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प्रश्नों के उत्तर
ऋरण का भुगतान कर रहा है । इसलिए साधु रूपी पिता कमाई रूप पुत्र को रोकेगा और कहेगा- अपने सिर पर कर्म रूप ऋण क्यों चढ़ा रहा है ? कर्म रूप ऋण के कारण तुझे दुर्गतियों में दुःख उठाना पड़ेगा । अतः सिर पर कर्म का कर्जा मंत चढ़ा, परन्तु बकरे को बचाने के लिए साधु रूपी पिता कुछ नहीं कहेगा, क्योंकि वह तो मर कर अपने कर्म ऋण को चुका रहा है। उस को कर्म ऋण चुकाने से वह क्यों रोके ?
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है।
साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति तेरहपन्यी लोगों की इस युक्ति में फंस जाता है और समझ लेता है कि मरते हुए या कष्ट पा रहे जीव को सहायता देना ठीक नहीं है । किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । सब से पहले यह देखना है कि क्या प्रज्ञान- पूर्वक कष्ट सहने या मरने से भी कर्म की सकाम [ कर्मनाश की इच्छा से किए • गए तप द्वारा होने वाली ] निर्जरा होती है ? क्या चिल्लाते या रुंदन करते, हाय-वांय करते तथा दुःखी होते हुए मरने या कष्ट सहने से कर्म का ऋण चुकता है ? इन प्रश्नों पर शास्त्रीय दृष्टि से विचार करने पर मालूम होगा कि ऐसा कदापि नहीं हो सकता । यदि इस प्रकार के मरण या कष्ट सहन करने से कर्म का कर्ज़ा चुकता हो तो फिर संयम का पालन और पण्डित - मररंग (सांधुमरण) व्यर्थ हो जाएंगे। इस के अलावा, संयम लेने या पण्डित - मरण से मरने की कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी और धर्मध्यान और शुक्लध्यान भी निरर्थक सिद्ध होगा ।
जैन - शास्त्रों ने प्रार्त चोर रौद्र ध्यान को कर्म-बन्ध का का-रण माना है । शोक, चिन्ता से उत्पन्न चित्त वृत्ति प्रतिध्यान है । कर प्राय से उत्पन्न हुई चित्त- विचाररणा रौद्रध्यान कहलाती है । कसाई आदि द्वारा जो जीव मारा जा रहा है वह परवशता से
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