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________________ १४८ तृतीयं परिशिष्टम्- टिप्पनानि ३. रज्जुः- इस पारिभाषिक शब्द का विषय-सूची में उपयोग अत्यन्त महत्वपूर्ण है । अभयदेवसूरि ने इसका अर्थ रस्सी द्वारा की जाने वाली गणनाओं से सम्बन्धित अर्थात् समतल ज्यामिति से किया था । दत्त ने इसको किंचित् विस्तृत करते हुए इसकी परिधि में सम्पूर्ण ज्यामिति को समाहित कर लिया । अग्रवाल ने लिखा है कि "रज्जुगणित का अभिप्राय क्षेत्रगणित में पल्य सागर आदि का ज्ञान अपेक्षित है। आरम्भ में इस गणित की सीमा केवल क्षेत्र परिभाषाओं तक ही सीमित थी पर विकसित होते-होते यह समतल ज्यामिति के रूप में वृद्धिगत हो गई है ।"१ आयंगर के अनुसार :Rajju is the ancient Hindu name for geometry which was called Sulva in the Vedic literature. अर्थात् रज्जु रेखागणित की प्राचीन हिन्दू संज्ञा है जो कि वैदिक काल में शुल्व नाम से जानी जाती थी । कात्यायन शुल्वसूत्र में ज्यामिति को रज्जु समास कहा गया है । प्रो० लक्ष्मीचन्द जैन ने रज्जु के संदर्भ में लिखा है :- “इस प्रकार रज्जु के उपयोग का अभिप्राय जैन साहित्य में शुल्व ग्रन्थों से बिल्कुल भिन्न है । रज्जु का जैन साहित्य में मान राशिपरक सिद्धान्तों से निकाला गया है और उससे न केवल लोक के आयाम निरूपित किये गये हैं किन्तु यह माप भी दिया गया है कि उक्त रैखिक माप में कितने प्रदेशों की राशि समाई हुई है । उसका सम्बन्ध जगश्रेणी से जगप्रतर एवं घनलोक से भी है ।" आपने संदर्भित गाथा के विषयों की व्याख्या करते हुए रज्जु का अर्थ विश्व माप की इकाई लिखा है। वस्तुतः उस स्थिति में जबकि व्यवहार के ८ भेदों में से एक भेद क्षेत्र-व्यवहार भी है और उसमें ज्यामिति का विषय समाहित हो जाता है एवं खात, चिति, राशि एवं क्राकचिक, व्यवहार के अन्तर्गत मेन्शुरेशन (Mensuration.) का विषय भी आ जाता है । तब क्षेत्रगणित के लिये स्वतन्त्र अध्याय की इतनी आवश्यकता नहीं रह गई जितनी लोक के प्रमाण विस्तार आदि से सम्बद्ध जटिलताओं, असंख्यात विषयक राशियों के गणित से सम्बन्धित विषय की। इन विषयों का व्यापक एवं व्यवस्थित विवेचन जैन ग्रन्थों में मिलता है । जबकि यह अन्य किसी समकालीन ग्रन्थ में नहीं मिलता । विविध धार्मिक-अर्द्धधार्मिक जैन विषयों के स्पष्टी करण में इनकी अपरिहार्य आवश्यकता करणानुयोग अथवा द्रव्यानुयोग के किसी भी ग्रन्थ में देखी जा सकती है । एतद्विषयक गणित की जैन जगत् में प्रतिष्ठा का आकलन इस बात से १. देखें सं०-१, पृ० ३६ । २. देखें सं०-१३, पृ० २६ । ३. रजुसमासं वक्ष्याम, कात्यायन शुल्वसूत्र १.१ । ४. देखें सं०-८, पृ० ४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001029
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri, Jambuvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2004
Total Pages588
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Dictionary, & agam_sthanang
File Size11 MB
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