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________________ तृतीयं परिशिष्टम् - टिप्पनानि १०१ अभयदेवकृत वृत्ति की व्याख्या का उल्लेख हम अनुवाद में दे चुके हैं । यह अन्वेषणीय हैं कि वृत्तिकार ने ये व्याख्याएं कहाँ से ली थीं । २३. सम (सूत्र. ४८ ) जहाँ स्वर - ध्वनि को गुरु अथवा लघु न कर आद्योपान्त एक ही ध्वनि में उच्चारित किया जाता हैं, वह 'सम' कहलाता हैं' । २४. पदबद्ध (सू.४८) इसे निबद्धपद भी कहा जाता है। पद दो प्रकार का हैं - निबद्ध और अनिबद्ध । अक्षरों की नियत संख्या, छन्द तथा यति के नियमों से नियन्त्रित पदसमूह 'निबद्धपद' कहलाता है। २५. छन्द ( सूत्र. ४८ ) तीन प्रकार के छन्द की दूसरी व्याख्या इस प्रकार हैसम - जिसमें चारों चरणों के अक्षर समान हों । अर्द्धसम-जिसमें पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे चरण के अक्षर समान हों । सर्वविषम - जिसमें सभी चरणों के अक्षर विषम हों । २७. तालसम (सू.४८) दाहिने हाथ से ताली बजाना 'काम्या' है । बाएं हाथ से ताली बजाना 'ताल' और दोनों हाथों से ताली बजाना 'संनिपात' है ।" २८. पादसम (सू. ४८) अनुयोगद्वार में इसके स्थान पर ' पदसम' हैं 14 २९. लयसम (सू.४८) तालक्रिया के अनन्तर ( अगली तालक्रिया से पूर्व तक ) किया जाने वाला विश्राम लय कहलाता है । ३०. ग्रहसम (सू. ४८) इसे समग्रह भी कहा जाता है । ताल में सम, अतीत और अनागतये तीन ग्रह हैं । गीत, वाद्य और नृत्य के साथ होने वाला ताल का आरम्भ अवपाणि या समग्रह, गीत आदि के पश्चात् होने वाला ताल आरम्भ अवपाणि या अतीतग्रह तथा गीत आदि से पूर्व होने वाला ताल का प्रारम्भ उपरिपाणि या अनागतग्रह कहलाता है । सम, अतीत और अनागत ग्रहों में क्रमशः मध्य, द्रुत और विलंबित लय होता है । ७ ३१. तानों (सू. ४८) इसका अर्थ है - स्वर - विस्तार, एक प्रकार की भाषाजनक राग । ग्राम रागों के आलाप-प्रकार भाषा कहलाते हैं ।" [पृ०६७९ पं०१६] “अलियमुवघायजणयं निरत्थयमवत्थयं छलं दुहिलं । निस्सारमधियमूणं पुणरुत्तं वाहयमजुत्तं ॥ ८८१ ॥ कमभिण्णवयणभिण्णं विभत्तिभिन्नं च लिंगभिन्नं च । १. भरत का नाट्यशास्त्र २९|४७ : सर्वसाम्यात् समो ज्ञेयः, स्थिरस्त्वेकस्वरोऽपि यः ॥ २. भरत का नाट्यशास्त्र ३२।३९ : नियताक्षरसंबंधम्, छन्दोयतिसमन्वितम् । निबद्धं तु पदं ज्ञेयम्, नानाछन्दः समुद्भवम् ॥। ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७६: अन्ये तु व्याचक्षते समं यत्र चतुर्ष्वपि पादेषु समान्यक्षराणि, अर्द्धसमं यत्र प्रथमतृतीययो द्वितीयचतुर्थयोश्च समत्वम्, तथा सर्वत्र - सर्वपादेषु विषमं च विषमाक्षरम् । ४. भरत का संगीत सिद्धान्त, पृष्ठ २३५ ॥ ५. अनुयोगद्वार ३०७/८ ॥ ६. भरत का संगीतसिद्धान्त, पृष्ठ २४२ ॥ ७ संगीतरत्नाकर, ताल, पृष्ठ २६ ।। ८. भरत का संगीतसिद्धान्त, पृष्ठ २२६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001029
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages588
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size11 MB
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