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चतुर्दश अध्याय ~~~~ छः काया काजे हो देवां धर्म उपदेश । एकण जीव ने समझावियाँ, मिट जावे हो घणां जीवरां क्लेश। - छव काय धरे शान्ति हुवे एहवा, ...... भाषे हो अन्य तोर्थी धर्म ।:::.
त्यां भेद न पायो जिन धर्म रो, ...... ते तो भूल्या हो उदय पाया अशुभ कर्म ।' :
....... -अनुकम्पा ढाल ५, कड़ी १६-१७ .. _ अर्थात्--किसी मरते हुएं जीव को बचाने के लिए कोई उपदेश देवे या किसी भी जीव को शान्ति हो,ऐसी भाषा तेरहपंथ जैनधर्म को जानने वाला नहीं बोल सकता है । वह उपदेश-दाता मिथ्यात्वी, अज्ञानी और अशुभ कर्म वांधने वाला है।
'रांकां ने मार धींगा ने पोषे,
आ तो बात दीसे घणी गहरी । . इणं मांही दुष्टी धर्म परूपे, तो रांक जीवां रा शत्रु है भारी।'
--अनुकम्पा ढाल १३, कड़ी ४ . . अर्थात्--गरीव वनस्पति आदि स्थावर जीवों को मार कर . जो शैतान पंचेन्द्रिय जीवों का पोषण करते हैं, वे गरीव जीवों के शत्रु हैं। ... .
...... ..... : .:... "व्याधि अनेक कोढ़ादिक सुण ने, ... ... ..
तिण ऊपर वैद चलाई ने आवे । :.. .." अनुकम्पा आणी.. साझो कीधो, ...