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चतुर्दश अध्याय
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खता है । वे नाना फूल उद्यान की शोभा के घातक या वाधक नहीं हैं, प्रत्युत साधक हैं । पर यदि वे आपस में लड़ने लग जाएं केवल अपने को सुरक्षित रखकर शेष पुष्पों को समाप्त कर देना चाहें तो क्या होगा ? यही कि उद्यान का सत्यानाश हो जाएगा । यही दशा विचारों के उद्यान की है । विचारों के बाग़ में नानाविध मान्यतात्रों के पुष्प खिल रहे हैं, इससे उस की शोभा हैं, वे सब प्रतिभाव्यायाम के चमत्कार हैं, वे भले ही परस्पर विरोधी विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं तथापि उनको परस्पर लड़ना नहीं चाहिए, बल्कि उनको उद्यान के पुष्पों की भांति स्वस्थ रहना चाहिए । इस प्रकार मानव यदि अपने को उदार और विराट् बनाले तो कभी वैरविरोध और ईर्षा द्व ेष को आग सुलग नहीं सकती । और विचारगत अनेकता रहने पर भी शान्ति कायम रह सकती है ।
प्रश्न - तेरहपंथ का प्रारम्भ कब और कहां पर हुआ ? तथा किस ने किया ?
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उत्तर - तेरहपन्थ के प्रवर्तक श्री भीषण जी थे । इनका जन्म विक्रम सम्वत् १७८३ कण्टालिया (जोधपुर) में माता श्री दीपा जी के उदर से हुआ था । पिता का नाम बल्लू था । ग्रपने भर यौवन में यह घर-बार को छोड़ कर विक्रम सम्वत् १८०८ में स्थानकवासी परम्परा के महामान्य पूज्य श्री रघुनाथ जी महाराज के चरणों में दीक्षित हो गए थे । इन्हीं के पास भोषरण जी ने जैन शास्त्रों का अध्ययन किया। इन की प्रतिभा विलक्षण थी किन्तु कुछ स्वछंदता का उस में पुट था। श्रद्धा ने आग्रह का स्थान ले लिया था । यही कारण था कि अपने विचार को ही अन्तिम निर्णय समझने में इन्होंने कभी संकोच नहीं कियाः ।