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पन्द्रहवां अध्याय
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है । भाई बहिन के इसी पवित्र स्नेह भाव का प्रतीक यह भय्या दूज पर्व माना गया है ।
रक्षावन्धन
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राजा पद्म के मंत्री का नाम था बलि । वह जैन साधुयों से घृणा और द्वेष रखता था । किन्तु था बड़ा वीर । एक बार उस ने युद्ध में पराक्रम दिखला कर अपने राजा को प्रसन्न कर लिया । महाराज पद्म ने प्रसन्न हो कर वलि को सात दिन का राज्य दे दिया । इधर अकस्मात् श्रकम्पनाचार्य अपने सात सौ शिष्यों के साथ उधर या निकले । वलि को भी पता चला। उसने अपने द्वेष वश मुनिसंघ को एक बाड़े में घेर कर पुरुष - मेध यज्ञ में वलि करने का निश्चय किया । ऐसे संकट काल में एक वैक्रियलब्धि धारी मुनि विष्णु कुमार से प्रार्थना की गई कि आप पद्मराजा के भाई हैं, अतः ग्राप ही इस मुनिसंघ पर प्राये संकट को दूर कीजिए । तपस्या में लीन विष्णुकुमार मुनि उक्त प्रार्थना पर नगर में प्राए और उन्हों ने अपने भाई पद्म राजा को समझाया कि भाई ! इस कुरुवंश में तो साधुओं का प्रदर "होता ग्राया है किंतु ध्रुव यह क्या अनर्थ होने जा रहा है ? पद्मराजा को उक्त घटना से दुःख तो बहुत था, किन्तु वे वचनवद्ध थे, उन्हों ने अपने को विवशः वताया । तव विष्णु कुमार मुनि वलि राजा के पास गए और उससे मुनिसंघ के लिए स्थान मांगा। वलि ने कहा कि आप मेरे राजा के भाई हैं, इस लिए आप का मान करता हुआ मैं प्रढ़ाई क़दम जगह देता हूं, उसी में रह लो। इस पर विष्णु • कुमार को रोष आया और अपनी शक्ति का चमत्कार उन्हों ने वहां प्रकट किया। उन्हों ने एक पैर सुमेरु पर्वत पर रखा और दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर और तीसरा कदम बीच में लटकने लगा । यह देख पृथ्वी-वासी लोग अत्यधिक क्षुब्ध हो गए, बलि क्षमा मांगने.
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ग्रतः
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