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________________ १४० तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि मूलतः दो परिकर्मों- संकलित और व्यवकलित - पर आश्रित हैं । द्विगुणीकरण और अर्धीकरण के परिकर्म जिन्हें मिस्र, यूनान और अरब वालों ने मौलिक माना है। ये परिकर्म हिन्दू ग्रन्थों में नहीं मिलते । ये परिकर्म उन लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण थे जो दशमलव पद्धति से अनभिज्ञ थे ।' २. व्यवहार - ब्रह्मदत्त के अनुसार पाटीगणित में आठ व्यवहार हैं (१) मिश्रक-व्यवहार (२) श्रेढी-व्यवहार (३) क्षेत्र-व्यवहार (४) खात-व्यवहार (५) चितिव्यवहार (६) क्राकचिक व्यवहार (७) राशि-व्यवहार (८) छाया-व्यवहार ।। पाटीगणित - यह दो शब्दों से मिलकर बना है। (१) पाटी और (२) गणित । अतएव इसका अर्थ है । वह गणित जिसको करने में पाटी की आवश्यकता पड़ती है । उन्नीसवीं शताब्दी के अन्ततक कागज की कमी के कारण प्रायः पाटी का ही प्रयोग होता था और आज भी गांवो में इसकी अधिकता देखी जाती है । लोगों की धारणा है कि यह शब्द भारतवर्ष के संस्कृतेतर साहित्य से निकलता है, जो कि उत्तरी भारतवर्ष की एक प्रान्तीय भाषा थी। ‘लिखने की पाटी' के प्राचीनतम संस्कृत पर्याय ‘पलक' और ‘पट्ट' हैं, न कि पाटी ।३ ‘पाटी', शब्द का प्रयोग संस्कृत साहित्य में प्रायः ५ वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ । गणित-कर्म को कभीकभी धूली कर्म भी कहते थे, क्योंकि पाटी पर धूल बिछा कर अंक लिखे जाते थे । बाद के कुछ लेखकों ने ‘पाटी गणित' के अर्थ में व्यक्त गणित' का प्रयोग किया है, जिसमें कि बीजगणित से, जिसे वे अव्यक्त गणित कहते थे पृथक् समझा जाए । जब संस्कृत ग्रन्थों का अरबी में अनुवाद हुआ तब पाटीगणित और धूली कर्म शब्दों का भी अरबी में अनुवाद कर लिया गया । अरबी के संगत शब्द क्रमशः ‘इल्म-हिसाब-अलतख्त' और 'हिसाब-अलगुबार' __पाटीगणित के कुछ उल्लेखनीय ग्रन्थ- (१) वक्षाली हस्तलिपि (लगभग ३०० ई०), (२) श्रीधरकृत पाटीगणित और त्रिशतिका (लगभग ७५० ई०), (३) गणितसारसंग्रह (लगभग ८५० ई०), (४) गणिततिलक (१०३९ ई०), (५) लीलावती (११५० ई०) (६) गणितकौमुदी (१३५६ ई०) और मुनीश्वर कृत पाटीसार (१६५८ ई०) -इन ग्रन्थों में उपर्युक्त बीस परिकर्मों और आठ व्यवहारों का वर्णन है। सूत्रों के साथ-साथ अपने प्रयोग को समझाने के लिए उदाहरण भी दिए गए हैं भास्कर द्वितीय ने लिखा है कि लल्ल ने पाटीगणित पर एक अलग ग्रन्थ लिखा है। ___ यहां श्रेणी व्यवहार का एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है । सीढ़ी की तरह गणित होने १. हिंदूगणित, पृष्ठ ११८ ॥ २. बाह्यस्फुटसिद्धान्त, अध्याय १२, श्लोक १ ॥ ३. अमेरिकन मैथेमेटिकल मंथली, जिल्द ३५, पृष्ठ ५२६ ॥ ४. हिन्दूगणितशास्त्र का इतिहास भाग १ : पृष्ठ ११७, ११९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001029
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages588
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size11 MB
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