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.. चतुर्दश अध्याय
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इसलिए मरते हुए जीव को बचाने में अन्तरायं कर्म का वन्ध या . पाप नहीं समझना चाहिए, प्रत्युत उससे धर्म होता है । यही जानना चाहिए । अनुकम्पा की भावना से किसी जीव को बचाना सवया निर्वद्य कार्य है, प्रात्मकल्याण तथा मोक्ष-मन्दिर में जाने के लिए वह पावन सोपान है । इस के अतिरिक्त, रक्षित व्यक्ति की अच्छी या बुरी प्रवृत्तियों की जवाबदारी रक्षक पर नहीं आ सकती। ... उन का उत्तरादायित्व तो कर्ता पर ही रहता है । भगवतो सूत्र शतक १७ उद्देशकः ४ में लिखा है कि स्वकृत कर्म ही फल देता है, परकृत कर्म नहीं । कर्म पिता करें और उसका दण्ड पुत्र भुगते, या पुत्र किसी की हत्या कर दे और फांसी पिता को दे दी जाए, ऐसा कोई सिद्धान्त नहीं है। वस्तुतः अपना किया हुआ कर्म ही मनुष्य. को सुख या दुःख दिया करता है। दूसरे व्यक्ति के शुभाशुभ कर्म के फल के साथ उस का कोई सम्बन्ध नहीं है। - इस प्रकार अन्य भी अनेकों मतभेद गुरु और शिष्य के मध्य में जन्म ले चुके थे, तथापि परम हितैषी गुरुदेव पूज्य श्री रघुनाथ जी महाराज स्नेहपूर्वक अपने शिष्य श्री भीषण जो को समझाया करते थे, अयथार्थ धारणा छोड़ने के लिए उन्हें पौनः-पुन्येन कहा करते थे, पर श्री भीपण जी के गले एक भी वात नहीं उतरती थी, वे अपनी धुन के पक्के थे, गुरुदेव के अनेक वार समझाने पर । भी वे अपना दुराग्रह छोड़ने को तैयार न थे । तथापि गुरुदेव पाशावादी थे, और उन्होंने शिष्य को समझाने का यत्न चालू ही ..
रखा। . . . ... ... ... ............. . . पूज्य श्री रघुनाथ जी महाराज जिस जगह ठहरे हुए थे, एक. बार उस स्थान में एक कुतिया ने बच्चे दे दिए। पूज्य श्री जब .... शौच जाने लगे तो पीछे श्री भीषण जी को छोड़ गए और उन को.