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प्रश्नों के उत्तर
ऋण बहुत कम है । इस लिए मिध्यात्वी कुपात्र और श्रावक सुपात्र है । सांघु की ग्रपेक्षा केवली में प्राश्रव का करण बहुत कम है इस लिए केवली सुपात्र है प्रोर साधु कुपात्र है !
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जिस श्रावक ने १, २, ३, ४, ५ में से दस हजार का ऋण चुका दिया है, फिर भी यदि वह कुपात्र बन जाता है, तो जिसने २, ३, ४, ५ में से दो हजार का करण चुकाया है, वह सुपात्र कैसे कहा जा सकता है ? वस्तुतः साधु और श्रावक अपेक्षाकृत दोनों सुपात्र हैं । श्रावक को कुपात्र कहना, सत्यता की हत्या करना है । तेरहपन्थ नेवकों को कुपात्र बताकर उन के साथ बड़ा अत्याचार किया है । इसका यह अत्याचार यहीं तक सीमित नहीं रहा, प्रत्युत यहां तक बढ़ा कि इस ने श्रावकों को सूत्र पढ़ना भी निषिद्ध घोषित कर दिया है। इस पन्थ के उन्नायक प्राचार्यों ने शास्त्रीय अर्थी के जो अनर्थ किए हैं, वे श्रावकों को ज्ञात न हो जावें । इस के लिए तेरहपन्थी साधुग्रों ने श्रावकों को सूत्र पढ़ना मना कर दिया है, इन के यहां श्रावकों का सूत्र- पठन जिनाज्ञा के वाहिर बतलाया है। श्रावकों को सूत्र पढ़ना पाप है, यह बताने और सिद्ध करने के लिए इस पन्थ की पुस्तक 'भ्रमविध्वंसन' में पृष्ठ ३६१ से लेकर ३७३ तक सूत्र पठनाधिकार नाम का एक पूरा अध्ययनं ही है । 'उक्त तीन सिद्धान्तों के आधार पर तेरहपन्य ने दान, पुण्य आदि शुभ कर्मों का जो निषेध किया है । इसे भी समझ लीजिए । तेरहपन्थ का विश्वास है कि पुण्य की उत्पत्ति निर्जस के साथ ही होतो है । विना निर्जरा के पुण्य की उत्पत्ति नहीं होती । जिस तरह खेत में अनाज के साथ घास अपने-आप उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार निर्जरा के साथ पुण्य भी उत्पन्न होता है । स्वतन्त्ररूप से
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