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अठारहवां अध्याय
हो जाती है। तीसरी से पृथ्वी में स्निग्यता पाती है। चौथी से २४ प्रकार के धान्यों के तथा अन्यान्य वनस्पतियों के अंकुर भूमि से निकल पड़ते हैं और पांचवीं से वनस्पति. में मधुर, कटुक, तीक्ष्ण, कपले . और अम्लरस की उत्पत्ति होती है।
प्रकृति की यह निराली लीला देख कर बिलों के निवासी जीव बिलों से वाहिर निकलते हैं, वे पृथ्वी को सरस, सुन्दर और . रमणीय देख कर फूले नहीं समाते । एक दूसरे को बुला कर परस्पर होत्सव मनाते हैं। पत्र, पुष्प, फल प्रादि से. शोभित वनस्पतियों . से अपना निर्वाह होते देख वे मिल कर प्रतिज्ञा करते हैं कि आज : से हम लोग मांसाहार नहीं करेंगे, आज से हमारे लिए मांसाहारी की छाया भी त्याज्य होगी। .. . - पांच प्रकार की वर्षा वरसाने वाले क्रमशः पुष्कर, क्षीर, घृत, अमृत और रस ये पञ्चविध मेघ हैं। प्रत्येक मेघ सप्ताह भर वर्षा करता है। पुष्कर और अमृत मेघ के वर्षा कर देने के अनन्तर सातसात दिन तक वर्षा वन्द रहती है । इस प्रकार पांच सप्ताह वर्षा के और दो सप्ताह विनाः वर्षा के इन समस्त दिनों को मिला कर ७४५-३५+१४ : ४९ दिन होते हैं । ५.०वें दिन सभी विल निवासियों ने प्रतिज्ञा की थी और यह दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से लेकर भाद्रपद शुक्ला पंचमी को आता है । व्यवहार में उस ही दिन सम्वत्सर का प्रारंभ होने से ५०वें दिन संवत्सरी महापर्व मनाया -. जाता है । सम्वत्सरी पर्व के सम्बंध में पृष्ठ ८२५ पर प्रकाश डाला जा चुका है। .
उत्सर्पिणी-कालीन द्वितीय पारे में पूपिक्षयां मनुष्यों तथा अन्य पदार्थों के वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श आदि की उत्तमता में
उन्नति होती चली जाती है। इस बारे के जीव मर कर अपने-अपने . " कर्मों के अनुसार चारों गतियों में उत्पन्न होंगे, किन्तु सिद्ध पद कोई
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