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________________ १५५ तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि आवश्यक है । आगम ग्रन्थों में चर्चित गणितीय विषयों की जानकारी देने वाली एक अन्य गाथा शीलांक (९वीं श० ई०) ने सूत्रकृतांग की टीका में पुण्डरीक शब्द के निक्षेप के अवसर पर उद्धृत की है । गाथा निम्नवत् है परिकम्म रज्जु रासी ववहारे तह कलासवण्णे य ॥५॥ पुग्गल जावं तावं घणे य घणवग्ग वग्गे य । इससे स्पष्ट है कि इस गाथा में भी विषयों की संख्या १० ही है किन्तु उसमें स्थानांग में आई गाथा के विकप्पो त के स्थान पर पुग्गल शब्द आया है । अर्थात् यहाँ पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय माना गया है, विकल्प को नहीं । शेष नौ प्रकार स्थानांग के समान ही हैं । अब प्रश्न यह उठता है कि क्या पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय माना जाये ? इस संदर्भ में दत्त महोदय ने तो स्पष्ट लिखा है कि Pudgala as a topic for discussion in mathematics is meaningless. अर्थात् पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय स्वीकार करना निरर्थक है । किन्तु विचारणीय यह है कि यह निष्कर्ष आप के द्वारा तब दिया गया था जब कर्म सिद्धान्त का गणित प्रकाश में नहीं आया था । उस समय तक Relativity के संदर्भ में जैनाचार्यों के प्रयास भी प्रकाशित नहीं हुये थे । आज परिवर्तित स्थिति में यह निष्कर्ष इतनी सुगमता से गले नहीं उतरता । क्योंकि असंख्यात विषयक गणित, राशि गणित (Set theory) आदि का मूल तो पुद्गल ही है । मापन की पद्धतियाँ तो यहीं से प्रारम्भ होती हैं । एक तथ्य यह भी है कि शीलांक ने भी तो इसे किसी प्राचीन ग्रन्थ से ही उद्धृत किया होगा। लेकिन समस्या यह है कि पुद्गल को गणित का विषय स्वीकार करने पर विकल्प छूट जाता है । जबकि विकल्प तो अत्यधिक एवं निर्विकल्प रूप से जैन ग्रन्थों में आता है । यहाँ हमें बृहत्कल्प भाष्य की एक पंक्ति कुछ मदद करती है । “भंग गणिताइ गमिकं"५ मलयगिरि ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि भंग (विकल्प) एवं गणित अलगअलग हैं । संक्षेप में यह विषय विचारणीय है एवं अभी यह निर्णय करना उपयुक्त नहीं है कि पुद्गल को गणितीय अध्ययन का विषय स्वीकार किया जाये अथवा नहीं । ___ इस विषय पर अभी और व्यापक विचार विमर्श अपेक्षित है । 1. Agrawal, N.B. - ‘गणित एवं ज्योतिष के विकास में जैनाचार्यों का योगदान' आगरा Lal वि० वि० में प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध १९७२ । १. सूत्रकृतांग-श्रुतस्कन्ध-२, अध्याय-१, सूत्र-१५४ । २. देखें सं०-३, पृ० १२० । ३. ठाणं, पृ० ९९४ । ४. देखें सं०-३, पृ० १२० । ५. बृहत्कल्पभाष्य, १४३ । ६. देखें सं० १०, पृ० XIII । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001029
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages588
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size11 MB
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