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प्रश्नों के उत्तर
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स्थापित कर लिया है । स्वार्थ साधना के लिए ग्राज का मनुष्य उचित, अनुचित कर्तव्य, श्रकर्तव्य का कोई विचार नहीं करता । स्वार्थ की पूर्ति होनी चाहिए, उसके लिए अनैतिकता का नग्न नृत्य भी क्यों न करना पड़े । "हम ही ग्रागे रहें, दूसरा चाहे कहीं जावे" । इस स्वार्थपूर्ण दृष्टि को आगे रखकर बड़े ऊंचे-ऊंचे सिद्धान्तों की घोषणा की जाती है, जिस प्रकार पंचतंत्र का बूढ़ा वाघ अपने श्राप को बड़ा भारी अहिंसाव्रती बताकर प्रत्येक पथिक से कहा करता था - " इदं सुवर्ण - कंकण गृह्यताम्' । और जिस प्रकार एक ग़रीब ब्राह्मण उस बाघ के चक्र में ग्राकर प्राणों से हाथ धो बैठा था वैसे ही उच्च सिद्धान्तों की घोषणा करने वाले लोगों के फन्दे में लोग फंस जाते हैं और नाना प्रकार के असह्य दुःखों का उपभोग करते हैं । श्राश्रितों का शोषण; अपनी श्रेयता का अहंकार, दूसरों से घृणा और प्रतिहिंसा की तीव्र भावना ही प्राज के उन्नत और सशक्त कहे जाने 'वाले राष्ट्रों के जीवन का आधार है। पारस्परिक सहानुभूति, समवेदना और सहयोग प्रादि की बातें याज प्रायः वाचनिक आश्वासन का - स्थान ले चुकी हैं। इसका कारण केवल स्वार्थपरायणता है। वस्तुतः स्वार्थ की प्रविस्थति में मनुष्य बड़े से बड़ा पाप करने को सन्नद्ध हो जाता है। हीरोशिमा द्वीप के नर-संहार को कौन नहीं जानता ? अमेरिका ने वहां अणुबम गिरा कर लाखों जापानियों को स्वाहा कर दिया था। अपने स्वार्थ के लिये अन्य देश अथवा राष्ट्र कें वच्चे, महिलाओं ग्रादि के जीवन का कोई भी मूल्य नहीं रहता । वे क्षण भर में मौत के घाट उतार दिए जाते हैं । जहां तक ऊपर की चर्चा का सम्वन्ध है, वहां तक तो प्रत्येक राष्ट्र मानवता, करुणा, विश्वप्रेम की ऐसी मोहक वातों की चर्चा करता है, और अपने कामों में इतनी नैतिकता दिखाता है कि नीति, विज्ञान के प्राचार्य भी.. चकित रह जाते हैं, किन्तु जव प्राचरण का प्रश्न प्रांता है तो सब
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