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________________ १६ स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन होती है। महाभारत के वनपर्व, अध्याय एक सौ चौतीस में भी इस शैली में विचार प्रस्तुत किये गये हैं । बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय, पुग्गलपञत्ति, महाव्युत्पत्ति एवं धर्मसंग्रह में यही शैली दृष्टिगोचर होती है। व्यवहारसूत्र के अनुसार स्थानाङ्ग और समवायांग के ज्ञाता को ही आचार्य, उपाध्याय और गणावच्छेदक पद देने का विधान है। इसलिये इस अंग का कितना गहरा महत्त्व रहा हुआ है, यह इस विधान से स्पष्ट है। समवायाङ्ग व नन्दीसूत्र के अनुसार स्थानाङ्ग की वाचनाएं संख्येय हैं, उसमें संख्यात श्लोक है, संख्यात संग्रहणियाँ हैं । अंगसाहित्य में उस का तृतीय स्थान है । उसमें एक श्रुतस्कन्ध है, दश अध्ययन हैं । इक्कीस उद्देशनकाल हैं । बहत्तर हजार पद हैं । संख्यात अक्षर हैं। दश अध्ययनों का एक ही श्रुतस्कन्ध है । द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अध्ययन के चार-चार उद्देशक है । पंचम अध्ययन के तीन उद्देशक हैं । शेष छह अध्ययनों में एक-एक उद्देशक हैं। इस प्रकार इक्कीस उद्देशक हैं । समवायांग और नन्दीसूत्र के अनुसार स्थानाङ्ग की पदसंख्या बहत्तर हजार कही गई है। यह निश्चित है कि वर्तमान में उपलब्ध स्थानाङ्ग में बहत्तर हजार पद नहीं है। क्या स्थानाङ्ग अर्वाचीन है ? स्थानाङ्ग में श्रमण भगवान् महावीर के पश्चात् दूसरी से छठी शताब्दी तक की अनेक घटनाएं उल्लिखित हैं, जिससे विद्वानों को यह शंका हो गयी है कि प्रस्तुत आगम अर्वाचीन है । वे शंकाएं इस प्रकार हैं - (१) नववें स्थान में गोदासगण, उत्तरबलिस्सहगण, उद्देहगण, चारणगण, उडुवातितगण, विस्सवातितगण, कामड्डिगण, माणवगण और कोडितगण इन गणों की उत्पत्ति का विस्तृत उल्लेख कल्पसूत्र में है। प्रत्येक गण की चार-चार शाखाएं, उद्देह आदि गणों के अनेक कुल थे । ये सभी गण श्रमण भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् दो सौ से पाँच सौ वर्ष की अवधि तक उत्पन्न हुये थे। (२) सातवें स्थान में जमालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गङ्ग, रोहगुप्त, गोष्ठामाहिल, इन सात निह्नवों का वर्णन है। इन सात निह्नवों में से दो निह्नव भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद हुए और शेष पांच निर्वाण के बाद हुये । इनका अस्तित्वकाल भगवान् महावीर के केवलज्ञान प्राप्ति के चौदहवर्ष बाद से निर्वाण के पाँच सो चौरासी वर्ष पश्चात् तक का है। अर्थात् वे तीसरी शताब्दी से लेकर छठी शताब्दी के मध्य में हुये । १. ठाण-समवायधरे कप्पइ आयरित्ताए उवज्झायत्ताए गणावच्छेइयत्ताए उद्दिसित्तए । -व्यवहारसूत्र, उ. ३, सू.६८ ॥ २. समवायांग सूत्र १३९, पृष्ठ १२३ -मुनि कन्हैयालालजी म. ॥ ३. नन्दीसूत्र ८७ पृष्ठ ३५ -पुण्यविजयजी म.॥ ४. कल्पसूत्र, सूत्र - २०६ से २१६ तक -देवेन्द्रमुनि ।। ५. णाणुप्पत्तीए दुवे उप्पण्णा णिव्वुए सेसा । - आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७८३ ॥ ६. चोद्दस सोलस वासा, चोद्दस वीसुत्तरा य दोण्णि सया । अट्ठावीसा य दुवे, पंचेव सया उ चोयाला । -आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७८२ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001029
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages588
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size11 MB
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