि० १३५१] ८२० कंदप्पाइ पमाओ [ ]
८३४ आइन्नं दिणमुक्के सो च्चिय....
| पढमबीयदुओ वाहिओ......[ ] ८३५ [आव० नि० १३५७]
दव्वाइअलंभे पुण......[ ] ८३५ मयहर पगए बहुपक्खिए...
जं संके तं समावज्जे [ ] ८३५ [आव० नि० १३६१]
| पुव्वं अपासिऊणं पाए....(निशीथभा० ९७] ८३५ सेणाहिव भोइय मयहरे....
भयमभिउग्गेण सीहमाई व [ ] [आव० नि० १३५९]
कोहाईओ पओसो [ ] ८३५ दसरायहाणिगहणा सेसाणं.
वीमंसा सेहमाईणं [ ]
८३५ [निशीथभा० २५८८]
८२५ वेयावच्चाईहिं पुव्वं ......[ ] तरुणावेसित्थिविवाहरायमाईसु
कि एस उग्गदंडो ......[ ] [निशीथभा० २५९२]
८२५ दिट्ठा व जे परेणं ......[ ] ८३५ जम्मण विणीय उज्झा ......
बायर वड्डवराहे जो...... [ ] ८३६ [आव० नि० ३९७]
८२५ जो सुहुमे आलोए सो......[ . ] ८३६ चंपा महुरा वाणारसी य.
छण्णं तह आलोए जह......[ ] ८३६ निशीथभा० २५९०]
८२६ | सद्दाउल वड्डेणं सद्देणालोय......[ ] ८३६
८२१
८३५
८३५ ८३५
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थं परिशिष्टम् ।
१८३
८५२
८५३
गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा
पृष्ठाङ्क: एक्कस्सालोएत्ता जो ......[ ] ८३६ | धम्मत्थिकाये धम्मत्थिकायदेसे.... जो य अगीयत्थस्सा ......[ ]
(प्रज्ञापना० ११५]
८५२ जह एसो मत्तुल्लो न......[ ] ८३६ सम्यग्दर्शनशुद्धम् [तत्त्वार्थका०१] नो पलिउंचे अमायी ......[ ] ८३७ साहूणं वंदणेणं नासति......[ ] ८५२ क्षिति-जल-पवन-......[ ] ८३८ |अच्छंदा जे न भुजति...... [दशवै० २।२] ८५२ अणिमाद्यष्टविधं ......[ ] ८३८ | सक्के देविदे देवराया......[जम्बूद्वीप० २।३५] ८५२ असुरा १ नाग २ सुवन्ना...
कृपणेऽनाथ-दरिद्रे ......[ ] ८५३ प्रज्ञापना० २।११७/१३७]
८३९ अभ्युदये व्यसने वा......[ ] ८५३ आरोगसारियं माणुसत्तणं......[ ] ८४०
| राजा-ऽऽरक्ष-पुरोहित......[ ] दुवालसमासपरियाए...[भगवती०१४।९।१७] ८४० अभ्यर्थितः परेण तु......[ ] ८५४ नैवास्ति राजराजस्य....[प्रशम० गा० १२८] ८४० नट-नर्त्त-मुष्टिकेभ्यो दानं......[ ] ८५४ नवि अस्थि माणुसाणं ......
हिंसा-ऽनृत-चौर्योद्यत...... [ ] ८५४ __[आव० नि० ९८०]
समतृण-मणि-मुक्तेभ्यो ...... [ ] ८५४ कच्छुल्लयाए घोडीए ......[ ] ८४९
शतश: कृतोपकारो दत्तं ......[ ] दिशि १ दृशि २ वाचि......[ ] ८४९
जावं ताव त्ति वा ......[ ] जिणवयणं सिद्धं चेव....[दशवै० नि० ४९] ८५०
गच्छो वाञ्छाभ्यस्तो ......[ ] ८५५ कत्थइ पंचावयणं दसहा...[दशवै० नि० ५०] ८५०
सदृशद्विराशिघातः.... [त्रिशती] ८५६ अहिंसा संजमो तवो [दशवै० १।१] ८५१
समत्रिराशिहतिः [त्रिशती]
८५६ सुंके सणिंचरे [स्थानाङ्ग० ६१३]
होही पज्जोसवणा मम...[आव०नि० १५८०] ८५६ चशब्दः समाहारेतरयोग-...[ ] इत्थीओ सयणाणि य [दशवै० २।२] ८५१
|सो दाइ तवोकम्मं ....[आव०नि० १५८१] ८५६ समणं व माहणं वा [स्थानाङ्ग० १३३] ८५१
|पज्जोसवणाए तवं....[आव० नि० १५८२] ८५६ जेणामेव समणे ...... [
सो दाइ तवोकम्मं ....[आव० नि० १५८३] ८५७
] अपिः सम्भावनानिवृत्त्यपेक्षा-...[ ]
पट्ठवणओ उ दिवसो ...
८५१ एवं पि एगे आसासे [स्थानाङ्ग० ३१४] ८५१
| [आव० नि० १५८४]
८५७ से भिक्खू वा [दशवै० ४।१०]
८५१ मासे मासे य तवो ..[आव० नि० १५८५] ८५७ सेयं मे अहिजिउं ......[दशवै० ४।१] ८५१
| एयं पच्चक्खाणं नियंटियं.... अथशब्दश्च प्रक्रिया-....[ ] ८५१ [आव० नि० १५८६]
८५७ सेयकाले अकम्म...[ ]
८५१ चोद्दसपुव्वी जिणकप्पिएसु. सत्यं तथावचनसद्भाव....[ ८५२| [आव० नि० १५८७]
८५७ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि......
दत्तीहि व कवलेहिं व ..... [तत्त्वार्थ० १११]
८५२ [आव० नि० १५९०]
८५५
८५१
८५१
८५७
Page #525
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४ स्थानाङ्गसूत्रटीकायाः तृतीयविभागे ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानां पृष्ठक्रमेण सूचिः
गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा
पृष्ठाङ्कः सव्वं असणं सव्वं च ......
सो होइ अभिगमरुई ...... [आव० नि० १५९१]
[उत्तरा० २८।२३]
८६७ अंगुट्ठ-मुट्ठि-गंठी-धरसेउस्सास.
दव्वाण सव्वभावा ....[उत्तरा० २८।२४] ८६७ [आव० नि० १५९२]
८५८ नाणेण दंसणेण य तवे......[उत्तरा० २८।२५] ८६७ अद्धापच्चक्खाणं जं तं......
अणभिग्गहियकुदिट्ठी ....[उत्तरा० २८।२६] ८६७ [आव० नि० १५९३]
८५८ | जो अत्थिकायधम्मं ....[उत्तरा० २८।२७] ८६७ जइ अब्भत्थेज परं ......
| गोयम १ समुद्द २ सागर....[अन्तकृद्दशा० ] ८७६ - [आव० नि० ६६८]
८५८ | धन्ने य सुनक्खत्ते......[अनुत्तरोपपा० ] ८७६ संजमजोगे अब्भुट्ठियस्स.
पेढालपुत्ते अणगारे......[अनुत्तरोपपा० ] [पञ्चा० १२।१०]
८५९ | सक्कोसजोयणं विगइनवय [ ] ८७९ वायणपडिसुणणाए ....[पञ्चा० १२।१५] ८५९ वारिमज्झेऽवगाहित्ता......[ ] ८७९ कप्पाकप्पे परिनिट्ठियस्स....[पञ्चा० १२।१४] ८५९ | एगे भवं दुवे भवं [पुप्फिया]
८८० कज्जे गच्छंतस्स उ ......[पञ्चा० १२।१८] ८५९ | सो पासत्थो दुविहो......[ ] ८८४ एवोग्गहप्पवेसे निसीहिया...[पञ्चा० १२।२२] ८५९ | देसम्मि उ पासत्थो......[ ] ८८४ आपुच्छणा उ कजे...[पञ्चा० १२।२६] ८५९ शौड गर्वे [पा० धा० २९० ]
८८७ पडिपुच्छणा उ कज्जे ......[पञ्चा० १२।३०] ८५९ मत्तंगेसु य मजं......[ ]
८८९ पुव्वगहिएण छंदण......[पञ्चा० १२।३४] ८६० | दीवसिहा-जोइसनामया......[ ] सज्झाया उव्वाओ......[पञ्चा० १२।३८] ८६० मणियंगेसु य भूसणवराई......[ ] ८९० उवसंपया य तिविहा......[पञ्चा० १२।४२] ८६० जायमेत्तस्स जंतुस्स....[तन्दुल० प्रकी०४५] ८९२ वत्तणसंधणगहणे सुत्तत्थोभयगया...
| बितियं च दसं पत्तो...[तन्दुल० प्रकी०४६] ८९२ [पञ्चा० १२॥४३]
८६० | तइयं च दसं पत्तो...[तन्दुल० प्रकी०४७] ८९२ जो जिणदिढे भावे .... उत्तर ० २८।१८] ८६६ चउत्थी य बला नाम...[तन्दुल० प्रकी०४८] ८९३ एए चेव उ वे उवइटे......
पंचमिं च दसं पत्तो...[तन्दुल० प्रकी०४९] ८९३ [उत्तरा० २८।१९]
८६६ | छट्ठी उ हायणी....[तन्दुल० प्रकी०५०] ८९३ रागो दोसो मोहो ......[उत्तरा० २८।२०] ८६६ सत्तमिं च दसं पत्तो....[तन्दुल० प्रकी०५१] ८९३ जो सुत्तमहिज्जतो सुएण......
|संकुचियवलीचम्मो .... तन्दुल० प्रकी०५२] ८९३ [उत्तरा० २८।२१]
८६६ | नवमी मुंमुही नाम......[तन्दुल० प्रकी०५३] ८९३ एगपएऽणेगाई पयाई
हीणभिन्नस्सरो दीणो....[तन्दुल० प्रकी०५४] ८९३ [उत्तरा० २८।२२]
८६६ / उदयक्खयखओवसमोवसमा.... [विशेषाव०५७५]
९०३
८८९
WWW
Page #526
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
श्री अभयदेवसूरिविरचितायां स्थानाङ्गवृत्तावृद्धृतानां पाठानां यावदुपलब्धि 'मूलस्थाननिर्देशेन सह अकारादिक्रमः
पृष्ठाङ्कः | उद्धृतः पाठः
८५८
५३३
२६ अक्खो जीवो अत्थव्वावण...[विशेषाव ० ८९ ] ३९४ अगुरुलहु २५ पराघायं... [ ] ३९५ | अच्चत्थदुक्खिया जे.... [ विशेषाव ० १९००] अच्चित्ता खलु जोणी.... [ जीवस० ४६,
उद्धृतः पाठः
अंगुट्ठ मुट्ठि-गंठी. .....[ आव० नि०१५९२]
अंगोवंगतियं पि य...[
अंजणगपव्वयाणं ..[द्वीपसागर ० ३९ ] अंजणगाइगिरीणं ...[ ] अंतरदीवेसु नरा धणुसयअट्ठूसिया.....
[बृहत्क्षेत्र० २।७३] अंते केवलमुत्तमजइ-...[विशेषाव० ८८ ] अंतेउरं च तिविहं..... [ निशीथभा० २५१३] अंतोमुहुत्तमित्तं.....[ध्यानश० ३] अइयं निंदामि पडुप्पन्नं.... [ पाक्षिकसू० ] अइवाइगम्मि बाहिं अच्छंति......
[ व्यवहारभा० २५२४] अउणट्ठा दोन्नि सया ....[ बृहत्क्षेत्र ० ३ | ५०] अउणावन्न नवसए.....[ बृहत्क्षेत्र ०२ / ५६ ] अकुड्डो होइ मंचो मालो .... [ ] अक्खरसमं १ पयसमं २
३८५ बृहत्सं० ३५९ ]
५९६ | अच्छंदा जे न भुंजति..... [ दशवै ०२ । २] ५३७ अच्छि मुह मज्जमाणो....[ उत्तरा० भा० ८ ] ३१७ अच्छेज्जं चाच्छिंदिय जं.... [ पञ्चा ० १३ | १४] ७२ अजवीथी ७ हस्तादिः ४...... [
]
अज्झीणं दिज्जंतं.....[विशेषाव ० ९६१] ५६५ अज्ञानिकवादिमतं नव .....[ 1 १३९ अट्ठ सया बायाला.... ..[बृहत्क्षेत्र० २६३ ] ३८५ अठ्ठे वा हेउं वा समणीणं
२०९
[ अनुयोग० सू० २६० [१०]] अक्खस्स पोग्गलकया जं...[विशेषाव० ९० ] अक्खुन्नेसु पहेसुं पुढवी... [बृहत्कल्प ० २७३७]
६७९
८१
[बृहत्कल्प ० ६२८२]
अट्टंतकडा रामा एगो ...... [ समवायाङ्गे
१८५
पृष्ठाङ्कः
८१
२६
४६
२०५
८५२
५७७
८०४
८०७
९
४६०
११६
५६४
७७२
सू० १५८ गा० १४० ] अट्ठपएसो रुयगो....[आचाराङ्गनि० ४२] अट्ठविहबंधगस्स आउयभागो .....[ ] ३७६
२२४
१. येषां पाठानां यानि मूलस्थानानि लब्धानि तानि तेषां पाठानामधस्तात् [ ] एतादृशे चतुरस्रकोष्ठके दर्शितानि । इदं त्वत्रावधेयम्- विशेषावश्यकभाष्यस्य द्वे पुस्तके अस्माकं पुरतः स्तः- एकं दिव्यदर्शनकार्यालयेन वीरनिर्वाणसंवत् २४८९ मध्ये अहमदाबादनगरे प्रकाशितम्, अपरम् ईसवीय १९६६-१९६८ वर्षयोः 'लालभाई दलपतभाई' भारतीयसंस्कृतिविद्यामन्दिरेण अहमदाबादनगरे प्रकाशितम् । अस्माभिर्विशेषावश्यकभाष्यगाथानां ये ये अका निर्दिष्टास्ते मुख्यतया दिव्यदर्शनकार्यालयप्रकाशितपुस्तकानुसारे निर्दिष्टाः । किन्तु या गाथास्तत्र न दृश्यन्ते तासां विशेषावश्यकभाष्यगाथानामङ्का लालभाई दलपतभाई भारतीयसंस्कृतिविद्यामन्दिरप्रकाशितपुस्तकानुसारेण निर्दिष्टा: । अतस्ता गाथास्तत्र द्रष्टव्याः ।
Page #527
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८६
स्थानाङ्गसूत्रटीकाया: ग्रन्थान्तरेभ्य: साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः
५९४
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाकः अट्ठा १ णट्ठा २ हिंसा.....[आव० सं० ] ५४४|अत्तउवन्नासम्मि य तलायभेयम्मि..... अट्ठारस य सहस्सा....[बृहत्क्षेत्र० ३।२६] १३९/ [दशवै० नि० ८३]
४४३ अठुसभकूडतुल्ला सव्वे....बृहत्क्षेत्र० २९९] ७४८ अत्थं भासइ अरूहा..... [आव०नि०९२, अट्ठो त्ति जीए कज्ज..... बृहत्कल्प०६२८६] ५६४ विशेषाव०१११९] अडइ बहुं वहइ भरं .....[ ] ४५० | अत्थाभिमुहो नियओ....विशेषाव० ८०] ५९४ अडयालीसं निरया .....[विमान० १५] ६२७ अदितिः सुरसङ्घानां .....[ ]
७३० अडवण्णसयं तेवीस....बृहत्क्षेत्र० ३।४८] १३९ अद्दाऽसेसा साई ..... [ ] ६२९ अणंता गमा... समवायाङ्गे सू०१३७] अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स....पिण्डनि० ६५०] ७६६ अणभिग्गहियकुदिट्ठी .... उत्तरा०२८।२६] ८६७ अद्धापच्चक्खाणं जं तं.....[आव०नि०१५९३] ८५८ अणसणमूणोयरिया .....दशवै० नि० ४७] ५११ अद्भुट्ठ अद्धपंचम... बृहत्सङ्ग्र० ६] १२२ अणहिगया जा तीसु..... विशेषाव० ३७७] ३१० अर्तण छिन्नसेसं पुवढेणं .....[ ] ५५८ अणिगृहियबलविरिओ..... [दशवै०नि० १८७, । अद्धेण छिन्नसेसं पुव्वद्धेणं....[ ] २७६ निशीथभा० ४३]
१०८ अधिकारिवशाच्छास्त्रे,.हरि० अष्टक०२।५] १८५ अणिमाद्यष्टविधं ......[ ]
८३८ | अनन्तान्यनुबध्नन्ति यतो .....[ ] ३२८ अणिमिस देवसहावा .....[ ]
५५२ | अनादिनिधनं ब्रह्म .....(वाक्यप० ११] ७२९ अणिसठं सामन्नं.....[पञ्चा०१३।१५] ८०४ अनुरक्तः १ शुचि २ दक्षो.....[ ] . ४५३ अणुगामिओऽणुगच्छइ गच्छंतं.....
| अनुलापो मुहुर्भाषा [अमरको० १६] ६९९ विशेषाव० ७१५] ६३३ / अनुवादादरवीप्सा-.... [ ]
११५ अणुजोजणमणुजोगो ....[विशेषाव० १३८६] ६ | अन्नं पानं च वस्त्रं ......[ ] ওওও अणुबद्धविग्गहो.....[बृहत्कल्प० १३१५] ४७१ अन्नतरमणिबत्तियकज्जं..[विशेषाव० १८१८] २५ अणुभासइ गुरुवयणं..... [आव० भा० २४९] ५९८ | अन्नन्नसरविसेसे उप्पायंतस्स.....[ ] ६७७ अणुमाणहेउदिटुंतसाहिया.....
अन्नविणिउत्तमन्नं... विशेषाव० २४३६] ३५ [आव० नि० ९४८]
४८६ | अन्नाणं सो बहिराइणं... (विशेषाव० १९५] ८४ अणुलोम-हेउ-.....[विशेषाव० १०४७]
| अन्ने वि य पायाला....बृहत्क्षेत्र० २।१२] ३८७ अणुवेलंधरवासा.....[बृहत्क्षेत्र० २।२२] ३८८ | अन्नेण घाइए दद्दुरम्मि.... बृहत्कल्प०६१३६] ६३५ अणुसमयमसंखेज्जा.....बृहत्सं० ३३५] १७८ | अन्नोन्नावेक्खाए ..... [पञ्चवस्तु० ६९९] ५८० अत एव च शुक्रस्य, .....[ ] ४९४ | अन्नोऽणन्नो ब्व गुणी...(विशेषाव० १५५९] १८ अत सातत्यगमने [पा० धा० ३८]
१६ अन्यथाऽनुपपन्नत्वं .....न्याया० २२] अतरंत-बाल-वुड्ढा.... [ओघनि० ६९२] २३४ | अन्यदेव हि सामान्य......[ ] अतवो न होइ...[बृहत्कल्प० ५२०६] २८० | अपज्जत्तगसुहुम-... [भगवती०३४।१।३८] २९९ अतीता-ऽनागता-ऽऽकार-......[ ] ६७१ अपरक्कमो तवस्सी...[व्यव०भा० ४४४०] ५४७
४४५ ६७१
Page #528
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
उद्धृतः पाठः
अपरप्पेरियतिरियानिय ...[विशेषाव ०१७५८ ] अपरिग्गहा वि परसंतिएसु...... [विशेषाव० २५६६ ] अपरोक्षतयाऽर्थस्य, ... [ न्याया० ४] अपसत्थाण निरोहो ...[] अप्पं बायर मउयं.... [ ] अप्पडिलेहियदूसे तूलि .....[ अप्पाहने वि इहं.... [ पञ्चा० ६ । १३] अप्पाहार १ अवड्ढा २...... [ अप्पे वि पारमाणिं... [ बृहत्कल्प ० ५२०७] अप्रतिषिद्धमनुमतम् [ 1 अब्मिंतरियं वेलं.......बृहत्क्षेत्र० २।१९] अब्भुट्ठाणे विणये...[आव० नि० ८४८ ] अभिलावो पुल्लिंगाभिहाणमेत्तं...
]
[विशेषाव ० २०९२]
पृष्ठाङ्कः | उद्धृतः पाठः
[बृहत्क्षेत्र० ३ / ७]
अरहंति वंदन .....[विशेषाव० ३५६४ ] अराजके हि लोकेऽस्मिन् .....[ ] अरिरे माहणपुत्ता....[ बृहत्कल्प ० ६११६] अरुणस्स उत्तरेणं ..[द्वीपसागर० २११] अर्थस्य मूलं निकृतिः.... [ ]
1
अर्थाख्यः पुरुषार्थोऽयं ..... अर्थानामर्जने .....[
1
१८७
४८ | अलियमुवघायजणयं [आव० नि० ८८१, बृहत्कल्प ० २७८ ]
६७९
६२५
५२४
८०५ | अल्पमधमं पणस्त्रीं क्रूरं .....[ ४४७ | अवणेइ पंच ककुहाणि .....[ ] ३४९ | अवलक्खणेगबंधे .... निशीथभा० ७५० ] १५१ अवसेसा सोवक्कम .....[
५५०
]
६४५
४९४
२६६
1
४८४
२७७
३९७ | अवस्थितं लोहितमङ्गनाया वातेन ....[] ७१ अवाउडं जं तु...[ बृहत्कल्प ० ३५०० ] २५१ | अवाप्तदृष्ट्यादिविशुद्धसम्पत्, .....[ २८० अवि केवलमुप्पाडे...[ बृहत्कल्प ० ५०२४] ७७९ अवि नाम होज्ज.....[ निशीथभा० ४४२६] ३८७ | अवियारमत्थवंजणजोगंतरओ....[ ध्यानश ०८०] ३२२ ३७ अविवरियं सुत्तं पि....[ विशेषाव ० १३६९] ८५ अविसंवादनयोगः .[प्रशम० १७४ ]
५८५
1
पृष्ठाङ्कः
]
अभिसन्धयते यस्मादेतान् ......[ अभिहाणं दव्वत्तं ....[ विशेषाव ० ५२]
अभ्यर्थितः परेण तु ......[
]
]
८५३
१३३
अभ्युदये व्यसने वा...[ [ वाराही बृहत्संहिता ९७।४] अमणुन्नाणं सद्दाइविसयवत्थूण ....[ ध्यानश०६ ] ३१८ असढेण समाइन्नं जं ..... [ बृहत्कल्प ०४४९९] ५४७ अय एल गावि महिसी [ ३९७ | असणं ओदण सत्तुग...[ पञ्चाशक ०५ | २७] १८४ ५७९ असणाईया चउरो..... [ निशीथभा० २५००] ५३६ असणादिं वाssहारे उच्चारादि......
अयसी वंसीमाई.....[ बृहत्कल्प ० ३६६३ ] अरविवरसंठियाई चउरो .....
५११
१९२ अविसेसिया मइ च्चिय...[ विशेषाव० ११४] १५८ ६७५ | अविसेसिया मइ च्चिय...[विशेषाव ० ११४] २६० १७६ | अशुभ-शुभकर्म्मपाकानुचिन्त...[प्रशम ० २४९] ३२० ८५४ | अश्वियमदहनकमलज-....
१३९
[निशीथभा० २३४७]
५४१
१८६
१९७ असदारंभपवत्ता जं... [ पञ्चाशक ०४ । ४३] ५८० असियसयं किरियाणं ...[सूत्र० नि० ११९] ४५८ ६३४ | असिवादिकारणेहिं अहवा...[ बृहत्कल्प०४२८३] ५३३ ८३१ असिवे ओमोयरिए, [ निशीथभा० ३१२९, २५६ बृहत्कल्प ० २७४१] २६४ असुरा १ नाग २ सुवन्ना........
२६४
[ प्रज्ञापना० २।१७७ । १३७]
५३५
८३९
Page #529
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८८
स्थानाङ्गसूत्रटीकायाः ग्रन्थान्तरेभ्य: साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः
२१७
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाकः असुरा नाग सुवण्णा....[प्रज्ञा०२।१७७।१३७] ४६ अहिगरणम्मि कयम्मि उ...बृहत्कल्प०६२७९] ५६३ असुराणं नागाणं ......द्वीपसागर० २२०] ८३२ अहुणा य समोयारो.... [विशेषाव० ९५६] ८ अस्थिष्वर्थाः सुखं मांसे [ ] ७९५ अहो चौलुक्यपुत्रीणां .....[ ]
३५६ अस्थिष्वर्थाः सुखं मांसे......[ ] ७३३ | आ षोडशाद्भवेद् बालो.....[ ] अस्सिणि भरणी समणो.....[ ] ८०६ | आइन्नं दिणमुक्के सो चिय...... अह अन्नो तो....विशेषाव० १५६०] १८ [आव० नि० १३५७]
८२१ अह कुणसि थुल्लवत्थाइएसु......
| आइयणछड्डणाई.....व्यवहारभा० २५७६] ५६६ विशेषाव० २५६४]
८०५ | आउयमेत्तविसिट्ठो स....विशेषाव० २०३७] ३३९ अह खंतिमद्दवज्जवमुत्तीओ.....[ध्यानश०६९] ३२४ आउलमाउलाए ....[आव० सू०] ६४९ अह पट्ठवेइ सीसं.... [व्यव०भा० ४४४१] ५४७ आगंतु गारत्थजणो....बृहत्कल्प० ३४८६] २६६ अह साहीरमाणं तु,...[व्यव०९।३८२९] २५० | आगमउवएसेणं निसग्गओ..... [ध्यानश० ६७]३२० अह सुत्ताउ त्ति मई....(विशेषाव०२३९४] ७०७ | आगमओऽणुवउत्तो...[विशेषाव० २०९१] १९१ अहवण आहाराई दाही.....[ ] ५४८ आगमओऽणुवउत्तो...विशेषाव० २९] १७४ अहवा अहपरिणामो...[ ] २१५ आगमसुयववहारो सुणह...[व्यव०भा० ४०२९]५४६ अहवा एक्केक्कियं दत्तिं......[ ] ६६२ | आगारोऽभिप्पाओ बुद्धी...(विशेषाव० ५३] १७६ अहवा जमत्थओ.....विशेषाव० १३८७] ६ | आग्नेयं भस्मना ...... ] ५८३ अहवा भंतोऽपेओ.... [विशेषाव० ३४४८] २०९ | आग्नेयं वारुणं ब्राह्म.....[ ] ५८३ अहवा भज सेवाए... [विशेषाव० ३४४६] २०९ | आचेल १ क्कुद्देसिय....बृहत्कल्प० ६३६४] २८४ अहवा भवं समाए .....[विशेषाव० ३४७८] ५५३ | आचेल १ क्कुद्देसिय...बृहत्कल्प० ६३६२] २८३ अहवा भा भाजो.... [विशेषाव० ३४४७] २०९ | आचेल १ क्कुद्देसिय...[बृहत्कल्प० ६३६२] ६४० अहवा वि य विहिगहियं .....[ ]
५५१ आचेल१क्कद्देसिय.... बहत्कल्प०६३६४) अहवा वि वए.... [ ]
२८६ आणागेज्झो अत्थो....[आव० नि० १६६९] ३६ अहवा समस्स आओ गुणाण.....
| आदावभिलाषः...... [रुद्रटकाव्यालं०१४।४] ७६९ विशेषाव० ३४८०]
५५४|आप्तवचनं प्रवचनमाज्ञा.....प्रशम० २४८] ३२० अहवा समाई सम्मत्तनाण-.....
आप्तोपज्ञमनुल्लय-.....न्याया० ९] ४४८ [विशेषाव० ३४७९]
५५३ | आबाहे दुभिक्खे भए...[बृहत्कल्प० २७३९] ५३४ अहवा सम्मइंसण-...विशेषाव० १०३७] ५३ | आभिग्गहियस्स असई... व्यवहारभा०२५२६] ५६५ अहवा सामं मेत्ती.....[विशेषाव० ३४८१] ५५४ आभिनिबोहियनाणे ....[आव० नि० १६] ३८ अहसदो जाहत्थो आङोऽभिविहीए..... | आभोगमणाभोगे ..... उत्तरा०भा० ६] ५७७ [विशेषाव० १२७९]
५५६ | आभोगे जाणतो..... [उत्तरा०भा० ७] ५७७ अहिंसा संजमो तवो [दशवै० ११] ८५१ | आय-परमोहुदीरणं .....(निशीथभा० १२१] ३५७
Page #530
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
१८९
६०८
४१०
उद्धृतः पाठः पृष्ठाकः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः आयंको जरमाई राया....[पिण्डनि० ६६७] ६१६ आसायण पडिसेवी....बृहत्कल्प० ४९७२] २७६ आयंसग मेंढमुहा अओमुहा.....
| आसी दाढा .....[विशेषाव० ७९१] ४५२ [बृहत्क्षेत्र०२।६०]
३८५ आसीदिदं तमोभूत-.......मनुस्मृ० ११५] ७३० आयपइट्ठिय १ खेत्तं पडुच्च २.
आस्तिकमतमात्माद्या ९ .....[ ] ४६० [प्रज्ञापना० ४१८]
३२९ | आह पहाणं नाणं.... विशेषाव० ११३३] ७३ आयरवमायारं पंचविह......[ ] ७२६ आहच्च सवणं ल« .....[उत्तरा०३।९] आयरिए सुत्तम्मि य....[विशेषाव० १४५७] १२ | आहरणं तद्देसे .....[दशवै० नि० ७३] ४४० आयरिय उवज्झाए ....[ ] ६२४ | आहाकम्मामंतण पडिसुणमाणे... आयरिय-उवज्झाए थेर-.....[ ]
व्यवहारपीठिका ४३]
२७१ आयरियगिलाणाणं मइला....[ओघनि०३५१] ६९३ आहाकम्मु १ देसिय... [पिण्डनि०९२] २६९ आयरियाईण भया.....(निशीथ० ५४५५] ६५३ आहार १ सरीरिंदिय-... [जीवसमास० २५] ८९ आयावणा य तिविहा.....
आहारउवहिसयणाइएहिं..... [बृहत्कल्प० ५९४५]
५१४ व्यवहारभा० ४५७०] आरंभो उद्दवओ ......[ ]
६९४ | आहारपज्जत्तीए.... [प्रज्ञापना० १९०५] ८९ आरुहणे ओरुहणे...निशीथभा० ३४३५] ९० | आहारमंतरेण वि .....निशीथभा० १२४] ३५७ आरे मारे नारे तत्थे ....[विमान ० १०] ६२८ | आहारे उवही सेज्जा,..[व्यव०१०।४५९९] २२० आरोगसारियं माणुसत्तणं.......[ ] ८४० | आहारोवहिदेहेसु इच्छालोभो .....[ ] ६३९ आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे.
| इंगालए १ वियालए २,....[सूर्यप्र० २०] १३४ तत्त्वार्थ० ९।३१]
३१७ | इंगियदेसम्मि सयं...... [ ] १६३ आर्यक्षेत्रोत्पत्तौ सत्यामपि .....[ ] ६०७ | इंतस्सऽणुगच्छणया ८......[ ] ७०० आलंबणहीणो पुण..... [आव०नि० ११८७] ५३३ | इंद १ ग्गेयी २...[आचाराङ्गनि० ४३] २२५ आलयमेत्तं व मई....(विशेषाव० १८७१] ४७ | इंदिय ५ कसाय ४.....[ ] आलोइयम्मि सोहिं जो......[ ] ७२७ | इंदो जीवो सव्वोवलद्धि-..... आलोयंतो वच्चइ...[बृहत्कल्प० ६३३०] ६३८| विशेषाव० २९९३]
५७२ आलोयण १ पडिकमणे....
इअ सत्तरी जहन्ना असिई.. _[व्यवहारनि०१६ भा०५३] ३३८ बृहत्कल्प० ४२८५]
५३४ आवलियासु विमाणा...[विमान० २५१] २४६ इच्छालोभो उ .....[बृहत्कल्प० ६३३२] ६३९ आसय-पोसयसेवी के..बृहत्कल्प० ५०२६] २७७ | इच्छियठाणेण गुणं... [ ] १४९ आसवदारावाए तह...[सम्बोधप्र० १४०५] ३२४ | इट्ठाणं विसयाईण..... [ध्यानश० ८] ३१८ आसाढबहुलपक्खे भद्दवए..... [ ] ६३२ इति एस असम्माणा खित्तो..... आसाढी इंदमहो.....[आव० नि० १३५२] ३६२/ बृहत्कल्प० ६२४२]
५६३
२९
ک
Page #531
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९०
स्थानाङ्गसूत्रटीकाया: ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः
१०
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः इत्थीओ सयणाणि य [दशवै० २।२] ८५१ उत्तर तिन्नि विसाहा ..... [ ] ६२९ इमउ त्ति सुत्तउत्ता १ उद्दिट्ठ.....
उत्ताणग पासल्ली.... [पञ्चाशक० १८।१५] २५३ [बृहत्कल्प० ५६१९]
५३२ | उदयक्खयखओवसमोवसमा...[विशेषाव० ५७५] ८२ इय संदसणसंभासणेहिं....[बृहत्कल्प० ३७१३] ५४२ | उदयक्खयखओवसमोवसमा...(विशेषाव०५७५] ९०३ इरियं न य सोहेई ....[पिण्डनि० २६४] ६१६ |
| उदयखयखओवसमोवसम-..... [ ] ५६९ इरियावहिया किरिया.....[आव० हारि० ] ६६ | | उदयस्सेव निरोहो उदयप्पत्ताण.....[ ] ३४९ इह चोत्पत्तिमङ्गीकृत्योत्तरं.....
उद्दड्ढे चेव निद्दड्ढे (विमान० २७] ६२७ [आचाराङ्गटी० ]
४६० | उद्दिसिय साहुमाई ओमच्चय...... इहं बोंदी चइत्ताणं....[आव० नि० ९५८] ३९ [पञ्चा० १३।८]
८०३ इहपरलोगनिमित्तं .....[बृहत्कल्प० ६३३४] ६३९ | उद्देसे निडेसे... [आव०नि० १४०, इहरह वि ताव... बृहत्कल्प० ५२०१] २८० विशेषाव० १४८४] इहरा उ मुसावाओ.... [पञ्चव० ९३३] २३६ | उद्धट्ठाणं ठाणाइयं.....[बृहत्कल्प० ५९५३] ५१४ ईयालीस सहस्सा... [बृहत्क्षेत्र० ५।१७] १४२ | | उद्धरियसव्वसल्लो भत्तपरिन्नाए.... ईरेइ विसेसेण व....विशेषाव० १०६०] ५८ [ओघनि० ८०७]
७१९ ईर्यासमिति म रथ-.....[आव० हारि० ] ५८६ | उद्धारसागराणं अड्ढाइज्जाण.. ईसाणस्सुत्तरिमा पासाया....बृहत्क्षेत्र० ३२४] ७५३ बृहत्क्षेत्र० १।३] उउवासा समतीता... [बृहत्कल्प० ५९५] ५५० | उन्मादस्तदनु ७ ततो व्याधि.. उक्कोस लोगमित्तो पडिवाइ.....
[रुद्रटकाव्यालं० १४/५] [आव०नि० ५३, विशेषाव० ७०३] ६३४ | उपपातो देव-....[तत्त्वार्थ० २।३५] २२३ उक्कोसं बहुसो वा....[ ]
२७८| उप्पन्ननाणा जह.....व्यवहारभा० २५७१] ५६६ उक्खित्तमाइचरगा .....[पञ्चव० ३०३] ५१२ | उप्पन्ने इ वा विगए इ....[ ] ३७८ उक्तक्रमेण नक्षत्रैर्युज्यमानस्तु .... [ ] ६२९ | उप्पाय १ अग्गेणीय २ वीरियं .....[ ] ३३६ उग्गा भोगा रायन्न... [आव० नि० २०२] १९२| उप्पायठितिभंगाइं पज्जयाणं ..... उचिए काले विहिणा......[ ] ६६३ __ [ध्यानश० ७७]
३२१ उच्चारं पासवणं ..... 1
६४९ | उप्पायण संपायण....पञ्चाशक० १३।१७, उज्जु रिउं सुयं...... [विशेषाव० २२२२] ६६९ | पञ्चव० ७५३]
२७० उट्ठाणं वंदणं चेव....[व्यव० १०।४६०१] २२० | उप्पाये पयकोडी १ अग्गेणीयम्मि.....[ ] ३३७ उट्ठाणासणदाणाई...[व्यव० १०।४६००] २२० | उब्भामिया य महिला.....[दशवै०नि० ८८] ४४५ उड्ढे उवरिं जं ठिय....[ ]
२१५ | उम्मग्गदेसओ मग्गनासओ... उत्तमं प्रणिपातेन, ......[ ]
[बृहत्कल्प० १३२१]
बकल्प०१३२१ उत्तमकुलसंभूओ ..... [ ] २६३ | उम्माओ खलु .....[बृहत्कल्प० ६२६३] ५६३
१५५
७६९
२५७
४७२
Page #532
--------------------------------------------------------------------------
________________
उद्धृतः पाठः
उरगेसु य गब्भजाईसु [बृहत्सं० ३०७ ] उरलं थेवपदेसोवचियं पि .....[] उवओगदिट्ठसारा [ आव० नि० ९४६ ] ४८५ उवघाय २३ कुविहयगई .....[
]
उवरिं उदगं भणियं ...... बृहत्क्षेत्र० २ । १५] ३८७ एक्कस्सालोएत्ता जो ......[ उवलंभव्ववहाराभावाओ
[विशेषाव ० २२१४] उववायाभावाओ न...[विशेषणवती २६] उवसंपन्नो जं कारणं....[ आव०नि० ७२०] उवसंपया य तिविहा.....[ पञ्चा० १२।४२ ] उवसंपया य तिविहा...[ आव० नि०६९७,
पञ्चा० १२।४२ ] उवसज्जणमुवसग्गो तेण....[ विशेषाव० उवसमसेढी एक्को .....[ 1 उवसमिए २ खइए वि य ..... [ ] उवसामगसेढिगयस्स ....[विशेषाव० ५२९] उव्वट्टण-ओवट्टण-.....[कर्मप्र० ५।६७ ] उसुयार जमग....[बृहत्क्षेत्र० ५ । ३९ ] उस्सेहचउब्भागो.....[
उस्सेहपमाणउ मिणे... [ बृहत्सं ० ३४९ ] उहावणा-पहावण-... [ व्यव० १।९६२] ऋजु सामन्नं तम्मत्तगाहिणी...
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
पृष्ठाङ्कः | उद्धृतः पाठः
८३३ एकोऽहं न च मे [] ५०८ एक्कं चिय एत्थ वयं .....[
] एक्कं निच्चं निरवयव....[विशेषाव ० ३२] २८ एक्स कओ धम्मो [उप०माला० १५६]
1
[विशेषाव ० ७८४]
ऋतुस्तु द्वादश निशा:, [ ] एए चेव उ भावे उवइ...[ उत्तरा०२८ । १९] एएसिं दीवाणं परओ .....[ बृहत्क्षेत्र ०२ ।५७] एएसि मूला वि ..... [ प्रज्ञापना० १४० ] एएस सुरवहूओ....[बृहत्क्षेत्र० १७० ] एक एव हि भूतात्मा [ एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं ......[ एका लिङ्गे गुदे...... [
]
]
७७६
२५२
२३७ | एगं पायं जिणकप्पियाणं [ओघनि० ६७९] ३००५]४८१ एगं व दो व तिन्नि...[ निशीथभा० २०७५] २३६ ६४७ | एगनयम णमिदं सुत्तं ....[ ]
७०७
२६३
] ३३७
६४८ एगपएऽगाई पयाई....... [उत्तरा०२८।२२] ७९ एगसमओ जहन्नं .. [ बृहत्सं ० ३४५] ३७५ एगस्स कए नियजीवियस्स..... [ 1 १४३ |एगा पउणा कोडी णाणपवायम्मि ११८ गाई पंचंते ठविउं मज्झं [ 1 ८३३ | एगाई सत्तंते ठविडं मज्झं .....[ ] २४३ एगादओ एसा न ...... ...[ विशेषाव ० २३३६] ७०६ एगिंदिय देवाणं.....[ बृहत्सं० १९८-१९९]
५०३
५०३
१५९
८३ | एगिंदिय-नेरइया... [ जीवस० ४५, बृहत्सं० ३५८ ]
५३९
२०६
८६६ | एगिंदियादिभेदा पडुच्च....[ विशेषाव ०२९९९] ५७३ ३८५ एगूणवन्ननिरया सेढी......[विमान० १४] २०७ एगूणवीसगस्स उ दिट्ठीवाओ...
६२७
१९१
]
२९१
एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु ....[ बृहत्सं ० ११९] ६६९ एक्केक्को य दिसासुं मज्झे.... [ विमान० १६] ६२७ २९९ एक्केक्को य... [आव० नि० ५४२, २३८ विशेषाव ० २२६४] ८६० एक्केण चेव तवओ पूरिज्जइ ...... [पञ्चवस्तु० ३७७]
पृष्ठाङ्कः
३२१
३०५
६१
[
1
५८०
८३६
६६७
५१९
१२३ [पञ्चव०५८८] ७२८ एगे भंते ! जीवप्पएसे ......[ ६७१ एगे भवं दुवे भवं [ पुफिया ]
७०५
८८०
५८२ | एगेण चैव तवओ पूरिज्जति....[ पञ्चव० ३७७] ३४७
८६६
६४३
Page #533
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९२
स्थानाङ्गसूत्रटीकाया: ग्रन्थान्तरेभ्य: साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः
५८
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः एगो असंखभागो...बृहत्सं० ३३५ प्रक्षेप०] १७८ | एवं च कओ कम्माण......[ ] ७०७ एगो इत्थीगम्मो .....निशीथ० ५४५६] ६५३ एवं जहसहत्थो संतो....विशेषाव० २२५१] ६७० एगो एगित्थिए सद्धिं .....[उत्तरा० १।२६] ३६८ | एवं पि एगे आसासे [ ]
८५१ एगो भगवं वीरो पासो...[आव०नि०२२४, | एवमेक्केक्कियं भिक्खं......[ ]
६६२ विशेषाव० १६४२]
३०१ | एवोग्गहप्पवेसे निसीहिया....[पञ्चा०१२।२२] ८५९ एगो भगवं वीरो... [आव० नि० ३०८] ५९ | एषणासमिति म गोचरगतेन.....[ ] ५८७ एगो व दो व....(बृहत्सं० १५६] १७८ | एस अणाई जीवो संसारो .....[ ] ३२४ एतच्छौचं गृहस्थानां ....[ ] ५८२ | एसणगवेसणन्नेसणा य.... [पञ्चा०१३।२५, एतदिह भावयज्ञः....[षोडशक० ६।१४] १८६ | पञ्चव० ७६१]
२७० एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि...[लोकश्रीटीका ] ७६२ | एसा य असइदोसा.....[उप० पद० १८] एतासु भृगुर्विचरति......[ ] ८०८ | ऐन्द्रो निर्ऋतिस्तोयं.... वाराही एतेषामुत्तरगा ग्रहाः सुभिक्षाय.....[ ] ७६२ बृहत्संहिता ९७१५]
१३३ एतेसामन्नयरं रन्नो अंतेउरं.....
| ऐश्वर्यस्य समग्रस्य,..... [ ] [निशीथभा० २५१४]
५३७ | ओगाहिऊण लवणं ..... बृहत्क्षेत्र० २५९] ३८५ एत्तो च्चिय पडिवक्खं... [विशेषाव० ३१०] ६२२ | ओदइय उवसमिए...[आव०भा० २००] २१४ एत्थ कुलं विनेयं.... [ ] २८७ | ओदइय खओवसमिए ...[ ] एत्थ णं बादरपुढविकाइयाणं .....[ ] ४३१ ओमो चोइज्जंतो दुपहियाईसु..... एत्थ पसिद्धी मोहणीय-.....[ ] ५५२ [बृहत्कल्प० ६१३५]
६३५ एत्थ य अणभिग्गहियं..[बृहत्कल्प० ४२८२] ५३३ | ओयण वंजण पाणग.....[ओघनि० ३५९] ५८० एत्थं वेयावडियं....[पञ्चव० १५९९] १६२ ओयाहारा जीवा ...बृहत्सं० १९८-१९९] १५९ एमेव अहोराई ....पञ्चाशक० १८।१८] २५३ ओराल १ विउवा २..[ ] २६८ एमेव एगराई....[पञ्चाशक० १८।१९] २५४ ओरालियपोग्गलपरियट्टे णं भंते !... एमेव कसायम्मी ..... उत्तरा०भा० ११] ५७८ [भगवती० १२।४।५०]
२६८ एमेव चउविगप्पो .....[दशवै० नि० ६१] ४३८ ओसन्नो वि विहारे ....(निशीथ० ५४३६] ४५७ एमेव दंसणतवे ..... उत्तरा०भा० २-१२] ५७८ ओहार-मगराईया घोरा..... एमेव य मज्झिमगा...[व्यव० १०।४६०६] २१९/ [बृहत्कल्प० ५६३३]
५३२ एयं पच्चक्खाणं नियंटियं...
ओही खओवसमिए.... [विशेषाव० ५७३] [आव०नि० १५८६]
८५७ | ओहो १, भव्बाईहिं..... [ ] ५२ एयं पुण एवं खलु .....[उप० पद० १६] ६०८ | ओहो जं सामन्नं..... [विशेषाव० ९५८] ९ एयम्मि पूइयम्मी नत्थि ....[ ]
५५२ औदारिकप्रयोक्ता......प्रशम० २७६] एयस्स पभावेणं....पञ्चव० १५९७] १६२ | कंचणगजमगसुरकुरुनगा... बृहत्क्षेत्र ०३।४१] १३९
६४७
७६०
Page #534
--------------------------------------------------------------------------
________________
उद्धृतः पाठः
कतारे दुब्भिक्खे आयंके...
पृष्ठाङ्कः | उद्धृतः पाठः कम्मं जोगनिमित्तं....[ उपदेशपद ०४७१] ५९८ कम्मकओ संसारो....[विशेषाव० १९८०]
[आव० भा० २५०]
]
1
८४९
कंदप्प २ देवकिब्बिस . [ बृहत्कल्प ० १२९३] ४७१ कम्मप्पगरिसजणियं....[विशेषाव० १९३१] कंदप्पाइ माओ [ 1 ८३४ कम्मविगारो कम्मणमट्ठ .....[ ] कंदप्पे कुक्कुइए दवसीले... [ बृहत्कल्प ०१२९५] ४७२ कम्माई नूण घणचिक्कणाई.....[ कक्कोडय कद्दमए ..[बृहत्क्षेत्र ० २।२३] ३८८ | कम्मावयवसमेयं संभाविज्जइ...... कच्छुल्लयाए घोडीए [ पञ्चा० १३ ।९] ६७५ कम्मोवक्कामिज्जइ अपत्तकालं. [विशेषाव ० २०४७] ८५९ | कउवयारो जो होइ.... [ ४८३ | करगोफणधणु......[ बृहत्कल्प ० २६७ करुणः शोकप्रकृतिः [काव्यालं० १५ । ३] १८२ कर्णाटी सुरतोपचारकुशला......[
कज्जं करणायत्तं जीहा य.....[
५०८
[ पञ्चा० १२।१८]
1
६३२३]
कज्जम्मि समुप्पन्ने .....[] कज्जे गच्छंतस्स उ कणुग १ कुडणा २ [ 1 कतिविहे णं भंते !.. [ भगवती ०१२ ।४ । १५] कतिविहे णं भंते ! [ प्रज्ञापना०१५ | १०६८ ] कत्थइ देसग्गहणं......[विशेषाव० ३८८ ] कत्थइ पंचावयणं दसहा... ...[ दशवे० नि० ५०] ८५०
1
१२१
कर्म्मनिस्यन्दो लेश्या [ 1 कलमोयणो उ पयसा .......
कत्थइ पुच्छइ सीसो...[ दशवे ०नि० ३८]
२२८
1
कद्रुः सरीसृपाणां सुलसा. [ कन्थाऽऽचार्याऽघना ते .....[
[ओघनि० भा० ३०७] ७३० कवलाण य परिमाणं...... [ ४४२ कसिणं केवलकप्पं... ..[आव०नि०
कपिलं सस्यघाताय [ कप्पट्ठिया वि पइदिण... [ कप्परस य निज्जुत्तिं ववहारस्सेव......
७३२ | कह वा सव्वं .....विशेषाव ० २४०१] २८४ | कह सो जयउ अगीओ.....[
1
]
[बृहत्कल्प० ४२८६]
| कहकहवि माणुसत्ताइ ....[ [ व्यव० भा० ४४३५ ] ५४६ | काऊ नीला किण्हा... [बृहत्सं० २८८ ] कप्पाकप्पे परिनिट्ठियस्स....[ पञ्चा०१२ । १४] ८५९ काऊण मासकप्पं तत्थेव ....... कप्पासियस्स असई..... [ बृहत्कल्प ० ३६६८] ५७९ कप्पासिया उ दोन्नी..... [ बृहत्कल्प ० ३६६४ ] ५७९ काक्वा वर्णनमुल्लापः [ अमरको० ? ] कप्पे सणकुमारे.....[बृहत्सं० १९४ ] ५२ कामं सयं न कुव्वइ कफो गुरु १ हिमः २.....[ ] ४५३ कामोपादानगर्भा च.....[ कब्बाल ओड्डमाई हत्थमियं
[पिण्डनि० १११]
]
काय: सन्निहितापायः ..
[निशीथभा० ३७२०]
कम्मं कसं भवो वा कसमाओ
]
1
[विशेषाव ० १२२८, २९७८]
1
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
1
३४३ काव्वा ण भत्ती
[
काया वया य ते... [बृहत्कल्प ०
]
३२६ | कारणमेव तदन्त्यं...... [
]
1
१०९२]
]
१३०३]
१९३
पृष्ठाङ्कः
१८१
२६
२९
५०८
५६८
८०४
६८६
२०१
६३८
४७६
७६६
५१
६९३
२५१
२९४
२०
६०३
२६३
५२
५३४
६९९
७७९
२६४
३२१
७००
२८७
३९
Page #535
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९४
स्थानाङ्गसूत्रटीकायाः ग्रन्थान्तरेभ्य: साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः
५०
१६५
उद्धृतः पाठः पृष्ठाकः | उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके.....[प्रशम० २७७] ७६१ कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्.... [ ] काल-विवज्जय-सामित्त...विशेषाव० ८७] ५९६ | केइ सुरूव विरूवा खुज्जा ..... कालक्कमेण पत्तं .....[पञ्चव० ५८१] ५१८ बृहत्कल्प० ६१५९] कालयदृच्छानियतीश्वर-.....[ ] ४६० | केलासभवणा एए....(निशीथभा० ४४२७] ५८५ काले विणए.... [दशवै०नि० १८४,
केवइकालेणं भंते ! चमरचंचा ...[ ] ६४२ निशीथभा० ८]
१०८ | केवलं गह्वरीभूते ......[ ] ७३० कालो त्ति मयं मरणं....विशेषाव० २०६६] ३३९ | केवलणाणावरणं १...[बन्धश० ७९] कालो वि नालियाईहिं.....[दशवै०नि० ६२] ४३८ | केवलमेगं सुद्धं ....(विशेषाव० ८४] ५९५ किं एत्तो पावयरं ?.....[ ]
१२| केवलियनाणलंभो ... [आव०नि० १०४] ३२७ किं एस उग्गदंडो ......[ ] ८३५ को जाणइ किं साहू.....विशेषाव० २३५९] ७०६ किं कय किं वा .....[ओघनि० २६२] ६१८ को जाणइ व... विशेषाव० १८७२] ४७ किं कय किं वा....[ओघनि० २६२] ३६१ को दुक्खं पावेज्जा...उपदेशमाला०१२९] १५२ किं थ तयं पम्हुठं......[ज्ञाताधर्म० ११८] ६९० को मम कालो ? किमेयस्स .....[ ] ३६१ किंचिदकाले वि फलं.....[विशेषाव० २०५८] ६८६ | कोउय भूईकम्मे पसिणा..... किंपत्तियण्णं भंते !..[भगवती०३।२।१३] २७४/ बृहत्कल्प० १३०८]
४७१ किइकम्मस्स विसोहिं..... [आव० भा० २४८]५९७ कोच्छं सिवभूई......[कल्पसू०]
६६७ किण्हा नीला काऊ....बृहत्सं० १९३] ५२ | कोधाइ संपराओ......[विशेषाव० १२७७] ५५५ किण्हा नीला काऊ...(बृहत्सं० १९३] १७० | कोसपमाणा भवणा ...... बृहत्क्षेत्र० २९४] ७४८ किरियावाई भब्वे.... [ ] १०१ | कोहग्गिदाहसमणादओ...(विशेषाव० १०३६] ५३ किविणेसु दुम्मणेसु..... (निशीथभा० ४४२४] ५८५ कोहाइ संपराओ तेण.... [विशेषाव० १२७७] ८७ किह पडिकुक्कुडहीणो....(विशेषाव० ३०४] ८४ कोहाईओ पओसो [ ]
.८३५ कुंडलवरस्स मझे... [द्वीपसागर० ७२] २८२ कोहाईणमणुदिणं चाओ.....[ ] २५१ कुंभो भावाणन्नो जइ....विशेषाव० २२०८] ६६९ कोहो य माणो य अणिग्गहीया,..... कुच अवस्यन्दन [ ]
६३७ दशवै०८।४०] कुट कौटिल्ये..[पा० धा० १३६७] ६७० | क्रियैव फलदा......[ ] कुड्यादिनिःसृतानां....तत्त्वसं० ३२४३] १४|क्षायोपशमिकात्.....[ ]
५९८ कुतस्तस्यास्तु राज्यश्रीः.....[ ] ५८१ | क्षिति-जल-पवन-......[ ]
८३८ कृतमुष्टिकस्तु रत्निः स एव.....[ ] ४९२ क्षुद्रलोकाकुले लोके.....[ ]
५८० कृत्यल्युटो बहुलम् [पा० ३।३।११३] ७३४ | खंती य मद्दवऽज्जव मुत्ती...... कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षः [तत्त्वार्थ० १०।३] २५ (पञ्चाशक० ११।१९ आव० सं०] ५१२ कृपणेऽनाथ-दरिद्रे ......[ ]
८५३ | खंतो आयरिएहिं फरुसं......[ ] ७२८
३२४
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
m
उद्धृतः पाठः पृष्ठाकः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाकः खरउ त्ति कहं जाणसि ?.....
गीयावासो रती....विशेषाव० ३४६०] १४ बृहत्कल्प० ६१५७]
| गुणपच्चक्खत्तणओ....[विशेषाव० १५५८] १८ खामिय वोसमियाइं ....बृहत्कल्प० ६११८, | गुणवंत जतो वणिया पूइंतऽन्ने..... निशीथभा० १८१८]
६३४ व्यवहारभा० २५४४] खिप्पमचिरेण ३ तं..... (विशेषाव० ३०९] ६२२ | गुरुउग्गहादठाणं .....पञ्चव० २४७] खीणम्मि उदिन्नम्मी.... [विशेषाव० ५३०] ७९ गुरुणाऽभिहिओ जइ......[विशेषाव० २३३७] ७०६ खीणे दंसणमोहे तिविहम्मि..... [ ] ८० | गुरुदाणसेसभोयणसेवणयाए......[ ] ६६३ खीरं ५ दहि ४ णवणीयं ४.....
| गुरुपरिवारो गच्छो .....[पञ्चवस्तु० ६९६] ५८० __ [पञ्चव० ३७१]
३४६ | गुरुयं लहुयं उभयं ......[विशेषाव० ६५९] ८१९ खुड्डियं णं..... [व्यवहार. ९२४२]
| गुब्विणी बालवच्छा...(निशीथ० ३५०८] २७९ खेत्तम्मि अवक्कमणं .....दशवै० नि० ५६] ४३६ | गेविज्जेसुं दोन्नी एक्का .....(बृहत्सं० १४४] ४९२ खेत्ते जाई कुल कम्म .....[ ] ३५१ गोजूहस्स पडागा.... [बृहत्कल्प० ५२०२] २८० खेलं सिंघाणं वा .....[ ]
६४९ गोदुह उक्कुड पलियंकमेस .....[ ] ५१५ गंगा सिंधू १.... बृहक्षेत्र० १७१] १२८ | गोमहिसुट्टिपसूणं एलगखीराणि...... गंडी कच्छवि मुट्ठी ...... ] ३९६] [पञ्चव० ३७२]
३४७ गच्छम्मि उ निम्माया...बृहत्कल्प० ६४८३] ६४० | गोयम १ समुद्द २ सागर...[अन्तकृद्दशा० ] ८७६ गच्छम्मि य निम्माया...[बृहत्कल्प० ६४८३] २८५ गोलियसोडियभंडिय-.....[ ]
७१९ गच्छा विणिक्खमित्ता...[पञ्चाशक० १८१७] २५३ घट्टग-डगलग-लेवो....[ओघनि० ३४२, गच्छे च्चिय.... [पञ्चाशक० १८।५] २५३ पिण्डनि० १५] गच्छो वाञ्छाभ्यस्तो ......[ ] ८५५ घणउदहिपइट्ठाणा...[बृहत्सं० १२६] गणहर १ थेराइकयं ...[विशेषाव० ५५०] ८४ घणदंत लट्ठदंता निगूढदंता ..... गणिया १ सोमिल २ .....[ ] ४८३ बृहत्क्षेत्र० २।६२]
३८५ गद्धादिभक्खणं.... उत्तरा० नि० २२३] | चंदिमसूरुवरागे निग्घाए....... गन्धर्वनगरं स्निग्धं ......[ ] .७३२ [आव० नि० १३५१]
८२० गमणागमण विहारे सुत्ते .....
चंपा महुरा वाणारसी य...... _ [आव० नि० १५४७] |
| निशीथभा० २५९०]
८२६ गरहा वि तहाजाती-...[आव०नि० १०६३] ९४ | चउगइ ४ चउक्कसाया ४ .....[ ] ६४८ गर्भ जडा भूतहृतं वदन्ती [ ] ४९४ चउगुणिय भरहवासो,...बृहत्क्षेत्र०३।३०] १३९ गां दृष्ट्वाऽयमरण्येऽन्यं .....[ ] ४४७ | चउगुणिय भरहवासो.... [बृहत्क्षेत्र० ३।३०] १४२ गाउयमुच्चा पलिओवमाउणो...
चउजोयणवित्थिन्ना अट्ठेव य...... [बृहत्क्षेत्र० २५३) १३० बृहत्क्षेत्र० १७]
३८३
२४७
१६१
Page #537
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९६
स्थानाङ्गसूत्रटीकाया: ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः
३८५ चाला
३३७
उद्धृतः पाठ पृष्ठाङ्कः। उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः चउत्थी य बला नाम....[तन्दुल०प्रकी० ४८] ८९३ | चारिय चोरा १ ...(निशीथभा० १३०] ३५८ चउनाण ४ ऽन्नाणतियं ३.....[ ] ६४८ | चालिज्जइ बीहेइ व धीरो ..... चउरंगुलदीहो वा वट्टागिति .....[ ] ३९७ ध्यानश० ९१]
३२३ चउरंगुलप्पमाणा ...... बृहत्सं० ३०२] ७४६ | चिंतामणी अउव्वो.... [पञ्चव० १५९८] १६२ चउरंगुलो मणी पुण ......[बृहत्सं० ३०२] ६८४ | चिंधाई कलंबझए सुलस......[बृहत्सं० ६१] ७६२ चउरो ४ तिन्नि य ३...[ ] ५९ चित्तभ्रान्तिर्जायते .....[ ]
६१७ चउवीस सहस्साई.... बृहत्क्षेत्र० ५२] ११७ चित्तरत्नमसङ्क्लिष्टमान्तरं ..... चउवीसई मुहुत्ता १....बृहत्सं० २८१] ६४३] [हारि० अष्टक० २४/७]
६१७ चउसटिं पिट्ठिकरंडयाण.....
चिय च्चेय एवार्थ [ ] [बृहत्क्षेत्र० २१७४]
३८५ | चिविचिविसद्दो पुन्नो......[ ] ७३३ चउसट्ठी पिट्ठिकरंडयाण...[बृहत्क्षेत्र० २५४]१३० | चुलसीइ सयसहस्सा .....[ ] चक्कं छत्तं दंडो तिन्नि......[बृहत्सं० ३०१] ६८४ | चुलसीति सहस्साइं .....द्वीपसागर० २७] ३९३ चत्तारंतरदीवा हय-गय-....[बृहत्क्षेत्र०२।५८] ३८५ | चुल्लहिमवंत पुबावरेण....बृहत्क्षेत्र०२५५] ३८५ चत्तारि जोयणसए ......[द्वीपसागर० १६७] ८३१ | चोइस तस सेसया मिच्छा [जीवसमा०२६] ५० चत्तारि जोयणसए ....[बृहत्क्षेत्र०२।२४] ३८८ | चोद्दस य सहस्साई.... [बृहत्क्षेत्र० ४९] ११४ चत्तारि जोयणसए... [द्वीपसागर० ७५] २८२ चोद्दस य सहस्साई....[बृहत्क्षेत्र० ५०] ११४ चत्तारि जोयणसए....(बृहत्क्षेत्र० १३१] ११८| चोद्दसपुब्बी जिणकप्पिएसु...... चत्तारि जोयणसया चउणउया.....
[आव० नि० १५८७]
८५७ [बृहत्क्षेत्र० ३४७]
३८२ | चोइसवासस्स तहा .....[पञ्चव० ५८६] चत्तारि य चउवीसे...द्वीपसागर० ४] २८१ | चोल्लगदिळंतेणं दुलहं.... [ ] २६३ चत्तारि लक्ख छत्तीस...[बृहत्क्षेत्र० ५।४७] १४३ | छ ६ पंच ५.... ...[ ] ___५९ चत्तारि विचित्ताई....[आचा० नि० २७१] १६१ | छक्कायविराहणया आवडणं..... चत्तारि होति तेल्ला.....पञ्चव० ३७३] ३४७] [बृहत्कल्प० २७३६]
५३३ चन्द्रवक्त्रा सरोजाक्षी .....[ ]
३५६ | छक्कायाण विराहण.... बृहत्कल्प० ६३३१] ६३८ चमर १ बलि २... [बृहत्सं० ५] १७० छच्चेव १ अद्धपंचम... [बृहत्सं० २४४] २९८ चमरे णं भंते !.. [भगवती०३।१।३,१५] २९१ | छट्ठस्स य आहारो...[बृहत्क्षेत्र० २५६] १३० चम्मट्ठि-दंत-नह......[ओघनि० ३६८] ५८० | छट्ठी उ हायणी......[तन्दुल० प्रकी० ५०] ८९३ चरमे नाणावरणं पंचविहं.....[ ] ३०० | छण्णं तह आलोए जह......[ ] ८३६ चरितट्ठ देसि दुविहा...[बृहत्कल्प० ५४४०] ६५२ | छत्तीसुच्चा पणुवीसवित्थडा...... चरियं च कप्पियं .....[दशवै० नि० ५३] ४३५] [बृहत्क्षेत्र० ३२२]
७५३ चवला मइलणशीला.....[ ]
३६७| छप्पुरिमा तिरियकए..... पञ्चव० २४२] ६२०
Page #538
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
१९७
mr
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः छविहनामे भावे..... [विशेषाव० ९४५] ७| जंबूओ पन्नासं दिसि......[बृहत्क्षेत्र० २९३] ७४८ छब्बीसं कोडीओ आयपवायम्मि.....[ ] ३३७ जंबूदीवो १ धायइ..... बृहत्सं० ८२] २८१ छब्बीसं कोडीओ पयाण ..... [ ] ३३७ | जइ अब्भत्थेज्ज परं......[आव० नि० ६६८] ८५८ छिक्कप्परोइया ....[विशेषाव० १७५४] ४८ | जइ तवसा वोदाणं .....[ ] छेलिअ मुहवाइत्ते.... बृहत्कल्प० ६३२४] ६३८ | जइ वि य निग्गयभावो..... जं करणेणोकड्ढिय उदए.....[कर्मप्र०४।१] ३७५] [व्यवहारभा० २६९५] जं किर बउलाईणं दीसइ.......
जइ वि य पिवीलिगाइ..... विशेषाव० ३०००]
५७३ | बृहत्कल्प० २८६४] जं कुणइ भावसल्लं ......[ओघनि० ८०४] ७१८ जइ वि हु फासुगदव्वं ..... जं च मणोचिंतिय-....[विशेषाव० ११३५] ७३ | बृहत्कल्प० २८६३] जं जं सन्नं भासइ...... [विशेषाव० २२३६] ६७० | जइधम्मम्मऽसमत्थे जुज्जइ .....[ ] ५०१ जं जत्थ नभोदेसे अत्थुव्वइ......
जग्गण अप्पडिबज्झण जइ.....[ ] ५५० विशेषाव० २३२१]
७०५ | जच्चाईहि अवन्नं... [बृहत्कल्प० १३०५] २८६ जं जस्स उ पच्छित्तं .....व्यव० भा० १२] ५४७ | जत्तो पुण सलिलाओ.....[बृहत्क्षेत्र० ३७२] ३८१ जं जहमोल्लं रयणं तं जाणइ.....
| जत्तो वट्टविमाणं...[विमान० २५०] २४६ व्यव० भा० ४०४३]
५४६ जत्तो वासहरगिरी तत्तो...[बृहत्क्षेत्र० ३७१] ३८१ जं णाण-दसण-...[विशेषाव० १०३३] ५३ | जत्थ उ जं....आचा०नि० ४, जं तं निवाघायं.... निशीथभा० ८२३] ५७९/ अनुयोगसू० ८]
११ जं दलियमन्नपगई णिज्जइ....[कर्मप्र०२।६०] ३७७ | जत्थ मतिनाणं तत्थ.....[नन्दीसू० १५] ५९५ जं नारगादिभावो.....[विशेषाव० १९७८] २६ जन्मजरामरणभयैरभिद्रुते .....प्रशम० १५२] ३२१ जं पुण सुनिप्पकंपं ....[ध्यानश० ७९] ३२२ | जन्मान्तरफलं पुण्यं .....[ ] जं बहु १ बहुविह..... [विशेषाव० ३०७] ६२२ | जमणंतपज्जयमयं...[विशेषाव० २४१६] २० जं वट्टइ उवगारे..... [ओघनि० ७४१] २५१ | जम्बू १ लवणे ....(बृहत्सं० ९२] जं वुच्चइ त्ति..... [पञ्चव० १२७९] १३ | जम्म-जरा-जीवण-...विशेषाव० १७५३] ४८ जं संके तं समावज्जे [ ]
८३५ | जम्म-जरा-मरणजलो....[पञ्चव० १५९५] १६२ जं सामन्नग्गहणं भावाणं.... [
१५८ | जम्मण विणीय उज्झा....[आव०नि० ३९७] ८२५ जं सामन्नग्गहणं.... [ ]
३८ | जम्हा विणयइ कम्म.....आव०नि०१२३१] ६२४ जं सामनविसेसे परोप्परं......
जरए तह चेव पज्जरए [विमान० २९] ६२७ विशेषाव० २१९४]
६६८ | जल-थल-खहयरमंसं चम्म.....[पञ्चव०३७५] ३४७ जं सामि-काल-.....[विशेषाव० ८५] ५९६ जल-रेणु-पुढवि-....[विशेषाव० २९९०] ३७२ जंगमजायं जंगिय.....[बृहत्कल्प० ३६६१] ५७८ | जलदोण १ मद्धभारं २......[ ] ७९५
५८१
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९८
स्थानाङ्गसूत्रटीकायाः ग्रन्थान्तरेभ्य: साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः। उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः जह एसो मत्तुल्लो न.....[ ] ८३६ | जिनप्रणीतादागमात् सदैवा-..... जह कुंभारो भंडाई.... [ ] १६६ तत्त्वार्थभा० सिद्ध० ९।४८] ५७५ जह गोमडस्स गंधो... उत्तरा० ३४।१६] २९५ जियरागदोसमोहा सब्वन्नू .....[ ] ५५२ जह चित्तयरो निउणो....प्रथमकर्म० ६७] १६६ जीवमजीवे रूवमरूवी...[आव०भा० १९५] २१४ जह जलमवगाहंतो ...... विशेषाव० २६००] ८०५ जीवाणण्णत्तणओ.....(विशेषाव०९४७] ८ जह जह बहुस्सुओ .....[सम्मति०३।६६] ४२६ जीवे णं भंते !.... [भगवती०१७।१९] ११२ जह जह बहुस्सुओ....[सम्मति० ३।६६] ६१२ | झुंजणकरणं तिविहं....[आव०नि० १०३८] १८२ जह तुब्भे तह..... उत्तरा० नि० ३०७] ४३३ | जुन्नेहिं खंडिएहिं... [बृहत्कल्प० ६३६७] २८४ जह दुव्वयणमवयणं...[विशेषाव० ५२०] १५८ जे के वि....[प्रज्ञापना० १८७] २०६ जह मज्जपाणमूढो....[प्रथमकर्म० ३४] १६५ | जे णं गोसाला !...[भगवती०१५।५४] २५२ जह राया दाणाइ ण..... [ ] १६६ | जे भिक्ख ऊ सचेले,..... (निशीथभा० ३७७७] जह वा दीहा रज्जू......विशेषाव० २०६१] ६८६ । ५४२ जह विक्खंभो.... बृहत्क्षेत्र० ३।३१] १३९ / जे यावि मंदि.....[दशवै० ९।१।२] २३७ जह वेह कंचणो-... विशेषाव० १८१९] २५ जेट्ठज्जेण अकज्जं.... बृहत्कल्प० ६१५०] ६३६ जह सा नाणस्स.... विशेषाव० ११३४] ७३ जेट्ठो वच्चइ मूलेण .....[ ] ५९० जह सुरभिकुसुमगंधो... उत्तरा० ३४।१७] २९५ जेण कुलं आयत्तं तं ....[ ] ५६७ जहाऽऽहिअग्गी.....[दशवै० ९।१११] १५ जेण सुहज्झप्पयणं....विशेषाव० ९६०] ९ जहि नत्थि सारणा...(बृहत्कल्प० ४४६४] ६५९ | जेणामेव समणे ...... [ ] ८५१ जा पढमाए जेट्ठा सा.... [बृहत्सं० २३४] २१० | जेणऽन्नइया दिळं .....[व्यव०भा० ४५१५] ५४७ जाई-कुल-गण-कम्मे सिप्पे....
जेसिं जत्तो सूरो....(विशेषाव० २७०१] २२५ निशीथभा० ४४११]
| जेसिमवड्ढो पोग्गलपरियट्टो....श्रावकप्र० ७२]५० जाई-कुलसंपन्नो पायमकिच्चं......[ ] ७२७ | जो अत्थिकायधम्मं ....[उत्तरा० २८२७] ८६७ जात्यादिमदोन्मत्तः ......प्रशम० ९८] ७२८ जो अन्नस्स उ दोसे न......[ ] ७२७ जायमेत्तस्स जंतुस्स.....[तन्दुल०प्रकी०४५] ८९२ | जो उत्तमेहिं मग्गो पहओ .....[ ] ५२६ जावं ताव त्ति वा ......[ ] ८५५ जो कत्तादि स...(विशेषाव० १५७०] १८ जावइया जस्स गणा.....[आव० नि० २६९] ७३९ |जो किर जहन्नजोगो ....[विशेषाव०३०६३] ३२३ जावइया वयणपहा ...... [सम्मति०३।४७] ६६८ जो जिणदिठे भावे.... उत्तरा० २८।१८] ८६६ जावुक्कोसियाए विसेसहीणं णिसिंचइ [ ] १७१ | जो जेण जम्मि.... (निशीथभा० ५५९३] २०२ जाहे णं भंते !.... [भगवती०१४।६।६] २४७ जो तमतमविदिसाए.... [विशेषणवती २४] २९९ जिणवयणं सिद्धं चेव....[दशवै० नि० ४९] ८५० | जो तुल्लसाहणाणं...(विशेषाव० १६१३] २७ जिणवयणे पडिकुटुं...[निशीथ० ३७४५] २७९ जो देइ उवस्सयं जइवराण ..... [ ] ५८१
Page #540
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
पृष्ठाङ्कः | उद्धृतः पाठः ७५२ तं चिय रिउसुत्तमयं ....[विशेषाव ०२२२८] तं चेवऽणुसज्जंते..... [ व्यव० भा० ४४३६] ५३६ तं तं भावमायरइ.... [आव० हारि०] ८३६ तं तेण तओ तम्मि....[विशेषाव० ८१] २७७ तं दुविकप्पं छउमत्थ- .... ..[विशेषाव ० १२८० ] ५५६
५९४
तं दुविकप्पं निव्विस्समाण -...... [विशेषाव ० १२७१]
[बृहत्कल्प ० १२९४]
४७१
तं न जओ तच्चत्थे .... [ विशेषाव ० १८८१ ] तं मंगलमाईए..... [विशेषाव ० १३]
८३६
जो सविसयवावारो सो....[ विशेषाव ०२९९८ ] ५७३ जो सुत्तमहिज्जंतो सुएण....[ उत्तरा०२८।२१] ८६६ जो सुत्ताभिपाओ सो....[ विशेषाव ० १३६९] ८५ तं सुरविमाणविभवं... [ उपदेशमाला० २८६] जो सुहुमे आलोए सो......[ 1 तइओ त्ति कहं जाणसि ?...... जोगा पयडिपएसं ..[बन्धशतके ९९ ] जोगा पयडिपदेसं... [बन्धशतके ९९ ] जोगो वीरियं थामो... [ पञ्चसं० ३९६] जोयणसयं तु ...[ निशीथभा० ४८३३] जोयणसयमुव्विद्धा...[बृहत्क्षेत्र० १३०] जोयणसयवित्थिन्ना .....[ बृहत्क्षेत्र० २।१३] जोयणसहस्सदसगं मूले..... [ बृहत्क्षेत्र०२।६] जोयणसहस्समहियं.....[ बृहत्सं० ३०७] ज्ञानिनो धर्म्मतीर्थस्य .....[ ] ठवणाकम्मं एक्कं..... [ दशवै० नि० ६७ ] ठाण- निसीय- तुयट्टण-....[ओघनि० ३४२] ठाणे सरीर भाषा.... [ बृहत्कल्प ० ६३१९] ठितिसंकमो त्ति वुच्चइ [ कर्मप्र०२।२८] णाइवगिट्ठो य तवो....[आचा०नि० २७२] णाणस्स होइ....[विशेषाव ० ३४५९ ] णायागयाणं कप्पणिज्जाणं..[ आव० सू० ६] णिग्गंथ १ सक्क २... [पिण्डनि० ४४५ ] णिस्संकिय १ निक्कंखिय .....
[दशवै०नि० १८२, निशीथभा० २३] णेगाई माणाई......[विशेषाव० २१८६]
उद्धृतः पाठः
जो भणिओ जंबू .....[( बृहत्क्षेत्र० ३ |५५ ] जो मुद्धा अभिसित्तो पंचहिं.......
[निशीथभा० २४९७]
जो य अगीयत्थस्सा
[
जो य सलिंगे दुट्ठो..... [
जो संजओ वि एयासु अप्पसत्थासु
.....
1
]
१९९
पृष्ठाङ्कः
६७०
५४७
६८
५५५
४७
३
२४५
३७६
[बृहत्कल्प ० ६१५३]
६३६
८०६
३९७
४८
१५१ तइयं च दसं पत्तो[ तन्दुल० प्रकी ० ४७ ] ८९२ १८० तच्चाए वी एवं नवरं...[ पञ्चाशक०१८ ।१७] २५३ ९० | तण- छार - डगल - मल्लग.....[ निशीथभा० ११५४, ११८ बृहत्कल्प ० ३५३५] ५३५ ३८७ तणगहणा-ऽनलसेवा... [ओघनि० ७०६] २३४ ३८७ तणगहणानलसेवानिवारणा........ ५०७ [ओघनि० ७०६, पञ्चव० ८१३] १४ तणपण पुण भणियं .....[ ] ४३९ तणवोऽणब्भाइविगार ....[विशेषाव ० १७५९] ५८० तणुरोहारंभाओ झायइ....[ विशेषाव ०३०६९j ३२३ ६३८ | तण्हुण्हभावियस्सा....[व्यवहारभा० २५३३] ३७७ ततं वीणादिकं.... [ ] १६१ ततं वीणादिकं .....[ ] १४ तत्तो अ अस्सकण्णा हत्थियकण्णा..... १८६ [बृहत्क्षेत्र० २।६१] १६० तत्तो य अट्ठमी....[ पञ्चाशक० १८ ।१४] तत्तो य नेलवंते सुहत्थि ....[ बृहत्क्षेत्र ०३२६] १०८ तत्तो वि से चइत्ताणं ....[ दशवै ०५।२।४८] ७१८ ६६८ तत्तोऽणंतरमीहा...[विशेषाव० २८४]
५६५
१०५
४९१
३८५
२५३
७५३
६२१
Page #541
--------------------------------------------------------------------------
________________
२००
स्थानाङ्गसूत्रटीकायाः ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः
७३०
उद्धृतः पाठः पृष्ठाकः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः तत्थ खलु इमाओ ......[चन्द्रप्र० १०२१] ७११ तस्मिन् पद्म तु भगवान् ......[ ] तत्थ खलु इमे..... [ ]
१३३ तस्मिन्नेकार्णवीभूते ......[ ] ७३० तत्थ णं जे से....जम्बूद्वीपप्र० ७।३५०] १९५ तस्यामेव त्ववस्थायां .....[ ]
४४८ तत्थ वि न सवनासो..
तस्स फल-जोग-..... [विशेषाव० २] [विशेषाव० २३९५]
७०७ तस्सक्कंदण-सोयण-.....[ध्यानश० १५] ३१८ तत्थट्ठपयं उबट्टिया व.....[कर्मप्र० २।४६] ३७७ | तस्सेव य थेज्जत्थं.... [विशेषाव० १४] ३ तत्थुग्गमो पसूई पभवो...[पञ्चाशक० १३।४, तस्सेव य सेलेसीगयस्स...[ध्यानश० ८२] ३२२ पञ्चवस्तुक० ७४०]
२६९ / तह तिब्बकोह-लोहाउलस्स....ध्यानश० २१] ३१९ तत्थोदार १ मुरालं २ उरलं .....[ ] ५०७ तह नाम पि हु..[प्रथमकर्म० ६८] १६६ तत्र तस्य शयानस्य ......[ ] ७३० | तह सूल-सीसरोगाइवेयणाए....[ध्यानश० ७] ३१८ तत्र रूक्षो १ लघुः २ शीतः.....[ ] ४५३ | | तह सेसेहि य सव्वं.....[विशेषाव० २५८९] ८०५ तत्रर्जुसूत्रनीतिः स्यात् ......[ ] ६७१ | ता तंसि भाववेज्जो....[पञ्चव० १३५१] २६३ तथाविधस्य तस्यापि ......[ ] ६७१ तिण्णि सहस्सा सत्त... [जम्बूद्वीपप्र० २।३, तदसंखगुणविहीणे समए...विशेषाव०३०६०] ३२३ बृहत्सं० २०९]
१४८ तन्नामादि चउद्धा.....(विशेषाव० २९९४] ५७२ | तिण्हपरि फालियाणं वत्थं..... तप्पज्जायविणासो...[श्रावकप्र० १९१] ४२ निशीथभा० ७८७]
५५० तब्भावुओगेणं .....[व्यवहारभा० २६९४] ५६७ तित्ती समो किलामो...विशेषाव० २४०४] २० तमुक्काए णं भंते.....[भगवती० ६।५।३] | तित्थंकरपडिकुट्ठो अन्नायं...[पञ्चा०१७।१८] ८०६ तम्हा धम्माधम्मा....विशेषाव० १८५२] २४ | तित्थकरप्पडिकुट्ठो अन्नायं.... तम्हा निजगं संपयकालीयं......
पञ्चा० १७१८] (विशेषाव० २२२६]
६७० | तित्थगर १ धम्म २ आयरिय....[ ] ७०० तम्हा वयसंपन्ना... [पञ्चव० ९३२] २३६ | तित्थयरपवयणसुए आयरिए... तरतमजोगाभावे.....विशेषाव० २८६] ६२१| बृहत्कल्प० ४९७५,५०६०]
२७६ तरुणा बाहिरभावं न.... बृहत्कल्प० १४५८] ६६० | तित्थेस अणारोवियवयस्स.... तरुणावेसित्थिविवाहरायमाईसु......
[विशेषाव० १२६४]
५५४ निशीथभा० २५९२]
८२५ | तिन्नेव य पच्छागा... [ओघनि० ६६९] तवतेणे वइतेणे रूवतेणे....[दशवै०५।२।४६] ७१८ तिभागो १ योजनस्य,... [बृहत्सं० २४५] २९८ तवसंजमजोगेसुं जो....[व्यव० १९५९] २४२ तिरिओ भय १ प्पओसा २..... तवहेउ चतुत्थाई.... पिण्डनि० ६६८] ६१६/ विशेषाव० ३००७]
४८२ तवेण सत्तेण सुत्तेण....[बृहत्कल्प० १३२८] ७१३ तिवरिसपरियागस्स ......[पञ्चवस्तु० ५८२] २ तस्मिन ध्यानसमापन्ने....तत्त्वसं० ३२४०] १३ तिवरिसपरियागस्स उ.....[पञ्चव० ५८२] ५१८
Page #542
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
२०१
m
m
२६४
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः | उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः तिविहं च होइ दुग्गं रुक्खे.....
दंतो समत्थो वोढुं पच्छित्तं... ] ७२८ [बृहत्कल्प० ६१८३]
दसणसीले जीवे... [प्रथमकर्म० १९] १६५ तिविहा होइ निवण्णा ओमंथिय.....
दइएण वत्थिणा वा ....[ओघनि० ३६२] ५८० [बृहत्कल्प० ५९४६]
५१४ | दक्खिणपुचेण रयणकूडं ...द्वीपसागर० १६] ३७९ तिविहे य उवस्सग्गे दिवे...[बृहत्कल्प०६२६९]५६३ | दक्षिणपार्श्वे स्पन्दमभिधास्ये ......[ ] ७३३ तिहुयणविक्खायजसो.....[विशेषाव० १०५९] ५८ दक्षो १ विज्ञातशास्त्रार्थो.....[ ]
४५३ तुज्झ पिया मज्झ पिउणो....[दशवै०नि० ८६] ४४४ | दत्ती उ जत्तिए वारे ..... [ ] ५१३ तुद व्यथने [पा०धा० १२८२] २१८ | दत्तीहि व कवलेहिं व...[आव०नि० १५९०] ८५७ तुल्लं १ वित्थरबहुलं....बृहत्सं० १७६] ६१२ | दप्पो पुण होइ......[ ]
८३४ तुल्लम्मि वि अवराहे...बृहत्कल्प० ४९७४] २७६ | दया-दान-क्षमाद्येषु...[ ] तृणायापि न.......[ ]
१२| दवए १ दुयए २....[विशेषाव० २८] १७४ ते पासाया कोसं ......[बृहत्क्षेत्र० २८९] ७४८ | दवगुल-पिंडगुला दो मज्जं...[पञ्चव० ३७४] ३४७ तेओजोगेण जहा.... [ ]
१८१ | दवट्ठवणाऽऽहारे विगई... तेण कहियं ति व ......विशेषाव० २३६१] ७०६ | निशीथभा० ३१६६]
५३४ तेण परं उवरिमगा...[बृहत्सं० १२७] २४७ | दवम्मि मंथओ......बृहत्कल्प० ६३१६] ६३७ तेणावधीयते तम्मि.....[विशेषाव० ८२] ५९५ | दवाइअलंभे पुण......[ ]
८३५ तेत्तीसं च सहस्सा....[बृहत्क्षेत्र० ३२] ११८ | दवाइएहिं किणणं .....[पञ्चा० १३।११] ८०४ तेरस १-२ बारस...विमान० १२९] ६२८ | दब्बाइत्ते तुल्ले जीव-....[विशेषाव० १८२३] ४९ तेरिक्कारस नव सत्त .....[बृहत्सं० २५३] ६२७ | दवाण सबभावा....[उत्तरा० २८।२४] ८६७ तेवढं कोडिसयं .....द्वीपसागर० २५] ३९३ | दबादी चउभेयं....विशेषाव० ९४६] ७ तेसि नमो तेसि नमो ....[पञ्चव० १६००] ५५२| | दवावाए दुन्नि उ ....[दशवै० नि० ५५] ४३६ तेसि नमो तेसि....[पञ्चव० १६००] १६२ | दवे खेत्ते काले भावे पलिउंचणा...... तो कयपच्चखाणो..... पञ्चव० ५३७,
व्यवहारभा० १५०] पञ्चा० ५।४०]
__ ५११ | दवे सुहुमपरट्टो जाहे ....[ ] २६८ तो तं कत्तो ?.... विशेषाव० ११४१] दस-कप्प-व्यवहारा......[पञ्चवस्तु० ५८३] ३ तो समणो जइ .....[दशवै० नि० १५६] ४८४ | | दस-कप्प-बवहारा .....[पञ्चव० ५८३] ५१८ थिरकरणा पुण.... [व्यव० १९६१] २४२ | दस चेव जोयणसए.... [द्वीपसागर० ७४] २८२ थेरवयणं जइ परे ......[विशेषाव० २३६०] ७०६ | दस चेव जोयणसए ......द्वीपसागर० ७४] ८२७ थेवं बहुनिव्वेसं [ओघनि० ५३०] ५४० दस चेव सहस्सा...[द्वीपसागर० ११४] २८२ दंतवणं तंबोलं.... [पञ्चाशक० ५।३०] १८४ | दसजोयणसहस्सा ....[बृहत्क्षेत्र० २।१७] ३८७ दंतेहि हणइ भद्दो मंदो ....[ ] ३५५ | दसठाणठिओ कप्पो....[बृहत्कल्प० ६३६३] २८४
Page #543
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२
स्थानाङ्गसूत्रटीकाया: ग्रन्थान्तरेभ्य: साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाकः दस नवगं गणाण......[आव० नि० २६८] ७३९ | दुक्खेण उ गाहिज्जइ बीओ..... दस बावीसाइं अहे... [द्वीपसागर० ३] २८१ [व्यवहारभा० ४५८८]
४१२ दस भवण-वणयराणं.... बृहत्सं० ४] १७० | दुन्नि तिहत्थायामा.....[बृहत्कल्प० ४०९०] ३१६ दसरायहाणिगहणा सेसाणं......
दुपएसादि दुरुत्तर...[आचाराङ्गनि० ४४] २२५ (निशीथभा० २५८८]
८२५ दुभिक्खदुब्बलाई इहलोए......[ ] ७२७ दसवासस्स विवाहो ..... [पञ्चव० ५८४] ५१८ | दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून्,.....[ ]
३४ दसविहवेयावच्चे अन्नतरे.....
दुवालसमासपरियाए.... भगवती०१४।९।१७] ८४० [व्यवहारभा० ४५८७]
दुविहो उ परिच्चाआ...बृहत्कल्प० ५२०८] २८० दसविहवेयावच्चे सग्गाम.....
|दुविहो उ भावधम्मो....[दशवै० नि० ४३] २६१ व्यवहारभा० २५३९]
५६५ | दुविहो पमाणकालो .....[आव०नि० ७३०, दहनाद्यमृक्षसप्तकमैन्द्रयां तु......[ ] ७११ _ विशेषाव०२०६९]
३३९ दानपुण्यफला कीर्तिः,....[ ] २३२| दुविहो य होइ... [बृहत्कल्प० ४९८६] २७७ दाप लवने [पा०धा० १०५९] २६५ | दुविहो होइ अचेलो..[बृहत्कल्प० ६३६५] २८४ दारक्कमोऽयमेव उ... विशेषाव० ९१५] ७|दुष्प्रतिकारी मातापितरौ...[प्रशम० ७१] १९९ दासे दुढे....(निशीथ० ३५०७] २७९दूमिय धूमिय वासिय... निशीथभा०२०४८] ५५० दाहिसि मे एत्तो ....[ ] ३०९ | दृष्टेष्टाव्याहताद् वाक्यात् ..... न्याया० ८] ४४८ दाहोवसमादिसु वा.... [विशेषाव० १०३५] ५३ | देव त्ति सत्थयमिदं...विशेषाव० १८८०] ४७ दिट्ठा व जे परेणं ......[ ] ८३५ | देवकुरुपच्छिमद्धे ......[बृहत्क्षेत्र० ३००] ७४८ दिवसभयओ उ घेप्पइ...(निशीथभा० ३७१९] ३४३ | देवस्स व किं वयणं......[विशेषाव० २३६२] ७०७ दिव्वम्मि वंतरी १ संगमे २.....[ ] ४८३ | देवा नेरइया वि...श्रावकप्र० ७४] ११३ दिशि १ दृशि २ वाचि......[ ] ८४९ | देवा वि देवलोए....[उपदेशमाला० २८५] २४५ दिसिदाहो छिन्नमूलो....[आव०नि० १३४९] ८२० | देवाण अहो सीलं ....[ ]
५५२ दीण-कलुणेहिं....[बृहत्कल्प० ६१४३] ६३५ | देविंद-चक्कवट्टित्तणाइ-.....ध्यानश० ९] ३१८ दीवदिसाअग्गीणं ......[द्वीपसागर० २२१] ८३२ | देवे णं भंते !...[भगवती० ६।९।२-३] दीवसिहा-जोइसनामया......[ ] ८८९ | देवेसु न संदेहो जुत्तो...(विशेषाव० १८७०] ४७ दीसइ य पाडिरूवं ठिय-.....
देसम्मि उ पासत्थो......[ ] ८८४ [बृहत्कल्प० ६१५४]
६३६ | देसूणकोसमुच्चं जंबू......बृहत्क्षेत्र० २९०] ७४८ दीहकालठियाओ हस्सकालठियाओ
देसूणमद्धजोयण ..... [बृहत्क्षेत्र० २।१८] ३८७ [भगवती० ११११]
५२३ | देहम्मि असंलिहिए...[पञ्चव० १५७७] १६१ दीहो वा हस्सो वा जो .....[ ] ३९७ | देहविवित्तं पेच्छइ अप्पाणं.....[ध्यानश० ९२] ३२३ दुक्खं न देइ आउं....[प्रथमकर्म० ६३] १६५ | देहेण वी विरूवो.....बृहत्कल्प० ६१५८] ६३६
Page #544
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
२०३
२२
४५०
३५६
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाकः दैप् शोधने [पा० धा० ९२४]
२६५ | धर्मादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां....[ ] दो १ साहि २ सत्त... बृहत्सं० १२] १७० धर्मं चरतः साधोर्लोके .....[ ] ५८१ दो अवखण्डने [पा० धा० ११४८] ७३४ | धर्मोपादेयतां ज्ञात्वा....[धर्मबिन्दौ ३।२] ७७ दो असतीओ.....[अनुयोगद्वार० सू० ३१८] ३९४ | धाई १ दूइ २ निमित्ते...[पञ्चाशक० १३।१८, दो उसुयारनगवरा.....बृहत्क्षेत्र० ३।५] १३८ | पञ्चव० ७५४ पिण्डनि० ४०८] २७० दो कायप्पवियारा....[बृहत्सं० १८१] १७१ | धायइवरम्मि दीवे...[बृहत्क्षेत्र०५।३७] १४३ दो कोसे वित्थिन्नो.... बृहत्क्षेत्र० २८७] ११६ | धायइसंडे मेरू चुलसीइ....बृहत्क्षेत्र० ३।५७] ८२७ दो घयपला महुपलं...[ ]
२०० | धारणया उवभोगो परिहरणा..... दो चंदा इह... बृहत्क्षेत्र० ५।७२,
बृहत्कल्प० २३६७, २३७२] ५७८ बृहत्संग्र० ६४]
१४० | धारणया उवभोगो,..[बृहत्कल्पभा० २३६७] २३३ दोच्चा वि एरिसि....[पञ्चाशक० १८।१६] २५३ धावेइ रोहणं तरइ .....[ ] दो दो चउद्दिसिं मंदरस्स....[बृहत्क्षेत्र० ३२५] ७५३ | धिइबलिया तवसूरा...[बृहत्कल्प० ६४८४] दोसु वि कुरासु.....[बृहत्क्षेत्र० ३०१] १३० | धिग्नारीरौदीच्या बहुवसना-.....[ ] दोहिं वि नएहिं नीयं .....[विशेषाव०२१९५] ६६८ धिग्ब्राह्मणीर्धवाभावे या..... [ ] ३५६ द्यूतासक्तस्य सच्चित्तं धनं .....[ ] ६१७ | धी संसारो जम्मि जुयाणओ ...... द्रव्यदानमपूर्वं च ३, ....... [ ] २५७ [मरण० प्रकी० ६००]
३२४ द्रा कुत्सायां गतौ [पा० धा० १०५४] ७६९| धृतिस्तेन दत्ता मतिस्तेन दत्ता.....[ ] ५८१ द्वात्रिंशत् सहस्राणि .....[ ]
४०४|न उ पइसमयविणासे...विशेषाव० २४०२] २० द्विविधाः कुशीलाः प्रतिसेवन-.....
न कदाचिदनीदृशं जगत् [ ] [तत्त्वार्थभा० सिद्ध० ९।४८] ५७६ | न कदाचिदनीदृशं जगत् [ ] १३२ धनदो धनार्थिनां धर्मः.. [धर्मबिन्दु० १२] २६४ | न परोवएसवसया न य.. धन्ने य सुनक्खत्ते......[अनुत्तरोपपा० ] ८७६ । विशेषाव० २५८८]
८०५ धन्नोऽहं जेण मए....[पञ्चव० १५९६] १६२ | न वि य फुसंति... [बृहत्सं० २४३] धम्मं पि हु सद्दहंतया..... उत्तरा०१०।२०] ६०८/न विसेसत्थंतरभूयमत्थि....[विशेषाव० ३५] ६१ धम्मजिणाओ संती....[आव० नि० १३] ३०० न हि दीहकालियस्स वि...... धम्मत्थिकाये धम्मत्थिकायदेसे....
| [विशेषाव० २०४८]
६८६ [प्रज्ञापना० ५५०१]
८५२ | न हि नारगादि-.... [विशेषाव० १९७९] २६ धम्मपुरिसो तयज्ज-...[विशेषाव० २०९३] १९२ | न हि सव्वहा विणासो.... धम्ममइएहिं.....[उपदेशमाला १०४] १२ विशेषाव० २३९३]
७०७ धम्मो जेणुवइट्ठो सो ....[ ] ४१३ न हि सव्वहा....विशेषाव० २३९३] धर्माख्यः पुरुषार्थोऽयं.... [ ] २६४ | नंदणवणकूडेसुं एयाओ.......[ ]
७५६
७३०
२९८
Page #545
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४
स्थानाङ्गसूत्रटीकायाः ग्रन्थान्तरेभ्य: साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः
उद्धृतः पाठः पृष्ठाकः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः नंदीसरो य ८.....[बृहत्सं० ८३] २८२ नानिविटें लब्भइ [पिण्डनि० ३७०] ५४० नट-नर्त्त-मुष्टिकेभ्यो दानं.....[ ] ८५४ नामं १ ठवणा २..[आव०नि० १०५६, नत्थि छुहाए सरिसा.... पिण्डनि० २६३] ६१५/ विशेषाव० ३५१० ] नत्थि त्ति पउरभावं....[बृहत्सं० ९१] २१२ नामं १ ठवणा २....[दशवै०नि० ८, २१८] ९ नत्थि य सि .....[दशवै० नि० १५५] ४८४ नामं १ ठवणा.... [आव०नि० ८०९] २२४ नत्थी अरहंतत्ती जाणं वा .....[ ] ५५१ नाम ठवणा दविए....[आवश्यकनि० १०७०] २२ ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाध-.....[ ] ६०७ / नाम ठवणा..... [आचाराङ्गनि० १८४] ४ नयास्तव स्यात्पद-....[बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रे ] २१ | नामंगं ठवणंग.... उत्तराध्ययननि० १४४] ५ नव चेव सहस्साइं .....[द्वीपसागर० ३१] ३९३ / नामादि चउब्भेयं.....(विशेषाव० ९५९] ९ नव चेव सहस्साई.....[द्वीपसागर० २९] ३९३ नाल्पमप्युत्सहेद्येषाम् ..... [ ] ३२८ नवकोडीओ संखा .....[ ]
३३७ / नासां कण्ठमुरस्तालु जिह्वां ......[ ] ६७४ नवजोयणवित्थिन्ना......[ ] ७२५ निंदइ निययकयाइं .... नवमी मुंमुही नाम.....[तन्दुल० प्रकी० ५३] ८९३ / निग्गंथेणं गाहावइकुलं ....[भगवती०८।६।७] ३६४ नवि अत्थि माणुसाणं....[आव० नि० ९८०] ८४० | निच्चं संकियभीओ.... उपदेशमाला० २२६] ७२० नवि तं सत्थं व विसं....[ओघनि० ८०३] ७१८ | निच्छयओ सब्वगुरुं ..... विशेषाव० ६६०] ८१९ नहि कम्मं जीवाओ......[विशेषाव० २५१६] ७०९ | निज्जवओ तह कुणई.....[ ] ७२७ नाणं पयासयं....[आव० नि० १०३] २९३ | नित्यज्ञानविवर्तोऽयं ......[ ] ७२९ नाणंतरायदसगं १०.....[ ]
२८ | निद्दा-विगहापरिवज्जिएहिं .... नाणट्ठ दसणट्ठा चरणट्ठा......
. [आव० नि० ७०७, पञ्चव० १००६] १५ निशीथ० ५४५८]
६५२ निद्धस्स निद्धेण दयाहिएणं.... नाणमवाय-धिईओ....[ ]
| प्रज्ञापना०२००]
८१८ नाणस्स केवलीणं धम्मायरियाण....
| निद्राशीलो न श्रुतं .....[ ] ६१७ (बृहत्कल्प० १३०२]
४७२ निम्मलदगरयवण्णा .. आव० नि० ९६१] ३९ नाणस्स केवलीणं.... बृहत्कल्प० १३०२] २७५ | नियगच्छादन्नम्मि उ....[आव०नि० ७१८] २३७ नाणादी उवजीवइ ..... उत्तरा०भा० १०] ५७८ निरइसुरअसंखाऊ .....[ ]
६४५ नाणाहीणं सव्.... [विशेषाव० ३५९१] ६० निरयदुगं २ तिरियदुगं.... [ ] २८ नाणे दंसण चरणे ..... उत्तरा०भा० ३] ५७७ निर्विशेषं गृहीताश्च......[ ] २१ नाणे दंसण चरणे..... (उत्तरा०भा० ९] ५७७ निर्वेश: परिभोगः [ ]
५१६ नाणेण उ संपन्नो ......[ ] ७२७ | निव्वाघायववाई ..... निशीथभा० ८२४] ५७९ नाणेण दंसणेण य तवे.... उत्तरा०२८।२५] ८६७ निव्वाणगमणकाले केवलिणो..ध्यानश० ८१] ३२२ नानासद्दसमूहं बहुं.....(विशेषाव० ३०८] ६२२ / निविगइ निब्बलोमे ..... निशीथ० ५७४] ४५४
Page #546
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
२०५
३३८
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाकः निषीदन्ति स्वरा ......[ ]
६७५ | पंचाईयारोवण नेयव्वा जाव..... नेरइए णं भंते ! नेरइएसु .....
__ [व्यवहारभा० १४१] [प्रज्ञापना० १७।३।११९९, पंचादिगारसंते ठविउं .....[ ]
५०४ भगवती० ४।९।१] ३७३, ६४५ | पंचास चत्त छच्चेव...बृहत्सं० ११८] २९१ नेरइया १ असुरादी....[ ]
४६ | पंचेव जोयणसए उड्डं....[बृहत्क्षेत्र० ३२७] ३८२ नेरइयाइभवस्स व.... [विशेषाव० ३४४९] २०९ | पंचेव धणुसयाइं ......[बृहत्क्षेत्र० २९५] ७४८ नेसप्पे १ पंडुए २ पिंगले......[ ] ७७३ | पंडगवणम्मि चउरो.... [बृहत्क्षेत्र० १।३५५] १४२ नैवास्ति राजराजस्य....प्रशम० गा० १२८] ८४० | पइसमयमसंखेज्जइ....[विशेषाव० ७३०] ६३३ नो पलिउंचे अमायी ....[ ] ८३७ | पउमाभ वासुपुज्जा....[आव०नि० ३७६] १६८ नोआगमओ भावो.... (विशेषाव० ४९] |पउमुप्पलनलिणाणं,....प्रज्ञापना० १९०] २०६ नोइंदियपच्चक्खो ववहारो.
| पउमे य १ महापउमे...[बृहत्क्षेत्र० ५६८] १२२ व्यव० भा० ४०३१]
४६ | पक्ख-चउमास-.....विशेषाव० २९९२] ३७२ पंकपणएसु नियमा ओगसणं.....
| पक्खेवए दुगुंछा.... [व्यव० ९।३८२६] २५१ [बृहत्कल्प० ६१८९]
५६३ | पच्चक्खागमसरिसो होइ..... पंको खलु चिक्खल्लो....[बृहत्कल्प० ६१८८] ५६२] [व्यव० भा० ४०३५]
५४६ पंचण्हं गहणेणं सेसा वि.....
पच्चक्खाणं जाणइ... [आव० भा० २४७] ५९८ [बृहत्कल्प० ५६२०]
५३२ | पच्चक्खाणं सवण्णु-..... [आव०भा० २४६] ५९७ पंचत्थिकायमइयं .....[ध्यानश० ५३] ५७० पच्चक्खो वि य दुविहो..... पंचत्थिकायमइयं...... [ध्यानश० ५३] १६३ / व्यव० भा० ४०३०]
५४६ पंचमए विदिसीए... [ ]
२९९ | पच्छा गच्छमतीती....[पञ्चाशक० १८।१३] २५३ पंचमगम्मि य भावे जीव .....[ ] ६४८ | पज्जत्तमेत्तबेंदियजहन्नवइ-..... पंचमिं च दसं पत्तो......[तन्दुल०प्रकी० ४९] ८९३ विशेषाव० ३०६१]
३२३ पंचविहं आयारं... [आव०नि० ९९८] २३६ | पज्जत्तमेत्तसन्निस्स जत्तियाइं ..... पंचविहे ववहारे,...बृहत्कल्प० ६४५५] २८५ विशेषाव० ३०५९]
३२३ पंचसए उविद्धा.... [बृहत्क्षेत्र० २६१] ११९ पज्जवणं पज्जयणं.....[विशेषाव० ८३] पंच सए छब्बीसे.... [बृहत्क्षेत्र० २९] ११४ पज्जोसवणाए तवं.... पंच सए छब्बीसे.... [बृहत्क्षेत्र० २९] ११७ ११७] [आव० नि० १५८२]
८५६ पंचसए बाणउए सोलस... बहत्क्षेत्र० ३६४] ३८२ | पञ्चस रक्ताः पञ्च विनष्टा .....
५०२ पंचसयजोयणुच्चा....[बृहत्क्षेत्र० ३।४] १३८ | पञ्चाश्रवाद्विरमणं ......[प्रशम० १७२] पंचसयायामाओ मज्झे ..[बृहत्क्षेत्र० १।३५६] १४२ पञ्चाश्रवाद्विरमणं .....[प्रशम० १७२] ५११ पंचाई य नवंते ठविउं .....[ ] ५०४ | पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं....[ ]
४२
२६५
Page #547
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६
स्थानाङ्गसूत्रटीकाया: ग्रन्थान्तरेभ्य: साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः पट्ट सुवन्ने मलये अंसुय.....
| पढमिल्लुयसंघयणे....[पञ्चव० १६१८] १६२ [बृहत्कल्प० ३६६२]
५७८ | पढमिल्लुयाण उदए.....[आव०नि० १०८] ३२७ पट्ठवणओ उ दिवसो...
पणन उइ सहस्साइं .....[बृहत्क्षेत्र० २।४] ३८६ [आव० नि० १५८४] ८५७ पणयालीस सहस्सा.... [ ]
११७ पठकः पाठकश्चैव ये चान्ये .....[ ] ४६८ | पणिहाणजोगजुत्तो पंचहिं.... [दशवै०नि० १८५, पडिपुच्छणा उ कज्जे ......[पञ्चा० १२।३०] ८५९) निशीथभा० ३५]
१०८ पडिबंधनिराकरणं केई अन्ने.....
पणुवीसं उब्बिद्धो.....[बृहत्क्षेत्र० १७८] १२० [पञ्चा० १७।१९]
५३६ पत्तं १ पत्ताबंधो.... ओघनि० ६६८] ५४ पडिमासु सत्तगा सत्त......[ ] ६६२ पद्म सङ्कोचमायाति, ..... [] ५३९ पडिलोमे जह अभओ पज्जोयं.....
पन्नट्ठि सहस्साई चत्तारि..[बृहत्क्षेत्र०५।२६] १४२ दशवै० नि० ८२]
४४३ पन्नवओ जयभिमुहो.... [ ] २२५ पडिवज्जइ एयाओ... [पञ्चाशक० १८१४] २५३ | पमाओ य मुणिंदेहि....[ ] २२८ पडिसिद्धेसु वि दोसे .....[ ] ६३९ | पयईए तणुकसाओ...[बन्धशतक० २२] १८७ पडिसेवणपारंची.. बृहत्कल्प० ४९८५] २७७ | परमाणू तसरेणू रहरेणू....... पडिसेवणा उ भावो.....[व्यवहारभा० ३९] ३३८| [अनुयोगद्वार० सू० ३३९]
७४७ पडुप्पन्नसमयनेरइया... [ ]
परसमओ उभयं......विशेषाव० ९५३] पढमं अहम्मजुत्तं पडिलोमं .....
परस्परोपकाराणां ......[ ]
२५६ [दशवै० नि० ८१]
| परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं .....[ ] ६४७ पढमं चिय गिहि-संजयमीस......
परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न.....[ ] ३४० पञ्चा० १३।९]
परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं......[ ] ८१७ पढम लहइ नगारं... [विशेषाव० २८९७] १६५ | परिभासणा उ पढमा ....[आव० भा० ३] ६८४ पढमबीयदुओ वाहिओ......[ ] ८३५ परियट्टिए १० अभिहडे.. पढम-बीयाण पढमा ......
| पञ्चा०१३।६,पिण्डनि०९३]
२६९ [आव० नि० १६८]
६८४ | परियायस्स उ छेओ.....[विशेषाव० १२६८] ५५५ पढमम्मि सव्वजीवा बीए..... [आव०नि० ५७४, परिसंठियम्मि पवणे .....[बृहत्क्षेत्र०२।१६] ३८७ विशेषाव० २६३७]
४९९ परिसुद्धजुन्नकुच्छिय-.....(विशेषाव० २५९९] ८०५ पढमसत्तराइंदियं.... [दशाश्रुत० ७५१] २५३ | परिसेय-पियण-.....[ओघनि० ३४७] ५८० पढमा १ पढमे २ चरम ३.....
परिस्रवस्वेदविदाहरागा.....[ ]
४५३ [उत्तरा०भा० १४] |
५७८ परिहारिय छम्मासे.... [बृहत्कल्प० ६४७४] ६४० पढमा असीइसहस्सा १.....[बृहत्सं० २४१] ६६४ | परिहारेण विसुद्धं सुद्धो य..... पढमाऽसीइसहस्सा बत्तीसा..[बृहत्सं० २४१] २११/ विशेषाव० १२७०]
५५५
७०७
Page #548
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
२०७
२४२
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाकः पलिओवमट्टिईया ..... बृहत्क्षेत्र० १९] ३८४|पावाणं पावयरो... [बृहत्कल्प० ५००९] २७७ पलिओवमट्ठिईया एएसिं ......
पावुक्करिसेऽधमया.... [विशेषाव० १९१०] २८ [बृहत्क्षेत्र० २।११]
३८७ पासायाण चउण्हं ......[बृहत्क्षेत्र० २९८] ७४८ पलियं १ अहियं २...बृहत्सं० १४] १७० | पासो मल्ली य... [आव०नि०२२४] ६८७ पल्लवि हत्थुत्थरणं तु .....[ ] ३९७ | पियधम्मे दढधम्मे... निशीथभा० २४४९, पल्हवि कोयव पावार .....[ ] ३९७| बृहत्कल्प० २०५०] पवनघनवृष्टियुक्ताश्चैत्रे...[बृहत्संहिता २१।२२] ४९३ | पिसुणा-ऽसब्भा-ऽसब्भूय-..... [ध्यानश० २०] ३१९ पवनाभ्रवृष्टिविद्युद्गर्जित-.....[ ] ४९३ | पुक्खरवरदीवड्ढं...[द्वीपसागर० १] २८१ पव्वज्जा सिक्खावय-..[बृहत्कल्प० ११३२, पुच्छाए कोणिए.....[दशवै० नि० ७८] ४४१ १४४२, विशेषाव० ७]
२८५ | पुढें रेणुं व तणुम्मि.....[विशेषाव० ३३७) १०७ पब्बयणं पबज्जा.... [पञ्चव० ५] २१८ | पुढं सुणेइ सदं .....[आव० नि० ५] ४३२ पब्वाविओ सिय त्ति,..[बृहत्कल्प० ५१९०] २७९ | पुठं सुणेइ सई..... [विशेषाव० ३३६] १०७ पशुसंज्ञासु च ३......[ ]
८०८ | पुट्ठापुट्ठो पढमो जत्ताइ..... पसंसइ..... [ध्यानश० १६] ३१९ व्यवहारभा० ४५६८]
४१० पाउंछणयं दुविहं .....(निशीथभा० ८१९] ५७९ | पुढवि १ जल २.... [विशेषाव० २७०३] २२५ पाएण देइ लोगो.....(निशीथभा० ४४२५] ५८५ | पुढवि-दग-अगणि-.....[दशवै० नि० ४६] ५११ पागारपरिक्खित्ता...[विमान० २४९] २४६ | पुढवी आउ वणस्सइ....[बृहत्सं० ३४२] ५२ पाणं सोवीरजवोदगाइ..पञ्चाशक० ५।२८] १८४ | पुढवी-आउ-वणस्सइ-....[बृहत्सं० १८०] ६२५ पाणवह-मुसावाए..... [आव० नि० १५५२] ६५० | पुणब्बसु-रोहिणि-चित्ता......[ ] ७६२ पाणिदयरिद्धिसंदरिसण-.....[ ]
५०८ | पुर्फ कलंबुयाए ..... [विशेषाव० २९९५] ५७३ पापजुगुप्सा तु तथा....[षोडशक० ४५] १९० | पुरिमा उज्जुजड्डा उ,....[उत्तरा०२३।२६] ३४१ पामिच्चं साहूणं अट्ठा......पञ्चा०१३।१२] ८०४ पुरिमाणं दुविसोज्झो उ,..[उत्तरा०२३।२७] ३४१ पायच्छित्तं विणओ ..... [दशवै० नि० ४८] ५११ | पुरिसपरंपरपत्तेण भरियविस्संभरेण .....[ ] ३५८ पाययसुत्तनिबद्धं को वा.... [ ] २८७ | पुरुष एवेदं निं.. [शुक्लयजु० ३१२] ४५८ पायालाण तिभागा..... [बृहत्क्षेत्र० २।१४] ३८७ | पुरुष एवेदं ग्निं ......[शुक्लयजु० ३१।२] ७२९ पारणगे आयाम पंचसु...[ ]
| पुवं अपासिऊणं पाए......[निशीथभा० ९७] ८३५ पारुष्यसङ्कोचनतोदशूल-.....[ ] ४५३ | पुव्वं कुग्गाहिया...[बृहत्कल्प० ५२२४] २८१ पारोक्खं ववहारं आगमओ.....
| पुवं पच्चक्खाणं ९ विज्जणुवायं ...[ ] ३३७ [व्यव० भा० ४०३७]
५४६ | पुव्वं सुयपरिकम्मिय- [विशेषाव० १६९] ८३ पावं छिंदइ जम्हा... [व्यवहारभा० ३५] ९५ | पुवकयकम्मसडणं तु...... [मूलाचारे ४४५] ७०३ पावफलस्स पगिट्ठस्स...[विशेषाव० १८९९] ४६ | पुबगहिएण छंदण......[पञ्चा० १२।३४] ८६०
० WWG
Page #549
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८
स्थानाङ्गसूत्रटीकाया: ग्रन्थान्तरेभ्य: साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः
उद्धृतः पाठः पृष्ठाकः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः पुबद्धस्स य मज्झे.... [बृहत्क्षेत्र० ३।६] १३९ बायर वड्डवराहे जो...... [ ] ८३६ पुब्बभववेरिएणं अहवा रागेण.....
| बायालीससहस्से... [द्वीपसागर० ७३] २८२ [बृहत्कल्प० ६२५८]
५६३ बायालीसेसणसंकडम्मि .....[ओघनि० ५४५, पुब्वमदिट्ठमसुयमचेइय-...[आव०नि० ९३९] ४८५ | । पञ्चव० ३५४] पुवस्स उ परिमाणं... बृहत्सं० ३१६] १४८ बारस १ दस २... [बृहत्कल्प० ६४७२] २८४ पुबा तिन्नि य मूलो मह.....[ ] ६२९ | बारसवासस्स तहा .....पञ्चव० ५८५] ५१९ पुब्बाइअणुक्कमसो .....(बृहत्क्षेत्र० २।२१] ३८८ | बारसविहम्मि वि तवे.... [दशवै०नि० १८६, पुवामहो उ उत्तरमुहो.... [पञ्चव० १३१] ९४| निशीथभा० ४२]
१०८ पुब्बिं पच्छा संथव... [पिण्डनि० ४०९, | बारसहिं जोयणेहिं...[आव० नि० ९५९] ३९
पञ्चा० १३।१९, पञ्चव० ७५५] २७० | बालसरीरं देहतरपुवं...[विशेषाव० १६१४] २७ पुवेण तिन्नि कूडा दाहिणओ...द्वीपसागर०६] ३७९ बाले वुड्ढे नपुंसे... [निशीथ० ३५०६] २७९ पुबोवट्ठपुराणे......[व्यव० १०।४६०५] २१९ | बावीस सहस्साइं ....[बृहत्क्षेत्र० ३१७] ३८२ पूर्णषोडशवर्षा स्त्री, ..... [ ]
५३९ | बासट्ठि सहस्साइं पंचेव...बृहत्क्षेत्र० ३३८] ३८२ पूर्वायामौदीच्यं प्रातीच्यं......[ ] ७११ | बाहल्लपुहत्तेहिं गंडी पोत्थो .....[ ] ३९७ पेच्छइ विवड्ढमाणं....[विशेषाव० ७३१] ६३३ | बिंट बाहिरपत्ता य...[प्रज्ञापना० १९१] २०६ पेढालपुत्ते अणगारे...... अनुत्तरोपपा० ] बितियं च दसं पत्तो.. तन्दुल० प्रकी० ४६] ८९२ पौषे समार्गशीर्षे .....बृहत्संहिता २१।१९] ४९३ |बितियपद मणाभोगा...(निशीथभा० २५२०] ५३७ प्रलापोऽनर्थकं वचः [अमरको० १५]
बीयपदमणप्पज्जे .....निशीथभा० ३७७९] ५४२ प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता .....[ ] ५५७ | बीयपयमणप्पज्जे ..... [निशीथभा० २३४९] ५४२ प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता....[ ] २३० | भण्णइ घेप्पइ य..... [विशेषाव० ९५७] ८ प्लुङ् गतौ [पा०धा० ९५८]
२१८ | भण्णइ जिणपूयाए...[पञ्चाशक० ४।४२] १८६ फलियं पहेणगाई ... [व्यव० ९।३८२१] २४९ भत्तपरिन्नाणसणं......[ ]
१६२ फाल्गुनमासे रूक्षश्चण्डः.....
भत्ती १ तह बहुमाणो.....[ ] ७०० [बृहत्संहिता २१२१] |
४९३ | भत्तीए जिणवराणं....[आव०नि० १११०] १४ बत्तीस अट्ठवीसा....बृहत्सं० ११७] २९१ | भत्तोसं दंताई.... [पञ्चाशक० ५।२९] १८४ बत्तीसं किर कवला.... [पिण्डनि० ६४२ २५१ | भदि कल्लाणसुहत्थो.... विशेषाव० ३४३९] २०८ बत्तीसा अडयाला.....बृहत्सं० २४७] ५४ | भद्रो मन्दो मृगश्चेति .....[ ]
३५४ बहिया वि होति..... [निशीथभा० २५१९] ५३७ | भन्नइ य तहोरालं वित्थरवंतं .....[ ] ५०८ बहुतरओ त्ति य तं ....विशेषाव० २२२१] ६६९ भयणपयाण चउण्हं... निशीथभा० २३४६] ५४१ बहुविग्घाई सेयाइं ..... विशेषाव० १२] ३ | भयमभिउग्गेण सीहमाई व [ ] ८३५ बहुसो बहुस्सुएहिं....व्यव० भा० ४५४२] ५४७ | भरणी स्वात्याग्नेयं ३......[ ] ८०७
___८७६
Page #550
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
२०९
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः भरनित्थरणसमत्था .....[आव० नि० ९४३] ४८५ भूमीए असंपत्तं पत्तं वा..... भरहं हेमवयं ति.... [बृहत्क्षेत्र० २३] ११४] [बृहत्कल्प० ६१८६]
५६२ भरहे मुहविक्खंभो..... बृहत्क्षेत्र० ३।१३] १३९ | भूमीए भद्दसालं...... बृहत्क्षेत्र० १।३१६] १४२ भवण १० वण ८......[बृहत्सं० १४३] ४९२ | भोयणकाले अमुगं......[ ]
६६३ भवणं कोसपमाणं ..... बृहत्क्षेत्र० २८८] ७४८ | मंगलपयत्थजाणयदेहो...विशेषाव० ४४] १७४ भवणं कोसपमाणं.... बृहत्क्षेत्र० २८८]
मंसंकुरु ब....विशेषाव० १७५६] ४७ भवति गमने नराणाम्-......[ ] ७११ | मइपुलं जेण सुयं .....[विशेषाव० ८६] भवति जुगुप्साप्रकृतिब्रीभत्सः
मच्छजुयले सहस्सं [बृहत्सं० ३०७] ८३३ [काव्यालं० १५५] ४७६ | मज्झणुभावं खेत्तं...[ ]
२१५ भवति स नामातीतः.....[ ] २६७ | मज्झा उत्तरपासे ..... [विमान० ३२] ६२८ भवसिद्धिओ उ भयवं ......[ ] ७८९ | मणगुत्तिमाइयाओ..... निशीथभा० ३७, भारेण वेदणा वा हिंडते.....
बृहत्कल्प०४४५१, उपदेशपद०६०४] १८९ व्यवहारभा० २५७४] ५६६ मणवइकाइयविणओ ......[ ]
७०१ भावपरिन्ना जाणण..... [आचाराङ्गनि० ३७]५४५ | मणसा वयसा काएण....[ ] १८१ भावमवि संलिहेइ....[पञ्चव० १५९३] १६१ | मणियंगेसु य भूसणवराई......[ ] ८९० भावस्स कारणं जह....(विशेषाव० ५४] १७६ | मणुयाण पुवकोडी..... [ ] भावेइ भावियप्पा.... [पञ्चव० १५९४] १६१ मतिसुयणाणावरणं....विशेषाव० २८९५] भावो विवक्षितक्रिया.... [ ] १७५ मत्तंगेसु य मज्जं......[ ] ८८९ भाषासमिति म .....[तत्त्वार्थभा० ९५] ५८७ | मद्दलसाराई तूराई [ ]
७२२ भिंगंगरुइलकज्जल-.....[द्वीपसागर० ३७] ३९३ | मयहर पगए बहुपक्खिए...... भिक्खायरियाइ... [आव०नि० १४३९] २७१ [आव० नि० १३६१] भिषग् १ द्रव्याण्यु २ पस्थाता.....[ ] ४५३ | महवय अणुव्वएहि य... [बन्धशतक० २३] १८७ भीउब्बिग्गनिलुक्को ....[उपदेशमाला० ४७८] ७१८ | महाहिमवंताओ वासहरपब्वयाओ..[सू० ८९] १४१ भुंजंति चित्तकम्मट्ठिया.....
महिलासहावो १... [बृहत्कल्प० ५१४४] २७८ निशीथभा० ४४२१]
५८५ महुलित्तनिसियकरवालधार..[प्रथमकर्म० २८] १६५ भुंजमाणस्स उक्खित्तं ,...[व्यव०९।३८३८] २५० माघे प्रबलो वायुस्तुषारकलुषद्युती...... भुत्तसेसं तु जं भूओ,...[व्यव०९।३८३०] २५१] [बृहत्संहिता २१।२०]
४९३. भूतस्य भाविनो वा....[ ] १७४ | माणसमेत्तो छउमत्थ-... [विशेषाव० ८७] ५९६ भूदगपंकप्पभवा चउरो..... [बृहत्सं० २९७] ६२५ माणुम्माणपमाणादि......[ ] ७९५ भूमिक्खयसाभावियसंभवओ...
माता भूत्वा दुहिता.....[प्रशम० १५६] ३२१ [विशेषाव० १७५७]
४८ | माया लोभकषायश्चेत्येतद्... [प्रशम० ३२] १५१
१६५
८२१
Page #551
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१०
स्थानाङ्गसूत्रटीकायाः ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः। उद्धृतः पाठः
पृष्ठाकः मायाऽवलेहि-..... [विशेषाव० २९९१] ३७२ | मोत्तूण सगमबाहं पढमाइ....[कर्मप्र०१८३] ३२८ माल्यम्लानिः कल्पवृक्ष-...[ ] २४५ मोसम्मि संखडीए....बृहत्कल्प० ६१४२] ६३५ मासमंतर तिन्नि दगलेवा.....
| मोहनीयक्षयं प्रति प्रस्थिताः..... [आव० नि० १२०३]
५३२ तत्त्वार्थभा० सिद्ध० ९।४८] ५७५ मासाई सत्तंता...[आव०भा०,
यः सम्प्राप्तो धनोत्सर्गः,.... [ ]
२५७ पञ्चाशक० १८।३] २५३ यत्तु तदर्थवियुक्तं.....[ ]
१७३ मासि मासि रजः.....[ ]
५३९ यदेजति यन्नैजति.....ईशावासस्य०५] मासे मासे य तवो ..[आव० नि० १५८५] ८५७ | यद्वस्तुनोऽभिधानं .....[ ]
१७३ मासेनोपचितं रक्तं .....[ ]
५३९ येऽतीत्य यान्ति मूढाः......[ ] ७११ मिच्छत्तं उड्डाहो विराहणा.....
| योगपरिणामो लेश्या,...[प्रज्ञापनावृ० १७।२] ५० बृहत्कल्प० ६१७०]
५६२ | योनि १ मृदुत्व २....[ ] १८० मिच्छत्तं जमुइन्नं तं..... (विशेषाव० ५३२] ८० | रत्नं निगद्यते तत् जातो.....[ ] ६८४ मिच्छत्तपडिक्कमणं....[आव० नि० १२६४] ५९८ | | रयणमया पुष्फफला...[बृहत्क्षेत्र० २८६] ११६ मिच्छत्ताइ न गच्छइ .....[ ] ५९८ | रयणस्स अवरपासे तिन्नि वि...... मिच्छादिट्ठी महारंभ-...[बन्धशतक० २०] १८८ द्वीपसागर० १७]
३७९ मुखरिस्स गोन्ननाम....बृहत्कल्प० ६३२७] ६३८ | रस-रुधिर-मांस-मेदो-.....[ ] मुहत्तद्धं तु जहन्ना.....[ ] ८१७ | रागहोसविरहिओ...(विशेषाव० ३४७७] ५५३ मूढनइयं सुयं...[आवश्यकनि०७६२,
| रागद्दोसुप्पत्ती....(निशीथभा० १२७] ३५७ विशेषाव० २२७९]
| रागेण व दोसेण..... [आव० भा० २४१] ५९८ मूत्रं वा कुरुते स्वप्ने......[ ] ७३२ | रागेण वा भएण वा अहवा..... मूलगुण-उत्तरगुणे ....[व्यवहारभा० ४१] ३३८]
३३८ [बृहत्कल्प० ६१९५] मूलप्रकृत्यभिन्नाः .....[ ] ४८३ | रागो उ होइ निस्सा .....[ ]
५४८ मूले पणनउइ सया चउणउइ......
रागो दोसो मइब्भंसो,...[ ]
२२८ बृहत्क्षेत्र० ३५८]
| रागो दोसो मोहो ...... उत्तरा० २८।२०] ८६६ मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय......[ ] ७३१ रागो द्वेषस्तथा....[ ]
२९४ मेरुओ पन्नासं..... बृहत्क्षेत्र० ३२१] ७५३ | राजा-ऽऽरक्ष-पुरोहित......[ ] ८५३ मेरुस्स उवरि चूला...... [ ] १४२ | राया आइच्चजसे ......[आव०नि० ३६३] ७३८ मेहनं १ खरता २....[ ] १८० | रिसहो य होइ पट्टो ..... [बृहत्सं० १७४] ६११ मोत्तुं अकम्मभूमगनर-..[उत्तरा०नि०२२०] १६० | रुंभइ स काययोगं ....[विशेषाव०३०६४] ३२३ मोत्तूण आउयं खलु .....[
४८३ | रुप्पि ८ महाहिमवंते...बृहत्क्षेत्र० १३३] १२१ मोत्तूण सगमबाहं पढमाए...कर्मप्र०१८३] ६४४ रुयगवरस्स उ मज्झे..[द्वीपसागर० ११२] २८२
५११
Page #552
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
२११
५५२
२१२
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः रुयगस्स उ उस्सेहो.द्वीपसागर० ११३] २८२ | वत्थगन्धमलङ्कारं [दशवै० २।२] ५३२ रूवंग दट्टेणं उम्माओ... बृहत्कल्प०६२६४] ५६३ वत्थु वसइ सहावे ....[विशेषाव० २०४२] २५८ रोसेण पडिनिवेसेण तहय .....[ ] ४८९ | वत्थुपयासणसूरो अइसय.....[ ] रौद्रः क्रोधप्रकृतिः [काव्यालं० १५।१३] ४७६ | वत्थे अप्पाणम्मि य.....[पञ्चव० २४०] ६१९ लक्खाइं तिन्नि दीहा.....बृहत्क्षेत्र० ३।४९] १३९ | वधश्चैव १ परिक्लेशो.....[ ] २५६ लज्जाए गारवेण य....[उत्तरा०नि० २१७] ७१८ | वयं पुण एवं.....[चन्द्रप्र० १०।२१] ७११ लखुवओगा भाविंदियं.....(विशेषाव० २९९७] ५७३ | वरं कूपशताद्वापी वरं..... नारद०१।२१२] ४३४ ललाटकेशः प्रभुत्वाय [ ] ७३३ | वलयामुह केऊए जूयग.....[बृहत्क्षेत्र०२।५] ३८६ लवणे उदगरसेसु य....[ ] २१२ | ववहरणं ववहरए स....[विशेषाव० २२१२] ६६९ लवणे कालसमुद्दे.....[बृहत्सं० ९०]
ववहारव ववहारं ......[ ] लहुया ल्हाईजणणं ...व्यवहारभा० ३१७] ७२२ | वस्तुन एव समानः......[ ] लाभमएण व मत्तो अहवा.....
वाचा पेशलया साधु..... [ ]
२५६ [बृहत्कल्प० ६२४३]
५६३ | वायणपडिसुणणाए...... [पञ्चा०१२।१५] ८५९ लिंगपुलाओ अन्नं .....[उत्तरा०भा० ४] ५७७ | वायुः समुत्थितो ......[ ]
६७५ लिंगेण लिंगिणीए.. [बृहत्कल्प० ५००८] २७७ | वायुः समुत्थितो नाभेः .....[ ] ६७४ लिंबंब जंबु कोसंब....[प्रज्ञा० १३] २०६ वायुः समुत्थितो नाभेः......[ ] लेप्पगहत्थी हत्थि त्ति...आव०नि० १४४७] १७४ | वायुः समुत्थितो नाभेरुरोहृदि......[ ] ६७५ लेवडमलेवडं वा ....[पञ्चव० २९८] ५१२ वायुना बहुशो भिन्ने,.....[ ]
४९४ लोगत्थनिबोहा वा...... [विशेषाव० २१८७] ६६८ वारिमज्झेऽवगाहित्ता......[ ] ८७९ लोगविभागाभावे....विशेषाव० १८५३] २४ | वारुणिवर खीरवरो घय.....बृहत्सं० ८८] ४९६ लोगस्सऽत्थि विवक्खो...[विशेषाव० १८५१] २३ | वारेयब्बो उवाएणं [दशवै० नि० ७०] ४३९ लोयाणुग्गहकारिसु ....(निशीथभा० ४४२३] ५८५ | वासं कोडीसहियं...आचा०नि०२७३।१] लोले तह लोलुए चेव [विमान० ३०] ६२७ | वासहरकुरुसु दहा.... बृहत्क्षेत्र० ३।३९] १४० वंजिज्जइ जेणऽत्थो....[विशेषाव० १९४] ८३ वासहरगिरी १२...... बृहत्क्षेत्र० ३।३८] १३९ वक्खारपब्बयाणं ..... [बृहत्क्षेत्र० २५९] ११९ | वासहरगिरी तेणं.... [बृहत्क्षेत्र० २६०] ११९ . वज्जंतायोज्जममंदबंदिसदं .....[ ] ३५७ | वासहरा वक्खारा....बृहत्क्षेत्र० ५।३८] १४३ वज्जरिसभनारायं पढमं ......बृहत्सं० १७३] ६११ विउलं वत्थुविसेसणमाणं...(विशेषाव० ७८५] ८३ वटं च वलयगं पि व... विमान० २४७] २४६ | विगला लभेज्ज विरइं ण....बृहत्सं०२९७] ४२९ वटै वट्टस्सुवरिं तंसं...[विमान० २४६] २४६ | | विग्गहगइमावण्णा १....[जीवसमासे ८२] १५९ वत्तणसंधणगहणे सुत्तत्थोभयगया....
विचारोऽर्थव्यञ्जन... तत्त्वार्थ० ९।४६] ३२१ [पञ्चा० १२।४३]
८६० | विजयाणं विक्खंभो ..... बृहत्क्षेत्र० ३७०] ३८१
६७५
Page #553
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानाङ्गसूत्रटीकायाः ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचि:
उद्धृतः पाठः
४०४
पृष्ठाङ्कः । उद्धृतः पाठः ५६३ | वेसमणवयणसंचोइया...... ३५८ [आव० नि० भा० ६८ ] ५६७ वैनयिकमतं विनयश्चेतो ....[ ६० वैषम्यसमभावेन ज्ञायमाना....[ २८० | वोसट्ठचत्तदेहो.... [ पञ्चाशक० १८६ ] ६१९ वोसिरइ मत्तगे जइ तो [
विज्जाए मंतेण य .....[ बृहत्कल्प ० ६२७०] विज्जाचरणं च तवो.... [ दशवै० नि० १९५] विज्जाणं परिवाडिं....[ व्यवहारभा० २६९७] विज्ञप्तिः फलदा पुंसाम् [ ] विणयाहीया विज्जा... [ बृहत्कल्प ० ५२०३] वितहकरणम्मि तुरियं ......[ पञ्चव० २४६] विदारयति यत् कर्म्म..... [
४६०
]
२१
२५३
६४९
५८ | व्यवहारः नार्योरन्योन्यं....[ काव्यालं० १२।५] ४७६
२९९ | व्यवहारस्तु तामेव......[
]
६७१
1
१६०
विदिसाउ दिसं पढमे ..... [ विद्यया राजपूज्यः...[ विपुलाए अपरिभोगे....[ व्यवहारभा०२५२७] विरोधिलिङ्ग-सङ्ख्यादि... !......[ ]
८५४
३२८
विविहा व विसिट्ठा वा .....[ ]
७३२
५८२ शंसु स्तुतौ [पा०धा० ७२८] ५६५ शतशः कृतोपकारो दत्तं ......[ ६७१ शब्दादीन् विषयान् प्राप्य..... [ ५०८ शब्देन महता भूमिर्यदा.......[ विषमाक्षरपादं वा [ ] ६७६ | शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं विषयव्याकुलचित्तो ६१७ शल्यं कामा विषं .....[ विसयग्गहणसमत्थं [विशेषाव० २९९६] ५७३ शीता वाताश्च.....[भद्रबाहु ० विहिगहियं विहिभुत्तं.....[ ओघनि० ५९२] ५५० शुद्धं द्रव्यं समाश्रित्य [ ८३५ शौड़ गर्वे [पा० धा० २९० ]
] ५८१
1
]
२६४
वीमंसा सेहमाईणं [ ]
वीरासणं सीहासणे....! [ बृहत्कल्प ० ५९५४ ] ५१४ श्रद्धालुतां श्राति [ तु वीर्यवन्तं सुतं सूते, [ ]
1 ५३९ | श्लेष इव वर्णबन्धस्य....[प्रशम० ३८] ५६७ | श्वेतत्वशीतत्वगुरुत्वकण्डू.....[ ]
]
वीसुं वसओ दप्पा....[ व्यवहारभा०२६९६] वुट्ठे वि दोणमेहे .....[विशेषाव० १४५८ ] वृषभाख्या ४ पैत्रादिः ३......[ वेव्वियसमुग्धाएणं समोहण ....[कल्पसूत्रे ] वेउव्विऽवाउडे वाइए....[ओघ ०नि० ७२२] वेयड्ढ ९ मालवंते ९ [ बृहत्क्षेत्र० १३२] वेयपुरिसो तिलिंगो....[विशेष व० २०९३] वेयवयणं न माणं...[ पञ्चव० १२७८] वेयावच्चं वावडभावो इह वेयावच्चकरो वा सीसो.....
१२ संकप्पो संरंभो.... [ व्यवहारभा० ४६ ] ८०७ संकमणं पि निहत्तीए णत्थि ....[कर्मप्र ० ६ । १] ७०३ संकिय १ मक्खिय... [पञ्चा० १३।२६, २३३ पञ्चव० ७६२, पिण्डनि० ५२०] २७० १२१ संकुचियवलीचम्मो [ तन्दुल० प्रकी० ५२] ८९३ १९२ संखदलविमलनिम्मल
[ द्वीपसागर० ५०] ३९५
१३ संखेज्जपयं वक्कं....[ विशेषाव ० २४०३]
२०
६२४ संगहणं संगिण्हइ संगिज्झते
२१२
[ व्यव० भा० ४५१८] वेयावच्चाईहिं पुव्वं [
1
1
]
[विशेषाव ० २२०३]
.....
[
]
1
१२।८ ]
J
J
५४७ | संगहुवग्गहनिरओ
[ पञ्चव० १३१६]
८३५ | संगहुवग्गहनिरओ... [ पञ्चव० १३१६]
पृष्ठाङ्कः
४९३
६७१
८८७
४८५
५०
४५३
१८३
३७७
६६८
६०३
२३७
Page #554
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
२१३
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः संघयणादणुरूवं एत्तो...[पञ्चव० १५७४] १६१ | सक्तः शब्दे हरिणः स्पर्श .....[ ] ५०२ संघाडीओ चउरो तत्थ.... बृहत्कल्प०४०८९] ३१६ | सगडुद्धिसंठियाओ...[आचाराङ्गनि० ४६] २२५ संजमकरणुज्जोया...बृहत्कल्प० ६४८५] ६४० | सग्गामपरग्गामा.....[पञ्चा० १३।१३] ८०४ संजमजोगविसन्ना..उत्तरा० नि० २१६] १६० | सचरित्तपच्छयावो.....[आव०नि० १०६२] ९४ संजमजोगे अब्भुट्ठियस्स.....
| सच्चं १ मोसं २.... [ ]
१८२ [आव० नि० ६८२]
६४९ | सच्चरणमणुट्ठाणं विहिपडिसेहाणुगं...[ ] २५६ संजमजोगे अब्भुट्ठियस्स....[पञ्चा०१२।१०] ८५९ | सच्चा हिया सतामिह संतो ..... संजोगसिद्धीए फलं.... [आव०नि० १०२] ६०
३१० संतिमे सुहुमा पाणा [दशवै० ६।२४] ५३५ / सच्चित्तं जमचित्तं ......[पञ्चा० १३।७] ८०३ संती कुंथू य अरो तिन्नि......
| सच्चित्ते अचिच्चि]त्तं १..... निशीथभा० २५९१]
| व्यवहारभा० १५१] संती कुंथू य अरो....[आव० नि० २२३] ३०१ / सज्जाइ तिहा गामो स ......[ ] ६७७ संथरणम्मि असुद्धं ....(निशीथभा० १६५०] १८६ | सज्जेण लब्भई वित्तिं.. संथार-पाय-दंडग-.....[ओघनि० ३६४] ५८० | स्थानाङ्ग० ५५३ ५४] संपुडगो दुगमाइफलगा .....[ ] ३९७ सज्झाया उवाओ......[पञ्चा० १२।३८] ८६० संभोइओ असुद्धं.... [निशीथचू० ] २३६ | सट्ठा मूलद्दहणे अज्झोयर...... संमुच्छिम १५ कम्मा...[विशेषाव० २७०४] २२५ पञ्चा० १३।१५]
८०४ संलापो भाषणं मिथः [अमरको० १६] ६९९ | स,ि नागसहस्सा.....[बृहत्क्षेत्र० २।२०] ३८७ संलिहिऊणऽप्पाणं एवं...
| सत्त पाणूणि से... जम्बू०२।२, [आचा० नि० २७३/२] | बृहत्सं०२०८]
१४८ संवरिए वि हु..... निशीथभा० ३७८१] ५४२ | सत्त य सुत्तनिबद्धा कह ......[ ] ६७५ संविग्गअन्नसंभोइयाण..... [पञ्चव० ५३८, | सत्तत्तरिं सयाई चोद्दस...[बृहत्क्षेत्र०५।४२] १४३ पञ्चा० ५।४१]
५१२ | सत्तमिं च दसं पत्तो....[तन्दुल०प्रकी० ५१] ८९३ संविग्गभावियाणं....निशीथभा० १६४९]
सत्तरस एक्कवीसाइं ......द्वीपसागर० १६६] ८३१ संसट्ठ १ मसंसट्ठा २......[ ] ६६० | सत्तरस एगवीसाई... [द्वीपसागर० २] २८१ संसट्ठमसंसद्रु]
५१३ | सत्तवहवेहबंधण ....[ध्यानश० १९] ३१९ संसारमणवयग्गं जाइ-.[बृहत्कल्प० ५०१०] २७७ | | सत्ताणउई सहस्सा.... बृहत्क्षेत्र० ३।४३] १३९ सक्कार १ भुट्ठाणे २......[ ] ७०० | सत्थेण सुतिक्खेण वि..[जम्बूद्वीपप्र०२।२८] २२७ सक्के देविंदे देवराया.....[जम्बूद्वीप० २।३५] ८५२ | सत्पर्ययेण नाशः......[ ]
८१७ सक्कोसजोयणं विगइनवय [ ] ८७९ | सत्यं शौचं तपः शौचं .....[ ] ५८२ सक्खं चिय संथारो......[विशेषाव० २३०८] ७०५ | सत्यपि च मानुषत्वे .....[ ] ६०७
Page #555
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४
स्थानाङ्गसूत्रटीकायाः ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः
५७७
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः | उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः सदसदविसेसणाओ...(विशेषाव० ११५] १५८ सम्म १ चरित्ते २ पढमे .....[ ] ६४८ सदिति भणियम्मि जम्हा...[विशेषाव०२२०७] ६६९ सम्मत्तदायगाणं....[उपदेशमाला० २६९] २०१ सदृशद्विराशिघातः त्रिशती] ८५६ | सम्मत्तनाणदंसणजुत्तो.... [ ]
२३६ सद्दाइइंदियत्थोवओगदोसा.....
| सम्मादयो व साव-....[विशेषाव० १७५५] ४८ [निशीथभा० २५१८]
५३७/सम्यगाराधनविपरीता प्रतिगता..... सद्दाइएसु रागं दोसं...[आव०नि० १४४०] २७१] [उत्तरा० चू०] सद्दाइविसयसाहणधण-.....[ध्यानश० २२] ३१९ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-.... [तत्त्वार्थ० ११] ७४ सद्दाउल वड्डेणं सद्देणालोय......[ ] ८३६ | सम्यग्दर्शन-ज्ञान-...... [तत्त्वार्थ० १।१] । ८५२ सद्देसु य भद्दय-पावएसु .....[ ] ३४९ | सम्यग्दर्शनशुद्धम् [तत्त्वार्थका०१] ८५२ सद्धर्मश्रवणादेव.... [धर्मबिन्दौ ३१] ७७ सयमेव दिसाबंधं काऊण ..... सद्रूपतानतिक्रान्तस्वस्वभावमिदं...... [ ] ६७१ व्यवहारभा० ४५८४]
४११ सनिच्छरसंवच्छरे अट्ठावीसविहे.....
| सरउग्गयससिनिम्मल-... [प्रथमकर्म० १०] १६४ [चन्द्रप्र० १०।२०।५८]
५८९ | सरीरे उवकरणे वा....[उत्तरा०भा० ५] ५७७ सपडिक्कमणो धम्मो......[आव०नि० १२५८, सरुषि नुतिः स्तुतिवचनं....[]
२६० बृहत्क० ६४२५] ८०५ | सर्वसावद्यविरतिः .....[ ]
३२८ सपरिग्गहेयराणं सोहम्मीसाण....बृहत्सं०१७] ७८० | सवणं सवइ स तेणं...विशेषाव० २२२७) ६७० सप्त स्नानानि प्रोक्तानि..... [ ] ५८२ | सवियारमत्थवंजणजोगंतरओ..... सप्तमे सप्तमे मासे,.....भद्रबाहु०१२।४] ४९३] [ध्यानश० ७८] समणं व माहणं वा [ ] ८५१ सव्वं असणं सवं च... समणेण सावएण य....विशेषाव०८७३] ८४| ___ [आव० नि० १५९१] समणोवासगस्स णं....[भगवती०८।६।२] १८५ | सव्वं च पएसतया भुज्जइ...... समणोवासयस्स णं भंते !..[भगवती०८।६।३] १८५/ समणोवासयस्स णं भंते !..[भगवती०८।६।१] १८७ | सबं चिय पइसमयं.... समतृण-मणि-मुक्तेभ्यो ...... [ ] ८५४ [विशेषाव० ५४४,३४३५] समत्रिराशिहतिः (त्रिशती]
८५६ सव्वंगियं तु गहणं करेण..... समनिद्धयाए बंधो न......[प्रज्ञापना० १९९] ८१८ [बृहत्कल्प० ६१९२]
५६२ समयातिसुहुमयाओ....[विशेषाव० २४३३] ३५ | सब्बगयं सम्मत्तं सुए..... [विशेषाव० २७५१] ५०० समयावलियमुहुत्ता...(विशेषाव० २०३६] ३४० | सबचरित्तं भस्सइ...बृहत्कल्प० ४९७३] २७६ समिई ५ गुत्ती ३....[ ] ३० | सबट्ठाणाई असासयाइं ..... समिओ णियमा गुत्तो... (निशीथभा० ३७, मरण० प्रकी० ५७५]
बृहत्कल्प० ४४५१, उपदेशपद०६०५] १८९ | सव्वत्थापडिबद्धो.... [पञ्चव० १६१३] १६२
३२४
Page #556
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
२१५
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः । उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः सव्वत्थेहावाया.....[विशेषाव० २८५] ६२१ | साध्येनानुगमो हेतोः....[प्रमाणसमु० ४।२] ४३३ सब्वत्थोवाइं अणंतगुणवड्ढिट्ठाणाणि,....[ ]३७६ | सापेक्षाणि च निरपेक्षाणि च .....[ ] ३२६ सव्वत्थोवो संजयस्स जहन्नओ ....[ ] ३७६ | सामन्नाओ विसेसो......विशेपाव० ३४] ६१ सवभिचारं हेतुं .....[दशवै० नि० ६८] ४३९ सामन्नत्थावग्गहणमोग्गहो. पाव० १८०] ४८६ सव्वमिणं सामाइयं ....[विशेषाव० १२६२] ५५४ | सामन्नमेत्तगहणं.....[विशेषाव० २८२] ६२१ सवरयणस्स अवरेण तिन्नि.
सामन्नाउ विसेसो ..... [विशेषाव० ३४] ६४२ द्वीपसागर० १८]
सामर्थ्य वर्णनायां च... [ ] सव्ववइजोगरोहं संखातीएहिं
सामाइयादिचरणस्स ......[ ] विशेषाव० ३०६२]
३२३ | सामादि-धातुवादादि-....[ ] २६३ सबस्स उम्हसिद्धं .....[ ] ५०८ | सायं १ उच्चागोयं....[ ]
२६ सव्वस्स छड्डण विगिंचणा..
| सारस्वता १-ऽऽदित्य...[तत्त्वार्थ० ४।२६] १०४ [बृहत्कल्प० ५८१३]
५६६ | सालंबणो पडतो वि ....[आव०नि०११८६] ५३३ सव्वाओ वि णईओ.....बृहत्क्षेत्र० ३।४०] १३९ | सावज्जजोगविरइ त्ति....[विशेषाव०१२६३] ५५४ सब्वे आसायंते.....बृहत्कल्प० ४९८३] २७६ | साहटु दो वि....पञ्चाशक० १८।२०] २५४ सवे चरित्तवंतो उ,...बृहत्कल्प० ६४५४] २८५ | साहुक्कारपुरोगं जह .....[दशवै० नि० ७४] ४४० सब्बे पाणा....[आचाराङ्ग० सू०७८ ] १२ | साहूणं वंदणेणं नासति......[ ] ८५२ सब्वे वटटविमाणा... विमान० २४८] २४६ सिंचति खरइ जमत्थं...विशेषाव. १३६८] ८५ सब्वे वि उसभकूडा ......[बृहत्क्षेत्र० १९३] ७५२ | सिज्जायरपिंडे या....बृहत्कल्प० ६३६१] ६३९ सब्वे वीससहस्सा बाहल्लेणं......
सिज्जायरपिंडे या १... बृहत्कल्प० ६३६१] २८३ बृहत्सं० २४२]
६६४ | सिद्धार्थं सिद्धसम्बन्धं...[मी० श्लो०वा० १७] १३ सब्बेसु पत्थडेसुं... [विमान० २४५] २४६ | सिय आहारए सिय... [प्रज्ञा० १९०५] । सब्बेसु सव्वघाइसु... (विशेषाव० २८९६] १६५ सियसिंधुरखंधगओ .....[ ]
३५७ सव्वो पमत्तजोगो समणस्स.......[ ] ८०३ | सीउण्हसहा भिक्खू ण य..... सब्बो वि नाण-...
व्यवहारभा० २५४०] सा नवहा दुह कीरइ.....[दशवै०नि० २४१] ७७९ | सीओसिणजोणीया.... सा सगडतित्तिरी वंसगम्मि....
जीवस० ४७, बृहत्सं० ३६०] २०५ दशवै० नि० ८९]
४४६ | सीमंतकप्पभो खलु ....[विमान० २०] ६२७ सागघयादावावो .... निशीथभा० १२३] ३५७ | सीमंतावत्तो पुण निरओ.... [विमान० २१] ६२७ सागरमेगं तिय सत्त.... [बृहत्सं० २३३] २१० | सीया य ४....[बृहक्षेत्र० १७२] १२८ साजीणे भुज्यते यत्तु......[ ] ७६९ | सीसाण कुणइ कह सो .....[ ] ६०३ साध्याविनाभुवो लिङ्गात्,.....[न्याया० ५] ४४७ | सीसावेढियपोत्तं ....[बृहत्कल्प० ६३६६] २८४
८९
Page #557
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१६
स्थानाङ्गसूत्रटीकायाः ग्रन्थान्तरेभ्यः साक्षितयोद्धृतानां पाठानामकारादिक्रमेण सूचिः
उद्धृतः पाठः पृष्ठाङ्कः। उद्धृतः पाठः
पृष्ठाङ्कः सीसे जइ आमते....बृहत्कल्प० १४५७] ६६० | से णूणं भंते !..भगवती० १३।१।२९-३०] २९६ सीहाइसु अभिभूओ....[पञ्चव० १६२०] १६१ से भिक्खू वा [दशवै० ४।१०] ८५१ सु औ जस् [पा० ४।१।२]
७३४ सेटिं विलग्गओ तं.....[विशेषाव० १२७८] ५५६ सुंके सणिंचरे [ ]
८५१ सेणाहिव भोइय मयहरे...आव०नि०१३५९] ८२१ सुत्तं १ पयं २....[विशेषाव० १००२] सेयं मे अहिन्जिउं .....[दशवै० ४।१] ८५१ सुत्तं सुत्ताणुगमो.....विशेषाव० १००१] १६/ सेसा उ दंडनीई...[आव०नि० १६९] ७७५ सुत्तत्थथिरीकरणं विणओ....[ओघनि०६०९] ६९३ | सेसा न होंति विगई .....[पञ्चव० ३७६] ३४७ सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो.... [ ] २३६ | सेहस्स तिन्नि भूमी...[व्यव० १०॥४६०४] २१९ सुत्तत्थे निम्माओ ..... (पञ्चव० १३१५] ६०३ | सेहस्स निरइयारं तित्थंतरसंकमे..... सुत्तत्थे निम्माओ.... [पञ्चव० १३१५] २३७ । विशेषाव० १२६९] |
५५५ सुत्तप्फासियनिज्जुत्ति-... [विशेषाव० १०१०] १६ | सो आणा-अणवत्थं.... निशीथभा० २३४८] ५४२ सुत्तस्स व अत्थस्स व..... निशीथ० ५४५९] ६५२ सो तम्मि चेव.....[व्यव० भा० ४५१७] ५४७ सुत्ते चउसमयाओ...विशेषणवती २३] २९९ | सो दाइ तवोकम्मं ....[आव० नि० १५८३] ८५७ सुद्धं च अलेवकडं.... [व्यव० ९।३८२०] २५० | सो दाइ तवोकम्मं ....[आव०नि० १५८१] ८५६ सुद्धो तह त्ति सम्मं ....[ ] ७२८ | सो पासत्थो दुविहो......[ ] ८८४ सुपसत्था विहयगई ३०....[ ]
सो पुण ईहावायावेक्खाउऽवग्गहो..... सुयणाणम्मि अभत्ती..... आव०नि० १४२२] विशेषाव० २८३] सुयवं तवस्सि परिवारवं च.....
सो पुण गच्छस्सऽट्ठो उ..... [व्यवहारभा० २५४३] । व्यवहारभा० ४५७१]
४१० सुलभा सुरलोयसिरी .....[ ] | सो ववहारविहिन्नू.... [व्यव०भा० ४४८९] ५४७ सुसमसुसमाणुभावं....[बृहत्क्षेत्र० ३०२] सो वि हु खओवसमओ...[विशेषाव०५७४] ८२ सुस्सूसणा अणासायणा.....[ ]
| सो संकमो त्ति भन्नइ ....[कर्मप्र० २।१] ३७७ सुह-दुक्ख-बंध-...विशेषाव० २४१७]
सो होइ अभिगमरुई...... [उत्तरा०२८।२३] ८६७ सुहदुक्खबहुसईयं कम्मक्खेत्तं .....[ ] ३२६ | सोउं भणइ सदोसं...... [विशेषाव० २५१५] ७०९ सूओ १ दणो २.....[ ]
सोणिय मंसं चम्म.....[आव०नि० १३६५] ८२० सूक्ष्मयुक्तिशतोपेतं ......[ ]
| सोणियमुत्तपुरीसे .....[आव० नि० १४१४] ८२० सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरो-......[ ]
सोमणस-मालवंता...बृहत्क्षेत्र० ५।४८] १४३ सूरकिरियाविसिट्ठो गोदोहाइकिरियासु ..... | सोमणसगंधमायण-...[ ] ७५६ [विशेषाव० २०३५]
३४० सोमणसाओ तीसं छच्च.... बृहत्क्षेत्र० ३४६] ३८२ सूर्यदृष्टं तु यद्.....[ ] ५८३ | सोलस उग्गमदोसा... [पिण्डनि० ४०३] २७० से केणऽट्टेणं भंते !..[भगवती०१२।४।४७] २६८ | सोलस दहिमुहसेला .....[ ]
३९५
७००
Page #558
--------------------------------------------------------------------------
________________
उद्धृतः पाठः
सोलसवासाईसु य .....[पञ्चव० ५८७] सोलहियं सयमेगं...[बृहत्क्षेत्र० ५/४९ ] सोहम्मे पंचवण्णा [[बृहत्सं० १३२] सोहम्मे पंचवन्ना....[ बृहत्सं० १३२] सोहम्मे पंचवन्ना...[ बृहत्सं ०१३२] सोही य नत्थि न वि......[ 1 सोऽणेगंतो जम्हा...[विशेषाव० १५६६ ] स्तन - केशवती स्त्री.... [ ]
स्तनादि-श्मश्रु-....
[
1
स्नु प्रश्रवणे [पा० धा० १०३८ ]
]
स्नेहरागापनयनं ९ [ स्मितं न लक्षण
.....
]
स्यादारम्भ उपक्रमः [अमरकोष० ६८९ ] स्याद्वादाय नमस्तस्मै......[
स्वस्थानाद्यत् परं .....[
]
]
हट्ठस्स अणवगल्लस्स,...
[ जम्बूद्वीपप्र० २।१, बृहत्सं० २०७] हयं नाणं कियाहीणं....[ आव०नि० १०१] हयमम्हाणं नाणं .....[ ] हरइ रयं जीवाणं बज्झं हरियाल मणोसिल . [ निशीथभा० ४८३४]
[
]
पञ्चमं परिशिष्टम् ।
पृष्ठाङ्कः | उद्धृतः पाठः ५१९ | हरिवासरम्मएसु.... [ बृहत्क्षेत्र० २५५] १४३ | हरिवासे इगवीसा....[ बृहत्क्षेत्र० ३१] ४९२ हा पुत्त पुत्त हा वच्छ !....[ २१३ हास १ प्पदोस २ वीमंसओ...... १४५ [विशेषाव ० ३००६] ६९२ | हिंसा-ऽनृत-चौर्योद्यत......[
1
1
१९ हिमवंत १ महाहिमवंत... [ बृहत्क्षेत्र० २४]
१८० हियए जिणाण आणा .....[ ]
१८० हीणभिन्नस्सरो दीणो
२१७
पृष्ठाङ्कः
१३०
११७
६९२
४८२
८५४
११४
४०२
७०२ [तन्दुल० की ० ५४ ]
२५६ | हेमवए पंचहिया....[ बृहत्क्षेत्र ० ३०]
२६४ | संतहयं गज्जंतमयगलं ...... [ 1
३७५ | होंति पडुप्पन्नविणासणम्मि...... २१ [दशवै० नि० ६९ ]
४३९
१६
५९८ | होइ कयत्थो वोत्तुं....[विशेषाव० १००९] होइ कयत्थो .... [ विशेषाव० १००९ ]
१०
१४८ होइ पुलाओ दुविहो [ उत्तरा० भा० २] ५७७ ६० होइ रसालू व ....[
]
२००
४०२ होज्जहु वसणं पत्तो.....[ निशीथ० ५४३५] ४५७ ५७९ होही पज्जोसवणा मम...[ आव० नि०१५८०] ८५६ ९० हस्सक्खराई मज्झेण...[ विशेषाव० ३०६८] ३२३
८९३
११७
३५७
Page #559
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठं परिशिष्टम् । आचार्यश्री अभयदेवसूरिविरचितायां स्थानाङ्गटीकायामुल्लिखितानां
[१] तीर्थकृदादीनां विशेषनाम्नां सूचिः विशेषनाम
पृष्ठाङ्कः | विशेषनाम पृष्ठाकः | विशेषनाम पृष्ठाङ्कः अग्निद्वीपायन ७४४ | उदायन ७४० कौण्डिन्य
७०७ अङ्गारमर्दक ७२ | उदायिनृपमारक ३०७,३११ | गङ्ग
७०८ अच्छुप्त [धनपति] ९०७ उदायी
७८५ गजसुकुमार
३०६ अजितसिंह सूरि
| उदुम्बर ८७२ गोत्रास
८७२ अज्झिनक ८७२ उदुम्बरदत्त ८७२ गोभद्र
८७७ अजू ८७४ ऋषभ ५३,५८,३११,४३५,५६१ गोशालक
३९६,७८७, अतिमुक्तक ८७८ ऋषभसेन
८७५,८९६-८९९ अदीनशत्रु ६८७ | एणेयक ७४० गोष्ठामाहिल
७०९ अनिलवेग ८८७ कण्डरीक
३११ गौतम ५३,२१८,२२८, अभग्नसेन ८७२,८७३ कनकरथ
८७२
२९०,४४१,६४२, अभयकुमार ४३७,४४१,८८७ | करकण्डु
७८७,८७२,८७८, अभिचन्द्र
कामदेव ३०७,८७४
८८०,८८१,८९८ अमम ७४४ कामध्वज ८७२ |चण्डकौशिक
४८२ अम्बड . ७८९ कार्तिक
८७६ चण्डप्रद्योत
४४१,७४० अर ३०१,८२६ | काल [सौकरिक] ४०३,४६९ | चन्दना
१८७,४४० अरिष्टनेमि ३०६,७४४,७८८ | कालसन्दीप
७८८ | चन्द्रगुप्त
४८२ अश्वमित्र ७०७ काशीवर्धन
७४१ | चन्द्रच्छाय
६८७,६८८ आदित्ययश ३११,७३८,८८७|काष्ठहारक
८१६ चन्द्रप्रभ आनन्द [श्रावक] ४१४,८७४ | कुंथु
३०१,८२६ चाणाक्य
४४१,४८२ आनन्द [साधु] ८९७ कुन्ती
८८७ |
चान्द्राकुल] ५१५,५१७ आर्यरक्षित २१८,४७३,७०९ | कुण्डकालि
८७५ चिलातिपुत्र
८६७ आर्यसुहस्ती ६६७ कुम्भ ६८९ | चुल्लशतक
८७५ आषाढ | कुम्भक ६८८,६९०,८९९ चेटक
७८८,८८१ इन्द्रभूति
कूलवालक ३११ |चोक्षा
६८९ उत्पला ७८६ | कृष्ण ७४४ | जमालि
७०४ उदक ७८७ | कोणिक
७८५ |जम्बूनामा
Page #560
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठं परिशिष्टम् ।
२१९
जय
७८६
विशेषनाम पृष्ठाङ्कः विशेषनाम पृष्ठाकः विशेषनाम
पृष्ठाङ्कः जम्बूस्वामी २९२,३०१,६६७ | नन्दिषेण ८१६,८७२ | प्रसन्नजित्
७८६ ८२५ | नमि ८७६ प्रिया
८८१ जराकुमार
नलदाम
४४१ | फल्गुरक्षित जरासन्ध ४३५ नाग
| बलभद्र जितशत्रु ६८७,६८९,८७२,८७६ नागदत्त
४३६ | बलश्री जिनदेव [गणि] ९०७ |नाभेय
| बहुपुत्रिका
८८१ तिष्यगुप्त
नारायण ६६७ | बाहुबलिन्
८८७ तेतलि
८७७ निन्नक ८७२ | बिभेल
८८१ तेन्दुक ७०४ | नेमिनाथ] ६६७,७३९,७४४ | बृहत्कुमारिका
४३७ त्रिशिला ८९९ |पद्म ६६७ | बृहस्पतिदत्त
८७२ दशार्णकूट ८७७ | पद्मप्रभ
५३० | ब्रह्मदत्त १६९,३०७,४०३, दशार्णभद्र ८७७,८७८ पद्मावती
६८८,७४४ | ४३३,४३४,४८३,६८७,८२५ दशाह ४३५ | पाटलिषण्ड
८७२ भद्रबाहु ८०७, ८८१ दारुक ७८८ |पाण्डव
८८७ भद्रा
७८५,८७२,८७७ दुर्बलिकापुष्पमित्र ७०९ | पार्श्वनाथ ५५४,६३०,८८०,९०६ | भरत
७९,३०५,३११, दुर्योधन ८७२ पास
४०३,५६१,६३०,८२५,८८७ दूयमान ८६२ | पिङ्गल ४४२ | भवदत्त
८१६ दृढप्रहारी ४०४,४४२ | पुष्कली
७८६ । भिंभिसार ५३० पुष्पचूला
भीम
८७२ देवदत्ता ८७४ | पुष्पदन्त ५३०|भूता
८८१ देवानन्द ८९९ पुष्पनन्दिन्
८७४ | मकायी द्रमक ४२४ पृथ्वीश्री ८७४ | मघवान्
८२५ द्रोणाचार्य ९०६ | पेढाल ७८८ मङ्खलि
८९७ द्वारका ४३६ | पोट्टशाल ७०८ | मणिनाग
७०८ द्वैपायन ४३६ | पोट्टिल
७८८ मथुरा ४३५,८२५,८२६,८७३ धनदेव ८७४ प्रतिबुद्धि ६८७,६८८,८१७ मधुमथन
७४४ धनमित्र ७०८ | प्रथमानुयोग
८४६ मरुदेवी ५३,५४,७९,३०६ धन्यक ८१६,८७६ | प्रदेशि
७४० मल्लदिन्न धन्वन्तरि ८७२ प्रभावती
६८८,८८१ मल्ली ३०१,६८७,६८८, ५३० प्रवचनदेवता
९०६ ६८९,६९०,८१७,८९९ नन्दिवर्धन ८७२ | प्रसन्नचन्द्र
७१ [आर्य]महागिरि ७०७,७०८
३०१
७८९
दृढरथ
८७२
m
नन्दा
Page #561
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२०
स्थानाङ्गसूत्रटीकायिमुल्लिखितानां विशेषनाम्नां सूचिः
विशेषनाम पृष्ठाकः विशेषनाम पृष्ठाक: विशेषनाम
पृष्ठाङ्कः महानाग ४३६ वर्धमान [सूरि] ९०६ श्रीक
८७२ महापद्म ८०३,८२५ वर्धमानस्वामि १,२९३,३०१, श्रीगुप्त
७०८ महाबल
६८७ ७०६,७८५,८६३, श्रीदाम
८७२ महायश
३११ ८७४,८७७,८९९ श्रीदेवी
८७८,८८० महावीर १,११,५८,१८७, वसु [आचार्य]
७०५ | श्रेणिक ४३७,४४०,८७६,८७७ २२८,२९२,७४०,४४०, वासुदेव
७८८,८८७ षडुलूक
६६७,७०८ ४९९,६१३,६४१,६९२, वासुपूज्य
६३० | संगमक
४८२ ७०४,७४०,७८५,७८९, विजय ८७२ संजय
७४० ८६२,८७२,८७४,८७७, विजयराज
८७४ |संती
३०१,८२६ ८९७-८९९,९०६ विजयवर्धमानक ८७२ | संभूतविजय
८८१ महाशतक
८७५ विन्ध्य ७०९ सगडाल
८८१ महेन्द्रसिंह
८८७ | विष्णु ३०६ सगर
८२५ महेश्वरदत्त ८७२ वीर १,५८ | सत्यकि
७८८ मागध ७४७ | वीरयशाः ७४० सद्दालपुत्र
८७५ मित्र
| वीराङ्गक
७४० | सनत्कुमार ३०६,८१६ मित्रश्री ७०६ वैरस्वामि ३११,६६७ | सर्वानुभूति
८९८ मुनिचन्द्र २१८,४७३ | वैरस्वामिमाता
८१६ | सहसोद्दाह-सहस्रोद्दाह ८७४ मुनिसुव्रत ६६७,८७६ वैरादि शाखा]
७३४ सागरचन्द्र
२१८,४७३ मृगग्राम ८७२ | शङ्ख ६८७,६८९,७४१,७८६ | सागरदत्त
८७२ मृगा ८७२ शतक ७८६,७८८ सिंह
७८७ ४४० शय्यंभव
३११,६६७ सिंहगिरि मृगापुत्र ८७२ शान्ति ६१३ सिंहसेन
८७४ मेतार्य २१८,४७३,८१६ शाखांजनी
८७३ सिंहस्थ यशोदेवगणि
९०६ शालिभद्र
| सिद्धार्थ यशोभद्र ३११ | शिव
७४० | सिद्धार्थराज रामा ५३० शिवभूति ६६७,८१६ सुग्रीव
५३० रेवती ७८७,८७५ शूलपाणि ८६२,८६३ सुज्येष्ठा
७८८ रोहगुप्त
७०८ शैलक ३०७ सुदर्शन
८८१ रोहीतक ८७४ शौरिक
८७२ | सुदर्शना
७०४,८७२ लक्ष्मी गृह] ७०७ शौरिकदत्त
८७२ | सुधर्मस्वामी
११,२९२ लेयिकापित ८७५ श्यामा
८७४ | सुनक्षत्र
८७६,८१८
मृगापति
३११
८१६
Page #562
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठं परिशिष्टम् ।
२२१
विशेषनाम
पृष्ठाङ्कः ४७४
सुन्दरीनन्द सुपार्श्व
७४०
पृष्ठाङ्क: विशेषनाम ८१६ सुभद्रा ७८५ |सुभूम
७८९ सुरादेव ८७४,८८० सुलसा
६८८ | सुव्रत
सुपाश्र्धा सुप्रतिष्ठ
पृष्ठाङ्कः विशेषनाम ४४०,८९७ सुहस्ति १६९,८२५ / सूर्यकाभ
८७५ | सोमिल ७८६,७८९ | स्थूलभद्र ६६७ हरिकेशबल
| हरिषेण
४८२,८८० २४३,३११,८८१
४०३ ८२५
सुबाहु
७३६
[२] ग्रन्थ-ग्रन्थकृदादीनां विशेषनाम्नां सूचिः अनुत्तरोपपातिक ७८८,८७६, | ऋग्वेद
२५६ | ठाण ८७७,८७८ औपपातिक
७८९ दशकालिक
८४ अनुप्रवाद ७०७ कप्प
|दशाश्रुतस्कन्ध १०९,८७१ अनुयोगद्वार ७३५,७४७ कर्मप्रकृतिसंग्रहणि
३७७ दस अनुयोगद्वारटीका
कल्पभाष्य ५१४ दीर्घदशा
८८० अन्तकृद्दशा ७४४,८७६,८७८ | कायचिकित्सा
द्रुमपत्रक
४४१ अभयदेवसूरि ६१,१७२,३०२, कालिक
८४ | द्विगृद्धिदशा
८८० ७६३,९०६ | कुमारभृत्य
द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसंग्रहणि ३७९, अभयदेवाचार्य ४९८,६०१, | कुवलयमाला
८८७
३९३ ६५०,७१२,८०९ कूरपर्वत
७७७ | नन्दी
८२० अरुणोपपात ८८२ |क्षारतन्त्र
नरकावलिका
८८० असमाधिस्थान ८७८ |क्षेत्रसमास
११७ नारद [स्मृतिकार] ४३४ आचार ५,८४,४९४,८८२ |गण्डिकानुयोग
८४६ निरयावलिका आचारटीका ४६० | गोविन्दवाचक
८१६ | नियुक्ति
५९८,६६२ आचारदशा ८७१,८७८ चन्द्रप्रज्ञप्ति २१४,५८९ | नियुक्तिगाथा ४३९,५९७ आचारप्रकल्प ५४६,५५८ चूर्णि निशीथ]
| निशीथ आयारपकप्प २ | चूर्णिकार [उत्तराध्ययन] ५७६ | नैपुणिक
७०७ आवश्यक ८४,१८२,८०३ जङ्गोली
७३६ | पञ्चदशस्थानोद्धारलेश
३९५ ८२५,८६० जम्बूद्वीपप्रकरण १३८,१४७ पुण्डरीक
४३८ आवश्यकव्यतिरिक्त ८४ | जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति २१३ प्रज्ञप्ति [व्याख्या] ६४५ उत्कालिक ८४ जिनेश्वर [सूरि]
| प्रज्ञापना ८९,२०६,३२९,४३१ उत्तराध्ययन ८४ ज्ञाता ६८७ | प्रज्ञापनावृत्तिकृत्
५० उपासकदशा ४१४,८७४ | ज्ञाताध्ययन
८७७ प्रज्ञापनाव्याख्या
१८१
८८१
Page #563
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२
स्थानाङ्गसूत्रटीकायिमुल्लिखितानां विशेषनाम्नां सूचिः
पृष्ठाकः
१८१
४९४
७३६
८८१
५१
३
m
०
६६२,७८७
१३३ १,२,४,५, ३०२,९०५
९०७
विशेषनाम पृष्ठाकः विशेषनाम
पृष्ठाकः विशेषनाम प्रतिक्रमणसूत्र ६४९ महाकल्पश्रुत
६५३ | रसायन प्रथमानुयोग ५३०,८४६ | राष्ट्रोत्पात
७७७ शतकटीका प्रश्नव्याकरणदशा ८७१ लेश्याध्ययन
८१ शल्यहत्या बुद्धिसागर [सूरि] ९०६ लोकश्री
६२९ शस्त्रपरिज्ञाध्ययन भगवती ३१,१८५,२५१, | लोकश्रीटीकाकृत् ७६२ शालाक्य २५२,२६७,२९१, लोकश्रीसूत्र
६२९ संक्षेपिकदशा २९९,३६४,८७६ वरुणोपपात
८८२ सङ्ग्रहणी भगवतीटीपनक ५१२ ववहार
समवाओ भगवतीपञ्चमशत
विपाकश्रुत ८७२,८७३ सम्मति सातमोद्देशकचूर्णि ५२७ | विमाननरकेन्द्रक ६२७ | सूत्रकृताङ्ग भाष्य
४८,५८,८५ विमानप्रविभक्ति ८८२ सूयगड भाष्य [उत्तराध्ययन] ५७७ | विमुक्त्यध्ययन
४९४ सूर्यप्रज्ञप्ति भाष्य (निशीथ] ५४२,८२५ विशेषणवती
२९९ स्थानाङ्ग भाष्यकार १६,६२२,६६८,८१९ व्यवहार
१०९,२२० भाष्यकृत
६० व्यवहारभाष्य २४९,५६७ स्थानाङ्गटीका भूतविद्या ७३६ | व्याख्याप्रज्ञप्ति
२१३ | स्थानाङ्गविवरण [३] देश-ग्राम-नगर-नद्यादीनां विशेषनाम्नां सूचिः
८२५ काम्पिल्यनगर ६८७,६८९,७०७ | छगलपुर अङ्ग ६८७
८२५,८२६ | जम्भिकग्राम अन्तरजी (पुरी) ७०८,७१० काशी
६८७,८२५ जम्बूद्वीप अपापा
कुणाल
६८७ | दशपुर अमरावती ८७७ कुणाला
८२५
| दशार्णपुर अस्थिग्राम ८६२ कुण्डपुर
८६२ द्वारकावती आमलकल्पा ७०६,७४०
६८७,८२५,८८ नन्दिपुर इन्द्रपुर ८७४ कोशल
८२५ | नागपुर उज्जयनी
७४० कौशाम्ब
७४४ नालन्दा उल्लुका [नदी] ७०८,७१० | कौशाम्बी ८२५,८२६, पञ्चाल उल्लुकातीर ७१०
८७३ | पञ्चालजनपद ऋषभपुर
७१० | चम्पा ४४०,६८७,६८८,७८९, पाटलिपुत्र काकन्दी ५३०,८७६
८२५,८२६,८७४ | पाण्डुमथुरा
९०५
अंग
७०९,७१०
८७७ ७४४ ८७२
कुरु
३३ ३ ३ ३ ६ ३ ६ ३ ।।
८२५
८२५ ६८७ ७८५ ७४४
Page #564
--------------------------------------------------------------------------
________________
षष्ठं परिशिष्टम् ।
२२३
७२
पृष्ठाङ्कः
७०६
६८७ ६८७,६८८,
८२५
७४०
८६२
विशेषनाम
पृष्ठाड्कः विशेषनाम पुरिमताल
राजगृहबाहिरिका पोलास
७०६ वणिजग्राम पोलासपुर
८७५,८७८ | वत्स भद्दिलपुर
| वाणिजग्राम भूतगृह
७०८ | वाराणसी मध्यमा मयूरक महातपस्तीरप्रभ
७०८ मालुककच्छ
७८७ विजयपुर मिथिला ६८८,६८९,७०७, | वीतभय
८२५,८२६,८९९ |वीतभयनगर राजगृह
४३७,७०५, वीतशोका ७०७,७८६, शरवण ७८९,८२६, श्रावस्ती ८७५,८८१
पृष्ठाकः विशेषनाम
७८७ | श्वेतवी ८७२ सलिलावती ८२५ | साकेत
८७४ ६८७,६८९, | सिंहपुर ७४१,८२५, सिन्धुसौवीर ८२६,८७५, सूरसेन ८८०,८८१ हस्तिद्वीप
૮૭૨ हस्तिनागपुर ७४० ८८१ ६८७
८९७ ६८७,८२५, ८७५,८९७
८२५
७८७ ६८७,६८९,७४० ७८८,८२५,८२६,
८७२,८७६
Page #565
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४
सप्तमं परिशिष्टम् सटीकश्रीस्थानाङ्गसूत्रसम्पादनोपयुक्तग्रन्थसंकेतादिसूचिः । ग्रन्थनाम
प्रकाशकादि अनुयोगद्वारसूत्रम्
श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई अमरकोषः आचाराङ्गसूत्रम्
श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई आचाराङ्गसूत्रवृत्तिः आचाराङ्गनियुक्तिः (नियुक्तिसंग्रहान्तर्गता) आवश्यकचूर्णिः
श्री ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम आवश्यकनियुक्तिः (नियुक्तिसंग्रहान्तर्गता) आवश्यकभाष्यम् आवश्यकसूत्रस्य मलयगिरिसूरिविरचिता वृत्तिः आवश्यकसूत्रस्य हारिभद्री वृत्तिः उत्तराध्ययनभाष्यम् (नियुक्तिपञ्चकान्तर्गतम्) उत्तराध्ययनसूत्रम् उत्तराध्ययनसूत्रवृत्तिः उपदेशमाला सिद्धर्षिगणिविरचितटीकासहिता उपदेशपदम् ओघनियुक्तिः (नियुक्तिसंग्रहान्तर्गता) ओघनियुक्तिटीका (द्रोणाचार्यविरचिता) कथाकोषप्रकरणम्
भारतीय विद्याभवन, मुम्बई कर्मप्रकृतिः मलयगिरिसूरिविरचितवृत्तिसहिता कल्पसूत्रम् गणिततिलकम् (सिंहसूरिविरचितटीकासहितम् ) Oriental Institute, BARODA, 1937 गणितपादः आर्यभटीयः भास्कराचार्यविरचितटीकासहितः Indian National Science Academy,
New Delhi 1976 गणितसारसंग्रहः महावीराचार्यविरचितः जीवराज जैन ग्रन्थमाला, जैन संस्कृतिसंरक्षक संघ, सोलापुर,
ई.स. १९६३ चन्द्रप्रज्ञप्तिः जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः
Page #566
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थनाम
जीवसमासप्रकरणम्
जीवाभिगमसूत्रम्
तत्त्वसंग्रहः पञ्जिकाटीकासहितः
तत्त्वार्थसूत्रम्
तत्त्वार्थभाष्यम्
तत्त्वार्थराजवार्तिकम्
तत्त्वार्थसूत्रस्य सिद्धसेनगणिविरचिता वृत्तिः त्रिशती श्रीधरविरचिता (हस्तलिखिता )
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् दशवैकालिकसूत्र-निर्युक्ति - हारिभद्री वृत्तिः दशाश्रुतस्कन्धः निर्युक्तिः चूर्णिश्च
दशवैकालिकनिर्युक्तिः (निर्युक्तिसंग्रहान्तर्गता )
द्वीपसागरप्रज्ञप्तिः
नन्दीसूत्रम् निर्युक्तिपञ्चकम्
निर्युक्तिसंग्रहः
निशीथभाष्यम्, निशीथचूर्णिः न्यायबिन्दुः (धर्मोत्तरटीकासहितः) न्यायावतारः सिद्धर्षिगणिविरचितवृत्तिसहितः पञ्चवस्तुकम् (स्वोपज्ञटीकासहितम्) पञ्चाशकम् (अभयदेवसूरिविरचितटीकासहितम्) परिशिष्टपर्व
पाक्षिकसूत्रम्
पा० = पाणिनीयव्याकरणम्
पा० धा० = पाणिनीयो धातुपाठः
पा० सि०
पाणिनीयसिद्धान्तकौमुदी पिण्डनिर्युक्तिः (निर्युक्तिसंग्रहान्तर्गता) प्रकीर्णक (पइन्नयसुत्ताइं)
=
प्रज्ञापनासूत्रम् प्रज्ञापनासूत्रस्य हारिभद्री वृत्तिः प्रशमरतिप्रकरणम् (टीकासहितम्)
सप्तमं परिशिष्टम्
प्रकाशकादि
बौद्धभारती, वाराणसी
भारतीयज्ञानपीठ, दिल्ही, वाराणसी, ई.स. १९९६
श्री कैलाससागरसूरि-ज्ञानमंदिर,
श्री महावीर आराधना केन्द्र, कोबा
२२५
जैन विश्व भारती, लाडनूं
श्री हर्षपुष्पामृतजैन ग्रन्थमाला, लाखाबावल सन्मतिज्ञानपीठ, आगरा
जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स, मुंबई इ.स.१९२८
श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई
Page #567
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६
ग्रन्थनाम
सटीक श्रीस्थानाङ्गसूत्रसम्पादनोपयुक्तग्रन्थसंकेतादिसूचिः
प्राकृतव्याकरणस्वोपज्ञटीका (हेमचन्द्रसूरिविरचिता) बन्धशतकम् (चूर्णिसहितम्)
बृहत्कल्पसूत्रभाष्यम्
बृहत्क्षेत्रसमासः (मलयगिरिसूरिविरचितवृत्तिसहितः ) बृहत्संग्रहणी ( मलयगिरिविरचितवृत्त्या सहिता) बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रम्
भगवतीसूत्रम्
भगवतीसूत्रवृत्तिः (अभयदेवसूरिविरचिता)
मीमांसाश्लोकवार्तिकम् (न्यायरत्नाकरव्याख्यासहितम्) मूलाचारः वट्टकेरविरचितः वसुनन्दिश्रमणविरचितटीकासहितः
वाराही बृहत्संहिता ( भट्टोत्पलविरचितविवृतिसहिता) विशेषणवती
विमान - नरकेन्द्रकप्रकरणम् टीका च
व्यवहारभाष्यम्
श्रावकप्रज्ञप्तिः (टीकासहिता)
षोडशकप्रकरणम् (टीकासहिता)
संबोधप्रकरणम्
(देवेन्द्र नरकेन्द्रप्रकरणम्) विशेषावश्यकभाष्यम् (मलधारि श्री हेमचन्द्रसूरिविरचितवृत्तिसहितम्)
समवायाङ्गसूत्रम्
सम्मतितर्कः (अभयदेवसूरिविरचितवृत्तिसहितः) सिद्धहेमशब्दानुशासनम् (बृहद्वृत्तिसहितम्) सिद्धान्तशिरोमणि ( लीलावती)
सूत्रकृताङ्गनिर्युक्तिः
सूर्यप्रज्ञप्तिः (मलयगिरिसूरिविरचितटीकासहिता) हारिभद्राष्टकप्रकरणम् (टीकासहितम्)
प्रकाशकादि
है० धा० = हैमधातुपाठः
अपरे संकेताः
रत्ना पब्लिकेशन्स, वाराणसी
भारतवर्षीय अनेकान्तविद्वत्परिषद्, ई. स. १९९६ सम्पूर्णानन्दसंस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी
जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर
विश्वभारती, लाडनूं, राजस्थान
JAPAN मध्ये पुनर्मुद्रितः
चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, ई.स. २००१
गा० = गाथा | भा० =
भाष्यम् । टि० = टिप्पनम् । टी०
टीका । पृ०
पं० = पङ्क्तिः । वृ० = वृत्तिः । व्या० = व्याख्या । सू० = सूत्रम् |
=
=
पृष्ठम् ।
Page #568
--------------------------------------------------------------------------
________________
bum 2 2
पृ०
२७
१५
२८१
३१४
३२८
३२८
३३४
३३७
३४४
३४५
३४९
३७०
g
७
૨૨
१०
७
२
6)
पं०
१३
१५
१८
पृ०
५९
८६
९१
१०६
[भाग-२
પ્રસ્તાવના]
૨
૨૫
[हिन्दी प्रस्तावना ]
१
२८
२५
२६
११
४
२०
२
१२
७
१२
अष्टमं परिशिष्टम्
सटीकस्य अनुयोगद्वारसूत्रस्य शुद्धि - वृद्धिपत्रकम्
अशुद्धम्
૩૧૩ સૂત્રો
(ગુજ૰ પ્રસ્તા૰) પ્રાચનતમ
[
1
निष्पन्ने
आरम्भमाणा
सटीकस्य स्थानाङ्गसूत्रस्य शुद्धि - वृद्धिपत्रकम्
शुद्धम्
'क्खत्ते
अशुद्धम्
क्खते
संयबुद्ध
बाहिए
परिपडंति
અદ્ભૂત
प्रथम विभाग
सगमवाहं
[
]
वाउकुमारा वियत्तकिच्चे
डिसेवी
फुडा
इदं अप
शुद्धम्
૩૧૨ સૂત્રો પ્રાચીનતમ
[ जीतक० गा०२२, आव०नि०१५४८]
• निप्पन्ने
आरभमाणा
सयंबुद्ध
बाहिरए
परिसडंति
અદ્ભુત
द्वितीयविभाग
समबाह
[कर्मप्र० १२८३ ]
वायकुमारा
वियत्तकिच्चपायच्छित्ते
'पडिसेवी,
फुडा,
इंदियअप
गोमुत्
२२७
Page #569
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८
३७०
३७६
३९२
४३२
४३२
४३२
४३२
४३३
४८२
४८७
४८८
५०५
५४२
५५१
५५४
५५४
५५७
५७३
५७३
६३१
६४५
१२
१९
१८
४
५
६
७
११
१६
१७
९
४
१९
६
८
१०
१
१९
२२
१०
a
९
हणित
असंखेन
सुंदसणा
'वग्गहतात
'प्रस्तात्तय
प्रशाग्रेण
प्रदेशत्वात्
अंतोवणीते
क्षण
विध्वंसात्
चउआगइया
'कन्दर
तजंहा
वयमाणे
नानात्वे
'तीर्थष्वना
सप्तश
शुद्धि-वृद्धिपत्रकम्
'मुण्डनाच्छो'
पन्नता,
रूप्पी
णं भते ?
असंखेज्न
सुदंसणा
'वग्गता
'प्रस्तावात्तस्य
प्रदेशाग्रेण
'प्रदेशत्वात् ।
अत्तोवणीते
संरक्षण
विध्वंसात्
चउआगइया,
'कंदर
तंजहा
वयमाणे,
नानात्वं
'तीर्थोवन'
सप्तदश
पन्नत्ता,
रुप्पी
णं भंते ।
Page #570
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमं परिशिष्टम् - चित्राणि [सू० १००, २९९, ६४१] मेरुपर्वतस्य स्वरूपम्
मेरु पर्वत और गतिशिल ज्योतिषचक्र
lal अभिषेक
+ शनि ग्रह ९०० योजन
पंडकवन... 4+ नक्षत्र ८८४ योजन
AAP शिला + मंगळ ग्रह ८९७ योजन चंद्र ८८० योजन
+ गुरु ग्रह ८९४ योजन ॐ सूर्य ८०० योजन
* शुक्र ग्रह ८९१ योजन * तारा ७९० योजन ...---- ----... बुध ग्रह ८८८ योजन
१००० योजन
३६००० योजन
सोमनस मे वन
हो
मेखला
AWINAUMity
TA
AIMMMITRA
HTIme
AIIMS
अभिजीत
MImmM
WIMMITIAMIAS AUDPURX
L4NTIRAM
Kura
MATALA
INAM
भद्रशाल वन
भद्रशाल वन ____EHATI
MiAUTAM भूमिस्थाने १०००० योजन विस्तार RANE
१००० योजन | ५०० योजन
पहला कांड कंद विभाग
१००९०. योजन १० भाग
Page #571
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३०
नवमं परिशिष्टम् - चित्राणि
[सू० ५५५]
जम्बूद्वीपस्य सामान्येन स्वरूपम्
Shipura PhPANE
E
YEAR
Pph
paye
निषध पर्वत
महाहिमयंत प.
लघहिमवंत प.
ARE
AN
दीर्घवेताट्य प.
Page #572
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ४४, ६३७, ६३९]
जंबूद्वीप
१ लाख योजन
BEE
अनुवेलं घर --
७
महाक्षेत्र
WWWW
h-spe
LORD TALE
नवमं परिशिष्टम् - चित्राणि
जम्बूद्वीपस्य विशेषतः स्वरूपम्
दानी
हरिवर्ष क्षेत्र
क्षेत्र
AA
उत्तर अध्याति BICHT LIZAR
सरका
खंड-३ उत्तर
खंड-२
-sp
2A-Sp
RISHICLE
(मरू
इतिभिरणे ह
महापद्मद्रह
प्रभास
पद्मद्रह
खेड-४ कूट तामस्ता
प्रपाला
भरत क्षेत्र
शब्दापाती
खंड-१ अयोध्या
वरदाम मागध
पाताल
T
Www
-Se
खंड-६
भरत खंड- ५
1539
लवण समुद्र
२ लाख योजन
रोहिता नदी
သ
२३१
......
कुलगिरि
Page #573
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२
नवमं परिशिष्टम् - चित्राणि
[सू० ८०-१०४, १२२, १८९, ३०४-०६, ४३४, ५२२, ५५५]
अर्धतृतीयद्वीप-समुद्राणां स्वरूपम्
- ACHAR
APRIMANAPall
IANum from
HARMA,EADI
-na
IHARAN
EbasTऊद
Pिra-1 12
NE92
htt
SH
hesh
(Pasthi
लि
Detc
KONOME6F
SHALIFAls
AAभावना
PRAK
(24TAAN
ASYA RAVAN
THAR AMERA
IAMERI
TOPATI
Mhata
XBA
NPHENNAL
२.JANCCanada
ALLPri
TIME y.ic EEWANAPNE
HAPTERPRAVELESEAN
GOAAAAA
SAN SPEENA
मा
AKAALAN
NTERT
Nepartiy CIT
IRTH
NEARA
IRMERE.
N स3EEKS
METERS
COMHD
REASON
PRACTETTE
NEMALEARNEAACADKA
ETRESSES
KAM
AIIANAg-1900
SECRET
SALAAMAAL
TIMDH
TOSIFS DE
सीमा
A AVVENA
MARGIN
HER
१TSAJ
Pre/ABLEM PWNANNVEVIATEK di/E
nricPBECAMERAPY
METATURE
CONVARSEX
as
alla
ARU
बाrATAL
HOSE0
SENTulsiOS
RNA
IPIMea
SETHAANIF/REATENA
.
I
.
..
BABA
:.
:
:
COM TRALIA
TAM
ARVIEWS
A/36/231
एब
CircIRO
kPLEATI
RAMA
PIST
AAP
EARN Idia
HOMSMEDY
Is
Sm
(a
)
AAPVrism SEAR
HOMHER
Snydपहा
FFAIR PRADIAAPRIVAlla and KAMASIK
MayTETbpm
१२
:
pyAshp
उतनाब
KIMEDNAAFlkata MAHARAARI
HELL
REERS
INDhas
EM
म
Page #574
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३३
नवमं परिशिष्टम् - चित्राणि जम्बूद्वीपत: नन्दीश्वरपर्यन्तानां द्वीप-समुद्राणां स्वरूपम्
[सू० ३०७]
जंबूद्वीप से नंदीश्वर
CASH
शाश्वत चैत्य =
44P
Gतिकर
मद
नंदीश्वर द्वीप
जिन मंदिर
काका
समर
घृतवर समुद्र
घी जैसा स्वाद
जावर समुद्र
निखार स्व
करवरसमुह
मा स्वा
लाध समुद्र
लक्षण समत
वार
रो स्वाद
का अंजन ति गिरि
वाद.BERS
S"
द्वीप
१लाख योजन
ME840
FREE
REF
यातकी खंडीयन THESE के पुष्करवर द्वीप
NASEER
४ वारुणीवर नव
बावन
(१) ऋषमानन (२) चंद्रानन (३) वर्धमान
EHTRIYA
शाश्वत चैत्य
४ अंजन गिरि
(४) वारिषेण
१६ दधि मुख
३२ रतिकर
बाप-८
नंदीश्वर शिव समुद्र बाद में असंख्य द्वीप समुद है।
जंबू द्वीप से
उत्तरोत्तर समुद्र और द्वीप द्विगुण माप से जानना।
Page #575
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३४ [सू० २३२]
नवमं परिशिष्टम् - चित्राणि चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्य स्वरूपम्
जैन
दजौनसार विश्वदर्शन-१४ राजलोक- अनंत |
अनंत
अलोक लोकाग्रभाग
अनंत - अनंत सिद्ध भगवंत - सिद्धशिला - ५ अनुत्तर -
नव ग्रैवेयक १२ वैमानिक देवलोक
का का
वं
HE EFFE
TES
नव लोकान्तिक
अनंत
. ३ किल्बिषिक अलाकाकाश काचर अचर ज्यातिष वाणव्यंतर व्यंतर
मेरु पर्वत १० भवनपति
असंख्य द्वीप समुद्रो
-नरक १ १५ परमाधामी उल प्रभा तिर्छा १० तिर्यग् जुंभक
शर्करा प्रभा लोक घनोदधिवलय
सारस्पनरक२ घनवातवलय तनवातवलय
वालुका प्रभा
या-नरक ३
21.4
RESS
TETTE
___
पंक प्रभा
नरक ४
धूम प्रभा
नरक ५
तमः प्रभा १११९५५
TIT
x4
T६ |
अलोक
अलोक
त्रसनाडी
Page #576
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३५
नवमं परिशिष्टम् - चित्राणि अर्धतृतीयद्वीप-समुद्रेषु चन्द्र-सूर्यस्वरूपम्
[सू० १०५]
२१ सूर्यो
२ सूर्यो
२१चन्द्रा
१२-धन्दा
२१ चन्द्रो
लिवणसम
तलाव
२ सूर्यो
C
कालोटधिसम
२१ सूर्यो
MARAM
Page #577
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३६ [सू० २००,२२४] घनोदधि-घनवात-तनुवातसमेताया: त्रिकाण्डमय्या रत्नप्रभापृथिव्याः स्वरूपम्
- त्रिकाण्डमय - रत्नप्रभा पृथ्वीसंपूर्णमान
१ स्वरकाण्ड-१६६.यो. १लाख८०ह.योजन
२ पंफकाए-८४ ह.यो.
३ जलकाण-८० ह.यो. यो, यो यो. Polynts
द्वीप
समुद्रा
असरख्या
यो. यो.यो. TITH
--
.
.
।
orYwI020-24K
LYR
--
-
-
-
पहेलो खरकाण्ड
-
-
-
।
बीजो जलकाण्ड । पंककाण्ड
/
-
-
आ
-
-
-
-
-
२०६।---८०है.यो. जाडाई-74-८४ ह.योजन उच्च
योजन असंख्य असंख्य २० यो. जाडाई
-
.
घनोदधि वलय
-
aanti
घनवात वलय
तनवात बलय
का
का
आ
का
Page #578
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३७
नवमं परिशिष्टम् - चित्राणि छत्रातिच्छत्राकारेणावस्थितानां सप्तानां नारकपृथ्वीनां स्वरूपम्
[सू० ५४६]
- छत्रानिछत्र आकारे सात मारकी नुं चित्र
---समभूतला पृथ्यो रत्नप्रभा नारक १८००० यो.
प्रतर-१३३०लाव नरावास
..---लोकमध्य शराप्रमाना. १३२०००यो.
प्रतर-११२५लाखन.
१५लारखन. प्रतर
वालुकाप्रभा ना. १२८००० यो.
१०लारषन. प्रतर-3
-पकप्रभा ना.
१२०००० यो.
अधोलोक मध्य
३लाखन. प्रतर-५
-धमप्रभा ना.
११८००० यो.
वम्प्रमाना. ११६००० यो.
१९९९५ न. प्रतर-३
एनरकावास प्रतर-1-/
-तमस्तमप्रभा १०८०००यो.
अपरनण मातम प्रभा
Page #579
--------------------------------------------------------------------------
________________
[सू० ६२४]
अष्टौ कृष्णराजयः
. अष्टकृष्णराजा
पूर्वदिशा
२३८
ई
TWITTANAMAI RAMANA२ अर्चिमाली
सप्रतिष्राभ
वैरोचन ३
रिष्टाभ
नवमं परिशिष्टम् - चित्राणि
-शुक्राभ
प्रभंकर
सुराभ६
चन्द्राभ
.
प.
Page #580
--------------------------------------------------------------------------
________________
me20 apneu
N
aspasterpiedopanNS
Pers
om ..T
a-ias- S
HEA
apeopARAT
STONENTA
R Ge 2 00500AMARPETES9304
m storecipe V INAASPRINColoraya TRENA A RLAHINDISENSE E
NSE
MEROR635
.
isio
पर ७ अंतरद्वीपो
०० योजन लांबी पर्वतनी दाठा उपर 9
(Hepbluble
1200
_002002
#
#
006006
९०० यो.
lob
LE
५०० (७००) ५०० (१००) ६०० ६००
०००
७००यो.
६००
[सू० ६३१,६९८] लवणसमुद्रे एकस्य दंष्ट्रायां विद्यमानानां सप्तानाम् अन्तरद्वीपानां स्वरूपम् २३९
पर्वतनी याम अने अंतरटीपनी स्थितिनुं सप्रमाण दर्शन
Heam
SANNY
PORNORERERNA
SAR
M
AGES
ARTER
MAHunt
arwadi
TA
Som
WER
HAMAR
Mewalasa
PANKAR
UERARMe
SINH
ANAMAAR
OS
h waase I NSAREER
PORN
M
INION
लघु हिमवत गिरि
जर Natoday. CHANNORAT SARAN
S
RAN
ENA
WATE
-
MAR XE MORRH
hindinews HTRAREMAIN
SHARMA
RAMEREKARE CENTRENT या ARRESTER
PRESEAsaram
MEDIA
REAKKKA
watcER
Page #581
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४०
नवमं परिशिष्टम् - चित्राणि
दोप
1217LAPा
लवणसमुद्रे विद्यमानानां षट्पञ्चाशत अन्तरद्वीपानां स्वरूपम्
[सू० ६३१, ६९८]
RAANEEYEYPRE
hिin
Page #582
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४१
नवमं परिशिष्टम् - चित्राणि उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपस्य एकस्य कालचक्रस्य मानम्
[सू० ४०, १४५, ४९२]
-
- ९०
--- कालचक्र
>
म---
प
को
A
डा
_-- कालचक्र ८
Fory
को डी
सक्षम | दधम
२१
मा ग रोक
शरतार हजार
जार
Rabelam
१०।९
अवसापणा
ती
PRMANS
NE
- -
E
-
डा -.
there PER KARNE
theire SI8
- सा
~~-~
-----
का
-----
___
पा ग शप
डा
Sheik -----
+
-
०४.-
----
------काम
Page #583
--------------------------------------------------------------------------
________________
उत्सेध-आत्म-प्रमाणभेदेन अङ्गुलादीनां मानानां स्वरूपम्
आठयवमध्यन एक उत्सघांगुल.
छअंगुलबी पाद.
२४२
अंपादनी व्दैत.
By
बे हाथनी कुक्षी अथवा धाम. चार हाथy धनुष्य अथवा दंड. बैहजार धनुष्यनो अक गाठ. चारगाउनोअक योजन.
श्रीद
नवमं परिशिष्टम् - चित्राणि
बेरेंतनो हाथ.
आवा४०० उत्सेधांगुले १प्रमाणागुंल माप आवे.
अने बेउत्सेघांगुले एक वीरप्रभुनु आंगुल
थाय
R S
R
STARTE
Page #584
--------------------------------------------------------------------------
________________
नवमं परिशिष्टम् - चित्राणि
२४३
MAmri DELILALLAIMI HTMLILMIBEAT
HONARY
1.
कुक्षी
बेहाथनी
m
शास्त्रीयाणि व्यावहारिकाणि च विविधानि मानानि
अंगुलमान
-वेतमान
TS
-हाथमान
"धनुषमान
।
reOOODamomen
OTHUdilCALLED
manand
LABook
Page #585
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jeducation Interation
For Private Personal use only
www.
Page #586
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री नाकोडा जैन तीर्थ
Jain Educationalionai
For Private & Personal use. Only
ww
e library.org
Page #587
--------------------------------------------------------------------------
________________