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सोलहवां अध्याय
गणना कहां तक की जाये ?
जैन सिद्धान्त कहता है कि हिंसा में धर्म न रहा है और न कभी रहेगा । हिन्दी के कवि ने इसी सत्य को कविता की भाषा में कितनी सुन्दरता से व्यक्त किया है ? वह कहता है
अग्नि जैसे अरविन्द न
:
विलोकियत, वासर न जानिए ।
सूरज अस्त में जैसे
मांप के वदन जैसे अमृत न उपजत, काल कूट खाय जोवन न मानिए || कलह करत नहीं पाइए सुजस रस,
वाढत रसांस रोग नाश न वखानिए । प्राणवध हिंसा मांही, धर्म की निशानी नहीं,
याही ते वनारसी विवेक मन आनिए | अर्थात्-ग्रग्निकुण्ड से कमलों का जन्म नहीं होता, सूर्यास्त होने पर दिन नहीं रहता, क्लेश की अवस्थिति में सुयश का रस प्राप्त नहीं होता, सर्प के मुख में अमृत पैदा नहीं होता, विप सेवन से जीवन सुरक्षित नहीं रहता, रसांस के बढ़ने से रोग का नाश नहीं होता । कवि वनारसी दास जी कहते हैं कि जैसे ऊपर की बातें संभव हैं, ऐसे ही जीव हिंसा में कभी धर्म नहीं ठहर सकता । अतः मनुष्य को यह विवेक मन में धारण कर लेना चाहिए ।
इसके अलावा, भगवतीसूत्र शतक २, उद्देशक ५. सूत्र १०९ में श्रावक के पांच अभिगम ( साधु के सन्मुख जाते समय श्रावक के पांच कर्तव्य ) वतलाए हैं । वे इस प्रकार है- १. सचित्त द्रव्य, पुष्प, ताम्बूल यादि का परित्याग करना । २. ग्रचित्त द्रव्यशारीरिक वस्त्रों को मर्यादित करना । ३. एक पट वाले दुपट्टे का