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________________ स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन आगम के भेद किये हैं । अंगबाह्य आगमों की सूची में श्वेताम्बर और दिगम्बर में मतभेद हैं । किन्तु दोनों ही परम्पराओं में अंगप्रविष्ट के नाम एक सदृश मिलते हैं, जो प्रचलित हैं । श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी सभी अंगसाहित्य को मूलभूत आगमग्रन्थ मानते हैं, और सभी की दृष्टि से दृष्टिवाद का सर्वप्रथम विच्छेद हुआ है। यह पूर्ण सत्य है कि जैन आगम साहित्य चिन्तन की गम्भीरता को लिये हुए है। तत्त्वज्ञान का सूक्ष्म व गहन विश्लेषण उसमें है। पाश्चात्य चिन्तक डॉ. हर्मन जोकोबी ने अंगशास्त्र की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है । वे अंगशास्त्र को वस्तुतः जैनश्रुत मानते हैं, उसी के आधार पर उन्होंने जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध करने का प्रयास किया है, और वे उसमें सफल भी हुए हैं ।२।। _ 'जैन आगम साहित्य- मनन और मीमांसा' ग्रन्थ में मैंने बहुत विस्तार के साथ आगम-साहित्य के हरपहलू पर चिन्तन किया है । विस्तारभय से उन सभी विषयों पर चिन्तन न कर उस ग्रन्थ को देखने का सूचन करता हूँ । यहाँ अब हम स्थानांगसूत्र के सम्बन्ध में चिन्तन करेंगे । स्थानाङ्ग- स्वरूप और परिचय :- द्वादशांगी में स्थानांग का तृतीय स्थान है । यह शब्द 'स्थान' और 'अंग' इन दो शब्दों के मेल से निर्मित हुआ है। आचार्य देववाचक ने और गुणधर ने लिखा है कि प्रस्तुत आगम में एक स्थान से लेकर दश स्थान तक जीव और पुद्गल के विविध भाव वर्णित हैं | आचार्य हरिभद्र ने कहा है- जिसमें जीवादि का व्यवस्थित रूप से प्रतिपादन किया जाता है, वह स्थान है । प्रस्तुत आगम में तत्त्वों के एक से लेकर दश तक संख्या वाले पदार्थों का उल्लेख है, अतः इसे 'स्थान' कहा गया है । अंग का सामान्य अर्थ “विभाग' से है। इसमें संख्याक्रम से जीव, पुद्गल आदि की स्थापना की गई है । अतः इस का नाम ‘स्थान' या “स्थानाङ्ग” है। स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग, इन दोनों आगमों में विषय को प्रधानता न देकर संख्या को प्रधानता दी गई है । संख्या के आधार पर विषय का संकलन-आकलन किया गया है। एक विषय की दूसरे विषय के साथ इसमें सम्बन्ध की अन्वेषणा नहीं की जा सकती । जीव, पुद्गल, इतिहास, गणित, भूगोल, खगोल, दर्शन, आचार, मनोविज्ञान आदि शताधिक विषय बिना किसी क्रम के इसमें संकलित किये गये हैं। प्रस्तुत आगम में अनेक ऐतिहासिक सत्य-कथ्य रहे हुए हैं। यह एक प्रकार से कोश की शैली में ग्रथित आगम है, जो स्मरण करने की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी है । यह शैली जैन परम्परा के आगमों में नहीं वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में भी प्राप्त १. तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीय वृत्ति १/२० ।। २. जैनसूत्राज्- भाग १, प्रस्तावना, पृष्ठ ९ ।। ३. “ठाणे णं एगाइयाए एगुत्तरियाए वुड्डीए दसट्ठाणविवड्डियाणं भावाणं परूवणा आघविजति ।" -नन्दीसूत्र, सूत्र ८२ ॥ ४. “ठाणं णाम जीवपुद्गलादीणामेगादिएगुत्तरकमेण ठाणाणि वण्णेदि।" -कसायपाहुड, भाग १, पृ.१२३ ॥ ५. “तिष्ठन्त्यस्मिन् प्रतिपाद्यतया जीवादय इति स्थानम्.....स्थानेन स्थाने वा जीवाः स्थाप्यन्ते, व्यवस्थितस्वरूपप्रतिपादनयेति हृदयम् ।" -नन्दीसूत्र हरिभद्रीया वृत्ति, पृ.७९ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001029
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages588
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size11 MB
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