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तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि [४५३-४५६ ई०] की अध्यक्षता में सम्पन्न वल्लभी वाचना में स्खलित एवं विलुप्त होते हुए परम्परागत ज्ञान को आधार बनाकर लिखे गये अंग, उपांग साहित्य को आगम की मान्यता देती है । ये अंग, उपांग अर्द्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं । यहाँ पर हम इन्ही आगमों को आगम के रूप में चर्चा करेंगे । ___ जैन आगम ग्रन्थों में स्थानांग [ठाणं] का महत्त्वपूर्ण स्थान है । अंग साहित्य में यह तृतीय स्थान पर आता है। मूल रूप से लगभग ३०० ई० पू० में सृजित एवं ५ वीं शती ई० में अपने वर्तमान रूप में संकलित इस अंग के दसवें अध्याय में निहित ६४वीं गाथा गणितज्ञों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । ७४७ दसविधे संखाणे पन्नत्ते- परिकम्मं ववहारो एजू वासी कलासवन्ने य । जावंताव ति वग्गो घणो त तह वग्गवग्गो वि ॥१६४॥ कप्पो त ।
इस गाथा से हमें गणित के अन्तर्गत अध्ययन के विषयों की जानकारी मिलती है । तीर्थंकर महावीर को संख्याज्ञान का विशेषज्ञ माना गया है एवं आगम ग्रन्थ उनके परंपरागत ज्ञान के संकलन मात्र हैं।
स्थानांग की इस गाथा की वर्तमान में उपलब्ध सर्वप्रथम व्याख्या अभयदेव सूरि [१०वीं शती ई०] द्वारा की गई । स्थानांग की टीका में उपर्युक्त गाथा में आये विषयों का अर्थ स्पष्ट करते हुये उन्होंने निर्धारित किया किः
१. परिकम्मं = संकलन आदि । २. ववहारो = श्रेणी व्यवहार या पाटी गणित । ३. रज्जु = समतल ज्यामिति । ४. रासी = अन्नों की ढेरी । ५. कलासवण्णे = प्राकृतिक संख्याओ का गुणन या संकलन । ६. जावंताव [यावत् तावत्] ७. वग्गो = वर्ग । ८. घणो = घन । ९. वगवग्गो = चतुर्थघात । १०. कप्पो = क्रकचिका व्यवहार ।
दत्त' [१९२९] ने लगभग ९०० वर्षों के उपरान्त उपर्युक्त व्याख्या को अपूर्ण एवं एकांगी घोषित करते हुए अपनी व्याख्या प्रस्तुत की । दत्त के समय में भी जैन गणित का ज्ञान अत्यन्त प्रारंभिक था एवं गणितीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण, वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थ उस समय तक अप्रकाशित एवं अज्ञात थे तथापि उनकी व्याख्या अभयदेवसूरि की व्याख्या की अपेक्षा तर्कसंगत प्रतीत
१. गणितसारसंग्रह-मंगलाचरण १/१, पृ० १ । २. देखें सं० । ३, पृ० ११९-१२२ ।
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