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• चतुरंश अध्याय
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हो उन्होंने दयादान का विरोध किया और भगवती दया का कण्ठ मरोड़ने का कुत्सित प्रयास किया। .. यदि श्रावक कुात्र है तो श्रावक को कुपात्र कहने वाले भी कुपात्र ही हैं। यह बात दूसरी है कि श्रावक में कुपात्रता अधिक निकले और साधु में उससे कम । परन्तु यह सुनिश्चित है कि श्रावक को कुपात्र कहने वाले स्वयं कुपात्रता से वच नहीं सकते। देखिए, मिथ्यात्व, अंवत, प्रमाद, कपाय और योग ये पाँच पाश्रव माने जाते हैं। इन पांचों आश्रवों को हम संख्या में १, २, ३, ४, ५ .मान
लेते हैं। मिथ्यात्व - अाधव को साधु और श्रावंक दोनों ने छोड़ .' दिया है। बाकी २, ३, ४, ५ यह संख्या रही। इस में से अव्रत
आश्रव को साधु ने सर्वथा वन्द कर दिया है और श्रावक ने उसे आंशिक रूप से बन्द किया है। इस प्रकार २, ३, ४, ५ संख्या में से साधु ने २ का अंक सर्वथा उड़ा दिया और श्रावक ने उस दो के अंक को तोड़ कर, एक कर दिया है। शेप में साधु और श्रावक
दोनों ही वरावर हैं । यदि-दोनों द्वारा छोड़े गए आश्रव की संख्या . घटा दी जावे तो श्रावक के जिम्मे श्रावक का अंक १, ३, ४, ५ ___.. रहता है और साधुओं के हिस्से ३, ४, ५ रहता है। अब विचार
करने की बात है कि जिस ने १, ३, ४, ५ रुपये देने हैं यदि वह . कर्जदार कहा जावेगा, तो क्या जिसने ३, ४, ५ रुपये देने हैं वह । कर्ज़दार नहीं कहा जावेगा ?. कर्जदार तो दोनों ही हैं, कोई कम कर्जदार है तो कोई ज्यादा । इस प्रकार यदि पाश्रव की अपेक्षा श्रावक को कुपात्र कहा जा सकता है, तो साधु को भी कुपात्र कहा जा . सकता है । यदि कहा जाय कि श्रावक की अपेक्षा साधु पर पाश्रव का ऋण बहुत कम है, इस लिए साधु सुपात्र है और श्रावक कुपात्र है तो इस का उत्तर स्पष्ट है कि मिथ्यात्त्री की अपेक्षा श्रावकः का