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________________ स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन चाहिए था । पर वह नहीं है । उदाहरण के रूप में एक कक्षा में पढ़ने वाले विद्यार्थीओं के एक ही प्रकार के पाठ्यग्रन्थ होते हैं । पढ़ाने की सुविधा की दृष्टि से एक ही विषय को पृथक्-पृथक् अध्यापक पढ़ाते हैं । पृथक्-पृथक् अध्यापकों के पढ़ाने से विषय कोई पृथक् नहीं हो जाता । वैसे ही पृथक्-पृथक् गणधरों के पढ़ाने से सूत्ररचना भी पृथक् नहीं होती । आचार्य जिनदास गणि महत्तर ने भी यह स्पष्ट लिखा है कि दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् सभी गणधर एकान्त स्थान में जाकर सूत्र की रचना करते हैं। उन सभी के अक्षर, पद और व्यञ्जन समान होते हैं । इस से भी यह स्पष्ट है कि सभी गणधरों की भाषा एक सदृश थी । उसमें पृथक्ता नहीं थी। पर जिस प्राकृत भाषा में सूत्र रचे गये थे, वह लोकभाषा थी। इसलिए उसमें एकरूपता निरन्तर सुरक्षित नहीं रह सकती। ___ जैन श्रमणों की आचारसंहिता प्रारम्भ से ही अत्यन्त कठिन रही है। अपरिग्रह उनका जीवनव्रत है। अपरिग्रह महाव्रत की सुरक्षा के लिए आगमों को लिपिबद्ध करना, उन्होंने उचित नहीं समझा। लिपि का परिज्ञान भगवान् ऋषभदेव के समय से ही चल रहा था ।२ । किन्तु जैन आगम लिखे नहीं जाते थे। आत्मार्थी श्रमणों ने देखा- यदि हम लिखेंगे तो हमारा अपरिग्रह महाव्रत पूर्णरूप से सुरक्षित नहीं रह सकेगा, हम पुस्तकों को कहाँ पर रखेंगे, आदि विविध दृष्टियों से चिन्तन कर उसे असंयम का कारण माना। पर जब यह देखा गया कि काल की कालीछाया से विक्षुब्ध हो अनेक श्रुतधर श्रमण स्वर्गवासी बन गये, श्रुत की धारा छिन्न-भिन्न होने लगी, तब मूर्धन्य मनीषियों ने चिन्तन किया । यदि श्रुतसाहित्य नहीं लिखा गया तो एक दिन वह भी आ सकता है कि जब सम्पूर्ण श्रुत-साहित्य नष्ट हो जाए । अतः उन्होंने श्रुत-साहित्य को लिखने का निर्णय लिया । जब श्रुत साहित्य को लिखने का निर्णय लिया गया, तब तक बहुत सारा श्रुत विस्मृत हो चुका था । पहले आचार्यों ने जिस श्रुतलेखन को असंयम का कारण माना था, उसे ही संयम का कारण मानकर पुस्तक को भी संयम का कारण माना । यदि ऐसा नहीं मानते, तो रहा-सहा श्रुत भी नष्ट हो जाता । इस तरह जैन आगम साहित्य के विच्छिन्न होने के अनेक कारण रहे हैं। बौद्ध साहित्य के इतिहास का पर्यवेक्षण करने पर यह स्पष्ट होता है कि तथागत बुद्ध के उपदेश १. जदा य गणहरा सव्वे पव्वजिता ताहे किर एगनिसज्जाए एगारस अंगाणि चोद्दसहिं चोद्दस पुव्वाणि, एवं ता भगवता अत्थो कहितो, ताहे भगवंतो एगपासे सुतं करे (रें)ति तं अक्खरेहिं पदेहिं वंजणेहिं समं, पच्छा सामी जस्स जत्तियो गणो तस्स तत्तियं अणुजाणति । आतीय सुहम्मं करेति, तस्स महल्लमाउयं, एत्तो तित्थं होहिति त्ति।"-आवश्यकचूर्णि॥ २. (क) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ति (ख) कल्पसूत्र १९५ ॥ ३. (क) दशवैकालिक चूर्णि, पृ.२ (ख) बृहत्कल्पनियुक्ति, १४७, पृ.२१ (ग) विशेषशतक - ४९ ।। ४. “कालं पुण पडुच्च चरणकरणट्ठा अवोच्छित्तिनिमित्तं च गेण्हमाणस्स पोत्थए संजमो भवइ ।" - दशवैकालिक चूर्णि, पृ.२१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001029
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages588
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size11 MB
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