________________
पन्द्रहवां अध्याय :
•
व्याप्त हो गया । इस अन्धकार को दूर करने के लिए भगवान की " सेवा में उपस्थित राजा लोगों ने रत्नों का प्रकाश किया । रत्नों के प्रकाश द्वारा भामण्डल की पुण्य स्मृति में द्रव्य प्रकाश की प्रतिष्ठाकर दी गई । कालान्तर में सभी स्थानों में कार्तिकी अमावस्या की रात को रत्नों का प्रकाश करके भगवान् महावीर के निर्वाण दिवस की पुण्य स्मृति को ताज़ा किया जाने लगा । इस द्रव्य प्रकाश से भाव प्रकाश (ज्ञान) को प्राप्त करने की प्रेरणा भी प्राप्त की जाने लगी । जैन नरेशों के प्रभावाधिक्य से तथा भगवान महावीर के अपने महान आध्यात्मिक व्यक्तित्व से धीरे-धीरे यह निर्वाण दिवस एक धार्मिक पर्व के रूप में परिवर्तित हो गया, और सारे भारतवर्ष में ही मनाया जाने लगा । कालं की अनेकों घाटियां पार करता हुआ वही निर्वाणदिवस कुछ फेरफार के साथ आज दीपमाला के रूप में परिवर्तित हो गया है और इसी नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध है ।
SON
८३.३
जैन दृष्टि से दीपमाला अलौकिक पर्व है । सांसारिक रागरंगों के साथ इस का कोई सम्बंध नहीं है । यह तो केवल भगवान महावीर के निर्वाण का स्मारक पर्व है, और इसके माध्यम से ज्ञानस्रोत भगवान महावीर के ज्ञानालोक से आत्ममन्दिर को आलोकित करना है, किन्तु ग्राज इस पर्व के अवसर पर भाव लक्ष्मी को छोड़ कर द्रव्य लक्ष्मी का पूजन किया जाता है, मिठाइयां खाई जाती हैं, श्रतिशवाजी जलाई जाती है, जत्रा खेला जाता है । श्रतएव यह पर्व जैन दृष्टि से अपनी अलौकिकता खो बैठा है, ऊपर-ऊपर से यह सर्वथा लौकिक पर्व ही बन गया है, किन्तु यदि इस के वास्तविक स्वरूप को देखा जाए तो निस्सन्देह यह अलौकिक पर्व ही है ।
..
जैनों के लिए: दीपमाला के महत्त्व तथा सम्मान की एक और भी बात है। इतिहास बतलाता है कि जब भगवान महावीर का निर्वाण हुआ, उस समय अनगार गौतम भी उनके पास बैठे उनके :
..