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अठारहवां अध्याय
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जाते हैं। इन नाटकों में यहाँ के २००० वर्ष पूरे हो जाते हैं । वह देव वहां के सुखों में लुब्ध हो जाता है, श्रीर. वहीं भोगोपभोगों में रमण करता रहता है ।
सर्वार्थसिद्ध नामक विमान के मध्य छत में, एक चन्दोवा २५६ मोतियों का होता है । उन सबके बीच का एक मोती ६४ मन का होता है । उसके चारों तर्फ चार मोती ३२-३२ मन के हैं । इनके पास ग्राठ मोती १६-१६ मन के हैं । इनके पास १६ मोती आठ-आठ मन के हैं । इनके पास बत्तीस मोती चार-चार मन के हैं । इनके पास ६४ मोती दो-दो मन के हैं और इन के पास १२८ मोती एक-एक मन के हैं । ये मोती हवा से आपस में टकराते हैं तो उनमें से छः राग और छत्तीस रागनियां निकलती हैं। सर्वार्थसिद्ध के देव एक ही भव करके अर्थात् मनुष्य हो कर मोक्ष प्राप्त करते हैं। यहां के देव सर्वाधिक सुख के भोक्ता होते हैं ।
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जिस देव की जितने सागरोपम की आयु होती है, वह उतने ही पक्ष में श्वासोच्छ्वास लेता है और उतने ही हज़ार वर्ष में उसे श्राहार करने की इच्छा पैदा होती है । जैसे सर्वार्थसिद्ध के विमान की देव की ग्रायु ३३ - सागरोपम होती है, तो वह तेतीस पक्ष में ( १६३ महीनों में) एक वार श्वासोच्छ्वास लेते हैं, और तेतीस हज़ार वर्षों के बाद आहार ग्रहण करते हैं । देव कवलाहार नहीं करते, रोमाहार करते हैं । जब इन्हें आहार की इच्छा होती है तो रत्नों के शुभ पुद्ग़लों को रोमों द्वारा खींच लेते हैं ।
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नीचे-नीचे के देवों से ऊपर-ऊपर के देव सात बातों में अधिक होते हैं- स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्याविशुद्धि, इन्द्रियविषय और श्रवधिविषय | स्थिति को लेकर ऊपर के देवों की जो अधिकता है, सर्वप्रथम इस को समझ लीझिए
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