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प्रश्नों के उत्तर . . विहार. में साथ रहने वाले व्यक्तियों का ग्राहार-पानी लेने . . . के निषेध के पीछे स्थानकवासी आचार्यों का एक ही दृष्टिकोण रहा
हैं कि साधु को आहारादि लेने में कोई दोष न लगें । यह निर्दोष
आहार लेने की मर्यादा तो साधु जिस गांव में जाए उस गांव के घरों से आहार-पानी ग्रहण करने से ही सु-व्यवस्थित रह सकती: है। यदि साथ के व्यक्तियों से आहार-पानी लेते हैं, तो वे जो भोजन बनाएंगे उस में साधु का निमित्त पाए बिना नहीं रहेगा, क्योंकि उन्हें यह निश्चित पता रहता है कि साधुओं को हमारे पास से भोजन लेना है, इसलिए उसमें साधुओं का भाव या जाना स्वाभाविक है। इसी दृष्टि को सामने रख कर साधु के लिए रास्ते में सेवा करने वाले श्रावक या रास्ता बताने वाले व्यक्ति का आहार-.. पानी भी लेने का निषेध किया है। इस से साधु को गांव में निर्दोष याहार मिल जाता है और गांव के लोगों के संपर्क से उन में दानः . देने को प्रवृत्ति जगती है एवं धर्म-प्रेम पैदा होता है। इसके अतिरिक्त, मुनिराज किसी ग्राम या शहर में चातुर्मासार्थ या खुले काल.. ठहरे हुए हों और वाहिर के श्रावक दर्शनार्थ आए हों तो उन के. घरं का आहार-पानो. तीन दिनों तक ग्रहण नहीं किया जाता। किन्तु तेरहपन्थी साधुओं में खास कर आचार्य श्री के साथ विहार में. काफी संख्या में गृहस्थ रहते हैं । वे लोग मार्ग में या ठहरने के. स्थान पर जो भोजन बनाते हैं, उन में से तेरहपन्थी साधु ग्रहण . कर लेते हैं। .:
... स्थानकवासी साधु धोवन-का पानी या गरम किया हुअा . ... "पानी ग्रहण करते हैं और एक बार जो पानी अचित्त हो जाता है. .. ... उसे पांच प्रहर के बाद पुनः सचित्त हो जाने की मान्यता रखते हैं, . . . . किन्तु तेरहपन्थी साधुओं का इस सम्बन्ध में एक निराला सिद्धान्त...