________________
चतुर्दश अध्याय
ELE
है, उधर के सभी प्रामाणिक और आहार, विचार आदि की दृष्टि से सात्त्विक घरों से भिक्षा प्राप्त करता है । किसी के यहां अवश्य जाना है और बिना कारण किसी के यहां नहीं जाना है; ऐसा उस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता ।
श्री दशवैकालिक आदि सूत्रों में ऐसा लिखा है कि भिक्षु स्वादपूर्त्यर्थ भिक्षा के समय धनिक परिवारों की ही खोज में न रहे, वल्कि मार्ग में चलते हुए रास्ते में जो भी घर आजाए. उसमें बिना किसी भेद-भाव के उसे भिक्षा को जाना चाहिए, और अपनी विधि के अनुसार जैसा सुन्दर अथवा असुन्दर किन्तु प्रकृति के अनुकूल भोजन मिले, ग्रहरण करना चाहिए। भोजन के सम्बन्ध में स्वास्थ्य का ध्यान रखना तो आवश्यक है किन्तु स्वाद का ध्यान कतई नहीं रखना चाहिए। भगवान महावीर ने भिक्षा - सम्बन्धी प्रत्येक नियम मानव जीवन की दुर्बलतानों को लक्ष्य में रख कर कि जिससे भिक्षा में किसी भी प्रकार की दुर्बलता सकें, और भिक्षा का प्रदर्श भी कलंकित न हो ।
स्थानकवासी परम्परा भिक्षा-जीवी साधु के लिए सामुदानिक भिक्षा ग्रहण करने का विधान करती है, उस का विश्वास है कि साधु को नियत घरों में ही भिक्षार्थ नहीं जाना चाहिए । अनियत और अनिश्चित घरों से ही उसे भिक्षा प्राप्त करनी चाहिए, किन्तु दिगम्बर परम्परा ऐसा स्वीकार नहीं करती । उसका विचार है कि आहार सम्बन्धी शुद्धि सामुदानिक भिक्षा में नहीं हो सकती । अतः अनियत घरों को बजाय नियत घरों में ही भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । इस सम्बन्ध में स्थानकवासी परम्परा का कहना है कि नियत घरों से आहार ग्रहण करने से ग्रासक्ति, लोलुपता, तथा रागद्वेष को प्रोत्साहन मिलता है, प्रधाकर्म ग्रादि भिक्षा- दोषों की
:
ऐसा बनाया है प्रवेश न कर
f