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प्रश्नों के उत्तर
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शिष्य की स्वछंदता गुरु को अखरने लगी । कुछ-कुछ मत भेद भी रहने लगा। धीरे-धीरे यह मतभेद परिपक्व हो गया । परिणाम यह हुआ कि गुरु-शिष्य के दरमियान शास्त्रीय तथ्यों को लेकर काफी विरोध रहने लगा । गुरु- फरमाया करते थे कि कोई जीव किसी को मारता हो तो उसे छुड़ाने में धर्म होता है, किन्तु शिष्य इसको अन्तराय मानता था । शिष्य का कहना था कि जिस जीव को छुड़ाया जाएगा, उस के कर्मों का जो भुगतान हो रहा है, उस में विघ्त पड़ेगा। इसके अलावा, छुड़ाया हुआ जीव हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन यादि जो कुछ भी पाप कर्म करेगा, उसका कारण उसे छुड़ाने वाला होगा। अतः मरते जीव को बचाने की कोई आवश्यकता नहीं है। शिष्य की इस शास्त्र - विरुद्ध विचारधारा से गुरुदेव सहमत नहीं थे । गुरुदेव का विश्वास था कि जीव-रक्षा मनुष्य का धर्म है । यह सर्वोत्तम कार्य है, और यह पुनीत कार्य जीव के शुभ परिणामों द्वारा सम्पन्न होता है । अतः इस कार्य से पाप कर्म का वन्ध नहीं हो सकता ।
पाप का बन्ध श्रार्त और रौद्र ध्यान से होता है। आर्त, रौद्र ही जीवन का पतन किया करते हैं । वकरा, मुर्गा आदि जिन जीवों पर वलात्कार किया जाता है, उन्हें जो मारणान्तिक- कष्ट दिया जाता है, उस से उन का ग्रार्त और रोद्र ध्यान का ग्राना स्वाभाविक है । तथा इन दुर्ध्यानों से कर्म-बन्ध का होना भी स्वाभाविक ही है । प्रार्त- रौद्र ध्यान नरकादि दुर्गति में जाने के कारग होते हैं । मरते हुए ऐसे जीवों को जो बचाया जाता है उस से उनका नुकसान नहीं, बल्कि उन्हें शान्ति प्राप्त होती है । शान्तिलाभ से उन्हें ग्रार्त- रौद्र ध्यान से छुटकारा मिलता है। प्रार्त-रौद्र से बचाने पर होने वाला उन का दुर्गति-वन्ध भी रुक जाता है ।
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