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चतुर्दश अध्याय
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अर्थात् — कुपात्र जीवों को मरने से बचाना, कुपात्र को दान देना, यह संसार का पापमय कार्य है ।
"असंयति
जीवरो जीवणो,
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तो सावेद्य जीतव साक्षात् जी । तिण ने देवे तें सावद्य दान छे, । तिज़ ने धर्म नहीं अंश मात जी ।"
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- अनुकम्पा ढ़ाल १२, कड़ी ४० अर्थात् -- असंयमी (तेरहपंथी साधु से अन्य सब का ) जीवन - पापमय है, उनको दान देना एकान्त पापमय दान है, उसमें धर्म का अंश मात्र नहीं है ।
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"जितरा उपकार संसार रा । . ते तो सगला ही सावद जाणो हो ।” - अनुकम्पा ढ़ाल ४, कड़ी १६ अर्थात् - संसार के जितने उपकार हैं वे सब पाप हैं । संसार के उपकारों को बताते हैं-
"कोई लाय सू बलताने काढ़ बचायो, 'बले कुए पड़ता ने बचायो । बले तलाब में डूबता ने बाहर काढ़े, 'बले ऊंचा थी पड़ताने केले तायो । प्रो उपकार संसार तणो छे, संसार तणो उपकार करे छें तिण रे निश्चय ही संसार बधे ते जाणो । " - अनुकम्पा ढाल ११, कड़ी १२
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