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________________ स्थानाङ्गसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन उत्तर में निवेदन है कि पहले आगम श्रुतिपरम्परा के रूप में चले आ रहे थे। वे आचार्य स्कन्दिल और देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय लिपिबद्ध किये गये । उस समय वे घटनाएं, जिनका प्रस्तुत आगम में उल्लेख है, घटित हो चुकी थीं। अतः आचार्य प्रवरों ने उस समय तक घटित घटनाएं इसमें संकलित कर दी हों । इस प्रकार दो-चार घटनाएं भूतकाल की क्रिया में लिखने मात्र से प्रस्तुत आगम गणधरकृत नहीं है, इस प्रकार प्रतिपादन करना उचित नहीं है। __ यह संख्या-निबद्ध आगम है। इसमें सभी प्रतिपाद्य विषयों का समावेश एक से दस तक की संख्या में किया गया है । एतदर्थ ही इसके दश अध्ययन हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि स्थानांग विषय-सामग्री की दृष्टि से आगम-साहित्य में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यों सामान्य गणना के अनुसार इस में बारह सौ विषय हैं । भेद-प्रभेद की दृष्टि से विषयों की संख्या और भी अधिक है। यदि इस आगम का गहराई से परिशीलन किया जाए तो विविध विषयों का गम्भीर ज्ञान हो सकता है। भारतीय-ज्ञानगरिमा और सौष्ठव का इतना सुन्दर समन्वय अन्यत्र दुर्लभ है। इसमें ऐसे अनेक सार्वभौम सिद्धान्तों का संकलन-आकलन हुआ है, जो जैन, बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं के ही मूलभूत सिद्धान्त नहीं हैं अपितु आधुनिक विज्ञानजगत में वे मूलसिद्धान्त के रूप में वैज्ञानिकों के द्वारा स्वीकृत हैं । हर ज्ञानपिपासु और अभिसन्धित्सु को प्रस्तुत आगम अन्तस्तोष प्रदान करता है । व्याख्या-साहित्य सर्वप्रथम इस पर संस्कृत भाषा में नवाङ्गीटीकाकार अभयदेव सूरि ने वृत्ति का निर्माण किया। आचार्य अभयदेव प्रकृष्ट प्रतिभा के धनी थे । उन्होंने वि०सं० ग्यारह सौ बीस में स्थानांग सूत्र पर वृत्ति लिखी । प्रस्तुत वृत्ति मूल सूत्रों पर है जो केवल शब्दार्थ तक ही सीमित नहीं है, अपितु उसमें सूत्र से सम्बन्धित विषयों पर गहराई से विचार हुआ है। विवेचन में दार्शनिक दृष्टि यत्रतत्र स्पष्ट हुई है । अनेक स्थलों पर दार्शनिक चर्चाएं हुई हैं । वृत्ति में यत्र-तत्र निक्षेपपद्धति का उपयोग किया है, जो नियुक्तियों और भाष्यों का सहज स्मरण कराती है । वृत्ति में मुख्य रूप से संक्षेप में विषय को स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्त भी दिये गये हैं। वृत्तिकार अभयदेव ने उपसंहार में अपना परिचय हेतु हुये यह स्वीकार किया है कि यह वृत्ति मैंने यशोदेवगणी की सहायता से सम्पन्न की । वृत्ति लिखते समय अनेक कठिनाइयाँ आईं । प्रस्तुत वृत्ति को द्रोणाचार्य ने आदि से अन्त तक पढ़कर संशोधन किया। उनके लिये भी वृत्तिकार ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001029
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages588
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size11 MB
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