________________
२०
स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन के अभाव में श्रुत-सरिता सूखने लगी। अति विषम स्थिति थी । बहुत सारे मुनि सुदूर प्रदेशों में विहरण करने के लिए प्रस्थित हो चुके थे।
दुष्काल की परिसमाप्ति के पश्चात् मथुरा में श्रमणसम्मेलन हुआ । प्रस्तुत सम्मेलन का नेतृत्व आचार्य स्कन्दिल ने संभाला । श्रुतसम्पन्न श्रमणों की उपस्थित से सम्मेलन में चार चाँद लग गये। प्रस्तुत सम्मेलन में मधुमित्र, गन्धहस्ति, प्रभृति १५० श्रमण उपस्थित थे । मधुमित्र और स्कन्दिल ये दोनों आचार्य आचार्य सिंह के शिष्य थे। आचार्य गन्धहस्ती मधुमित्र के शिष्य थे । इनका वैदुष्य उत्कृष्ट था । अनेक विद्वान् श्रमणों के स्मृतपाठों के आधार पर आगम-श्रुत का संकलन हुआ था।
आचार्य स्कन्दिल की प्रेरणा से गन्धहस्ती ने ग्यारह अंगों का विवरण लिखा । मथुरा के ओसवाल वंशज सुश्रावक ओसालक ने गन्धहस्ती-विवरण सहित सूत्रों को ताडपत्र पर उट्टङ्कित करवा कर निग्रन्थों को समर्पित किया। आचार्य गन्धहस्ती को ब्रह्मदीपिक शाखा में मुकुटमणि माना गया है।
प्रभावकचरित के अनुसार आचार्य स्कन्दिल जैन शासन रूपी नन्दनवन में कल्पवृक्ष के समान हैं। समग्र श्रुतानुयोग को अंकुरित करने में महामेघ के समान थे । चिन्तामणि के समान वे इष्टवस्तु के प्रदाता थे ।२
यह आगमवाचना मथुरा में होने से माथुरी वाचना कहलायी । आचार्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में होने से स्कन्दिली वाचना के नाम से इसे अभिहित किया गया । जिनदास गणी महत्तर ने यह भी लिखा है कि दुष्काल के क्रूर आघात से अनुयोगधर मुनियों में केवल एक स्कन्दिल ही बच पाये थे । उन्होंने मथुरा में अनुयोग का प्रवर्तन किया था । अतः यह वाचना स्कन्दिली नाम से विश्रुत हुई।
प्रस्तुत वाचना में भी पाटलिपुत्र की वाचना की तरह केवल अंगसूत्रों की ही वाचना हुई । क्योंकि नन्दीसूत्र की चूर्णि' में अंगसूत्रों के लिए कालिक शब्द व्यवहृत हुआ है। अंगबाह्य आगमों की वाचना या संकलना का इस समय भी प्रयास हुआ हो, ऐसा पुष्ट प्रमाण नहीं है । पाटलिपुत्र में जो अंगों की वाचना हुई थी उसे ही पुनः व्यवस्थित करने का प्रयास किया गया था । नन्दीसूत्र के अनुसार वर्तमान में जो आगम विद्यमान हैं वे माथुरी वाचना के अनुसार हैं। पहले जो वाचना हुई थी, वह पाटलिपुत्र में हुई थी, जो बिहार में था । उस समय बिहार जैनों का केन्द्र रहा था।
१. “इत्थ दूसहदुब्भिक्खे दुवालसवारिसिए नियत्ते सयलसंघ मेलिअ आगमाणुओगो पवत्तिओ खंदिलायरियेण ।" -विविध तीर्थकल्प, पृ.१९ ॥ २. “पारिजातोऽपारिजातो जैनशासननन्दने । सर्वश्रुतानुयोगट्ठ-कन्दकन्दलनाम्बुदः ॥ विद्याधरवराम्नाये चिन्तामणिरिवेष्टदः । आसीच्छ्रीस्कन्दिलाचार्यः पादलिप्तप्रभोः कुले ॥" - प्रभावकचरित, पृ.५४॥ ३. “अण्णे भणंति जहा-सुत्तं ण णटुं, तम्मि दुब्भिक्खकाले जे अण्णे पहाणा अणुओगधरा ते विणट्ठा, एगे खंदिलायरिए संथरे, तेण मधुराए अणुओगो पुणो साधूणं पवत्तितो त्ति मथुरा वायणा भण्णति ।" -नन्दीचूर्णि, गा. ३२, पृ.९ ।। ४. “अहवा कालियं आयारादि सुत्तं तदुवदेसेणं सण्णी भण्णति ।" -नन्दीचूर्णि गा. ३२ पृ.९ ॥ ५. "जेसि इमो अणुओगो, पयरइ अज्जावि अड्डभरहम्मि । बहुनगरनिग्गयजसो ते वंदे खंदिलायरिए ॥" -नन्दीसूत्र, गा.३२ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org