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प्रश्नों के उत्तर
सत्य समझने का नाम मिथ्यात्व कहा गया है । पूजा करने वाले व्यक्ति का यह विश्वास है, और उसकी यह मान्यता है कि मैं जो देवपूजा कर रहा हूं, यह धर्म नहीं है, इस का धर्म से कोई सम्बंध नहीं है । वह यह भी भली भांति जानता है कि मैं यह मोहवर्धक काम कर रहा हूं, इस से मुझे कोई अध्यात्मलाभ नहीं हो सकता, उस की अन्तरात्मा सदा विचारती रहती है कि मैं क्या करूं? मैं गृहस्थ हूं, स्वयं जिस काम को संसारवर्धक मानता हूं, धर्मदृष्टि से जिसे अच्छा नहीं समझता हूं, पर लोक दिखावे के लिए या अपने ऐहिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए ये काम मुझे करने पड़ते हैं । जानता हूं कि वीतराग देव की भक्ति और स्तुति ही संसार-सागर से पार करने वाली है, मढ़ी-मसानी या देवी, देवता की पूजा से आत्मा का पतन होता है, संसार की वृद्धि होती है, तथापि मोहवश मुझे ऐसा करना पड़ रहा है, ऐसा सत्य विश्वास रखने पर भी उसे मिथ्यात्वी या सम्यक्त्वशून्य कैसे कहा व माना जा सकता है ?
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शास्त्रों के परिशीलन से पता चलता है कि शुभाशुभ कर्म फल की प्राप्ति में अनेकों निमित्त होते हैं। उनमें एक * देव भी है। देवनिमित्रताके शास्त्रों में यत्र तत्र अनेकों उदाहरण मिलते हैं । श्री कल्पसूत्र में लिखा है कि हरिणगमेशी देव ने गर्भस्थ भगवान् महावीर को देवानंदा की कुक्षि से महारानी त्रिशला के यहां परिवर्तित किया था । अन्तकृद्दशांग सूत्र का कहना है कि देव ने सेठानी सुलसा की सन्तति को माता देवकी के यहां और देवकी की सन्तति को सेठानी सुलसा के यहां पहुंचाया था । श्री ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र में लिखा है कि महाराज श्रेणिक के प्रधान मंत्री श्री अभयकुमार के मित्रदेव ने अकाल में मेघ बना कर माता धारिणी का दोहद पूर्ण किया था । * स्थानांगसूत्र स्थान ५. उद्देशक २.