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चतुर्दश अध्याय
'सर्वप्रथम सिद्ध बनी" यह मान्यता स्थानकवासी परम्परा की है किन्तु दिगम्वर ऐसा नहीं मानते हैं । उनका विश्वास है कि नग्नत्व .. अंगीकार करने पर ही व्यक्ति साधुत्व को पा सकता है, अन्यथा नहीं । और नारी का नग्न रहना इनके यहाँ सर्वथा निषिद्ध है। ऐसी दशा में नारी साधु-जीवन में प्रविष्ट नहीं हो सकती : और . साधुत्व प्राप्त किए विना केवलज्ञान या सिद्धत्व की प्राप्ति सर्वथा असम्भव है । अतः दिगम्बर परम्परा में मरुदेवी माता का हाथी के हौदे पर मुक्त होना सर्वथा अमान्य है। इसके विपरीत स्थान- . कवासी परम्परा उक्त पद्धति से मरुदेवी.की मुक्ति को सहर्ष स्त्रीकार करती है। इस का कहना है कि साधुजीवन के लिए निष्परिन ग्रही होना आवश्यक है। निष्परिग्रही अवस्था मूर्छाभाव छोड़ने से प्राप्त होती है । मूर्छा का परित्याग नर और नारी दोनों ही कर सकते हैं । जव नारी मूर्छा का, आसक्ति का सर्वथा परित्याग कर देती है, सर्प जैसे कांचली को त्याग कर फिर उस की ओर देखता भी नहीं है । वैसे ही नारी-जीवन जब संसार के प्रलोभनों से मुह फेर लेता है, सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की : सम्यक् आराधना द्वारा आत्मा को निष्कर्म बना लेता है, तब उसका मुक्त होना सर्वथा सत्य है । उस में संसार की कोई शक्ति प्रतिववक नहीं बन सकती। वस्तुस्थिति तो यह है कि मुक्ति न पुरुष वेष को मिलती है, न नारीवेष को। मुक्ति की प्राप्ति के लिए अवेदी होना आवश्यक है। वेद तीन होते हैं-स्त्रो वेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । मैथुन करने की अभिलाषा का मार्ग वेद है । जैसे पित्त के प्रभाव से मधुर पदार्थ ग्रहण करने की रुचि होती है, उसी प्रकार स्त्री को पुरुष के साथ रमण करने की जो इच्छा होती . है; वह स्त्रीवेद है । जैसे कफ़ के प्रभाव से खट्टे पदार्थ की रुवि