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चतुर्दश अध्याय
=११ इस मान्यता के अनुसार तेरहपन्थ जीव बचाने में पाप मानता है । प्रश्न - - स्थानकवासी परम्परा और तेरह - पन्थ परम्परा में प्राचार - विचार - सम्बन्धी क्या मतभेद है ?.
उत्तर - स्थानकवासी साधुओं, और तेरहपन्थी साधुयों में सर्व - प्रथम वेष - कृतं अन्तर है । स्थानकवासी साधु ज़रा चौड़ी मुखवस्त्रिका का प्रयोग करते हैं और तेरहपन्थी लम्बी का ।
स्थानकवासी साधुत्रों के निवास स्थान में सूर्यास्त होने के वाद और सूर्योदय तक कोई स्त्री और साध्वियों के यहां कोई पुरुष प्रवेश नहीं कर सकता । किन्तु तेरहपन्थी साधुओं के स्थान पर रात्रि के दस बजे तक स्त्रियाँ और साध्वियों के स्थान पर पुरुष प्रा जा सकते हैं और प्रातःकाल सूर्योदय से एक पहर : पहले अन्धेरे २: साधुयों के यहां स्त्रियां और साध्वियों के पास पुरुष प्रा सकते हैं । स्थानकवासी साधु-साध्वी जब एक ग्राम से विहार करके. दूसरे ग्राम को जाते हैं, तब उनके साथ मार्ग में आहार -पानी के कष्ट को दूर करने के लिए कोई गृहस्थ नहीं रहता, रास्ता बताने के लिए या कभी कुछ श्रावक प्रसंगवश कुछ एक गांव तक पहुंचाने या लेने के लिए साथ हो लेते हैं, तो उस समय उनके द्वारा बनाया " हुआ आहार- पानी साधु ग्रहण नहीं करते । ऐसा विधान है और उसे विधान के कारण ही साधुओं के साथ गृहस्थों के चलने की परम्परा नहीं रहती । क्योंकि श्रावक लोग प्रायः आहार- पानी वह राने (देने) का लाभ उठाने की लालसा से हो साथ चलते हैं । वह लालसा जब पूरी नहीं होती तो वे अधिक लम्बे समय तक साथ नहीं रहते । अतः साधुनों के स्वतन्त्र एवं प्रतिबन्ध रूप से विहरण करने में किसी तरह की बाधा नहीं पड़ती।
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