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________________ स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन तीन वाचना विकाल वेला में और तीन वाचना प्रतिक्रमण के पश्चात् रात्रि में प्रदान करते थे। दृष्टिवाद अत्यन्त कठिन था । वाचना प्रदान करने की गति मन्द थी । मेधावी मुनियों का धैर्य ध्वस्त हो गया। चार सौ निन्यानवै शिक्षार्थी मुनि वाचना-क्रम को छोड़कर चले गये । स्थूलभद्र मुनि निष्ठा से अध्ययन में लगे रहे। आठ वर्ष में उन्होंने आठ पूर्वो का अध्ययन किया । आठ वर्ष के लम्बे समय में भद्रबाहु और स्थूलभद्र के बीच किसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं मिलता। एक दिन स्थूलभद्र से भद्रबाहु ने पूछा- 'तुम्हे भिक्षा एवं स्वाध्याय योग में किसी भी प्रकार का कोई कष्ट तो नहीं है ?' स्थूलभद्र ने निवेदन किया- 'मुझे कोई कष्ट नहीं है । पर जिज्ञासा है कि मैंने आठ वर्षों में कितना अध्ययन किया है ? और कितना अवशिष्ट है ?' भद्रबाहु ने कहा- 'वत्स! सरसों जितना ग्रहण किया है, और मेरु जितना बाकी है । दृष्टिवाद के अगाध ज्ञानसागर से अभी तक तुम बिन्दुमात्र पाये हो ।' स्थूलभद्र ने पुनः निवेदन किया- 'भगवन् ! मैं हतोत्साह नहीं हूं, किन्तु मुझे वाचना का लाभ स्वल्प मिल रहा है । आपके जीवन का सन्ध्याकाल है, इतने कम समय में वह विराट ज्ञान राशि कैसे प्राप्त कर सकूँगा ?' भद्रबाहु ने आश्वासन देते हुए कहा - 'वत्स ! चिन्ता मत करो । मेरा साधनाकाल सम्पन्न हो रहा है। अब मैं तुम्हें यथेष्ट वाचना दूंगा।' उन्होंने दो वस्तु कम दशपूर्वो की वाचमा ग्रहण कर ली । तित्थोगालिय के अनुसार दशपूर्व पूर्ण कर लिये थे और ग्यारहवें पूर्व का अध्ययन चल रहा था। साधनाकाल सम्पन्न होने पर आर्य भद्रबाहु स्थूलभद्र के साथ पाटलिपुत्र आये । यक्षा आदि साध्वियाँ वन्दनार्थ गईं । स्थूलभद्र ने चमत्कार प्रदर्शित किया। जब वाचना ग्रहण करने के लिये स्थूलभद्र भद्रबाहु के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा'वत्स ! ज्ञान का अहं विकास में बाधक है। तुम ने शक्ति का प्रदर्शन कर अपने आप को अपात्र सिद्ध कर दिया है। अब तुम आगे की वाचना के लिये योग्य नहीं हो ।' स्थूलभद्र को अपनी प्रमादवृत्ति पर अत्यधिक अनुताप हुआ । चरणों में गिर कर क्षमायाचना की और कहा- पुनः अपराध का आवर्तन नहीं होगा। आप मझे वाचना प्रदान करें । प्रार्थना स्वीकृत नहीं हई । स्थूलभद्र ने निवेदन किया- मैं पर-रूप का निर्माण नहीं करूंगा, अवशिष्ट चार पूर्व ज्ञान देकर मेरी इच्छा पूर्ण करें । स्थूलभद्र के अत्यन्त आग्रह पर चार पूर्वो का ज्ञान इस अपवाद के साथ देना स्वीकार किया कि अवशिष्ट चार पूर्वो का ज्ञान आगे किसी को भी नहीं दे सकेगा । दशपूर्व तक उन्होंने अर्थ से ग्रहण किया था और शेष चार पूर्वो का ज्ञान शब्दशः प्राप्त किया था । उपदेशमाला विशेषवृत्ति, आवश्यकचूर्णि, तित्थोगालिय, परिशिष्टपर्व, प्रभृति ग्रन्थों में कहीं संक्षेप में और कहीं विस्तार से वर्णन है। १. “श्रीभद्रबाहुपादान्ते स्थूलभद्रो महामतिः । पूर्वाणामष्टकं वर्षेरपाठीदष्टभिर्भृशम् ॥” -परिशिष्ट पर्व, सर्ग-९, श्लोक८१ ।। २. “दृष्ट्वा सिंहं तु भीतास्ताः सूरिमेत्य व्यजिज्ञपन् । ज्येष्ठार्यं जनसे सिंहस्तत्र सोऽद्यापि तिष्ठति ।।" -परिशिष्ट पर्व, सर्ग-९, श्लोक- ८१ ।। ३. “अह भणइ थूलभद्दो अन्नं रूवं न किंचि काहामो । इच्छामि जाणिउं जे, अहयं चत्तारि पुव्वाई ।।" -तित्थोगाली पइन्ना - ८०० ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001029
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages588
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size11 MB
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