________________
चतुर्दश अध्याय
८०३
प्रकृति नो बन्ध कह्यो ते अनेरी प्रकृति पापनी छे । - भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ७६
अर्थात् साधु के सिवाय वाकी सब मनुष्य कुपात्र हैं, उन्हें दान देने से पाप होता है । पाठकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि तेरहपन्थ के साधु अपने को ही साधु मानते हैं, अन्य किसी को भी साधु मानने को वे तैयार नहीं हैं, यदि उन से कोई पूछे कि ग्राप के सिवाय अन्य सम्प्रदाय के जो साधु हैं, महात्मा हैं । उनको आप साधु मानते हैं या नहीं ? तो स्पष्ट उत्तर न देकर गोलमोल भाषा में उत्तर देंगे कि तुम हो समझलो, हम तो यही कहते हैं कि जिस 'में साधु के लक्षण हैं वही साधु है । परन्तु जब अपने पन्थ के सामने भाषण करते हैं तो अन्य सम्प्रदाय के सभी साधुत्रों को साधु ही बतलाते हैं और उनको दान देने का कोई त्याग करे तो उस की प्रशंसा भी करते हैं ।
*
"अव्रत में दान देना तणा, कोई त्याग करे मन शुद्ध जी । तेने पापं निरन्तर रोकियो, तेनी वीर बखानी बुद्ध जी ।"
भीषण जी के सिद्धान्तानुसार तेरहपन्थी साधुत्रों के सिवाय सभी व्रती हैं । उनको दान देने का यदि कोई त्याग करे तो उस ने अपने प्राते हुए पाप कर्मों को रोक दिया और उसकी बुद्धि की प्रशंसा महावीर ने की है ।
"कुपात्र दान कुक्षेत्र कहया,
कुपात्र रूप कुक्षेत्र में पुण्य बीज किम उपजे ? ” - भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ८०