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चतुर्दश अध्याय
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तेरहपन्थ का विश्वास है कि साधु के सिवाय अन्य लोगों को दान देना अथवा मित्र सम्बन्धी आदि को खिलाना-पिलाना पाप है । इस की पुष्टि में उस की ओर से ग्रानन्द विक का उदा हरण दिया जाता है । कहा जाता कि श्रानन्द श्रावक ने भगवान महावीर के सामने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं श्रमण व निर्ग्रन्थ के सिवाय और किसी को आहार- पानी नहीं दूंगा, न उनका स्वागत करूंगा । इस उदाहरण द्वारा यह प्रमाणित किया जाता है कि साधु के सिवाय अन्य लोगों को दान देना, खिलाना तथा पिलाना पाप न होता, तो श्रानन्द श्रावक ऐसा अभिग्रह क्यों लेता ? और भगवान महावीर ऐसा अभिग्रह क्यों कराते ? किन्तु स्थानकवासी परम्परा तेरहपन्थ के इस सिद्धान्त में विश्वास नहीं रखती । उसका विश्वास है कि आनन्द श्रावक का उदाहरण उपस्थित करके जो दान का निषेध किया जाता है, वह ठीक नहीं है । क्योंकि आनन्द श्रावक ने जो अभिग्रह लिया था, वह अन्यतोर्थी साधुयों को गुरु- बुद्धि से दान देने के विषय में था । उस का भाव यह था कि मैं जैनेतर साधुत्रों को गुरु मानकर, पांच महाव्रत - धारी समझ कर दान नहीं दूंगा । साधुओं के सिवाय और किसी को भोजन देना पाप है, इस दृष्टि से आनन्द ने वह अभिग्रह धारण नहीं किया था । आप पूछ सकते हैं कि इसमें प्रमाण क्या है ? इसमें प्रमाण आनन्द श्रावक का अपना जीवन ही है । यदि आनन्द श्रावक 'साधु के सिवाय किसी अन्य को खिलाने-पिलाने से पाप होता है' इस विश्वास का होता तो वह ग्रपने सगे सम्बन्धी मित्र आदि को भोजन, वस्त्र - दि से सत्कृत न करता । एक बार धर्म- जागरण करते समय श्रानन्द ने यह संकल्प किया था कि अपने नागरिक कार्यों में हस्तक्षेप करते रहने से मैं भगवान महावीर से गृहीत धर्म का पूरी तरह
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