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सतरहवां अध्याय
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के घाट उतार कर भी ग्रेमेरीका की ग्रांखों का खून नहीं उतरा और न वहां पश्चात्ताप का ही उदय हुम्रा है । पश्चात्ताप हो भी क्यों? हिंसा के प्रति पश्चात्ताप ग्रहसक को ही हो सकता है। हिंसा भगवती के चरणों की सेवा किए बिना पश्चात्ताप की भावना पैदा नहीं हो सकती। हिंसक मानस ही किसी दुःखी को देख कर करुणा के "सू वहा सकता है और हिंसक वृत्तियों के लिए पश्चात्ताप किया करता है, स्वार्थी और अपने हो में घिरा रहने वाला व्यक्ति दूसरे की वेदना की क्यों चिन्ता करे ?
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लोग सिंह और बाघ जैसे पशुओं को क्रूर कहते हैं, परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । मानव की क्रूरता पशुयों से बहुत बढ़ी चढ़ी है, मानव की क्रूरता के सामने पशुओं की क्रूरता किसी गिनती में नहीं है । युद्धों में होने वाले हजारों, लाखों मनुष्यों के संहार के समक्ष पशुओं द्वारा की गई हिंसा कुछ भी नहीं है । पशुयों की क्रूरता अपनी खुराक तक सीमित रहती है, परन्तु मनुष्य तो भोजन के "सिवाय अन्य कई विलासप्रिय साधनों के लिए तथा अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के निमित्त क्रूरता का ताण्डव नृत्य करता रहता है। मनुष्य ने पशुओं को अधिक संख्या में मारा है या पशुयों ने मनुष्य को अधिक तादाद में मारा है ? इस का यदि हम विचार करने लगे तो यह सहज में ही प्रतीत हो जायगा कि पशुओंों ने जितने मनुष्य मारे होंगे उनसे सैंकड़ों, नहीं नहीं, लाख गुणा अधिक पशुत्रों को मनुष्य ने मारा होगा ? इससे बढ़कर मनुष्य की स्वार्थीप्रियता और अज्ञानता का कौन सा उदाहरण उपस्थित किया जा सकता है ? विश्व में यदि हिंसा का प्रसार हो जाए और प्रत्येक राष्ट्र अहिंसक भावनाओं को अपना ले तो यह दृढ़ता के साथ कहा जा सकता है कि विश्व में शान्ति स्थापित होने में कुछ भी देर न लगे । वस्तुतः भावना के परिवर्तन को ही आवश्यकता है। हिंसक भावना
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