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प्रश्नों के उत्तर
.. है मुनियों के अहिंसावत को महावत और गृहस्थों के अहिंसावत ... को अणुव्रत कहा गया है। फिर इसमें भी बहुत से प्रकार हैं, वहुत सी
कोटियां हैं, और जो व्यक्ति जिस प्रकार का या कोटि की अहिंसा का
पालन करना चाहे वह उसी का पालन कर सकता है। जन धर्म ... जबर्दस्ती किसी पर अहिंसा को नहीं लादता । जैनधर्म ने अहिंसा
के सूक्ष्म और स्थूलं ये दोनों रूप अध्यात्म जगत के सामने उपस्थित कर दिए हैं। उसको अपनाने वाला अपनी क्षमता तथा शक्ति के
के अनुसार जिस रूप को अपनाना चाहे सहर्ष अपना सकता है। .. .. जैनागमों में स्थान-स्थान पर "जहासुह देणुप्पिया !" इस वाक्य का
यादर किया है। जब किसी साधक ने किसी तीर्थंकर या वीतराग महापुरुष के सामने साधना के महापथ पर चलने के लिए उनकी
अनुमति मांगी है तो उन्होंने उत्तर में यही कहा कि देवानुप्रिय! तुम . .. अपनी शक्ति देखो, क्षमता देखो। यदि तुम्हारे में इस रास्ते पर चलने
की शक्ति है तो अवश्य चलो, यदि शक्ति नहीं है तो फिर जितनी शक्ति है, उसका सदुपयोग करो। जैन धर्म ने साधक की क्षमता की ओर पूरा-पूरा ध्यान दिया है। वलात् किसी पर किसी साधना को नहीं लादा । ऐसी ही स्थिति अहिंसा के सिद्धान्त की है। इसे भी यथेच्छ
और यथाशक्ति अपनाया जा सकता है।. .. . ... .. .. - . यह समझना कि अहिंसा का पालन करने से संसार के काम रुक
किसी को सम्बोधित करने के लिए जैनागमों में प्रायः, देवानुप्रिय शब्द ... का प्रयोग पाया जाता है। देवानुप्रिय शब्द. यशस्वी, तेजस्वी, सरल-प्रकृति, देव के : समान प्रिय, ऐसे अनेको अर्यों का परिचायक है। कल्पसूत्र के व्याख्याकार श्री समयसुन्दर गणी जी देवानुप्रिय शब्द का "देवानपि अनुरूपं प्रीणाति इति देवानुप्रियः" . यह अर्थ करते हैं। वक्ता देवानुप्रिय शब्द के सम्बोधन से सम्बोधित व्यक्ति में देवों को प्रसन्न करने की विशिष्ट योग्यता बता कर उस का सम्मान प्रकट करता है ।