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________________ तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि १५३ दत्त महोदय ने इस गाथा के प्रथम ५ शब्दों की अभयदेवसूरि द्वारा दी गई व्याख्यायें कतिपय संशोधनों सहित स्वीकार कर ली किन्तु बाद के पाँच शब्दों जावतावति वग्गो, घणोवग्ग वग्गो एवं विकप्पोत की व्याख्याओं को पूर्णत: निरस्त करते हुए लिखा है कि In the identification of the remaining terms (last five). The commentator is not only of no help but is, on the other hand, positively misleading.' दत्त महोदय ने इस शब्द की व्याख्या करते हुए आगे लिखा है कि: I venture to presume that the term Yavat-Tavat is connected with the rule of False position which in the early stage of Science of Algebra in every country, was the only method of solving linear equations. It is interesting to find that this method was once given so much importance in Hindu Algebra that the section dealing with it was named after it. ___ इस प्रकार आपने यावत् तावत् को सरल समीकरण से सम्बद्ध किया । जो उचित ही है। क्योंकि S = n(x+x) 2x में से x कामन लेकर अंश एवं हर में से काट देने पर यह बनता है जो कि प्राकृतिक संख्याओं के योग का सूत्र है । S = (n) (n+i) यह विषय तो परिकर्म के अन्तर्गत आ ही जाता है । अतः दत्त की व्याख्या विचार अधिक तर्कसंगत है । ७-८-९ वग्गो, घणो, वग्गवग्गो (वर्ग, घन एवं चतुर्थ घात) : अभिधान राजेन्द्र में इन तीनों शब्दों की व्याख्या आगमिक उद्धरणों सहित दी गई है जहाँ इनके अर्थ क्रमश: वर्ग करना, घन करना एवं वर्ग का वर्ग करना है । अग्रवाल ने भी अपने शोधप्रबंध में वर्ग के उल्लेखों को संकलित किया है। उन सबसे स्वाभाविक रूप में यह प्रतीत होता है कि ये शब्द निश्चित रूप से वर्तमान में प्रचलित अर्थो (ज्यामितीय अर्थ नहीं) में ही प्रयुक्त हुये हैं। किन्तु यहाँ भी हम अपने पूर्व तर्क को उद्धृत करते हैं जब वर्ग एवं घन करना ये दोनों क्रियायें मूल परिकर्मों में आ जाती हैं तब उन्हें नवीन विषय के रूप में प्रतिष्ठित करने का क्या औचित्य ? पुनः अनुयोगद्वार सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र आदि प्राचीन ग्रन्थों में जब घातांको के सिद्धान्त उपलब्ध हैं एवं उनमें १२वीं घात तक के प्रयोग निर्दिष्ट है - तब चतुर्थ घात को ही क्यों विशेष महत्त्व दिया गया ? धवला में निहित वर्गित संवर्गित की प्रक्रिया में २५६ तक की घात आ जाती है । चतुर्थ घात निकालने की क्रिया वर्ग करने की १. देखें सं०-३, पृ० १२२ । २. देखें सं०-३, पृ० १२२ । ३. अनुयोगद्वार सूत्र-१४२ । ४. धवला, पुस्तक-३ । ५. देखें सं०-३, पृ० १७२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001029
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages588
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size11 MB
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