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________________ १४६ तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि अन्तर्गत दृष्टिवाद अंग [१२वां अंग] का एक भेद परिकर्म है। आ० कुन्दकुन्द [द्वितीय-तृतीय शती ई०] ने षट्खण्डागम के प्रथम तीन अध्यायों पर १२००० श्लोक प्रमाण परिकर्म नामक टीका लिखी थी । वीरसेन (८२६ ई०) कृत धवला में परियम्म सुत्तं' नामक ग्रन्थ का गणित ग्रन्थ के रूप में अनेकशः उल्लेख हुआ है । महावीराचार्य (८५० ई०) कृत गणितसारसंग्रह का एक अध्याय भी परिकर्म व्यवहार है जिसमें स्पष्ट परिकर्मों की चर्चा है ।' यद्यपि ब्रह्मगुप्त (६२८ ई०) ने २० परिकर्मों का उल्लेख किया है । तथापि भारतीय गणितज्ञों ने मौलिक परिकर्म ८ ही माने हैं जो कि ब्रह्मगुप्त के निम्नांकित २० परिकर्मों में से प्रथम ८ हैं । १. संकलन (जोड) ९-१३. पाँच जातियाँ (भिन्न संबंधी) २. व्यवकलन (घटाना) १४. त्रैराशिक ३. गुणन १५. व्यस्त त्रैराशिक ४. भाग १६. पंच राशिक ५. वर्ग १७. सप्त राशिक ६. वर्गमूल १८. नव राशिक ७. घन १९. एकादश राशिक ८. घनमूल २०. भाण्डप्रतिभाण्ड वस्तुतः मूलपरिकर्म तो संकलन एवं व्यकलन ही है । अन्य तो उनसे विकसित किये जा सकते हैं । मिस्र, यूनान एवं अरबवासियों ने द्विगुणीकरण एवं अर्धीकरण को भी मौलिक परिकर्म माना है; किन्तु भारतवासियों ने नहीं माना है, क्योंकि दाशमिक स्थान मान पद्धति से भिज्ञ लोगों के लिए इन परिकर्मों का कोई महत्त्व नहीं है । अभिधान राजेन्द्र कोश में चूर्णि को उद्धृत करते हुए लिखा गया है कि परिकर्म गणित की वह मूलभूत क्रिया है जो कि विद्यार्थी को विज्ञान के शेष एवं वास्तविक भाग में प्रवेश के योग्य बनाती है । इनकी संख्या १६ है । भारतीय गणितज्ञों के लिये ये परिकर्म इतने सरल एवं सहज थे कि उच्चस्तरीय ग्रन्थों में इनका कोई विशेष विवरण नहीं मिलता । इसी तथ्य के आधार पर दत्त महोदय ने लिखा है कि इन साधारण परिकर्मों में से अधिकांश का उल्लेख सिद्धांत ग्रन्थों में नहीं मिलता । ___ अग्रवाल ने लिखा है कि- “इससे यह प्रतीत होता है कि गणित की मूल प्रक्रियायें चार ही मानी गई है-संकलन, व्यवकलन, गणन एवं भजन । इन चारों क्रियाओं के आधार पर ही परिकर्माष्टक का गणित विकसित हुआ है ।। ____ उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है परिकम्म का अर्थ गणित की मूलभूत प्रक्रियायें ही हैं एवं परिकम्म शब्द का आशय अंकगणित के परिकर्म से ही है । १. आपने अत्यंत सरल होने के कारण संकलन एवं व्यवकलन की विधियों की चर्चा नहीं की है। २. देखें सं०४, पृ०११८ । ३. देखें सं०-३, पृ०२४ । ४. देखें सं०-१, पृ०३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001029
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages588
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size11 MB
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