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________________ स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन दिगम्बर साहित्य के उल्लेखानुसार दुष्काल के समय बारह सहस्र श्रमणों ने परिवृत होकर भद्रबाहु उज्जैन होते हुये दक्षिण की ओर बढ़े और सम्राट चन्द्रगुप्त को दीक्षा दी । यहाँ पर यह भी स्मरण रखना होगा कि नेपाल जाकर योग की साधना करने वाले भद्रबाहु और उज्जैन होकर दक्षिण की ओर बढ़ने वाले भद्रबाहु, एक व्यक्ति नहीं हो सकते । दोनों के लिए चतुर्दशपूर्वी लिखा गया है। यह उचित नहीं है। इतिहास के लम्बे अन्तराल में इस तथ्य को दोनों परम्पराएं स्वीकार करती हैं। प्रथम भद्रबाहु का समय वीर-निर्वाण की द्वितीय शताब्दी है तो द्वितीय भद्रबाहु का समय वीर-निर्वाण की पांचवीं शताब्दी के पश्चात् है । प्रथम भद्रबाहु चतुर्दश पूर्वी और छेद सूत्रों के रचनाकार थे । द्वितीय भद्रबाहु वराहमिहिर के भ्राता थे । राजा चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध प्रथम भद्रबाहु के साथ न होकर द्वितीय भद्रबाहु के साथ है। क्योंकि प्रथम भद्रबाहु का स्वर्गवासकाल वीर निर्वाण एक सौ सत्तर (१७०) के लगभग है। एक सौ पचास वर्षीय नन्द साम्राज्य का उच्छेद और मौर्य शासन का प्रारम्भ वीर-निर्वाण दो सौ दस के आस-पास है । द्वितीय भद्रबाहु के साथ चन्द्रगुप्त अवन्ती का था, पाटलिपुत्र का नहीं । आचार्य देवसेन ने चन्द्रगुप्त की दीक्षा देने वाले भद्रबाहु के लिए श्रुतकेवली विशेषण नहीं दिया है किन्तु निमित्तज्ञानी विशेषण दिया है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भी वे निमित्तवेत्ता थे । सम्राट चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्नों का फलादेश बताने वाले वे भद्रबाहु ही होने चाहिए । मौर्यशासक चन्द्रगुप्त और अवन्ती के शासक चन्द्रगुप्त और दोनों भद्रबाहु की जीवन घटनाओं में एक सदृश नाम होने से संक्रमण हो गया है। तित्थोगालिय के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि पाटलिपुत्र में अंग-साहित्य की वाचना हुई थी। वहां अंगबाह्य आगमों की वाचना के सम्बन्ध में कुछ भी निर्देश नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि अंगबाह्य आगम उस समय नहीं थे । श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार अंगबाह्य आगमों की रचनाएं पाटलिपुत्र की वाचना के पहले ही हो चुकी थीं। क्योंकि वीर-निर्वाण (८४) चौसठ में शय्यम्भव जैन श्रमण बने थे और वीर-निर्वाण ७५ में वे आचार्य पद से अलंकृत हुए थे। उन्होंने अपने पुत्र अल्पायुष्य मुनि मणक के लिए आत्मप्रवाद से दशवैकालिक सूत्र का निर्वृहण किया । वीर-निर्वाण के ८० वर्ष बाद इस महत्त्वपूर्ण सूत्र की रचना हुई थी । स्वयं भद्रबाहु ने भी छेदसूत्रों की रचनाएं की थीं, उस समय विद्यमान थे । पर इन ग्रन्थों की वाचना के सम्बन्ध में कोई संकेत नहीं है। पाटलिपुत्र की वाचना के सम्बन्ध में दिगम्बर प्राचीन साहित्य में कहीं उल्लेख नहीं है । यद्यपि दोनों ही परम्पराएं भद्रबाहु को अपना आराध्य मानती हैं । आचार्य भद्रबाहु के शासनकाल में दो १. “वंदामि भद्दबाहुं पाईणं चरियं सगलसुयनाणिं । सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्पे य ववहारे ॥" - दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति, गाथा १ ॥ २. “आसि उज्जेणीणयरे, आयरियो भद्दबाहुणामेण । जाणियं सुणिमित्तधरो, भणियो संघो णियो तेण॥ -भावसंग्रह ॥ ३. “सिद्धान्तसारमृद्धृत्याचार्यः शय्यम्भवस्तदा । दशवैकालिकं नाम, श्रुतस्कन्धमुदाहरत् ।।- परिशिष्टपर्व, सर्ग ५, श्लोक ८५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001029
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages588
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size11 MB
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