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प्रश्नों के उत्तरं
वात, इसे नीचे की पंक्तियों में समझिए-........ - मूर्तिकला में मूल आधार पत्थर, धातु, मिट्टी या लकड़ी आदि के टुकड़े होते हैं, जिन्हें मूर्तिकार कांट, छांट या ढ़ाल कर अपने अभीष्ट प्रकार में परिणत करता है ! मूर्तिकार की छैनी में असली . संजीव या निर्जीव पदार्थ के सब गुण अन्तहित होते हैं। वह सब . कुछ अर्थात् रंगरूप, आकार आदि प्रदर्शित कर सकता है। केवल . . गति देना. उसके - सामर्थ्य से वाहिर होता है। जब तक कि वह किसी कल या पुर्जे का आवश्यक प्रयोग न करे । परन्तु ऐसा करना ।
उसकी कला की सीमा से वाहिर है। उस में मानसिक भावों का .. -- प्रदर्शन वास्तुकार (मकान आदि बनाने वाले) की कृति की अपेक्षा. . . .. अधिकता से हो सकता है । मूर्तिकार अपने प्रस्तरखण्ड या धातुखण्ड ... . में जीव-धारियों की प्रतिच्छाया वड़ी सुगमता से संघटित कर सकता .
है। यही कारण है कि मूर्तिकला का मुख्य उद्देश्य शारीरिक या. प्राकृतिक सुन्दरता को प्रकाशित करना है ।* . .
यदि मूर्ति के मूल इतिहास को टटोलने लगें तो पता चलेगा। .. कि पहले-पहल मूर्ति के निर्माण में एक यही उद्देश्य होता था। किन्तु .
. समय ने ऐसा चक्र चलाया कि उसमें अनेकों विकार आ गए और . . मूर्ति के पीछे जो मूल भावनाएं. थीं, वे समाप्त हो गई, तथा. . . ... जड़त्व को समाप्त करके उसमें भगवान की कल्पना कर दी गई।
भगवान् की भांति उस जड़खण्ड की भी आराधना और उपासना होने । लगी। उस को सीस झुकाना, स्नान कराना, तिलक लगाना, उस पर पुष्पों की वर्षा करना, चावल आदि चढ़ाना, दीप और धप जलाना, और न जाने क्या क्या सामग्री मूर्तिदेव के चरणों में अर्पित की जाने लगी। मूर्ति के पीछे यह जो व्यर्थ का हिंसापूर्ण आडम्बर लगा दिया .
. . . . *"ललितकला कलाएं और काव्य' नामक लेख में, डा० श्याम सुन्दर जी। ...