Book Title: Prashno Ke Uttar Part 2
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 601
________________ अठारहवां अध्याय ૨૬ और सर्वार्थ सिद्ध विमान के देव की प्रायु ३३ सागरोपम है। यहां जघन्य और उत्कृष्ट भेद नहीं है । प्रभाव निग्रह, अनुग्रह करने का सामर्थ्य, अणिमा महिमा यादि सिद्धि का सामर्थ्य और ग्राक्रमण करके दूसरे से काम करवाने का वल, यह सब बातें प्रभाव के अन्तर्गत हैं । ऐसा प्रभाव यद्यपि ऊपरऊपर के देवों में अधिक होता है, तथापि उन में उत्तरोत्तर अभिमान : व संक्लेश कम होने से वे अपने प्रभाव का उपयोग कम ही करते हैं । सुख और द्युति इन्द्रियों के द्वारा उन के ग्राह्यविपयों का अनुभव करना सुख कहा जाता है | शरीर, वस्त्र और आभरण आदि की दीप्ति हो द्युति है । सुख और युति ऊपर-ऊपर के देवों में अधिक होने के कारण उत्तरोत्तर क्षेत्र स्वभाव जन्य शुभ पुद्गल परिणाम की प्रकृष्टता ही है । *लेश्या की विशुद्धि पहले दो स्वर्गों के देवों में पीत अर्थात् तेजो लेश्या होती है । तीसरे से पांचवें स्वर्ग तक के देवों में पद्मलेश्या और छठे से सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त के देवों में शुक्ललेश्या होती है । यह नियम शरीरवर्णरूप द्रव्य लेश्या का है, क्योंकि अध्यवसायरूप भावलेश्या तो सब देवों में छहों पाई जाती हैं । भाव यह है कि ऊपर के देवों की लेश्या संक्लेश पद्म, * लेश्या (परिणाम की धारा) छः होती हैं-कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, और शुक्ल | कृष्ण लेश्या वाला पांच श्राश्रवों का सेवन स्वयं करता है, दूसरों से कराता है, तीव्र परिणामों द्वारा छः काया का आरंभ करता है, हिंसा आदि पापों में सदा प्रसन्न रहता है । नीललेश्या बाला ईर्ष्यालु होता है। दूसरों के गुणों को सहन

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