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प्रश्नों के उत्तर
लड़की की भावना करना किसी भी तरह संगत नहीं कहा जा सकता । भावना मनुष्य को पशु और पशु को मनुष्य नहीं बना सकती । गीता कहती हैं कि असत् सत् नहीं होता और सत् ग्रसत् नहीं बन सकता । यदि ग्राम में पानी की भावना कर ली जाए तो भाग पानी वन सकती है ? या पानी याग का रूप ले सकता है ? उत्तर स्पष्ट है, कभी नहीं ।"
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कल्पना करो । एक व्यक्ति एक काग़ज़ के टुकड़े पर दस रुपए के नोट की भावना कर लेता है और फिर बाज़ार में जाकर मुंह मीठा करना चाहता है । कर सकेगा ? कदापि नहीं । मुंह मीठा तो क्या होगा ? उलटा यह अधिक संभव है कि उस पर दो चार थपेड़ पड़ जाए ं । वास्तव में सत्यतापूर्ण भावना ही रंग लाया करती है । वही भवनाशिनो और कार्यसाधिती हुआ करती है । असत्यपूर्ण भावना का कोई मूल्य नहीं होता । एक विधवा के पास उस के पति की पाषाण प्रतिमा है, उसे वह हर तरह संभाल कर रखती है | यदि वह स्त्री उस पाषाणप्रतिमा पर अपने पति की भावना कर ले, पति बुद्धि से उस मूर्ति के दर्शन करने लगे तो क्या उस से उस का वैधव्य मिट जायगा ? और वह संसार में. सधवा: कहला सकेगी ? यदि भावना से ही सब काम बन सकते हों तब तो वह विधवा नारी भी पति की पाषाण-प्रतिमा पर पतिबुद्धि कर लेने के बाद सधवा बन जानी चाहिए। पर संसार में ऐसे कोई विधवा: नारी सधवा नहीं बन सकी है। इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि जड़ में चेतन भगवान् की भावना कर लेने से जड़ मूर्ति भगवान्नहीं बन सकती ।
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प्रश्न- मूर्तिपूजा से मन टिकता है, अस्थिर मन स्थिर हो जाता है, इस लिए मूर्ति पूजा की आवश्यकता है । फिर
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