Book Title: Prashno Ke Uttar Part 2
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 553
________________ सतरहवां अध्याय .xxxmammin..rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr........ . अहिंसा के सूक्ष्म और विस्तृत भेदों से उपभेदों से हमें भयभीत नहीं होना चाहिए । हिंसा प्राध्यामिकता का सागर है । उस में से जितना भी हम ले सकें, उतना ले लेना चाहिए । कल्पना करो। गंगा अपना विशाल प्रवाह लिए बह रही है, उस की असीम जल- .. राशि और चौड़े फट को देख कर कोई मनुष्य किनारे पर खड़ाखड़ा विचार करे कि मैं प्यास से छटपटा रहा हूं। मुझे गंगा का जल पीना चाहिए, मगर कैसे पोऊ ? गंगा का प्रवाह बहुत बड़ा है,.. और मेरा मुह बहुत छोटा है । इस छोटे मुह में इतना बड़ा प्रवाह .. कैसे समा सकता है ? तो ऐसे विचार करने वाले मनुष्य को क्या कहना चाहिए ? . यही न, कि भाई.! गंगा का प्रवाह विशाल है, तो इसका तुझे क्या कष्ट है ? तुझे प्रवाह पीना है या पानी ? यह तो आवश्यक नहीं है कि यदि पोए तो सम्पूर्ण प्रवाह को पीए और न पीए तो बिल्कुल ही न पीए, प्यास से ही छटपटाता रहे । देवता!.. गंगा के प्रवाह को चिन्ता न कर, तुझे इस की विशालता से क्या.?... जितनी प्यास है, तुझे उतना ही पानी पी लेना चाहिए ! भाव यह है. कि जैसे प्रवाह विशाल या असीम होने के कारण गंगा का जल अपेय : नहीं हो जाता, उसी प्रकार अहिंसा-सिद्धान्त विशाल और असीम होने के कारण अनाचरणोय नहीं कहा जा सकता। जैसे गंगा की - असीम... जलराशि में से एक चुल्लू या एक लोटा या एक घड़ा पानी · लेकर व्यवहार में लाया जा सकता है, उसी प्रकार अहिंसा-गंगा के पावन नीर का भी अपनी शक्ति के अनुसार व्यवहार किया जा.. __ सकता है। . ... . .... - जैन-धर्म ने साधक-जीवन अनेक श्रेणियों में विभक्त कर दिए । ' हैं । उनके सामर्थ्य के अनुसार अहिंसा की भी अनेक श्रेणियां बना दीः .. गई हैं। मुनिजन सम्पूर्ण अहिंसा का पालन करने की चेष्टा करते हैं..... : और गृहस्थ आंशिक अहिंसा को अपने जीवन में लाने काप्र यत्ल करता

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