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चतर्दश अध्याय
आई है। अतः तुम्हें दया भगवती की. इस तरह निर्मम हत्या नहीं करनी चाहिए। साधु के : चोले में राक्षसी वृत्ति को. मत लाओ। इस प्रकार दया के सम्बन्ध में गुरुदेव ने अपने शिष्य को बहत । समझाया। लगभग दो वर्ष तक इसी तरह गुरुदेव शिष्य को दयाधर्म का महासत्य समझाते रहे किन्तु भीषण जी अपनी भीषणता. छोड़ने को तैयार न हुए । गुरुदेव के अनुपम उपदेशों का इन पर किञ्चित् भी प्रभाव नहीं पड़ा । तब निराश होकर विक्रम सम्वत् . १८१७ चैत्र शुक्ला नवमी शुक्रवार के दिन नगड़ी (जोधपुर) में गुरुदेव पूज्य श्री रघुनाथ जी महाराज ने भीषण जी को अपने संघ से पृथक् कर दिया। साथ में भीषण जी के विचारों से जो अन्य साधु सहमत थे उन को भी संघ से बहिष्कृत कर दिया । भीषण जी को मिलाकर ये सभी साधु १३ हो गए थे । इन्होंने अपना पहला चातुर्मास केलवाँ ग्राम में किया और विक्रम सम्वत् १८१७ प्राषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन वहां पर अर्थात् उदयपुर (राजस्थान) के अन्तर्गत केलवा नामक ग्राम में तेरहपन्थ को चालू किया। . प्रश्न -भीषण जी द्वारा संस्थापित तथा सम्प्रसारित .. सम्प्रदाय का नाम 'तेरह-पन्थ' क्यों रखा गया ? :..... ....... उत्तर-श्री भीषण जी अपने साथियों सहित विचार करके जोधपुर पहुंचे, वहां इन्हें १३ श्रावकों का सहयोग मिल गया। इस प्रकार ये १३ साधु और तेरह ही श्रावक एक दुकान पर बैठे थे। अचानक उस समय वहीं के दीवान श्री फतेह सिंह जी सिंघी उधर से. या निकले और विस्मित हो कर पूछने लगे कि तुम स्थानक को छोड़ कर यहां क्यों वैठे हो ? तव श्रावकों ने पूज्य श्री रघुनाथ जी महाराज द्वारा भीषण जी तथा इनके विचारों के अन्य साधुओं