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प्रश्नों के उत्तर
श्रवण कर रहे थे। इन के मन
पावन मुख से "समयं गोवम ! ना पमायण" इन मंगल वचनों का भगवान का निर्वाण हो जाने पर वे सन्न से रह गए। भूचाल सा ग्रा गंया, ग्रांखों के ग्रागे अन्धेरा छा गया । वे वज्राहत की भांति दुःख - सागर में डूब गए। ग्रन्त में, बड़ी मुश्किल से इन का मानस "कुछ स्वस्थ हुआ और इन की अन्तरात्मा कृत हो उठी
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दुनिया के बाज़ार में चल कर आया एक । मिले अनेकों बीच में, अन्त एक का एक ॥।
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इस सात्त्विक और धार्मिक विचारणा की पराकाष्ठा के सुदर्शन चक्र ने कर्म सेनापति मोहकर्म को सदा के लिए शान्त कर दिया । सेनापति मोह के समाप्त होते ही भगवान गौतम को केवल ज्ञान प्राप्त हो गया । श्री गौतम जी महाराज* का ग्रन्तर्जगत केवल ज्ञान की ज्योति से ज्योतित हो उठा । जैन परम्परा के अनुसार देवों ने ग्राकाश में हर्प-दुन्दुभि वजाई और बड़े समारोह के साथ भगवान् गौतम के केवल ज्ञान महोत्सव को मनाया ।
दीपमाला की रात्रि को दो मांगलिक कार्य सम्पन्न हुए थे । एक भगवान महावीर का निर्वाण और दूसरे भगवान गौतम को केवल ज्ञान । यही कारण है कि दीपमाला की रात्रि जैनों की परम आराध्य तथा उपास्य रात्रि वन गई है । जैन लोग इस पवित्र रात्रि को सब से महत्त्व पूर्ण तथा आत्मशुद्धि की सर्वोत्तम सन्देशवाहिका रात्रि समझते हैं । शास्त्रीय मान्यता है कि इस रात्रि को ग्राकाश के
* भगवान महावीर द्वारा स्वयं दीक्षित किए हुए १४ हजार साधु थे, उनमें प्रधान श्री गौतम स्वामी थे | भगवान के ११ गणधरों में इनका पहला स्थान है । इनका वास्तविक नाम इन्द्र-भूति था । गौतम तो इनका गोत्र था किन्तु जैन संसार में ये अपने गोत्र से ही अधिक प्रसिद्ध हैं ।