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चतुर्दश अध्याय
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नहीं हो सकता कि रागद्वेष भी हमारे साथ चलते जाएं और हमारा " जीवन कल्याण के निकट भी पहुंच जाए। रागद्वष की प्रांधियों में .
वीतरागता का दीपक कभी जगमगा नहीं सकता। अतः वीतरागता -- की प्राप्ति के लिए रागद्वेष को छोड़ना ही होता है। . . . . .
. स्थानकवासी यदि दोषी है, दोष की आग में जल रहा है, तो उसका कभी कल्याण नहीं हो सकता, चाहे वह मुखवस्त्रिका .. बांधता है, और ३२ आगमों का विश्वासी है। ऊपर का क्रिया. काण्ड कितना भी अच्छा हो, किन्तु यदि वह द्वष से प्यार करता ____ तो उस का कभी उद्धार नहीं हो सकता। इसी प्रकार एक श्वेता. म्बर मूतिपूजक यदि मन्दिर में जाकर पूजा करता है, प्रतिमाओं ..
को स्नान कराता है, उन्हें तिलक लगाता है, टल्लियां बजाता है, ...
पाषाणं की प्रतिमा पर मस्तक रगड़-रगड़ कर मस्तक पर निशान . . बना लेता हैं, किन्तु उस का अन्तःकरण कामनाओं और वासनाओं .. की अंन्ध गलियों में झटक रहा है, लोगों के साथ विश्वासघात ..
करता है, जो सोचता है, वह कहता नहीं है, जो कहता है, वह क- . . . रता नहीं है, और जो करता है, उसे उसी रूप में बतलाता नहीं
है, सदा छल कपट के जाल बुनता रहता है, ईर्षा-द्वेष, वैर-विरोध की आग में जलता, सड़ता तथा कुड़ता रहता है, तो उसका कभी . कल्याण नहीं हो सकता । वस्तुतः आत्म-कल्याण के लिए जीवन के विकारों को शान्त करने की और वीतरागता के महापथ पर चलने की आवश्यकता होती है। अतः जहां विचारों में कहीं मतभेद हो तो उसे शान्ति से सहन करना चाहिए । निन्दा, चुगली से दूर हट कर अपने प्रात्म-मन्दिर में ज्ञान तथा सहिष्णुता के दीपक जगा कर आचरण के झाड़ द्वारा उसमें स्थित विकारों के कूड़े-करकट को निकाल कर फेंक देना चाहिए। जीवन के भविष्य को .