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पन्द्रहवां अध्याय
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करने का प्रयास किया है। लौकिक पर्वो को भी अपने ढंग से अलौकिक पर्व बनाने पर अधिक वल दिया है । उदाहरणार्थ, विजयदशमी को ही लें । विजयदशमी के राम और रावण ये दो प्रधान पात्र हैं। राम सदाचारी थे और रावण दुराचारी । श्रतः जैनदर्शन ने राम को सदाचार का प्रतीक माना है, और रावण को दुराचार का। राम और रावण के युद्ध का अर्थ है - सदाचार और दुराचार का युद्ध | रावण की पराजय को दुराचार की पराजय का प्रतीक माना है और राम की विजय को सदाचार की विजय का । इस प्रकार जैन दर्शन ने विजय दशमी द्वारा सदाचार को प्रसादान्त श्रीर दुराचार को विषादान्त मान कर मानव को सदाचारी बनने की आदर्श प्रेरणा को है । यहो विजयदशमी को आध्यात्मिकता है ।
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ऐसी ही स्थिति महावीर जयन्ती पर्व की है। महावीर जन्म के उपलक्ष्य में बच्चे, युवक और वृद्ध सभी जैन व्यक्ति ग्रामोद-प्रमोद से फूले नहीं समाते, सभी सुन्दर और नवीन वेषभूषा से अपने को विभूषित करते हैं । कहीं नगर - कीर्त्तन का कार्यक्रम चलता है, कहीं हसा सम्मेलन, कहीं कवि सम्मेलन और कहीं महिला सम्मेलन का आयोजन होता है, कहीं-कहीं व्याख्यानों और ग्राख्यानों द्वारा महावीर - जीवन पर प्रकाश डाला जाता है । इस तरह महावीरजयन्ती द्वारा खूब मनोरंजन चलता है, किन्तु अध्यात्मवादी और निवृत्ति - प्रधान जैन दर्शन इस उत्सव के बाह्य रूप को इतना महत्त्व नहीं देता, जितना कि उसके अन्तरंग रूप को । वह तो इस पर्व से अन्तर्जगत को विकसित, निर्विकार तथा कल्याणोन्मूख बनाने की प्रेरणा लेने को कहता है ! भगवान महावीर की शिक्षाओं तथा उनके उपदेशों को जीवन में लाकर मानव को अपने में महावीरत्व प्रकट कर लेने के लिए अधिक बल देता है ।
इस प्रकार जैनदर्शन लोकिक पर्वों द्वारा मानव को जीवन -