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अठाहरवां अध्याय
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डाला जाता है, अांखें शूल से फोड़ी जाती हैं, मिों का भयंकर घुग्रां सुघाया जाता है, मुह में कटार भरी जाती है, घानी में पीड़ा जाता है, अंगारों पर पकाया जाता है। इस प्रकार पूर्व जन्म-कृत : कुकृत्यों के अनुसार नारकीय जीवों को नाना प्रकार के घोरातिघोर दुःख दिए जाते हैं। नारकीय जीव भी विवशता से सारा जीवन इन . सब तीव्र वेदनाओं के उपभोग में ही व्यतीत कर देते हैं। वेदना कितनी भी क्यों न हों, पर नारकीय जीवों को न कोई शरण है
और उनकी अनपर्वतनीय प्रायु होने के कारण न उन का जीवन ही समाप्त होता है।
* श्रायु दो तरह की होती है-अपवर्तनीय, और अनपर्वतीय । जो आयु वन्ध-कालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले ही भोगी जा सके वह अपवर्तनीय और जो
यायु बन्ध-कालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले न भोगी जा सके वह अनपवर्तनीय . . आयु कहलाती है। जैने दर्शन कहता है कि भावी जन्म की आयु वर्तमान जीवन में निर्माण की जाती है। उस समय यदि परिमाण मंद हों तो आयु का वधं शिथिल
होता है, जिससे निमित्त मिलने पर बंधकालीन कालमर्यादा घट जाती है। इसके ... विपरीत आयु वंध करते समय यदि परिणाम तीव्र हों तो आयु का बंध प्रगाढ होता - है, जिस से निमित्त मिलने पर भी वह वंव-कालीन काल-मर्यादा घटने नहीं पाती, .: और न ठसे एक साथ ही मोगा जा सकता है। जैसे सघन बोए हुए बीजों के पौधे
पशुओं के लिए. दुष्प्रवेश और विरल-विरल बोए. वीजों के पौधे उनके लिए सुप्रवेश होते ... है, वैसे ही तीन परिणाम जनितप्रगाढ बंध वाली आयु शस्त्र, विष, अग्नि आदि का : - प्रयोग होने पर अपनी नियत कालमर्यादा से पहले पूर्ण नहीं होती और मंदपरिणाम
. जनित शिथिलबंध वाली आयु उक्त प्रयोग होते ही अपनी नियत काल मर्यादा पूर्ण होने . ... से पहले ही अन्तमुहर्त मात्र काल में भोग ली जाती है। आयु के इस शीव भोग . -: ... को अपवर्तना या अकाल मत्यु कहते हैं और नियत स्थितिक मोग को अनपवर्तना ... . या काल-मृत्यु कहते हैं । अपवर्तनीयं आयु सोपक्रम (उपक्रमसहित) होती है। तीव्र
शस्त्र, तीव्र विष और तीन अम्नि आदि जिन निमित्तों से अकालमृत्यु होती है उनका .