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प्रश्नों के उत्तर
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... अर्थात्- आहार, निद्रा, भय एवं मैथुन सेवन की दृष्टि से मनुष्य और पशु में विशेष अन्तर नहीं है । ये चारों बातें साधारणतः दोनों में पाई जाती हैं । परन्तु दोनों में अन्तर करने वाला धर्म है, विवेक है। इसी विशेषता के कारण मनुष्य पशु. से श्रेष्ठं माना जाता है। अतःजो व्यक्ति धर्म एवं विवेक से रहित है, वह मनुष्य होते हुए भी पशु के समान है।
इससे यह स्पष्ट हो गया कि मनुष्य की मनुष्यता निर्वल एवं । असहाय को निगलने में नहीं, बल्कि उसकी सुरक्षा करने में है। अपने पेट को मुर्दा जानवरों की कन बनाना इन्सान का काम नहीं है, यह तो गद्ध और कौवों का काम है। वे भी जीवित जानवर को मार कर . खाने का प्रयत्न नहीं करते, परन्तु बुद्धि का दीवाना बना इन्सान जीवित पशुओं पर छुरो, तलवार एवं गोली चलाते हुए विचार नहीं करता। यह उसकी अज्ञानता एवं अमानुषिक वृत्ति ही है । इस तरह .. के कार्य को उचित नहीं कहा जा सकता और न प्रकृति के नियम का पालन ही कहा जा सकता है । 'मत्स्य-न्याय' हिंस्र जन्तुओं में चलता है, पर उसे कोई प्रादर एवं सम्मान के साथ नहीं देखता । मानवजगत में जहां कहीं वड़ा छोटे को दबाता हुआ देखा जाता है, वहां तुरन्त 'मत्स्य न्याय का कड़े शब्दों में विरोध होता है, उसे समाप्त करने के लिए आन्दोलन चलाया जाता है। इससे स्पष्ट है कि मानव । 'मत्स्य-न्याय' से ऊपर उठ चुका है। वह अपने लिए मत्स्य-न्याय' - नहीं चाहता। वह नहीं चाहता कि कोई बड़ा व्यक्ति मुझे निगल जाए। जब वह अपने लिए 'मत्स्य-न्याय' नहीं चाहता, तब उसे दूसरे
प्राणी को निगलने के लिए उसका सहारा लेना सर्वथा अनुचित है। . मनुष्य को कोई अधिकार नहीं है कि वह अपने से कमज़ोर पशु-पक्षि-':. .. यों को निगल जाए। मनुष्य के लिए यही उचित है कि वह 'मत्स्य- :