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चतुदश अध्याय
पूजक परम्परा तथा दिगम्बर परम्परा ये तीनों परम्पराएं कहां तक एक दूसरे के निकट हैं ? ..
उत्तर-~-उपर्युक्त तीनों परम्परागों में कई एक मतभेद होने पर भी अनेकों मन्तव्यों में तोनों को एकता भी है। जैन धर्म के
इन विभिन्न सम्प्रदायों में जो कुछ.भिन्नता पाई भी जाती है। वह - अधिकांश में व्यावहारिक दृष्टि से हो पाई जाती है, तात्त्विक दृष्टि
से नहीं। क्योंकि सभी जैन परम्पराएं, अहिंसावाद, अनेकान्तवाद, अपरिग्रहवाद, कर्मवाद तथा प्रात्मवाद को स्वीकार करती हैं, आत्मा, परमात्मा, मोक्ष, संसारः आदि. के स्वरूप में कोई मतभेद. नहीं है। नवतत्त्वों का स्वरूप सभी एक सा मानते हैं, कुछ एक
परिभाषाओं को छोड़कर कर्म-सिद्धान्त की मान्यता में भी कोई - मार्मिक भेंद्र नहीं हैं। श्राद्ध, पितृतर्पण, अपुत्रस्य गतिर्नाप्ति (पुत्र
होन की गति नहीं होतो), ईश्वर जगत का निर्माता है, भाग्य का .. : विधाता है, कर्म. फल का. प्रदाता है, तथा अवतार धारण करके ..
मनुष्य और पशु के रूप में अवतरित होता है, पाषाण, रजत, सुवर्ण आदि की मूर्तियों में भगवान विराजमान रहता है, भूमि पर प्राण छोड़े विना. मनुष्य की गति नहीं होती हैं, पृथ्वी वैल के सींगों पर अवस्थित है, या शेषनाग में अपने फरण' पर उठा रखी हैं; वैल जब सींग बदलता है, तो भूचाल आता है, इस प्रकार की अन्य भी अनेकों वैदिक परम्परा. सम्मत मान्यताओं पर जैन-धर्म की तीनों सम्प्रदाय कोई आस्था तथा श्रद्धा नहीं रखती हैं। इस तरह तीनों परम्पराओं में तात्त्विक दृष्टि से कोई. विशेष मतभेद नहीं है..
इन सब बातों में तीनों एकमत हैं। ....... प्रश्न---जैन-धर्म को इन तीनों परम्पराओं में मतभेद